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मलाला के लिए चिट्ठी

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जानते हैं न आप मलाल युसुफ़जाईको? वही बच्ची जो रावलपिंडी के एक हस्पताल में मौत और ज़िंदगी के बीच संघर्ष कर रही है...वही बच्ची जो तालिबानी हत्यारों से अपने पढने के हक के लिए लड़ रही थी...कल एक पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि हरियाणा में औरतों की इज्जत बचाने का तरीका यह है कि उनकी शादी उस उम्र में कर दो जो पढने-लिखने की होती है, उससे पहले किसी पुलिस अधिकारी ने कहा था कि लड़कियों के साथ बलात्कार इसलिए होता है कि वे आधुनिक कपडे पहनती हैं...किसने सोचा था कि आज़ादी के सात दशक बीतते न बीतते सीमा के दोनों पार औरतों के इतने हत्यारे पैदा हो जायेंगे.

खैर यह वक़्त उस बहादुर लड़की के लिए दुआ करने का है. उसके संघर्ष से एकजुटता दिखाने का है...हमारी फेसबुक मित्र आभा मोंढे निवसरकर नेयह कविता उसके नाम की है...


मलाला
तुम्हें मैंने सुना है
कॉर्नफ्लेक्स में दूध पर केला काट कर डालते समय
जब तुम ग्यारह साल में
खौलते खून के साथ
खुले आम भाषण दे रही थीं
उन लड़कियों की याद में
जो अपने स्कूल की तरह कहीं राख हुई
किसी बच्चे को गोद में लिए
कोई पन्ना चूल्हे में डाल रही होंगी
मैं ठंडे यूरोप में स्मार्ट फोन पर तुम्हें देख रही थी
मलाला
मैं तुम्हारी जगह ले ही नहीं पाऊंगी.

जिस समय उन दाढ़ी वाली लोगों ने
तुम्हारे सिर और गले पर गोली मारी
तो वह सिर्फ तुम्हारा मुंह और दिमाग बंद करना चाहते थे
वो कुछ और कर भी नहीं सकते मलाला
क्योंकि उनके दिमाग और गले पहले ही बंद हैं

मलाला
मैं जिसे सब मिला है
वो सिर्फ महसूस कर सकती है
तुम्हारा संघर्ष, तुम्हारी जिद
मलाला... तुम जियो
और हर लड़की का दिमाग बनो
यही तमन्ना है

नरेश सक्सेना के संकलन सुनो चारुशीला पर नलिन रंजन सिंह

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  • नलिन रंजन सिंह

‘सुनो चारुशीला’ नरेश सक्सेना का दूसरा कविता संग्रह है। पहला संग्रह ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ पाठकों और आलोचकों द्वारा पहले ही सराहना प्राप्त कर चुका है। नरेश सक्सेना पिछले 54 वर्षों से कविता लेखन की दुनिया में सक्रिय हैं, फिर भी उनके मात्र दो कविता संग्रहों का छपना उनके प्रशंसक पाठकों को आश्चर्यचकित करता है। दरअसल नरेश जी की कविता की ताकत भी यही है-कम लिखना, ज्यादा पढ़ा जाना और पाठकों को याद रहना। नरेश जी हमारे समय के कुछेक कवियों में से हैं जो कम लिखते हैं लेकिन जो लिखते हैं वह यादगार लिखते हैं। आज जबकि लोगों को कविताएँ याद नहीं रहतीं, लोग कविताओं को नहीं, कवियों को याद रखते हैं- तब नरेश जी को लोग उनकी कविताओं से जानते हैं, पहचानते हैं। पहचानने का संदर्भ इसलिए कि नरेश जी की कविताएँ उनसे सुनने का आनंद ही कुछ और है। नरेश सक्सेना की कविताओं में बोध और संरचना के स्तरों पर अलग ताजगी मिलती है। बोध के स्तर पर वे समाज के अंतिम आदमी की संवेदना से जुड़ते हैं, प्रकृति से जुड़ते हैं और समय की चेतना से जुड़ते हैं तो संरचना के स्तर पर वे अपनी कविताएँ छंद और लय के मेल से बुनते हैं।

‘सुनो चारुशीला’ में नरेश जी की कुल 49 कविताएँ शामिल हैं। ज़्यादातर कविताएँ सन् 2000 के बाद की लिखी गई हैं। कुछ कविताएँ 1960-62 के आस-पास की हैं। इन्हें पहले संग्रह में ही होना चाहिए था किन्तु ये कविताएँ अगर दूसरे संग्रह में हैं और पुरानी हैं तो भी न ही उनका महत्व कम हुआ है और न ही वे कहीं से पुरानी लगती ही हैं। नरेश जी की कविताओं को पढ़ने-सुनने से ऐसा लगता है कि इनमें से अधिकतर कविताएँ छंदबद्ध हैं और नरेश जी पुरानी परम्परा के वाहक कवि हैं। किन्तु वे ऐसा नहीं मानते। ‘सुनो चारुशीला’ के पूर्वकथन में वे लिखते हैं- ”कुछ लोगों की धारणा है कि मैं पहले गीत लिखता था, बाद में गद्य शैली में लिखने लगा। यह सच नहीं है। छंद में तो आज भी लिखता हूँ। ‘शिशु’ और ‘घास’ कविताएँ छंद में हैं और इधर की ही लिखी हुई हैं, किन्तु आज की कविता के साथ छंद या लय का निर्वाह सहज संभव नहीं है। ... मैंने मुख्यतः गद्य शैली में ही कविताएँ लिखी हैं। किन्तु 1962 में एक खास वजह से कुछ गीत लिखे, जिन्हें धर्मयुग ने पूरे रंगीन पृष्ठ पर बड़ी प्रमुखता से छापा। ...शायद इसी कारण लोगों का ध्यान मेरे गीतों की ओर आकर्षित हुआ होगा। ...‘कल्पना’ में, उन दिनों तीन बार में मेरी कुल आठ कविताएँ छपी थीं जिनमें से सात गद्य में थीं, सिर्फ एक छंद में।“ 

फिर भी संगीत और कविता में एक आंतरिक संगति मानने के कारण वे अपनी कविताओं में स्वर लहरियों का सृजन करते हंै। याद कीजिए नवगीत आंदोलन और फिर पाठ करिए नरेश जी की कविता ‘ज़िला भिंड, गोहद तहसील’ का। स्पष्ट हो जाता है कि नव गीत के सारे तत्व यहाँ मौजूद हैं- 

चिल्ला कर उड़ी एक चील 
ठोस हुए जाते सन्नाटे में ठोकती गयी जैसे कील 
सुन्न पड़ीं आवाज़ें
शोरों को सूँघ गये साँप 
दम साधे पड़े हुए, 
पत्तों पर हवा के प्रलाप 
चली गयी दोपहरी, दृश्यों के 
दफ़्तर में लिखकर तातील 
हवा ज़रा चली कि फिर रोएगी 
ढूहों पर बैठकर चुड़ैल 
नदी बेसली के आरे-पारे 
उग आएगी भुतही गैल 
भरी पड़ी रहेगी सबेरे तक 
ज़िला भिंड गोहद तहसील।


नरेश जी के कविता लेखन की एक अलग शैली है। मुझे लगता है कि इसे अगर निर्झर शैली कहा जाय तो बिल्कुल ठीक होगा। कभी भोर में हरसिंगार के पेड़ के नीचे खड़े होइए- आप गहरी खुशबू से भर जाएँगे; और यह क्या आप तो फूलों से नहा उठे! खुशबू ही नहीं फूल भी झरते हैं वहाँ। नरेश जी की कविता भी ऐसी ही है। झरते हुए शब्दों में एक भीनी सी सुगंध लिए हुए। ‘गिरना’ कविता की पाठ प्रक्रिया से गुजरते हुए हमें कुछ ऐसा ही आभास होता है- 



गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह 
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो 
उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए 
गिरो आँसू की एक बूँद की तरह 
किसी के दुख में 
गेंद की तरह गिरो 
खेलते बच्चों के बीच 
गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह 
एक कोंपल के लिए जगह ख़ाली करते हुए 
गाते हुए ऋतुओं का गीत 
”कि जहाँ पत्तियाँ नहीं झरतीं 
वहाँ वसन्त नहीं आता“ 
गिरो पहली ईंट की तरह नींव में 
किसी का घर बनाते हुए

नरेश सक्सेना की ऐसी कविता पढ़ने के बाद यह विश्वास करना बेहद कठिन है कि पढ़ाई में दसवीं के बाद हिन्दी भाषा उनका विषय नहीं रहा। उन्होंने एम.ई. तक इंजीनियरिंग पढ़ी और पैंतालीस वर्ष तक इंजीनियरिंग ही की। ईंट, गिट्टी, सीमेण्ट, लोहा, नदी, पुल- उनकी रोज़ी-रोटी के साधन रहे और उनकी सोच के केन्द्र में भी। इसीलिए ये सब उनकी कविता में शामिल हैं। नरेश जी के पहले किसी कवि की कविता में ये शब्द नहीं मिलते। विज्ञान का विद्यार्थी होने के कारण उसकी सैद्धान्तिकी को आधार बनाकर जिस तरह की कविताएँ नरेश जी ने लिखी हैं उस तरह की कविताएँ हिन्दी में मिलना मुश्किल हैं। ‘गिरना’, ‘सेतु’, ‘पानी क्या कर रहा है’, ‘प्रवासी पक्षी’, ‘अंतरिक्ष से देखने पर’ आदि कविताएँ एकदम अलग भाव-बोध की कविताएँ हैं। लेकिन कवि का हुनर ऐसा है कि वह विज्ञान और संवेदना के मेल से इन कविताओं को विशिष्ट बना देता है। ‘प्रवासी पक्षी’ कविता की अंतिम पंक्तियाँ कुछ ऐसी ही है।- 

पर्वतों, जंगलों और रेगिस्तानों को पार करती हुई 
वे जहाँ जा रही हैं, ऊष्मा की तलाश में 
वहाँ पिंजरे और छुरियाँ लिये 
बहेलिये उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। 

नरेश सक्सेना की कविता में प्रकृति का रूप भी विलक्षण है। वे जिस तरह से बारिश, पानी, फूल, पत्तियाँ, पेड़, घोंसले, पक्षी, धूप, सूर्य, पहाड़, बर्फ, घास, चाँद, मिट्टी और आकाश को देखते हैं वह उनके सौन्दर्य बोध की अलग दुनिया है। आकाश, धरती, बारिश और रंगों से मिलकर ‘रंग’ जैसी कविता भी हो सकती है, सहसा विश्वास नहीं होता। 

सुबह उठकर देखा तो आकाश 
लाल, पीले, सिन्दूरी और गेरुए रंगों से रंग गया था 
मजा आ गया ‘आकाश हिन्दू हो गया है’ 
पड़ोसी ने चिल्लाकर कहा 
‘अभी तो और मज़ा आएगा’ मैंने कहा 
बारिश आने दीजिए 
सारी धरती मुसलमान हो जाएगी।  

दरअसल नरेश सक्सेना अपने समय के सजग कवि हैं। वे बाज़ारवाद, साम्प्रदायिकता और ऊँच-नीच की खाई को ठीक से पहचानते हैं। इन सारे संदर्भों में उनकी प्रगतिशील पक्षधरता देखी जा सकती है। ‘ईश्वर’, ‘गुजरात-1’, ‘गुजरात-2’, ‘ईश्वर की औकात’, ‘देखना जो ऐसा ही रहा’, ‘धूप’, ‘ईंट-2’ आदि कविताएँ इसी दायरे में आती हैं। ‘गुजरात-2’ कविता में सपाट संवादों के सहारे वे सब कुछ सीधे-सीधे कह देते हैं और अपना निर्भीक पक्ष प्रस्तुत करते हैं- 

”कैसे हैं अज़ीज़ भाई“, फोन पर मैंने पूछा
”खैरियत से हूँ और आप?“ 
”मज़े में...“ मुँह से निकलते ही घड़ों पानी पड़ गया 
”अच्छा ज़रा होश्यार रहिएगा“ 
”किससे?“ 
”हिन्दुओं से”, कहते-कहते रोक लिया ख़ुद को 
हकलाते हुए बोला- 
”बस, ऐसे ही एहतियातन कह दिया“। 
रख दिया फोन 
सोचते हुए 
कि उन्हें तो पता ही है 
कि किससे।  

यह पक्षधरता उन्हें समाज के हाशिए पर स्थित लोगों के पास ले जाती है। उनकी तमाम कविताएँ वंचितों के पक्ष में खड़ी होकर बोलती हैं। उन्हें ‘घास’, ‘चीटियाँ’ और ‘नीम की पत्तियाँ’ इसीलिए प्रिय हैं। ‘नीम की पत्तियाँ’ तो इतनी कि उसकी सुन्दरता बताने में वे कविता को असमर्थ समझते हैं। उनके सौन्दर्य बोध में घुला हुआ यथार्थबोध धूमिल की कविता ‘लोहे का स्वाद.....’ की स्मृति को ताजा कर देता है। 

कितनी सुन्दर होती हैं पत्तियाँ नीम की  
ये कोई कविता क्या बताएगी 
जो उन्हें मीठे दूध में बदल देती है 
उस बकरी से पूछो 
पूछो उस माँ से 
जिसने अपने शिशु को किया है निरोग उन पत्तियों से 
जिसके छप्पर पर  उनका धुआँ 
ध्वजा की तरह लहराता है 
और जिसके आँगन में पत्तियाँ 
आशीषों की तरह झरती हैं 

‘सुनो चारुशीला’ कविता नरेश जी ने दिवंगत पत्नी विजय के लिए लिखी है। उन्हीं को श्रद्धांजलि स्वरूप कविता संग्रह का नाम भी ‘सुनो चारुशीला’ रखा है। कविता में एक ओर दाम्पत्य प्रेम का रस उद्वेलित है तो दूसरी ओर उस प्रेम को खोने का आभ्यांतरिक विलाप भी है। 

संग्रह में विनोद कुमार शुक्ल के लिए लिखी गई कविता ‘दरवाजा’ भी शामिल है। हालाँकि नरेश सक्सेना ने ‘दीवारें’, ‘क़िले में बच्चे’ और ‘घड़ियाँ’ जैसी कविताएँ भी संग्रह में शामिल की हैं लेकिन कुछ और कविताएँ भी हैं जिनकी अलग से चर्चा की जा सकती हैं। इनमें ‘मछलियाँ’, ‘दाग धब्बे’, ‘तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो’, ‘एक घायल दृश्य’, ‘फूल कुछ नहीं बताएँगें’, ‘इतिहास’, ‘कविता की तासीर’, ‘संख्याएँ’, ‘आधा चाँद माँगता है पूरी रात’, ‘पहले बच्चे के जन्म से पहले, ‘सीढ़ियाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं’, ‘मुर्दे’, ‘पीछे छूटी हुई चीजें’, ‘अजीब बात’, ‘प्रेत मुक्ति’, ‘मुझे मेरे भीतर छुपी रोशनी दिखाओ’ और ‘एक चेहरा समूचा’ महत्वपूर्ण हैं। 

नरेश सक्सेना की कविताओं की सबसे बड़ी खूबी यह है कि ये कविताएँ पाठकों और श्रोताओं से अपना बार-बार पाठ कराती हैं फिर भी आकर्षण नहीं खोतीं। स्पष्ट है कि नरेश जी की भाषा की ताकत कविताओं के पाठ में निहित है। इस पाठ की अंतध्र्वनियाँ नरेश जी के काव्य पाठ की भंगिमा से मिलकर लय लहरियाँ उठाती हैं। कदाचित् इसीलिए विनोद कुमार शुक्ल का मानना है कि ‘उनसे कविता को सुनना, जीवन के कार्यक्रम को सुनना है’ और राजेश जोशी भी मानते हैं कि ये कविताएँ ‘लय की कुदाल’ से उत्खनित हैं।
सुनो चारुशीला: नरेश सक्सेना, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, पहला संस्करण: 2012, पृष्ठ-82, मूल्य-रु. 100/-  आनलाइन यहाँ से खरीदी जा सकती है.


नलिन रंजन सिंह 
हिंदी के सक्रिय आलोचक, वरिमा नामक शोध पत्रिका का सम्पादन. सम्प्रति जयनारायण पी.जी. कालेज, लखनऊ में अध्यापन.

संपर्क - 7, स्टाफ कालोनी, स्टेशन रोड, लखनऊ-226001    
मो. 9415576163,   ई-मेल: drnrsingh5@gmail.com                                     
  
                                                 

हम दोनों के बीच हारमोनियम एक चरखे की तरह है - हेमंत देवलेकर

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हेमंत देवलेकर
की ये कवितायें मुझे प्रिय मित्र नीलोत्पल के मार्फ़त मिलीं. इनसे पहले हेमंत भाई को मैं एक सक्रिय रंगकर्मी के रूप में ही अधिक जानता था. उनके सद्य-प्रकाश्य संकलन से ली गयीं इन इन कविताओं से गुजरते हुए आपको उस रंगकर्म के लम्बे अनुभव का असर दिखेगा भी. उनकी कविताओं का संसार बहिष्कृत जनों से बनता है. मालगाड़ी उसका बड़ा प्रतीक बन कर आती है, जिसके आने से स्टेशन पर कोई हलचल नहीं होती. मध्यवर्गीय  स्त्रीविमर्श के इस दौर में उन्होंने अपनी कविता के लिए कामवाली बाई के रूप में निम्नवर्गीय किरदार चुना है.  हेमंत की कविताओं का शिल्प तो सधा हुआ है ही, साथ में जो बिम्ब वे चुनते हैं वे बेहद आकर्षक और नए हैं जहाँ हारमोनियम एक 'चरखा' है, दरवाजे मानसून की ख़ुशी में 'फूले' हुए हैं और मछलियाँ नदी को सिलने वाले 'धागे'  हैं. असुविधा पर हेमंत भाई का स्वागत...





मालगाड़ियों का नेपथ्य

रेल्वे स्टेशनों की समय सारिणी में
कहीं नहीं होतीं वे नामज़द।
प्लेटफार्म पर लगे स्पीकरों को
उनकी सूचना देना कतई पसंद नहीं।
स्टेशन के बाहर खड़े
सायकल रिक्शा, आटो, तांगेवालों को
कोई फ़र्क नहीं पड़ता उनके आने या जाने से।
चाय-नमकीन की पहिएदार गुमठियाँ
कहीं कोने में उदास बैठी रह जाती हैं
वज़न बताने की मशीनों के लट्टू भी
क्या उन्हें देख धड़का करते हैं?
आधी नींद और आधे उपन्यास में डूबा
बुकस्टाल वाला अचानक चौंक नहीं पड़ता
किताबों  पर जमी धूल हटाने के लिये।

मालगाड़ियों के आने जाने के वक़्त
पूरा स्टेशन और क़रीब-क़रीब पूरा शहर
पूरी तरह याददाश्त खोए आदमी सा हो जाता है
और इस सौतेले रवैये से
घायल हुई आत्मा के बावजूद
अपनी पीड़ा को अव्यक्त रखते हुए
वे तय करती रहती हैं तमाम दूरियाँ।

भारी-भरकम माल असबाब के साथ
ढोती हैं दुनिया की ज़रूरतें
और ला-लाकर भरती हैं हमारा ख़ालीपन।

पैसेंजर ट्रेनों से पहले चल देने की
गुस्ताख़ी कभी नहीं करेंगी वे
पीढ़ियों की दासता ने उन्हें
इतना सहनशील और ख़ामोश बना दिया है।

दो प्लेटफार्मों के बीच छूटी सुनसान पटरियों पर
अंधेरे में आकर जब चुपचाप गुज़र जाती हैं
तब उनकी ज़िंदगी
दुनिया के तमाम मज़दूरों की कहानी लगती है
एक-सी अनाम
एक-सी उपेक्षित
और एक सी इतिहास के पन्नों से
खारिज


पेड़ों का अंतर्मन

कल मानसून की पहली बरसात हुई
और आज यह दरवाज़ा ख़ुशी से फूल गया है

खिड़की दरवाज़े महज़ लकड़ी नहीं हैं
विस्थापित जंगल होते हैं

मुझे लगा, मैं पेड़ों के बीच से आता-जाता हूँ,
टहनियों पर बैठता हूँ
पेड़ों की खोखल में रहता हूँ किताबें
मैं, जंगल में घिरा हूँ
किंवदंतियों में रहने वाला
आदिम ख़ुशबू से भरा जंगल

कल मौसम की पहली बारिश हुई
और आज यह दरवाज़ा
चैखट में फँसने लगा है
वह बंद होना नहीं चाहता
ठीक दरख़्तों की तरह

एक कटे हुए जिस्म में
पेड़ का खून फिर दौड़ने लगा है
और यह दरवाज़ा बचपन की स्मृतियों में खो गया है

याद आने लगा है
किस तरह वह बाँहें फैलाकर
हज़ारों हथेलियों में समेटा करता था
बारिश को
और झूमने लगता था

वह स्मृतियों में फिर हरा हुआ है।




हम दोनों के बीच एक हारमोनियम है 

हम दोनों के बीच एक हारमोनियम है

हारमोनियम के उस तरफ़
सुरों को अपनी उंगलियों की थापों से
जगाती हुई तुम बैठी हो
और इस तरफ़
तुम्हारे सुरों में नाद भरने
पर्दे से हवा धोंकता हुआ मैं
हारमोनियम-
किलकारियां भरता, हाथ पैर चलाता
एक नया नवेला बच्चा है लगभग छः महीने का
हम दोनों उसे खिलाने में लगे हुए हैं
हम दोनों के बीच एक हारमोनियम है

मेरे तुम्हारे दरम्यान एक बरसाती नदी है
जिसमें राग अनंत लहरें उठाते हैं
हम डूबते हंै उस नदी में
तैरते हैं और गोते लगाते हुए
पकड़ते हंै संतरंगी मछलियों को
हारमोनियम हम दोनों के बीच उस नदी की तरह है

लेकिन क्या तुमने
’यमन’ की सरगम याद करते हुए
कभी ग़ौर से देखा है हारमोनियम को
क्या वह तुम्हें पुल की तरह दिखाई नहीं देता
जिस पर से दौड़-दौड़कर
हम एक-दूसरे के करीब तक पहुँचते हैं
और छुए बिना ही भीग-भीग जाते हैं

हम दोनों के बीच एक हारमोनियम है
उसमें शब्द नहीं हैं तो क्या
वह वही भाषा बोलता है
जो मेरी है, तुम्हारी है

हम दोनों के बीच हारमोनियम एक चरखे की तरह है
जो बुन रहा है
बहुत महीन और मुलायम धागे


बाई

शहर की सड़कों पर आजकल
दिखाई देती हैं पीली बसें
नहीं दिखाई देती है तो बस
एक बूढ़ी सी औरत

बिखरे सफेद बालों और
कमर में खोंसी हुई
मैली-कुचैली साड़ी की परवाह न करते हुए
बढ़ती हुई उन घरों की ओर
जहाँ अनमने ढंग से तैयार बच्चांें को
पाठशाला भेजना होता।

बच्चों के वास्ते क्या कुछ नहीं थी वह
सहेली, दादी, मेडम
ऊटपटांग, हरकतोंवाला जोकर
और हिफ़ाज़तदार पुलिस भी

पिटारे में उसके क्या-क्या नहीं होता
गाने, नाच, पुचकारें,
झिड़कियाँ, धमकियाँ, नसीहतें

भीड़-भाड़ से बचाते हुए
बच्चों को एक क़तार में रखने का करिश्मा
उसे आता था
चलते रास्ते बच्चों का पहला पीरियड वही लेती थी।

स्कूल न जाने की ज़िद पर अड़े बच्चों को
बलात् खींचकर ले जाने लगती
तब वह विकराल जाूदगरनी लगती
और जब कभी स्कूल से लौटने में
होती थोड़ी भी देर
तो कई शंकाएँ उस पर उठतीं।

दूर दराज़ रहते अपने नाती-पोतों की कल्पना
वह उन्हीं बच्चों में करती
और भूल जाती रत्ती भर पगार का असंतोष और अकेलापन

ज़िंदगी की बहुत सी पुरानी
और भूली जा चुकी चीज़ों की फ़ेहरिस्त में
शायद उसका पता मिले
वह केवल ‘बाई’ नहीं
एक सभ्यता थी
जो सड़क किनारे की मिट्टी में
गहरे लुप्त हो गई है।


झील

1.

पानी पर एक रास्ता बनाती हुई
गुज़र गई बोट
एक फव्वारा-सा उसका पीछा रहा करता

एक आवाज़ जो उस रास्ते पर
चलकर पहाड़ियों के पीछे
हुई अदृश्य

सिग्नल पर रुकी भीड़-सा
पानी कुछ देर रहा ठहरा
फिर झील में गया मिल

पानी के निचाट सूनेपन में
वह एक बोट
याद की तरह छूट जाती है

2.

पहाड़ी
कालीन की तरह बिछी है झील पर
डबल रोटी के टुकडे़ उछाले जाते हैं
कालीन के नीचे तहख़ानों से
सिर उठाती हैं मछलियाँ
तैरती डबलरोटी टुकड़ों में बिखर जाती है
झील के होंठ मुस्कुराहट की तरह फैलते हैं

3.

झील पर तैरती एक दोपहर

मछलियाँ
अपने सिरों पर
रोशनी के जवारे उगाए
नाचती हुई
चल रहीं

सूर्य के विसर्जन का
यह चल समारोह

4.

पानी को सिलती रहती हैं मछलियाँ
इसलिये पानी कभी उधड़ता या
फटता नहीं
और मछलियों को पता नहीं चलता
कि वे कब धागे बन गई हैं।

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 परिचय



जन्म           : 11 जुलाई 1972

शैक्षणिक योग्यता : 12वीं उत्तीर्ण प्रथम श्रेणी (उच्चगणित विज्ञान)

रंगकर्म का अनुभव: 1995, शिप्रा संस्कृति संस्थान उज्जैन द्वारा आयोजित ग्रीष्मकालीन  नाट्य शिविर से रंगकर्म की          शुरुआत। 2006 तक शिप्रा संस्कृति संस्थान में अभिनय और रंगमंच की अन्य विधाओं में सक्रिय भूमिका
                 

 नाटक : अनोखा वरदान, एक था गधा, पांचाली ये वो नहीं, कबीरा खड़ा बजार में, मीरा, मृच्छकटिक, विठ्ठला, अमर शहीद     बलराम जोशी (टेलीफिल्म),  श्री विनोद मातवणकर के निर्देशन में मराठी नाटकों में अभिनय जुलाई 2006, संगीत नाटक अकादेमी, नई दिल्ली द्वारा एक माह की युवा रंगकर्मी कार्यशाला पचमढ़ी में देश के सुप्रसि़द्ध रंग आचार्यो के मार्गदर्शन में सघन प्रशिक्षण प्राप्त 2007 से प्रसिद्ध वरिष्ठ रंग निर्देशक श्री अलखनंदन के नाट्य समूह में अभिनय और अन्य           विधाओं में सतत् अनुभव. भगवदज्जुकम्, धूर्तसमागम, महानिर्वाण, अजातघर,चारपाई, ताम्रपत्र, काव्यरंग,                  (रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताएं ) में मंच पर और मंच परे, 


जून 2008 संगीत नाटक अकादेमी दिल्ली द्वारा द्वितीय चरण हेतु सेंट्रल झोन की 75 दिवसीय युवा रंगकर्म कार्यशाला में विशिष्ट अध्ययन. सर्वश्री के0एन0 पणिक्कर, रतन थियम, एच0 कन्हाईलाल, सावित्रिजी, सतीश आनंद,कमलेश दत्त त्रिपाठी आदि सुविख्यात रंग गुरुओं के मार्गदर्शन में। कार्यशाला में प्रतिभागियों की परीक्षा-प्रस्तुती में दो नाटकों में संगीत निर्देशन ग्रीष्मकालीन बाल नाट्य शिविरों में मार्गदर्शन गोंडी बोली में प्रस्तुत बाल नाटक डाकघर में गीत लेखन और संगीत निर्देशन
                  
 जुलाई 2010 में स्वराज संस्थान, भोपाल द्वारा आयोजित आजाद बांसुरी बाल नाट्य समारोह हेतु नाटक बिरसा मुंडा का लेखन और भारत भवन में मंचन

साहित्यिक गतिविधियां: विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन

वर्तमान में        : स्वतंत्र रचनाकर्म

स्थायी पता       : 17, सौभाग्य, राजेन्द्र नगर, शास्त्री नगर के पास, नीलगंगा, उज्जैन, पिनकोड- 456010 (म0प्र0)
                         मोबाईल - 090398-05326




शिवमूर्ति के यहाँ कर्ता और कहनहारे का फ़र्क मिट जाता है - विवेक मिश्र

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हमारे समय के बेहद ज़रूरी किस्सागो शिवमूर्ति जी पर लिखा विवेक मिश्र का यह आलेख लमही पत्रिका के शिवमूर्ति अंक में छपा है. 






अपनीमँड़ईयाके'शिव' राजा

एकरचना, उसकारचनाकारऔरउसरचनाकारकाजीवनवृत्तबाहरसेदेखनेपरभलेहीतीनअलग-अलगबिन्दुप्रतीतहोतेहोंपरन्तुजीवनकेवृहत्तरआयामोंमेंइनतीनोंबिन्दुओंकोपरखनेपरयहएकघेरेमें, एकसाथचमकतेदिखाईदेतेहैं।अर्थातएकरचनाकारकीरचना, उसकाव्यक्तित्वऔरउसकाजीवन-वृत्तबाहरसेभलेहीअलग-अलगरंगतथाआकार-प्रकारकेदिखतेहोंपरकहींकहींरचनात्मकधरातलपरयहतीनोंहीआपसमेंकुछइसतरहघुले-मिलेहोतेहैंकितोइन्हेंबिलगानाहीसंभवहोताहैऔरहीएककेबिनादूसरेकोसमझपाना।……औरमैंजितनीबारभीकिसीमौलिकरचनाकारकीरचनाकोपढ़नेकेबादउसकेजीवनऔरव्यक्तित्वकेबारेमेंजाननेकीकोशिशकरताहूँतोकभीअंशत: औरकभीशतप्रतिशतयहबातसचहीसाबितहोतीहै, परशिवमूर्तिजैसेकथाकारकेबारेमें, यहबातउन्हेंबार-बारपरखनेपरभी, हरबारहीसचसाबितहुईहै।
    
शिवमूर्तिजीकीकहानियोंकोपढ़नेकेलिएमुझेपहलेपहलउकसायाकथाकारसंजीव ने।उनदिनोंसंजीवजीदिल्लीमें'हंस' केकार्यकारीसंपादकथेऔरउन्होंनेअपनाउपन्यास  'आकाशचम्पा' पूराकियाथाऔरवह'रहगईदिशाएंइसीपार' परकामकररहेथे।एकदिनअनायासहीउन्होंनेमुझसेपूछा'आपनेशिवमूर्तिकी'अकालदण्ड' पढ़ीहै।मैंनेकहा' मैंनेउनकीभरतनाट्यमपढ़ीहै।' उन्होंनेकहा'आपशिवमूर्तिकीसारीकहानियाँपढ़िए।' औरमैंनेतभीशिवमूर्तिकीअन्यकहानियाँजोतबतकनहींपढ़ीथीं, पढ़नीशुरुकीं।उन्हींदिनोंएकनईपत्रिका'मंच' जोबांदासेप्रकशितहोनेजारहीथीऔरउसकाप्रवेशांककथाकारशिवमूर्तिपरकेन्द्रितकिएजानेकीयोजनाथीऔर उसकासंपादनसंजीवजीकोसौंपागयाऔरउन्होंने'हंस' केसंपादनकेदबावऔरअपनेखराबस्वास्थकेबावज़ूदउसेकिसीतरहकियाभी, परअंतमेंउसअंकसेवहस्वयंहीबहुतसंतुष्टनहींथे।संजीवजीएकपरफैक्सनिस्टआदमीहैंऔरशिवमूर्तिसेऔरउनकेरचनासंसारसेबहुतअच्छेसेवाकिफ़भीहैं।वहजानतेथेकिअंकऔरअच्छाबनसकताथा, परउससमयअंकजैसाभीबना, उन्हेंउसीसेसंतोषकरनापड़ा, परउसदौरानमेरीऔरउनकी, शिवमूर्तिजीकीकईकहानियोंऔरउनकीरचनाप्रक्रियापरअच्छीखासीचर्चाहुई।सचमुचमैंजैसे-जैसेशिवमूर्तिजीकीकहानियाँपढ़तागयाबिलकुलहीएकनयारचनासंसारऔरएकसोनेसीखरीऔरईमानदारदुनियामेरेसामनेआकारलेतीचलीगई।शिवमूर्तिजीकीलगभगसारीकहानियोंकोपढ़चुकनेकेबादअबमौकाआयाउनसेमिलनेकाऔरवहसमयथा- 'मंच' केउसीअंककेदिल्लीकेसाहित्यअकादमीकेसभागारमें  लोकार्पणका।वहाँभीसंजीवजीनेहीमेराउनसेपरिचयकराया।उसदिनहमनेउन्हेंदेखाभीऔरसुनाभी।दिल्लीकेस्वनामधन्यसाहित्यकारोंसेबिलकुलअलगबिनाकिसीताम-झामऔरआडम्बरकेवहसबसेमिले।उसछोटीसीमुलाकातमेंभीमैंउनकामुरीदहुएबिनारहसका।बसउससमयएकहीबातमनमेंरहगईकिमैंउसअंकमेंकिन्हींकारणोंसेअपनालेखनहींदेसकाऔरयहइछापूरीहुईउसकेलगभगडेढ़दोसालबादजब'लमही' केकहानीएकाग्रकेआनेकेबादअंककेअतिथिसंपादकभाईसुशीलसिद्धार्थनेमुझसेकहाकि'लमही' काअक्टूबर-दिसम्बरअंकशिवमूर्तिजीपरकेन्द्रितहोगाऔरआपकोउनकीकहनियोंपरलिखनाहै।यहजानकरमुझेबहुतखुशीहुईऔरलगाकिशिवमूर्तिजीकीकहानियोंसेऔरगहरेजुड़ने, उन्हेंसमझनेकायहअच्छाअवसरहैऔरमैंनेउनकीकहानियोंपरलिखनाशुरुकिया। उसकेबादतोफिरशिवमूर्तिजीसेमुकाक़ातभीहुईऔरसमय-समयपरफोनपरबातभीहोतीरही।उनकीकहानियाँपढ़करजोमैंनेमहसूसकियाउसीकोयहाँरखनेकीकोशिशकररहाहूँ।

लेखक 
मैंबुंदेलखण्डकाहूँ, परमेरेखेतों, खलिहानोंऔरगाँवोंको देखने, वहाँ रहने और उनके बारे में लिखने के बाद भी उनसे उतना गहरा रिश्तानहींरहाहै, जितना शिवमुर्ति जी का,परमैंकहूँगाकिमुझेशिवमूर्तिजीकोपढ़तेहुए, उनकीभाषासेजुड़तेहुए, उसेसमझनेमेंज़रा-सीभीकठिनाईनहींहुई।बल्किजितनाभीगाँवमेरेभीतरथाऔरजोसमयबीतनेपरकहींखोगयाथा, वहप्रकटरूपमेंमेरेसामनेआकरखड़ाहोगया।उनकोपढ़तेहुएमैंनेपायाकिशिवमूर्तिहमारेसमयमेंग्राम्यजीवनकीदुश्वारियाँको, वहाँकेजीवनमूल्योंको, यथार्थको, सामाजिक-पारिवारिकबनावटको, स्त्री-पुरुषकेबीचकेअंतरविरोधोंको, जीवनकेकठिनसमयमेंभीमानवीयजिजिविषाओंऔरजुगुप्तसाओंको, अपनेचरित्रोंकीलगातारटूट-टूटकरबार-बारपुनर्निर्मितहोतीज़मीनको, उनकेअंतर्द्वन्द्वोंकोध्यानसेदेखतेऔर केवलअपनेसाहित्यमेंदर्ज़हीनहींकरतेहैंबल्किवहइससबकोख़ुदमहसूसकरतेहुएअपनेचरित्रोंकेसाथ-साथजीवनकीजटिलताओंकेअंधकूपमेंभीतरतकउतरतेहैं।वेउनकेसाथउठते-बैठतेहैं, हँसते-रोतेहैंऔरकहूँकिवहउनकेसाथजीते-मरतेहैं, तो भी कोई अतिश्यिक्ति नहीं होगी।वहइसक़दरउनसेजुड़जातेहैंकिचरित्र, घटनाऔरकहानीकारकेबीचकोईदूरीनहींरहती, उनमेंकोईअन्तरनहींरहता।कर्ताऔरकहनहारेकाफ़र्कमिटजाताहै।

उनकी कहानियाँ किसी उथले यथार्थ के हवाई चित्र नहीं हैं। न ही वे भाषाई आडम्बर से बनाए गए ऐसे स्वादिष्ट साहित्यिक व्यंजन ही हैंजिनमें से भाषा कि चिकनाई निकाल लेने पर, उनमें बस छाँछ ही बची रह जाए। उनकी कहानियाँ हिन्दी साहित्य में गाँव में बसे दलित और वंचित वर्ग की खोई हुई अस्मिता को वापस पाने का हथियार है और यह बात वह कहानी की शुरुआत मैं ही साफ कर देते हैं। अगर हम कसाईबाड़ाकहानी की शुरुआत को ही देखें तो यह बात बिलकुल साफ दिखाई देती है कि वह किस के पक्ष में खड़े हैं। कहानी कुछ इस तरह शुरु होती है - ‘गाँव में बिजली की तरह खबर फैलती है कि शनिचरी धरने पर बैठ गई, परधान जी के दुआरे। लीडर जी कहते हैं, ‘जब तक परधान जी उसकी बेटी वापस नहीं करते, शनिचरी अनशन करेगी, आमरण अनशन।

उनकी कहानियों के अन्त में समाधान भी कहीं बाहर से नहीं आता। कोई नाटकीयता या चमत्कार नहीं होता बल्कि सर्वसाधारण दिखने वाला, सर्वहारा समाज का कोई अदना सा व्यक्ति उठता है और आगे बढ़कर, परिस्थितियों में पिसकर, पककर नायक में तब्दील होता है। उनकी कहानियों का हर पात्र पूरी मजबूती से अपने चरित्र को उसके गुण-दोषों के साथ पकड़े रहता है। कसाईबाड़ाके सभी मुख्य चरित्र शनिचरी, परधान जी और लीडर जी सभी हमारे आस-पास की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हमसे आय दिन रुबरु होने वाले, हमसे गाहे-वगाहे टकराने वाले चरित्र हैं। हाँ, उनकी भाषा-वानी और पहनावे आदि में फर्क हो सकता है। पर उनकी प्रवृत्तियों को आप वास्तविकता में अपने आस-पास देख सकते हैं। यहाँ कहानी के मुख्य चरित्र ही नहीं बल्कि कथानक की परिधि पर बैठे चरित्र भी अपनी पूरी पिक्युलियरिटी के साथ न केवल अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं बल्कि समाधान भी सुझाते हैं और कहानी को आगे भी बढ़ाते हैं। ऐसा ही एक करेक्टर है कसाईबाड़ाका अधरंगी। वह गाँव के सीवान पर मवेशी चराता, एक नेपथ्य में भटकता चरित्र है, जो कहानी को उसके अन्त की ओर धकेल देता है। पर उसका यह आक्रोश अनायास नहीं है। वह सदियों से शोषण के ख़िलाफ़ छातियों में पलता वह ज्वालामुखी है, जो बस अब किसी भी क्षण फट पड़ने को है।– ‘दो पुतले बनाए हैं अधरंगी ने। एक परधान जी का, दूसरा उनके बेटे परेम कुमार का। अपनी कमीज फाड़कर दोनो के लिए कुर्ता-पायजामा सिला है। शनिचरी को समझा रहा है, ‘कोई नहीं आएगा काकी, हमारी मदद के लिए। न परधानमंतरी न मुखमंतरी। न भगवान, न भगौती। हम खुद अत्याचारी को सजा देंगे।

दूसरे दिन सवरे ही वह फटा कनस्तर पीट-पीटकर गाँव भर में एलान कर रहा है, ‘आज शाम पाँच बजे। बिल्डिंग के सामने, बबूल के ठूँठ पर लटकाकर गाँव के बेटी बेचवा परधान और उसके बेटे परेम को फाँसी दी जाएगी। आप सभी हिजड़ों से हाथ जोड़कर पराथना है कि इस शुभ अवसर पर पधारकर……’ और पाँच बजे शाम को अधरंगी ने दोनो को शनिचरी के हाथों से फाँसी दिला दी।

   कहानी में छुरी, चाकू, बल्लम, गोली, तमंचा, जुलूस-नारे, झंडे कुछ भी नहीं हैं, पर एक सशक्त क्रांति के आग़ाज़ का बिगुल फूँक रहा है, अधपगला अधरंगी। शनिचरी की पीर आधी रात में घायल-अंधी चमगादड़ की तरह दीवारों से टकराकर यहाँ-वहाँ गिर रही है। घरों, खेतों, खलिहानों और सीवान में, गाँव से दूर जाती पगड़ंडियों और दूर तक फैले बियाअबानों में बूँद-बूँद रिस रही है। कहानी में विद्रोह का बीज बन रहा है शनिचरी का रुदन- अंधेरा घिरने के बाद शनिचरी लेटे-लेटे कारन करती है, ‘अरे या परधनऊ, गाँव की नकिया कताई के भाग्या। मेहरी के चुरिया फोराई के भाग्या। महल- अटाराईया गँवाई के भाग्या,…ऊ हू हू हू।

शिवमूर्ति की कहानियाँ दलित अस्मिता को पुनर्परिभाषित करती हैं। एक बार उन्होंने दलित अस्मिता पर बोलते हुए कहा भी था कि अस्मिता का मतलब अपने अधिकार को, अपने प्राप्य को चिन्हित करना और उसे पाने का और उसको अभिव्यक्त करने का प्रयास करना है। अस्मिता माने अपने वजूद को सामने लाना, शब्दों में। इस प्रकार से कि लोगो को लगे कि आप भी हैं। आपका भी वजूद है। आपको भी चिन्हित किया जाना चाहिए। अस्मिता का यही अर्थ है।

शिवमूर्ति दलित अस्मिता के बारे में कहते ही नहीं हैं। वह उसे सिद्ध भी करते हैं। शब्द दर शब्द, पंक्ति दर पंक्ति, कहानी दर कहानी वह निरन्तर दलित और वंचित वर्ग की अस्मिता का साहित्य रचते रहे हैं।

उनकी कहानियों का दृश्य विधान बहुत सशक्त है। सब कुछ जैसे आप अपनी आँखों के सामने घटते हुए देख रहे हैं। आप उन्हें पढ़ते हुए उनकी रचना की दुनिया में सहज ही उनके साथ विचरने लगते हैं। आप भी पात्रों के साथ ऐसे जुड़ने लगते हैं जैसे वे अभी आपसे ही पूँछ बैठेंगे कि बोलो यह सही है कि नहीं। शिवमूर्ति की ग्रामीण जीवन से लवरेज़ कहानियाँ केवल वहाँ के दुख-दर्द की कहानियाँ नहीं हैं। वह बार-बार बताते और जताते हुए चलते हैं कि ग्रामीण होना मूर्ख होना नहीं है। अनपढ़ होना विचारहीन होना नहीं है। गरीब होना कायर होना नहीं है। इसलिए गरीबी-बेरोज़गारी के त्रास को सहते हुए भी उनके चरित्रों में वौचारिक पतन नहीं है। बल्कि उसका परिमार्जन है और यही शिफ्ट उन्हें ग्राम्य कथाकार होते हुए भी कहीं न कहीं अपने समय के अन्य कथाकारों से अलग करता है। भरतनाट्यमकहानी में नायक दुर्धर्ष परिस्थितियों में फसा एक ऐसा चरित्र है, जो अन्त तक गरीबी और बेरोज़गारी झेलने के बाद भी ईमानदार बने रहना चाहता है। पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों ने उसे दुखी तो किया है पर वह वैचारिक रूप से कुंठित नहीं है। उसकी सोच मुक्त है। वह थोथी मान्यताओं से बंधा नहीं है। वह बंधा है तो मात्र प्रेम के संबंध से, जो उसके जीवन का आलंब भी है और कहानी में वह इसे बड़ी सहजता से स्वीकारता भी है।

भरतनाट्यमसे- ‘इस तरह के छिट पुट प्रेम संबंधों को मैं गंभीरता से नहीं लेता। इसे मेरा दमित पुंसत्व कहिए या लिबरल आउटलुक। मैं पाप-पुन्य, जायज-नाजायज़, पवित्र-अपवित्र और सतीत्व-असतीत्व के मानदण्डों से भी सहमत नहीं हूँ। मांगकर रोटी खाली या काम तुष्टि पाली, एक ही बात है।……मैं भयभीत हुआ था तो सिर्फ इस बात से कि इन दिनों, मैं जिस हताशा और निपट एकाकीपन की अंधेरी गुफा में फसा हूँ, वहाँ पत्नी ही एक मात्र आलम्ब है, जिसके आंचल में मुँह छिपा लेने पर घड़ी दो घड़ी सुकून मिल जाता है। यह आलंब भी छूट गया तो झेल नहीं पाऊँगा। पैर उखड़ जाएंगे और मैं डूब जाऊँगा।

शिवमूर्तिजीकीकहानियाँजबगाँवकेयथार्थकोऔरशहर, बाज़ारऔरतथाकथितविकासकोजोड़तीहैंतोउसकेसंधिस्थलपरस्वयंशिवमूर्तिखड़ेदिखाईदेतेहैं।गाँवकेदुरुहजीवनसेलेकर  सुख-सुविधाओंसेभरेशहरीजीवनऔरछोटी-मोटीनौकरीसेलेकरराज्यसरकारकीअफसरीतककेसफ़रकेअनुभवोंकाउनकेपास  अकूतभंडारहै।आजहमउनकेबारेमेंकहसकतेहैंकिउन्होंनेसिर्फभारतकेगाँवहीनहींदेखेबल्किदुनियादेखीहै।परवह  दुनियादेखकरजबगाँवलौटतेहैंतोवहस्वयंकोगाँवसेदूरनहींपाते।वहस्वयंकोउसीहवा-पानी-मिट्टीकाअंशहीपातेहैं। तभी वहाँ की हवा में घुली उदासी और नमी को वे केशर-कस्तूरीमें उसके रूप और रंग के साथ जस का तस उतार पाते हैं। केशर-कस्तूरीमें वह नारी की पीड़ा का नाटकीय रूपान्तर नहीं करते बल्कि रेशा-रेशा उसका दर्द जस का तस पाठक के सामने रख देते हैं। केशर-कस्तूरीपढ़ते हुए मुझे शिवमूर्ति जी की पत्नी की अपने एक साक्षात्कार में कही गई बात याद आ गई। उन्होंने कहा था कि शिवमूर्ति जी बहुत भावुक हैं। कितनी ही बार वह कहानी लिखते-लिखते रोने लगते हैं।……और बीच में ही क़ाग़ज़-कलम छोड़ देते हैं। फिर कई दिनो तक वह कहानी अधूरी पड़ी रहती है। सचमुच केशर-कस्तूरीपढ़ते हुए केशर की पीर जैसे सीधी आपके अपने किसी बेहद निजी, किसी बहुत करीबी आदमी के दुख में ट्रांसलेट हो जाती है। शिवमूर्ति अपनी कहानियों में परिवेश के अनुकूल विश्वसनीय भाषा, घटना और समय के अनुकूल लोकोक्तियों, मुहावरों और लोक गीतों के प्रयोग से कहानी में वह प्रभाव पैदा करते हैं, जो दूसरे लेखक आठ-दस पन्नों के विवरणों से भी पैदा नहीं कर पाते। वह कुछ पँक्तियों में ही कहानी को एक लम्बी छलाँग के साथ आगे ले जाते हैं और यह छलाँग समय और चरित्र की मनोदशा, दोनो की हो सकती है और ऐसे में कहानी की पठनीयता भी बाधित नहीं होती बल्कि यह और भी बढ़ जाती है। सिरी उपमा जोगमें कहानी कुछ ऐसे आगे बढ़ती है- ‘सोई नहीं वह। बड़ी देर तक छाती पर सिर रखकर पड़ी रही। फिर बोली, ‘एक गीत सुनाऊँगी आपको। मेरी माँ कभी-कभी गाया करती थीं।फिर बड़े करुण स्वर में गाती रही वह, जिसकी एकाध पँक्ति अब भी उन्हें याद है, ‘सौतनिया संग रास रचावत मो संग रास भुलान, यह बतिया कोउ कहत बटोही, त लगत करेजवा में बान,….…’

शिवमूर्ति की कहनियों में लोक की झलक की चर्चा करते हुए मुझे उनकी कहानियों पर कथाकार मैत्रेयी पुष्पा की कही बात याद आ रही है। उन्होंने कहा था कि शिवमूर्ति के समकालीन कथाकारों में से कई ने प्रेमचंद को छूने की कोशिश की है, पर शिवमूर्ति अपनी कहानियों में कई बार रेणु को छूकर लौट आए हैं। केशर-कस्तूरीऔर सिरी उपमा जोगजैसी कहाहियाँ पढ़कर उनके इस कथन में कहीं से भी कोई अतिश्योक्ति नहीं दिखाई देती।
   
उनकी कहानियों के चरित्रों के नितान्त पिछड़ेपन में भी एक निराली आभा और स्वाभिमान है और वे भाषाई आडम्बर के साथ लिखी जाने वाली कहानियों के बनावटी चरित्रों को पलभर में ही ध्वस्त कर देते हैं। केशर-कस्तूरीमें केशर द्वारा कही इन पँक्तियों से अनायास ही दुख के कुहासे में हिम्मत की त्वरा तड़क उठती है।– ‘दुख तो काटने से ही कटेगा। बप्पाकेशर चूल्हे की आग तेज़ करते हुए बोली, ‘भागने से तो और पिछुआएगा।चेहरे पर आग की लाल लपट पड़ रही थी। वह समाधिस्त-सी लग रही थी।

इस कहानी के अन्त में केशर अंदर की कोठरी में बैठी, लालटेन की रोशनी में सिलाई मशीन पर कपड़े सिलते हुए, बीच में रुककर, आँखें मूँदकर एक गीत गा रही है–‘मोछिया तोहार बप्पा ‘हेठ’ न होई है, पगड़ी केहू ना उतारी, जी-ई-ई। टूटही मड़हिया में जिनगी बितउबै, नाही जाबै आन की दुआरी जी-ई-ई।

कहानी मे केशर के बाप को बेटी के दुख की चिन्ता तो है ही साथ ही यह भी चिन्ता है कि कहीं लड़की का पाँव ऊँच-नीच पड़ गया, कोई ऐसी-वैसी बात हो गई तो, जिससे बाप की मान-प्रतिष्ठा का प्रश्न भी जुड़ा है, पर यहाँ केशर लम्बे संवादों का सहारा नहीं लेती बल्कि रात के अंधेरे में अपने आप ही उसके होंठों से यह गीत फूट पड़ता है, जो पिता को आश्वस्त करता है कि कितनी ही विपदा आन पड़े, वह अपने पिता की मान-प्रतिष्ठा बचाए रखेगी। वह डिगेगी नहीं। यह केशर के रूप में हिन्दुस्तानी नारी का हज़ारों-हज़ार पीड़ियों से विरासत में मिला अनुभव और उसकी परिपक्वता बोल रही है। इन चरित्रों के माध्यम से शिवमूर्ति  ने अनुभव और यथार्थ को ठोस व्यवहारिक रूप में पकड़ा है। उनके पात्रों के संवादों में, जो हकीकी दर्शन है, उसे कोई किताबी तर्क से नहीं काट सकता।

कहा जाता है कि शिवमूर्ति ने बहुत कम लिखा, पर मुझे लगता है कि उन्होंने थोड़े में ही बहुत लिखा है। आज ज़रूरत उसमें गुथे हुए सूत्रों को बिलगाने की, उन्हें समझने की है। वह अपनी बिलकुल अलग तरह की कहानियों की दुनिया के एक फक्कड़ और बिना पगहे के सरदार हैं। उनके रचना संसार की यात्रा को समझने के लिए हमें यथार्थ और संवेदना दोनो के ही अलग-अलग स्तरों पर अपनी शहरी और अकादमिक सोच को छोड़कर उनके साथ ‘तिरिया चरित्तर’ के उस टीले पर चढ़ना पड़ेगा जिसपर आज भी बिल्लर का वह गीत गूँज रहा है- ‘अरे टूटही मँड़हिया के हम हैं राजा, करीला गुज़ार थोरे मा, तोरे मन लागे न लागे पतरकी, मोर मन लागल तोरे मा।’’                                            

संपर्क - विवेक मिश्र, 123-सी, पाकेट-सी, मयुर विहार, फेस-2, दिल्ली-91 मो:-9810853128, इमेल:- vivek_space@yahoo.com                                                                       


सोफे पर ढहे हुए मेरे वीर सूरमा - अनूप सेठी की एक कविता

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भाई अनूप सेठीने यह कविता अपने संग्रह से भेजी थी, इस टीप के साथ कि 'अभी अपने संग्रह की कविताएं किसी काम से देख रहा था तो इस कविता पर अटक गया. और आप दोनों का ख्‍याल आया. पता नहीं आपने इसे पहले पढ़ा है या नहीं. नहीं, तो जरा पढ़ के देखिए' -  मेरे साथ इसे अजेय को भी भेजा गया था. ज़ाहिर है वह हम 'तीसे की उमरों' वालों को उसी उम्र में लिखी गयी यह कविता पढ़वाना चाह रहे थे...शायद सावधान भी करना चाह रहे थे. आप भी पढ़िए ...




कमरे की लोरी


खोल किवाड़ चौड़ चपाट
चिढ़ाएगा कमरा
आओ बरखुरदार कौन सी फतह करके आ रहे हो

मार लिए क्या तीर दो चार
जो बदहाली का आलम ले लौटे हो

यार जलाओ बत्ती मजनू
खोलो खिड़की रोशनदान
माना खप के आए हो
मैं भी दिन भर घुटा घुटा सा
पिचा हुआ
अंबर का टुकड़ा ढूंढ रहा हूं

तुम ऐसे तीसे की उमरों में
पस्त हुए सोफे पर ढह जाओगे
मेरी दीवारों को शैल्फों को
बस सूना ही सूना रखोगे
साल में एक कैलेंडर से क्या होता है

जब पंहुचोगे साठे में तो
क्या होगा पास तुम्हारे
बीसे की तीसे की है कोई गांठ बटोरी
आंच से बलगम की सांस चलाकर
तीरों के तुक्कों के क्या गूदड़ खोलोगे

मेरी भी दीवारों के बूरे में
रंग ढिसल रहे हैं

तब मेरे अकड़ रहे कब्जों में
घिसी हुई सी ठुमरी बोलेगी
भग आए थे पिता तुम्हारे
गोरी फौजों को छोड़
एक ढलान में घेरा पानी
ओडी[1]  में भरते नित दाना
मेरे रोम रोम में
मक्की की गेंहूं की गंध बसी है
तेल की घानी में चिकनाई है कब्जे की ठुमरी

सोफे पर ढहे हुए मेरे वीर सूरमा
कहां गया वो संकल्प तुम्हारा
आटे की पर्तों को झाड़ोगे
इतिहास रचोगे नया सयाना
दीवारों पर टांगोगे नई रवायत

उठो-उठो मेरे थके सिपाही
खाली दीवारें सूनी आंखें तकती हैं
यह मत मानो
कभी नूतनता की फौजे थकती हैं
चौड़ चपाट है खुला कपाट 
(1986)
[1] घराट (आटा चक्‍की) में लगी अनाज डालने की टोकरी

बुढ़ापा धरती की बर्फ़ ही तो है - वंदना शुक्ला

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पेशे से शिक्षक, प्रशिक्षण से ध्रुपद गायक और मूलतः कहानीकार तथा विचारक  वंदना शुक्ला की कुछ कवितायें यहाँ-वहाँ प्रकाशित हुई हैं और इन कविताओं पर कहानी तथा वैचारिकता का प्रभाव बखूबी लक्षित किया जा सकता है. उनकी कवितायें अपने समय-समाज के स्थापित मूल्य-मान्यताओं पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए अक्सर एक आकुलता को साथ लिए चलती हैं. शिल्प के स्तर पर वंदना अभी बहुत सावधान नहीं लगतीं और अक्सर सबकुछ कह देने की एक बेकली किसी पहाड़ी नदी की तरह सारे बंध तोड़ कर बह जाने की ज़िद दिखाई देती है. असुविधा पर उनकी कविताओं का स्वागत  


धरती की बर्फ़

उम्र को आदत है
वक़्त के ब्रश से
चेहरों पर लकीरे खींचने की
और अस्त होते सूरज को
इन्हें पढ़ने की ऑंखे गडा

यूँ  
दिन और रात के
इस संधिकाल में 
आदमी का आदमी से बुत हो जाना लाजमी है
चित्रकार कहते हैं पोट्रेट में
झुर्रियाँ बड़ी कलात्मक दिखती हैं

मूर्तिकार गढता है नर्म मिट्टी से
एक एक सिलवट को, चुनौती की तरह 
ठीक उतने जतन से
बुनता है जैसे कोई बुढापा
कच्ची-सोंधी यादों से अपना बचपन
सपाट चेहरों को छेनी हथौड़ों की आदत
ज़रा कम होती है

चोटें ज़िंदगी के गहने हैं
मूर्तिकार का तजुर्बा कहता है ये ,
दर्शक फिराते हैं उँगलियाँ मूर्तियों के चेहरे पर
टटोलते हैं
पुरानेपन के किस्से   
छू छूकर
जैसे उधेडना चाहते हों उनके पीछे से झांकती 
अपने ही भविष्य की सींवन

पुरुस्कारों की तालियों से
घनघनाती है प्रथ्वी
कांपती है आत्मा मूर्ति की
युग के साथ देह का घर
बूढा होता जाता है 

बुढापा धरती की बर्फ़ ही तो है !


दुनियां  

तमाशबीन है बस्ती धरती की
दुनियां सिर्फ एक तमाशा है
बच्चों का खेल....

टूटता है खिलौना कोई तो
रो देती है,चीखती कभी बिसूरती हुई
क्रोध में तोडती है चाँद-सूरज
बगावत से कर देती है ज़मीन आसमां लाल
या फिर गिरफ्त में आता है आसमान में उड़ता कोई सपना 

खुशियों से भर देती है वो अपने मन की झोली  
दो चरम छोरों से पैबस्त 
मध्य की भाषा सिर्फ चुनौती है
जैसे दो सुबहों के बीच का अवकाश
अँधेरे के कुछ टुकड़े  
अन्धेरा रात का पर्याय है 
और रात भटकने की तासीर
हर नींद से पहले
रख देती हैं आंसुओं की बूँदें 
सूखने अपने गालों पर |

हर सुबह 
भूल जाती है वो अपना ही चेहरा 
ढूंढती है कोनों में घर के
कोई खिलौना और हंसना
...फिर टूटना ....फिर रोना


युद्ध

युद्ध एक शब्द है जिसके अर्थ का रंग लाल है
और चीत्कार स्वर हीन
आधुनिकता के इस भडकीले बाज़ार में युद्ध भी
एक उत्पाद की तरह चमकता है बड़े-बड़े लकदक शो रूमों में
प्रलोभनों,विज्ञापनों,महंगाई और विवशता के हथियारों से लड़ता
और अक्सर ढह जाता हुआ कुंठा के किसी अँधेरे कोने में
चमकीले उत्पादों से जूझते खुरदुरी परम्पराओं के वुजूद  

कुछ युद्ध जीतने के लिए नहीं ,
लड़े जाते हैं जिंदा रहने की शर्त पर
पैदा हो जाने की अनचाही बेढब ज़मीन के ऊपर  
आदि अंत से निस्पृह...अनंत मीलों लंबे
पसीनों की नदियों में ,गाढ़े रक्त की दलदल से उपथ २   
सुबह से सुबह तक,ज़न्म से म्रत्यु तक
अफ़सोस से अफ़सोस तक ,जिनके आगे
सिर्फ खिड़की रहित दीवारें होती हैं
और जिनको लड़ने की ना कोई तरकीब होती ना कोई सिरा
सिर्फ विवशता होती है

भूख गरीबी,महंगाई,अन्यायों
दुखों,विडंबनाओं लंबी फेहरिस्त है    
ये युद्ध चलते हैं सदियों से पीढ़ियों तक
घुलता जाता है इनका काला धुआं 
एक धीमे ज़हर की तरह
बेबसों पीढ़ियों की जीवन शिराओं में
और गाढा होता हुआ
संघर्षों की नियति सिर्फ एक अफ़सोस जो
संक्रमित होता है
जातियों,पीढ़ियों,भूखमरियों और अन्यायों में

देह गढ़न के पहले ही
आत्मा में घुस बैठ जाते हैं कुछ युद्ध
अपने संतापों और दुखों के जंग खाए औजार संभाले
ये वो लड़ाइयां हैं जो बंदूकों से नहीं
लड़ी जाती हैं विडंबनाओं से ,
लड़ी जाती हैं भूख से महंगाई और गरीबी से 
सर्वहारा शब्द की यात्रा जहाँ से भी शुरू हुई हो
अब तो सिर्फ मतलब एक ही है इसका

मनुष्य से हारा हुआ मनुष्य
थक चुके हैं वो अब लड़ते-लड़ते  
अब उन्हें कुछ आराम चाहिए
बस दे सकते हो दे दो
एक युद्ध विराम
ताकि अगले किसी अघोषित युद्ध के लिए
बदल लिए जाने की मोहलत मिले उन्हें 
नियति की लहुलुहान त्वचा और चिथड़ी आशाओं को   


समाज और स्त्री

मैंने वो सब किया जो
वो सब चाहते थे
पर जो मेरे सपनों का हिस्सा नहीं थे   

मैंने वो सब रटा जो चाहते थे वो
पर मुझे हमेशा अपनी काबिलियत पर भरोसा था
बावजूद इसके अपनी ही अक्ल पर शक करना
उनकी चाहत
और विवशता थी मेरी

ये वो लोग थे जिनके नाम थे पर शक्ल नहीं
जिनके संबोधन थे पर आत्मीयता नहीं
जो एक आत्मारहित शरीर थे
‘नाम’ के ‘नाम’ पर उनके पास सिर्फ एक शब्द था – हृदयहीन
.
 इमारत 
ना जाने कब
नींव खुदी
कब बल्लियाँ गडीं
कब गिट्टियां ढूलीं
कब गारा सना
कब लिंटर पड़े
कब छत तनी
कब पक्के फर्श ने ढंका
कच्ची ज़मीन को
कब सीमेंट की सिलेटी सीलन गायब हुई  
और कब भदरंगी दीवारों के चेहरे पुते 
ना जाने कहाँ से ....
वक़्त की बारिश हुई
और ढह गई ज़िंदगी |


लड़कियां
देखती हैं अपनों की नज़रों में
खुद को तमाम नाजों से घिरी
दुधमुही लडकियां

छूती हैं उम्मीदों के कम्पित होठों से   
अपनी प्रेमासिक्त इच्छाओं के सपनों को    
ये जवान होती हुई लडकियां
फख्र और तहजीब से बिठाती हैं अपनी पलकों पर  
अपनों की उम्मीदों  को
बढ़ती होती लडकियां

रोटी बनाती माँ की बगल में खड़े हो
नापती हैं अपना भविष्य लंबी होती लडकियां

पिता की आँखों में फ़िक्र का काजल
लगा देती हैं ये चुलबुलाती हँसती हुई लडकियां

ना जाने कब अपनी उम्र को
समय के हाथ सौंप
कुम्हलाने लगती हैं ये
खिलती हुई लडकियां

जन्मदिन के पहले स्टेशन से
 दूर भागती उम्र की रेल को
बाकी बची ख्वाहिशों की गठरी के साथ  
पकडती थकने लगती हैं ये
बदहवास लडकियां
और छोड़ देती हैं वो सिरा
जो कभी पकड़ा ही नहीं था पर
छूटता है अपनों की तरह जो
कभी अपना था भी नहीं

..... हैरान होती लडकियां  
 दूर अतीत के किसी क्षितिज पार
ताकती रहती हैं खुद को
बुढ़ियाती हुई लडकियां

तुषार धवल की ताज़ा कविता

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तुषार धवलहिंदी के उन युवा कवियों में से है जिसने कभी भेड़चाल का हिस्सा बनना स्वीकार नहीं किया. वह चुपचाप अपने  तरीके से शिल्प और कथ्य दोनों की तोड़-फोड़ करता रहता है और हिंदी के सत्ता विमर्श के कानफोडू शोर की ओर पीठ किये लगातार सृजनरत रहता है. विचारधारा को लेकर उसकी अपनी नज़र है, जिससे मेरी असहमति स्पष्ट है. लेकिन मनुष्यता के पक्ष में उसका कलम इस मजबूती से खड़ा होता है कि कई बार उसका यह विचारधारा विरोध मुझे विचार से कम उसके झंडाबरदारों से अधिक लगता है. ब्रांडिंग के इस ज़माने में वह लगातार नए प्रयोग करता है, नए क्षेत्रों में प्रवेश करने की कोशिश करता है और खतरे उठाकर अपने हिस्से का सच कहने की कोशिश करता है. जिन लोगों ने उसकी काला राक्षसऔर अभी हाल में कविता 'ठाकुर हरिनारायण सिंह'पढ़ी है, वे इसकी ताकीद करेंगे कि वह हमारे समय में लम्बी कविताओं को सबसे बेहतर और मानीखेज तरीके से साधने वाले कवियों में से है.


'तनिमा' जैसे उसकी निजी कविता है...निजी से सार्वजनीन की लम्बी और महतवपूर्ण यात्रा करने वाली. मारी गयी और जीते-जी मरती हुई बेटियों के नाम लिखी हुई. जिस आत्मीयता और जिस  आवेग के साथ तुषार ने इसे रचा है वह स्त्री विमर्श के इस पूरे परिवेश को थोड़ा और विस्तारित करता है, थोड़ा और मानवीय बनाता है. इसे पढ़ते हुए मुझे अपने एक और मित्र कवि अंशु मालवीय की कविता 'कैसर बानो की अजन्मी बिटिया की ओर से' की याद आती है. गुजरात दंगों के दौरान उस माहौल के दबाव में लिखी उस कविता से अलग यह कविता 'सामान्य काल' में देश और दुनिया भर में मलाला से लेकर हमारे मोहल्ले या फिर हमारे घर की ही किसी लड़की के साथ ज़ारी अन्याय, भेदभाव और खाप पंचायतों के बीच एक अजन्मी बच्ची से कवि का आद्र संवाद है. मैं कवि की आवाज़ में आवाज़ मिलाते हुए पुकार रहा हूँ तनिमा को...





तनिमा   
(मारी गई और जीते-जी मरती हुई बेटियों के नाम )

तुम्हारी नन्हीं हथेलियों में
मैं कब अपना सारा संसार रख देता हूँ  
मुझे पता भी नहीं चलता  

तुम्हें गोद में उठाते हुए मेरा सर्वस्व तुम्हारी गोद में होता है बिटिया !
सब कुछ अपना तुम में धर कर तुम्हीं में उड़ता हूँ मुक्त फिर जन्म लेता हूँ तुम्हारी हर पुकार पर

तुम यहाँ नहीं हो
अभी इस संसार में देह लिये लेकिन 
मौजूद हो तुम अपनी माँ और मेरे योग के संयोग के उस क्षण में  
जिसका अवतरण नहीं हुआ है
लेकिन तुम्हारी कमी जैसा कुछ नहीं लगता मुझे
तुम्हारी किलकारी ! ओह्होय !देखो देखो किस तरह पैरों के अँगूठों पर चल रही है !
ताय-ताय,ताय-ताय ! एक पाजेब चाँदी की नन्हीं सी कदमतालियों में रख दो
झुन झुन झन झुन 
अरे अर्रर्रे ! देखो गिरेगी ! देखो देखो उसको
ओह्हो ! शू शू ! इसकी डायपर बदल दो,कुछ खिला दो दूध पिला दो सो जायेगी

ऊँहूँह ! श्शश ! धीरे से ! जग जायेगी तो रोयेगी. उसे मत रुलाओ कोई ! आओ ओ बिटिया मेरी पाखी मेरे कंधों पर सर रख दो देखो सपने सुंदर सुनहरे. तुम्हारी नन्हीं हथेलियों पर लकीरें हैं तुम्हारे समय की जाने क्या क्या आयेगा तुम्हारे हाथ क्या छूट जायेगा ... बलाएँ छूटें तुम्हारी  सुख आये हाथ ! सो जा...  ऊँssमुच्च्च !  आ री सोनचिरैया...

सूरज चंदा और सितारे
तेरे आँगन खेलें सारे
तेरे संसारों में हरदम
जीयें सुख सम सखा तुम्हारे  

देखो सो रही है ! चुप श्शश...     
उसकी गुलाबी फ्रॉक पर दूध के दाग ! दो दाँतों ने झाँकना शुरू किया है जस्ट अभी
गुलाब के बदन पर दो तारों की झिलमिल अँगड़ाई
पकी माटी के दीये में चम्पा की दो पंखुड़ी !   
बचा रह जाये यह सब वाष्प बनकर उड़ रहे समय के बाद भी रह सको सुरक्षित तुम हमेशा पर
जानता हूँ बिटिया ! तुम सुरक्षित नहीं हो कहीं भी --- गर्भ से चिता तक
लेकिन फिर भी आओ इस क्रूर समय संसार में
इसी क्रूर समय संसार में फिर फिर आओ उन्हीं हाथों में जो तुम्हें घोंट देते हैं ! आती रहो आती रहो हर बार जब तक कि हिंसा प्रेम ना सीख जाये उन खूनी सख्त हाथों में एक कोमल कम्पन भर दो बिटिया ! आओ कि बहुत बीमार है धरती और तुम्हारी राह तकती है हर हत्या में हर गर्भपात हर अपहरण में
वही चीख
फाड़ती है उसका आकाश और उसका कलेजा
उसके सूखे बाल भूरे बादलों के जंग खाये पंखों से कबाड़ की ढेर की तरह बिखरे हैं
उजड़े हुए हैं खुशी के रास्ते मातम है पृथ्वी पर जिसे कोई नहीं समझता लेकिन मैं कहता हूँ आओ बिटिया !   

मेरी गोद में भी आओ मेरी तनिमा !
यही है तुम्हारा नाम
मेरी बेटी !
अणिमा की दुलारी फुलकारी हमारी कल्पना की 
तनिमा,कृशांगी सुंदर,कवियित्री !
तनिमा,युग्म हमारे नामों का
तनिमा,यानि तुम
तनिमा,यानि हम
तनिमा है और यह सब जानते हैं
सिर्फ मैं ही नहीं जानता कहाँ हो तुम इस वक़्त
हमारी साँस हमारी धड़कन कब वह क्षण उगायेगी जिसमें तुम हो अभी अवस्थित

आओ और हर घर में हो जाओ हर घर की अपनी तनिमा हर घर की बेटी होना मौत को मुँह चिढ़ाने सा होता है खतरनाक जिम्मेदारियों के झोंटों में उलझी पतंग सा खतरनाक होता है बेटी बन कर आना

खतरनाक होता है जन्म यहाँ फिर भी आओ तनिमा आओ हर बार ऐसी ही बार बार आओ  
आओ फतवों की लपलपाती जीभ पर चल कर

फिलिस्तीन साइप्रस के खून में जन्मो तालिबानी बंदूकों में अपनी टिहुँक भर दो बारूदों में विस्फोटों में हर जगह उतरो चलो इन्हीं नरमुण्डों पर इन उलटते पहाड़ों पर फटते बादलों पर उतरो प्रलय के हाहाकार में मृत्यु की घोर पातकी करतूतों में उतरो बाज़ारों के लोभी छल में उस मोहजाल में उतरो मेरी बेटी वहाँ प्यार भर दो शांति भर दो यहाँ वहाँ हर जगह यहीं वहीं होना है तुम्हें इस वक़्त और यह तुम्हीं कर सकती हो क्योंकि तुम स्त्री हो और मेरे कलेजे से निकली हुई एक कोमल कल्पना हो एक विकल्प हो इन लाचार जिजीविषाओं का 

आओ फिर फिर आओ मृत होने को कूड़े के ढेरों में फेंके जाने को चिताओं या रसोइयों में झोंके जाने को ठगी जाने को लेकिन आओ और यहीं आओ कि अभी यही है हमारे पास हम कितना भी चाहें,खुश हो लें,लेकिन हाथ खोलेंगे तो यही निकलेगा और इसे ही स्वीकारो इसे ही बदलो और इसीलिये आओ! आओ ऋचाओं के पुनर्पाठ में मार्क्स और मनु के अंतर्सम्वाद में स्त्रीवादी विमर्शों के ढकोसले प्रलापों में आओ एक सम्पूर्ण खुरदुरी स्त्री तनिमा !

तुम्हारे जन्म में जन्म लेगी एक माँ जन्मेगा एक पिता जन्म लेगा एक संसार
कितना कुछ जनोगी बिटिया तुम जन्मते ही !
तुम जीवन का उत्सव हो सृजन का संसृति का इसीलिये आओ
डाली पर बैठे कालिदासों के घर आओ
आओ और हिंसक नरों के इस बौराये झुण्ड को प्यार से सहला दो
स्पर्श करके जगा दो उन्हें अपनी माटी में पूरा का पूरा
आओ कि इसी वक़्त विश्व को सबसे ज़्यादा ज़रूरत है एक माँ की
तुम बेटी हो और तभी तुम पर यह भरोसा करता हूँ बिटिया ! आओ ! 

तुम अभी नहीं हो और
हर बेटी में
तुम्हारा इंतज़ार है.


रुपाली सिन्हा की कवितायें

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रूपाली सिन्हा से मेरा परिचय कालेज के दिनों का है. हमने एक छात्र संगठन में काम किया है, न जाने कितनी बहसें की हैं, लडाइयां लड़ी हैं और इस डेढ़ दशक से भी लम्बे दौर में शहर दर शहर भटकते हुए भी दोस्त रहे हैं. रूपाली की कवितायेँ एकदम शुरूआती दौर से ही सुनी हैं. गोरखपुर स्कूल के अन्य कवि मित्रों की तरह ही उनका जोर लिखने पर कम और छपवाने पर बिलकुल नहीं रहा है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं. मुझे कई वर्षों की लड़ाइयों के बाद अचानक जब कुछ दिनों पहले ये कवितायेँ मिलीं तो सुखद आश्चर्य हुआ
रूपाली अपने मूल स्वभाव से एक्टिविस्ट हैं. कालेज के दिनों से लेकर अब तक वह लगातार संगठनों से जुडी रही हैं और संघर्षों की भागीदार रही हैं. विचार उसके लिए किताबों में पढने और लिखने वाली चीज नहीं, बल्कि बतौर भगत सिंह - तौर-ए-ज़िन्दगी हैं, तो ज़ाहिर है कि एक कशमकश, एक द्वंद्व लगातार उन्हें मथता रहता है. एक औरत होने के नाते ये सवाल कई-कई स्तर पर और गहराते जाते हैं. ये कवितायें पढ़ते हुए आप उसी कशमकश से गुजरेंगे.

तुमने कहा 

तुमने कहा - विश्वास  
मैंने सिर्फ तुम पर विश्वास  किया

तुमने कहा - वफ़ा
मैंने ताउम्र वफादारी निभायी 

तुमने कहा - प्यार
मैंने टूट कर तुम्हे प्यार किया

मैंने कहा - हक़ 
तुमने कहा -सबकुछ तुम्हारा ही है

मैंने कहा -मान 
तुमने कहा - अपनों में मान-अपमान क्या?

मैंने कहा - बराबरी 
तुमने कहा - मुझसे बराबरी?

मैंने कहा -आज़ादी 
तुमने कहा - जाओ 
मैंने तुम्हें  सदा के लिए मुक्त किया!

क्या करूँ इस पुकार का...

मैं ज्वालामुखी हूँ
लेकिन फूट नहीं सकती
पर अन्दर उबलते इस लावे का क्या करूँ?

सोचती हूँ किसी रेगिस्तान में जाकर
चीख-चीख कर उड़ेल  दूं सबकुछ 
दहकता रेगिस्तान मेरी आग को भी 
ले लेगा अपने आगोश में
उसका तो कुछ नहीं बिगड़ेगा

या चढ़ जाऊं किसी ऊँचे शिखर पर 
और आकाश को सुना आऊँ  अपनी व्यथा
पहुँच जाऊं किसी घने जंगल में 
किसी बूढ़े वट -वृक्ष के सामने
खोल दूं अपना दिल

या डुबकी लगा दूं किसी सागर में 
गर्त में पहुँच कर
सागर से कहूं
लहरों के साथ अठखेलियाँ छोड़
सुनो मेरी कथा 

कहाँ जाऊं क्या करूँ
रेगिस्तान... जंगल... पहाड़... समुद्र
कुछ तो बताओ
कोई तो पुकारो!

पीठ पर बंधा घर 


पीठ पर घर बांधे वे हर जगह मौजूद होती हैं 

कभी-कभी उसे उतारकर कमर सीधी  करती 
हंसती हैं खिलखिलाती हैं बोलती बतियाती हैं 
लेकिन जल्द ही घेर लेता है अपराधबोध 

उसी क्षण झुकती हैं वे 
घर को उठाती हैं  पीठ पर हो जाती हैं फिर से दोहरी 

इक्कीसवीं सदी में उनकी दुनिया का विस्तार हुआ है 
वे सभाओं मीटिंगों प्रदर्शनों में भाग लेती हैं 
वे मंच से भाषण देती हैं, उडती हैं अंतरिक्ष में 
हर जगह सवार होता है 
घर उनकी पीठ पर 

इस बोझ की इस कदर आदत हो गयी है उन्हें 
इसे उतारते ही पाती हैं खुद को अधूरी 

कभी कभार बिरले ही मिलती है कोई 
खाली होती है जिसकी पीठ 
तन जाती हैं न जाने कितनी भृकुटियाँ 

खाली पीठ स्त्री 
अक्सर स्त्रियों को भी नहीं सुहातीं 
आती है उनके चरित्र से संदेह की बू 
कभी-कभी वे दे जाती हैं घनी ईर्ष्या भी 

इस बोझ को उठाये उठाये 
कब झुक जाती है उनकी रीढ़ 
उन्हें इल्म ही नहीं होता 
वे भूल जाती हैं तन कर खड़ी  होना 
जब कभी ऐसी इच्छा जगती भी है 
रीढ़ की हड्डी दे जाती है जवाब 
या पीठ पर पड़ा बोझ 
चिपक जाता है विक्रम के बेताल की तरह 

और इसे अपनी नियति मान 
झुक जाती हैं सदा के लिए

नयी राहें 

मुझे सिखाया गया 
अपनी राह खुद चुनना 
और अपने चुने हुए रास्ते पर चलना सो मैंने रास्ता चुना और चलने लगी

काफी दूर चलने के बाद 
मैंने देखा लिखा था 
"आगे रास्ता बंद है"

ठिठककर सोचती रही मै 
आगे बढ़ कर चुन ली दूसरी राह 
और चलने लगी 

कुछ दूर चलने पर देखा लिखा था 
"टेक डाइवर्जन"

मजबूर थी मुड़ने को मैं  
मुड़कर चलती गयी 

जब पहला पड़ाव आया 
तो लगा रास्ता कुछ अनजान अपरिचित सा है 
गौर से देखा तो पाया 
यह रास्ता तो मेरा था ही नहीं 

पर मुमकिन नहीं था लौटना अब 
उम्र के कई पड़ाव बीत चुके थे 
इस बदलने चलने में  सो 
संतोषम परम सुखं का मंत्र 
दोहरा लिया  मन ही मन 
पर आत्मा में कोई टीस उभरती रही 
......

मेरे जैसे कितने ही लोग 
जीवन की यात्रा में 
ज़रा बांये ज़रा दाए मुड़ने को 
रास्ते बदलने को 
मजबूर होते रहते हैं 

अचानक मेरे मन ने सवाल किया 
अगर हटा दी जाएँ वे तमाम तख्तियां 
जिन पर लिखा है "रास्ता बंद है" या 
" टेक डाइवर्जन" तो क्या होगा?

कोई शक नहीं कि इन प्रतिबंधित रास्तों पर चलना 
खतरनाक हो सकता है 
लेकिन ये भी तो हो सकता है कि 
सचमुच आगे रास्ता हो ही न 
बनानी पड़े नयी राह 

बेहतर है यह 
जीवन की राह पर थके-हारे 
निर्लिप्त भाव से चलते जाने से 
तमाम ताकीदों से आज़ाद 
नयी राहें ऐसी हों 
जिनपर सब चल पायें 
किसी को जबरन मुड़ने या रुकने को मजबूर न करें।



ये औरतें 

अँधेरे की संस्कृति में रहती हुई 

मर्दों से कहीं भी पीछे नहीं

श्रम का पसीना बराबर बहातीं
ये औरतें 

सभ्यता की दुनिया से दूर 
मर्दों के कंधे से कन्धा मिलाकर चलती
 ये औरतें

ज़ुल्म नहीं सहतीं 
तुरत-फुरत निपटातीं  मसले 
अगले दिन पर नहीं छोड़तीं 
रोज़ जीतीं हैं एक पूरा जीवन
ये औरतें.


*रूपाली सिन्हा दिल्ली के  एक प्रतिष्ठित पब्लिक स्कूल में हिंदी पढ़ाती हैं और 'स्त्री मुक्ति संगठन' से जुड़ी  हुई हैं.

ये पब्लिक है, सब जानती है!

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युवा कवि अमित श्रीवास्तवअपनी धारदार राजनीतिक कविताओंके लिए जाने जाते हैं. उन्हें आप असुविधा पर पहले भी पढ़चुके हैं. इस पार पढ़िए उनका राजनीतिक व्यंग्य...उतना ही तीखा...उतना ही धारदार 



एंट्री पोल


"बताया उन्हें कि एक ऐसी पार्टी आने वाली है जो कहती है कि भ्रस्टाचार मिटाएगी, काला धन हटाएगी ऐसे हो सकता है गरीबी भी भगा दे| `वो तो ठीक’ बाई बोली `पर क्या हमारा कारड बनवाएगी... बताओ भला... ये जो कटिया फांस रक्खी है पोल से उसे तो नहीं हटाएगी...कल्लन लड़ेगा इलिक्शन...हमारी बिरादरी का भी है...वो बनवाएगा कारड कहता है...वही पाएगा हमारा वोट...हमारे को क्या कि वो तल्लैया के उस पार जंगल को...कच्ची खेंचता है...|’"


अजीब घालमेल है| बाई द पीपुल, फॉर द पीपुल, ऑफ द पीपुल वाली सरकार के साथ तटस्थ ब्यूरोक्रेसी| तटस्थता कैसे उचाटता में बदलती है, उसपर फिर कभी| अभी तो उस जनता के बारे में जिससे, जिसकी और जिसके लिए ये सरकार है| एक महाशय( ये महा `शय’ हैं या लघु ये तो आने वाला चुनाव साबित करेगा लेकिन तब तक...) जो जन सरोकारों से लबरेज, जन आन्दोलनों में लिप्त थे अब अचानक जिससे, जिसकी, जिसके लिए से किंचिद घबराकर( यहाँ सुविधानुसार थककर, हारकर भी शामिल कर लें) जननीति से राजनीति की ओर मुखातिब हो गए| बात चौंकानेवाली तो नहीं थी फिर भी पता नहीं क्यों लोग चौंक गए| समय समय की बात| हमने इन्हीं चौंके हुए लोगों के बीच उन महाशय के भविष्य की गणना करनी चाही| एक ओपिनियन पोल किया| पूछा कि इन महाशय को जनतांत्रिक मूल्यों और जनता की तांत्रिक शक्तियों पर जो इतना भरोसा है क्या वो अर्थ- दंड- साम- भेदी वोट की नीति से टूटेगा नहीं?

इतनी बड़ी संभावना-कम-प्रस्तावना वाला प्रश्न मैंने एक बुद्धिजीवी ( जिनका हाल फिलहाल बुद्धि के अतिरिक्त सब कुछ जीवित है) की ओर सरकाया| उन्होंने प्रसंगवश किसी शायर के शे`र का एक मिसरा सुनाया कि `जम्हूरियत वो तर्जे हुकूमत है जिसमे बन्दों को गिना जाता है तौला नहीं जाता , और अचानक से संदर्भहीन हो गए| शायद खुद कवि थे इसलिए अचानक अचानक चुप हो जाते थे| फिर बोले `टू रेकटीफाई द एविल्स ऑफ डेमोक्रेसी वी नीड डीपर डेमोक्रेसी’| हम इन दोनों बातों के सिरों को सुलझाने में नाकाम होने लगे तो इन्होंने मुस्कुराते हुए खुलासा किया| खुलासा ये कि आदमी का भार उसके अंदर की अच्छाइयों से तौला जाना चाहिए और गहरे गणतंत्र के लिए खुदाई ऊपर से नीचे को नहीं वरन नीचे से ऊपर को होनी चाहिये| हमारे लिए ये भावार्थ अजब थे, नए तो नहीं थे लेकिन फिलवक्त अर्थहीन थे| हमने मुद्दे की बात करनी चाही| `आप वोट किसे देंगे, अपने तराजू पर तौलकर किसी भारी आदमी को या फिर पहले की तरह...?’ वो बुदबुदाए| कविता की कुछ असंबद्ध पंक्तियों की तरह जो कुछ भी बुद बुद निकली उसका सार संक्षेप यों था- `पिछले मुख्यमंत्री जी के तीन कविता संग्रहों का ब्लर्ब मैंने लिखा था...मेरा बेटा अभी तदर्थ नियुक्त है...जिले में नया महाविद्यालय पास हुआ है...अभी मुख्यमंत्री जी का पत्र आया है साथ में एक पार्सल है एक खंड काव्य की समीक्षा करनी है...’ आगे कुछ पूछने की ज़रूरत नहीं रह गयी| तराजू और कुदाल दोनों मिल गए थे|

हम अपने प्रश्न का कीड़ा लेकर दूसरे सज्जन के पास पहुंचे| ये जानते हुए भी कि `स’ और `दु’ के बीच की दूरी इस नासपिटे ग्लोबल गाँव ने लगभग खतम कर दी है, फिर भी भाषा की गरिमा का ख़याल रखते हुए हमने सज्जन से इस जन-राजनैतिक उठापटक के बारे में पूछा| सज्जन अपनी यथासंभव नियंत्रित भाषा और लगभग अनियंत्रित ऊर्जा से स्वयं ही रिफ्लेक्ट हो रहे थे| पहले भड़भूजे थे| चूल्हे में फूंक मारने का काम किया था| आजकल पत्रकारिता से जुड गए हैं| काम पीछा नहीं छोडता| इन्होने कोई नयी बात नहीं की| इन्होने कोई बड़ी बात नहीं की| लेकिन फिर भी बोलते रहे| राज खोलते रहे| हर पार्टी का कच्चा चिट्ठा पढकर सुना दिया| हर नेता की कलई खोल कर दिखा दी| सबकी गिरेबान में खुद ही झांककर देख लिया| हमने मुद्दे की बात पूछी तो अनायास ही बगलें झाँकने लगे| अगल बगल कोई न मिला तो सच की राह पकड़ी| `हमें भी घरबार चलाना है...अखबार का सर्क्यूलेशन बढ़ाना है...विज्ञापन दिलवाना है...चैनल के किये टी.आर.पी लाना है...चैनल का फलाना घराना है...विदेशी पूंजी भी लगवाना है...|’ अब किसी गिरेबान में झाँकने की ज़रूरत नहीं थी| ये कलई की काफी मोटी परत थी| इतनी आसानी से नहीं खुलने की| चिट्ठा अब बहुत पक्का हो चला था पढ़ना- पढाना बहुत मुश्किल| हम आगे बढ़ लिए|

हमारे सर्वे में नई पार्टी और पुराने जननेता से नए राजनेता बने नेता को अब तक एक भी वोट नहीं मिला था| इस सफर के अगले पड़ाव में हम एक अफसर के पास गए| जाना पड़ा| परमिट-कोटा-लाइसेंस राज के जाने के बाद भी इसके पास इतने सोंटे हैं कि सरकारी बग्घी यही चलाता है| ये बेधड़क है क्योंकि इसके सिर्फ धड ही धड हैं| राज करने वाली पार्टी बदलती है, सर बदलता है| एक धड पर कई कई सर| पक्का मजबूत धड चाहिए ऐसे में| है भी| स्टील फ्रेम... अंगरेजी ज़माने का| जैसे पुरानी तलवारें जंग खाती हैं ज़रूर, पर टूटती नहीं वैसे ही इस फ्रेम पर मार तमाम जंग लग चुका है पर ये टूटता ही नहीं| कम बोलता है अफसर| बोलने से तटस्थता पर आंच आती है शायद इसलिए| हमारे प्रश्न पर एक टीप सी दी `टू बी ऑब्जेक्टिव, डिसपैशनेट, एपोलिटीकल एंड नॉन पार्टीसन बैंड ऑफ प्रोफेशनल एडमिनिस्ट्रेटर्स, वी बीकम पोलिटिकली स्टरलाईजड टू डू ऑवर जॉब विथ एफिशिएंसी, इंटीग्रिटी, लोयालिटी, प्रोफिसिएंसी एंड डेडिकेशन|’ हमने एक साथ एक वाक्य में इतने सारे अर्थपूर्ण शब्द नहीं सुने थे| इनका मतलब गुन ही रहे थे कि अफसर के हाथ से वो पर्चा गिरा जिसमे उसका स्थानांतरण आदेश था| निचुड़ने की हद तक उसने खींसें निपोर दीं| अब जो वो बोले तो अर्धसरकारी पत्र की तरह| `हमारा भी घर परिवार है... पहाड़ पर हमें भी कष्ट होता है... और फिर रिटायरमेंट के बाद क्या...?’ अब किसी मुद्दे के प्रश्न की गुंजाइस नहीं थी| वोट किसे मिलेगा इसकी आधिकारिक पुष्टि हो चुकी थी|

हमारा सर्वे हमें फेल कर रहा था| हमें वहाँ से `ना’ मिल रही थी जहां कल तक लोग विकल्प विकल्प चिल्लाते थे| कलपते थे कि क्या करें हमें इन्हीं के बीच से चुनना पडता है| हम अपने प्रश्न का ठीकरा लेकर `नीचे’ उतरे| आम जन के पास| रम्पुरा शाकर की झुग्गी नंबर बारह में| ये कहाँ है, किस शहर में है? ये आपके शहर में भी है| रेलवे लाइन के उस पार...जहां अगर खोल दो तो आपका टाइगर दिशा मैदान को भागे| तो वहाँ मिले हम टुनकी बाई से| बताया उन्हें कि एक ऐसी पार्टी आने वाली है जो कहती है कि भ्रस्टाचार मिटाएगी, काला धन हटाएगी ऐसे हो सकता है गरीबी भी भगा दे| `वो तो ठीक’ बाई बोली `पर क्या हमारा कारड बनवाएगी... बताओ भला... ये जो कटिया फांस रक्खी है पोल से उसे तो नहीं हटाएगी...कल्लन लड़ेगा इलिक्शन...हमारी बिरादरी का भी है...वो बनवाएगा कारड कहता है...वही पाएगा हमारा वोट...हमारे को क्या कि वो तल्लैया के उस पार जंगल को...कच्ची खेंचता है...|’


बात सीधी और सपाट थी| हमें क्या? हमें क्या कि विधायक जी के ऊपर रेप के आरोप हैं, हमारी बिटिया को एडमीशन तो वही दिलवाएंगे| हमें क्या कि एम्.पी महोदय की पत्नी के एन.जी.ओ. से ही महोदय का सारा भूरा-काला धन सफ़ेद होता है, हमारी फैक्ट्री को एन.ओ.सी. तो वही दिलवाएंगे| हमें क्या कि ब्लाक प्रमुख जी निरक्षर होते हुए भी बेटे के नाम से चार चार इंजीनियरिंग इन्स्टीट्यूट चला रहे हैं, हमारी ज़मीन लीज से फ्री होल्ड तो वही करवाएंगे| हमें क्या? हमसे क्या मतलब?

जनाब ये पब्लिक है| ये सब जानती है| नहीं जानती तो जान जाती है| इस जनता के बारे में जानना तो आपको पड़ेगा वरना...जाना पड़ेगा|

नोट- इस एंट्री पोल में हमसे सबने सच क्यों बोला ये जानना आपके लिए बाध्यकारी नहीं हैं| इसलिए नहीं बता रहे हैं| आप चाहें तो अपना दिमाग इस्तेमाल कर सकते हैं|                   

सीता आज भी धरती के गर्भ में समा जाती है

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देवयानी भारद्वाजको आपपहले भी असुविधापर पढ़ चुके हैं. यह कविता उन्होंने कुछ दिन पहले भेजी थी. हाल ही में बीते दशहरे से इसका संबंध सहज ही देखा जा सकता है, लेकिन यह सिर्फ वहीँ तक सीमित नहीं बल्कि उससे कहीं आगे जाती हुई बड़े धैर्य के साथ इतिहास और वर्तमान में आवाजाही करते हुए लैंगिक भेदभावों की राजनीति की तलाश करती है.

चित्र यहाँ से साभार 



सड़क पर खड़े निरीह पुतले रावण के  
कहते हैं पुकार पुकार  
देखो,
बुराई का प्रतिमान नहीं हूँ मैं  
सिर्फ कद बहुत बड़ा है मेरा  

हम आर्यावर्त के लोग  
सह नहीं पाते  
जिन्हें हमने असुर माना  
उनकी तरक्की और शिक्षा  
उनके ऊँचे कद से डर   जाते हैं  
डर जाते हैं स्त्रियों के  
अपनी कामनाओं को   खुल कर कह देने से  
स्त्री मुक्ति की बातें  
हमें घर को तोड़ने वाली ही बातें लगती हैं  

हम लक्ष्मण रेखाओं के दायरे में ही रखना चाहते हैं सीता   को  
और डरी सहमी सीता   जब करती है पार   लक्ष्मण रेखा
तो फँस ही जाती है किसी रावण के जाल में  
लेकिन क्या रावण ने जाल में फँसाया था  
या ले गया था उसे लक्षमण   रेखा की कैद से निकाल  
और कहा हो उसने  
'' प्रणय निवेदन मेरा तुम करो या न करो स्वीकार  
यह सिर्फ तुम्हारा है अधिकार  
तुम यहाँ रहो प्रेयसी  
अशोक वाटिका में  
जहाँ तक पहुँच   नहीं   सकेगा  
कोई भी सामंती संस्कार "  

जो जेवर सीता ने राह में फेंके थे   उतार उतार  
क्या वह   राम को राह दिखा रही थी  
या फेंक रही थी उतार उतार  
बरसों की घुटन और वे सारे प्रतिमान  
जो कैद करते थे उसे  
लक्ष्मण रेखा के दायरों में  
जबकि राम कर रहे हों स्वर्ण मृग का शिकार  

यह मुक्ति का जश्न था  
या थी मदद की पुकार  
इतिहास रचता ही रहा है  
सत्ता के पक्ष का आख्यान  
कौन जाने क्यों चली गयी थी तारा  
छोड़ सुग्रीव को बाली के साथ  
और किसने दिया मर्यादा पुरुषोत्तम को यह अधिकार  
की भाइयों के झगड़े में  
छिप कर करें वार  

कब तक यूं ही ढोते रहेंगे हम  
मिथकों के इकहरे पाठ  
और दोहराते रहेंगे  
बुराई पर   अच्छाई की जीत का नाम   
जबकि तथ्यों के बीच मची है कैसी चीख पुकार  
'घर का भेदी लंका ढाए'

केकयी   ने तो सिर्फ याद दिलाई थी रघुकुल की रीत  
पर यह कैसी जकड़न थी  
कि पादुका सिंहासन पर विराजती रहीं  
जिसे सिखाया गया था सिर्फ चरणों को पूजना  
और पितृसत्ता का अनुचर होना  
उसने इस तरह जाया किया  
एक स्त्री का संघर्ष  

जीवन भर पटरानी कौशल्या के हुकुम बजाती केकयी ने  
बेटे के लिए राज सिंहासन मांग कर पाला था   एक ख्वाब  
भूली नहीं होगी केकयी  
बरसों के अनुभव ने छीन   लिया होगा
अपने ही सुलगते सपनों को जीने का   आत्मविश्वास
कुछ पुत्रमोह भी बाँध रहा होगा पाँव  
आखिर दलित रानी की  
और भी दलित दासी ने चला दाँव  
और रघुकुल की रीत निभायी राम ने  
जैसे आज भी निभाते   हैं रघुकुल की रीत को कलयुगी राम   
औरतें और दलित सब ही बनते हैं पञ्च और सरपंच  
सिंहासन पर अब भी पादुकाएँ बिराजती हैं  

जिस नव   यौवना सीता को पाने चले गए थे राम  
अपार जलधि के भी पार  
वह प्रेम था या अहम पर खाई चोट की ललकार  
आख्यान कहाँ बताते हैं पूरी बात  
या रचते हैं रूपकों का ऐसा महाजाल  
सीता स्वेच्छा से देती है अग्नि परीक्षा  
और गर्भावस्था में कर दिया जाता है उसका परित्याग  
न राम के पास था नैतिक साहस  
और लक्ष्मण का भी था मुंह बंद  
सत्ता की राजनीति में सीता  
बार बार होती रही निर्वासित   
और वाल्मीकि के आश्रम में   पाती रही   शरण  
राम के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े स्वतंत्र घूमते रहे  

लव कुश लौट - लौट कर जाते हैं  
अयोध्या के राज महल  
सीता आज भी धरती के गर्भ में समा जाती है

आनंद कुमार द्विवेदी की ग़ज़लें

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आनंद कुमार द्विवेदीको मैंने फेसबुक से ही जाना. दिल्ली में एक बहुत छोटी, लेकिन आत्मीय मुलाक़ात के अलावा उनसे मेरा सम्पर्क नेट से ही है. बीच-बीच में उनके कुछ शेर यहाँ-वहाँ देखे और ग़ज़ल के व्याकरण से अपने नितांत अपरिचय के बावजूद उनसे बहुत प्रभावित हुआ. उनके यहाँ सिर्फ 'ग़म-ए-जाना' ही नहीं बल्कि ग़म-ए-दौराँ भी है, वह भी एक बेहद सादा लेकिन मानीखेज़ कहन के साथ...असुविधा पर उनका स्वागत 



एक 

दो चार रोज ही तो मैं तेरे शहर का था
वरना तमाम उम्र तो मैं भी सफ़र का था

जब भी मिला कोई न कोई चोट दे गया
बंदा वो यकीनन बड़े पक्के जिगर का था

हमने भी आज तक उसे भरने नहीं दिया
रिश्ता हमारा आपका बस ज़ख्म भर का था

तेरे उसूलतेरे  फैसले ,   तेरा  निजाम
मैं किससे उज्र करता, कौन मेरे घर का था

जन्नत में भी कहाँ सुकून मिल सका मुझे
ओहदे पे वहाँ भी कोई तेरे असर का था

मंजिल पे पहुँचने की तुझे लाख दुआएं
‘आनंद’ बस पड़ाव तेरी रहगुज़र का था



 (दो)

आ जिंदगी तू आज मेरा कर हिसाब कर
या हर जबाब दे मुझे  या लाजबाब कर 

मैं  इश्क  करूंगा  हज़ार  बार करूंगा
तू जितना कर सके मेरा खाना खराब कर

या छीन  ले नज़र कि कोई ख्वाब न पालूं
या एक काम कर कि मेरा सच ये ख्वाब कर

या मयकशी से मेरा कोई वास्ता न रख
या ऐसा नशा दे कि मुझे ही शराब कर 

जा चाँद से कह दे कि मेरी छत से न गुजरे
या फिर उसे मेरी नज़र का माहताब कर

क्या जख्म था ये चाक जिगर कैसे बच गया  
कर वक़्त की कटार पर तू और आब कर

खारों पे ही खिला किये है गुल, ये सच है तो
‘आनंद’के  लिए  भी  कोई तो गुलाब कर 


(तीन )


मुश्किल से, जरा देर को सोती हैं लड़कियां,
जब भी किसी के प्यार में होती हैं लड़कियां

पापाको कोई रंज न हो, बस ये सोंचकर
अपनी हयात ग़म में  डुबोती हैं लड़कियां 

फूलों की तरह खुशबू बिखेरें सुबह से शाम
किस्मत भी गुलों सी लिए होती हैं लड़कियां

उनमें...किसी मशीन में, इतना ही फर्क है,
सूने  में  बड़े  जोर  सेरोती  हैं   लड़कियां

टुकड़ों में बांटकर कभीखुद को निहारिये
फिर कहिये, किसी की नही होती हैं लड़कियां

फूलों का हार हो कभी  बाँहों का हार हो
धागे की जगह खुद को पिरोती हैं लड़कियां

‘आनंद’अगर अपने तजुर्बे  कि   कहे तो
फौलाद हैंफौलाद ही होती हैं लड़कियां 



 (चार )


इस नाज़ुक़ी से मुझको  मिटाने का शुक्रिया
क़तरे को  समंदर से  मिलाने  का शुक्रिया  

मेरे सुखन को अपनी महक़ से नवाज़ कर
यूँ आशिक़ी का  फ़र्ज़  निभाने का शुक्रिया 

रह रह  के तेरी खुशबू उमर भर  बनी रही
लोबान  की  तरह से   जलाने का शुक्रिया  

इक भूल  कह  के  भूल ही जाना कमाल है
दस्तूर-ए-हुश्न   खूब  निभाने  का  शुक्रिया

आहों  में  कोई और हो   राहों  में कोई और
ये साथ  है   तो  साथ में  आने  का शुक्रिया 

दुनिया  भी बाज़-वक्त   बड़े  काम की लगी
फ़ुरसत में  आज  सारे ज़माने  का शुक्रिया

जितने थे  कमासुत  सभी शहरों में  आ गए 
इस  मुल्क  को ‘गावों का’बताने का शुक्रिया 

ना प्यार  न सितम  न  सवालात  न झगड़े 
‘आनंद’  उन्हें  याद   न  आने  का शुक्रिया 

 (पाँच )

 भूख लाचारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
जंग ये जारी नहीं तो और क्या है दोस्तों

अब कोई मज़लूम न हो हक़ बराबर का मिले
ख़्वाब  सरकारी  नहीं तो और क्या है दोस्तों

चल रहे भाषण महज औरत वहीं की है वहीं 
सिर्फ़ मक्कारी नहीं तो  और क्या है दोस्तों

अमन भी हो प्रेम भी हो जिंदगी खुशहाल हो
राग दरबारी नहीं  तो  और क्या  है दोस्तों

नदी नाले  कुँए  सूखे,  गाँव  के  धंधे  मरे
अब मेरी बारी नहीं तो  और क्या है दोस्तों

इश्क मिट्टी का भुलाकर हम शहर में आ गए
जिंदगी प्यारी नहीं तों और क्या है दोस्तों



(छह ) 

न ही कोई  दरख़्त  हूँ  न  सायबान हूँ
बस्ती से जरा दूर का तनहा  मकान हूँ

चाहे जिधर से देखिये बदशक्ल लगूंगा
मैं जिंदगी की चोट का ताज़ा निशान हूँ

कैसे कहूं कि मेरा तवक्को करो जनाब
मैं खुद किसी गवाह का पलटा बयान हूँ

आँखों के सामने ही मेरा क़त्ल हो गया
मुझको यकीन था मैं बड़ा सावधान हूँ

तेरी नसीहतों का असर है या खौफ है
मुंह में  जुबान भी हैमगर बेजुबान हूँ

बोई फसल ख़ुशी की ग़म कैसे लहलहाए
या तू खुदा है, या मैं अनाड़ी किसान हूँ

एक बार आके देख तो ‘आनंद’का हुनर
लाचार परिंदों काहसीं आसमान हूँ  !!

जनतंत्र में कचहरी मृगतृष्णा है गरीब की - जितेन्द्र श्रीवास्तव की ताज़ा कवितायें

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जितेन्द्र श्रीवास्तव की ये ताज़ा कवितायेँ कुछ दिनों पहले मेल से मिलीं. उनकी कविताओं से मेरा नाता पुराना है - गोरखपुर के दिनों का. बहुत जल्दी शुरू करके और लगातार बहुत अच्छा लिखते हुए वह अब उस मुकाम पर हैं जहाँ परिचय देने की आवश्यकता नहीं होती. स्मृति उनकी कविताओं का हमेशा से एक बड़ा स्रोत रही है. अपने गाँव-क़स्बे को लगातार अपनी कविताओं में संजोते हुए उन्होंने उनसे अपने समय की बड़ी और व्यापक विडम्बनाओं के पर्दाफ़ाश की कोशिश की है. यहाँ भी एक पूर्व राजघराने की कोठी के मैदान के सार्वजनिक स्थल से निजी संपत्ति में तब्दील होने का जो एक दृश्य उन्होंने खींचा है वह हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का एक बड़ा बिम्ब प्रस्तुत करता है. असुविधा पर उनका स्वागत   

चुप्पी का समाजशास्त्र

उम्मीद थी 
मिलोगे तुम इलाहाबाद में
पर नहीं मिले

गोरखपुर में भी ढूँढा
पर नहीं मिले

ढूँढा बनारस, जौनपुर, अयोध्या, उज्जैन, मथुरा, हरिद्वार
तुम नहीं मिले

किसी ने कहा
तुम मिल सकते हो ओरछा में
मैं वहां भी गया
पर तुम कहीं नहीं दिखे

मैंने बेतवा के पारदर्शी जल में
बार-बार देखा
आँखे डुबोकर देखा
तुम नहीं दिखे

तुम नहीं दिखे
गढ़ कुण्ढार के खँडहर में भी

मैं भटकता रहा
बार-बार लौटता रहा
तुमको खोजकर
अपने अँधेरे में

न जाने तुम किस चिड़िया के खाली खोते में
सब भूल-भाल, सब छोड़-छाड़
अलख जगाये बैठे हो

ताकता हूँ हर दिशा में
बारी-बारी चारो ओर
सब चमाचम है

कभी धूप कभी बदरी
कभी ठंढी हवा कभी लू
सब अपनी गति से चल रहा है

लोग भी खूब हैं धरती पर
एक नहीं दिख रहा है
इस ओर कहाँ ध्यान है किसी का
पैसा पैसा पैसा
पद प्रभाव पैसा
यही आचरण
दर्शन यही समय का

देखो न बहक गया मैं भी
अभी तो खोजने निकलना है तुमको
और मैं हूँ
कि बताने लगा दुनिया का चाल-चलन

पर किसे फुर्सत है
जो सुने मेरा अगड़म-बगड़म
किसी को क्या दिलचस्पी है इस बात में
कि दिल्ली से हज़ार किलोमीटर दूर
देवरिया जिले के एक गाँव में
सिर्फ एक कट्ठे ज़मीन के लिए
हो रहा है खून-खराबा पिछले कई वर्षों से

इन दिनों लोगों की खबरों में थोड़ी-बहुत दिलचस्पी है
वे चिंतित हैं अपनी सुरक्षा को लेकर
उन्हें चिंता है अपने जान-माल की
इज्ज़त, आबरू की

पर कोई नहीं सोच रहा उन स्त्रियों की
रक्षा और सम्मान के बारे में
जिनसे संभव है
इस जीवन में कभी कोई मुलाक़ात न हो

हमारे समय में निजता इतना बड़ा मूल्य है
कि कोई बाहर ही नहीं निकलना चाहता उसके दायरे से
वरना क्यों होता
कि आज़ाद घूमते बलात्कारी
दलितों-आदिवासियों के हत्यारे
शासन करते
किसानों के अपराधी

सब चुप हैं
अपनी चुप्पी में अपना भला ढूंढते
सबने आशय ढूंढ लिया है जनतंत्र में
अपनी-अपनी चुप्पी का

हमारे समय में
जितना आसान है उतना ही कठिन
चुप्पी का भाष्य

बहुत तेजी से बदल रहा है परिदृश्य
बहुत तेज़ी से बदल रहे हैं निहितार्थ

वह दिन दूर नहीं
जब चुप्पी स्वीकृत हो जायेगी
एक धर्मनिरपेक्ष धार्मिक आचरण में

पर तुम कहाँ हों
मथुरा में अजमेर में
येरुशलम में मक्का मदीना में
हिन्दुस्तान से पाकिस्तान जाती किसी ट्रेन में
अमेरीकी राष्ट्रपति के घर में
कहीं तो नहीं हो

तुम ईश्वर भी नहीं हो
किसी धर्म के
जो हम स्वीकार लें तुम्हारी अदृश्यता

तुम्हें बाहर खोजता हूँ
भीतर डूबता हूँ
सूज गयी हैं आखें आत्मा की

नींद बार-बार पटकती है पुतलियों को
शिथिल होता है तन-मन-नयन
यदि सो गया तो
फिर उठना नहीं होगा
और मुझे तो खोजना है तुम्हें

इसीलिए हारकर बैठूंगा नहीं इस बार
नहीं होने दूंगा तिरोहित
अपनी उम्मीद को

मैं जानता हूँ
खूब अच्छी तरह जानता हूँ
एक दिन मिलोगे तुम ज़रूर मिलोगे
तुम्हारे बिना होना
बिना पुतलियों की आँख होना है
  

 तमकुही कोठी का मैदान 

 तमकुही कोठी निशानी होती 
महज सामन्तवाद की 
तो निश्चित तौर पर मैं उसे याद नहीं करता 

यदि वह महज आकांक्षा होती
 
अतृप्त दिनों में अघाए दिनों की 
तो यक़ीनन मैं उसे याद नहीं करता 

मैं उसे इसलिए भी याद नहीं करना चाहता
 
कि उसके खुले मैदान में खोई थी मेरी प्राणों से प्यारी मेरी साइकिल
सन उन्नीस सौ नवासी की एक हंगामेदार राजनीतिक सभा में 

लेकिन मैं उस सभा को नहीं भूलना चाहता
 
मैं उस जैसी तमाम सभाओं को नहीं भूलना चाहता
 
जिनमें एक साथ खड़े हो सकते थे हज़ारों पैर 
जुड़ सकते थे हजारों कंधे 
एक साथ निकल सकती थीं हज़ारों आवाजें 
बदल सकती थीं सरकारें 
कुछ हद तक ही सही 
पस्त हो सकते थे निजामों के मंसूबे

मैं जिस तरह नहीं भूल सकता अपना शहर 
उसी तरह नहीं भूल सकता
तमकुही कोठी का मैदान 

वह सामंतवाद की क़ैद से निकलकर 
कब जनतंत्र का पहरुआ बन गया 
शायद उसे भी पता न चला 
ठीक-ठीक कोई नहीं जानता 
किस दिन शहर की पहचान में बदल गया वह मैदान 

न जाने कितनी सभाएं हुईं वहां 
न जाने किन-किन लोगों ने की वहां रैलियाँ 
वह जंतर-मंतर था अपने शहर का 

आपके भी शहर में होगा या रहा होगा 
कोई न कोई तमकुही कोठी का मैदान 
एक जंतर-मंतर 

सायास हरा दिए गए लोगों का आक्रोश 
वहीँ आकार लेता होगा 
वहीँ रंग पाता होगा अपनी पसंद का 

मेरे शहर में 
जिलाधिकारी की नाक के ठीक नीचे 
इसी मैदान में रचा जाता था 
प्रतिरोध का सौन्दर्य शास्त्र 

वह ज़मीन जो कभी ऐशगाह थी सामंतों की 
धन्य-धन्य होती थी 
किसान-मजूरों की चरण धूलि पा 

समय बदलने का 
एक जीवंत प्रतीक था तमकुही कोठी का मैदान 
लेकिन समय फिर बदल गया 
सामंतों ने फिर चोला बदल लिया 

अब नामोनिशान तक नहीं है मैदान का 
वहां कोठियां हैं फ्लैट्स हैं 
अब आम आदमी वहीं बगल की सड़क से 
धीरे से निकल जाता है 
उस ओर
जहाँ कचहरी है 

और अब आपको क्या बताना 
आप तो जानते ही हैं 
जनतंत्र में कचहरी मृगतृष्णा है गरीब की 


  


फिल्मनामा : सोफी'ज़ च्वायस पर विजय शर्मा का आलेख

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1979 में विलियम स्टाइरेन के लिखे उपन्यास पर आधारित फिल्म सोफी'ज च्वायस 1982 में बनी थी. यह फिल्म सबसे अधिक याद की जाती है मेरिल स्ट्रीप की अदाकारी के लिए, जिन्हें इस फिल्म में अपनी भूमिका के लिए अकादमी का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार तो मिला ही, साथ ही वह हालीवुड के इतिहास की तीन सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओं में शामिल की जाती हैं. आज पढ़िए इसी फिल्म पर विजय शर्मा का आलेख :

सोफ़ीज़ च्वाइस: निर्णय का संताप

सार्त्र जब कहता है कि हमारे पास चुनाव का विकल्प है तो शायद उसने कभी भी ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं की होगी जिस यंत्रणापूर्ण स्थिति से सोफ़ी को गुजरना पड़ा है। विकल्प होने के बावजूद क्या व्यक्ति चुनाव कर सकता है? और जब चुनाव के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं होता है तो उस चुनाव का व्यक्ति के जीवन पर क्या असर पड़ता है? सोफ़ीज च्वाइस’ फ़िल्म का हर दृश्य अतीत में लिए गए निर्णयों से उत्पन्न यंत्रणा को, संतापपूर्ण जीवन की विडंबना को दिखाता है। सोफ़ी की वेदना को मूर्तिमान करता है। जब फ़िल्म समाप्त होती है तो दर्शक अवाक बैठा रह जाता है। बाद में भी जब वह इस फ़िल्म को याद करता है उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

फ़िल्म की शुरुआत बहुत रंगारंग तरीके से होती है। बाइस वर्षीय एक उभरता हुआ लेखक स्टिंगो ब्रुकलिन में रहने आता है। पूरी फ़िल्म उसी की दृष्टि से दिखाई गई है। वह जिस घर में रहता है उसी की ऊपरी मंजिल पर एक जोड़ा नाटकीय तरीके से बहुत शानो-शौकत और मौज-मस्ती के साथ रहता दीखता  है। सोफ़ी और नेथन दुनिया की परवाह किए बिना एक दूसरे को टूट कर प्यार करते हैं। विचित्र है उनका प्यार। कभी प्रेम की इंतहाँ दीखती है तो कभी नेथन सोफ़ी पर भयंकर अत्याचार करता नजर आता है। सोफ़ी नेथन के सामने बेबस और दबी-दबी नजर आती है। इस विचित्र प्रेम की वास्तविकता यह है कि दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते हैं। नेथन का स्वभाव पल में तोला, पल में माशा होता रहता है और सोफ़ी उसे मनाने, उसे शांत करने का हर संभव प्रयास करती रहती है। उनके विरोधाभासी व्यवहार से युवा स्टिंगो चकित होता है साथ ही उलझन में पड़ जाता है।

स्टिंगो शीघ्र उनकी ओर आकर्षित होता है और तीनों अभिन्न मित्र बन जाते हैं। स्टिंगो सोफ़ी के सौंदर्य और नेथन की प्रतिभा को प्रेम करने लगता है। पहले वह उनके जीवन को मात्र देखता रहता है मगर बहुत जल्द दर्शक से परिवर्तित हो कर उनकी जिंदगी का एक हिस्सा बन जाता है। वे दोनों भी उसे बहुत प्रेम करते हैं मगर नेथन कब क्या कर बैठेगा कहना मुश्किल है। स्टिंगो की भूमिका बड़ी विचित्र हो जाती है। धीरे-धीरे वह दोनों के जीवन की सच्चाई और रहस्यों को जान जाता है मगर कोशिश करके भी उनकी त्रासदी को रोक नहीं पाता है। इन सारे अनुभवों से वह कितना बनता, कितना टूटता है बताना कठिन है। हाँ वह एक अनुभवहीन युवा से एक परिपक्व पुरुष अवश्य बन जाता है। सोफ़ी और नेथन एक दूसरे के साथ रहते हुए भी एक दूसरे के जीवन से अपरिचित हैं, एक दूसरे के रहस्यों से काफ़ी हद तक अनजान हैं।

सोफ़ी धीरे-धीरे स्टिंगो के समक्ष खुलती जाती है और इस तरह दर्शक सोफ़ी के अतीत से टुकड़ों  में परिचित होता जाता है। अतीत को न तो मिटाया जा सकता है, न ही भुलाया जा सकता है। अपने अतीत से व्यक्ति को बार-बार टकराना होता है। इस टकराहट से सोफ़ी लहुलुहान होती रहती है। उसकी वेदना स्टिंगो और दर्शक को भी कष्ट देती है। बार-बार उसके रिसते ज़ख्म से दर्शक के भीतर कसक और असहायता उत्पन्न करते हैं। वह क्यों स्टिंगो से भी लगातार झूठ बोलती है यह रहस्य भी दर्शक के सामने खुलता है। सोफ़ी कहती है कि वह अकेले पड़ जाने के भय से झूठ बोलती है, दर्शक उससे सहमत होता है। सोफ़ी ने जो देखा है, जो भोगा है, जिन अंध और पागल कर देने वाले अनुभवों से वह गुजरी है उसके बाद कोई भी व्यक्ति सामान्य नहीं रह सकता है। वह किसी पर विश्वास नहीं कर सकता है। विश्वास के बिना जीया नहीं जा सकता है। सोफ़ी काफ़ी हद तक सामान्य है। वह नेथन पर विश्वास करती है। जब स्टिंगो कहता है कि वह उस पर विश्वास करे तो वह उस पर भी विश्वास करती है और अपने जीवन के काले अध्याय को उसके समक्ष व्यक्त करती है। अकेले पड़ जाने का उसका भय जायज है। यह एक बहुत ही क्रूर, दु:खी अनुभवों वाली कारुणिक और भावनात्मक रूप से निचोड़ देने वाली फ़िल्म है। सोफ़ी को समझने के लिए उसके मनोविज्ञान में उतरना आवश्यक है।

नेथन जो एक पागल प्रेमी, कुशल गायक, उच्च कोटि का नर्तक और मित्रता के लिए खुद को लुटा देने वाला इंसान है वास्तव में मानसिक अस्थिरता वाला व्यक्ति है। स्टिंगो को नेथन का भाई बताता है कि नेथन एक स्वस्थ बालक के रूप में जन्मा था और आसपास के लोग तथा उसके शिक्षक उसकी प्रतिभा से चकित थे। शीघ्र ही पता चला कि वह एक खंडित व्यक्तित्व में बदल रहा है। आज स्थिति यह है कि वह कोकीन, शराब आदि सब तरह के नशे का आदी है। स्टिंगो के लिए ये सारी बातें पचाना बहुत कठिन है। यह सब सुन कर इस युवक पर हुई प्रतिक्रिया को जिस कुशलता से एक्टर पीटर मैकनिकोल ने प्रदर्शित किया है वह देखने की बात है, बताने की नहीं। असल में इस पूरी फ़िल्म को सघनता में एक बार नहीं कई बार देख कर ही इसकी गहराई को समझा जा सकता है। हर बार सराहने के लिए आपको कुछ नया मिलता है। स्टिंगो के भोलेपन पर मन फ़िदा हो जाता है। वह नेथन के भाई को कहता है, “मगर वे दोनों मेरे मित्र हैं, मैं दोनों को प्यार करता हूँ।” फ़िल्म के प्रारंभ में उसके चेहरे पर जो बचपना, जो भोलापन है अंत आते-आते वह अनुभवपक्व चेहरे में परिवर्तित हो चुका होता है। मेकअप मैन के कमाल का काफ़ी अंश भी इसमें है इससे इंकार नहीं किया जा सकता था।

स्टिंगो को एक और भावनात्मक झटका तब लगता है जब वह सोफ़ी की खोज में निकलता है। सोफ़ी ने अपने पिता के विषय में उससे झूठ बोला था। अब उसे पता चलता है कि सोफ़ी का पिता क्राकोवा विश्वविद्यालय में पढ़ाता था और सोफ़ी का पति उसका शिष्य था यह बात तो सच है। मगर सोफ़ी ने उसे यह नहीं बताया था कि उसका पिता पोलैंड में हिटलर का सबसे मजबूत और ऊँची आवाज में समर्थन करने वाला व्यक्ति था। वह यहूदी छात्रों को दूसरे छात्रों के साथ एक बैंच पर नहीं बैठने देता था और यहूदी समस्या (ज्यूइश सल्यूशन्स) के समर्थन में भाषण देता था। यह पतियाना स्टिंगो के लिए अत्यंत कठिन है। वह पचा नहीं पाता है और सोफ़ी को बताता है कि वह उसकी खोज में कहाँ-कहाँ गया था और किससे मिला था। इस पर सोफ़ी इन बातों की सच्चाई को स्वीकार करती है। भीतर से टूटी हुई सोफ़ी से यह सुन कर स्टिंगो उससे नफ़रत नहीं कर पाता है। वह उसके और करीब आ जाता है। अभी भी सोफ़ी स्टिंगो को पूरी सच्चाई नहीं बताती है।

प्रेम, घृणा, झूठ, बेवफ़ाई, सच को परत-दर-परत खोलती इस फ़िल्म में जब भी सोफ़ी अपने अतीत की ओर रुख करती है उसकी आँखें दर्शक के हृदय में खुब जाती हैं। रंगीन वर्तमान की बनिस्बत अतीत कितना बेरंग और धूसर है। फ़िल्म के बदलते रंग के साथ सिनेमेटोग्राफ़र नेस्तर एलमेंड्रोज ने इस बात को बखूबी पकड़ा है। होलोकास्ट पर आधारित फ़िल्म शिंडलर्स लिस्ट’ पूरी तरह से धूसर रंग में बनी है मात्र एक दृश्य को छोड़ कर। सोफ़ीज़ च्वाइस’ चमकीले-भड़कीले रंगो से सराबोर है और टुकड़ों में बहुत संक्षेप में धूसर रंग से अतीत को दिखाती है। होलोकास्ट को किस और रंग में दिखाया जा सकता है। होलोकास्ट पर आज तमाम अच्छी-बुरी-सामान्य फ़िल्में उपलब्ध हैं। इस विषय पर बनी फ़िल्में अक्सर यातना शिविर की क्रूरता पर केंद्रित होती हैं। विलियम स्टाइरॉन के सफ़ल उपन्यास सोफ़ीज च्वाइस’ पर इसी नाम से बनी फ़िल्म यातना शिविर की क्रूरता पर केंद्रित न हो कर उन लोगों की कहानी है जो यातना शिविरों से जीवित बच रहे हैं। क्या जीवित बच रहना नियामत है? या यह निरंतर यंत्रणा में जीना है? कई बार मरना श्रेयस्कर होता है। सोफ़ी ने आत्महत्या का प्रयास किया है। तब नहीं जब वह शिविर में थी। वह मरने की कोशिश तब करती है जब वह बाहर है, सुरक्षित है। जिन्हें हम अपनी जान से अधिक प्रेम करते हैं उन्हें जब हमारी आँखों के सामने मार दिया जाता है और खुद हम जीवित बचे रह जाए तो इससे उत्पन्न अपराध-बोध को सोफ़ी जैसे लोग जानते हैं। वह मरने का प्रयास करती है मगर बची रहती है। जीते चले जाने के अलावा उपाय क्या है? कितना दारुण और कठिन है इस बोझ को लेकर जीना। कथानक की यह मार्मिकता दर्शक को जीवन को एक नए परिप्रेक्ष्य में देखने की दृष्टि देती है।

सोफ़ी एक पोल ईसाई है। अपनी भाषा के साथ फ़र्राटेदार जर्मन बोलती है। सुंदर इतनी है कि गेस्टॉपो का अफ़सर उसे अपने बिस्तर पर ले जाना चाहता है। एक अन्य अफ़सर रुडोल्फ़ हेस विश्वास नहीं करता है कि वह जर्मन और शुद्ध रक्त नहीं है। उसकी शारीरिक बनावट बालों का रंग, बोलने का लहज़ा सब जर्मन की तरह हैं। जर्मन का उसका ज्ञान उसके लिए मुसीबत भी बनता है क्योंकि उसका प्रेमी और प्रेमी की सौतेली बहन रेसीस्टेंट ग्रुप’ के सदस्य थे। वे चाहते थे कि उन्होंने जिन नात्सी दस्तावेजों को चुराया है वह उनका अनुवाद करे ताकि कुछ बच्चों का जीवन बच जाए। सोफ़ी अपने बच्चों के संभावित खतरे से इस बात से इंकार कर देती है। फ़िर भी वह और उसके बच्चे बर्बर नात्सियों से बच नहीं पाते हैं। जल्द ही उसके प्रेमी को अन्य लोगों के साथ मौत के घाट उतार दिया जाता है। सोफ़ी इस बात को लेकर अपराध-बोध से ग्रसित है। उसे इस बात का मलाल है कि वह कायर है और वे लोग कितने साहसी थे। अगर वह उन लोगों का साथ देती तो शायद कुछ बच्चों की जिंदगी बच जाती। दूसरों की मौत के बोझ को लेकर जीना कितना दुश्वार होता है, सोफ़ी का जीवन इसका उदाहरण है।

जिंदगी कितनी बेतुकी हो सकती है उसका एक उदाहरण है होलोकास्ट से जीवित बचे सोफ़ी जैसे लोगों का जीवन। शायद जीवन के इसी बेतुकेपन पर टिप्पणी करते हुए एडोर्नो ने कहा था कि अब कविता नहीं लिखी जाएगी। सोफ़ी को भी उसके दो मासूम बच्चों के साथ गिरफ़्तार कर ऑस्त्विज़ भेज दिया जाता है। फ़िल्म के अंत की ओर आते हुए सोफ़ी अपने इस सबसे अधिक काले गुप्त रहस्य को स्टिंगो से साझा करती है। इस रहस्य को वह अपने सीने में छुपाए हुए ऊपर से मौज-मस्ती करती हुई जी रही थी। इस तरह से जीना कितना कठिन होगा इसे अनुभव किया जा सकता है। यातना शिविर में प्रवेश के समय उसे एक विकल्प दिया जाता है, वह चुनाव करे कि उसका कौन-सा बच्चा कैंप में जाएगा और कौन-सा बच्चा गैस चेम्बर में। एक माँ को तय करना है कि उसका कौन-सा बच्चा यातना शिविर का हिस्सा बनेगा और कौन धूँआ बन कर आकाश का हिस्सा बनेगा। आठ-नौ साल का बेटा जेन (एड्रियन काल्टिका) उसकी बगल में खड़ा है। बेटी ईवा (जेनीफ़र लॉन) उसकी गोद में है। बच्ची जो पहले बाँसुरी बजा रही थी अब भयभीत है। क्रूर विडम्बना है कि दोनों बच्चे नहीं बचते हैं और खुद सोफ़ी जीवित है और जीए चली जा रही है। बच्ची की रोने-चीखने की आवाज तथा सोफ़ी का स्तब्ध चेहरा और निर्वाक खुला मुँह देखना रोंगटे खड़े कर देता है। बेटी को गवाँ कर बेटे को बचाने के लिए वह क्या नहीं करती है मगर बचा नहीं पाती है। कैसे जीए ऐसी अभागी स्त्री? ऐसी माँ? वह अपने पिता को बेहद प्रेम करती थी उन पर उसका अगाध विश्वास था। वह उनकी दृष्टि में सर्वोत्तम बनी रहने की जी तोड़ कोशिश करती है। पिता उसके इंटलैक्ट को पल्प कहता है। कैसे भूल जाए वह इन शब्दों को? जब उसे पिता की सच्चाई पता चलती है तो उसका विश्वास टूट जाता है। कैसे वह लोगों पर विश्वास करे?

कैसे भूल जाए सोफ़ी नेथन के अहसान को? उसने तब उसे जीवन दिया जब वह मृतप्राय अवस्था में अमेरिका आई थी। नेथन नात्सी लोगों के प्रति घृणा से भरा हुआ एक यहूदी है। उसकी आत्मा बेचैन है क्योंकि क्रूरतम अपराध करने वाले, लाखों लोगों को मौत की नींद सुलाने वाले नात्सी खुलेआम घूम रहे हैं। इस बेचैनी ने उसकी रातों की नींद छीन ली है। नेथन ने सोफ़ी और स्टिंगो को बताया हुआ है कि वह एक वैज्ञानिक है और शीघ्र ही उसका एक ऐसा आविष्कार सफ़ल होने वाला है जिससे उसे शर्तिया तौर पर नोबेल पुरस्कार मिलेगा। वास्तव में वह एक पुस्तकालय में काम करता है जहाँ से वैज्ञानिक किताबें लेते हैं। कभी-कदा वह उनकी सहायता करता है। सोफ़ी सिर्फ़ इतना जानती है कि वह रात को सो नहीं पाता है और सड़कों की खाक छानता रहता है। यदा-कदा घायल हो कर लौटता है। वह उसे लेकर सदैव तनाव और चिंता में रहती है। सोफ़ी को अंत तक नेथन की वास्तविकता पता नहीं चलती है। वह एक बात पक्की तौर पर जानती है कि नेथन उसके बिना न तो जी सकता है और न ही उसके बिना मर सकता है। वह उसे खोना नहीं चाहती है।
ऐसे त्रासद लोगों का मरना ही भला है। सोफ़ी के लिए जीना नरक भोगना है। मरने में ही उसका उद्धार है। फ़िर भी नेथन और सोफ़ी की मृत्यु देखना त्रासद है। उनके मरने से स्टिंगो को होने वाला दु:ख देखना उससे भी ज्यादा त्रासद है। पहले निर्देशक एलेन जे. पकोला के मन में सोफ़ी के किरदार के लिए लिव उल्मान थी। मैजिक मेरिल’, अपनी पीढ़ी की सर्वोत्तम अभिनेत्री’ के खिताब से नवाज़ी जाने वाली तथा लॉरेंस ओलिवर का स्त्री स्वरूप कही जाने वाली मेरिल स्ट्रीप ने अनुनय-विनय करके इस भूमिका को पकोला से लिया। इस फ़िल्म में उन सब भावनाओं को साकार किया है जो मनुष्य के लिए संभव हैं। यह कहना कि मेरिल ने बहुत अच्छा अभिनय किया है उसकी प्रतिभा को कम करके आँकना होगा। वह अभिनय की सीमा के पार जा कर अभिनय के शिखर को स्पर्श करती है। जितनी सहजता से वह चेहरे के हावभाव, शारीरिक मुद्राओं से संप्रेषित करती है उसी कुशलता के साथ वह पोल लहज़े के साथ इंग्लिश बोलती है। उसी सरलता से जर्मन संवाद भी प्रस्तुत करती है। सोफ़ी की भूमिका को साकार करके उस साल मेरिल स्ट्रीप ने सर्वोत्तम अभिनेत्री का पुरस्कार जीता। फ़िल्म को सर्वोत्तम सिनेमाटोग्राफ़ी, सर्वोत्तम कोस्ट्यूम, सर्वोत्तम संगीत, सर्वोत्तम स्क्रीनप्ले आदि कई अन्य श्रेणियों में नामांकन मिला था। नेथन लैंडाउ की भूमिका में केविन क्लाइन तथा स्टिंगो की भूमिका में पीटर मैकनिकोल का अभिनय कहीं से मेरिल से कमतर नहीं है। खासकर केविन की प्रतिभा का कायल होना पड़ता है। स्टिंगो की भूमिका में पीटर ने बहुत नियंत्रित अभिनय किया है।

मेरिल स्ट्रीप ने अपने नैसर्गिक सौंदर्य और अभिनय कुशलता के बल पर सोफ़ी के जटिल किरदार को उत्कृष्टता के साथ निभाया है। इसमें शक नहीं कि अभिनय की जन्मजात प्रतिभा मेरिल में है हालाँकि येल के ड्रामा स्कूल ने इस प्रतिभा को निखारा है। प्रशिक्षण काल में भी वह येल लीडिंग लेडी’ कहलाती थी। वह नाटकों से फ़िल्म में आई है और अभी भी नाटकों में अभिनय के लिए लालायित रहती है। मेरिल खुद कहती है कि वह किरदार के रूप-रंग से अधिक उसकी आत्मा में प्रवेश करती है। वह उन चरित्रों को मुखर करना चाहती है जिनकी अपनी कोई आवाज नहीं है। जो शुरु में सामान्य स्त्री लगती है मगर आगे चल कर जब उनका चरित्र खुलता है तो असाधारण स्त्री में परिवर्तित हो जाती है। मेरिल ने सोफ़ी के किरदार का अभिनय नहीं किया है वह स्वयं सोफ़ी बन गई है। वह स्वयं सोफ़ी के संताप को अनुभव करती है, उसकी यंत्रणा को झेलती है। सोफ़ी की सच्चाई को जीने के लिए परिवार को प्रमुखता देने वाली मेरिल स्ट्रीप पकोला को जिद करके शूटिंग के लिए वास्तविक स्थान पर ले गई जबकि उसे इस दौरान अपने परिवार से दूर रहना पड़ा। वैसे यह पकोला का विचार था कि वास्तविक स्थान पर जा कर शूटिंग करनी चाहिए मगर वे खर्च बढ़ने के कारण हिचकिचा रहे थे। मेरिल ने कई फ़िल्मों को करने से इसीलिए इंकार कर दिया क्योंकि इनकी शूटिंग दूर जा कर होनी थी। इसके लिए उसे परिवार से लंबे समय तक दूर रहना पड़ता और यह उसे गँवारा नहीं है। वह खुद को पहले एक माँ और पत्नी मानती है उसके बाद ही वह अभिनेत्री है। कैरियर उसके लिए घर-परिवार के बाद आता है। इस बात को वह बहुत गर्व के साथ बताती है।  

जब दो प्रतिभावान व्यक्ति किसी काम को करते हैं तो परिणाम भिन्न होते हुए भी उत्कृष्ट होता है। यही हुआ है उपन्यास सोफ़ीज़ च्वाइस’ तथा फ़िल्म सोफ़ीज़ च्वाइस’ के साथ। किसी प्रसिद्ध कृति पर फ़िल्म बनती है तो अक्सर तुलना की जाती है। विलियम स्टाइरॉन एक ऐसे लेखक हैं जिन्होंने अन्य प्रकार के लेखन के साथ मात्र चार उपन्यास लिखे। इन्हीं चार उपन्यासों के कारण वे सदैव स्मरण किए जाएँगे। उनके द कन्फ़ेशन्स ऑफ़ नैट टर्नर’ ने पूरे अमेरिकी साहित्य को एक नई दिशा दी। उनके उपन्यास सोफ़ीज़ च्वाइस’ को मॉडर्न लाइब्रेरी ने सदी की सौ महान कृतियों में रखा। जब पकोला ने इस कृति पर फ़िल्म बनाई तो वे मूल के प्रति बहुत ईमानदार रहे हैं। करीब साढ़े पाँच सौ पृष्ठों में फ़ैले इस वृहद उपन्यास को १५७ मिनट में समेटना कठिन और चुनौती भरा कार्य था। उन्होंने काफ़ी हिस्से को स्टिंगो के कथन (वॉयज ओवर) द्वारा फ़िल्माया। इतनी लंबी फ़िल्म होने के बावजूद लगता है कि फ़िल्म कैसे इतनी जल्दी समाप्त हो गई। मन में कचोट होती है कि काश पकोला ने सोफ़ी के अतीत को तनिक और विस्तार से दिखाया होता। अभी फ़्लैशबैक बहुत कम समय के लिए दिखाया गया है। वैसे जो दिखाया गया है वह चेतना पर बहुत भयंकर आघात करता है। मेरिल ने सोफ़ीज च्वाइस फ़िल्म की क्योंकि उसे क्वालिटी प्रोजेक्ट्स में काम करना अच्छा लगता है। उसे लिटरेरी एडॉप्टेशन खास तौर पर आकर्षित करते हैं। उसे चुनौतीपूर्ण फ़िल्मों में काम करके लगता है कि मूल के साथ सूद भी मिल जाता है। इसीलिए उसने सोफ़ी की गैरपरंपरागत भूमिका करने का साहस किया। इस किरदार में उसकी अभिनय क्षमता को प्रदर्शित होने का भरपूर अवसर मिला है। यह खुद निर्णय करना होगा कि इस फ़िल्म को बार-बार मेरिल स्ट्रीप के अभिनय कौशल के लिए देखा जाए अथवा सोफ़ी के जीवन की विडंबना और यंत्रणा के लिए देखा जाय। इसे बार-बार देखना होगा इसमें कोई दो राय नहीं है।


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हिन्दी की महत्वपूर्ण आलोचक हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, उपन्यास, फिल्मों तथा शिक्षा पर प्रचुर लेखन के अलावा आपने साहित्य के नोबेल पुरस्कार प्राप्त पंद्रह लेखकों पर केन्द्रित एक पुस्तक 'अपनी धरती, अपना आकाश-नोबेल के मंच से' (प्रकाशक -संवाद प्रकाशन) तथा वाल्ट डिजनी पर एक किताब  "वाल्ट डिज्नी - एनीमेशन का बादशाह"  (प्रकाशक -राजकमल) लिखी है और एक विज्ञान उपन्यास का अनुवाद ''लौह शिकारी" के नाम से किया है. इन दिनों वह जमशेदपुर के एक कालेज में शिक्षा विभाग में रीडर हैं. 
* १५१ न्यू बाराद्वारी, जमशेदपुर ८३१ ००१, फ़ोन: ०६५७-२४३६२५१, ०६५७-२९०६१५३,मोबाइल : ०९४३०३८१७१८, ०९९५५०५४२७१,  ईमेल : vijshain@yahoo.com, vijshain@gmail.com           

विशाल श्रीवास्तव की कविताएँ

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इन कविताओं का रचना समय अलग-अलग है। एक कविता बिल्कुल नयी है, शेष पहले लिखी गयी हैं। इधर हाल की घटनाओं ने मुझे भीतर तक आहत किया है। आज के समय में एक बार पुनः साम्प्रदायिक उभार सामने आ रहा है और साथ ही विचारधारा के सतत स्खलन ने न सिर्फ वैचारिकता के मायने बदल दिये हैं बल्कि एक खतरनाक चुप्पी भी चिंतन क्षितिज पर दिखती है। हिंसा और घृणा से भरे इस समय में पता नहीं क्यों लगता है कि शायद इन कविताओं को फिर से पढ़े जाने की ज़रूरत हो।
                                                                                                                   विशाल श्रीवास्तव




आग लगाने वाले

कंदराओं और पहाड़ियों को
पार करके नहीं आते आजकल
आग लगाने वाले
वे यहीं हैं
ठीक हमारे बीच
उन्हें पहचानने की कोशिश करो
देखो वे हमसे अलग नहीं हैं चेहरे मोहरे में
रक्त भी हमारे जैसा ही है उनका
हमारे ही जैसा स्वेद

नहीं हैं वे
पुराने अच्छे दिनों के खलनायकों की तरह भी
जिन्हें देखते ही पहचान सकते थे हम
उनके चेहरे, कपड़ों या आंखों में बसी क्रूरता से
वे जो करना चाहते थे वह दिखता था उनकी भंगिमा में
हिंसा उनके लिए गर्व का विषय थी
शराफत का कोई ओवरकोट नहीं था उनके पास

आजकल आग लगाने वाले बड़े विनम्र हैं
सुसंस्कृत और सभ्य हैं
अच्छी फिल्में देखते हैं
सुनते हैं अच्छा संगीत
परिष्कृत रुचियों से लैस हैं
आजकल आग लगाने वाले

मुश्किल यह है कि अब वे दूसरी तरफ नहीं
इधर ही खड़े हैं ठीक हमारी ही तरफ

आग लगाते हैं वे
शब्दों से
चुप्पी से
शब्दों के बीच के अंतराल से
कभी कभी तो
पानी से भी आग लगाते हैं वे

आग लगाते वक्त
गिरोहबंदी कर लेते हैं वे
हिंसक हो जाते हैं
मिमियाते रिरियाते है
भावुक होकर रोते है
अपनी पूंछ दबाकर
फिर लपकते हैं सियार की तरह

जबड़ों से रिसते खून को
छिपाने की कोशिश करते हुए
मातमपुर्सी को पहुंच जाते हैं
आगजनी की जगह पर
और देते हैं उदात्त दार्शनिक प्रवचन

वे जब भी उब जाते हैं
प्रगतिशीलता की जकड़न से
तो पिकनिक मनाने के लिए
आग लगाते हैं
और फिर चुपचाप आकर
बैठ जाते हैं हमारे ही शिविर में

मृत्युगंध गयी भी नहीं होती
उनकी काया से
और वे हमें ही सिद्ध करते हैं
हत्यारा

सोचो कि कैसे बचना है इस आग से
रहते हुए इसके बीच
हवा की तरह
पानी की तरह



डाल्टनगंज के मुसलमान

कोई बड़ा शहर नहीं है डाल्टनगंज
बिल्कुल आम क़स्बों जैसी जगह
जहाँ बूढ़े अलग-अलग किस्मों से खाँसकर
ज़िन्दगी का क़ाफिया और तवाज़ुन सम्भालते हैं
और लड़के करते हैं ताज़ा भीगी मसों के जोश में
हर दुनियावी मसले को तोलने की कोशिश

छतों के बराबर सटे छज्जों में
यहाँ भी कच्चा और आदिम प्रेम पनपता है
यहाँ भी कबूतर हैं
सुस्ताये प्रेम को संवाद की ऊर्जा बख्शते

डाॅल्टनगंज के जीवन में इस तरह कुछ भी नया नहीं है
यहाँ भी कभी - कभी
समय काटने के लिए लोग रस्मी तौर पर
अच्छे और पुराने इतिहास को याद कर लेते हैं।

इन सारी बासी और ठहरी चीज़ों के जमाव के बावजूद
डाॅल्टनगंज के बारे में जानने लगे हैं लोग
अख़बार आने लगा है डाॅल्टनगंज में
डाॅल्टनगंज में आने लगी हैं ख़बरें
आखिरकार लोग जान गये हैं
पास के क़स्बों में मारे जा रहे हैं लोग

डाॅल्टनगंज का मुसलमान
सहमकर उठता है अजान के लिए
अपनी घबराहट में
बन्दगी की तरतीब और अदायगी के सलीकों में
अकसर कर बैठता है ग़लतियाँ


डाॅल्टनगंज के मुसलमान
सपने में देखते हैं कबीर
जो समय की खुरदरी स्लेट पर
कोई आसान शब्द लिखना चाहते हैं

तुम मदरसे क्यों नहीं गये कबीर
तुमने लिखना क्यों नहीं सीखा कबीर
हर कोई बुदबुदाता है अपने सपनों में बार-बार

कस्बे के सुनसान कोनों में
डाॅल्टनगंज के मुसलमान
सहमी और काँपती हुई आवाज़ में
खुशहाली की कोई परम्परागत दुआ पढ़ते हैं

डाॅल्टनगंज के आसमान से
अचानक और चुपचाप
अलिफ़ गिरता है।




जतिन मेहता एम ए

जतिन मेहता एम ए
अपने अँधेरे कमरे में
पीली रोशनी से भरा कोई काग़ज़ पढ़ रहा है
और उससे थोड़ी दूर दीवार पर
एक अधेड़ मकड़ी पूरी मेहनत से
इतिहास का सघनतम जाला बुन रही है

अभी-अभी कमरे की खिड़की पर
पंखों पर गहरे कत्थई दाग़ वाली
एक तितली आकर बैठ गई है
वह किसी पेट्रोल कम्पनी के
लुभावने विज्ञापन से भाग आई है
जिसे समूचे विश्व के अधिनायक द्वारा दिये
शान्ति-सन्देश के बाद दिखाया जा रहा था
खबरें बता रही हैं
ठीक अभी कुछ समय पहले
बसरा के किसी उपनगर में
मार दिये गये हैं कुछ अनाम लोग

बाहर मुहल्ले की संकरी गली में
कोई पुराने हारमोनियम पर
किसी मर्सिए के पहले टुकड़े जैसी
भारी और उदास धुन बजाने की कोशिश में है
और दूर अहमदाबाद की किसी निचली अदालत में
सहमी हुई कोई लड़की अपना बयान बदल रही है
अपनी फीकी और बदरंग ओढ़नी में
न्याय के नाम पर समेट रही है
गीला और साँवला दुःख

पीली रोशनी से भरा हुआ यह काग़ज़
शोक-प्रस्ताव जैसा दिखने वाला एक सन्धि-पत्र है
आइए इसकी सयानी बारीकियों को समझें -
तुम तो बे्रष्ट और नेरुदा को समझते हो जतिन
इस काग़ज़ को किसी रूखे शासनादेश की तरह नहीं
किसी मोनोग्राफ या निबन्ध की तरह
पूरी सहजता और भरोसे के साथ पढ़ो
पढ़ो और समझो कि हमने गढ़ा है
निर्ममता का सम्भ्रान्त शिल्प
लोगों के मर जाने के पीछे हमने
सुलझे हुए और गहरे वैज्ञानिक तर्क दिये हैं
तुम्हें सबकुछ दिखाया है सजीले माध्यमों के जरिये
तो यह सारा कुछ गम्भीरता से देखो
और बस यहीं
मार्मिक होने से पहले कृपया थोड़ा रुको
दुखी होने से पहले
अपने शोक और विषाद की मात्रा को
बाज़ार जैसी ज़रूरी व्यवस्था को तय करने दो

जतिन मेहता एम ए
पीली रोशनी से भरे काग़ज़ को
गुलाबी चिट्ठियों के बीच सम्भालकर रख रहा है
उसे पढ़ने लिखने मे मुश्किल हो रही है अब


क्या हमारे भीतर कहीं आग बची है?

लक्षित नहीं होता है पर
जीवन के ठंडे और धूसर
राखभरे अवसाद के नीचे
क्या हमारे भीतर कहीं आग बची है?

मुट्ठी की नसों को मार गया है लकवा
प्रशान्त विनम्रता और धैर्य में निहुरे-निहुरे
रीढ़ में बस गया है एक नाजु़क स्थायी लोच

केवल जिन पर अपना बस चलता है
रात के कुछ उन बिल्कुल अपने घण्टों में
अपने रोग शोक ग्रस्त सपनों में
हम क्रान्ति जैसा कोई वर्जित शब्द काँखते हैं

हमारे जर्जर शब्दकोशों के दीमक खाये पन्नों
में प्रतिरोध जैसे तमाम शब्दों पर
गिर गयी है प्रसन्न स्याही की कोई बूँद

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सुपरिचित कवि. कविता के लिए अंकुर स्मृति सम्मान. 
जनवादी लेखक संघ से सम्बद्ध तथा सम्प्रति फैजाबाद 
में एक महाविद्यालय में अध्यापन.

संपर्क : ई मेल - vis0078@gmail.com

किस्सागोई करती आँखें - प्रदीप कान्त

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प्रदीप कान्त इधर की हिंदी ग़ज़ल के एक ज़रूरी युवा चेहरे हैं. उनके यहाँ  देसज बिम्बों से बनी एकदम सहज भाषा में बिना किसी अतिरिक्त मेहनत के बड़ी बात कह देने का जो शऊर है, वह पहली नज़र में ही बड़ी मुश्किल से हासिल किया हुआ और साधा हुआ नज़र आता है. अभी उनकी पहली किताब 'किस्सागोई करती आँखें' बोधि प्रकाशन, जयपुर से छपी तो एक कापी उन्होंने मुझे भी उपलब्ध कराई. उसी किताब से कुछ गजलें. किताब हिंदी में सस्ती किताबों के प्रकाशन के लिए प्रतिबद्ध भाई माया मृग से mayamrig@gmail.com पर मेल कर मंगवाई जा सकती है.






एक 

बरखा  में  मुस्काई नदिया    
जी भर आज नहाई नदिया

बिटिया हँसी तो खिली फ़ज़ा
मरूथल  में  इठलाई नदिया


अपनी ज़ुल्फ़ें खोल, झटक लो  
क्यूँ  इनमें  उलझाई नदिया


झुलसे पाँव धूप में  जब जब
पत्थर पर  तर आई  नदिया


तपता  सूरज   टहले  ऊपर
मगर  कहाँ  सुस्ताई नदिया


आँख  तरेरी पत्थर  ने जब  
देख उसे बल  खाई  नदिया


तहस नहस ना हो जाऐ सब  
मत लेना  अंगड़ाई   नदिया



दो 

किसी न  किसी बहाने  की बातें   
ले   देकर   ज़माने  की  बातें


उसी  मोड़ पर गिरे थे  हम भी
जहाँ थी सम्भल  जाने की बातें


रात अपनी, गुज़ार दें ख्व़ाबों में
सुबह फिर वही  कमाने की बातें


समझें न  समझें  हमारी मर्ज़ी
बड़े  हो,  कहो सिखाने की बातें


मैं फ़रिश्ता नहीं न होंगी मुझसे
रोकर कभी भी  हँसाने की बातें


तीन 

अबकि  जब  भी  मुलाकात  होगी 
देश  के  बारे  में   बात    होगी


पत्थर  हैं  पागल   के   हाथ  में
शरीफ़ों   की    खुराफ़ात    होगी


कल  के   लिये  जीने  वालों  पर
वर्तमान  की   ही   घात    होगी


सूखे  खेत   के  सपनों   में  तो
बादल     होंगेबरसात   होगी


 किस कदर सिकुड़ कर सोया है वह
 फटी  चादर   की   औकात  होगी



चार 

भीड़   बुलाएँ  उठो  मदारी 
खेल   दिखाएँ,    उठो मदारी


खाली  पेट   जमूरा   सोया  
चाँद    उगाएँ,   उठो  मदारी


रिक्त  हथेली,   वही   पहेली
फिर  सुलझाएँ,   उठो  मदारी


अन्त सुखद होता है दुख का
हम  समझाएँ,   उठो  मदारी


देख कबीरा भी  हँसता  अब 
किसे   रूलाएँ  उठो  मदारी

चार 


ज्वार पढ़ेगा  सागर में  फिर


लफ़्ज गढ़ूँ  तब ज़रा देखना
दर्द  जगेगा पत्थर  में फिर


फिक्र अगर हो  रोटी की तो
ख्व़ाब चुभेगा बिस्तर में फिर


अगर  ज़रूरी  है  तो  पूछो
प्रश्न उठेगा  उत्तर  में फिर 


भले  प्रेम  के  ढाई  आखर 
बैर  उगेगा अक्षर  में  फिर










मिथिलेश कुमार राय की कविताएँ

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मिथिलेश की कविताएँ इधर पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से दिख रही हैं. समकालीन कविता के शहराती परिवेश के बीच मिथिलेश ग्रामीण जीवन की स्मृतियाँ ही नहीं अपितु उसके साथ वहां की विडंबनायें और उपेक्षित रह जाने की पीड़ा लिए भी आये हैं. इस कठिन समय में टूटती किसानी के बीच एक निम्नवर्गीय ग्रामीण के जीवन के विविध पक्ष उनकी कविताओं में विन्यस्त हैं और एक ऐसे आत्मीय संसार की निर्मिति करते हैं, जहाँ मुक्ति के सामूहिक स्वप्न की एक विराट ज़िद हस्तक्षेपकारी भूमिका में पाठक के सामने आती है. असुविधा पर उनका स्वागत.  

निर्जन वन में

यहां की लडकियां फूल तोडकर 
भगवती को अर्पित कर देती हैं

वे कभी किसी गुलाब को प्यार से नहीं सहलातीं
कभी नहीं गुनगुनातीं मंद-मंद मुसकुरातीं
भंवरें का मंडराना वे नहीं समझती हैं
किस्से की कोई किताब नहीं है इनके पास
ये अपनी मां के भजन संग्रह से गीत रटती हैं
सोमवार को व्रत रखती हैं
और देवताओं की शक्तियों की कथा सुनती हैं

इनकी दृष्टि पृथ्वी से कभी नहीं हटतीं
ये नहीं जानती कि उडती हुई चिडियां कैसी दिखती हैं
और आकाश का रंग क्या है
सिद्दकी चौक पर शुक्रवार को जो हाट लगती है वहां तक
यहां से कौन सी पगडंडी जाती है
ये नहीं बता पायेंगी किसी राहगीर को

सपने तो खैर एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है
ये बिस्तर पर गिरते ही सो जाती हैं
सवेरे इन्हें कुछ भी याद नहीं रहता
   
 मैं जहां रहता था

मैं जहां रहता था 
वहां की लडकियां गाना गाती थीं
आपस में बात करती हुईं वे 
इतनी जोर से हंस पडती थीं 
कि दाना चुगती हुई चिडियां फुर्र से उड जाती थीं
और उन्हें पता भी नहीं चलता था

मैं जहां रहता हूं
यहां का मौसम ज्यादा सुहावना है
लेकिन लडकियां कोई गीत क्यों नहीं गातीं
ये आपस में बुदबुदाकर क्यों बात करती हैं
किससे किया है इन्होंने न मुसकुराने का वादा
और इतने चुपके से चलने का अभ्यास किसने करवाया है इनसे
कि ये गुजर जाती हैं
और दाना चुगती हुई चिडियां जान भी नहीं पाती हैं
                                
               
         हिस्से में


इन्हें रंग धूप ने दिया है
और गंध पसीने से मिली है इन्हें


यूं तो धूप ने चाहा था
सबको रंग देना अपनी रंग में
इच्छा थी पसीने की भी 
डूबो डालने की अपनी गंध में सबको 
मगर सब ये नहीं थे


कुछ ने धूप को देखा भी नहीं
पसीने को भी नहीं पूछा कुछ ने 
शेष सारे निकल गये खेतों में
जहां धूप फसल पका रही थी
बाट जोह रही थी पसीना
               
   


 आदमी बनने के क्रम में


पिता मुझे रोज पीटते थे
गरियाते थे
कहते थे कि साले 
राधेश्याम का बेटा दीपवा
पढ लिखकर बाबू बन गया
और चंदनमा अफसर
और तू ढोर हांकने चल देता है
हंसिया लेकर गेहूं काटने बैठ जाता है
कान खोलकर सून ले
आदमी बन जा
नहीं तो खाल खींचकर भूसा भर दूंगा
ओर बांस की फूनगी पर टांग दूंगा...


हालांकि पिता की खुशी
मेरे लिये सबसे बडी बात थी
लेकिन मैं बच्चा था और सोचता था 
कि पिता मुझे अपना सा करते देखकर 
गर्व से फूल जाते होंगे
लेकिन वे मुझे दीपक और चंदन की तरह का आदमी बनाना चाहते थे

आदमियों की तरह सारी हरकतें करते पिता 
क्या अपने आप को आदमी नहीं समझते थे
आदमी बनने के क्रम में 

मैं यह सोच कर उलझ जाता हूं



                   

    जिनको पता नहीं होता

ललटुनमा के बाउ
ललटुनमा की माई
आ खुद्दे ललटुनमा
तीनों जने की कमाई
एक अकेले गिरहथ की कमाई के 
पासंग के बराबर भी नहीं ठहरता

आखिर क्यों

यह एक सवाल
ललटुनमा के दिमाग में
जाने कब से तैर रहा था
कि बाउ
आखिर क्यों


क्योंकि बिटवा
उनके पास अपनी जमीन है
और हम
उनकी जमीन में खटते हैं

और हमारी जमीन बाउ
बाउ को तो खुद्दे पता नहीं है 
अपनी जमीन के इतिहास के बारे में 
और आप तो जानते हैं
कि जिनको पता नहीं होता 
उससे अगर सवाल किये जाये 
तो वे चुप्पी साध लेते हैं

  
     हम ही हैं


हम ही तोडते हैं सांप के विष दंत
हम ही लडते हैं सांढ से
खदेडते हैं उसे खेत से बाहर

सूर्य के साथ-साथ हम ही चलते हैं
खेत को अगोरते हुये 
निहारते हैं चांद को रात भर हम ही
हम ही बैल के साथ पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं
नंगे पैर चलते हैं हम ही अंगारों पर
हम ही रस्सी पर नाचते हैं

देवताओं को पानी पिलाते हैं हम ही 
हम ही खिलाते हैं उन्हें पुष्प, अक्षत
चंदन हम ही लगाते हैं उनके ललाट पर

हम कौन हैं कि करते रहते हैं
सबकुछ सबके लिये
और मारे जाते हैं
विजेता चाहे जो बने हो 
लेकिन लडाई में जिन सिरों को काटा गया तरबूजे की तरह
वे हमारे ही सिर हैं

  
 शुभ संवाद

कुछ शुभ संवाद मिले हैं अभी
ये चाहें तो थोडा खुश हो लें
पान खाये
पत्नी से हंस-हंस के बतियाये
दो टके का भांग पीकर 
भूले हुये कोई गीत गाये
टुन्न हो अपने मित्रों को बताये
कि बचवा की मैट्रिक की परीक्षा अच्छी गयी है
वह कहता है कि बहुत अच्छा रिजल्ट भी आयेगा
गैया ने बछिया दिया है
और कुतिया से चार महीने पहले जो दो पिल्ले हुये थे
अब वे बडे हो गये हैं
और कल रात वह अकेला नहीं गया था खेत पर
साथ साथ दोनों पिल्ले भी आग-आगे चल रहे थे
कुतिया दरबज्जे पर बैठी चैकीदारी कर रही थी

मगर सोचने पर ढेर सारे तारे जमा हो जाते हैं 
आंखों के सामने
कि गेहूं में दाने ही नहीं आये इस बार
दो दिन पहले जो आंधी आई थी उसमें
सारेे मकई के पौधे टूट गये
टिकोले झड गये
दो में से एक पेड उखड गये
महाजन रोज आता है दरबज्जे पर
कि गंेहूं तो हुआ नहीं
अब कैसे क्या करोगे जल्दी कर लो
बेकार में ब्याज बढाने से क्या फायदा
जानते ही हो कि बिटवा शहर में पढता है
हरेक महीने भेजना पडता है एक मोटी रकम
सुनो गाय को क्यों नहीं बेच लेते
वाजिब दाम लगाओगे तो मैं ही रख लूंगा
दूघ अब शुद्ध देता है कहां कोई

हे भगवान क्या मैट्रिक पास करके बचवा
पंजाब भाग जायेगा
बिटिया क्यों बढ रही है बांस की तरह जल्दी जल्दी
दूल्हे इतने महंगे क्यों हो रहे हैं
                     

  स्कूल तो था

बात ऐसी नहीं थी
कि लालपुर में स्कूल नहीं था
बात ऐसी भी नहीं थी
कि उसके दिमाग में भूसा भरा हुआ था

बात तो कुछ ऐसी थी 
कि उसके घर का खूंटा टूट गया था
बहन बांस हो रही थी
और रात को मां की चीत्कार से 
पूरे गांव की नींद खराब हो जाती थी

फिर यह भी एक दृश्य था
कि बीए पास लडका
लालपुर में घोडे का घास छील रहा था

ऐसे में एक रात अगर उसने घर छोड दिया
और पंजाब से पहली चिट्ठी में लिखा
कि मां अब मैं कमाने लगा हूं 
चिट्ठी के साथ जो पैसे भेज रहा हूं
उससे घर का छप्पर ठीक करवा लेना
अब जल्दी ही तुम्हरे पेट का दर्द 
और बहिन का ब्याह भी ठीक हो जायेगा...

...तो मैं यह तय नहीं कर पा रहा हूं
कि उसने अच्छा किया या बुरा
हालांकि लालपुर में स्कूल था
और उसके दिमाग में 
भूसा भी भरा हुआ नहीं था
                   
   जैसे फूलकुमारी हंसती थी


मैं यह नहीं कहूंगा साहब
कि मैं एक गरीब आदमी हूं इसलिये
वो-वो नहीं कर पाता जो-जो 
करने की मेरी इच्छा होती है

यह सच है साहब कि मैं एक फैक्ट्री में
सत्ताइस सौ रुपये माहवारी पर काम करता हूं
और सवेरे आठ बजे का कमरे से निकला
रात के आठ बजे कमरे पर लौटता हूं
पर इससे क्या
मैं शायद अकर्मण्य आदमी हूं साहब
अब कल ही की बात को लीजिये
रात में कमरे पर लौटा तो
बिजली थी
दिन में बारिश हुई थी इसलिये 
हवा नहीं भी आ रही थी कमरे में तो नमी थी
खाट पर लेटा तो हाथ में
अखबार का एक टुकडा आ गया

लालपुर में पांचवी तक की पढाई कर चुका हूं साहब
अखबार के टुकडे में एक अच्छी सी कहानी थी
पढने लगा तो बचपन में पढे 
फूलकुमारी के किस्से याद आ गये
कि जब वह खुश होती थी तो 
जोर-जोर से हंसने लगती थी
कहानी पढने लगा
पढकर खुश होने लगा साहब
लेकिन तभी बिजली चली गयी
देह ने साथ नहीं दिया साहब
कि उठकर ढिबरी जलाता और
इस तरह खुशी को जाने से रोक लेता 
और हंसता जोर-जोर से
जैसे फूलकुमारी हंसती थी
           
     
        यहां से


सब की तरह
इन्हें भी फूलों को निहारना चाहिये
उसके साथ मुसकुराना चाहिये
चलते-चलते तनिक ठिठककर 
कोयल की कूक सुनना चाहिये
और एक पल के लिये दुनिया भूलकर
उसी के सुर में सुर मिलाते हुए 
कुहूक-कुहूक कर गाने लगना चाहिये

इन्हें भी हवा में रंग छिडकना चाहिये
वातावरण को रंगीन करना चाहिये
फाग गाना चाहिये
और नाचना चाहिये

लेकिन पता नहीं कि ये किस नगर के बाशिंदें हैं
और क्या खाकर बडे हुये हैं
कि खिले हुए फूल भी इनकी आंखों की चमक नहीं बढाते
कोयल कूकती रह जाती है
और अपनी ही आवाज की प्रतिध्वनि सुनकर सुन-सुनकर
थककर चुप हो जाती है
वसंत आकर 
उदास लौट जाता है यहां से
परिचय
24 अक्टूबर,1982 ई0 को बिहार राज्य के सुपौल जिले के छातापुर प्रखण्ड के लालपुर गांव में जन्म । वागर्थ, परिकथा, नया ज्ञानोदय, कथादेश, कादंबिनी, साहित्य अमृत, बया, जनपथ, विपाशा आदि में अबतक बीस-पच्चीस कविताएं प्रकाशित। गद्य साहित्य में भी लेखन। बाल साहित्य में भी सक्रिय। गद्य व पद्य के लिए क्रमषः वागर्थ व साहित्य अमृत द्वारा युवा प्रेरणा पुरस्कार। कहानी कनिया पुतरा व् स्वर टन पर डाकूमेंट्री फिल्म बनने कि तैयारी , आजकल  प्रभात खबर में संपादन डेस्क पर।
संपर्क-द्वारा, श्री गोपीकान्त मिश्र,जिलास्कूल,सहरसा-852201, (बिहार)
मोबाइल-09473050546


                  
         

अमिय बिंदु की लम्बी कविता

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२२ जुलाई १९७९ को जौनपुर के एक गाँव में जन्में अमिय बिंदु की कविताएँ  कुछ पत्र-पत्रिकाओं में छपी हैं. ग्रामीण समाज के गहरे अन्तर्विरोध और सतत वंचना से उपजे दैन्य उनकी कविताओं का चेहरा ही नहीं उनकी आत्मा की भी निर्मिति करते हैं. यहाँ उनकी जो एक लम्बी कविता 'घूर' दी जा रही है, वह ग्रामीण समाज में कूड़ा रखने के स्थान के बहाने पूरे समाज की विडम्बनाओं की एक मार्मिक पड़ताल करती है. 



घूर!
-

(एक)

जो मिट न सके, सभी का असर हूँ,
अजन्मा न सही, अजर और अमर हूँ.
समृद्धि का अतिरेक हूँ, मैं
मुख्य धारा का व्यतिरेक हूँ.
उच्छिष्टों, अयाचितों का पूल हूँ
विकास के रथ से उड़ता हुआ धूल हूँ.

निकल गया जो कारवां, पीछे उठा गुबार हूँ
बाज़ार के निचले पायदान की बुहार हूँ.
ऊसर, बंजर, बाँझ हुई धरती का पूत हूँ,
आश्चर्य हूँ, नाजायज-सा हूँ
इसलिए सबके लिए अछूत हूँ.

खाने की जूठन, झाड़न दीवारों का
चालन अनाजों का, धरती की खुरचन ही नहीं
अयाचित, अवांछित जो रह गए अनुपयोगी
तकनीकी दौड़ में जो रह गए हैं पीछे,
उन सबका भी आगार हूँ.
जिनसे मन ऊब गया है
सबने छुड़ा लिया है पीछा,
जो नहीं रह गए हैं अद्यतन
घर से बाहर कर दिए गए हैं 'आदतन',
बाज़ार का वही पिछला भंडारागार हूँ.





(दो)

सबसे उपेक्षित,
सबकी नज़रों में खटकता शूल हूँ,
ईशू ने जिन्हें मुक्त कराया
जिन मनुज-पुत्रों को दी क्षमा
उन सबका संहत भूल हूँ.

सबकी ईच्छाओं, कामनाओं
वासनाओं का निकास द्वार हूँ,
उठती रहे मितली, हो कुछ सनसनी
ऐसी अगन और ऐसी मैं झार हूँ.

'जिनकी जरूरत रही नहीं'
बल्कि जो पड़ गए हैं पुराने,
शोभा में व्यतिरेक हैं, जो
मुझे, हमें, हम सबको ही पसंद नहीं रहे,
उन सभी का आगत हूँ.

जो 'बेकार' हो चुके
पड़ गए हैं थोड़ा पुराने,
हो गए हैं किसी भी तरह के उत्पादन में अक्षम,
जिनका भार उठाने में समाज नहीं रहा सक्षम
उन सबका भी स्वागत हूँ.



(तीन)

घर-घर से झाड़नरोज निकलता
यूँ थोड़ा-थोड़ा घर रोज बदलता
बदलाव का तो महारथी हूँ,
नहीं! कम से कम
विकास के रथ का सारथी हूँ.

जहाँ कोई नहीं रहता,
कोई रह भी नहीं सकता
उस कोने को आबाद करता हूँ,
स्वच्छ हो समाज, बना रहे सम्मानित-सा
इसलिए गंदगी समेट उन्हें आजाद करता हूँ.

बाज़ार के हर उतार-चढ़ाव का रहता असर
उसकी हर नब्ज़ पर रखता अपनी नज़र.

'भोगो और फेंको' ने
अपना खूब मान बढ़ाया है,
सिमटे रहते थे कहीं-कहीं कोनों में
अब हर मुख्य सड़क ने मुझे अपनाया है.

बजबजाता हुआ, दुर्गन्ध फैलाता हुआ
शहर के कोने-कोने में पैठ गया हूँ.
मुख्य सड़कों के किनारे, गलियों के मुहाने पर
सड़कों के अन्त्य सिरों पर, टी-प्वाइंटों पर
बिग-बाज़ार के बगल में थोड़ा हटकर मैं भी बैठ गया हूँ.
जब बाज़ार ने और पैर पसारे
गाँव भी रहा नहीं अछूता,
'घूरों के दिन लौट आये'
खेत, खलिहान, चौपाल भले हुए हों छोटे
पर नए-नए घूर खूब उग आये.



(चार)

एक दिन बड़े सबेरे, मुँह अँधेरे
कोई मेरे द्वार खड़ा था,
था तो गहरी नींद में, पर
कान अपना खुला हुआ था.
पैर काँप रहे थे उसके, मुँह से दुआएँ फूट रही थीं
हाथों से कपड़े-लत्ते की गुदड़ी-सा,
कुछ द्वारे डाल गया था.

नींद खुली तो देखा गुदड़ी में था 'लाल' किसी का
मुँह में डाले पाँव पड़ा था.
फिर एक अँधेरी शाम

मेरे द्वारे कोई बूढ़ा सिसक रहा था,
छूट गया था घर-बार, अपना
मन ही मन यहाँ ठसक रहा था.
काँप रहे थे हाथ-पाँव, पर
उस बूढ़े का अनुभव-संसार बड़ा था.
चिंतित था दोनों को लेकर
इनका पालन होगा कैसे?
पर देखो, 'उसकी रहमत'
'किस्मत उनकी', कोई अभी-अभी
घर का 'छूटन' डाल गया था.

कुछ गंदे कपड़े 'बाबू' के-
कुछ चीजें पुरानी 'बाबूजी' के
मेरे आँगन साथ पड़े थे.
बच्चे, बूढ़े जो रह गए अवांछित
अब मेरे अँगना खेल रहे थे.


(पाँच)

नहीं कत्तई परेशान हूँ,
बल्कि अब तो हैरान हूँ,
जहाँ रहते थे शूल ही शूल
उस बगिया में आ गए इतने फूल?

यहाँ जड़ों से उखड़े वायवीय जड़ों वाले निवासी हैं,
सभी सभ्य समाज के गंदगी की निकासी हैं.
किसी का यहाँ कोई इतिहास नहीं है,
किसी का, किसी के लिए परिहास नहीं है.
सब क्षणों में जीवन जीते हैं
आपस में दुःख-दर्द सभी का पीते हैं.
न कोई आदिवासी, न है कोई वनवासी
न ही किसी की जातियाँ
न हाशिये पर हैं जनजातियाँ.
यहाँ न किसी का राज, न है किन्हीं का सुराज,
अपाहिज न तो यहाँ अक्षम हैं
न वेश्याएँ यहाँ सक्षम हैं.
न बूढ़े अवांछित हैं, बच्चे न तो अयाचित हैं.
यहाँ प्रतिपल धड़कता जीवन है
प्रतिक्षण बदलता तन-मन है.
ऐसे में हम कहाँ रुकें, कहाँ जमें?
क्या लगाएँ, क्या उगाएँ?
किसे उठाएँ, किसे गिराएँ?
किन्हें स्वीकारें, किन्हें अस्वीकारें?

हमें तो प्रतिपल, प्रतिक्षण चलना है
ऐसे ही नित जीवन में ढलना है.


(छः)

मानक हूँ समृद्धि का
मापक भी हूँ मैं वृद्धि का,
जो दौड़ पड़े हैं विकास लिए
मापक हूँ उन सबकी हतबुद्धि का.
मैं हूँ गिनती, कितनी महिलाएँ
इस माह भी, माँ बनते-बनते चूक गईं हैं?
मैं हूँ गिनती, कितनी महिलाएँ
मातृत्व वेदना से डरकर हार गई हैं?
मैं हूँ गिनती, कितनी महिलाएँ
माँ बनकर वापस लौट चुकी हैं?
मैं हूँ गिनती, कितनी बालाएँ
माँ बनकर 'कुछ' जनना भूल चुकी हैं?
मैं हूँ गिनती, कितनी माँए
अयाचित ललनाएँ हार चुकी हैं?
मैं हूँ गिनती, कितनी माँए
अजन्मी माँओं को लील चुकी हैं?


(सात)
अनंत सा अब मेरा विस्तार है,
सदा वर्द्धनशील मेरा आकार है,
विकास का पहिया ज्यों आगे बढ़ रहा है,
हर चक्कर, मेरा नया परिमाप गढ़ रहा है,
मेरी पीठ बाज़ार ने भी थपथपाई है
मुझमें बढ़न की अगन जगाई है.
विकास के इस दौर में
उच्छिष्टोंका रूप बदला है,
अवांछितों का स्वरुप बदला है.
मेरी कल्पनाओं से, सबसे बड़ी इच्छाओं से,
बल्कि मेरे सोच सकने की पूरी क्षमता से बढ़कर
मुझे अपनी पहचान मिली,
राजमार्ग से इतर, पहुँचना जहाँ दूभर था राज-उच्छिष्टोंका भी
वहाँ पनपने का स्थान मिला.
मनुष्य के दिमाग में अपना स्थायी निवास है
हर दिमाग के कोने में छोटा सा आवास है,
जहाँ दफ़न हैं कुछ पुरानी परम्पराएँ
कुछ विषम हो चुकी गहरी संवेदनाएँ,
कुछ पुरानी सोच भी है, कुछ विचारों का ओज भी है.
इन सबके नीचे भावनाएँ हुई हैं चूर
हर पल, हर क्षण सूचित-मनुज
लेकर चल रहा सूचनाओं का घूर,
अब हर हाल में वह ज्ञानी-सा मन्द-मन्द मुस्कुराता है
बात-बात में बाज़ार की ओर दौड़ा हुआ जाता है.


संपर्क: अमिय बिंदु, ८-बी/२, एन पी एल कालोनी, न्यू राजेंद्र नगर, नई दिल्ली - ११००६०
मो० - ९३११८४१३३७



गाज़ा में सुबह - मृत्युंजय की ताज़ा कविता

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गाज़ा में युद्धविराम हो गया है पिछले कुछ दशकों में वहाँ इस युद्ध और विराम की इतनी (दुर) घटनाएं हुई हैं कि अब न तो युद्ध से वह दहशत पैदा होती है न विराम से वह सुकून, बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि एक मुसलसल दहशत बनी ही रहती है। नोबेल शान्ति से सम्मानित विश्व-साम्राज्यवाद का नायक नागरिक इलाकों में ज़ारी हत्या की इस  सबसे क्रूरतम कार्यवाही का स्वागत करता है तो  हमारे देश सहित दुनिया भर के  सत्ता-समाज की चुप्पी भी दरअसल इसका स्वागत ही है। ऐसे में शायद कविता वह अकेली जगह है जहाँ प्रतिरोध की संभावना बची है और हिंदी कविता में फैज़ से लेकर अब तक यह बात  बार-बार सामने आई है। मृत्युंजयकी यह कविता प्रतिरोध की उसी परंपरा की कड़ी के रूप में देखी जानी चाहिए। यह कविता गाज़ा की सुबहों में मौत के अँधेरे उतारती  ताकतों की पहचान करने के क्रम में युद्ध की भयावहता ही नहीं शान्ति के समय में चलती युद्ध की तैयारियों के पीछे के पूरे खेल की भी निशानदेही करती है और साम्राज्यवाद के पंजों में क़ैद उम्मीदों के पक्ष में पूरी प्रतिबद्धता के साथ खडी होती है। 






(1)


गाज़ा में सुबह
अंगूर के गुच्छों पर फिसलती, लड़खड़ाती उतरती है 
और फलस्तीन के अड़ियल सपने पर दम तोड़ देती है

गाज़ा में घुसने के सारे रास्तों पर मौत के हजार आईने हैं
जिनकी छांह के सहारे
तनिक भी ऊंची दिखती पतंगों की डोर काट दी जाती है

शार्क मछलियों की तरह क्रूर पनडुब्बियाँ
समुंदर की खोह से निकलती हैं और
चट कर जाती है मानुषों से भरा पूरा तट  

(2)


मर्डोकी स्याही की उलटियों में डूब रहा है विश्व
बारूद की नदी में अंतिम हिचकोले ले रही सांस
की ऊभ-चूभ से छटपटा रहे जन  के    
मांस के लोथ छिटकते हैं पूरी सभ्यता की खाल
उतारते चलते जाते हैं दुनिया के राजा-रानी बाजा दिग्विजय का
बजाते सजाते हैं लम्बी दूर मार की मिसाइलें
फाइलें सरकती गाजा में दाखिल है भीषणतम आग

(3)

हवा, पानी, सूरज
जब कुछ भी साथ न दे तब भी साथ देती है मिट्टी
इसी मिट्टी में एक सुरंग खोदना चाहते हैं लोग
जिसमें रोज-रोज दफनाये जा सकें मुर्दे
जाया जा सके रमल्ला, वेस्ट बैंक या कहीं भी   
बूढ़े नमाजी मरसिया पढ़ सकें सुकून से
खून से लतफथ जवान कुछ देर सांस लें बिना बारूद के
और मिट्टी से फूट पड़े बगावती शांति की नोक  

(4)

तीन सौ पैंसठ वर्ग किलोमीटर है गाज़ा
हर रोज लगभग एक वर्ग किलोमीटर की कुर्बानी

यू एन, एमनेस्टी इंटरनेशनल, विश्वबैंक
के जल्लाद हाथों धारदार छुरी है इजरायल 
पृथ्वी के जख्मों को कुरेदते हैं अमरीकी 
और पपड़ियों पर उकेर देते हैं डॉलर के निशान

(5)

नींद और मौत की जुगलबंदी में
अक्सरहां जीत जाती है मौत
रात एक दर्द का ग्रेनेड है जिसकी
पिन धीरे-धीरे निकालती है नींद
कभी नींद जीतती है तो
सपनों से भिड़ जाती हैं छटपटाहटें
देश के मृत टुकड़े भड़भड़ा कर
गिरते हैं आँखों में धँसते हैं

(6)

रात बारूद के शोरबे में छनी मिठाई है मेरे बच्चे                
जो तुम्हारी अंतड़ियों में उतर जायेगी वेग से
तुम्हें कुछ भी महसूस करने की जरूरत और फुर्सत नहीं होगी  
सो जा

बम का जवाब बम से नहीं दिया जाता बच्चे
पर तुम अपनी किताब में छपे बम को
चिपका सकते हो अपनी दीवार पर अगर तुम यही चाहते हो
इस बचे-खुचे मुल्क में तुम्हारे लायक अकेला काम बचा है यह

सोने से पहले बुदबुदाओ इन्तिफ़ादा इन्तिफ़ादा और सोचो   
तुम एक मजबूत कम्बल में हो जिसे खुदा भी नहीं भेद सकता
क़यामत के रोज तलक  

(7)

हिब्रू एक भाषा का नाम है जिसके शब्द सुलग रहे हैं
भाषा की रसोईयों से उठती बारूदी गंध थालियों में पसर रही है
हस्पतालों के अहाते में डॉक्टर शरीर को चोंगे की तरह टांग कर घूम रहे हैं
स्कूलों में बच्चों और अध्यापिकाओं के अधूरे टुकड़े हाजिर आए हैं
खून के थक्के सूख कर सड़कों के रंग में जज्ब हो रहे हैं
हवा के लम्स-लम्स में वहशियत थम रही है  
जिंदगी जम रही है

(8)

जैतून की टहनियों की मानिंद महकती शांति  
हर बार लाती है अगली कब्रों की तैयारी के लिए थोड़ा वक्त
युद्ध से ज्यादा ही होते हैं इस वक्त के काम

--------


मृत्युंजय समकालीन हिन्दी कविता के सबसे प्रखर प्रतिबद्ध स्वरों में से हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़े मृत्युंजय छात्र जीवन से ही रेडिकल वाम की राजनीति से जुड़े हैं और इन दिनों भुवनेश्वर में पढ़ा रहे हैं। 

पंजाबी कवि गुरप्रीत की कुछ कविताएँ

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  • असुविधा पर आप भाई जगजीत सिद्धू के मार्फ़त  पहले भी कुछ पंजाबी कवियोंको पढ़ चुके हैं, इस बार पढ़िए वरिष्ठ कवि गुरप्रीत की कुछ कवितायें












    • गुरप्रीत पंजाब के एक ऐसे कवि है जिनकी कवितायों के विषय भी उनकी भाषा की तरह सरल और जिन्दगी से जुड़े होते है .उनकी अब तक तीन किताबे प्रकाशित हो चुकी हैं 'शब्दों की मर्ज़ी ", "अकारण " " सियाही घुली है ". बहुत गहरे अर्थ छोडती हुई गुरप्रीत की कवितायों में एक आम आदमी की रोजमर्रा जिन्दगी की बाते बहुत ही सरल और सादे ढंग से व्यक्त हैं ... जैसे कविता " बिका हुआ मकान और वह चिड़िया " कवि के बिके हुए मकान को खाली करते वक़्त उसकी और उसके घरवालो की मन की स्थिति को व्यक्त करती है                                                  

       जगजीत सिद्धू 



    गुरप्रीत की कविताएं




    पत्थर 



    एक दिन
    पूछता हूँ
    नदी किनारे पड़े पत्थर से
    बनना चाहोगे
    किसी कलाकार के हाथों
    एक कलाकृत
    फिर रखा जाएगा तुझे
    किसी आर्ट गैलरी में
    दूर दूर से आयेगे लोग
    तुझे देखने
    लिखे जाएँगे
    तेरे रंग रूप आकार पर लाखों लेख
    पत्थर हिलता है
    ना ना
    मुझे पत्थर ही रहने दो
    हिलता पत्थर
    इतना कोमल
    इतना तो मैंने कभी
    फूल भी नहीं देखा .


    ग़ालिब की हवेली

    मैं और मित्र कासिम गली में
    ग़ालिब की हवेली के सामने
    हवेली बंद थी
    शायद चौंकीदार का
    मन नहीं होगा
    हवेली को खोलने का
    चौंकीदार, मन और ग़ालिब मिल कर
    ऐसा कुछ सहज ही कर सकते हैं
    हवेली के साथ वाले चौबारे से
    उतरा एक आदमी और बोला
    "हवेली को उस जीने से देख लो "
    उसने सीढ़ी की तरफ इशारा किया
    जिस से वो उतर कर आया था
    ग़ालिब की हवेली को देखने के लिए
    सीढ़ीयों पर चढ़ना कितना जरूरी है
    पूरे नौ बर्ष रहे ग़ालिब साहब यहाँ
    और पूरे नौ महीने वो अपनी माँ की कोख में
    बहुत से लोग इस हवेली को
    देखने आते हैं
    थोड़े दिन पहले एक अफ्रीकन आया
    सीधा अफ्रीका से
    केवल ग़ालिब की हवेली देखने
    देखते देखते रोने लगा
    कितना समय रोता रहा
    और जाते समय
    इस हवेली की मिट्टी अपने साथ ले गया
    चुबारे से उतरकर आया आदमी
    बता रहा था ,एक साँस में सब कुछ
    मैं देख रहा था उस अफ्रीकन के पैर
    उसके आंसुओ के शीशे में से, स्वय को
    कहाँ कहाँ जाते हैं पैर
    उस सभी जगह जाना चाहते हैं पैर
    जहा जहा जाना चाहते हैं आंसू
    मुझे आँख से टपका हर आंसू
    ग़ालिब की हवेली लगता है .

    पिता


    अपने आप को बेच
    शाम को वापिस घर आता
    पिता
    होता सालम- साबुत
    हम सभी के बीच बैठा
    शहर की कितनी ही इमारतों में
    ईंट ईंट हो कर , चिने जाने के बावजूद
    अजीब है
    पिता के स्वभाव का दरिया
    कई बार उछल जाता है
    छोटे से कंकर से भी
    और कई बार बहता रहता है
    शांत अडोल
    तूफानी मौसम में भी
    हमारे लिए बहुत कुछ होता है
    पिता की जेब में
    हरी पत्तियों जैसा
    सासों की तरह
    घर आज-कल
    और भी बहुत कुछ लगता है
    पिता को
    पिता तो पिता है
    कोई अदाकार नहीं
    हमारे सामने जाहिर हो ही जाती है
    यह बात
    कि बाज़ार में
    घटती जा रही है
    उनकी कीमत
    पिता को चिंता
    माँ के सपनों की
    हमारी चाहतों की
    और हमें चिंता है
    पिता की
    दिन ब दिन कम होती
    कीमत की ...

    बिका हुआ मकान और वह चिड़िया 


    अपने बिके हुए मकान में ,
    बस आख़री पहर और रुकना है
    यह क्यों बिका ,
    कैसे बिका ,
    सब को सब कुछ बताना है
    पत्नी ,बहन ,छोटा भाई
    बांध रहे है सामान सारा
    और इसी तरह
    माँ मेरी बांध रही है ,
    हमारे साथ अपने आप को भी
    साहस की गठरी में
    पिता बहुत ही ध्यान से
    उठवा रहे है सारा सामान
    एक के बाद दूसरी चीज़
    अपनी पूरी समझ के साथ
    अपने साथ वह
    हमारे दिल को भी ,
    टूटने से बचा रहे हैं 
    छोड़ देता हु मैं
    पहले से तैयार दलीलों की दीवार पीछे
    माँ की आँखे भरी हुई
    पिता का मन डगमगाता हुआ
    पत्नी की झूठी मुस्कराहट
    बेटे का सहमा चेहरा
    मैं अपने साथ
    सब को दिलासा देता हूँ
    पता नहीं किस शक्ति से ...
    दीवार , दरवाज़े , खिड़कियाँ भी धडकती है
    जाना पहली बार ,
    बिक़े हुए मकान को अलविदा कहते
    याद आई वह चिड़िया ,
    जिस के बारे में,
    रोज सुनाता था अपने सुखन* को
    कितनी कहानियाँ |                                                           (सुखन -- बेटे का नाम )
    पहली बार रह रहे है
    किराए के मकान में
    अजनबी अजनबी सा सब कुछ
    बदल रहे है अपने आप में ,
    सहज होने के लिए करते है
    कुछ और दिनों का इंतज़ार
    माता पिता संकट निवारण के लिए
    सोचते है ,
    किसी तीर्थ स्थान पर जाने को ,
    मैं कविता के द्वार की सीढियों पर ,
    नमस्तक होता हूँ
    सामने चहचहा रही
    होती है ,
    वह चिड़िया...
    कामरेड 


    सबसे प्यारा शब्द कामरेड है
    कभी कभार
    कहता हूँ अपने आप को
    कामरेड
    मेरे भीतर जागता है
    एक छोटा सा कार्ल मार्क्स
    इस संसार को बदलना चाहता
    जेनी के लिए प्यार कविताएँ लिखता
    आखिर के दिनों में बेचना पड़ा
    जेनी को अपना बिस्तर तक
    फिर भी उसे धरती पर सोना
    किसी गलीचे से कम नहीं लगा
    लो ! मैं कहता हूँ
    अपने आप को कामरेड
    लांघता हूँ अपने आप को
    लिखता हूँ एक ओर कविता
    जेनी को आदर देने के लिए...
    कविता दर कविता
    सफर में हूँ मैं ...
    ----------------------------------------------
    लेखा
    -------
    मैंने सब का ,
    कुछ न कुछ देना है
    देना यह मुझसे ,
    कैसे भी दिया नहीं जाएगा
    मेरे आते जाते सांस ,
    घूमती धरती के साथ घूमते हैं ,
    चमकते सूरज के साथ चमकते हैं
    मेरे पास , तुम्हारे पास भाषा है
    मैं धन्यवाद कह कर मुक्त हो सकता हूँ
    नदी , पहाड़ ,जंगल ,मैदान , पंछियो के लिए
    मैं कौन सा ढंग चुनू.......

    आदिकाल से लिखी जाती है कविता 


    बहुत पहले किसी युग में लगवाया था
    मेरे दादा ने अपनी पसंद का एक खूबसूरत दरवाज़ा
    फिर किसी युग में उसे उखाड़ फेंका मेरे पिता ने
    और लगवाया अपनी पसंद का बिलकुल नायाब दरवाज़ा
    घर के मुख्य द्वार पर लगा अब यह
    मुझे भी पसंद नहीं ...

    दोस्त 

    कौन कौन दोस्त हैं मेरे
    मैं किसका दोस्त हूँ ...
    दोस्ती
    जोड़ ,घटाव , गुना , तकसीम
    क्या यह है दोस्ती
    मैंने किस किस के लिए
    क्या क्या बचाया
    क्यों बचाया ...
    दोस्त शब्द थक गया है
    दोस्ती से बाहर कही
    किसी पेड के नीचे
    सुस्ताना चाहता है
    नदी में अपने पाँव डाल
    झूठ को पानी में बहा देना चाहता है |
    दोस्त शब्द
    अपने अर्थो के लिए
    भाई काहन सिंह नाभा* के साथ
    गोष्टी रचा रहा है |
    (*भाई काहन सिंह नाभा -- महान पंजाबी विद्वान् )



    जगजीत सिद्धू ने पंजाबी की अनेक महत्वपूर्ण कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया है। उनसे jagjit.sidhu.37@facebook.com  पर संपर्क किया जा सकता है।

श्रद्धांजलि - महेश अनघ

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१४ सितम्बर १९४७ - ४ दिसंबर २०१२ 



हिंदी के जाने-माने नवगीतकार महेश अनघ नहीं रहे.

कल उनके निधन की सूचना मिली तो क्या-क्या कुछ याद आ-आके रह गया. ग्वालियर के बिलकुल आरम्भिक दिनों में वह शास्त्रीनगर में मेरे पडोसी थे. उन दिनों लगभग हर शाम को उनसे मिलना होता था. कभी वह अपनी नातिन को खिलाते-खिलाते मेरे घर चले आते तो अक्सर मैं कोई नई कविता लिए उनके घर पहुंचता. वह बहुत धैर्य से सुनते और खासतौर पर भाषा और बिम्बों के स्तर पर बहुत क़ीमती सलाहें देते. लम्बे समय बाद मैंने कविता लिखनी शुरू की थी तो वह अनघ जी और ज़हीर कुरैशी साहब ही थे जिन्होंने न केवल हिम्मत बढ़ाई बल्कि लगातार लिखने और पत्रिकाओं में भेजने को प्रेरित किया. आज अगर थोड़ा बहुत लिख पाया हूँ तो यह इन बुजुर्गों के आशीष और डांट का ही प्रतिफल है. मैंने जब उन्हें अपनी पहली किताब दिखाई थी तो वह बहुत प्रसन्न हुए थे और वर्षों बाद किसी के पाँव छू कर मैंने आशीर्वाद लिया था. उनकी पत्नी श्रीमती प्रमिला जी भी साहित्य की मर्मग्य हैं. कभी-कभी उनके यहाँ डा राम प्रकाश अनुरागी, अतुल अजनबी,
राजेश शर्मा, घनश्याम भारती और दूसरे मित्रों के साथ महफ़िल जमती और अनघ जी बड़े शौक से अपने नए नवगीत सुनाते थे. वह तरन्नुम के बजाय तहत में सुनाना पसंद करते और उनकी मृदु आवाज़ तथा बहुत अच्छे उच्चारण में उनके गीत सच में और मानीखेज़ हो जाते.

मैं ही नहीं तमाम लोग ज़िद करते लेकिन लम्बे समय तक उन्होंने किताबें छपवाने में कोई रूचि नहीं दिखाई. नवगीतकार होने के बावजूद साठ-बासठ की उम्र तक बस उनका एक उपन्यास “महुअर की प्यास”और एक ग़ज़ल संग्रह “घर का पता” (जिसकी भूमिका दुष्यंत ने लिखी थी) छपे थे
, जबकि उनके गीत और कहानियाँ नियमित रूप से स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे थे. बाद में प्रमिला जी की कोशिशों से उनके दो गीत संग्रह 'झनन झकास' और 'कनबतियां' तथा एक कहानी संग्रह 'जोगलिखी' आया था. 'झनन झकास' का विमोचन ग्वालियर में ही हुआ था और उसका संचालन मैंने किया था. उन्होंने ललित निबंध भी ख़ूब लिखे हैं. अनघ जी का भाषा पर ग़ज़ब का नियंत्रण था और लोक-जीवन की गहरी समझ. विचारधाराओं से तो वह कभी मुतमइन नहीं हुए लेकिन उनकी स्वाभाविक पक्षधरता आम जन के प्रति रही और इसे वह कहानियों तथा गीतों में लगातार दर्ज कराते रहे.   



बीमार वह काफी दिनों से चल रहे थे. इधर वह किसी आयोजन वगैरह में आते भी नहीं थे. नए घर में उनके जाने के बाद मिलना भी कम ही हो पाता था..बस कभी-कभार फोन पर बात होती थी. अभी कुछ दिनों पहले ही प्रमिला जी से बात हुई थी फिर अचानक यह खबर...

उन्हें याद कर रहा हूँ तो आज उनका ही एक गीत याद आ रहा है.




मुहरबंद हैं गीत
खोलना दो हज़ार सत्तर में

जब पानी चुक जाए
धरती सागर आँखों का
बोझ उठाये नहीं उठे
पंक्षी से पाँखो का
नानी का बटुआ
टटोलना दो हज़ार सत्तर में

इसमें विपुल वितान तना है
माँ के आँचल का
सारी अला-बला का मंतर
टीका काजल का
नौ लख डालर संग
तोलना दो हज़ार सत्तर में

छूटी आस जुडायेगी
यह टूटी हुई कसम
मन के मैले घावों को
यह रामबाण मरहम
मिल जाए तो शहद
घोलना दो हज़ार सत्तर में 


कुछ और गीत

(एक)

कौन है ? सम्वेदना !
कह दो अभी घर में नहीं हूँ । 

कारख़ाने में बदन है
और मन बाज़ार में
साथ चलती ही नहीं
अनुभूतियाँ व्यापार में

क्यों जगाती चेतना
मैं आज बिस्तर में नहीं हूँ । 

यह, जिसे व्यक्तित्व कहते हो
महज सामान है
फर्म है परिवार
सारी ज़िन्दगी दूकान है

स्वयं को है बेचना
इस वक़्त अवसर में नहीं हूँ । 

फिर कभी आना
कि जब ये हाट उठ जाए मेरी
आदमी हो जाऊँगा
जब साख लुट जाए मेरी

प्यार से फिर देखना
मैं अस्थि-पंजर में नहीं हूँ
(दो)

मची हुई सब ओर खननखन
यूरो के घर-डॉलर के घर
करे मदन रितु चौका-बर्तन

किस्से पेंग चढ़े झूलों के
यहाँ बिकाने वहाँ बिकाने
बौर झरी बूढ़ी अमराई
क्या-क्या रख लेती सिरहाने
सबका बदन मशीनों पर है
मंडी में हाज़िर सबका मन

मान मिला हीरा-पन्ना को
माटी में मिल गया पसीना
बड़े पेट को भोग लगा कर
छुटकू ने फिर कचरा बीना
अख़बारों में ख़बर छपी है
सबको मिसरी सबको माखन

सोलह से सीधे सठियाने
पर राँझे की उमर न पाई
फूटे भांडे माँग रहे हैं
और कमाई और कमाई
जहाँ रकम ग्यारह अंकों में
वहाँ प्रेत-सा ठहरा जीवन

दो बच्चे तकदीर मगन है
एक खिलाड़ी एक खिलौना
दो यौवन व्यापार मगन है
एक शाह जी एक बिछौना
मुद्रा का बाज़ार गरम है
इसमें कहाँ तलाशें धड़कन
(तीन)

मूर्तिवाला शारदे को
हथौड़े से पीटता है
एक काले दिन


कलमुँही तू दो टके की क्यों गई थी कार में
क्या वहां साधक मिलेंगे सेठ में सरकार में
खंडिता हो लौट आई हाथ में बख्शीस लेकर
पर्व वाले दिन

तू फ़कीरों कबीरों के वंश की संतान है
साहबों की साज सज्जा के लिए सामान है
इसलिए कच्चे घरों में ओट देकर तुझे पाला
और टाले दिन


कामना थी पाँव तेरे महावर से मांड़ते
फिर किसी दिन पूज्य स्वर से सात फेरे पाड़ते
क्या करें ऊँचे पदों ने पद दलित कर छंद सारे
मार डाले दिन


(चार) 
चैक पर रकम लिख दूं, ले कर दूं हस्ताक्षर
प्यार का तरीका यह
नया है सुनयनी।

छुआ छुअन बतरस तो
बाबा के संग गए
मीठी मनुहार अब यहां कहां
छेड़छाड़ रीझ खीझ
नयन झील में डुबकी
चित्त आर-पार अब यहां कहां
रात कटी आने का इंतज़ार करने में
जाने के लिए
भोर भया है सुनयनी।

कौन सा जन्मदिन है
आ तेरे ग्रीटिंग पर
संख्याएं टांक दूं भली भली
सात मिनट बाकी हैं
आरक्षित फ़ुरसत के
चूके तो बात साल भर टली
ढ़ाई आखर पढ़ने, ढाई साल का बबुआ
अभी-अभी विद्यालय
गया है सुनयनी।

मीरा के पद गा कर
रांधी रसखीर उसे
बाहर कर खिड़क़ी के रास्ते
दिल्ली से लंच पैक
मुंबईया प्रेम गीत
मंगवाया ख़ास इसी वास्ते
तू घर से आती है, मैं घर को जाता हूं
यह लोकल गाड़ी की
दया है सुनयनी।


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