हमारे समय के बेहद ज़रूरी किस्सागो शिवमूर्ति जी पर लिखा विवेक मिश्र का यह आलेख लमही पत्रिका के शिवमूर्ति अंक में छपा है.
अपनीमँड़ईयाके'शिव' राजा
एकरचना, उसकारचनाकारऔरउसरचनाकारकाजीवनवृत्तबाहरसेदेखनेपरभलेहीतीनअलग-अलगबिन्दुप्रतीतहोतेहोंपरन्तुजीवनकेवृहत्तरआयामोंमेंइनतीनोंबिन्दुओंकोपरखनेपरयहएकघेरेमें, एकसाथचमकतेदिखाईदेतेहैं।अर्थातएकरचनाकारकीरचना, उसकाव्यक्तित्वऔरउसकाजीवन-वृत्तबाहरसेभलेहीअलग-अलगरंगतथाआकार-प्रकारकेदिखतेहोंपरकहींनकहींरचनात्मकधरातलपरयहतीनोंहीआपसमेंकुछइसतरहघुले-मिलेहोतेहैंकिनतोइन्हेंबिलगानाहीसंभवहोताहैऔरनहीएककेबिनादूसरेकोसमझपाना।……औरमैंजितनीबारभीकिसीमौलिकरचनाकारकीरचनाकोपढ़नेकेबादउसकेजीवनऔरव्यक्तित्वकेबारेमेंजाननेकीकोशिशकरताहूँतोकभीअंशत: औरकभीशतप्रतिशतयहबातसचहीसाबितहोतीहै, परशिवमूर्तिजैसेकथाकारकेबारेमें, यहबातउन्हेंबार-बारपरखनेपरभी, हरबारहीसचसाबितहुईहै।
शिवमूर्तिजीकीकहानियोंकोपढ़नेकेलिएमुझेपहलेपहलउकसायाकथाकारसंजीव ने।उनदिनोंसंजीवजीदिल्लीमें'हंस' केकार्यकारीसंपादकथेऔरउन्होंनेअपनाउपन्यास 'आकाशचम्पा' पूराकियाथाऔरवह'रहगईदिशाएंइसीपार' परकामकररहेथे।एकदिनअनायासहीउन्होंनेमुझसेपूछा'आपनेशिवमूर्तिकी'अकालदण्ड' पढ़ीहै।मैंनेकहा' मैंनेउनकी‘भरतनाट्यम’पढ़ीहै।' उन्होंनेकहा'आपशिवमूर्तिकीसारीकहानियाँपढ़िए।' औरमैंनेतभीशिवमूर्तिकीअन्यकहानियाँजोतबतकनहींपढ़ीथीं, पढ़नीशुरुकीं।उन्हींदिनोंएकनईपत्रिका'मंच' जोबांदासेप्रकशितहोनेजारहीथीऔरउसकाप्रवेशांककथाकारशिवमूर्तिपरकेन्द्रितकिएजानेकीयोजनाथीऔर उसकासंपादनसंजीवजीकोसौंपागयाऔरउन्होंने'हंस' केसंपादनकेदबावऔरअपनेखराबस्वास्थकेबावज़ूदउसेकिसीतरहकियाभी, परअंतमेंउसअंकसेवहस्वयंहीबहुतसंतुष्टनहींथे।संजीवजीएकपरफैक्सनिस्टआदमीहैंऔरशिवमूर्तिसेऔरउनकेरचनासंसारसेबहुतअच्छेसेवाकिफ़भीहैं।वहजानतेथेकिअंकऔरअच्छाबनसकताथा, परउससमयअंकजैसाभीबना, उन्हेंउसीसेसंतोषकरनापड़ा, परउसदौरानमेरीऔरउनकी, शिवमूर्तिजीकीकईकहानियोंऔरउनकीरचनाप्रक्रियापरअच्छीखासीचर्चाहुई।सचमुचमैंजैसे-जैसेशिवमूर्तिजीकीकहानियाँपढ़तागयाबिलकुलहीएकनयारचनासंसारऔरएकसोनेसीखरीऔरईमानदारदुनियामेरेसामनेआकारलेतीचलीगई।शिवमूर्तिजीकीलगभगसारीकहानियोंकोपढ़चुकनेकेबादअबमौकाआयाउनसेमिलनेकाऔरवहसमयथा- 'मंच' केउसीअंककेदिल्लीकेसाहित्यअकादमीकेसभागारमें लोकार्पणका।वहाँभीसंजीवजीनेहीमेराउनसेपरिचयकराया।उसदिनहमनेउन्हेंदेखाभीऔरसुनाभी।दिल्लीकेस्वनामधन्यसाहित्यकारोंसेबिलकुलअलगबिनाकिसीताम-झामऔरआडम्बरकेवहसबसेमिले।उसछोटीसीमुलाकातमेंभीमैंउनकामुरीदहुएबिनानरहसका।बसउससमयएकहीबातमनमेंरहगईकिमैंउसअंकमेंकिन्हींकारणोंसेअपनालेखनहींदेसकाऔरयहइछापूरीहुईउसकेलगभगडेढ़दोसालबादजब'लमही' केकहानीएकाग्रकेआनेकेबादअंककेअतिथिसंपादकभाईसुशीलसिद्धार्थनेमुझसेकहाकि'लमही' काअक्टूबर-दिसम्बरअंकशिवमूर्तिजीपरकेन्द्रितहोगाऔरआपकोउनकीकहनियोंपरलिखनाहै।यहजानकरमुझेबहुतखुशीहुईऔरलगाकिशिवमूर्तिजीकीकहानियोंसेऔरगहरेजुड़ने, उन्हेंसमझनेकायहअच्छाअवसरहैऔरमैंनेउनकीकहानियोंपरलिखनाशुरुकिया। उसकेबादतोफिरशिवमूर्तिजीसेमुकाक़ातभीहुईऔरसमय-समयपरफोनपरबातभीहोतीरही।उनकीकहानियाँपढ़करजोमैंनेमहसूसकियाउसीकोयहाँरखनेकीकोशिशकररहाहूँ।
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लेखक |
मैंबुंदेलखण्डकाहूँ, परमेरेखेतों, खलिहानोंऔरगाँवोंको देखने, वहाँ रहने और उनके बारे में लिखने के बाद भी उनसे उतना गहरा रिश्तानहींरहाहै, जितना शिवमुर्ति जी का,परमैंकहूँगाकिमुझेशिवमूर्तिजीकोपढ़तेहुए, उनकीभाषासेजुड़तेहुए, उसेसमझनेमेंज़रा-सीभीकठिनाईनहींहुई।बल्किजितनाभीगाँवमेरेभीतरथाऔरजोसमयबीतनेपरकहींखोगयाथा, वहप्रकटरूपमेंमेरेसामनेआकरखड़ाहोगया।उनकोपढ़तेहुएमैंनेपायाकिशिवमूर्तिहमारेसमयमेंग्राम्यजीवनकीदुश्वारियाँको, वहाँकेजीवनमूल्योंको, यथार्थको, सामाजिक-पारिवारिकबनावटको, स्त्री-पुरुषकेबीचकेअंतरविरोधोंको, जीवनकेकठिनसमयमेंभीमानवीयजिजिविषाओंऔरजुगुप्तसाओंको, अपनेचरित्रोंकीलगातारटूट-टूटकरबार-बारपुनर्निर्मितहोतीज़मीनको, उनकेअंतर्द्वन्द्वोंकोध्यानसेदेखतेऔर केवलअपनेसाहित्यमेंदर्ज़हीनहींकरतेहैंबल्किवहइससबकोख़ुदमहसूसकरतेहुएअपनेचरित्रोंकेसाथ-साथजीवनकीजटिलताओंकेअंधकूपमेंभीतरतकउतरतेहैं।वेउनकेसाथउठते-बैठतेहैं, हँसते-रोतेहैंऔरकहूँकिवहउनकेसाथजीते-मरतेहैं, तो भी कोई अतिश्यिक्ति नहीं होगी।वहइसक़दरउनसेजुड़जातेहैंकिचरित्र, घटनाऔरकहानीकारकेबीचकोईदूरीनहींरहती, उनमेंकोईअन्तरनहींरहता।कर्ताऔरकहनहारेकाफ़र्कमिटजाताहै।
उनकी कहानियाँ किसी उथले यथार्थ के हवाई चित्र नहीं हैं। न ही वे भाषाई आडम्बर से बनाए गए ऐसे स्वादिष्ट साहित्यिक व्यंजन ही हैंजिनमें से भाषा कि चिकनाई निकाल लेने पर, उनमें बस छाँछ ही बची रह जाए। उनकी कहानियाँ हिन्दी साहित्य में गाँव में बसे दलित और वंचित वर्ग की खोई हुई अस्मिता को वापस पाने का हथियार है और यह बात वह कहानी की शुरुआत मैं ही साफ कर देते हैं। अगर हम ‘कसाईबाड़ा’ कहानी की शुरुआत को ही देखें तो यह बात बिलकुल साफ दिखाई देती है कि वह किस के पक्ष में खड़े हैं। कहानी कुछ इस तरह शुरु होती है - ‘गाँव में बिजली की तरह खबर फैलती है कि शनिचरी धरने पर बैठ गई, परधान जी के दुआरे। लीडर जी कहते हैं, ‘जब तक परधान जी उसकी बेटी वापस नहीं करते, शनिचरी अनशन करेगी, आमरण अनशन।’
उनकी कहानियों के अन्त में समाधान भी कहीं बाहर से नहीं आता। कोई नाटकीयता या चमत्कार नहीं होता बल्कि सर्वसाधारण दिखने वाला, सर्वहारा समाज का कोई अदना सा व्यक्ति उठता है और आगे बढ़कर, परिस्थितियों में पिसकर, पककर नायक में तब्दील होता है। उनकी कहानियों का हर पात्र पूरी मजबूती से अपने चरित्र को उसके गुण-दोषों के साथ पकड़े रहता है। ‘कसाईबाड़ा’ के सभी मुख्य चरित्र – शनिचरी, परधान जी और लीडर जी सभी हमारे आस-पास की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हमसे आय दिन रुबरु होने वाले, हमसे गाहे-वगाहे टकराने वाले चरित्र हैं। हाँ, उनकी भाषा-वानी और पहनावे आदि में फर्क हो सकता है। पर उनकी प्रवृत्तियों को आप वास्तविकता में अपने आस-पास देख सकते हैं। यहाँ कहानी के मुख्य चरित्र ही नहीं बल्कि कथानक की परिधि पर बैठे चरित्र भी अपनी पूरी पिक्युलियरिटी के साथ न केवल अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं बल्कि समाधान भी सुझाते हैं और कहानी को आगे भी बढ़ाते हैं। ऐसा ही एक करेक्टर है ‘कसाईबाड़ा’ का अधरंगी। वह गाँव के सीवान पर मवेशी चराता, एक नेपथ्य में भटकता चरित्र है, जो कहानी को उसके अन्त की ओर धकेल देता है। पर उसका यह आक्रोश अनायास नहीं है। वह सदियों से शोषण के ख़िलाफ़ छातियों में पलता वह ज्वालामुखी है, जो बस अब किसी भी क्षण फट पड़ने को है।– ‘दो पुतले बनाए हैं अधरंगी ने। एक परधान जी का, दूसरा उनके बेटे परेम कुमार का। अपनी कमीज फाड़कर दोनो के लिए कुर्ता-पायजामा सिला है। शनिचरी को समझा रहा है, ‘कोई नहीं आएगा काकी, हमारी मदद के लिए। न परधानमंतरी न मुखमंतरी। न भगवान, न भगौती। हम खुद अत्याचारी को सजा देंगे।’
दूसरे दिन सवरे ही वह फटा कनस्तर पीट-पीटकर गाँव भर में एलान कर रहा है, ‘आज शाम पाँच बजे। बिल्डिंग के सामने, बबूल के ठूँठ पर लटकाकर गाँव के बेटी बेचवा परधान और उसके बेटे परेम को फाँसी दी जाएगी। आप सभी हिजड़ों से हाथ जोड़कर पराथना है कि इस शुभ अवसर पर पधारकर……’ और पाँच बजे शाम को अधरंगी ने दोनो को शनिचरी के हाथों से फाँसी दिला दी।
कहानी में छुरी, चाकू, बल्लम, गोली, तमंचा, जुलूस-नारे, झंडे कुछ भी नहीं हैं, पर एक सशक्त क्रांति के आग़ाज़ का बिगुल फूँक रहा है, अधपगला अधरंगी। शनिचरी की पीर आधी रात में घायल-अंधी चमगादड़ की तरह दीवारों से टकराकर यहाँ-वहाँ गिर रही है। घरों, खेतों, खलिहानों और सीवान में, गाँव से दूर जाती पगड़ंडियों और दूर तक फैले बियाअबानों में बूँद-बूँद रिस रही है। कहानी में विद्रोह का बीज बन रहा है शनिचरी का रुदन- ‘अंधेरा घिरने के बाद शनिचरी लेटे-लेटे कारन करती है, ‘अरे या परधनऊ, गाँव की नकिया कताई के भाग्या। मेहरी के चुरिया फोराई के भाग्या। महल- अटाराईया गँवाई के भाग्या,…ऊ हू हू हू।’
शिवमूर्ति की कहानियाँ दलित अस्मिता को पुनर्परिभाषित करती हैं। एक बार उन्होंने दलित अस्मिता पर बोलते हुए कहा भी था कि अस्मिता का मतलब अपने अधिकार को, अपने प्राप्य को चिन्हित करना और उसे पाने का और उसको अभिव्यक्त करने का प्रयास करना है। अस्मिता माने अपने वजूद को सामने लाना, शब्दों में। इस प्रकार से कि लोगो को लगे कि आप भी हैं। आपका भी वजूद है। आपको भी चिन्हित किया जाना चाहिए। अस्मिता का यही अर्थ है।
शिवमूर्ति दलित अस्मिता के बारे में कहते ही नहीं हैं। वह उसे सिद्ध भी करते हैं। शब्द दर शब्द, पंक्ति दर पंक्ति, कहानी दर कहानी वह निरन्तर दलित और वंचित वर्ग की अस्मिता का साहित्य रचते रहे हैं।
उनकी कहानियों का दृश्य विधान बहुत सशक्त है। सब कुछ जैसे आप अपनी आँखों के सामने घटते हुए देख रहे हैं। आप उन्हें पढ़ते हुए उनकी रचना की दुनिया में सहज ही उनके साथ विचरने लगते हैं। आप भी पात्रों के साथ ऐसे जुड़ने लगते हैं जैसे वे अभी आपसे ही पूँछ बैठेंगे कि बोलो यह सही है कि नहीं। शिवमूर्ति की ग्रामीण जीवन से लवरेज़ कहानियाँ केवल वहाँ के दुख-दर्द की कहानियाँ नहीं हैं। वह बार-बार बताते और जताते हुए चलते हैं कि ग्रामीण होना मूर्ख होना नहीं है। अनपढ़ होना विचारहीन होना नहीं है। गरीब होना कायर होना नहीं है। इसलिए गरीबी-बेरोज़गारी के त्रास को सहते हुए भी उनके चरित्रों में वौचारिक पतन नहीं है। बल्कि उसका परिमार्जन है और यही शिफ्ट उन्हें ग्राम्य कथाकार होते हुए भी कहीं न कहीं अपने समय के अन्य कथाकारों से अलग करता है। ‘भरतनाट्यम’ कहानी में नायक दुर्धर्ष परिस्थितियों में फसा एक ऐसा चरित्र है, जो अन्त तक गरीबी और बेरोज़गारी झेलने के बाद भी ईमानदार बने रहना चाहता है। पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों ने उसे दुखी तो किया है पर वह वैचारिक रूप से कुंठित नहीं है। उसकी सोच मुक्त है। वह थोथी मान्यताओं से बंधा नहीं है। वह बंधा है तो मात्र प्रेम के संबंध से, जो उसके जीवन का आलंब भी है और कहानी में वह इसे बड़ी सहजता से स्वीकारता भी है।
‘भरतनाट्यम’ से- ‘इस तरह के छिट पुट प्रेम संबंधों को मैं गंभीरता से नहीं लेता। इसे मेरा दमित पुंसत्व कहिए या लिबरल आउटलुक। मैं पाप-पुन्य, जायज-नाजायज़, पवित्र-अपवित्र और सतीत्व-असतीत्व के मानदण्डों से भी सहमत नहीं हूँ। मांगकर रोटी खाली या काम तुष्टि पाली, एक ही बात है।……मैं भयभीत हुआ था तो सिर्फ इस बात से कि इन दिनों, मैं जिस हताशा और निपट एकाकीपन की अंधेरी गुफा में फसा हूँ, वहाँ पत्नी ही एक मात्र आलम्ब है, जिसके आंचल में मुँह छिपा लेने पर घड़ी दो घड़ी सुकून मिल जाता है। यह आलंब भी छूट गया तो झेल नहीं पाऊँगा। पैर उखड़ जाएंगे और मैं डूब जाऊँगा।’
शिवमूर्तिजीकीकहानियाँजबगाँवकेयथार्थकोऔरशहर, बाज़ारऔरतथाकथितविकासकोजोड़तीहैंतोउसकेसंधिस्थलपरस्वयंशिवमूर्तिखड़ेदिखाईदेतेहैं।गाँवकेदुरुहजीवनसेलेकर सुख-सुविधाओंसेभरेशहरीजीवनऔरछोटी-मोटीनौकरीसेलेकरराज्यसरकारकीअफसरीतककेसफ़रकेअनुभवोंकाउनकेपास अकूतभंडारहै।आजहमउनकेबारेमेंकहसकतेहैंकिउन्होंनेसिर्फभारतकेगाँवहीनहींदेखेबल्किदुनियादेखीहै।परवह दुनियादेखकरजबगाँवलौटतेहैंतोवहस्वयंकोगाँवसेदूरनहींपाते।वहस्वयंकोउसीहवा-पानी-मिट्टीकाअंशहीपातेहैं। तभी वहाँ की हवा में घुली उदासी और नमी को वे ‘केशर-कस्तूरी’ में उसके रूप और रंग के साथ जस का तस उतार पाते हैं। ‘केशर-कस्तूरी’ में वह नारी की पीड़ा का नाटकीय रूपान्तर नहीं करते बल्कि रेशा-रेशा उसका दर्द जस का तस पाठक के सामने रख देते हैं। ‘केशर-कस्तूरी’ पढ़ते हुए मुझे शिवमूर्ति जी की पत्नी की अपने एक साक्षात्कार में कही गई बात याद आ गई। उन्होंने कहा था कि शिवमूर्ति जी बहुत भावुक हैं। कितनी ही बार वह कहानी लिखते-लिखते रोने लगते हैं।……और बीच में ही क़ाग़ज़-कलम छोड़ देते हैं। फिर कई दिनो तक वह कहानी अधूरी पड़ी रहती है। सचमुच ‘केशर-कस्तूरी’ पढ़ते हुए केशर की पीर जैसे सीधी आपके अपने किसी बेहद निजी, किसी बहुत करीबी आदमी के दुख में ट्रांसलेट हो जाती है। शिवमूर्ति अपनी कहानियों में परिवेश के अनुकूल विश्वसनीय भाषा, घटना और समय के अनुकूल लोकोक्तियों, मुहावरों और लोक गीतों के प्रयोग से कहानी में वह प्रभाव पैदा करते हैं, जो दूसरे लेखक आठ-दस पन्नों के विवरणों से भी पैदा नहीं कर पाते। वह कुछ पँक्तियों में ही कहानी को एक लम्बी छलाँग के साथ आगे ले जाते हैं और यह छलाँग समय और चरित्र की मनोदशा, दोनो की हो सकती है और ऐसे में कहानी की पठनीयता भी बाधित नहीं होती बल्कि यह और भी बढ़ जाती है। ‘सिरी उपमा जोग’ में कहानी कुछ ऐसे आगे बढ़ती है- ‘सोई नहीं वह। बड़ी देर तक छाती पर सिर रखकर पड़ी रही। फिर बोली, ‘एक गीत सुनाऊँगी आपको। मेरी माँ कभी-कभी गाया करती थीं।’ फिर बड़े करुण स्वर में गाती रही वह, जिसकी एकाध पँक्ति अब भी उन्हें याद है, ‘सौतनिया संग रास रचावत मो संग रास भुलान, यह बतिया कोउ कहत बटोही, त लगत करेजवा में बान,….…’
शिवमूर्ति की कहनियों में लोक की झलक की चर्चा करते हुए मुझे उनकी कहानियों पर कथाकार मैत्रेयी पुष्पा की कही बात याद आ रही है। उन्होंने कहा था कि शिवमूर्ति के समकालीन कथाकारों में से कई ने प्रेमचंद को छूने की कोशिश की है, पर शिवमूर्ति अपनी कहानियों में कई बार रेणु को छूकर लौट आए हैं। ‘केशर-कस्तूरी’ और सिरी ‘उपमा जोग’ जैसी कहाहियाँ पढ़कर उनके इस कथन में कहीं से भी कोई अतिश्योक्ति नहीं दिखाई देती।
उनकी कहानियों के चरित्रों के नितान्त पिछड़ेपन में भी एक निराली आभा और स्वाभिमान है और वे भाषाई आडम्बर के साथ लिखी जाने वाली कहानियों के बनावटी चरित्रों को पलभर में ही ध्वस्त कर देते हैं। ‘केशर-कस्तूरी’ में केशर द्वारा कही इन पँक्तियों से अनायास ही दुख के कुहासे में हिम्मत की त्वरा तड़क उठती है।– ‘दुख तो काटने से ही कटेगा। बप्पा’ केशर चूल्हे की आग तेज़ करते हुए बोली, ‘भागने से तो और पिछुआएगा।’ चेहरे पर आग की लाल लपट पड़ रही थी। वह समाधिस्त-सी लग रही थी।
इस कहानी के अन्त में केशर अंदर की कोठरी में बैठी, लालटेन की रोशनी में सिलाई मशीन पर कपड़े सिलते हुए, बीच में रुककर, आँखें मूँदकर एक गीत गा रही है–‘मोछिया तोहार बप्पा ‘हेठ’ न होई है, पगड़ी केहू ना उतारी, जी-ई-ई। टूटही मड़हिया में जिनगी बितउबै, नाही जाबै आन की दुआरी जी-ई-ई।
कहानी मे केशर के बाप को बेटी के दुख की चिन्ता तो है ही साथ ही यह भी चिन्ता है कि कहीं लड़की का पाँव ऊँच-नीच पड़ गया, कोई ऐसी-वैसी बात हो गई तो, जिससे बाप की मान-प्रतिष्ठा का प्रश्न भी जुड़ा है, पर यहाँ केशर लम्बे संवादों का सहारा नहीं लेती बल्कि रात के अंधेरे में अपने आप ही उसके होंठों से यह गीत फूट पड़ता है, जो पिता को आश्वस्त करता है कि कितनी ही विपदा आन पड़े, वह अपने पिता की मान-प्रतिष्ठा बचाए रखेगी। वह डिगेगी नहीं। यह केशर के रूप में हिन्दुस्तानी नारी का हज़ारों-हज़ार पीड़ियों से विरासत में मिला अनुभव और उसकी परिपक्वता बोल रही है। इन चरित्रों के माध्यम से शिवमूर्ति ने अनुभव और यथार्थ को ठोस व्यवहारिक रूप में पकड़ा है। उनके पात्रों के संवादों में, जो हकीकी दर्शन है, उसे कोई किताबी तर्क से नहीं काट सकता।
कहा जाता है कि शिवमूर्ति ने बहुत कम लिखा, पर मुझे लगता है कि उन्होंने थोड़े में ही बहुत लिखा है। आज ज़रूरत उसमें गुथे हुए सूत्रों को बिलगाने की, उन्हें समझने की है। वह अपनी बिलकुल अलग तरह की कहानियों की दुनिया के एक फक्कड़ और बिना पगहे के सरदार हैं। उनके रचना संसार की यात्रा को समझने के लिए हमें यथार्थ और संवेदना दोनो के ही अलग-अलग स्तरों पर अपनी शहरी और अकादमिक सोच को छोड़कर उनके साथ ‘तिरिया चरित्तर’ के उस टीले पर चढ़ना पड़ेगा जिसपर आज भी बिल्लर का वह गीत गूँज रहा है- ‘अरे टूटही मँड़हिया के हम हैं राजा, करीला गुज़ार थोरे मा, तोरे मन लागे न लागे पतरकी, मोर मन लागल तोरे मा।’’
संपर्क - विवेक मिश्र, 123-सी, पाकेट-सी, मयुर विहार, फेस-2, दिल्ली-91 मो:-9810853128, इमेल:- vivek_space@yahoo.com