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फिल्मनामा : सोफी'ज़ च्वायस पर विजय शर्मा का आलेख

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1979 में विलियम स्टाइरेन के लिखे उपन्यास पर आधारित फिल्म सोफी'ज च्वायस 1982 में बनी थी. यह फिल्म सबसे अधिक याद की जाती है मेरिल स्ट्रीप की अदाकारी के लिए, जिन्हें इस फिल्म में अपनी भूमिका के लिए अकादमी का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार तो मिला ही, साथ ही वह हालीवुड के इतिहास की तीन सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओं में शामिल की जाती हैं. आज पढ़िए इसी फिल्म पर विजय शर्मा का आलेख :

सोफ़ीज़ च्वाइस: निर्णय का संताप

सार्त्र जब कहता है कि हमारे पास चुनाव का विकल्प है तो शायद उसने कभी भी ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं की होगी जिस यंत्रणापूर्ण स्थिति से सोफ़ी को गुजरना पड़ा है। विकल्प होने के बावजूद क्या व्यक्ति चुनाव कर सकता है? और जब चुनाव के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं होता है तो उस चुनाव का व्यक्ति के जीवन पर क्या असर पड़ता है? सोफ़ीज च्वाइस’ फ़िल्म का हर दृश्य अतीत में लिए गए निर्णयों से उत्पन्न यंत्रणा को, संतापपूर्ण जीवन की विडंबना को दिखाता है। सोफ़ी की वेदना को मूर्तिमान करता है। जब फ़िल्म समाप्त होती है तो दर्शक अवाक बैठा रह जाता है। बाद में भी जब वह इस फ़िल्म को याद करता है उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

फ़िल्म की शुरुआत बहुत रंगारंग तरीके से होती है। बाइस वर्षीय एक उभरता हुआ लेखक स्टिंगो ब्रुकलिन में रहने आता है। पूरी फ़िल्म उसी की दृष्टि से दिखाई गई है। वह जिस घर में रहता है उसी की ऊपरी मंजिल पर एक जोड़ा नाटकीय तरीके से बहुत शानो-शौकत और मौज-मस्ती के साथ रहता दीखता  है। सोफ़ी और नेथन दुनिया की परवाह किए बिना एक दूसरे को टूट कर प्यार करते हैं। विचित्र है उनका प्यार। कभी प्रेम की इंतहाँ दीखती है तो कभी नेथन सोफ़ी पर भयंकर अत्याचार करता नजर आता है। सोफ़ी नेथन के सामने बेबस और दबी-दबी नजर आती है। इस विचित्र प्रेम की वास्तविकता यह है कि दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते हैं। नेथन का स्वभाव पल में तोला, पल में माशा होता रहता है और सोफ़ी उसे मनाने, उसे शांत करने का हर संभव प्रयास करती रहती है। उनके विरोधाभासी व्यवहार से युवा स्टिंगो चकित होता है साथ ही उलझन में पड़ जाता है।

स्टिंगो शीघ्र उनकी ओर आकर्षित होता है और तीनों अभिन्न मित्र बन जाते हैं। स्टिंगो सोफ़ी के सौंदर्य और नेथन की प्रतिभा को प्रेम करने लगता है। पहले वह उनके जीवन को मात्र देखता रहता है मगर बहुत जल्द दर्शक से परिवर्तित हो कर उनकी जिंदगी का एक हिस्सा बन जाता है। वे दोनों भी उसे बहुत प्रेम करते हैं मगर नेथन कब क्या कर बैठेगा कहना मुश्किल है। स्टिंगो की भूमिका बड़ी विचित्र हो जाती है। धीरे-धीरे वह दोनों के जीवन की सच्चाई और रहस्यों को जान जाता है मगर कोशिश करके भी उनकी त्रासदी को रोक नहीं पाता है। इन सारे अनुभवों से वह कितना बनता, कितना टूटता है बताना कठिन है। हाँ वह एक अनुभवहीन युवा से एक परिपक्व पुरुष अवश्य बन जाता है। सोफ़ी और नेथन एक दूसरे के साथ रहते हुए भी एक दूसरे के जीवन से अपरिचित हैं, एक दूसरे के रहस्यों से काफ़ी हद तक अनजान हैं।

सोफ़ी धीरे-धीरे स्टिंगो के समक्ष खुलती जाती है और इस तरह दर्शक सोफ़ी के अतीत से टुकड़ों  में परिचित होता जाता है। अतीत को न तो मिटाया जा सकता है, न ही भुलाया जा सकता है। अपने अतीत से व्यक्ति को बार-बार टकराना होता है। इस टकराहट से सोफ़ी लहुलुहान होती रहती है। उसकी वेदना स्टिंगो और दर्शक को भी कष्ट देती है। बार-बार उसके रिसते ज़ख्म से दर्शक के भीतर कसक और असहायता उत्पन्न करते हैं। वह क्यों स्टिंगो से भी लगातार झूठ बोलती है यह रहस्य भी दर्शक के सामने खुलता है। सोफ़ी कहती है कि वह अकेले पड़ जाने के भय से झूठ बोलती है, दर्शक उससे सहमत होता है। सोफ़ी ने जो देखा है, जो भोगा है, जिन अंध और पागल कर देने वाले अनुभवों से वह गुजरी है उसके बाद कोई भी व्यक्ति सामान्य नहीं रह सकता है। वह किसी पर विश्वास नहीं कर सकता है। विश्वास के बिना जीया नहीं जा सकता है। सोफ़ी काफ़ी हद तक सामान्य है। वह नेथन पर विश्वास करती है। जब स्टिंगो कहता है कि वह उस पर विश्वास करे तो वह उस पर भी विश्वास करती है और अपने जीवन के काले अध्याय को उसके समक्ष व्यक्त करती है। अकेले पड़ जाने का उसका भय जायज है। यह एक बहुत ही क्रूर, दु:खी अनुभवों वाली कारुणिक और भावनात्मक रूप से निचोड़ देने वाली फ़िल्म है। सोफ़ी को समझने के लिए उसके मनोविज्ञान में उतरना आवश्यक है।

नेथन जो एक पागल प्रेमी, कुशल गायक, उच्च कोटि का नर्तक और मित्रता के लिए खुद को लुटा देने वाला इंसान है वास्तव में मानसिक अस्थिरता वाला व्यक्ति है। स्टिंगो को नेथन का भाई बताता है कि नेथन एक स्वस्थ बालक के रूप में जन्मा था और आसपास के लोग तथा उसके शिक्षक उसकी प्रतिभा से चकित थे। शीघ्र ही पता चला कि वह एक खंडित व्यक्तित्व में बदल रहा है। आज स्थिति यह है कि वह कोकीन, शराब आदि सब तरह के नशे का आदी है। स्टिंगो के लिए ये सारी बातें पचाना बहुत कठिन है। यह सब सुन कर इस युवक पर हुई प्रतिक्रिया को जिस कुशलता से एक्टर पीटर मैकनिकोल ने प्रदर्शित किया है वह देखने की बात है, बताने की नहीं। असल में इस पूरी फ़िल्म को सघनता में एक बार नहीं कई बार देख कर ही इसकी गहराई को समझा जा सकता है। हर बार सराहने के लिए आपको कुछ नया मिलता है। स्टिंगो के भोलेपन पर मन फ़िदा हो जाता है। वह नेथन के भाई को कहता है, “मगर वे दोनों मेरे मित्र हैं, मैं दोनों को प्यार करता हूँ।” फ़िल्म के प्रारंभ में उसके चेहरे पर जो बचपना, जो भोलापन है अंत आते-आते वह अनुभवपक्व चेहरे में परिवर्तित हो चुका होता है। मेकअप मैन के कमाल का काफ़ी अंश भी इसमें है इससे इंकार नहीं किया जा सकता था।

स्टिंगो को एक और भावनात्मक झटका तब लगता है जब वह सोफ़ी की खोज में निकलता है। सोफ़ी ने अपने पिता के विषय में उससे झूठ बोला था। अब उसे पता चलता है कि सोफ़ी का पिता क्राकोवा विश्वविद्यालय में पढ़ाता था और सोफ़ी का पति उसका शिष्य था यह बात तो सच है। मगर सोफ़ी ने उसे यह नहीं बताया था कि उसका पिता पोलैंड में हिटलर का सबसे मजबूत और ऊँची आवाज में समर्थन करने वाला व्यक्ति था। वह यहूदी छात्रों को दूसरे छात्रों के साथ एक बैंच पर नहीं बैठने देता था और यहूदी समस्या (ज्यूइश सल्यूशन्स) के समर्थन में भाषण देता था। यह पतियाना स्टिंगो के लिए अत्यंत कठिन है। वह पचा नहीं पाता है और सोफ़ी को बताता है कि वह उसकी खोज में कहाँ-कहाँ गया था और किससे मिला था। इस पर सोफ़ी इन बातों की सच्चाई को स्वीकार करती है। भीतर से टूटी हुई सोफ़ी से यह सुन कर स्टिंगो उससे नफ़रत नहीं कर पाता है। वह उसके और करीब आ जाता है। अभी भी सोफ़ी स्टिंगो को पूरी सच्चाई नहीं बताती है।

प्रेम, घृणा, झूठ, बेवफ़ाई, सच को परत-दर-परत खोलती इस फ़िल्म में जब भी सोफ़ी अपने अतीत की ओर रुख करती है उसकी आँखें दर्शक के हृदय में खुब जाती हैं। रंगीन वर्तमान की बनिस्बत अतीत कितना बेरंग और धूसर है। फ़िल्म के बदलते रंग के साथ सिनेमेटोग्राफ़र नेस्तर एलमेंड्रोज ने इस बात को बखूबी पकड़ा है। होलोकास्ट पर आधारित फ़िल्म शिंडलर्स लिस्ट’ पूरी तरह से धूसर रंग में बनी है मात्र एक दृश्य को छोड़ कर। सोफ़ीज़ च्वाइस’ चमकीले-भड़कीले रंगो से सराबोर है और टुकड़ों में बहुत संक्षेप में धूसर रंग से अतीत को दिखाती है। होलोकास्ट को किस और रंग में दिखाया जा सकता है। होलोकास्ट पर आज तमाम अच्छी-बुरी-सामान्य फ़िल्में उपलब्ध हैं। इस विषय पर बनी फ़िल्में अक्सर यातना शिविर की क्रूरता पर केंद्रित होती हैं। विलियम स्टाइरॉन के सफ़ल उपन्यास सोफ़ीज च्वाइस’ पर इसी नाम से बनी फ़िल्म यातना शिविर की क्रूरता पर केंद्रित न हो कर उन लोगों की कहानी है जो यातना शिविरों से जीवित बच रहे हैं। क्या जीवित बच रहना नियामत है? या यह निरंतर यंत्रणा में जीना है? कई बार मरना श्रेयस्कर होता है। सोफ़ी ने आत्महत्या का प्रयास किया है। तब नहीं जब वह शिविर में थी। वह मरने की कोशिश तब करती है जब वह बाहर है, सुरक्षित है। जिन्हें हम अपनी जान से अधिक प्रेम करते हैं उन्हें जब हमारी आँखों के सामने मार दिया जाता है और खुद हम जीवित बचे रह जाए तो इससे उत्पन्न अपराध-बोध को सोफ़ी जैसे लोग जानते हैं। वह मरने का प्रयास करती है मगर बची रहती है। जीते चले जाने के अलावा उपाय क्या है? कितना दारुण और कठिन है इस बोझ को लेकर जीना। कथानक की यह मार्मिकता दर्शक को जीवन को एक नए परिप्रेक्ष्य में देखने की दृष्टि देती है।

सोफ़ी एक पोल ईसाई है। अपनी भाषा के साथ फ़र्राटेदार जर्मन बोलती है। सुंदर इतनी है कि गेस्टॉपो का अफ़सर उसे अपने बिस्तर पर ले जाना चाहता है। एक अन्य अफ़सर रुडोल्फ़ हेस विश्वास नहीं करता है कि वह जर्मन और शुद्ध रक्त नहीं है। उसकी शारीरिक बनावट बालों का रंग, बोलने का लहज़ा सब जर्मन की तरह हैं। जर्मन का उसका ज्ञान उसके लिए मुसीबत भी बनता है क्योंकि उसका प्रेमी और प्रेमी की सौतेली बहन रेसीस्टेंट ग्रुप’ के सदस्य थे। वे चाहते थे कि उन्होंने जिन नात्सी दस्तावेजों को चुराया है वह उनका अनुवाद करे ताकि कुछ बच्चों का जीवन बच जाए। सोफ़ी अपने बच्चों के संभावित खतरे से इस बात से इंकार कर देती है। फ़िर भी वह और उसके बच्चे बर्बर नात्सियों से बच नहीं पाते हैं। जल्द ही उसके प्रेमी को अन्य लोगों के साथ मौत के घाट उतार दिया जाता है। सोफ़ी इस बात को लेकर अपराध-बोध से ग्रसित है। उसे इस बात का मलाल है कि वह कायर है और वे लोग कितने साहसी थे। अगर वह उन लोगों का साथ देती तो शायद कुछ बच्चों की जिंदगी बच जाती। दूसरों की मौत के बोझ को लेकर जीना कितना दुश्वार होता है, सोफ़ी का जीवन इसका उदाहरण है।

जिंदगी कितनी बेतुकी हो सकती है उसका एक उदाहरण है होलोकास्ट से जीवित बचे सोफ़ी जैसे लोगों का जीवन। शायद जीवन के इसी बेतुकेपन पर टिप्पणी करते हुए एडोर्नो ने कहा था कि अब कविता नहीं लिखी जाएगी। सोफ़ी को भी उसके दो मासूम बच्चों के साथ गिरफ़्तार कर ऑस्त्विज़ भेज दिया जाता है। फ़िल्म के अंत की ओर आते हुए सोफ़ी अपने इस सबसे अधिक काले गुप्त रहस्य को स्टिंगो से साझा करती है। इस रहस्य को वह अपने सीने में छुपाए हुए ऊपर से मौज-मस्ती करती हुई जी रही थी। इस तरह से जीना कितना कठिन होगा इसे अनुभव किया जा सकता है। यातना शिविर में प्रवेश के समय उसे एक विकल्प दिया जाता है, वह चुनाव करे कि उसका कौन-सा बच्चा कैंप में जाएगा और कौन-सा बच्चा गैस चेम्बर में। एक माँ को तय करना है कि उसका कौन-सा बच्चा यातना शिविर का हिस्सा बनेगा और कौन धूँआ बन कर आकाश का हिस्सा बनेगा। आठ-नौ साल का बेटा जेन (एड्रियन काल्टिका) उसकी बगल में खड़ा है। बेटी ईवा (जेनीफ़र लॉन) उसकी गोद में है। बच्ची जो पहले बाँसुरी बजा रही थी अब भयभीत है। क्रूर विडम्बना है कि दोनों बच्चे नहीं बचते हैं और खुद सोफ़ी जीवित है और जीए चली जा रही है। बच्ची की रोने-चीखने की आवाज तथा सोफ़ी का स्तब्ध चेहरा और निर्वाक खुला मुँह देखना रोंगटे खड़े कर देता है। बेटी को गवाँ कर बेटे को बचाने के लिए वह क्या नहीं करती है मगर बचा नहीं पाती है। कैसे जीए ऐसी अभागी स्त्री? ऐसी माँ? वह अपने पिता को बेहद प्रेम करती थी उन पर उसका अगाध विश्वास था। वह उनकी दृष्टि में सर्वोत्तम बनी रहने की जी तोड़ कोशिश करती है। पिता उसके इंटलैक्ट को पल्प कहता है। कैसे भूल जाए वह इन शब्दों को? जब उसे पिता की सच्चाई पता चलती है तो उसका विश्वास टूट जाता है। कैसे वह लोगों पर विश्वास करे?

कैसे भूल जाए सोफ़ी नेथन के अहसान को? उसने तब उसे जीवन दिया जब वह मृतप्राय अवस्था में अमेरिका आई थी। नेथन नात्सी लोगों के प्रति घृणा से भरा हुआ एक यहूदी है। उसकी आत्मा बेचैन है क्योंकि क्रूरतम अपराध करने वाले, लाखों लोगों को मौत की नींद सुलाने वाले नात्सी खुलेआम घूम रहे हैं। इस बेचैनी ने उसकी रातों की नींद छीन ली है। नेथन ने सोफ़ी और स्टिंगो को बताया हुआ है कि वह एक वैज्ञानिक है और शीघ्र ही उसका एक ऐसा आविष्कार सफ़ल होने वाला है जिससे उसे शर्तिया तौर पर नोबेल पुरस्कार मिलेगा। वास्तव में वह एक पुस्तकालय में काम करता है जहाँ से वैज्ञानिक किताबें लेते हैं। कभी-कदा वह उनकी सहायता करता है। सोफ़ी सिर्फ़ इतना जानती है कि वह रात को सो नहीं पाता है और सड़कों की खाक छानता रहता है। यदा-कदा घायल हो कर लौटता है। वह उसे लेकर सदैव तनाव और चिंता में रहती है। सोफ़ी को अंत तक नेथन की वास्तविकता पता नहीं चलती है। वह एक बात पक्की तौर पर जानती है कि नेथन उसके बिना न तो जी सकता है और न ही उसके बिना मर सकता है। वह उसे खोना नहीं चाहती है।
ऐसे त्रासद लोगों का मरना ही भला है। सोफ़ी के लिए जीना नरक भोगना है। मरने में ही उसका उद्धार है। फ़िर भी नेथन और सोफ़ी की मृत्यु देखना त्रासद है। उनके मरने से स्टिंगो को होने वाला दु:ख देखना उससे भी ज्यादा त्रासद है। पहले निर्देशक एलेन जे. पकोला के मन में सोफ़ी के किरदार के लिए लिव उल्मान थी। मैजिक मेरिल’, अपनी पीढ़ी की सर्वोत्तम अभिनेत्री’ के खिताब से नवाज़ी जाने वाली तथा लॉरेंस ओलिवर का स्त्री स्वरूप कही जाने वाली मेरिल स्ट्रीप ने अनुनय-विनय करके इस भूमिका को पकोला से लिया। इस फ़िल्म में उन सब भावनाओं को साकार किया है जो मनुष्य के लिए संभव हैं। यह कहना कि मेरिल ने बहुत अच्छा अभिनय किया है उसकी प्रतिभा को कम करके आँकना होगा। वह अभिनय की सीमा के पार जा कर अभिनय के शिखर को स्पर्श करती है। जितनी सहजता से वह चेहरे के हावभाव, शारीरिक मुद्राओं से संप्रेषित करती है उसी कुशलता के साथ वह पोल लहज़े के साथ इंग्लिश बोलती है। उसी सरलता से जर्मन संवाद भी प्रस्तुत करती है। सोफ़ी की भूमिका को साकार करके उस साल मेरिल स्ट्रीप ने सर्वोत्तम अभिनेत्री का पुरस्कार जीता। फ़िल्म को सर्वोत्तम सिनेमाटोग्राफ़ी, सर्वोत्तम कोस्ट्यूम, सर्वोत्तम संगीत, सर्वोत्तम स्क्रीनप्ले आदि कई अन्य श्रेणियों में नामांकन मिला था। नेथन लैंडाउ की भूमिका में केविन क्लाइन तथा स्टिंगो की भूमिका में पीटर मैकनिकोल का अभिनय कहीं से मेरिल से कमतर नहीं है। खासकर केविन की प्रतिभा का कायल होना पड़ता है। स्टिंगो की भूमिका में पीटर ने बहुत नियंत्रित अभिनय किया है।

मेरिल स्ट्रीप ने अपने नैसर्गिक सौंदर्य और अभिनय कुशलता के बल पर सोफ़ी के जटिल किरदार को उत्कृष्टता के साथ निभाया है। इसमें शक नहीं कि अभिनय की जन्मजात प्रतिभा मेरिल में है हालाँकि येल के ड्रामा स्कूल ने इस प्रतिभा को निखारा है। प्रशिक्षण काल में भी वह येल लीडिंग लेडी’ कहलाती थी। वह नाटकों से फ़िल्म में आई है और अभी भी नाटकों में अभिनय के लिए लालायित रहती है। मेरिल खुद कहती है कि वह किरदार के रूप-रंग से अधिक उसकी आत्मा में प्रवेश करती है। वह उन चरित्रों को मुखर करना चाहती है जिनकी अपनी कोई आवाज नहीं है। जो शुरु में सामान्य स्त्री लगती है मगर आगे चल कर जब उनका चरित्र खुलता है तो असाधारण स्त्री में परिवर्तित हो जाती है। मेरिल ने सोफ़ी के किरदार का अभिनय नहीं किया है वह स्वयं सोफ़ी बन गई है। वह स्वयं सोफ़ी के संताप को अनुभव करती है, उसकी यंत्रणा को झेलती है। सोफ़ी की सच्चाई को जीने के लिए परिवार को प्रमुखता देने वाली मेरिल स्ट्रीप पकोला को जिद करके शूटिंग के लिए वास्तविक स्थान पर ले गई जबकि उसे इस दौरान अपने परिवार से दूर रहना पड़ा। वैसे यह पकोला का विचार था कि वास्तविक स्थान पर जा कर शूटिंग करनी चाहिए मगर वे खर्च बढ़ने के कारण हिचकिचा रहे थे। मेरिल ने कई फ़िल्मों को करने से इसीलिए इंकार कर दिया क्योंकि इनकी शूटिंग दूर जा कर होनी थी। इसके लिए उसे परिवार से लंबे समय तक दूर रहना पड़ता और यह उसे गँवारा नहीं है। वह खुद को पहले एक माँ और पत्नी मानती है उसके बाद ही वह अभिनेत्री है। कैरियर उसके लिए घर-परिवार के बाद आता है। इस बात को वह बहुत गर्व के साथ बताती है।  

जब दो प्रतिभावान व्यक्ति किसी काम को करते हैं तो परिणाम भिन्न होते हुए भी उत्कृष्ट होता है। यही हुआ है उपन्यास सोफ़ीज़ च्वाइस’ तथा फ़िल्म सोफ़ीज़ च्वाइस’ के साथ। किसी प्रसिद्ध कृति पर फ़िल्म बनती है तो अक्सर तुलना की जाती है। विलियम स्टाइरॉन एक ऐसे लेखक हैं जिन्होंने अन्य प्रकार के लेखन के साथ मात्र चार उपन्यास लिखे। इन्हीं चार उपन्यासों के कारण वे सदैव स्मरण किए जाएँगे। उनके द कन्फ़ेशन्स ऑफ़ नैट टर्नर’ ने पूरे अमेरिकी साहित्य को एक नई दिशा दी। उनके उपन्यास सोफ़ीज़ च्वाइस’ को मॉडर्न लाइब्रेरी ने सदी की सौ महान कृतियों में रखा। जब पकोला ने इस कृति पर फ़िल्म बनाई तो वे मूल के प्रति बहुत ईमानदार रहे हैं। करीब साढ़े पाँच सौ पृष्ठों में फ़ैले इस वृहद उपन्यास को १५७ मिनट में समेटना कठिन और चुनौती भरा कार्य था। उन्होंने काफ़ी हिस्से को स्टिंगो के कथन (वॉयज ओवर) द्वारा फ़िल्माया। इतनी लंबी फ़िल्म होने के बावजूद लगता है कि फ़िल्म कैसे इतनी जल्दी समाप्त हो गई। मन में कचोट होती है कि काश पकोला ने सोफ़ी के अतीत को तनिक और विस्तार से दिखाया होता। अभी फ़्लैशबैक बहुत कम समय के लिए दिखाया गया है। वैसे जो दिखाया गया है वह चेतना पर बहुत भयंकर आघात करता है। मेरिल ने सोफ़ीज च्वाइस फ़िल्म की क्योंकि उसे क्वालिटी प्रोजेक्ट्स में काम करना अच्छा लगता है। उसे लिटरेरी एडॉप्टेशन खास तौर पर आकर्षित करते हैं। उसे चुनौतीपूर्ण फ़िल्मों में काम करके लगता है कि मूल के साथ सूद भी मिल जाता है। इसीलिए उसने सोफ़ी की गैरपरंपरागत भूमिका करने का साहस किया। इस किरदार में उसकी अभिनय क्षमता को प्रदर्शित होने का भरपूर अवसर मिला है। यह खुद निर्णय करना होगा कि इस फ़िल्म को बार-बार मेरिल स्ट्रीप के अभिनय कौशल के लिए देखा जाए अथवा सोफ़ी के जीवन की विडंबना और यंत्रणा के लिए देखा जाय। इसे बार-बार देखना होगा इसमें कोई दो राय नहीं है।


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हिन्दी की महत्वपूर्ण आलोचक हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, उपन्यास, फिल्मों तथा शिक्षा पर प्रचुर लेखन के अलावा आपने साहित्य के नोबेल पुरस्कार प्राप्त पंद्रह लेखकों पर केन्द्रित एक पुस्तक 'अपनी धरती, अपना आकाश-नोबेल के मंच से' (प्रकाशक -संवाद प्रकाशन) तथा वाल्ट डिजनी पर एक किताब  "वाल्ट डिज्नी - एनीमेशन का बादशाह"  (प्रकाशक -राजकमल) लिखी है और एक विज्ञान उपन्यास का अनुवाद ''लौह शिकारी" के नाम से किया है. इन दिनों वह जमशेदपुर के एक कालेज में शिक्षा विभाग में रीडर हैं. 
* १५१ न्यू बाराद्वारी, जमशेदपुर ८३१ ००१, फ़ोन: ०६५७-२४३६२५१, ०६५७-२९०६१५३,मोबाइल : ०९४३०३८१७१८, ०९९५५०५४२७१,  ईमेल : vijshain@yahoo.com, vijshain@gmail.com           

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