Quantcast
Channel: असुविधा
Viewing all articles
Browse latest Browse all 273

अमिय बिंदु की लम्बी कविता

$
0
0


२२ जुलाई १९७९ को जौनपुर के एक गाँव में जन्में अमिय बिंदु की कविताएँ  कुछ पत्र-पत्रिकाओं में छपी हैं. ग्रामीण समाज के गहरे अन्तर्विरोध और सतत वंचना से उपजे दैन्य उनकी कविताओं का चेहरा ही नहीं उनकी आत्मा की भी निर्मिति करते हैं. यहाँ उनकी जो एक लम्बी कविता 'घूर' दी जा रही है, वह ग्रामीण समाज में कूड़ा रखने के स्थान के बहाने पूरे समाज की विडम्बनाओं की एक मार्मिक पड़ताल करती है. 



घूर!
-

(एक)

जो मिट न सके, सभी का असर हूँ,
अजन्मा न सही, अजर और अमर हूँ.
समृद्धि का अतिरेक हूँ, मैं
मुख्य धारा का व्यतिरेक हूँ.
उच्छिष्टों, अयाचितों का पूल हूँ
विकास के रथ से उड़ता हुआ धूल हूँ.

निकल गया जो कारवां, पीछे उठा गुबार हूँ
बाज़ार के निचले पायदान की बुहार हूँ.
ऊसर, बंजर, बाँझ हुई धरती का पूत हूँ,
आश्चर्य हूँ, नाजायज-सा हूँ
इसलिए सबके लिए अछूत हूँ.

खाने की जूठन, झाड़न दीवारों का
चालन अनाजों का, धरती की खुरचन ही नहीं
अयाचित, अवांछित जो रह गए अनुपयोगी
तकनीकी दौड़ में जो रह गए हैं पीछे,
उन सबका भी आगार हूँ.
जिनसे मन ऊब गया है
सबने छुड़ा लिया है पीछा,
जो नहीं रह गए हैं अद्यतन
घर से बाहर कर दिए गए हैं 'आदतन',
बाज़ार का वही पिछला भंडारागार हूँ.





(दो)

सबसे उपेक्षित,
सबकी नज़रों में खटकता शूल हूँ,
ईशू ने जिन्हें मुक्त कराया
जिन मनुज-पुत्रों को दी क्षमा
उन सबका संहत भूल हूँ.

सबकी ईच्छाओं, कामनाओं
वासनाओं का निकास द्वार हूँ,
उठती रहे मितली, हो कुछ सनसनी
ऐसी अगन और ऐसी मैं झार हूँ.

'जिनकी जरूरत रही नहीं'
बल्कि जो पड़ गए हैं पुराने,
शोभा में व्यतिरेक हैं, जो
मुझे, हमें, हम सबको ही पसंद नहीं रहे,
उन सभी का आगत हूँ.

जो 'बेकार' हो चुके
पड़ गए हैं थोड़ा पुराने,
हो गए हैं किसी भी तरह के उत्पादन में अक्षम,
जिनका भार उठाने में समाज नहीं रहा सक्षम
उन सबका भी स्वागत हूँ.



(तीन)

घर-घर से झाड़नरोज निकलता
यूँ थोड़ा-थोड़ा घर रोज बदलता
बदलाव का तो महारथी हूँ,
नहीं! कम से कम
विकास के रथ का सारथी हूँ.

जहाँ कोई नहीं रहता,
कोई रह भी नहीं सकता
उस कोने को आबाद करता हूँ,
स्वच्छ हो समाज, बना रहे सम्मानित-सा
इसलिए गंदगी समेट उन्हें आजाद करता हूँ.

बाज़ार के हर उतार-चढ़ाव का रहता असर
उसकी हर नब्ज़ पर रखता अपनी नज़र.

'भोगो और फेंको' ने
अपना खूब मान बढ़ाया है,
सिमटे रहते थे कहीं-कहीं कोनों में
अब हर मुख्य सड़क ने मुझे अपनाया है.

बजबजाता हुआ, दुर्गन्ध फैलाता हुआ
शहर के कोने-कोने में पैठ गया हूँ.
मुख्य सड़कों के किनारे, गलियों के मुहाने पर
सड़कों के अन्त्य सिरों पर, टी-प्वाइंटों पर
बिग-बाज़ार के बगल में थोड़ा हटकर मैं भी बैठ गया हूँ.
जब बाज़ार ने और पैर पसारे
गाँव भी रहा नहीं अछूता,
'घूरों के दिन लौट आये'
खेत, खलिहान, चौपाल भले हुए हों छोटे
पर नए-नए घूर खूब उग आये.



(चार)

एक दिन बड़े सबेरे, मुँह अँधेरे
कोई मेरे द्वार खड़ा था,
था तो गहरी नींद में, पर
कान अपना खुला हुआ था.
पैर काँप रहे थे उसके, मुँह से दुआएँ फूट रही थीं
हाथों से कपड़े-लत्ते की गुदड़ी-सा,
कुछ द्वारे डाल गया था.

नींद खुली तो देखा गुदड़ी में था 'लाल' किसी का
मुँह में डाले पाँव पड़ा था.
फिर एक अँधेरी शाम

मेरे द्वारे कोई बूढ़ा सिसक रहा था,
छूट गया था घर-बार, अपना
मन ही मन यहाँ ठसक रहा था.
काँप रहे थे हाथ-पाँव, पर
उस बूढ़े का अनुभव-संसार बड़ा था.
चिंतित था दोनों को लेकर
इनका पालन होगा कैसे?
पर देखो, 'उसकी रहमत'
'किस्मत उनकी', कोई अभी-अभी
घर का 'छूटन' डाल गया था.

कुछ गंदे कपड़े 'बाबू' के-
कुछ चीजें पुरानी 'बाबूजी' के
मेरे आँगन साथ पड़े थे.
बच्चे, बूढ़े जो रह गए अवांछित
अब मेरे अँगना खेल रहे थे.


(पाँच)

नहीं कत्तई परेशान हूँ,
बल्कि अब तो हैरान हूँ,
जहाँ रहते थे शूल ही शूल
उस बगिया में आ गए इतने फूल?

यहाँ जड़ों से उखड़े वायवीय जड़ों वाले निवासी हैं,
सभी सभ्य समाज के गंदगी की निकासी हैं.
किसी का यहाँ कोई इतिहास नहीं है,
किसी का, किसी के लिए परिहास नहीं है.
सब क्षणों में जीवन जीते हैं
आपस में दुःख-दर्द सभी का पीते हैं.
न कोई आदिवासी, न है कोई वनवासी
न ही किसी की जातियाँ
न हाशिये पर हैं जनजातियाँ.
यहाँ न किसी का राज, न है किन्हीं का सुराज,
अपाहिज न तो यहाँ अक्षम हैं
न वेश्याएँ यहाँ सक्षम हैं.
न बूढ़े अवांछित हैं, बच्चे न तो अयाचित हैं.
यहाँ प्रतिपल धड़कता जीवन है
प्रतिक्षण बदलता तन-मन है.
ऐसे में हम कहाँ रुकें, कहाँ जमें?
क्या लगाएँ, क्या उगाएँ?
किसे उठाएँ, किसे गिराएँ?
किन्हें स्वीकारें, किन्हें अस्वीकारें?

हमें तो प्रतिपल, प्रतिक्षण चलना है
ऐसे ही नित जीवन में ढलना है.


(छः)

मानक हूँ समृद्धि का
मापक भी हूँ मैं वृद्धि का,
जो दौड़ पड़े हैं विकास लिए
मापक हूँ उन सबकी हतबुद्धि का.
मैं हूँ गिनती, कितनी महिलाएँ
इस माह भी, माँ बनते-बनते चूक गईं हैं?
मैं हूँ गिनती, कितनी महिलाएँ
मातृत्व वेदना से डरकर हार गई हैं?
मैं हूँ गिनती, कितनी महिलाएँ
माँ बनकर वापस लौट चुकी हैं?
मैं हूँ गिनती, कितनी बालाएँ
माँ बनकर 'कुछ' जनना भूल चुकी हैं?
मैं हूँ गिनती, कितनी माँए
अयाचित ललनाएँ हार चुकी हैं?
मैं हूँ गिनती, कितनी माँए
अजन्मी माँओं को लील चुकी हैं?


(सात)
अनंत सा अब मेरा विस्तार है,
सदा वर्द्धनशील मेरा आकार है,
विकास का पहिया ज्यों आगे बढ़ रहा है,
हर चक्कर, मेरा नया परिमाप गढ़ रहा है,
मेरी पीठ बाज़ार ने भी थपथपाई है
मुझमें बढ़न की अगन जगाई है.
विकास के इस दौर में
उच्छिष्टोंका रूप बदला है,
अवांछितों का स्वरुप बदला है.
मेरी कल्पनाओं से, सबसे बड़ी इच्छाओं से,
बल्कि मेरे सोच सकने की पूरी क्षमता से बढ़कर
मुझे अपनी पहचान मिली,
राजमार्ग से इतर, पहुँचना जहाँ दूभर था राज-उच्छिष्टोंका भी
वहाँ पनपने का स्थान मिला.
मनुष्य के दिमाग में अपना स्थायी निवास है
हर दिमाग के कोने में छोटा सा आवास है,
जहाँ दफ़न हैं कुछ पुरानी परम्पराएँ
कुछ विषम हो चुकी गहरी संवेदनाएँ,
कुछ पुरानी सोच भी है, कुछ विचारों का ओज भी है.
इन सबके नीचे भावनाएँ हुई हैं चूर
हर पल, हर क्षण सूचित-मनुज
लेकर चल रहा सूचनाओं का घूर,
अब हर हाल में वह ज्ञानी-सा मन्द-मन्द मुस्कुराता है
बात-बात में बाज़ार की ओर दौड़ा हुआ जाता है.


संपर्क: अमिय बिंदु, ८-बी/२, एन पी एल कालोनी, न्यू राजेंद्र नगर, नई दिल्ली - ११००६०
मो० - ९३११८४१३३७




Viewing all articles
Browse latest Browse all 273

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>