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विश्व नृत्य दिवस पर स्वरांगी साने की कविताएँ

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चित्र इंटरनेट से साभार 


पुणे में रहने वालीं स्वरांगी सानेकला, संगीत, नृत्य और साहित्य में समान अभिरुचि रखती हैं. आज विश्व नृत्य दिवसपर उनकी इन कविताओं से गुज़रते हुए आप न नृत्य और उसकी भंगिमाओं के बहाने एक नृत्यांगना के जीवन में भी प्रवेश करते हैं. समजैसी कविता जीवन की जटिलताओं के बीच ठहरने के लिए किसी सम की तलाश की एक अनूठी व्यंजना रचती है. 

नृत्य के नायिका भेद के लिहाज़ से आठ खण्डों में बंटी उनकी लम्बी कविता स्त्री जीवन के तमाम रंगों के कभी चमकीले तो कभी फ़ीके अक्सों से बनी है. इस तरह ये हिंदी कविता के स्त्री पक्ष को एक और ज़रूरी रंग देती हैं, ताब देती हैं. मेरे देखे इधर  नृत्य को केंद्र में रख कर लिखीं ये हिंदी की  इकलौती कविताएँ हैं. उम्मीद है पाठक इन्हें पढ़ते हुए एक अलग भावजगत तक जा पाएंगे. असुविधा पर स्वरांगी जी का स्वागत और उम्मीद कि आगे भी उनका सहयोग मिलता रहेगा.


ग्रीन रूम


केवल तैयार होने 
के लिए बना था 
ग्रीन रूम
कि 
मंच पर जाते ही 
परे रख सके अपने आप को।

2
रोशनी ही रोशनी 
हर कोण से आती हुई
ताकि ठीक से 
देख सके
वो अपना रेशा-रेशा
दबा सके सारा द्वंद्व
भीतर ही भीतर।

3
एक बाल 
निकल रहा था चोटी से बाहर
अभी भी दिख रहा था आँखों के नीचे 
कालापन
और
लाली कुछ कम लगी थी
होठों पर

ये आईना क्या दिखा रहा था उसे
और वो
क्या देखना चाह रही थी
न आईने को पता थी 
इसके मन की बात
न उसे आईने की।
------

नर्तकी                                      

वंदन करते हुए
आएगी नर्तकी
उसके बाद करेगी आमद
ठीक समय पर पढ़ेगी बोलों को
निभाएगी मात्राओं में
वो बेताली नहीं होगी
वो शब्दों के साथ चलेगी
तालबद्ध नाचेगी
उसकी भाव-भंगिमाएँ
कसक-मसक
सब होंगे अविश्वसनीय तरीके से सटीक

करेगी लयकारी
अंगुली के पोर से दिखाएगी हाव
आँखों की कोर से दिखाएगी भाव
उसका रियाज़
उसके नृत्य में दिखेगा साफ़-साफ
कितनी मात्रा के बाद गर्दन को कितना घुमाना है
यह उसे कंठस्थ होगा
वो भूलकर भी नहीं करेगी कोई गलती
बजते रहेंगे उसके घुँघरू
जब करेगी वो ठुमरी
तो उसके साथ 
आप भी गुनगुनाएँगे
                                ‘हमरी अटरिया पर आओ बलमवा'

उसकी प्रस्तुति में हर वो बात होगी 
जो आप चाहेंगे देखना
ठाह से शुरू कर 
वो द्रुत तक पहुँचेगी
लय बढ़ेगी
चरम पर होगा उसका नर्तन 
वह करेगी तांडव
करेगी लास्य
नटवरी करेगी
और शुद्ध नर्तन भी
आप चमत्कृत होंगे
वो हतप्रभ करेगी
तालियों की गड़गड़ाहट में 
वो थमेगी सम पर
जाएगी विंग्स में
लौटेगी फिर से अपने अँधेरे में।
---

सम

सम तक पहुँचना
कितना ज़रूरी होता है   

घटाते-बढ़ाते हुए मात्रा   
गुज़रते हुए कई तिहाइयों से 
करते हुए समझौते   
मानते हुए पाबंदियाँ  
हम बस चाहते हैं एक सम                                  

सम से चलकर    
लौट आना होता है  
हमें सम पर ही   
बिताने होते हैं कई अंतराल  
झेलना होता है एकाकीपन 
छोड़नी होती है जगह                                   देना होता है दम’   
छोटे-बड़े हर टुकड़े को 
कहीं लाना होता है    
हर ताल की पकड़नी होती है सम  

सम नहीं होती   
तो कुछ और होता     
बँधना तो फिर भी पड़ता ही हमें                                                                                    यह सम है      
 जहाँ पूरा होता है आवर्तन ।                     


अष्टनायिका  
(शास्त्रीय नृत्य में अवस्था के विचार से नायिका के आठ भेद)
--------------------

प्रोषितपतिका 

तुम चले गए हो 
यह कहकर कि लौटोगे

उसने भी माना 
यही कि 
जाने के साथ 
जुड़ा होता है लौटना। 
--

खंडिता

तुम्हारे बालों की सफ़ेदी
और गर्दन पर कुछ सलवटें
पर समझ नहीं पा रही
तुम्हारी आँखों की चमक में
किसी और की लौ क्यों है भला?
-

कलहान्तरिता

झगड़ ही ली थी
तो दहल गई थी पृथ्वी।

तुम पर क्या बीती होगी
यह सोच 
दहल रही है वो।

जब आग उगली थी
तो इतना ही जाना था
कि भस्म कर देना है सब।

सब भस्म हो गया
बचा रह गया प्यार
जो 
फिर-फिर उड़ान भर रहा है
 भस्म से 
फ़िनिक्स-सा।
--

विप्रलब्धा

तुमने कहा था 
आज मिलेंगे
मिलेंगे ऐसे 
जैसे कभी न मिला कोई।
वो पहुँच गई मिलने
अपने छोर को आसमान में समेटे
अपनी कौंध को 
बिजली में लपेटे।

वहाँ उस जगह
मिल गए
पृथ्वी
गगन
नीर
पवन
अग्निदेव भी
नहीं मिले तो बस
इन पंच तत्वों से बने तुम!
--

उत्कंठिता

तुम आओगे
तो सबसे पहले क्या पूछोगे
पूछोगे उसका हाल
या अपने न आने के 
कारण गिना दोगे
पर 
जब तुम आ जाओगे 
तो उन कारणों से क्या
जो तुम्हें रोके थे।

वो 
सोच रही है
तुम देखोगे
उन अनगिनत भावों को 
जो तुम्हारे आने से 
उमड़े थे मन में
जो तुम आओगे ।
---

वासकसज्जा 

केतकीगुलाबजूही
कल तक ये केवल नाम थे
आज उनकी महक खींच रही है

तुम आने वाले हो
हुलस-हुलस कर 
बता रही है घड़ी की सुइयाँ
आओगे न
सैकड़ों बार पूछ रहा है मन
तुम ही जवाब दो
क्या कहूँ उसको।
--

 स्वाधीनपतिका

 रोटियाँ बनानी हैं
तुम गूंथ देते हो 
उसके बाल।
वो कहती है
अरे समझ नहीं आ रहा क्या
पड़ा है चौका-बर्तन
तुम कड़छी
और डोलची 
बन जाते हो

उसकी हँसी से 
तुम दोहरे होते जाते हो
वो कहती है
जाओ न!

तुम कहते हो
जाओ न !
---

अभिसारिका

यदि दिन हुआ
तो उजले वस्त्रों में जाएगी
रात में पहन लेगी श्याम रंग

वो पूरे श्रृंगार के साथ जाएगी
ऋतुओं में वसंत महकेगा
मौसम में 
सावन गाएगा 
उसके उल्लास का पर्व तुम्हारा अभिसार
और 
उसका अधिकार होगा।

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             जन्म ग्वालियर में, शिक्षा इंदौर में और कार्यक्षेत्र पुणे
कार्यक्षेत्रः नृत्य, कविता, पत्रकारिता, अभिनय, साहित्य-संस्कृति-कला समीक्षा, आकाशवाणी पर वार्ता और काव्यपाठ. 
प्रकाशित कृति:  “शहर की छोटी-सी छत पर” 2002 में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद, भोपाल द्वारा स्वीकृत अनुदान से प्रकाशित और म.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के कार्यक्रम में म.प्र. के महामहिम राज्यपाल द्वारा सम्मानित.
कार्यानुभव:  इंदौर से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र ‘प्रभातकिरण’ में स्तंभलेखन, औरंगाबाद से प्रकाशित पत्र ‘लोकमत समाचार’ में रिपोर्टर, इंदौर से प्रकाशित ‘दैनिक भास्कर’ में कला समीक्षक/ नगर रिपोर्टर, पुणे से प्रकाशित ‘आज का आनंद’ में सहायक संपादक और पुणे के लोकमत समाचार में वरिष्ठ उप संपादक
शिक्षा: देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर से एम. ए. (कथक) (स्वर्णपदक विजेता), बी.ए. (अंग्रेज़ी साहित्य) प्रथम श्रेणी  और डिप्लोमा इन बिज़नेस इंग्लिश
संपर्क: ए-2/504, अटरिया होम्स, आर. के. पुरम् के निकट, रोड नं. 13, टिंगरे नगर, मुंजबा बस्ती के पास, धानोरी, पुणे-411015
ई-मेलswaraangisane@gmail.com / मोबाइल : 09850804068

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