अमितकी कवितायें आप पहले भी असुविधा पर पढ़ चुके हैं. इन दिनों वह मुंबई में है और फिल्म लेखन के क्षेत्र में काम कर रहा है. अपनी शुरूआती कविताओं में उसने जो उम्मीदें जगाई थीं, इन कविताओं को पढ़ते हुए वह उन्हें पूरा करने की दिशा में मेहनत करता दीखता है. इन कविताओं में बुनावट तो सघन हुई ही है, साथ में वह जिस तरह रोज़ ब रोज़ के जीवन से लेकर इतिहास, विज्ञान और तकनीक से अपने बिम्ब लेकर आता है और जिस तरह उन सबको एक मानीखेज़ वाक्य में तब्दील कर देता है, वह एक कवि के रूप में उसकी ताक़त का एहसास कराता है. सिनेमा से प्रत्यक्ष संपर्क ने भी उसकी भाषा और दृष्टि को संपन्न किया है.
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पेंटिंग यहाँ से साभार |
भ्रम
झील की सतह पर बर्फ की पतली सी जमी हुई परत…
सतह के नीचे से मुझे घूरती एक धुंधली देह…
हम दोनों एक साथ एक ही बिंदु पर सतह को छूते हैं
हमारी लालसाओं के ह्रदय सम्पाती हैं सतह के उस एक बिंदु पर
जिस पर हमारे अचरज मछली हो तड़प रहे हैं.
सतह,
जोएक ठोस भ्रम है
हम दो कैदी
एक-दूजे के भ्रम में
पानी पर फेंके गये पत्थर की तरह
मैं दो बार खुद से टकराता हूँ
तीसरी आवृत्ति पर
भ्रम की ख़ालमें उतर जाता हूँ
पृथ्वी पानी से भरी एक पारदर्शी गेंद है
जिसके केंद्र में है चांदी का दिल
मैं ज़िंदा आईने पर दौड़ता हूँ
अथक
विपथ
लथपथ...
परपृथ्वी गोल है
जीवन भी वैसा ही है
हर कदम पर हमारा अक्ष बदल रही है पृथ्वी
जीवन का आयतन पृथ्वी की त्रिज्या के सुदूर छोर पर टंगा है
इच्छाओं की त्वचा से बने थैले में
दिल पर दौड़ का कोई अंत नहीं
दिल का कोई अंत नहीं...
थक जाता हूँ
मैं रुकता हूँ,
झुकता हूँ,
और खुद की आँखों में आँखें डाल तोड़ डालता हूँ सारे सम्मोहन
तब
मैं देखता हूँ!
मैं घटनाओं को देखता हूँ
घटनाओं की श्रंखलाओं को देखता हूँ
ब्रह्माण्ड में गूंजते उनके अनंत विस्तार को देखता हूँ
विस्मित हो घूमता रहता हूँ अपनी धुरी पर
आश्चर्यचकित!
तब सुदूर ब्रह्माण्ड से आती रोशनी के महीन रेशों से
मुझमें जन्मता हैएक शब्द...
शब्द
गूँज रहे हैं सन्नाटे में
वे विरोध करते हैं
शब्द चुप्पी का विरोध करते हैं
वे शोर नहीं पर,
शांति हैं
शांति हैं हिंसा नहीं
वे संस्कृति हैं
शब्द कोलाहल का विरोध करते हैं
शब्द वृहस्पति का चौंतीसवाँ चंद्रमा हैं
भ्रम शनि का वलय
भ्रम की माला में मोती से भी सफ़ेद पिरोये गये हैं शब्द
हमारी आत्माओं का केंद्रबिंदु
संपाती है वैश्विक गुरुत्व केंद्र के
फिर भी
सबचैतन्य पिंड
परिक्रमारत अपने भ्रम की
बंधे उसके गुरुत्व बल से अपनी कक्षाओं के अनुशासन में;
और अवचेतन,
तोड़ने को उद्धृत
सब अभिकेंद्री बल
महज़ एक घटना की तरह घट जाते हैं हम वक़्त में
साथ ही
प्रक्रिया की तरह चलते रहते हैं अपनी चेतना के गुरुत्व केंद्र में
खोजते निहितार्थ
कौन यथार्थ?
पतन
इसे कहते हैं नरीमन पॉइंट
यहाँ से शुरू होता है मुंबई के गले का हार
जो चमचमायेगा रात भर
और सूरज को सौंप देगा अपनी दो मुट्ठी चकाचौंध
भोरकाल.
तीन मुंह वाली अनगिनत चट्टानें
झेलती रहेंगीं अरब सागर की सारी चोटें सीने पर
बरकरार रखने
अपनी हार की चमक
इसे रेसकोर्स कहते हैं!
अभी दबेगी बन्दूक की लिबलिबी
और दौड़ पड़ेंगे घोड़े जीतने के लिए.
आपने दांव खेला सात नंबर पर
नहीं पूछा मगर
कि जीतेगा कौन?
मैं? घोड़ा? या घुड़सवार?
हारेगा कौन?
मैं? घोड़ा? या घुड़सवार?
गर पूछते तो गूंजती एक आवाज़ टिकट पर छपे सात नम्बर से
पैसे की जीत!
पैसे की हार!
सात नम्बर हार गया!
डूबता हुआ सूरज
दो प्राचीन खम्भों के बीच बैठा है
अपनी कमज़ोर रीढ़ और पलकें झुकाए....
सामने हिलोरें मार रहा है गहरा नीला अलिखित संविधान
इसके गर्भ में नहीं पलते क्षमादान
बनना ही पड़ेगा गिलोटीन का ग्रास
यह छत्तीसवे माले की छत है
यहाँ हज़ारों लोग खड़े हैं आसमान ताकते, हाथ फैलाए
गोधूली की लालिमा चमक रही है चेहरों पर
कुछ उड़ जायेंगे पतंग की तरह...
यहाँ तक आएगा उनके लिए मुंबई का हार
कुछ जल जाएंगे पतंगे की तरह...
यहाँ तक आएगी उनके लिए मुंबई की हार
यह छत्तीसवे माले की छत है!
यहाँ हज़ारों लोग खड़े हैं अकेले
ज़िन्दगी?
बस यहाँ से छत्तीस माले दूर!
यहाँ से बस छत्त्तीस माले दूर!
देह का गिरना
धरा तक
आत्मा का पतन
चिरंतन
अन्य पुरुष
मैं चूमता हूँ प्रेयसी के होठों को
महसूसता हूँ प्रेम का आध्यात्म
आलिंगन करता हूँ
और उसी वक़्त
दस मीटर दूर
पार्क की एक बेंच पर बैठा देख रहा होता हूँ
इस प्रेम को निर्वात में स्थान घेरते हुए
मैं कहीं पहुँचने के लिए रेलवे स्टेशन पहुँचता हूँ
जहां भारतीय रेल मेरा स्वागत करती है
मैं ट्रेन के दो खुले दरवाजों के बीच खड़ा गति को महसूसता हूँ
(सद्गति?)
मेरे पास खड़ा एक जवान लड़का
गति से लड़ने दरवाजे से छलांग लगा देता है...
(दुर्गति?)
...उसका भी भारतीय रेल ने स्वागत किया था
उसने स्वागत अस्वीकार कर दिया.
गति से लड़कर
अब वह प्रथम पुरुष है.
जो चीख रहे हैं, रो रहे हैं, चिंतित हैं
वे सब द्वितीय पुरुष हैं
मैं अन्य पुरुष हूँ!
मैं टी.वी. देखता हूँ
लोग मर रहे हैं,
हत्याएं हैं,
बलात्कार हैं,
आन्दोलन हैं...
मैं खाना खाते हुए टी.वी. देखता हूँ.
लूट हैं,
भ्रष्टाचार है,
घोटाले हैं...
खाना ख़त्म हो जाता है
मैं टी.वी. बंद कर सो जाता हूँ.
मैं और टी.वी.
हम दोनों अन्य पुरुष हैं.
सड़क के बीचों-बीच खड़ा,
निश्चल तन-मन,
मैं एक साथ महसूसता हूँ विपरीत दिशाओं में सनसनाती गति को...
(असंगति?)
प्रथम या द्वितीय पुरुष होने की असीम संभावनाओं के बीच भी
मुझमें अंगड़ाई लेता समय उद्विग्न है!
मैं द्रव्यमान की अनुपस्तिथि नहीं
केंद्र के असीमित विस्तार के कारण व्योम हो रहा हूँ.
मुझमें एक कैनाइन जंगल विस्तृत होता जा रहा है
मैं उसकी उपस्तिथि को निरस्त करने में व्योम हो रहा हूँ
मेरा प्रथम पुरुष अपने माध्य के दोनों ओर “साइन वेव” में लहरा रहा है
वह आवृत्ति-आयाम में उलझा जा रहा है
मैं लहराते प्रथम पुरुष
और व्योम होते द्वितीय पुरुष की उपस्तिथि में
अमित उपमन्यु
पेशा सीखा इंजीनियर का. शौक थियेटर का. बीच में साफ्टबाल भी खेलते रहे राष्ट्रीय स्तर पर. जूनून फिल्मों का. की नेतागिरी भी. दख़ल से जुड़े. अब मुंबई में स्क्रिप्ट लिखते भी हैं और एक इंस्टीच्यूट में सिखाते भी हैं.
संपर्क - amit.reign.of.music@gmail.com
संपर्क - amit.reign.of.music@gmail.com