Quantcast
Channel: असुविधा
Viewing all articles
Browse latest Browse all 273

'अनारकली ऑफ आरा’ - जीवन के विरोधाभासों के करीब

$
0
0

  • विभावरी 




अनारकली ऑफ आरा’ देखने की बहुप्रतीक्षित ललक, पहले हफ्ते के आखिरी दिन लगभग आखिरी शो देख कर खत्म हुई. किसी फिल्म को नकार देना बेहद आसान काम है बनिस्पत उस फिल्म से उन चीज़ों को निकाल लाने के जो एक दर्शक अथवा एक समाज के बतौर हमारे काम की हो सकती हैं. सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन नहीं है. यह जानते समझते हुए भी मैं यह नहीं समझ पाती कि तमाम जनता सिनेमा को सिर्फ़ और सिर्फ़ मनोरंजन के साधन के रूप में ही क्यों देखना चाहती है?? 
इस लिहाज़ से देखूं तो ‘अनारकली ऑफ आरा’ न सिर्फ़ इश्यू बेस्ड है बल्कि मनोरंजन के तत्वों से भी भरी हुई है. और ऐसी फिल्मों को अक्सर ‘मिडिल सिनेमा’ का नाम दे दिया जाता है. 

जब इस फिल्म का टीज़र देखा था तभी यह महसूस हुआ था कि फिल्म में एक अलग तरह का रुझान है. उस वक़्त यह अलगाव शायद ठीक ठीक समझ न आया था लेकिन जब फिल्म देखने का मौका मिला तभी यह बात एक रेखांकित हो पाई. अनारकली को यदि आप खांटी मनोरंजन के लिहाज़ से देखने जा रहे हैं तो आपको निराशा हाथ लगेगी और यदि आप इसे विशुद्ध समानांतर सिनेमा के नज़रिए से देखने की कोशिश में हैं तो भी शायद आपकी अपेक्षाएं पूरी न हों. दरअसल यह एक जबरदस्त ‘कॉटेंट’ के साथ एक नये तरह के ‘फॉर्म’ की फिल्म है. फॉर्म नया इसलिए क्योंकि अपने कितने ही फ्रेम्ज़ में यह फिल्म डॉक्यूमेंट्री सरीखी लगती है तो इसके अनगिनत दृश्य अस्सी के दशक के मुख्यधारा सिनेमा की याद दिलाते हैं! और यही विरोधाभास इस फिल्म की ख़ासियत है. कहने की ज़रूरत नहीं कि यह ख़ासियत ही इस फिल्म को जीवन के विरोधाभासों के और ज़्यादा करीब ले जाती है. 

 मनोरंजक सिनेमा, अक्सर दर्शकों के ‘अविश्वास को ख़ारिज’ (Suspension of disbelief ) करता है ताकि दर्शक, पर्दे पर चल रही घटनाओं में इतना रम जाए कि उसे सच मानने लगे और अपनी जिंदगियों के द्वंद्व अथवा संघर्षों का अंत, फिल्म के केन्द्रीय चरित्र के द्वंद्व (जीवन के) के अंत के साथ मान ले. ज़ाहिर है ऐसा सिनेमा दर्शक की मनोरंजन वृत्ति को तुष्ट करने के लिए ही बनाया जाता है. लेकिन कुछ फ़िल्में आंशिक रूप से इस सिद्धांत को लागू करते हुए भी दर्शक के मन में एक ऐसी बेचैनी बनाए रखने में कामयाब होती हैं जिसे दर्शक सिनेमा हॉल के बाहर साथ लेकर जाता है. और इस बेचैनी का इस्तेमाल वह सिनेमा के पर्दे के बाहर खुद की ज़िंदगी की बेहतरी के औजार के रूप में करता है. इस लिहाज़ से देखूं तो ‘अनारकली ऑफ आरा’ अपने फॉर्म के स्तर पर बेहद सजग है. ब्रेख्तियन थियेटर की शब्दावली में कहूँ तो उसमें ‘दर्शक को प्रेक्षक में बदलने की’ क्षमता है. इस फिल्म को देखते हुए मुझे कहीं से भी यह बात भूली नहीं कि मैं एक फिल्म देख रही हूँ जो हमारे हिंदी पट्टी के समाज में स्त्री को लेकर गढ़ दिए गए तमाम आग्रहों को तोड़ती है. 

स्त्री के लिहाज़ से यह समय, सिनेमा में एक बदलाव की आहट का समय है. पिछले कुछ दिनों में ‘पिंक’ और ‘पार्च्ड’ जैसी फ़िल्मों ने अलग अलग पृष्ठभूमियों में स्त्री के शरीर के प्रति उसके अधिकार को रेखांकित किया है और स्त्री की हाँ या ना के महत्त्व को स्थापित किया है. इसी क्रम में ‘अनारकली...’ अपने क्लाइमैक्स के इस संवाद के साथ कि ‘रंडी हो या रंडी से थोड़ी कम, या बीवी, मर्ज़ी पूछ कर हाथ लगाना.’ अपने शरीर पर हक़ के लिहाज़ से एक औरत के संघर्ष का सम्पूर्ण निचोड़ प्रस्तुत करती है. फिल्म यह स्थापित करती है कि वह औरत जिसका पेशा नाचना – गाना है और सामाजिक अर्थों में वह भले ही ‘सती-सावित्री’ नहीं है लेकिन उस औरत की भी अपनी मर्ज़ी है, अपनी इज्ज़त है. फिल्म में स्वरा का वह संवाद कि ‘लोग सोचते हैं हम गाने वाले हैं तो कोई आसानी से बजा भी देगा...लेकिन अब अइसा नहीं होगा.’ से यह किरदार एक ऐसे विचार की शक्ल अख्तियार करता लगता है जो आज भी हमारे ‘संभ्रांत’ समाज के तमाम विमर्शों का हिस्सा नहीं है. यह वही समाज है जो एक तरफ तो ऐसी औरतों के विषय में बात करने भर से भी बचता है. तो दूसरी तरफ ‘संभ्रांतता’ के इस चोले के भीतर निहायत लिजलिजा सामंती पुरुषवाद बसता है और उसे इन औरतों से न केवल ‘लगाव’ है बल्कि एक स्तर पर वे ऐसे पुरुषों की हद दर्जे की बेवकूफाना ‘लत’ जैसी भी हैं. 

 जब छोटी थी तो दूरदर्शन पर आने वाली कला-फ़िल्में देख कर सोचती थी कि ये फ़िल्में इतनी रंगहीन और बोरिंग क्यों हैं! बड़ी हुई तो पता चला कि धूसर जिंदगियों का सच, रंगीन चश्मे से शायद उतना ठीक नहीं दिखता. लिहाज़ा वह सिनेमा ज़्यादा विश्वसनीय होता है जो ‘कथ्य’ के मार्फ़त अपने ‘रूप’ की तलाश करता है. अनारकली ऐसी ही एक फिल्म है जो आपको परियों की किसी कहानी जैसी नहीं लगेगी. उसके कॉस्टयूम जितने चमकदार हैं, ज़िंदगी उतनी ही स्याह. उसकी शख्सियत में जितनी ताब है समाज में उसकी जगह उतनी ही संकुचित. कहने की ज़रूरत नहीं कि यह द्वंद्व ही जीवन का सच है शायद! अनारकली को यह स्याह ज़िंदगी और यह संकुचित जगह विरासत में मिली है. बावजूद इसके अपने ही गाँव जवार के किसी आर्केस्ट्रा में गाने वाली सामान्य सी लड़की के भीतर अपने आत्मसम्मान के लिए मौजूद ताकत आपको आश्चर्य चकित कर सकती है...और यह बात इस फिल्म को खास बनाने के लिए काफी है. 

फिल्म की कुछ बातें जो अब तक ज़ेहन में बची रह गयीं हैं उन तमाम महत्वपूर्ण बातों में पहली बात यह है कि यह अविनाश दास की बतौर डायरेक्टर, डेब्यू है और एक लंबी संघर्षपूर्ण यात्रा के बाद फिल्म बना पाने की सलाहियत के लिहाज़ से शानदार डेब्यू है. इसके लिए अविनाश दास के जज़्बे को सलाम करना बनता है. उनके ब्लॉग ‘मोहल्ला लाइव’ पर सिने-समीक्षाएँ लिखते हुए और ‘सिने बहसतलब’ व ‘पटना लिटरेचर फेस्टिवल’ में उनके साथ काम करते हुए मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा है. तब मुझे नहीं पता था कि एक दिन उनकी फिल्म पर भी अपनी प्रतिक्रिया लिखूंगी. 

 दूसरी महत्त्वपूर्ण और रेखांकित करने वाली बात निःसंदेह स्वरा भास्कर की बेहतरीन अदाकारी है जो मेरे लिए अप्रत्याशित नहीं थी. पिछली तमाम फिल्मों में उनकी एक्टिंग लगातार एक पायदान आगे बढ़ती जा रही है. और यह बात बिना किसी शक-ओ-शुबहा के कही जा सकती है कि वे हमारे दौर की उन चंद संभावनाशील अभिनेत्रियों की जमात में शामिल हैं जिनकी वजह से हिंदी सिनेमा को गर्व महसूस करना चाहिए. ‘अनारकली’ के इस किरदार को निभाते हुए उनकी बेहतरीन डायलॉग डिलीवरी और चरित्र की मनोनुकूल भंगिमाओं का समायोजन सिनेमा हॉल से बाहर निकलने के बाद भी दिलो-दिमाग पर बाक़ी रह जाता है. इस ज़बरदस्त परफॉर्मेंस के लिए उनको बधाई. चूँकि वे जवाहर लाल नेहरु वि.वि. से भी सम्बन्ध रखतीं हैं इसलिए उनके प्रति एक विशेष लगाव भी है. और यह बात कहने की शायद ज़रूरत नहीं कि उनकी एक्टिंग के सन्दर्भ में कही गयी उपरोक्त बातें इस लगाव से बाहर रहते हुए लिखीं गयीं हैं.

इस फिल्म के प्रतीकात्मक प्रभाव पर बात करते हुए मुझे वह दृश्य विशेष तौर पर याद आ रहा है जहाँ ‘अनारकली’ के घर में तोड़-फोड़ करने के बाद कुछ गुंडे उसका पीछा कर रहे हैं. ...और तमाम गलियों कूचों से होती हुई उनसे बचने के लिए अनारकली भाग रही है. उस पूरे सीक्वेंस में मुझे जो बात सबसे ज़्यादा खटक रही थी, वह अनारकली के दुपट्टे का उसके दौड़ने में बाधा बनना थी. उस दृश्य को देखकर अनायास यह सवाल ज़ेहन में आता है कि यह लड़की इस दुपट्टे को छोड़ क्यों नहीं देती!! लेकिन अनारकली न सिर्फ़ उन गुंडों से बचती हुई बल्कि अपने दुपट्टे से भी संघर्ष करती हुई दिखाई गयी है. अपनी प्रतीकात्मकता में यह दृश्य, दुपट्टे के मार्फ़त औरत के अस्तित्व पर लाद दिए गए अथवा आरोपित कर दिए गए पितृसत्तात्मक मूल्यों और मान्यताओं का प्रतिनिधित्व करता है. इन मान्यताओं के बोझ तले दबी औरत के जीवन का संघर्ष निःसंदेह और गहराता जाता है. 

दूसरी प्रतीकात्मक व्याख्या के तौर पर मुझे ‘हीरामन’ का किरदार याद आता है जो ‘देश के लिए खा लीजिए या गा दीजिए’ कहते हुए एक तरफ इस ‘राष्ट्रवादी’ समय पर गहरे तक व्यंग्य करता है तो दूसरी तरफ अपनी आँखों और संवादों से ‘अनारकली’ के प्रति अपनी मासूम चाहत का इज़हार करता हुआ ‘तीसरी कसम’ में रेणु के ‘हिरामन’ की याद दिलाता है. हाँ ये ज़रूर है कि अनारकली के रूप में उसे हीराबाई नहीं मिलती (और अनारकली उसे भईया बोलती है!!) या कि अनारकली के लिए वह ‘मीता’ नहीं बन पाता. इस किरदार की ऐसी परिणति कई मायनों में फिर से ‘हिरामन’ की परिणति की याद दिलाती है जहाँ उसे हीराबाई मिल कर भी नहीं मिल पाती. हमारे समाज की ऐसी मासूम चाहतों की परिणतियाँ, बिल्कुल ऐसी ही होती हैं. हीरामन के किरदार के रूप में इश्तेयाक खान याद रह जाते हैं. 

फिल्म प्रतीकात्मकता के स्तर पर ऐसे कई दृश्यों और सीक्वेंसेज़ से भरी हुई है जिन्हें अन फोल्ड करने के लिए इस फिल्म को दोबारा देखे जाने की ज़रूरत महसूस होती है. 

पंकज त्रिपाठी और संजय मिश्रा जैसे मंझे हुए कलाकारों के साथ यह फिल्म सृजनात्मक स्तर पर लगातार खूबसूरत होती जाती है.

फिल्म के गीतों की बात करूँ तो चाहे वह ‘मोरा पिया मतलब का यार’ हो या ‘ए सखि ऊ, ना सखि बदरा’ हो ‘मेरा बलम बम्बइया’ हो या ‘मन बेक़ैद हुआ’ हो रविंदर रंधावा, डॉ. सागर, और रामकुमार सिंह जैसे गीतकारों ने बहुत ही खूबसूरती से फिल्म के कथ्य का साथ निभाया है.

अपनी बात खत्म करते हुए यदि, अपने प्रिय स्टार शाहरुख खान की फिल्म का डायलॉग उधार लूँ कि ‘अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो तो पूरी क़ायनात उसे तुमसे मिलाने की कोशिश में लग जाती है’ तो कहूँगी कि ऐसा फिल्मों में तो होता है...लेकिन फिल्म बनाने का सपना देखने वाले लोगों के साथ यह बिल्कुल नहीं होता. और असल ज़िंदगी में ठीक इसके उलट होता है...बावजूद इसके अविनाश सर ने यह फिल्म बनाई और क्या खूब बनाई! ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ उन्हें और उनकी पूरी टीम को फिर से बधाई! पूरी टीम के साथ साथ अविनाश सर के संघर्षों की साथी स्वर्ण कान्ता दी को इस फिल्म के लिए ढेर सारी बधाई दिए बिना मेरी बात कतई पूरी नहीं हो सकती.


________________
पेशे से अध्यापक विभावरी फिल्मों की रसिया भी हैं और अध्येता भी. उनका शोध कार्य भी फिल्मों पर ही है जिसके जल्द ही किताब के रूप में सामने आने की उम्मीद है. 

संपर्क : vibhavari2080@gmail.com 

Viewing all articles
Browse latest Browse all 273

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>