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जागता रहे एक सुनहली शाम का वहम - वंदना शर्मा

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असुविधा के पाठक वंदना शर्मा से परिचित हैं. आज उनकी यह कविता उन्हें जन्मदिन की अशेष शुभकामनाओं के साथ 

मैक्स लायेंजा की पेंटिंग यहाँसे 


'दुनिया सिर्फ रोक गार्डन है'
ढाढस् बंधाती हूँ कि अब कच्चे नही रहे बर्तन
आग पर चढें या गलाए जाएँ पानी में
लगता तो है कि रहेंगे बेअसर
बार बार घिसे जाने के बाद भी
भोर के तारे सी बचे रहेगी चमक
सब ऐसा, नही था पहले पहल
थोड़ी और सचेत हो गई हैं
चौकने के फ़ौरन बाद की सूरतें
दिल दिमाग के मध्य पसर गए हैं सनस्क्रीन ..
झर ने की लय से भरा है हाथों से फिसलता रेत ..
डूब गया है सूना आकाश तक बुहर जाने के आह्लाद में
सुबहें अकेले सूरज इकलौते चाँद वाली नही रहीं
भरा पूरा है आजकल आकाश ..
दिन किसी भी रंग का हो सकता है इस चेतावनी के बाद
हैरानियाँ मन मसोस प्रतीक्षा में हैं कि कामयाब हों..
हो चले हैं सारे मौसम गर्मियों के
चुह्चुहाते पसीने से दिक्कत नही है
जलते खून से,
बेतरह, बेवजह खर्च होती उम्र से भी दिक्कत नही है
तो ये कौन सी फिक्रें है ..
कि न टूटने पायें तश्तरियां प्याले मटकियां
प्रतिबिम्ब ही सही कैसे भी दीखतें रहें साबुत
भ्रम ही सही बचा रहे आँखों में जल
लगता रहे बार बार कि किसी रोज पहुँच ही जायेंगे पास
बनी रहे आखिर तक एक ही चूल्हे की आस,
जागता रहे एक सुनहली शाम का वहम,
टिका रहे एक भरोसा वफादार रात्रि का
कहीं भीतर चटके आगंन में
हरा रहे कोई एक सदाबहार बिरवा
सारे अन्धंडों के बाद,
झूमता रहे साथ ..

बेगुनाही भी जद में हों, उम्रकैद की
नाक की सीध में भी पूरे आसार हों, टक्करों के
और तय पाया जाए कि दुनिया सिर्फ एक रोक गार्डन है
तो कबाडी और स्त्रियों का शुक्रिया कहो
जो कब से बचाएं हैं धरती पर सौंदर्य ..

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वंदना शर्मा 

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित. अंतर्जाल पर भी सक्रियता. सम्प्रति मोदीनगर के एक कालेज में हिंदी की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर

असुविधा में उनकी कुछ और कवितायें यहाँ 


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