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भाषांतर - नेपाली कविताएँ

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नेपाली के इन पांच युवा कवियों की कवितायेँ हमें चंद्रा गुरुंग ने उपलब्ध कराई हैं. चंद्रा हिंदी नेपाली कविता के अध्येता हैं और दोनों ही भाषाओं के बीच अनुवाद का ज़रूरी काम कर रहे हैं. ये कवितायें अलग अलग मिजाज की हैं. प्रेम से लेकर राजनीति और स्त्रियों से भेदभाव जैसी मूल चिंताओं से समृद्ध इन कविताओं को पढ़ते हुए आप नेपाली कविता में उस स्वर की उत्कट अभिव्यक्ति का एहसास कर सकते हैं, जो हमारी समकालीन हिंदी कविता की भी मूल चिंता है. 


जिस दिन बेटी पैदा हुई
  • मनु मन्जिल


जिस दिन मैं पैदा हुई
घूप ने आँगन में उतरने से इनकार कर दिया
केवल एक परछाईं सलसलाती रही
दहलीज के बाहर, दहलीज के भीतर और चेहरों पर।

माँ के आँखों से बुरुंस का फूल अचानक कहीं गायब हुआ
पिता कल ही की नीँद में उँघते रहे सुबह भी देर तक
एक नयें यथार्थ की मौजूदगी नजर अंदाज करते रहे ।

प्रसवोत्तरगन्ध आसपडोस में बस्साती रही 
माँ खुरदरे हातों से बासी तेल ठोकती रही माथे पे
उनकी चञ्चल चूड़ियों में विरह की धुन बजती रहे ।

एक पुराना परदा झुलता रहा खिडकी पे
गर्भ के बाहर भी सूरज ओझल होता रहा
मैं और मेरे मन के उजियाले के बीच
पुरानी, आलसी दिवारें खड़ीं निरंतर

हिमालय पर्बत की छाती से उठा ठण्डी हवा का एक झोंका 
उडते उडते मेरे पास पहुँचा और धडाम से... बंद कर दिया दरवाज़ा ।
मेरी छोटी सी अंकपाश में समाने को तैयार एक आकाश
हमारे बीच लम्बी दूरी बिछाकर दृश्य से गायब हो गया । 



वर्षा में
  • सुदीप पाख्रीन


वर्षा में...
असभ्य नदियाँ
अपने बहाव को छोडते
किनारों से उठती हैं
और
कूदती हैं छतों के उपर से
गलियों में
चौक में, बिना हिचकिचाहट ।

वर्षा में...
नंगी नदियाँ
तटों पे चढ कर
सतह से दौडती हैं
और
उमँडती है ईन्सान के उपर
बस्तियों में
गाँव में, निर्लज्ज ।

वर्षा में...
अस्पष्ट, बिना आँख वाली
मृत्यु का छाँया सलसलाती है
पानी में ।
वर्षा में...
मृत्यु खुद गरजती हुई
बहती है पानी में ।

वर्षा में ही तो...
कुएँ के अन्दर मेंढकें
घमण्ड से और 
टर्र टर्र करते हैं उद्धत 
केवल खुद के बडा होने के भ्रम को
बनाए फिरते हैं
वर्षा में ।

इस कारण
वर्षा में...
जो बोलना चाहते हैं न बोले
वर्षा के झर... झर... में
बोलने का औचित्य कहाँ होता है ???



पागल का गीत
  • भूपिन



देखो, मेरी अंजलि से
जीवन  का समुद्र ही चू कर खत्म हो गया है ।

मेरे हथेलियों से गिरकर
जीवन का आईना बिखर  गया है ।

आँखों  के अन्दर ही भूस्खलन में दब गए हैं
बहुत सारे सपनें ।
यादों के लिए उपहार बताकर
थोडे से सपनें चुरा कर ले गए थे भूलने वाले
न उन सपनों को अपनी आँखों में सजाए हैं
न मुझे वापस किये हैं ।

दाय रिंगाते रिंगाते उखड आई धुराग्र कि तरह
मोडों को पार करते करते
उखडा हुआ एक दिल है
न उसको ले जाकर छाती में चिपकाने वाला
कोई प्रेमिल हाथ है
न उसको चिता में फैंकनेवाला
कोई महान आत्मा ।

छाती के अन्दर
छटपटाहट का ज्वालामुखी सक्रिय है
बेचैनी का सुनामी सक्रिय है
मैं सक्रिय हुँ
सडक में फैले सपनों के टुकडों को जोड्ने के लिए
और आईने में
दुःखों द्वारा खदेडे जा रहे पने ही चेहरे को देखने के लिए।

यह सडक ही है मेरी पाठशाला
यह सडक ही है मेरी धर्मशाला
मुझे किस ने पागल बनाया ए बटोही भाई
मेरी बुद्धि - ईश्वर
या इस कुरुप राज्यसत्ता ने -
मैं कैसे गिरा ईस सडक पर
रात को तारों के उतरने वाले घरके छत से -

इसी सडक पर जमा कूडे में
मैं पाता हुँ मेरे देश की असली सुगन्ध
इसी सडक पर बहते भीड में
मैं देखता हूँ नंगी चल रही अराजकता
यहीं सडक पर हमेशा मुलाकात होती है एक बूढे समय से
जो हमेशा हिँसा के बीज बोने में व्यस्त रहता है
इसी सडक पर हमेशा मुलाकात होती है एक जीर्ण देश से
जो हमेशा अपने खोए हुए दिल को ढूँढ्ने मे व्यस्त रहता है ।

विश्वास करो या नहीं
आजकल मुझे यह सडक
पैरों के निशानों के संग्रहालय जैसा लगता है ।
मुझे पता है
इसी सडक से होकर सिंहदरबार पहुँचकर
कौन कितने मूल्य मे खरीदा गया है,
इस सडक में चप्पल रगडने वालों के पसीने में पिसकर
कितनों ने माथे पे लगाए हैं पाप का चन्दन,
इस सडक पर
रोने वालों के आँसु के झुले में झूलकर
किस किस ने छुए हैं वैभव का उँचाई
वह भी मुझे मालूम है ।

ए बटोही भाई
आप को भी तो मालूम होना चाहिए
प्रत्येक दिन
कितने देशवासियों के आँसु में डूबकर
सुखती है इस सडक की आँखें -
हर रात
कितने नागरिकों के बुरे हाथों  से चिरकर
तडपता है इस सडक का हृदय

पता नहीं क्या नाम जँचेगा इस सडक के लिए
यह सडक
थके पैरों का संग्रहालय बना है
हारे हुए इंसानों के आँसु का नदी बना है
अनावृष्टि में चिरा पडा हुआ खेत जैसा
पैने हात के द्वारा फटा हुआ कलाकृति बना है ।
कंगाल देश का
डरावना एक्सरे बना है,
रोगी देश को उठा कर दौड रही
केवल एक्बुलेंस बना है । 

घिनौने उपमाओं में
जो नाम दें तो भी ठीक है इस सडक के लिए
पर ए बटोही भाई
इस देश को जँचता
मैं एक नयाँ नाम सोच रहा हुँ
मैं एक सुन्दर नाम सोच रहा हुँ ।





तुम्हें क्या पसन्द है मुझ में ?
  • स्वप्निल स्मृति


तुम्हें जो पसन्द है मुझ में
मैं वही दूँगा ।

कितनों को मेरा चेहरा पसन्द आया
कितनों को मेरा दुख पसन्द आया
...पर नहीं दिया ।

कितनों ने आँसू माँगे
शायद याद आए होंगे उनके अपने बिगत
कितनों ने मेरे खुशी के उत्सव में नाचना चाहा
मिले होंगे मुझ में सुरीले गीत
कितनों ने चढाई में हाथ दिए
शायद पसन्द किया होगा मुझ अकेले को
कितनों ने गुलाब के फूल दिए
पूजते हुए देवी देवताओं को ।
पर मैने स्वीकार नहीं किया ।

बहुतों ने मुझे अपने नाम दिए, पते दिए
अपने आप धन्यवाद दिए,
शुभकामनाएँ दिए
और दिए खाली कागज के पन्नें
अनुरोध किए लिखनें के लिए प्रेमपूर्ण कविताओं के कुछ अक्षर 
बहुतों ने आँखो से चुनकर ले गए मेरा परिचय
और भेजे निले लिफाफे
पर मैंने नहीं भेजा कुछ भी जवाब
बल्कि बहा हूँ बारम्बार हिमबाढ जैसे
निर्जन अन्तों में
मानों ठिठक के खडा रहा हूँ
जैसे खडा होता है माउण्ट एभरेष्ट पर्यटक के कैमरे के सामने ।

आए,गए कितने प्रेमदिवस
आए, गए हरसाल नया वर्ष
पर मैं जिया हूँ अकेला ...अकेला...
जैसे वास्ता नहीं होता
नदीको पुल का
फूलको भँवरे का
आईने को चेहरे का ।

परन्तु,
परन्तु
मैं आज तुम तक इस तरह  आया हूँ
जैसे आते हैं
घरआँगन में बिन बुलाए भिखारी ।

तुम भी खडे हो
मेरे सामने
न जानते हुए भी, पहचाने से
जैसे घर मालिकन दहलीज में खडी होती हैं
और देखती हैं भिखारियों को ।

तुम्हारा दिल मुझे पसन्द है
तुम्हारा जीवन मुझे पसन्द है
तुम्हारे खडे होने का तरीका पसन्द है ।

मैं सिर्फ तुम्हें प्यार करने आया हूँ
प्यार के लिए
हथेली भर का आयतन फैलाया हुआ हूँ ।

तुम्हें क्या पसन्द है मुझ में
बोलो, मैं वही दूँगा ।


 देश से एकालाप
  • विप्लव ढकाल


तुम्हारी प्यास मिटाने
मैं ने अपना खून दिया
तम्हारी नग्नता ढाँकने
मैं ने अपनी खाल दिया
जब तुम भूखे थे
मैं ने शरीर का मांस दिया
तुम्हें अमर रखने
मैनें अपना इतिहास दिया
मेरा खून, खाल, मांस और इतिहास
कहाँ फैँक दिया तुम ने ?
कहाँ फैँक दिया ?
और आज फिर क्यों तुम
मेरे बेटे के आगे
इस तरह नंगा
और खाली हात खडे हो ?
मुझे गुमनाम शहीद बनाने वाला देश
यह प्रश्न
मैं तुम से पूछ रहा हुँ ।

बेनाम आदमी


हर दिन
इसी आईने के आगे खडा हूँ
और देख रहा हुँ
एक बेनाम आदमी का
खोया हुआ चेहरा ।

यह बनगोभी का सिर
और साग के बाल !
यह मिरिच का जीभ
और सेम के होंठ !

यह चिचिंडा का नाक
और टमाटर के आँखें !
यह लौकी का हात
और खिरे के पैर !

यह अदरक का मस्तिष्क
और प्याज के दिल !
यह भिंडी का लिंग
और आलू के अण्डकोष !

चावल के बोरे से बना
एक अराजनीतिक शरीर ।
जिस के नस नस मे बह रहा है
गुन्द्रुक*का खून ।

पीढियों से इसी आईने के अन्दर
मेरे विचार को चिढाता खडा
यह बेनाम आदमी कौन है ?
कौन है यह बेनाम आदमी ?

और हर दिन
क्यों पूछ रहा है
मेरा नाम ?


गुन्द्रुक*
हरी पत्तेदार सब्जी को एक दो घण्टे धूप में रखकर किसी बर्तन में अथवा जमीन के अन्दर दबाकर रख दिया जाता है और १५-२० दिनमें उसको निकाल कर सुखा दिया जाता है। यह खाने में खट्टा और स्वादिष्ट होता है।
 
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चंद्रा गुरुंग 

इन दिनों बहरीन में रहते हैं और कवितायें लिखने के साथ साथ अनुवाद में सक्रिय हैं.

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