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प्रोमिला क़ाज़ी की छह कविताएँ

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प्रोमिला क़ाज़ी से मुलाक़ात सुमन केशरी जी के घर पर आयोजित एक अनौपचारिक कवि गोष्ठी में हुई थी और तभी उनकी कविताएँ पहली बार सुनी थीं. एन्द्रिक प्रेम की उनकी कविताओं का स्वभाव सूफियाना है. भाषा का ठाठ अलग है जहाँ हिंदी, उर्दू अंग्रेजी से शब्द सहज रूप से आते चले जाते हैं. जो दृश्य उभरते हैं इन कविताओं में वे बेहद विश्वसनीय हैं और सहज. प्रेम का जो रंग उनके यहाँ है, वह स्वप्न और यथार्थ के एक अनूठे संयोजन से आया है. 
असुविधा पर उनका स्वागत...और कविता मांगने तथा छापने में जो देर हुई है उसके लिए क्षमा मांगने का कोई अर्थ तो है नहीं..फिर भी. 




वो उसकी फटी एड़ियों को देर तक सहलाता रहा 
दिल के ठीक एन जगह पर जो गड्डा था 
उसे मोटे ब्रश के स्ट्रोक्स से लाल रंग में भरता गया 
वो राख उठाता रहा उसकी बुझी साँसों की 
उनसे नन्हें ताजमहल बनाता रहा 
अचानक वो रानी हो गयी ! 
और वो मुस्कुराता  रहा 
वो जी गयी !


उसने अपनी फीकी चाय की तली में 
उसे समूचा उड़ेल दिया 
बिना घोले वो घूँट घूँट पीता रहा 
और वो उसका घूँट घूँट 
और मीठा करती गयी 
दोनों तृप्त थे 



उसने इसका ज़र्रा -ज़र्रा 
गूंथ कर 
गोल अकार की एक बड़ी सी 
आकृति में 
अपने प्राण फूंक 
उसे सूरज बना के आसमानो में टांग दिया 
फिर अपने घर की खिड़िकियों पर  मोटे ,काले परदे लगा 
सूरज की रौशनी के ठीेक विपरीत वाली दिशा में 
अपना घर घुमा लिया !

4

तुम्हारे हाथो में पड़ा मेरा हाथ 
कैसे जान गया था प्रेम की भाषा 
मिल गया था तुम्हारे रक्त में  
और बहा था साथ साथ 
एक ठंडी और एक गर्म हथेली के बीच 
जमे रह गए 
वो तीन मिनट मुझ पर 
तुम्हारा क़र्ज़ है 

वो दुलार जो किसी अभिनय से नहीं उतरता 
आँखों में, या बातों में 
उसने मुझे भिगोया था 
सर से पाँव तक 
और मै हड़बड़ाती सी ढूँढती रही 
एक छज्जा बचने के लिए 
भीगने का वो डेढ़ घंटा 
मुझ पर तुम्हारा क़र्ज़ है 

इतने शोर इतने धुँए के बीच 
जो मुझ तक पहुंचा 
जितनी देर हम साथ थे 
वो बजता रहा 
वो तुम्हारा मध्यम स्वर में 
गाया गीत था और उसके शब्द 
छप गए थे मेरी देह पर जहाँ- तहाँ 
मेरी देह का हर सुर हर शब्द अब 
मुझ पर तुम्हारा क़र्ज़ है 

वो सैंडविच , वो पनीर का टुकड़ा 
जो मेरे होंठो से तुम्हारे ख्वाबो तक का 
छोटा सा सफर सदियों में तय कर पाया 
और दोनों की फीकी कॉफ़ी 
उन्हें दूर और दूर करती गयी 
और फिर पलक झपकते 
साथ बीते सारे समय को पोंछते 
वेटर का बिल थमा देना 
वो  एक सौ बहत्तर रुपया 
मुझ पर तुम्हारा क़र्ज़ है 

5

शतरंज की अंतिम बाज़ी 
शह उसकी तय 
और मात इसकी पक्की 
उठ गया वो 
चल पड़ा 
'अभी आता हूँ'कह कर 
और बाज़ी पड़ी रही 
धुप में, बरसात में 
सुबह, दिन, रात में 
शह की ख़ुशी 
धुँधली पड़ती रही वक़्त के साथ 
और मात वाला 
आज भी 
बचा हुआ है 
एक निश्चित 
अवसाद से ! 



जिस समय
सबसे अकेले
होगे तुम
उसी पल में मै
तुम्हारे भीतर
बना रही होऊँगी
मकड़ी के जैसा जाल
अपने निर्वासित प्रेम
की महीन तार से
और मर रही होऊंगी
उसी के बीच में फंस कर !
और हँस रही होऊंगी
तुम्हारे एकांत पर !



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