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नींव,दीवार,छत थे पिता

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पितृशोक के इस दौर में अग्रज कवि निरंजन श्रोत्रियने संवेदना सन्देश के साथ यह कविता भी भेजी थी. आज असुविधा पर यह आप सबके लिए...

पिता उन दिनों 


पिता उन दिनों
पिता जैसे नहीं हुआ करते थे
रौब और ख़ौफ से रिक्त पिता
बच्चे की तरह निश्चिन्त और खुश रहते

हम मस्ती में चढ़ जाते कंधें पर उनके
छूते निडरता से मूँछें उनकी
उन्हीं की छड़ी से उन्हें पीटने का अभिनय करते
चुपके से गुदगुदाकर पिता को
खोल देते खिलखिलाहट की टोंटी
नहा जाता घर

नींव,दीवार,छत थे पिता
घर थे पिता !

एक दिन अचानक लौटे पिता घर
अजनबी और डरावना चेहरा लिये
हम दुबक गये घर के कोनों में
छड़ी उठाकर घूरने लगे शून्य में
नींव,दीवार और छत डरने लगे
घर लौटे पिता से
डबडबाने लगा टेबल पर रखा चश्मा उनका
चुप्पी उनकी सीलन बन बैठ गई दीवारों में

उस दिन
शहर और दुनिया में
कुछ घटनाएं घटी थीं एक साथ

एक नाबालिग लड़की के साथ हुआ बलात्कार
दो बेटों ने बूढ़ी माँ के एवज में चुनी जायदाद
सोमालिया में पैंतालीस लाख बच्चे भूख से मरने को थे
और शकरू मियाँ का नौजवान बेटा घर ख़त छोड़ गया था !

                                                                 


तोतापन, काव्यधर्मिता और रघुवीर सहाय

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रघुबीर सहाय की काव्य-धर्मिता
·                     उमेश चौहान



रघुबीर जी आज जीवित होते तो हिन्दी के तमाम शीर्षस्थ कवियों के हमउम्र होते और श्रेष्ठतम समकालीन कवि होते। मृत्यु के उपरांत भी कविता की समकालीनता की दृष्टि से उन्हें आज का श्रेष्ठतम कवि माना जा सकता है। समय-समय पर तमाम आलोचकों ने इस बारे में अपने विचार रखे हैं कि रघुबीर सहाय जी ने कवि-कर्म को किस रूप में देखा, कविता लिखने के बारे में उनकी धारणा या मान्यता क्या थी, उन्होंने अपनी धारणा के अनुरूप गढ़े इस कवि-धर्म को किस प्रकार से साधा और काव्य-धर्मिता से जुड़ी अपनी पंक्तियों के माध्यम से वे कैसे कवियों को भी राह दिखाने वाले एक महत्वपूर्ण कवि बन गए। रघुबीर जी एक जाने-माने पत्रकार व संपादक भी थे अतः अपनी कविताओं में उन्होंने एक पत्रकार की आदत के मुताबिक कविता के बैक स्टेज की भी खूब पड़ताल की और उसकी विसंगतियों तथा दुष्प्रवृत्तियों को उजागर करते हुए उन्होंने काव्य-रचना के उजले संसार में प्रवेश करने के अनेकों द्वार खोले हैं। यहाँ एक नितान्त पाठकीय दृष्टिकोण के साथ रघुबीर जी की काव्य-धर्मिता के बारे में कुछ बातों पर पुनर्विचार किया जा रहा है।

उनकी कविताएँ प्रायः भविष्य की खबरें लेकर आती-सी लगती थीं। वे भारतीय लोकतंत्र की दुरवस्था के प्रति भी सजग थे। जैसा कि एक सच्चे पत्रकार में होता है, देश-काल की चिन्ता उनकी कविताओं का प्रमुख तत्व थी। वे अपने संपादकीय वक्तव्यों में भी कहीं न कहीं अपने भीतर बैठे कवि की बातों को अभिव्यक्त कर रहे होते थे। वे समय से आगे निकलकर विषयों की पड़ताल करते हुए उनमें समकालीन परिस्थितियों के प्रति ही नहीं, भविष्य की कठिनाइयों के बारे में भी पूर्वाभास कराते चलते थे। लिखने का कारणशीर्षक लेख में उन्होंने खुद लिखा है, - पत्रकार के लिए यथार्थ वही है जो संभव हो चुका है। साहित्यकार के लिए वह है जो संभव हो सकता है। वे एक भविष्यदृष्टा कवि थे और अपनी आत्महत्या के विरुद्धशीर्षक कविता में उन्होंने खुद इस बात की शिनाख़्त इन शब्दों में की है, - समय आ गया है जब तब कहता है संपादकीय/ हर बार दस बरस पहले कह चुका होता हूँ कि समय आ गया है

रघुबीर जी का स्पष्ट मानना था कि कविता को सिर्फ निराशा या नकारात्मकता से ही भरा हुआ नहीं होना चाहिए। आशा, जिजीविषा, मनुष्यत्व की जीत एवं शुभाप्ति-विश्वास ही कविता का लक्ष्य होना चाहिए। उनकी खोज-खबरशीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ इसे बखूबी स्पष्ट करती हैं, - यह तुमने क्या लिखा झुर्रियाँ, उनके भीतर छिपे उनके प्रकट होने के आसार, - आँखों में उदासी-सी एक चीज़ दिखती है यह तुमने मरने से पहले का वृत्तांत क्यों लिखा?

वे कविता को सिर्फ शब्दों का आडंबर बना देने के पक्ष में कतई नहीं थे। उनका मानना था कि कविता को जीवंतता से भरा होना चाहिए। उसमें जीवन का प्रवाह होना चाहिए। नैसर्गिकता होनी चाहिए। और सबसे बड़ी बात तो यह कि कविता को सरल होना चाहिए। अपनीआज फिर शुरू हुआशीर्षक कविता में वे कहते हैं, आज फिर शुरू हुआ जीवन/ आज मैंने छोटी-सी सरल-सी कविता पढ़ी/ आज मैंने सूरज को डूबते देर तक देखा। यह जो सूरज को देर तक डूबते हुए देखना है, यही वह प्रक्रिया है, जिसमें कविता अनुभव की आँच में धीरे-धीरे पकती है। घट रही घटनाओं का सूक्ष्म-दर्शन एवं दीर्घावलोकन ही किसी जीवन्त कविता को जन्म दे सकता हैं।

किन्तु यह सूक्ष्म-दर्शन किस भावना के साथ किया जाता है, वह भी महत्वपूर्ण है। रघुबीर जी जब अपनी रचता वृक्षकविता में कहते हैं, - देखो वृक्ष को देखो वह कुछ कह रहा है/ किताबी होगा कवि जो कहेगा कि हाय पत्ताझर रहा हैतो वे इसी भावनात्मक पक्ष की ओर इशारा करते हैं। यहाँ वे स्पष्ट रूप से घोषित करते हैं कि नकारात्मकता कविता का लक्ष्य नहीं हो सकती। कविता में वह जिजीविषा होनी चाहिए जैसी पत्ते झड़ते रहने के बावजूद उस बोलते हुए वृक्ष में होती है। कविता में उम्मीद बची रहनी चाहिए। अवशेष को सँभालते हुए प्रगति की कोशिश होनी चाहिए। केवल पतन की आत्म-कथा नहीं।

यह आशा, यह जीने की चाह, यह परिवर्तन या प्रगति की आकांक्षा कहाँ से आती है? कैसे आती है? बकौल रघुबीर जी यह बाहर से आती है। यह विचारों को ग्रहण करने से आती है। यह अच्छे विचारों की ओर लपकने से आती है। उन्हें अपने में आत्मसात करने से आती है। धूपकविता की उनकी पंक्तियाँ देखिए, - देख रहा हूँ/ लम्बी खिड़की पर रक्खे पौधे/ धूप की ओर बाहर झुके जा रहे हैं। आगे वे इसी कविता में धूप के संचरण की बात करते हैं, - और बरामदे में धूप होना मालूम होता है/ जैसे ये बरामदे में धूप-सा कुछ ले आए हों

रघुबीर जी काल्पनिकता-जन्य क्षणिक भावुकता के सार्थक होने में यकीन नहीं रखते थे। बस एक कविता पढ़ी और रो पड़े! एक कहानी पढ़ी और विचलित हो गए! बाद में फिर वैसे के वैसे! कविता क्षणिक भावुकता जगाने वाली नहीं, स्थायी भाव की कारक होनी चाहिए, जिसे पढ़ने के बाद हमें बाहरी दुनिया की पीड़ा समझ में आने लगे और हम उसके यथार्थ के प्रति विचलित होने लगें। किताब पढ़कर रोनाशीर्षक कविता में वे कहते हैं, - जो पढ़ता हूँ उस पर मैं नहीं रोता हूँ/ बाहर किताब के जीवन से पाता हूँ/ रोने का कारण मैं/ पर किताब रोना संभव बनाती है। यानी रुलाने वाली किताब से ज्यादा सार्थक होती है वह किताब, जो हमारे भीतर वैचारिक परिवर्तन ला दे, हमारा नज़रिया बदल दे ताकि हम यथार्थ की अनुभूति कर सकें और उस पर विचलित हो सकें।

चूँकि रघुबीर जी पत्रकार व संपादक थे, इसलिए वे अखबारी लेखन को भी बखूबी पहचानते थे। उसमें कितना सच होता है और कितना बनावटी, यह भी वे अच्छी तरह जानते थे। वे जानते थे कि वहाँ भी इस चमकदार दुनिया की चका-चौंध व्याप्त है। वहाँ यथार्थ का खुरदरापन नहीं है। वह इन्सानी चेहरों को गौर से देखने पर ही दिखेगा। वे चेहराशीर्षक कविता में कहते हैं, - देखो सब चेहरों को देखो/ पहली बार जिन्हें देखा है/ उन पर नज़र गड़ाकर देखो/ तुमको ख़बर मिलेगी उनसे/ अख़बारों से नहीं मिलेगी। वे सौन्दर्य-बोध के पारंपरिक स्वभाव से संतुष्ट नहीं थे। वे नए सौन्दर्य-बोध के हिमायती थे क्योंकि पारंपरिक सौन्दर्य-बोध ने ही समाज का यह आज का अत्याचारी व आतंकपूर्ण वर्तमान गढ़ा है। वे इस कविता में आगे इसी बात की अभिव्यक्ति करते हैं, - कुछ चेहरों को हम सुन्दर क्यों कहते हैं/ क्योंकि वे ताक़तवर लोगों के चेहरों से दो हज़ार साल से/ मिलते-जुलते चले आ रहे हैं/ सुन्दर और क्रूर चेहरे मशहूर हैं दूर-दूर तक/ देसी इलाकों में। वे असली सौन्दर्य की पहचान के लिए सूक्ष्मतर दृष्टि रखने के पक्षधर थे। एक ऐसी दृष्टि जो हर चीज़ की अलग-अलग परख करा दे। अपनी इस कविता में वे आगे इसी सौन्दर्य-बोध का परिचय देते हैं, - सब चेहरे सुन्दर हैं/ पर सबसे सुन्दर है वह चेहरा/ जिसे मैंने देर तक चुपके से देखा हो/ इतनी देर तक कि मैंने उसमें और उसके जैसे/ एक और चेहरे में अन्तर पहचाना हो। तो मित्रो, यथार्थ के इस रघुबीरीय सूक्ष्म-दर्शन के बाद ही हम उस शाश्वत सौन्दर्य को पहचान सकते हैं जो हमें प्रगति के रास्ते पर ले जा सकता है।

रघुबीर जी स्पष्टवादिता के लिए जाने जाते हैं। जहाँ किसी बात के भिन्न-भिन्न अर्थ निकाले जा सकें, वैसा शब्द-जाल खड़ा करना उनका लक्ष्य नहीं था। वे जानते थे कि स्पष्टवादिता हुक्कामों को पसन्द नहीं आती। वह प्रायः दंडित कराती है। किन्तु फिर भी वे सीधी बात कहने में ही यकीन रखते थे। अपनी दो अर्थ का भयशीर्षक कविता में उन्होंने लिखा है, - वे मेरे शब्दों की ताक में बैठे हैं/ जहाँ सुना नहीं उनका गलत अर्थ लिया और मुझे मारा/ इसलिए कहूँगा मैं/ मगर मुझे पाने दो/ पहले ऐसी बोली/ जिसके दो अर्थ न हों

लेखन के बारे में नशे में दयाकविता में वे एक बड़ी मज़ेदार बात करते हैं, - घर पे जाकर लिख के रख लूँगा जो मुझमें हो गया/ सोचकर मैं घर तो पहुँचा पर पहुँचकर सो गया। ऐसा हम सबके साथ होता है। यदि मन में कोई विचार आए, कोई भाव जागे और कुछ कविता जैसा छटपटाने लगे तो उसे उसी वक़्त लिख डालो तो लिख डालो, नहीं तो वह वहीं पर छूट जाता है, कहीं खो जाता है।

रघुबीर जी कविता लिखने के व्यक्तिगत प्रभावों की भी बड़ी अच्छी मीमांसा करते हैं। अक्सर कहा जाता है, अमुक तो कवि है, वह अपनी ही दुनिया में खोया रहता है। दूसरों से हिलता-मिलता नहीं। या फिर मेरे जैसे किसी कवि से, जो अपने अन्य कामों में व्यस्त रहता है, लोग अक्सर पूछते हैं, इतनी व्यस्तता के बीच कविता लिखने का समय कैसे निकाल लेते हो?इन सब बातों को समेटते हुए रघुबीर जी ने अपनी कविताशीर्षक रचना में कहा है, - कविता अकेला करती है/ और जब हम बहुत तरह के अन्य काम करते हैं तो/ उनसे कविता में बाधा इसलिए नहीं पड़ती/ कि वे दूसरे प्रकार के काम हैं/ बल्कि इसलिए कि वे हमेशा हमें बाध्य करते हैं/ कि हम दूसरों के साथ काम करें/ जबकि कविता अकेले ही काम करने का तकाजा करती है। कितना सच भरा है रघुबीर जी की इस सीधी-सरल कविता में! कविता अकेले में ही सृजित होती है। कविता रचते समय कवि केवल उसी के साथ जीता है। उस समय वह बिल्कुल अकेला होता है, भले ही उसकी कविता में पूरा संसार समाया हो, पूरी दुनिया की चिन्ताएँ ओत-प्रोत हों। कवि को यह अकेलापन अन्य तमाम व्यस्तताओं के बीच भी मिल ही जाता है भले ही वह उतनी देर के लिए औरों को अपने-आप में खोया-सा लगे।  

अब बात यह आती है कि कविता में लिखा क्या जाय? किन शब्दों में लिखा जाय? क्या वे शब्द कवि के पास हैं जिनसे उसे लिखना है? क्या जिन शब्दों में कवि लिख रहा है, उन्हें वह समझ पा रहा है, जिसके लिए कवि लिख रहा है? रघुबीर जी कुछ ऐसी ही जिज्ञासाओं के साथ अपनी लोग भूल गए हैंशीर्षक कविता में कहते हैं, हम उपन्यास में बात मानव की करेंगे/ और कभी बता नहीं पाएँगे/सूखी टाँगें घसीटकर खम्भे के पास बैठे हुए लड़के के सामने पड़े हुए तसले का अर्थ/ हम लिखते हैं कि/ उसकी स्मृतियों में फ़िलहाल एक चीख़ और गिड़गिड़ाहट की हिंसा है/ उसकी आँखों में कल की छीनाझपटी और भागमभाग का पैबन्द इतिहास/ उसके भीतर शब्दरहित भय और जख़्मी आग है/ यह तो हम लिखते हैं, पर उस व्यक्ति में है जो शब्द, वे हम जानते नहीं/ जो शब्द हम जानते हैं, उसकी अभिव्यक्ति नहीं, विज्ञापन हमारा है

आज जब कविता इन्सानी सरोकारों को स्पर्श नहीं कर पा रही है और अन्याय के खिलाफ तनकर खड़ी नहीं हो पा रही है, तब उनकी आज की कविताशीर्षक रचना की ये पंक्तियाँ बड़ी समीचीन लगती हैं, - आतंक कहाँ जा छिपा भागकर जीवन से/ जो कविता की पीड़ा में अब दिख नहीं रहा? हत्यारों के क्या लेखक साझीदार हुए/ जो कविता हम सबको लाचार बनाती है?यह कवियों के हत्यारों के साथ मिल जाने की जो आशंका है, वह समाज को लाचार बना देती है। समाज की यह लाचारी ही हमें जड़ बना देती है। आज इतना सारा लिखा जा रहा है। इतने सारे लोग लिख रहे हैं। लेकिन समाज रत्ती भर भी नहीं बदलता। यह क्या है? क्या कविता मर चुकी है? या क्या यह समाज ही मर चुका है, इसलिए कविता निष्प्रभावी हो गई है? इसी ऊहापोह को व्यक्त करती रघुबीर जी कीआज का पाठ हैकविता की ये पंक्तियाँ देखिए, जब एक महान संकट से गुज़र रहे हों/ पढ़े-लिखे जीवित लोग/ एक अधमरी अपढ़ जाति के संकट को दिशा देते हुए/ तब/ आप समझ सकते हैं कि एक मरे हुए आदमी को/ मसखरी कितनी पसन्द है। यह बखूबी बयान करता है उस परिदृश्य को, जो आज कविता के मंच को घेरे हुए है। आज हास-परिहास से बाहर निकलकर संजीदा बातें करने वाला कवि कविता के मंच से निष्कासित है।

आज लेखकीय समाज में भी चतुर सुजानों व स्वार्थी मक्कारों की कमी नहीं है। रघुबीर जी इससे बहुत आहत थे। उन्होंने अपनी स्वाधीन व्यक्तिकविता में ऐसे कागज़ी प्रगतिशील कवियों व मौकापरस्त लेखकों की तगड़ी खिंचाई की है। उनकी इस कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिए, - बनिया बनिया रहे/ बाम्हन बाम्हन और कायथ कायथ रहे/ पर जब कविता लिखे तो आधुनिक हो जाये/ खीसें बा दे, जब कहो तब गा दे

कविता की छंद-मुक्ति के आंदोलन के चलते जब कविता मरने लगी तो ऐसे में उन्होंने छंद की खुलकर पैरवी की। लय को वापस लाने का आग्रह किया। अपनी अरे अब ऐसी कविता लिखोशीर्षक कविता में उन्होंने बड़ी मार्मिकता के साथ कहा, - अरे अब ऐसी कविता लिखो/ कि जिसमें छंद घूमकर आय/ घुमड़ता जाय देह में दर्द/ कहीं पर एक बार ठहराय। यह जो घुमड़ता हुआ दर्द है, भाव-बोध है, उसका टिकाऊ होना बहुत जरूरी है। यह जो कविता का ठहराव है वह लय के माध्यम से ही होता है। यह लय ही है जो स्मृति में टिकती है। इसी के सहारे ही कविता के शब्द स्मृति में टिकते हैं। और ऐसा होने पर ही उन शब्दों में निहित भाव तथा विचार हमारे मन में टिकते हैं तथा समाज में एक स्थायी वैचारिक परिवर्तन आने के कारक बनते हैं।

रघुबीर जी आलोचकों की एकांगी दृष्टिकोण के साथ विवेचना करने वाली प्रवृत्ति के भी खिलाफ थे। वे जीवन का सूक्ष्म-दर्शन करते हुए उसके सर्वांगीण चित्रण में यकीन रखने वाले कवि थे। उनके अनुसार कवि का कैनवास व्यापक होता है। उसमें जीवन की विभिन्न अवस्थाएँ, उसके विभिन्न पहलू, उसके विविध यथार्थ समाए होते हैं। उन्हें खंड-खंड में बाँटकर नहीं देखा जा सकता। सारे महाकवियों ने जीवन को इसी व्यापकता के साथ देखा, समझा और वर्णित किया है। फिर आलोचक क्यों उनकी रचनाओं को अलग-अलग खाँचों में बाँटकर देखता है?  उन्होंने अपनी समाधि लेखकविता में इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है, - नारी चिड़िया देश जागरण/ बच्चा प्रकृति दुःख वासना/ अलग-अलग डिब्बों में मेरी/ पीड़ाएँ मत बंद कीजिए/ जिन्हें एक में मिला-जुलाकर/ मैंने की थीं ये रचनाएँ।यह कहने आ नहीं सकेंगे/ चले गए हैं स्वर्ग महाकवि

अंत में मैं रघुबीर जी की उस कविता पर आना चाहूँगा, जिसमें उनकी रचना-दृष्टि का निचोड़ है। यह उनकी शुरुआती दौर में लिखी गई एक बहुश्रुत कविता है, जो यह आह्वान करती है कि यदि कवि बनना है, कविता लिखना है, तो परम्परा से आगे निकल कर चलो। कुछ नया सीखो। कुछ नई बात बोलो। एक तरह से देखा जाय तो उनकी यह कविता, नई कविता के लिए एक मंत्र-वाक्य जैसी थी, - अगर कहीं मैं तोता होता/ तोता होता तो क्या होता? तोता होता। होता तो फिर? होता, फिर क्या? होता क्या? मैं तोता होता

रघुबीर जी की कविताओं में सामाजिक विसंगतियों, अन्याय व अत्याचार आदि के विरुद्ध जो प्रतिरोध व संघर्ष की व्याप्ति है, उनका जो स्त्री-विमर्श है, उनकी जो राजनीतिक सजगता है, उनका जो जीवन-दर्शन है, उन तमाम पहलुओं पर भी इसी प्रकार विस्तार से चर्चा की जा सकती है, किन्तु यहाँ मैं उस पर नहीं जा रहा। यहाँ बस थोड़ा-सा यही बताने का उद्देश्य था कि रघुबीर जी ने काव्य-रचना के कर्म और धर्म से जुड़कर क्या कुछ कहा और हमारी पीढ़ी के कवियों को क्या कुछ दिया। स्पष्ट है कि वे इतना कुछ दे गए हैं कि अगर हमने उसका एक थोड़ा सा अंश भी ग्रहण कर लिया तो फिर वह जो बरामदे में धूप सा कुछ ले आने की बात है, वह सार्थक हो जाएगी और हम वहाँ रखे पौधों की तरह लहलहाने लगेंगे। जाहिर है यदि हम रघुबीर सहाय से कुछ सीखेंगे तो फिर तोता नहीं बने रहेंगे। तब हम निश्चित ही कुछ नए तरीके से सोचेंगे और कुछ नई बात बोलेंगे। हम अपनी काव्य-धर्मिता से तोतापन को दूर करके ही रघुबीर जी को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं।    

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परिचय 

जन्म: 9 अप्रैल, 1959 को उत्तर प्रदेश के लखनऊ जनपद के ग्राम दादूपुर में
साहित्यिक गतिविधियाँ:

  • पिता की प्रेरणासे बचपन से ही लेखन में रुचि। हिन्दी व मलयालम की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर कविताएं, कहानियाँ व लेख प्रकाशित।
  • प्रकाशित पुस्तकें:गाँठ में लूँ बाँध थोड़ी चाँदनी (प्रेम-गीतों का संग्रह - 2001), दाना चुगते मुरगे (कविता-संग्रह 2004), जिन्हें डर नहीं लगता (कविता-संग्रह 2009), जनतंत्र का अभिमन्यु (कविता संग्रह 2012) एवं ‘अक्कित्तम की प्रतिनिधि कविताएं’  (मलयालम से अनूदित कविताओं का संग्रह 2009)।
  • सम्मान:वर्ष 2009 में भाषा समन्वय वेदी, कालीकट द्वारा अभय देव स्मारक भाषा समन्वय पुरस्कारतथा 2011 में इफ्को द्वारा राजभाषा सम्मान

सम्पर्क: डी-I/ 90, सत्य मार्ग, चाणक्यपुरी, नई दिल्ली110021 (मो. नं. +91-8826262223), ई-मेल: umeshkschauhan@gmail.com    



मैं जीवित रहूँगी सदा प्रेम करने वालों की यादों में दुःख बनकर

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पिछले दिनों की घटनाएं पढ़ते हुए मुझे हिंदी की महत्वपूर्ण कवि सविता सिंहके संकलन 'नींद थी और रात थी' की कुछ कवितायें बार-बार याद आती रहीं. बलात्कार जैसा विषय अभी हाल तक हमारी सार्वजनिक बातचीत ही नहीं साहित्यिक परिवेश से भी बहिष्कृत रहा है, हालांकि वह जीवन से अनुपस्थित कभी नहीं रहा. मानवता के प्रति इस सबसे क्रूर अपराध को गोपन रखना ही सिखाया गया उन्हें भी जो इस भयावह अनुभव से गुज़र जीवन भर घायल बने रहने को अभिशप्त हुईं. अजीब विडम्बना है कि इस पितृसत्तात्मक समाज ने पीड़ित को अपराधी और अपराधी को गर्वोन्मत्त में तब्दील कर दिया. सविता सिंह की 'ख़ून और ख़ामोशी' तथा  'शिल्पी ने कहा' जैसी कवितायें इस वर्जित विषय पर छायी ख़ामोशी को तोड़ती तो हैं ही साथ में प्रतिरोध का एक स्वर भी बुलंद करती हैं. 'क्यों होती हो उदास सुमन' जैसी कविता नैराश्य के गहन अन्धकार में ख़ुशी की राह ही नहीं दिखाती बल्कि 'प्रेम एक बार होता है' या 'प्रेमी या पति द्वारा परित्यक्त महिला के जीवन में ख़ुशी की कोई जगह नहीं' जैसे मिथक को भी ध्वस्त करती है और 'याद रखना नीता' जैसी पितृसत्ता के जाल को काटती कविता के साथ मिलकर बलात्कार जैसे इस क्रूर अनुभव के दर्द से लेकर उसके प्रतिकार और उसके बाद भी जीवन में तमाम रौशन सुरंगों के शेष रह जाने का एक ऐसा आख्यान बनाती है जो मुझे स्त्रियों के लिए यातनागृह बने देश के इस अन्धकार से भरे  माहौल में उम्मीद के कुछ उजले कतरों से भरे धूसर आसमान की तरह लगता है.     
फ्रांस की अति-यथार्थवादी कलाकार  Myrtille Henrion Picco
की पेंटिग 

ख़ून और ख़ामोशी 

दस साल की बच्ची को
यह दुनिया कितनी सुघड़ लगती थी
इसमें उगने वाली धुप हरियाली
नीला आकाश कितना मनोहर लगता था
यह तो इसी से पता चलता था कि
खेलते-खेलते वह अचानक गाने लगती थी कोई गीत
हँसने लगती थी भीतर ही भीतर कुछ सोचकर अकेली
बादल उसे डराते नहीं थे
बारिश में वह दिल से ख़ुश होती थी
मना करने पर भी सड़कों पर कूद-कूद कर नहाती और नाचती थी

दस साल की बच्ची के लिए
यह दुनिया संभावनाओं के इन्द्रधनुष-सी थी
यही दुनिया उस बच्ची को कैसी अजीब लगी होगी
हज़ारों संशयों भयानक दर्द से भरी हुई
जिसे उसने महसूस किया होगा मृत्यु की तरह
जब उसे ढकेल दिया होगा किसी पुरुष ने
ख़ून और  ख़ामोशी में
सदा के लिए लथपथ



शिल्पी ने कहा  
मरने के बाद जागकर शिल्पी ने
अपने बलात्कारियों से कहा
'तुम सबने सिर्फ़ मेरा शरीर नष्ट किया है
मुझे नहीं
मैं जीवित रहूँगी सदा प्रेम करने वालों की यादों में
दुःख बनकर
पिता के कलेजे में प्रतिशोध बनकर
बहन के मन में डर की तरह
माँ की आँखों में आँसूं होकर
आक्रोश बनकर
लाखों-करोड़ों दूसरी लड़कियों के हौसलों में
वैसे भी अब नहीं बाच सकता ज़्यादा दिन बलात्कारी
हर जगह रोती कलपती स्त्रियाँ उठा रही हैं अस्त्र




क्यों होती हो उदास सुमन 

क्यों होती हो उदास सुमन
जैसे अब और कुछ नहीं होगा
जैसा आज है वैसा कल नहीं होगा
क्यों डूबती हैं तुम्हारी आँखें कोई तारा रह-रहकर जैसे

देखो हर रात चाँद भी कहाँ निकलता है
जबकि आसमान का है वह सबसे प्यारा
आओ उठो हाथ मुँह धोओ
देखो बाहर कैसी धुप खिली है
हवा में किस तरह दोल रही हैं चम्पा की बेलें

क्यों होती हो उदास कि जो गया वह नहीं लौटेगा
जो गया तो कोई और लौटेगा
ख़ुशी के लौटने के भी हैं कई नए रास्ते
जैसे दुःख की होती हैं अनगिनत सुरंगे


याद रखना नीता 
याद रखना नीता
एक कामयाब आदमी समझदारी से चुनता है अपनी स्त्रियाँ
बड़ी आँखों सुन्दर बांहों लम्बे बालों सुडौल स्तनों वाली प्रेमिकाएँ
चुपचाप घिस जाने वाली सदा घबराई धँसी आँखों वाली मेहनती
कम बोलने वाली पत्नियाँ

कामयाब आदमी यूँ ही नहीं बनता कामयाब
उसे आता है अपने पूर्वजों की तरह चुनना
भेद करना
और इस भेद को एक भेद
बनाए रखना

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सविता सिंह 
प्रतिष्ठित कवि तथा नारीवादी चिंतक. हिंदी तथा अंग्रेज़ी में दो-दो तथा फ्रेंच में एक कविता संकलन के अलावा अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से शोध पत्र प्रकाशित. सम्प्रति इंदिरा गांधी मुक्त विश्विद्यालय के स्कूल आफ जेंडर एंड डेवलपमेंट स्टडीज से सम्बद्ध 

क्रोध और आँसू की सम्मिलित भाषा में - देवयानी भारद्वाज

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देवयानीने यह कविता मुझे कोई दो दिन पहले भेजी थी. हालिया घटनाओं का असर तो था ही, इस बहाने देवयानी ने यहाँ एक औरत की ज़िन्दगी के उन तमाम कटु अनुभवों को एक अवसादपूर्ण आवेग के साथ रख दिया है. पितृसत्ता की कंटीली जकडन के जख्मों के निशाँ अलग-अलग रूपों में जैसे एक साथ क्रोध और आंसू की सम्मिलित भाषा में चीख रहे हों, न्याय मांग रहे हों वक़्त की अदालत से...
कर्टिस राइकोविच की पेंटिंग यहाँ से साभार 



मेरी शिकायत दर्ज की जाए मी लॉर्ड


कितने साल लगते हैं
एक बलात्कारएक हत्याएक ज़ुर्म की सजा सुनाने में अदालत को 
कितने साल के बाद तक है इजाज़त 
कि एक पीड़ि‍त दर्ज़ कराने जाये 
उसके विरुद्ध इतिहास में हुए किसी अन्याय की शिकायत 

मी लॉर्ड 
मेरे जन्म के बाद मेरी माँ को नहीं दिया गया पूरा आराम और भरपूर आहार 
इसलिये नहीं मिला मुझे पूरा पोषण 
मेरी शिकायत दर्ज की जाये मी लॉर्ड 

भाई को जब दी जाती थी मलाई और मिश्री की डली 
उस वक़्त मुझे चबानी होती थी 
बाजरे की सूखी रोटी 
और सुननी होती थी माँ को दादी की जली कटी 
एक तो जनी लड़की 
वह भी काली कलूटी 
कौन इसे ब्याहेगा 
कहाँ से दहेज जुटायेंगे 
मैं गैर बराबरी और अपमान की शिकायत दर्ज कराना चाहती हूँ मी लॉर्ड
थाने मे जाती हूँ तो सब मेरी बात पर हंसते हैं 
घर वाले भी मुझे ही बावली बताते हैं
अब आप ही बतायें मी लॉर्ड 
क्या आज़ाद हिन्दुस्तान के संविधान में
मेरे लिये बराबरी की यही परिभाषा थी 

मेरी शिकायत दर्ज की जाये मी लॉर्ड 
जयपुर के रेलवे स्टेशन पर 
पच्चीस साल पहले 
जब मेरी उम्र मात्र चौदह साल थी 
एक शोहदे ने टॉयलेट के गलियारे में 
मेरे नन्हे उभारों पर चिकोटी भर ली थी 
और इस कदर सहम गयी थी मैं 
कि माँ तक को बता न सकी थी 
वह अश्लील स्पर्श मुझे अब भी नींदों में जगा देता है 
और मैं बेटी को ट्रेन में अकेले टॉयलेट जाने नहीं देती 
पहुँच ही जाती हूँ किसी भी बहाने उसके पीछे 
मैं उस अश्लील स्पर्श से छुटकारा चाहती हूँ मी लॉर्ड 
मैं इस असुरक्षा से बाहर आना चाहती हूँ
मुझे न अब ट्रेन का नाम याद है
न घटना की तारीख याद है 
मैंने तो उस लिजलिजे स्पर्श का चेहरा भी नहीं देखा 
यदि देखा भी होता तो अब याद न रहता 
लेकिन मेरे सपनो को उस अहसास से आज़ाद कीजिये मी लॉर्ड 
मेरी शिकायत दर्ज की जाये मी लॉर्ड 
मेरी न्याय की पुकार खाली न जाये हुज़ूर 

मेरे बचपन के अल्हड दिनों को 
अश्लील कल्पनाए सौंपने वाले मौसा के विरुद्ध मेरा वाद दर्ज किया जाये मी लॉर्ड 
क्या फर्क़ पडता है कि अब उसे लक़वा मार गया है 
कि वह अब बिस्तर में पड़ा अपनी आखिरी साँसे गिन रहा है 
छह वर्ष से चौदह वर्ष की उम्र तक साल में कम से कम दो बार आते जाते 
मासूम देह के साथ किये उसके खिलवाड़ों ने 
छीन ली जो बचपन की मासूम कल्पनाएँ वे मुझे लौटाई जायें मी लॉर्ड
मुझे ही क्यों सोचना पड़े कि क्या सोचेंगे उसके नाती और पोतियाँ उसके बारे में 
कि बुढापे में ऐसी थू थू लेकर कहाँ मुँह छिपायेगा 

क्यों सोचूँ मैं उन चाचाओंभाइयों और मकान मालिक के बेटों के बारे में 
उन सबको जेल में भर दिया जाये मी लॉर्ड 
कि अपनी मासूम यादों में आखिर कितने जख्‍मों को लिये जीती रहूँ मैं 
मैं उस सहकर्मी के खिलाफ शिकायत दर्ज कराना चाहती हूँ
जो रोज़ाना सामने की सीट पर बैठ कर घूरा करता था 
और रातों को किया करता था गुमनाम फोन कॉल 
उसे गिफ्तार किया जाये और 
मेरे साथ इंसाफ किया जाये मी लॉर्ड

उस लड़के के विरुद्ध भी मेरी शिकायत दर्ज की जाये 
जिसने प्यार को औजार की तरह इस्तेमाल किया 
और जिसने मेरी देह से सोख लिया सारा नमक 

मेरे बच्चों को मेरे ही नाम से जाना जाये मी लॉर्ड 
कि बच्चे मेरे रक्तबीज से बने हैं 
मैं ही अपने बच्चो की माँ हूँ और पिता भी 
बच्चों के नाम के साथ पिता के नाम की अनिवार्यता को समाप्त किया जाये मी लॉर्ड 
कि सिर्फ वीर्य की कुछ बूँदें उसे पिता बना देती है और 
मेरी मांस मज्जामेरे नौ महीने 
मेरा दूध 
मेरी रातो की नींद

सिर्फ एक कर्म जिसके पीछे भी छुपा था प्यार 
या निरी वासना और गुलाम बनाने की मानसिकता 
कैसे उसे दे सकता है मेरे बराबरी का अधिकार 
इस व्यवस्था को बदलिये मी लॉर्ड 
कुछ कीजिये हुज़ूर कि इसमें छुपा अन्याय का दंश अब और सहा नहीं जाता है 

अगर आपका कानून लगा सकता है 
तमाम उम्र सुनाने में अपने फैसले 
तो मेरी तमाम उम्र की शिकायत क्यूँ आज दर्ज नहीं की जा सकती मी लॉर्ड 


देवयानी भारद्वाज 
_________________________________________________
हिन्दी की महत्वपूर्ण युवा कवि. सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय. इन दिनों जयपुर में. उनकी कुछ कवितायें यहाँ भीपढ़ें.

यह लगभग नामुमकिन है कि कोई लेखक अपनी रचना प्रक्रिया बता सके- कुमार अम्बुज

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 ख्यात कवि कुमार अम्बुज से प्रीति सिंह परिहार का यह साक्षात्कार किंचित संपादित रूप में प्रभात खबर में प्रकाशित हुआ था. कवि की अनुमति से यहाँ यह अविकल रूप में...





* आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई, ये एहसास कब और कैसे हुआ कि आपको लिखना है, इसके पीछे क्या प्रेरणा थी?

कुमार अम्बुज - प्रीति जी, काश, इन चीजों का कोई ठीक-ठीक उत्तर दिया जाना संभव होता। प्रेरणाएँ दरअसल अपनी व्यग्रता, असहायता, आकांक्षा, आशा, असफलता और निराशा के केंद्रों या परिधियों में ही कहीं छिपी रहती हैं। धीरे-धीरे वे अपनी गिरफ्त में लेती जाती हैं। उसका कोई प्रथम बिंदु याद करना अपने माथे पर लिए जाने  वाले पहले चुंबन को याद करने जैसा असंभव काम है।

* पहली रचना जो आपकी कलम से निकली?

कुमार अम्बुज -  जो संकलित हैं उनमें से ‘पढ़ाई’ और ‘आत्मकथ्य की सुरंग में से’ कविता के कुछ हिस्से, जो पहले संग्रह ‘किवाड़’ में हैं।
अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताइए? कोई रचना कैसे जन्म लेती है और उसे आकार देने की प्रक्रिया क्या होती है?

कुमार अम्बुज - यह लगभग नामुमकिन है कि कोई लेखक अपनी रचना प्रक्रिया बता सके। वह केवल अपनी आदतों, मुश्किलों और दिनचर्या का ही बयान कर सकता है। बहरहाल, इस बारे में मेरा विस्तृत नोट भी है जो अभी ‘कवि ने कहा’ सीरीज में आरंभिक वक्तव्य के रूप में दिया है तथा अन्यत्र भी प्रकाशित है। उन्हीं बातों को यहाँ दोहराना उचित नहीं। 

* आपके लेखन की मूल चिंता क्या है?
कुमार अम्बुज- अपना समाज। और राजनीति। नागरिक प्रतिरोध। और अपना अवसाद।

* आप अपनी पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठ भूमि का अपनी रचनाशीलता से क्या संबंध पाते हैं?
कुमार अम्बुज- यदि मेरे प्रारंभिक जीवन और पारिवारिकता में किंचित गरीबी, उपेक्षा, रूढ़ियाँ, ग्रामीण एवं कस्बाई परिवेश और अनिश्चितताएँ न होतीं तो अनेक अनुभवों से वंचित रह जाता। तमाम तरह के प्रश्नों से भी फिर उस तरह से उलझने के लिए प्रेरित न होता, जैसा कि दरअसल हुआ। फलस्वरूप एक वैचारिक तैयारी में भी जुटना पड़ा। ये सब रचनाशीलता का हिस्सा होते चले जाते हैं।

* साहित्य लेखन में कल्पना की भूमिका कितनी जरूरी लगती है आपको?
कुमार अम्बुज - दृष्टि, विचार और औचित्य के बिना कल्पना निरी कल्पना होती है। कल्पना से ज्यादा मैं कहूँगा कि लेखन में स्वप्नशीलता की कहीं अधिक महत्वपूर्ण और प्रभावी भूमिका है।

*आपकी नजर में आपके लेखन का सबसे मुश्किल पक्ष क्या है?
कुमार अम्बुज- ठीक अगली रचना लिखना।

*आपने कवि होना ही क्यों चुना जबकि आप बेहतरीन गद्य भी लिखते हैं, ‘इच्छाएं’ इसका प्रमाण है?
कुमार अम्बुज - इस तरह प्रशंसा के लिए धन्यवाद। लेकिन प्रत्येक रचनाकार की एक सीमा और एक ताकत होती है। मेरी यह ताकत और यह सीमा शायद कवि होने में ही कहीं विन्यस्त है, ऐसा भ्रम मुझे लगातार रहा है।

*आपने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि एक कहानीकार, उपन्यासकार और आलोचक की तुलना में कवि इस संसार में अधिक मिसफिट या अवसादग्रस्त व्यक्ति होता है. ऐसी कौन सी बाते हैं जो उसे मिसफिट या अवसादग्रस्त बनाती हैं?
कुमार अम्बुज - कवि की संरचना में स्वप्नशीलता और आकुलता का, भावुकता और अवसाद का, उम्मीद और असंतोष का, धरती और आकाश का, वासना और ईष्र्या का, होने और न होने का, अजीब सा मिश्रण होता चला जाता है। शायद यहीं कहीं आपके प्रश्न का उत्तर है।

* क्या रचना पूरी होने के बाद भी कभी किसी अधूरेपन या अपनी बात ठीक से न कह पाने के एहसास से गुजरना पड़ता है?
कुमार अम्बुज- कभी-कभी जरूर ही। लेकिन फिर ज्यादा कुछ उपाय हो नहीं सकता।

*ऐसी कोई रचना जिसे लिखने के बाद सबसे अधिक सुकून का अहसास हुआ हो?

कुमार अम्बुज- अपनी पिछली पाँच-सात रचनाओं को लेकर ही मैं सर्वाधिक खुशी महसूस कर पाता हूँ। फिर उनसे एक दूरी बनती चली जाती है। फिर भी, ‘जंजीरें’, ‘क्रूरता’, ‘अमीरी रेखा’, ‘शाम’, ‘मेरा प्रिय कवि’, ‘रात तीन बजे’, ‘उपकार’, ‘अन्याय’, ‘यहाँ पानी चाँदनी की तरह चमकता है’, माँजता है कोई मुझे, जैसी चालीस-पचास कविताओं को लिखने का सर्जनात्मक संतोष कुछ ज्यादा दिनों तक रहा, जो अब सोचने से याद किया जा सकता है। ‘कहना-सुनना’, ‘संसार के आश्चर्य’, ‘गुमने की जगह’, ‘माँ रसोई में रहती है’ और ‘बारिश’ जैसी दस-बारह कहानियों को लेकर भी शायद यह कह सकता हूँ।


* हिंदी साहित्य में किन लेखकों का लेखन प्रभावित करता रहा है? ऐसा कोई लेखक या रचना जिसे आपने बार-बार पढ़ा हो और उससे प्रेरित हुए हों?
कुमार अम्बुज- तुलसीदास और कबीर। फिर मुक्तिबोध। प्रेमचंद, रेणु, अमरकांत, श्रीकांत वर्मा, ज्ञानरंजन। शेखर जोशी की ‘कोसी का घटवार’, अज्ञेय की ‘रोज’ जैसी कहानियाँ कविताओं की तरह भी पढ़ता रहा हूँ । रघुवीर सहाय, धूमिल विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, चंद्रकांत देवताले, केदारनाथ सिंह, मंगलेश डबराल, ज्ञानेन्द्रपति, भगवत रावत, विमल कुमार के शुरूआती संग्रहों की कविताओं को भी मैं अकसर पढ़ता हूँ । इसी तरह श्रीकांत वर्मा, आलोकधन्वा, अरुण कमल, राजेश जोशी, देवी प्रसाद मिश्र, अनीता वर्मा की कुछ कविताएँ। ‘अँधेरे में’ कविता बार-बार।

* विश्व साहित्य में किसे पढ़ना पसंद करते हैं और कौन सी रचना को अपने करीब पाते हैं?
कुमार अम्बुज-  वाॅल्ट व्हिटमैन, नेरुदा, रिल्के, शिम्बोस्र्का, अमीखाई और गद्यकारों में दोस्तोएव्स्की, चेखव, गोर्की, पेसोआ, मुराकामी, और इधर पामुक और यो मान भी। यों एक लंबी सूची है। कथा में बोर्खेस अप्रतिम, चुनौतीपूर्ण हैं। आदर्श बनाने की हद तक परेशान करते हैं।

*आपके समकालीनों में किनकी रचनाएं पसंद हैं, और क्यों? कोई ऐसी रचना जिसका जिक्र पाठकों से करना चाहें?
कुमार अम्बुज-  कुछ नाम तो ऊपर आ ही गए हैं। ‘क्यों’ का जवाब दिए बिना कहूँ तो लगभग तीस से अधिक वे नाम आएँगें जो अपने-अपने सर्जनात्मक कारणों से पिछली चैथाई सदी से चर्चा में रहते आए हैं। इसलिए एकदम नयों में देखें तो विमल चंद्र पाण्डेय, मनोज कुमार झा, नीलोत्पल, अमित उपमन्यु की रचनाओं ने ध्यान आकृष्ट किया है। हरिओम राजोरिया, शिरीष कुमार मौर्य और अशोक कुमार पाण्डेय जैसे कवि अपनी दृष्टिसंपन्नता और कहन के कारण भी ध्यानाकर्षण योग्य हैं।

*साहित्य की वर्तमान स्थिति पर क्या कहना चाहेंगे?
कुमार अम्बुज- हिन्दी भाषा को जिस तरह से कामकाज से, प्राथमिक और उच्चतर शिक्षा से बहिष्कृत कर दिया गया है उससे हिंदी साहित्य के लिए भी संकट है। इससे नयी पीढ़ी की हिंदी के श्रेष्ठ साहित्य से परिचय और उत्साह की मुश्किल भी बनती चल जाएगी। यों साहित्य की वर्तमान स्थिति नवोन्मेषी है। बहुतेरे लेखक सामने आ रहे हैं। उम्मीद से और थमकर उन्हें एक पाठक की तरह पढ़ना दिलचस्प है।

*वर्तमान समय में समाज का सबसे बड़ा संकट क्या है और लेखक की इस संकट के समय में क्या भूमिका देखते हैं?
कुमार अम्बुज-  पूँजीवाद। और उससे उत्पन्न तमाम उपभोक्तावादी, विस्मयकारी असमानता के तथा अन्यायी समाज के लक्षण। और अन्य नैतिक, शहरी और ग्रामीण जीवन के पारिवारिक संकट। लेखक को गहरी वैचारिक दृष्टि और प्रतिबद्धता के साथ अपनी पक्षधरता जाहिर करना चाहिए। ऐसे समय में कलावादी गलियारों में टहलना लगभग अपराध है।

*लेखन से इतर और क्या करना पसंद है आपको, लिख नहीं रहे होते हैं तो क्या करना पसंद है?
कुमार अम्बुज-  फिल्में। ऐसी फिल्में जो मैं व्यस्ततावश या अनुपलब्धता के कारण या सीमित जानकारी की वजहों से पहले नहीं देख सका था। आलस में पड़े रहना, झपकियाँ लेना और सोना, एक ही श्रेणी के ये तीन काम प्रमुख हैं, जिन्हें निबटाना पड़ता है। इसी बीच में पढ़ना भी हो जाता है। फिर संध्या यानी पत्नी से नोंकझोंक और गपशप। यों, रात का आसमान देखना सबसे प्रिय है। कृष्ण पक्ष का विशेष तौर पर

*इन दिनों क्या नया लिख और पढ़ रहे हैं?
कुमार अम्बुज-  इधर कुछ नए कहानी और कविता संग्रह आए हैं, उन्हें पलट रहा हँू। कुछ कहानियों के बारे में और कुछ कविताएँ लिखने के बारे में सोचता रहता हूँ। कई महीनों से सोच रहा हूँ। फिलहाल, इसी सोचने को लिखना मानिए। सोचना, लिखने का पहला पायदान तो है ही।


जागता रहे एक सुनहली शाम का वहम - वंदना शर्मा

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असुविधा के पाठक वंदना शर्मा से परिचित हैं. आज उनकी यह कविता उन्हें जन्मदिन की अशेष शुभकामनाओं के साथ 

मैक्स लायेंजा की पेंटिंग यहाँसे 


'दुनिया सिर्फ रोक गार्डन है'
ढाढस् बंधाती हूँ कि अब कच्चे नही रहे बर्तन
आग पर चढें या गलाए जाएँ पानी में
लगता तो है कि रहेंगे बेअसर
बार बार घिसे जाने के बाद भी
भोर के तारे सी बचे रहेगी चमक
सब ऐसा, नही था पहले पहल
थोड़ी और सचेत हो गई हैं
चौकने के फ़ौरन बाद की सूरतें
दिल दिमाग के मध्य पसर गए हैं सनस्क्रीन ..
झर ने की लय से भरा है हाथों से फिसलता रेत ..
डूब गया है सूना आकाश तक बुहर जाने के आह्लाद में
सुबहें अकेले सूरज इकलौते चाँद वाली नही रहीं
भरा पूरा है आजकल आकाश ..
दिन किसी भी रंग का हो सकता है इस चेतावनी के बाद
हैरानियाँ मन मसोस प्रतीक्षा में हैं कि कामयाब हों..
हो चले हैं सारे मौसम गर्मियों के
चुह्चुहाते पसीने से दिक्कत नही है
जलते खून से,
बेतरह, बेवजह खर्च होती उम्र से भी दिक्कत नही है
तो ये कौन सी फिक्रें है ..
कि न टूटने पायें तश्तरियां प्याले मटकियां
प्रतिबिम्ब ही सही कैसे भी दीखतें रहें साबुत
भ्रम ही सही बचा रहे आँखों में जल
लगता रहे बार बार कि किसी रोज पहुँच ही जायेंगे पास
बनी रहे आखिर तक एक ही चूल्हे की आस,
जागता रहे एक सुनहली शाम का वहम,
टिका रहे एक भरोसा वफादार रात्रि का
कहीं भीतर चटके आगंन में
हरा रहे कोई एक सदाबहार बिरवा
सारे अन्धंडों के बाद,
झूमता रहे साथ ..

बेगुनाही भी जद में हों, उम्रकैद की
नाक की सीध में भी पूरे आसार हों, टक्करों के
और तय पाया जाए कि दुनिया सिर्फ एक रोक गार्डन है
तो कबाडी और स्त्रियों का शुक्रिया कहो
जो कब से बचाएं हैं धरती पर सौंदर्य ..

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वंदना शर्मा 

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित. अंतर्जाल पर भी सक्रियता. सम्प्रति मोदीनगर के एक कालेज में हिंदी की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर

असुविधा में उनकी कुछ और कवितायें यहाँ 

असुविधा टाकीज़- बिलवड : एक अनोखी-हॉन्टिंग फ़िल्म

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विजय शर्मा 


फ़िल्में तो बहुत देखीं, तरह-तरह की फ़िल्में देखीं। मगर बिलवड जैसी न देखी। ऐसी फ़िल्में रोज-रोज नहीं बनती हैं। टोनी मॉरीसन मेरी एक पसंदीदा उपन्यासकार हैं, उनका पुलित्ज़र पुरस्कार प्राप्त उपन्यास बिलवड’ कई बार पढ़ा। कई बार पढ़ना ही बताता है कुछ विशेष है इसमें। अन्यथा क्योंकि पढ़ती इसे बार-बार। मगर फ़िल्म देखने का अवसर अब जा कर मिला। आश्चर्य होता है फ़िल्म विधा पर और फ़िल्म निर्देशक जोनाथन डेम की समझ तथा उपन्यास के प्रति उनकी ईमानदारी पर। अक्सर जब किसी उपन्यास-कहानी पर फ़िल्म बनती है तो वह बहुत अलग होती है। ऐसा होना स्वाभाविक है क्योंकि दोनों अलग माध्यम है। विरले ही कोई फ़िल्म बिलवड जितनी सुंदर बनती है। पता नहीं चलता है किसकी अधिक तारीफ़ की जाए, उपन्यासकार की, निर्देशक की, अभिनेताओं की। सबकी करनी पड़ेगी। अभिनेताओं में निश्चय करना कठिन है कि किसका अभिनय बेहतर है। सेथे के रूप में ओफ़्रा विन्फ़्रे का, पॉल डी के रूप में डैनी ग्रोवर का अथवा बिलवड के रूप में थेंडी न्यूटन का। ओफ़्रा विन्फ़्रे ने स्वाभाविक अभिनय कर उपन्यास की नायिका के दु:ख-तकलीफ़, उसके मानसिक द्वंद्व, अपराधबोध सबको परदे पर साकार कर दिया है।

असल में इस फ़िल्म बनने के पीछे ओफ़्रा विन्फ़्रे का बहुत बड़ा हाथ है।ओफ़्रा विन्फ़्रे ने जबसे बिलवड’ पढ़ा वे उसे परदे पर लाने के लिए बेताब थीं। १९९६ में उन्होंने अपना प्रसिद्ध और लोकप्रिय बुक क्लब प्रारंभ किया और तभी घोषणा कर दी कि उनके क्लब के दूसरे महीने का चुनाव टोनी मॉरीसन का उपन्यास सॉन्ग ऑफ़ सोलोमन’ होगा। तुरंत मॉरीसन की किताबों की बिक्री बढ़ गई। ओफ़्रा के बुक क्लब की यह खासियत है उनके यहाँ नाम आते ही रचनाकार का सम्मान बढ़ जाता है, उसकी किताबों की बिक्री तेज हो जाती है। मॉरीसन के प्रकाशक ने भी चमत्कार दिखाया, उसने सजिल्द प्रतियों का दाम कम कर दिया ताकि ज्यादा-से-ज्यादा पाठकों तक किताब की पहुँच हो सके। काश भारत में भी ऐसी कोई योजना बनती, होती। ओफ़्रा और मॉरीसन का एक साझा और लम्बा संबंध कायम हुआ। १९९८ में इस क्लब ने पैराडाइज’ को चुना, २००० में द ब्लूएस्ट आई’ और २००२ में इस क्लब ने सूला’ को अपने टॉक शो में रखा। हर बार टोनी मॉरीसन ओनलाइन चुने हुए स्टूडिओ में उपस्थित अपने पाठकों से विमर्श करतीं।

ओफ़्रा नेबिलवड’पर अपने क्लब में विमर्श नहीं किया बल्कि इस पर फ़िल्म बनाने का निश्चय किया। खुद को उन्होंने प्रमुख भूमिका में तय किया,  डैनी ग्लोवर को पॉल डी की भूमिका में रखा। ओफ़्रा ने टोनी के साथ मिलकर स्क्रिप्ट तैयार की और कई फ़िल्म निर्देशकों के पास भेजी। वे सेथे और गुलामी की कहानी वृहतर दर्शकों तक ले जाना चाहती थीं। अकादमी पुरस्कृत निर्देशक जोनाथन डेम ने फ़िल्म बनाने की हामी भरी। ओफ़्रा विन्फ़्रे की फ़िल्म कम्पनी ने इस फ़िल्म को प्रड्यूस किया। अकोसुआ बुसिया, रिचर्ड लाग्रेवेंस, एडम ब्रुक्स तीन लोगों ने मिल कर फ़िल्म की कहानी लिखी। दस साल के एक लम्बे समय के बाद फ़िल्म बन कर तैयार हुई। फ़िल्म की शूटिंग के समय एकाध बार टोनी मॉरीसन सेट पर गई फ़िर उन्हें लगा कि वहाँ उनका कोई खास काम नहीं है। उन्होंने निर्देशक और विन्फ़्रे पर सारा काम छोड़ दिया। सुपरनेचुरल कहानी के लिए प्रयोग किए गए स्पेशल इफ़ैक्ट कहानी को आधिकारिक बनाते हैं। संगीतकार रेचल पोर्टमैन का काम फ़िल्म को विशिष्टता प्रदान करता है। फ़िल्म प्रदर्शन के पूर्व इसकी खूब पब्लिसिटी की गई थी। टाइम’ तथा वोग’ मैगज़ीन ने इसे अपनी कवर स्टोरी बनाया, ओफ़्रा ने अपने टॉक शो में इसे चर्चित किया।

अभिनेता डैनी ग्लोवर पॉल डी की भूमिका में पूरी तरह उतर गए हैं। वे कमाल के एक्टर हैं उन्होंने एलिस वॉकर के उपन्यास द कलर पर्पल’ पर इसी नाम से बनी में मिस्टर अल्बर्ट की भूमिका की है। वहाँ भी वे कमाल करते हैं, हालाँकि निर्देशन स्पीयलबर्ग का है, शायद इसी कारण फ़िल्म काफ़ी कमजोर है। बिलवड’ फ़िल्म में डैनी के चेहरे की रेखाओं का उतार-चढ़ाव कई बातें बिना बोले स्पष्ट कर देती हैं। पॉल डी और सेथे एक दूसरे को स्वीट होम’ के गुलामी के दिनों से जानते थे। बाद में जब वे १२४ ब्लूस्टोन के घर में मिलते हैं तो अतीत एक बार फ़िर से वर्तमान बन कर उन्हें घेर लेता है। १८ साल के बाद भी गुलामी के शारीरिक, भावात्मक और मानसिक घाव भरे नहीं हैं।

फ़िल्म एक साथ इतिहास, रहस्य, गुलामीगाथा और रोमांस सब समेटे हुए है। फ़िल्म शुरु होती है भूत की कारस्तानियों से घबरा कर सेथे के दो किशोर बेटों के घर छोड़ कर भागने से। सेथे अपनी बेटी डेनवर (किम्बरले एलिस) के साथ रह रही है। भूत का कहर सेथे को परेशान नहीं करता है क्योंकि वह इसका कारण जानती है। पॉल डी घर में घुसते इसके विषय में पूछता है। वह कुछ समय के लिए उसे भगा पाने में सफ़ल होता है। सेथे, पॉल डी और डेनवर एक सुखी परिवार की तरह रहने लगते हैं। जल्द ही सब कुछ फ़िर से बिखर जाता है। बच्ची जैसी भूखी-प्यासी, थकी-हारी एक युवती सेथे के दरवाजे पर आती है। उसे लेकर सबका अलग-अलग रवैया है। सेथे उसे जानने-समझने को उत्सुक है, पॉल डी उस पर अविश्वास और संदेह करता है। डेनवर उसे बहन मान कर उसकी सेवा-सुश्रुषा करती है, खिलाती-पिलाती है। लड़की अपना नाम बिलवड बताती है, उसकी जरूरतें – भूख, प्यार, अधिकार – सब बेहिसाब हैं। वह पॉल डी को घर से निकाल बाहर करती है। सेथे को डेनवर के लिए एक पल को नहीं छोड़ती है। सेथे उसके चंगुल में कसती जाती है, मानसिक संतुलन खोने लगती है। बिलवड उसे लगातार उसके एक जघन्य कार्य की याद दिलाती है। अंत में डेनवर परिवार को फ़िर से सामान्य बनाती है।

बिलवड के रूप में ब्रिटिश अभिनेत्री थेंडी न्यूटन शरीर से किशोरी मन से शिशु का व्यक्तित्व उसी तरह निभाती है जैसे एक शिशु की हत्या होने पर आत्मा एक किशोरी के शरीर में प्रवेश कर आए। ऐसा ही हुआ है। बिलवड दो साल की थी जब सेथे ने उसको गुलामी के शिकंजे से बचाने के लिए मार डाला था। १८ साल के बाद वह आई है। आसान नहीं है यह चरित्र, बहुत कठिन है इस जटिल चरित्र को निभाना। न्यूटन ने इसे भरसक निभाया है, बिलवड को सजीव कर दिया है। वह किशोरी दीखती है, शिशु जैसा व्यवहार करती है। दर्शक अनुभव करता है, विश्वास करता है कि बिलवड एक किशोरी के शरीर में एक शिशु का मन है। भूल नहीं सकता है दर्शक इस भूत को, इस हॉन्टिंग चरित्र को। टोनी मॉरीसन को बधाई देनी चाहिए ऐसा चरित्र रचने के लिए और न्यूटन बधाई की पात्र है ऐसा चरित्र इतनी कुशलता से निभाने के लिए। कुछ दृश्य इतने पॉवरफ़ुल हैं कि सदैव याद रहेंगे। बिलवड का पॉल डी के पास जाकर उससे कहना, “मुझे यहाँ स्पर्श करो, मुझे भीतर स्पर्श करो, मेरा नाम लो।” इसी तरह उसका अंत भी नहीं भूला जा सकता है। वह जैसे रहस्यमय तरीके से अवतरित हुई थी वैसे ही रहस्यमय ढ़ंग से गायब हो जाती है।

फ़िल्म की कहानी उपन्यास की भाँति समय में आगे-पीछे चलती रहती है। कभी गुलामी का हादसा होता है, कभी स्वतंत्र जीवन का रोमांस फ़लता-फ़ूलता है। अमानवीय क्रूरता को स्मरण करते हुए सेथे और पॉल डी का प्रेम करना बहुत मर्मस्पर्शी फ़िल्मांकन है। इसी तरह सेथे की सास बेबी शुग्स (बीच रिचर्ड्स) का प्रकृति के बीच प्रवचन देता रूप एक अलौकिक अनुभव देता है।

सेथे ने जो किया वह क्यों किया यह तो स्पष्ट है पर क्या वह जायज है? क्या सही है, क्या गलत है, बताना बहुत कठिन है। बड़ा आसान है पॉल डी की तरह सेथे से कह देना तुम दोपाया हो, चौपाया नहीं। सेथे को उसका समाज सजा से बचा लेता है पर वह खुद को निरंतर सजा देने से रोक नहीं पाती है। ऊपर से शांत और सामान्य दीखती सेथे के भीतर जो घुट रहा है, जो चल रहा है, वह बहुत जटिल है। यह जटिलता फ़िल्म में दीखती है। यह जटिलता दर्शक की अनुभूति का अंग बनती है। बिलवड का अवतरण इसे और बढ़ाता है। फ़िल्म दिखाती है कि मनुष्य कितना ऊपर उठ सकता है और कितना नीचे गिर सकता है। क्या हो सकता है और क्या होता है।

मानसिक-भावात्मक यंत्रणा, रूपकों को साकार करने के लिए निर्देशक डेम और कलाकारों ने जो मशक्कत की है, वह अपनी पूर्णता को पहुँचा है। पात्रों की जिजीविषा, उनका मानसिक-शारीरिक संघर्ष, गुलामी की क्रूरता, मातृत्व की पराकाष्ठा, क्षण में लिया गया जीवन उलट-पुलट करने वाला निर्णय, उस निर्णय का प्रतिफ़ल, क्या कोई अन्य निर्णय लिया जा सकता था, अतृप्त आत्मा, अपराधबोध, पारिवारिक संबंध सब फ़िल्म समाप्त होने के बाद भी दर्शक को छोड़ते नहीं हैं। दोबारा फ़िल्म देखने को बाध्य करते हैं। दोबारा देखने पर और खूबसूरत-मार्मिक अर्थ खुलते हैं। कुछ किताबें बार-बार पढ़ने की माँग करती हैं, कुछ फ़िल्में बार-बार देखे जाने की माँग करती हैं। बिलवड उनमें से एक है। दस साल लगे बनने में पर जो कलात्माक फ़िल्म बन कर तैयार हुई उसका एक-एक पल सार्थक है। कुछ चमत्कार होते हैं, कुछ चमत्कार किए जाते हैं। बिलवड के कथानक में चमत्कार हुए हैं, निर्देशक डेम ने फ़िल्म में चमत्कार किए हैं। हो सके तो अवश्य देखें, संजोने योग्य एक अनोखी अनुभूति पाएँ।
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विजय शर्मा 
हिन्दी की महत्वपूर्ण आलोचक हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, उपन्यास, फिल्मों तथा शिक्षा पर प्रचुर लेखन के अलावा आपने साहित्य के नोबेल पुरस्कार प्राप्त पंद्रह लेखकों पर केन्द्रित एक पुस्तक 'अपनी धरती, अपना आकाश-नोबेल के मंच से' (प्रकाशक -संवाद प्रकाशन) तथा वाल्ट डिजनी पर एक किताब  "वाल्ट डिज्नी - एनीमेशन का बादशाह"  (प्रकाशक -राजकमल) लिखी है और एक विज्ञान उपन्यास का अनुवाद ''लौह शिकारी" के नाम से किया है. इन दिनों वह जमशेदपुर के एक कालेज में शिक्षा विभाग में रीडर हैं. असुविधा पर उनकी फिल्म समीक्षाएं यहाँ 
* १५१ न्यू बाराद्वारी, जमशेदपुर ८३१ ००१, फ़ोन: ०६५७-२४३६२५१, ०६५७-२९०६१५३,मोबाइल : ०९४३०३८१७१८, ०९९५५०५४२७१,  ईमेल : vijshain@yahoo.comvijshain@gmail.com  




संकट हिंदी कविता नहीं असल में हिंदी आलोचना का है

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(यह आलेख परिकथा के युवा कविता अंक में छपे एक आलेख का परिवर्तित, परिवर्धित और संशोधित रूप है, जिसे ‘चिंतन दिशा’ मेंसमकालीन कविता पर चल रही बहसके लिए फिर से लिखा गया. ) 

क्रिस लोखार्ट की पेंटिंग यहाँ से 



(एक)

कभी सोचना कि किन अभिशप्त रातों में जन्म हुआ था हमारा

नब्बे का दशक स्वतन्त्र भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण विभाजक रेखा है. सोवियत संघ के विघटन के साथ जहाँ एक तरफ समाजवादी राज्य का स्वप्न खंडित हुआ वहीं दूसरी तरफ देश के भीतर नेहरूयुगीन अर्थव्यवस्था को तिलांजलि दे नई आर्थिक नीतियों के नाम से जो नीति लागू की गयी उसने भारत को विश्व साम्राज्यवाद से नाभिनालबद्ध कर दिया. ऐसा नहीं कि इसके पहले जो नीतियाँ लागू थीं वे किसी समतामूलक समाज की स्थापना के उद्देश्य से परिचालित थीं, लेकिन दो-ध्रुवीय विश्व अर्थव्यवस्था में सोवियत ब्लाक की उपस्थिति और देश में एक मजबूत समाजवादी आंदोलन की उपस्थिति ने राज्य पर थोड़ा नियंत्रण तो रखा ही था. हालाँकि भारतीय लोकतंत्र से मोहभंग तो साठ के दशक में ही शुरू हो गया था और सत्तर का दशक आते-आते नक्सलबारी के रूप में जो जनउभार सामने आया था उसका प्रतिबिम्बन साहित्य में भी साफ़ दिखाई दिया था. मुक्तिबोधअगर रक्तपायी वर्ग से बुद्धिजीवियों की नाभिनालबद्धता देख पा रहे थे तो सत्तर और अस्सी के दशक का कवि उसके खिलाफ पूरे दम-ख़म के साथ खड़ा था और सत्ता व्यवस्था को चुनौती दे रहा था. कुमार विकल, गोरख पांडे, आलोक धन्वाजैसे वामपंथी और नक्सल समर्थक कवि ही नहीं अपितु धूमिल जैसे गैर वामपंथी कवियों का स्वर भी व्यवस्था के प्रखर विरोध से भरा हुआ था. लेकिन इस विरोध की खासियत थी इसमें अन्तर्निहित एक प्रचंड आशावाद. दुनिया के शीघ्र बदल जाने का एक आत्मविश्वास और इसका हिस्सा होने की जिद. ज़ाहिर तौर पर यह उस दौर की राजनीतिक हकीक़त से उपजा था. नक्सलवादी आंदोलन की विफलता फिर आपातकाल और उसके बाद सम्पूर्ण क्रान्ति के नाम पर चले आंदोलन की विफलता, सोवियत संघ का बिखराव, एक ध्रुवीय विश्व के सरगना के रूप में विश्व साम्राज्यवाद के अनन्य नायक की तरह अमेरिका के उद्भव तथा भारतीय शासक वर्ग के उसके समक्ष सम्पूर्ण समर्पण ने नब्बे के दशक में जो सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक परिस्थितियाँ उपस्थित कीं उनके प्रभाव में उसका चेहरा और उसकी अंतर्वस्तु को अपने पिछले दौर से अलग होना ही था. यहाँ उस प्रचंड आशावाद का ताप मद्धम पड़ा, चिंताएँ और गहरे रूप में सामने आईं, एक निराशा और दुःख का प्रतिबद्ध कवियों की कविताओं में दिखाई दी तों तमाम लोगों के विश्वास सोवियत संघ के विघटित होने के साथ ही खंडित हुए और उन्होंने किसी आमूलचूल परिवर्तन की उम्मीद छोडकर अपनी दूसरी राह चुन ली. हम आगे उन नयी प्रवृतियों और कमजोर पड़ चुकी कुछ पुरानी प्रवृतियों के उद्भव और उनके स्रोतों पर भी विस्तार से बात करेंगे.

नब्बे के दशक के बिल्कुल आरंभिक दौर में इंडिया टुडे में प्रकाशित कुमार अम्बुज की कविता ‘क्रूरता’इस दौर की कविताओं की प्रवृति को स्पष्टतः रेखांकित करती है. अपनी पूर्ववर्ती कविता के तीव्र स्वर से अलग यह कविता समाज में वर्चस्व जमाती जा रही शक्तियों की मंशा का खुलासा करती है. अपने बेहद सब्लाइम ट्रीटमेंट के साथ यह कविता नव उदारवाद के मानवविरोधी चरित्र को रेशा-रेशा खोलती है. यहाँ नब्बे के दशक में पैर जमाते सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद दोनों की पदचाप साफ़ सुनाई देती है और साथ ही इसके प्रभावों को जिस तरह अम्बुज रेखांकित करते हैं वह कविता की उस ताक़त को बताता है जिससे वह भविष्य के खतरों को देख-समझ पाती है तथा समाज को उसके प्रति आगाह करती है. इस कविता में दिख रही निराशा को समझने के लिए हमें डा नामवर सिंहके भाषण की इन पंक्तियों को याद करना होगा – ‘जो लोग कलकत्ते में हैं और इस वामपंथी सरकार को देखकर समझते हैं कि हिन्दुस्तान में भी क्रान्ति या समाजवाद आया हुआ है तो मैं उनसे कहूँगा कि थोड़ी सी निराशा बचाए रखो. वह समझ देगी, विवेक देगी और ताक़त देगी. घनघोर आशावाद तुम्हें धाराशायी करेगा. कवि है जो सतर्क रहता है. आत्म प्रवंचना है आशावाद, इसीलिए उस निराशावाद को बचाए रखो.’ (देखें वागर्थ, २३ फरवरी १९९७, पेज -३१) नब्बे के दशक के बाद की कविता इसी ‘सतर्क निराशावाद’ की कविता है. यह अलग बात है कि कहीं-कहीं ‘सतर्कता’ सयानेपन में बदल जाती है तों कहीं-कहीं ‘निराशावाद’ अवसरवाद में.

( दो )
मोनोलिथ नहीं होती किसी भी दशक की कविता

लेकिन इस तथ्य के बावजूद इस दशक की कविता का कोई इकहरा चेहरा प्रस्तुत करना सरलीकरण होगा. वाम की तात्कालिक पराजय, पश्चिम में इतिहास के अंत की घोषणाओं के साथ उत्तरआधुनिकता के बढ़ते वर्चस्व, देश के तमाम हिस्सों में उग्र आन्दोलनों के प्रभाव, बाज़ार के लगातार पूँजी केंद्रित होते जाने के साथ एक ध्रुवीय विश्व के नेता अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ भारती शासक वर्ग के गठबंधन और देश में साम्प्रदायिक शक्तियों की ताक़त में लगातार बढोत्तरी के प्रभाव में हिन्दी साहित्य में भी अनेकानेक प्रवृतियाँ जन्मीं. यही कारण है कि इस युग के लिए कोई एक नाम दे पाना आलोचकों के लिए संभव नहीं हुआ. उस समय से लेकर इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के बीच तक लिखी गयी कविताओं में अलग-अलग तरह की तमाम प्रवृतियाँ दिखती हैं. एक तरफ वाम अब भी विचार के रूप में संघर्ष तथा प्रतिरोध के आकांक्षी कवियों के लिए महत्वपूर्ण था तो दूसरी तरफ खुद को वाम कहने वाले तमाम कवि अस्मिताओं की पहचान पर जोर देने वाले विमर्शों की कविताएँ लिख रहे हैं. दलित और स्त्री विमर्श इस दौर में बेहद महत्वपूर्ण होकर उभरे हैं. साथ ही सोवियत संघ के टूटने के साथ बहुत सारे कवियों और आलोचकों ने वाम का लबादा उतार कर कला और एक खास तरह की लक्ष्यहीन परन्तु सुन्दर कविता का सहारा लिया. इसे ठीक-ठीक कलावाद कहना सही नहीं होगा. क्योंकि अपनी कला की गुणवत्ता के स्तर पर वह वहाँ भी नहीं पहुंचती लेकिन इसकी लाक्षणिकता इसके वाम विरोध में है. उद्देश्यहीन नास्टेल्जिया, दार्शनिक प्रलाप, दैहिक प्रेम, अराजनीतिक आदर्शवाद, आध्यात्म और जड़ों की तलाश तथा दंत नख विहीन मानवतावाद से प्रेरित इन कविताओं को ‘वैश्विक स्तर’ का बताने वाले आलोचकों की भी कोई कमी नहीं. हम आगे इन प्रवृतियों और इनके उभरने के कारणों पर विस्तार से बात करने की कोशिश करेंगे.

अगर नब्बे के दशक की शुरुआत की बात करें तो हमें प्रतिनिधि कवियों के रूप में  एकांत श्रीवास्तव, पवन करण, बोधिसत्व, निलय उपाध्याय, देवी प्रसाद मिश्र, अनिल कुमार सिंह, प्रेम रंजन अनिमेष, संजय कुंदन, हरिओम राजोरिया, मोहन डहेरिया, सुन्दर चंद ठाकुर, शरद कोकास, हेमंत कुकरेती, कृष्ण मोहन झा, अनूप सेठी, नरेश चंद्रकर, बद्री नारायण, केशव तिवारी, आशुतोष दुबे, निरंजन श्रोत्रिय, जितेन्द्र श्रीवास्तव, अनामिका, कात्यायनी, सविता सिंह, नीलेश रघुवंशीआदि दिखाई देते हैं. ये नाम स्मृति के आधार पर हैं और क्रम भी किसी वरिष्ठता के आधार पर नहीं है. अगर देखें तो एक ही तरह के संगठनों से जुड़े होने के बावजूद न केवल इनका स्वर अलग-अलग है बल्कि कई बार वैचारिक स्रोत भी अलग-अलग दिखाई देते हैं. जैसे पवन करणछोटी-छोटी मासूम सी लेकिन प्रतिरोधी कविताओं से शुरू कर स्त्री विमर्श तक पहुंचते हैं. लेकिन उनका ‘स्त्री विमर्श’ मार्क्सवादी या किसी फेमिनिस्ट वैचारिक पद्धति से व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. वह स्वतन्त्र है और एक हद तक अराजक भी. । वह किसी बने-बनाये खांचे में फिट नहीं होते, उन्हें न तो हिंदी के किसी कविता स्कूल की परंपरा से जोड़ा जा सकता है और न ही पश्चिम के किसी नारीवादी स्कूल से वह अपने आसपास के परिवेश की समझ को अपने अनुभवों की धमनभट्ठी में पकाकर सीधे-सीधे रख देते है, कभी-कभी अधपका भी। बोधिसत्व की कविताओं में हिन्दी की शास्त्रीय परम्परा और लोक का गहरा प्रभाव दिखता है लेकिन आगे चलाकर वह  लोक में ऐसा फंसती है कि उनके संकलनों से गुजरते हुए उनमें किसी विकासक्रम को लक्षित कर पाना मुश्किल हो जाता है. एक खास तरह के शिल्प और कथ्य का आधिक्य उनकी क्षमता से अधिक उनकी सीमाएँ दिखाने लगता है. मोहन डहेरियाउन कवियों में से हैं जिन पर आलोचकों ने यथेष्ट ध्यान नहीं दिया. उनकी कविताएँ अपनी अंतर्वस्तु में गहरे राजनीतिक बोध की कविताएँ हैं . उनका आखिरी संकलन प्रेम कविताओं का है, पहले संकलन में यह ‘बीते हुए समय का/ लुप्त होता एक बेहद कठिन वाद्य है’ जिसे वह ‘बेसुरे होते जीवन में पूरी रागात्मकता के साथ’ बजाना चाहते हैं तो अंतिम संकलन तक आते-आते यह उनके जीवन में एक बैले की तरह शामिल हो गया है जहाँ वह ढेर सारे वाद्यों और स्वरों के साथ उसमें डूबे हुए हैं. और ये किसी वायवीय कल्पना संसार में नहीं बल्कि जैसा कि विजय कुमार ने फ्लैप पर लिखा है “बाहर के संसार के दबावों और मनुष्य की आतंरिक ऊर्जा के मिलन स्थलों पर घटित हुई हैं”. यह अलि कलि ही सो बिंध्यों वाला प्रेम नहीं बल्कि जीवन की ‘दुर्जेय हताशा को रद्दी कागज़ की तरह’ फेंकने का हौसला देने वाला प्रेम है. प्रेम के खिलाफ खड़े इस समाज में जहाँ खाप पंचायतें चाहे सीमित जगहों पर हों लेकिन वह मानसिकता हर घर में बैठी है मोहन डहेरिया ‘मारो, मार सको तो मार डालो’ जैसी कविता में उनकी ओर तलवार लिए दौड़ते चेहरों की शिनाख्त करते हुए उसका विचारधारात्मक प्रतिवाद संभव करते हैं तो अपनी विलक्षण कविता ‘जुलूस के बीच प्रेमी युगल’ में ‘माथे पर लाल चुनरी बांधे उत्तेजक नारे लगाते युवकों के जुलूस में कोलतार पुते चेहरों के साथ भी अपने संकल्पधर्मा मौन के साथ निर्लिप्त युवा युगल के आगे बढ़ने को रेखांकित कर पाते हैं. यह आगे बढना ऐसे कि जैसे कोई ‘फूलों की पंखुरियों से बनी मशाल कर रही थी उनका नेतृत्व’. यह प्रेम और भरोसे की मशाल है, यह मनुष्यता की मशाल है जिसमें मोहन डहेरिया की कविता ईंधन की तरह शामिल होती है. ‘हूँ मैं जहां’ में वह ‘एक ख़ास रंग से पोत दिए गए संस्कृति के साझे स्मारक’ और ‘प्रेम के मशहूर विलक्षण शायर के मकबरे पर रखी जा रही पेशाबघर की बुनियाद’ के बरक्स अपनी आत्मा पर खिले एक नन्हे फूल की गमक से उस जगह को महकाए रखने की जिद के साथ खड़े होते हैं. ये गम-ए-जानां के कुहरे में गम-ए-दौरां को छिपाने की कोशिश करते प्रलाप नहीं स्त्री विमर्श के समकालीन दौर में एक अलग बुर्ज़ बनातीं प्रेम के मेटाफर में विद्रोह की कविताएँ है. लेकिन ठीक-ठीक यही इस दौर में आये प्रेम कविताओं के दूसरे संकलनों के बारे में नहीं कहा जा सकता.असल में इस दौर में प्रेम कविताओं की जो बाढ़ आती है, और प्रेम कविताओं के संकलन निकालने की जो बेताबी दिखती है उसे बहुत गौर से देखे जाने की ज़रुरत है.  वह प्रेम कहीं वास्तविक दुनिया से पलायन का बहाना तो नहीं? कभी वाम कविता में वर्जना के अतिवाद से गुजरा प्रेम नाजिम हिकमत की प्रेम कविताओं के बाद से जिस तरह उमड़ा है वह इकहरा नहीं. प्रेम के नाम पर जो कवितायेँ लिखी गयीं हैं, उनकी अपनी वर्गीय पक्षधरतायें हैं और उनका विवेचन एक स्वतंत्र आलेख की मांग करता है, जो फिलहाल मेरे लिए संभव नहीं हो पा रहा.

अनामिका इस दौर का सबसे महत्वपूर्ण स्त्री स्वर हैं. लेकिन स्त्री-विमर्श की कैद में फंसकर वह भी लगातार अपनी धार खोती सी लगती हैं और लंबे दौर के लेखन में कविता के क्षेत्रफल में विस्तार की कमी उनकी सीमा बन जाती है. बद्रीनारायण जैसे समर्थ कवि लोक के संजाल में ऐसा फंसते हैं कि तीसरा संकलन आते-आते खुद को दोहराते हुए ही नहीं, पीछे जाते हुए भी लगते हैं. यही नहीं संजय कुंदन या प्रेम रंजन अनिमेष जैसे महत्वपूर्ण कवि कहानियों की तरफ मुड़ते हैं तो अनिल कुमार सिंह और निलय उपाध्याय सहित कई अन्य कवि पूरे परिदृश्य से ही बाहर चले जाते हैं. इस दौर की कविता को गौर से देखने पर समझ में आता है कि अस्सी के दशक में ही रक्षात्मक हो चला प्रतिरोध का स्वर और विरल तथा क्षीण हुआ है. अब यह कविता की ताक़त में अविश्वास की वज़ह से उपजा हो या‘ब्रांडिंग’के युग में अपनी एक अलग पहचान बनाने के दबाव में, लेकिन इस दौर की कविता में ‘विशेषज्ञता’ महत्वपूर्ण हुई है. कभी कथ्य के स्तर पर तो कभी भाषा और शिल्प के स्तर पर. इस ‘विशेषज्ञता’ का एक बड़ा स्रोत लोकप्रियता का दबाव है तो दूसरा अपने समकाल की अस्पष्ट समझ और समझौतों में उलझ जाना है. इस विशेषज्ञता को एक उत्तराधुनिक प्रवृति की देखे जाने की भी ज़रुरत है. प्रेम कविताओं की जिस बाढ़ का मैंने पहले ज़िक्र किया है, उसे इस रौशनी में देखा जाना ज़रूरी है.

इस दौर में स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के उभार के साथ एक और परिघटना बेहद महत्वपूर्ण तरीके से सामने आई है. वाम कही जाने वाली धारा का साम्प्रदायिकता विमर्श तक सिमटते जाना. नब्बे के दशक में बाबरी मस्जिद विध्वंस और देश भर में लगातार गहराती जा रही साम्प्रदायिकता के बरक्स कविता में इसकी मुखालफत ज़रूरी भी थी और अपरिहार्य भी. और यह कहना होगा कि हमारे कवियों ने यह भूमिका निभाई भी पूरी ताक़त से. एकांत श्रीवास्तवकी ‘दंगे के बाद’ हो, अनिल कुमार सिंह की ‘अयोध्या’, देवी प्रसाद मिश्रकी ‘मुसलमान’  बोधिसत्व की ‘पागलदास’ यापवन करण की ‘मुसलमान लड़के’ या फिर गोधरा के बाद लिखी गयी निरंजन श्रोत्रियकी कविता ‘जुगलबंदी’ (जुगलबंदी पर थोड़ा विस्तार से मैंने इसी शीर्षक से प्रकाशित उनके संकलन की समीक्षा में बात की है) , इस दौर के लगभग सभी कवियों ने साम्प्रदायिकता के विरोध में कविताएँ लिखी हैं. लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि इस दौर में वाम होने का अर्थ लगातार साम्प्रदायिकता विरोधी होने तक संकुचित होता चला गया. इसीलिए इन कविताओं को अलग-अलग करके देखना होगा. इस साम्प्रदायिकता विरोध में एक स्वर गाँधीवादी सर्व धर्म समभाव का विगलित स्वर था. धर्म की संस्था के खिलाफ खड़े होने या फिर ‘रक्तपायी वर्ग से इसकी नाभिनालबद्धता’ को रेशा-रेशा साफ़ करने की जिद यहाँ उतनी नहीं दिखती और इसीलिए स्वर बहुत धीमा, उदास और किसी पराजित वक्तव्य सा लगता है. इनका मूल स्वर उदासी का है.


इस उदासी के कारण भी उस समय की स्थितियों में खोजे जा सकते हैं. एक तरफ वामपंथ की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय फलक पर पराजय और दूसरी तरफ देश के भीतर सत्ता और समाज पर साम्प्रदायिक तत्वों का बढ़ता जा रहा नियंत्रण...इन दोनों के साथ ही उदारीकरण के नाम पर हो रहे आर्थिक बदलावों ने समाज के भीतर एक गहरी निराशा और पस्ती का जो भाव भरा था उसकी यह परिणिति स्वाभाविक ही थी. आप देखिये कि उर्दू की जुझारू परम्परा से आये कैफी आजमी भी जब अयोध्या पर अपनी प्रसिद्द नज्म लिखते हैं तो वहाँ भी यह उदासी साफ़ झलकती है. हिन्दुस्तान के बंटवारे से बाबरी की शहादत का सफ़र कर चुके कैफ़ी साहब की उदासी समझी जा सकती है, लेकिन युवा कवियों की यह उदासी थोड़ा विवेचन की मांग करती है.

जैसा कि मैंने पहले इंगित किया, इस दौर में साम्प्रदायिकता पर लिखना एक चलन की तरह तो आया लेकिन इसके लिए टेक ली गयी गांधीवादी सर्व धर्म समभाव की. खुद को वाम कहने और वाम संगठनों से जुड़ाव के बावजूद गांधीवाद के अधिक करीब इन कवियों के लिए यह उदासी धर्म की संस्था पर सीधे हमला कर पाने की उनकी असमर्थता पर ताना गया एक कुहासा भी था. इन कवियों ने साम्राज्यवाद का सामना करने के लिए भी अक्सर ‘लोक’ का सहारा लिया. यह ‘बैक टू द विलेज’ जैसा था. एक प्राचीन गौरवशाली समय में लौटना. इनके यहाँ समानता का स्वप्न और उसके लिए संघर्ष अगर अनुपस्थित या बहुत सतही तौर पर दिखता है तो गाँव बहुत ज्यादा आदर्श की तरह. वहां गाँव की जातिवादी संरचना, वहां उपस्थित आर्थिक विभेद भी अक्सर अनुपस्थित हैं. अगर गौर से देखें तो कालान्तर में धर्म को लेकर इन कवियों का स्वर और मुलायम और महीन हुआ है, वाम से दूरी लगातार बढ़ी है. ये कविताएँ इसी सफ़र की पूर्वपीठिकाएं थीं. इसी के बरक्स वे कविताएँ हैं जहाँ साम्प्रदायिकता पर लिखी गयी कविताएँ एक प्रतिरोधी स्वर के साथ हैं. जैसे अनिल कुमार सिंह की ‘अयोध्या’ या देवी प्रसाद मिश्र की कई अन्य कवितायें या एकांत श्रीवास्तव की कविता ‘दंगे के बाद’. मोहन डहेरिया  अयोध्या या गुजरात की घटनाओं पर लिखने की जगह सीधे-सीधे धर्म से मुठभेड़ करते दिखाई देते हैं. अपने कई अन्य चमकदार समकालीन कवियों की कैलकुलेटेड उदासी की जगह उनके यहाँ धर्म पर सीधा प्रहार है, उस विषवृक्ष की ज़हरीली छाया के नीचे बैठकर मोहन विलाप नहीं करते बल्कि उसकी जड़ों में मट्ठा डालने की कोशिश करते हैं. उससे आक्रान्त नहीं होते, उसकी आँखों में आँखें डाल सवाल करते हैं. धर्म शीर्षक कविता के पहले खंड में वह इसे ‘बदबूदार गोबर देने वाली गाय’ कहते हैं जिससे अब न तो घरों के आँगन लीपे जा सकते हैं न ही कंडे बनाये जा सकते हैं.उन्हें दूर से इसके ‘खंजर की तरह चमकते सींग’ दिखाई देते हैं तो दुसरे खंड में यह सटीक पहचान कर पाते हैं कि धर्म से दीक्षित बच्चा जिसे ‘होना चाहिए था पाठशाला में/ दंगाइयों की भीड़ में सबसे आगे है’. ईश्वर या ‘यह हैं हम- इस पृथ्वी की सर्वश्रेष्ठ प्रजाति’ जैसी कविताओं में वह सर्व धर्म समभाव के समकालीन विगलित स्वर में मिमियाने की जगह धर्म के पूरी तरह अमानवीय होते जाने की प्रक्रिया और उसके मानवीय विकल्पों के निर्माण की ज़रुरत को पहचानने की हिम्मत बरतते हैं. 

उस उदासी को भी सकारात्मक समझा जा सकता था लेकिन  दिक्कत यह है कि उन कविताओं के साथ लिखी दूसरी कविताओं में अपने समय, समाज और राजनीति की जो मुकम्मल समझ और बदलाव की जो दिशा दिखानी चाहिए थी वह बहुत अस्पष्ट और भावुक है. यहाँ अचानक आ गए बाज़ार के प्रति एक कातर और भीरु भाव है. उसकी आँखों में आँखे डाल बतियाने और चुनौती देने की जगह उससे भागकर कुछ पवित्र प्रतीकों की शरण में चले जाने की प्रवृति है. इसकी एक अभिव्यक्ति बाज़ार से बाहर होते जा रहे उन ग्रामीण प्रतीकों और वस्तुओं के कविता में प्रवेश के रूप में हुई जो वस्तुतः पिछडी हुई तकनीकों की उपज थे और आर्थिक विकास के साथ उनका बाज़ार से बाहर होते जाना स्वाभाविक तो था ही साथ में कई बार उन लोगों के लिए भी मुक्तिदाता था जो इसका उपयोग कर रहे थे. लेकिन शहरों में रह रहे हमारे मध्यवर्गीय कवियों की गाँवों से जुड़ी स्मृतियों में ये वस्तुएँ गहरे समाई हुई थीं तो कविता में इनका प्रवेश किसी पवित्र प्रतीक की तरह हुआ. कुदाल, पिंजन, चूल्हा, कुल्हाडी जैसे विषयों पर तमाम कविताएँ लिखीं गयीं. लेकिन इनका एक पक्ष इनसे जुड़े हुए कारीगरों की बदहाली पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करना भी था. नई आर्थिक नीतियों के बाद के अंधाधुंध मशीनीकरण से जो शिल्पकार बदहाल होते जा रहे थे उनकी नियति और उनके संघर्षों पर इनमें से कुछ कविताएँ गंभीर प्रश्न भी खडी करती हैं. लेकिन ज्यादातर कविताएँ उन स्मृतियों को सहेजने से आगे नहीं जातीं. यह नास्टेल्जिया कविता में उस पुराने समय की वेदना को तो दर्ज करती है लेकिन इसके आगे किसी सार्थक बहस को जन्म नहीं देती. ये कवितायें शहर की आँखों से देखी गाँव की निष्क्रिय छवियों के सहारे गाँव का एक ऐसा चित्र खींचती हैं जिसमें उसे उसकी विडम्बनाओं और नयी आर्थिक व्यवस्था के बरक्स हुई बदहाली से काटकर किसी पुरानी स्मृति की क़ैद में एक यथास्थिति में रखा जाता है. इसी के बरक्स जब नीलेश रघुवंशी ‘हंडा’ कविता में लिखती हैं ‘वह हंडा/ एक युवती लाई अपने साथ दहेज में/ देखती रही होगी रास्ते भर/ उसमें घर का दरवाजा/बचपन उसमें अटाटूट भरा था/ भरे थे तारों में डूबे हुए दिन’ तो यह महज नास्टेल्जिया नहीं रह जाती अपितु एक औरत के जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना को रेखांकित करते हुए ऎसी स्मृति में बदल जाती है जो भविष्य के लिए दरवाजे खोलती है.

लेकिन इस पूरे दौर में गाँव को उसके पूरे आदमकद रूप में सामने लाने वाले कवि हैं अष्टभुजा शुक्ल. उनके यहाँ गाँव स्मृतियों में नहीं, रोज़ ब रोज़ के जीवन में है. उनकी कविताओं में इस नवसाम्राज्यवादी व्यवस्था की आर्थिक नीतियों के चलते ग्रामीण समाज के ढाँचे में बदलाव और तबाही के प्रामाणिक दृश्य ही विन्यस्त नहीं हैं अपितु उसके खिलाफ एक तीखा गुस्सा है जो सिर्फ सत्ताधीशों तक नहीं सीमित बल्कि ‘सूरज के आंसूं को खून कहके धाँसू कविता’ लिखने वाले कवियों और साहित्य सत्ता पर कब्ज़ा जमाये जनता की कविता के नाम पर मलाई काट रहे लोगों तक भी पहुंचता है. यह ‘लोकधर्मिता’ विजेंद्र और उनके प्रिय लोगों की लोकधर्मिता नहीं, जहां एक ख़ास लोकेल के चमत्कारी दृश्यों को रूमानी तरीके से और एक लद्धड़ भाषा में पेश कर दिए जाने को ही ‘जनपक्षधरता’ मान लिया जाता है. अष्टभुजा एक साथ मध्यवर्गीय दृष्टि के विगलित ग्रामीण अतीतजीविता और लोक के सीमित तथा चमत्कारी प्रदर्शन के लिए प्रतिपक्ष बन कर सामने आते हैं.


 (तीन)
नए लोग नयी बात लेकर भी आते हैं

इस दौर में कविता की नागरिकता विस्तृत होकर महिलाओं और दलितों तक पहुँचना शुरू करती है. इस दशक की महिला कवियों का स्वर न तो ‘नीर भरी बदली’ वाला है, न ही ‘बुंदेले हरबोलों वाला’. यहाँ स्त्री का जीवन अपने पूरे आदमकद रूप में उसके संघर्षों और प्रतिकार के साथ आया है. ‘चौका’ कविता में अनामिकाजिस तरह से ‘मैं रोटी बेलती /जैसे पृथ्वी/ ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़/ भूचाल बेलते हैं घर/ सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर’ लिखती हैं या ‘हे परम पिताओं /परम पुरुषों/ बख्शो अब हमें बख्शो (स्त्रियाँ) लिखती हैं या सविता सिंह जब लिखती हैं कि ‘डरी रहती है बिस्तर में भी अपने पुरुषों के संग/ बेवजह ख़लल नहीं ड़ालती उनकी नींद में/ रहती हैं सेवारत बरसाती प्रेम सहिष्णुता/ चाहिए उन्हें वैसे भी ज्यादा शांति / बहुत कम प्रतिरोध अपने घरों में/ फिर भी/ अपने एकांत के शब्दरहित लोक में/ एक प्रतिध्वनि सी / मन के किसी बेचैन कोने से उठती जल की तरंग-सी /अपने चेहरे को देखा करती है /एक दूसरे के चेहरे में /बनाती रहस्यमय ढंग से/ एक दूसरे को अपने सच का दर्पण.’ तो यह मर्दों की दुनिया में आजादी के लिए व्यग्र और तत्पर महिलाओं की आवाज़ बन जाती है. लेकिन दिक्कत तब होती है जब इस नए विमर्श को एक हिट फार्मूले की तरह प्रयोग किये जाने से स्त्री केंद्रित कविताओं की एक बाढ सी आ जाती है जिसमें स्त्री प्रश्न पर किसी गंभीर समझदारी या किसी गहरी चिंता की जगह एक तरह की सतही भावुकता और कालान्तर में पूरे स्त्री-मुक्ति को देह-मुक्ति के आख्यान में बदलकर उसका गुड-गोबर कर दिया जाता है. यह कविता में धीरे-धीरे जगह जमा रहे और अपने सवालों को लेकर जूझ रहे स्त्री स्वर को न केवल धुंधला करता है, बल्कि कई बार स्त्री विमर्श की आड़ में स्त्री-मुक्ति के सवाल को ही सरलीकृत कर देता है. अभी बिलकुल हाल में हिंदी कविता के परिक्षेत्र में विमर्श के दबाव में यह चीख-पुकार, आर्तनाद, शोर-ओ-गुल, हुंकार भयावह रूप से बढ़ी है.

इधर इस भीड़ में जिन आवाजों की मैं अलग से पहचान कर पा रहा हूँ उनमें विपिन चौधरी और मोनिका कुमार प्रमुख है. विपिन की हाल में ‘अनुनाद’ पर आई कविताओं पर जो टिप्पणी मैंने की थी उसे यहाँ दुहराना चाहूंगा. ‘विपिन की कवितायें कवि के रूप में उनके प्रौढ़ होते जाने की सूचना देती हैं. उनके शुरूआती दोनों संकलनों से तुलना करें तो ये एक 'लीप फारवर्ड' जैसी लगतीं हैं. जो सबसे ज़रूरी बात इनके बारे में कहना चाहूंगा वह यह कि समकालीन समय के विमर्शीय दबाव में जो चीख पुकार आह कराह शोर ओ गुल चिल्ल-पों मची है और फार्मूला कविताओं के रूप में (जिनमें एक ऐसा यथार्थ परोसा जाता है जो न कवियत्रियों का है न ही किसी और का) इनकी जो भीड़ राजधानी और बाहर कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे कार्यक्रमों के माध्यम से सामने आ रही है, ये उस भीड़ में शामिल नहीं हैं.’

मोनिका कुमारबिलकुल अलग जेनर की कवियत्री हैं. इधर कुछ ब्लाग्स और ई पत्रिकाओं में आई कविताओं से उन्होंने ध्यान खींचा है. उनके पास एक बहुत गहन और विरल अनुभव संसार है और उसे कविता में कहने के लिए एक कलात्मक परन्तु स्पष्ट शिल्प है. ‘चींटा’ जैसी कविता में वह जिस तरह शरीर पर चींटे के चढ़ने की मामूली घटना को एक बड़े आख्यान में तब्दील कर देती हैं, एक नए कवि के रूप में यह बहुत उम्मीद जगाने वाला है.

इसी तरह कविता में दलित स्वर का भी प्रवेश पूरे दम-ख़म के साथ होता है. अपनी एक कविता मेंबद्रीनारायणजब यह कहते हैं कि ‘आकाश में मेरा एक नायक है/ राहू/ गगन दक्षिणावर्त में जग-जग करता/ धीर मन्दराचल-सा/ सिंधा, तुरही बजा जयघोष करता/ चन्द्रमा द्वारा अपने विरुद्ध किए गए षड़यन्त्रों को/ मन में धरे/ मुंजवत पर्वत पर आक्रमण करता /एक ग्रहण के बीतने पर दूसरे ग्रहण के आने की करता तैयारी/ वक्षस्थल पर सुवर्णालंकार, जिसके कांचन के शिरस्त्राण/ ब्रज के खिलाफ़ एक अजस्र शिलाखण्ड/ भुजाओं में उठाए/ अनन्त देव-नक्षत्रों का अकेला आक्रमण झेलता/अतल समुद्र की तरह गहरा/  और वन-वितान की तरह फैला हुआ/ तासा-डंका बजाता/ और कत्ता लहराता हुआ ....... ऋगवेद के किसी भी मण्डल के अगर किसी भी कवि ने/ उस पर लिखा होता एक भी छन्द तो मुझे/ अपनी कवि कुल परम्परा पर गर्व होता’ तो वह कविता की एक नयी परम्परा की तलाश और उसकी स्थापना का ही उद्घोष है. मुसाफिर बैठालिखते हैं कि ‘मुझे क्या था मालूम/ कि/  हरि पर तो कुछेक प्रभुजन का ही अधिकार है/ और इस देवी मंदिर को/ ऐसे ही प्रभुजनों ने अपनी ख़ातिर सुरक्षित कर कब्ज़ा रखा था.  (मैं उनके मंदिर गया था) तो एक दलित कवि की कविता में यह आक्रोश और अधिक तीखा होकर सामने आता है. दलित कविताओं की सबसे बड़ी खूबी भी उनकी यही तिक्तता है. पिछले दो दशकों में यह कविता और अधिक परिपक्व हुई है. इसी समय में प्रेमचंद गाँधी जैसे प्रतिबद्ध कवि इस पूरी अवधारणा को मानवमुक्ति की बड़ी लड़ाई के साथ जोडकर देख रहे थे लेकिन साथ ही दलितों का जीवन संघर्ष और उनकी वंचना भी उनकी कविताओं में जगह बना रहे थे.

(चार)

अगर यहाँ नहीं है विविधता तो कहीं नहीं है

नागरिकता का यह विस्तार, स्वाभाविक रूप से भाषा, शिल्प और कथ्य तीनों के स्तर पर विविधताएं और नवाचार लिए आया जो बाद के दशक में और विस्तारित तथा स्पष्ट हुआ. लेकिन बद्रीनारायण जिसे ‘लांग नाइंटीज’ कहते हैं और एक ही समय में भिन्न-भिन्न स्तरों पर भिन्न-भिन्न सच्चाइयों की उपस्थिति की बात करते हैं, मैं उससे सहमत नहीं हूँ. ऊपर से यह दिखने के बावजूद, एक प्रमुख अंतर्विरोध पूरी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में उपस्थित है – नवसाम्राज्यवाद, और प्रतिरोध की किसी भी संरचना को किसी भी संस्तर पर आपरेट करते हुए अंततः इस मुख्य अंतर्विरोध के सामने खड़ा होना पडेगा. ऐसा कोई भी हाशिये या केंद्र का प्रतिरोध जो इस मुख्य अंतर्विरोध को नज़रअंदाज करेगा, वह असल में समझौते की एक छोटी कोशिश की तरह रह जाएगा. कहना न होगा की अस्मिता विमर्श का बड़ा हिस्सा यही होकर रह गया है. आगे वर्ष २००० के बाद की कविता पर बात करते हुए हम देखेंगे कि ये नब्बे की प्रवृतियों का विस्तार नहीं हैं, एक सततता जो किन्हीं भी दो दशकों के बीच सेतु की तरह होती ही है, उसके अलावा एक स्पष्ट डिपारचर भी दिखाई देता है जो अभी बिलकुल हाल में लिखी जा रही कविताओं के किसी भी सचेत पाठक के लिए लक्षित करना आसान होगा.

इस दौर में सोवियत संघ के विघटन का ‘हैंग़ ओवर’ कमजोर पडता है, बाज़ार का मनुष्यविरोधी रूप साफ़ सामने आने लगता है, सामाजिक न्याय की विसंगतियाँ दिखती हैं और संपदा की लूट के साथ-साथ सरकारों का जो क्रूर और दमनकारी चेहरा दिखाई देता है वह कवियों को अपने तरीके से प्रभावित करता है. एक तरफराजेन्द्र यादवजैसे तमाम लोग कविता को खारिज कर रहे हैं तों दूसरी तरफ विजय बहादुर सिंहजैसे तमाम लोग छंद की वापसी की बात कर रहे हैं. कविता के वजूद को लेकर ही एक नई बहस शुरू होती है. इसी दौर में इंटरनेट एक प्रमुख माध्यम के रूप में सामने आता है और पाठकों के खत्म होते जाने के भयावह शोर के बीच कवियों की एक पूरी नयी और ताज़ा खेप सामने दिखाई देती है. इस दौर में जिन कवियों ने अपनी पहचान बनाई और हिन्दी कविता को प्रभावित किया उनमें शिरीष कुमार मौर्य, पंकज चतुर्वेदी, आशीष त्रिपाठी, गिरिराज किराडू, गीत चतुर्वेदी, विशाल श्रीवास्तव, संतोष कुमार चतुर्वेदी, कुमार अनुपम, आर चेतनक्रांति, अंशु मालवीय, नीलोत्पल, राकेश रंजन,प्रभात, राजुला शाह, व्योमेश शुक्ल, तुषार धवल, अजेय, विपिन चौधरी, उमाशंकर चौधरी, निर्मला पुतुल, हरे प्रकाश उपाध्याय, प्रदीप जिलवाने, पीयूष दईया, मनोज कुमार झा, प्रांजल धर, विजय सिंह, मनोज कुमार झा, बहादुर पटेल, सच्चिदानंद विशाख, शंकरानंद, महेश चन्द्र पुनेठा, रविकांत, अंशु मालवीय, अंशुल त्रिपाठी, मृत्युंजय, महेश वर्मा, विमलेश त्रिपाठी, निशांत, मुकेश मानस, अमित मनोज, अनुज लुगून, ज्योति चावला, मंजरी श्रीवास्तव, मोनिका कुमार, रामजी तिवारी, अमित उपमन्यु आदि प्रमुख हैं.

इस दौर की कविता में दो तरह के स्वर साफ़ सुने जा सकते हैं. पहला उन कवियों का जिनका अब किसी महाकाव्यात्मक आमूलचूल परिवर्तन में कोई विश्वास नहीं रह गया और दूसरा जिनका धीमे स्वरों में उदासी या पस्ती के गीत गाने से काम नहीं चलता और वे पूरी तल्खी के साथ व्यवस्था के विरोध में खड़े होते हैं. साथ ही इस दौर में बिल्कुल नए क्षेत्रों और नए अनुभवों के कवि अपनी ताज़ा संवेदनाओं के साथ सामने आते हैं. निर्मला पुतुलसुदूर झारखंड से बिल्कुल नई तरह की कविताएँ लेकर आती हैं (यह अलग बात है कि वे अपने पहले संकलन के बाद अचानक अपनी चमक खो देती हैं) तो अजेय सुदूर हिमालयी क्षेत्र से जिन कविताओं के साथ सामने आते हैं उन्हें सिर्फ पहाड़ की कविताएँ कह कर खारिज नहीं किया जा सकता. पिछले साल अकार में प्रकाशित उनकी कविता ‘एक बुद्ध कविता में करुणा ढूंढ रहा है’ समकालीन कविता की एक विशिष्ट उपलब्धि है. इस दौर के पहले कुछ वर्षों में लम्बी कवितायें लगातार कम होती गयीं. किसी बड़े आन्दोलन की अनुपस्थिति और एक महाकाव्यात्मक विमर्श के अंतर्गत इस परिवर्तन और दुष्काल को सांगोपांग देख पाने की विफलता इसका बड़ा कारण रहे है. फिर भी बीच-बीच में कुछ महत्वपूर्ण लम्बी कवितायेँ आई हैं. यहाँ बहुत कम लिखने वाले कवि तुषार धवल की चर्चित लंबी कविता ‘काला राक्षस’ का जिक्र करना भी उचित होगा जो हमारे समय के काले पक्ष को इतनी शिद्दत से दिखाती और व्याख्यायित करती है कि इसे पढकर मुक्तिबोध की याद आना स्वाभाविक है. बाद के दौर में  इधर बिलकुल हाल में एक बार फिर से लम्बी कविताओं की वापसी दिखाई देती है. तुषार धवल, गिरिराज किराडू, कुमार अनुपम, रविकांत, गीत     चतुर्वेदी, शिरीष कुमार मौर्य सहित तमाम कवियों ने मानीखेज लम्बी कवितायें लिखी हैं.

कविता की नागरिकता के आदिवासी क्षेत्रों में प्रवेश की एक बड़ी उपलब्धि अभी हाल में झारखंड के कवि अनुज लुगूनहैं. अनुज की कविताएँ आदिवासी क्षेत्रों की हालिया लूट के बरक्स प्रतिरोध की कविताएँ तो हैं ही, साथ में वे इस पहचान के बाहरी और भीतरी स्रोतों की तलाश करती ताज़ा और आथेन्टिक कविताएँ भी हैं. अपनी एक चर्चित कविता ‘यह पलाश के फूलने का समय है’ में अनुज कहते हैं – ‘जंगल में पलाश के फूल को देख/ आप भ्रमित हो सकते / हैं कि/ जंगल जल रहा है/ जंगल में जलते आग को देख/ आप कतई न समझें पलाश फूल रहा है/ यह पलाश के फूलने का समय है/ और, जंगल जल रहा है।‘ आदिवासी क्षेत्र और उनमें चलता संघर्ष इस दौर की कविताओं में लगातार आया है. इस दौर में व्यवस्था-परिवर्तन के लगभग इकलौते आन्दोलन ने समकालीन कविता को अपनी तरह से प्रभावित किया ही है और प्रतिरोध की एक नयी ज़मीन भी दी है.

साथ ही इस दौर में कविता में शिल्पगत प्रयोगों के नए-नए रूप भी देखने को मिलते हैं. गीत चतुर्वेदी, व्योमेश शुक्ल, कुमार अनुपम, गिरिराज किराडू, प्रभात, पीयूष दईया, मनोज कुमार झा जैसे कवियों के पास एक बेहद ख़ूबसूरत और ताज़ा शिल्प है जिसका वे अपने-अपने तरीके से प्रयोग करते हैं. यहाँ हिन्दी कविता अपने शिल्पगत तथा भाषाई उरूज पर दिखती है. हालाँकि यह भी एक पक्ष है कि शिल्प के अतिरिक्त आग्रह के चलते अकसर कथ्य धुंधलाया है और कई बार तो यह सायास लगता है. इन कवियों को एक खांचे में रखना भी शायद उचित नहीं. यहाँगीत चतुर्वेदीजैसे बेहद समर्थ और प्रतिभाशाली कवि हैं जो अपनी आरंभिक कविताओं में अधिक स्पष्ट पक्षधरता के बाद धीरे-धीरे आध्यात्म और रहस्य की उस कन्दरा में जाते दिखाई देते हैं जहाँ से जीवन की भौतिक समस्याएं और हकीकतें धुंधली, और धुंधली होती चली जाती हैं. उनकी इधर आई कविताओं में प्रेम इतना अधिक और ऐसा है कि उन्हें पढ़ पाना मुश्किल होता जा रहा है. बिम्बों की अथाह लदान की बोझ से कविता की कमर झुक सी गयी है. गिरिराजके यहाँ यह उलटे तरीके से घटित होता दिखता है. वह इधर धीरे-धीरे अपने उस कलात्मक उरूज़ से उतरते दिखाई देते हैं और उनके कविता का एबस्ट्रेक्ट अब थोड़ा मद्धम पड़ता दिखता है. ‘मगरिब जाओ’ जैसी कविता में जिस तरह वह मगरिब को आहिस्ता-आहिस्ता एक धिक्कार में तब्दील करते चले जाते हैं वह साम्राज्यवाद विरोध की एक बड़ी कविता बन जाती है. इस तरह की कविता की एक बड़ी समस्या यह दिखाई दी है कि कवि अक्सर अपने शुरूआती जादू को लम्बे समय तक बनाए रखने में सफल नहीं हो पाता. व्योमेशजैसा कवि जिस तरह से कविता के दुनिया में आता है अचानक ऐसा लगता है कि एक बड़ी लकीर खिंच गयी. ‘भारत भूषण सम्मान’ (जो इन कवियों में से अधिकाँश को सही समय पर मिल गया) इस जादू के स्वीकार के प्रतीक के रूप में देखा जा सकता है. लेकिन बमुश्किलन पांच साल बीतते न बीतते यह स्वर धुंधलाने लगता है, खुद को दुहराने लगता है और शिल्प के अबूझ प्रयोगों में ऐसा फंसता है कि पाठक के लिए पहले पहेली और फिर गैरज़रूरी बन जाता है. इनके बीच प्रभातजैसा कवि जिस तरह लगातार आदिवासी जीवन ही नहीं बल्कि अपने समय-समाज की तमाम विडम्बनाओं से टकराता है बिलकुल स्वाभाविक है कि इस तरह वह अपनी कविता को ही नहीं बचाता बल्कि उस उम्मीद को भी लगातार कायम रखता है जो उनकी आरम्भिक कविताओं से उपजी.

कुमार अनुपमइस सूची में अपनी तरह का बिलकुल अलग कवि है. दस-पंद्रह साल तक लगातार लिखते रहने के बाद जाकर 2010-2012 के बीच उनकी ओर अचानक सबका ध्यान गया. इन एकान्तिक वर्षों का उपयोग अनुपम ने अपने कवि को कथ्य और शिल्प दोनों के स्तर पर लगातार संवारने में किया है. शिल्प के जितने प्रयोग उनके यहाँ देखे जाते हैं, कम से कम मुझे इस दौर के किसी कवि के यहाँ दिखाई नहीं देते. और ये प्रयोग बिलकुल देशज हैं, शेर, दोहे, चौपाई, मंगलाचरण से लेकर पेंटिंग्स तक के प्रयोग उनकी कविताओं में आते हैं. इस सन्दर्भ में मैं यहाँ उनकी तीन कविताओं ‘टिंकू महाराज’, ‘विदेशिनी’ और ‘आफिस तंत्र’ का ज़िक्र करना चाहूंगा.  

इसी दौर में राकेश रंजनजिस छंद में लिखते हैं उसे छंद से अधिक ‘तालबद्ध’ कविता कहना उचित होगा उनकी अधिकतर कविताओं का शिल्प नागार्जुन की तरह कहरवा या दादरा की चार या तीन मात्राओं से निर्मित है. छंद और ताल के साथ वह अपनी कविता में समकालीन समय पर तीखा व्यंग्य संभव करते हैं और यह उनकी कविता की ताक़त तो है ही साथ में छंद की शक्ति के सतर्क और उपयोगी प्रयोग के लिए भी रास्ते खोलता है. राकेश रंजन के अलावा इधर मृत्युंजय ने छंद का बेहद मजबूती से इस्तेमाल किया है. गहरी राजनीतिक समझ, सक्रियता और परम्परा की स्पष्ट शिनाख्त के दम पर मृत्युंजय ने हालिया दौर में ऐसी कविताओं का सृजन किया है जो शिल्प और कथ्य, दोनों स्तरों पर नागार्जुन की परम्परा में शामिल की जा सकती हैं. 

शिरीष कुमार मौर्य इस दौर के अपने तरह के विशिष्ट कवि हैं जिनका संवेदना संसार प्रगतिशील-क्रांतिकारी जीवन मूल्यों से निर्मित है और अत्यंत विस्तृत है. उनके पास एक समृद्ध भाषा भी है और एक विकसित शिल्प भी जिसके सहारे वे प्रतिरोध की सार्थक कविताओं के साथ-साथ एक पाठक को उसके अकेलेपन में बोलने-बतियाने और संभालने वाली कविताएँ भी रचते हैं. शिरीष कुमार मौर्य की कविताओं में जो चीज सबसे पहले ध्यान खींचती है वह है उनकी प्रतिबद्ध दृष्टि और कहन की सांद्रता. एक बिलकुल प्रतिकूल संसार में रहते हुए वे जिस जिद और आत्मीयता के साथ लगातार मनुष्यता के पक्ष में कविता संभव करते हैं वह ब्रेख्त की उस पंक्ति की बार-बार याद दिलाती है बुरे समय में लिखी जायेंगी/ बुरे समय की कविताएँ. जाहिर है कि शिरीष का काव्य संसार इस बुरे समय के चमकीले वृत्त से बाहर छूट गयी चीजों से बनता है. ठेले पर फोन और उज्जैन की यादएक मध्यप्रदेशीय सामंती कस्बे के आकाश पर, प्रधानाचार्य निलंबित, लंगडाकर चलने वाला आदमी, आठ हजार प्रतिमाह पाने वाला आदमी किराने की दुकान पर उधारखाता लिखवा रहा है, अगन बिम्ब जल भीतर निपजेऔर ऐसी अनेक कविताएँ न केवल हमारे समय का एक मानवीय प्रतिसंसार रचती हैं अपितु चालू मुहाविरे से अलग एक ऐसा सघन वितान बुनती हैं जिसमें न तो शुष्क और वायवीय सैद्धांतिक गोलीबारी है और न ही कातर गलदश्रु भावुकता. यह प्रेम के साहस से उपजी शब्दों की ताकत है जो शिरीष को हमारे समय का एक महत्वपूर्ण कवि बनाती है - लड़ने के नामपर इस सबके खिलाफ़/मैंने सिर्फ प्रेम किया है/क्योंकि इससे ज्यादा साहस के साथ/ और कुछ नहीं किया जा सकता था.यह प्रेम उन्हें दूर-दूर तक भटकाता है. उत्तराखंड के पहाड़, साथी कवि और मित्र, पीछे छूट गया पिपरिया, बच्चे, मामूली लगने वाली घटनाएँ और स्त्रियाँ इन सब तक जाता हुआ उनका कवि इस एहसास के साथ अपने काव्य-संसार की सृष्टि करता है  कि आज के समय में सोचना भर काफी है/ किसी को मार दिए जाने के लिएऔर उससे अपने तथा अपने समय के लिए जीवन द्रव्य एकत्र करता है. इस पूरी प्रक्रिया में वह भाषा को किसी अनुभवी जर्राह के नश्तर की तरह बरतते हैं. एक सीधे से वाक्य को मारक मुहाविरे में तब्दील कर देने का उनका हुनर अभिव्यक्ति को वह सांद्रता देता है जो पाठक को दर्शक से सहयात्री में तब्दील कर देती है - कपड़े गीले हों तो भारी हो जाते हैं. उनकी कविताओं का एक बड़ा हिस्सा स्त्रियों से बनता है. लेकिन यहाँ स्त्री का प्रवेश न तो विमर्श के विषय की तरह है न ही किसी भोग्या की तरह. यहाँ एक पुरुष है इस अहसास के साथ कि स्त्री के संसार में सघन मुहल्ले हैं/ संकरी गालियाँ/ पर इतनी नहीं कि दो भी न समा पायें.शिरीष की स्त्रियाँ हमारे जीवन में रोज-ब-रोज आने वाली स्त्रियाँ हैं जिनकी विशिष्टता उनकी साधारणता में है. विमर्शग्रस्त इस उत्तरआधुनिक समय में स्त्री से संवाद करता यह कवि वह बहुत कुछ बहुत साफ़ कह पाता है. एक प्रेम कविताजैसी कविता संवेदना और प्रतिबद्धता के उन स्रोतों का पता ही नहीं देती जो शिरीष के कवि का निर्माण करती हैं बल्कि उस पतित देहवादी विमर्श के बरक्स पूरी ताकत से खडी भी होती है, जिसे मानव मुक्ति के महाआख्यान के विकल्प के रूप में हिन्दी के कुछ चपल आलोचकों-संपादकों द्वारा स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है. जैसे कोई सुनता हो मुझे’ सहित अनके कविताओं को पढते हुए उस यातना का एहसास होता है जिससे गुजरते हुए इन्हें लिखा गया है और उन स्वप्नों का भी जिन्होंने उस यातना को सह पाने की शक्ति दी है. नींद से अधिक स्वप्नों वालेइस कवि का यह संकलन उस मुश्किल सपने को ज़िंदा रखने की मुसलसल जद्दोजेहद में आपके साथ कुछ दूर चलता है, जख्मों पर मरहम सा कुछ रख जाता है और उम्मीद के नए वातायन खोल देता है. इस तरह शिरीष पक्षधरता और कला को एक साथ अद्भुत संतुलन के साथ संभव करते हुए हमारे समय की वह कविता सामने लेकर आते हैं जो एक पाठक के अकेलेपन में भी उसके साथ चलती है और सामूहिक संघर्षों में भी. शिरीष, अंशु मालवीय, विशाल श्रीवास्तव या आर चेतनक्रान्ति जैसे कवि एक आमूलचूल बदलाव की पक्षधर कविताएँ लिखते हैं जो किसी दशक की वापसी की जगह इक्कीसवीं सदी का एक महत्वपूर्ण आख्यान रचती हैं. अंशु मालवीय एक ऐसे कवि हैं जिन पर आलोचकों का ध्यान बिल्कुल नहीं गया है – बावजूद इसके कि बिना किसी समीक्षा के इतिहासबोध प्रकाशन से छपे उनके इकलौते संकलन ‘दक्खिन टोला’के दो संस्करण खत्म हो चुके हैं. वह शोर शराबे और आलोचकीय-सम्पादकीय संरक्षण के बगैर चुपचाप और लगातार जनता के पक्ष में आवाज़ बुलंद करने वाले कवि हैं. जिन्हें कविता से राजनीति और प्रतिरोध के समाप्त होते जाने की शिकायत है उन्हें इन कवियों तक ज़रूर पहुंचना चाहिए. जिस आत्मसंघर्ष की बात विजयबहादुर सिंह सहित कई लोगों ने किया है, उसकी अनुपस्थिति से ये कवितायें संभव नहीं होतीं, यह बात दीगर है की उसे देख पाने के लिए जो नज़र पैदा करनी पड़ती है, उसके लिए आवश्यक श्रम और संवेदना दोनों का अभाव है.

 

उपसंहार लिखते हुए कतराता हूँ /‘संहार’ की बू आती है*

 

ज़ाहिर तौर पर इस एक आलेख की सीमा में समकालीन कविता के पूरे परिदृश्य को समेट पाना कम से कम मेरे जैसे व्यक्ति के लिए संभव नहीं. साफ़ कहूँ तो यह मेरे बूते का काम भी नहीं. एक तरफ तो मेरा सीमित अध्ययन दूसरे तरफ इस समकालीन कविता का एक अदना सा हिस्सा होना, दोनों ही मेरी सीमाएँ तय करते हैं. साथ ही समकालीन कविता में इतने आयाम, इतने स्वर और इतनी विविधताएं नज़र आती हैं कि इसे किसी एक फ्रेम में बाँध देना मुश्किल लगता है. लेकिन मैं इसे कविता के लिए शुभ मानता हूँ. इस बहुरंगी कविता में हमारा विविधतापूर्ण समाज अपनी सारी लाक्षणिकताओं के साथ साँसे लेता है. हाँ ज़रूरी यह है कि इसमें से जनपक्षधर धारा की कविता की पहचान की जाय, मैंने अपने तईं यह प्रयास किया है. दुनिया भर में संकट के समय में बेहतर रचनाएं सामने आई हैं और मुझे लगता है कि संकट के इस समय में हिन्दी कविता अपने तरह से विकास कर रही है. नब्बे के दशक में जो आर्थिक-राजनीतिक नीतियां सामने आईं थीं वे इक्कीसवीं सदी के इस पहले दशक में अपनी पूरी विभीषिका के साथ सामने आईं तो कविता में इनका अपने तरीके से प्रतिरोध भी दर्ज हो रहा है. साम्प्रदायिकता, उपभोक्तावाद, किसानों की आत्महत्या, सामाजिक विभाजन, उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं की समस्या, समाज के भीतर अकेले पड़ते जा रहे मनुष्य के दर्द, छीजते रिश्ते और नई तकनीक के साथ बदलते मानवीय संबंधों को आज की कविता न केवल दर्ज कर रही है बल्कि इसका एक प्रतिआख्यान भी रच रही है. मेरा प्रयास समकालीन कविता के अक्सर एक पेंट से रंग दिए जाने वाले इन विविध पक्षों को आपके सामने रख देने का था. 

यह भी एक सच है कि कविता के पाठक कम हुए हैं, इस बहस में भी अपने-अपने तरीके से सबने यह सवाल उठाया है  और इस पर कुछ कहे बिना निकल जाना कविता के केवल एक हिस्से पर बात करना ही होगा. बाज़ार में कविता की जगह नहीं है. लेकिन इसका कारण कविता के भीतर से अधिक बाहर है. जेरेमी स्क्मेल अपने एक आलेख में इसे बहुत साफगोई से पेश करते हैं जब वे कहते हैं किकविता जिस रूप में आज अस्तित्वमान है, वह सहज, आत्मआयोजित और संस्कृति के पूरी तरह अलाभकारी स्रोत के रूप में उत्पादन और पूंजीवादी विनियोजन के बीच के गैप में उपस्थित है ; यह विशिष्ट रूप में उस गैप में है जहाँ यह भूमंडलीकरण की व्यापक परियोजना को, जिसे अपनी उत्पादकता और उपभोक्ता क्षमताओं को लगातार एक क्षतिमान छितिज की ओर विस्तारित करना ही होता है, अधिकतम संभव क्षति पहुँचा सकती है. कोई भी चीज़ जिसमे भूमंडलीकरण के इस व्यापक प्रबंधन को बाधित करने की ताक़त है – जो हमें इसके स्वचालन से विचलित कर सकती है और वास्तव में सोचने तथा अपनी कल्पनाओं के प्रयोग पर मजबूर कर सकती है – वह हमारी आवश्यक मानवता के परिक्षेत्र में  हमें फिर से स्थापित कर सकती है’........’बुरी तरह से प्रतिकूल बाज़ार की ताकतों के बावजूद कविता का सतत अस्तित्व मानवता के लिए हमारे अकसर विस्मयकारी अस्तित्व के उद्देश्य को परिभाषित करने वाले के रूप में इसके महत्व को प्रदर्शित करता है. लोकप्रिय संस्कृति कवियों के प्रति कोई सम्मान नहीं रखती, यह वास्तविक कल्पनाशील काम को खारिज करती है – ये बातें हमारे वर्त्तमान राजनीतिक तथा आर्थिक संकट के वातावरण में आश्चर्यजनक नहीं लगानी चाहिए. हमारी हालिया रूचि, मुख्य रूप से इस सवाल के हल की और केंद्रित हो गयी है कि किस तरह पैसे को और अधिक पैसे में तबदील किया जाए. वह इस बात पर कोई खास ध्यान नहीं देती कि अंतिम परिणाम कैसा हो सकता है और इसकी तो बात ही मत कीजिए कि यह कैसा होना चाहिए.’[i]  इस बहस में नित्यानंद श्रीवास्तवजैसे जो लोग छंद की वापसी के नारे से पाठक को फिर से हासिल करने की बात करते हैं उन्हें देखना होगा कि आज छंद में लिखी जा रही रचनाओं के पास भी पाठक कितने हैं?

कम मिलाकर इस रूप में नव उदारवादी पूंजीवाद के बरक्स हिन्दी की कविता एक असुविधा की तरह उपस्थित है और इसके भीतर जनता के पक्ष में आवाज़ बुलंद करने वाले कवियों का एक पूरा कुनबा तैयार हो रहा है जो न सिर्फ बाजारू कविता के सामने चुनौती पेश कर रहा है, बल्कि मुख्यधारा के भीतर उन कवियों को भी गहरी चुनौती दे रहा है जो किसी बदलाव की उम्मीद खोकर ‘कला कला के लिए’ के बासी मन्त्र से कविता की शव साधना कर रहे हैं. 

लेकिन दिक्कत यह है कि इस बहस में जितने भी लोग आये हैं उनमें से अधिकाँश युद्ध मुद्रा या फिर प्रवचन मुद्रा में हैं. इन कवियों के करीब जाकर इनकी अलग-अलगा आवाज़ को पहचानने की जगह, कविता के क्षेत्रफल के विस्तार के चलते आई इन नयी आवाजों को धीरज से समझने, स्वीकारने या आलोचित करने की जगह कोईनागार्जुन का डंडाचला रहा है तो कोई अपना ख़ास जयपुरी डंडा, कोई छंद का जाल फेंक रहा है तो कोई इनकी ओर पीठ किये पूछ रहा है – पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है? सवाल जायज है, पर तब जब आँख में आँख डालके पूछा जाय. नागार्जुन की बात करने वाले भूल जाते हैं की उस दौर का कविता परिदृश्य शमशेर, केदार और मुक्तिबोध के बिना पूरा नहीं हो सकता, न उस दौर में किसी ने एक ही तरह के स्वर की बात की थी न किसी और दौर में की जा सकती है. अस्सी के दशक की जिस कविता पर इतनी बात होती है उसमें भी राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, अरुण कमल, पंकज सिंह  जैसे कवि मिलकर ही एक पूरा काव्य परिदृश्य बनाते हैं. एक अजीब सी बात है की एक तरफ तो विविधता न होने की बात की जाती है तो दूसरी तरफ हर कवि के लिए एक ही तय मानक स्थापित करने का प्रयास.  इससे भी मजेदार यह कि ‘समकालीन कविता’ पर बात करते हुए कोई रघुवीर सहाय तक पहुँच रहा है तो कोई राजेश जोशी-मंगलेश डबराल तक. कोई बहुत हिम्मत करके उछाल मार रहा है तो वह पहुँच रहा है बद्रीनारायण तक. बाक़ी इस दशक के पचासों कवियों के कोई डेढ़-दो सौ संकलनों की हजारों कविताओं में से कोई एक पंक्ति भी खारिज कर देने तक के लिए नहीं उठा रहा. कई बार तो जबविभूतिनारायण राय या फिर विजय बहादुर सिंहजैसे लोग विविधता के अभाव का सवाल उठाते हैं तो मुझे लगता है कि क्या इन्होने इधर के कवियों को पढ़ा भी है? ज़ाहिर है सत्ता के जिस उठापठक में ये अहर्निश लगे हुए हैं, उसमें पढने का वक़्त कहाँ मिलता होगा? जो मिलता होगा उनमें से इन कवियों के हिस्से कितना आता होगा. शायद इसी दर्द को लिएकुमार अनुपमने एक ब्लाग पर लिखा था –तथाकथित गंभीर आलोचकों की स्थापनाओं और निकषों का अकेडमिक स्तर पर ही महत्त्व मैं महसूस करता रहा हूँ
, इसका एक जायज कारण मेरे पास यह रहा है कि रचनाकार जिस भाव दशा और तनाव को रचना लिखते हुए जीता है, उसका अंदाज़ा भी शायद उक्त महापुरुषों (इस शब्द के लिए स्त्रीलिंग कोई अन्य शब्द बन गया हो तो कृपया उसे भी शामिल कर लिया जाये ) के लिए मुश्किल है, इसके बरक्स सहधर्मी रचनाकार द्वारा की गई एक छोटी सी टिप्पणी भी मुझे ज्यादा महत्त्वपूर्ण लगती है."

ईमानदारी की बात यह है की इधर की कविताओं के पास अगर कुछ नहीं है तो वह है आलोचक. हिंदी की कविता-आलोचना बरसों से कोमा में है और बीच-बीच में जब जगती है तो ऐसे प्रलाप कर सो जाती है. शुष्क और पेड़ों की निर्दय हत्यारे अकादमिक शोधों के , जो अंततः देवी प्रसाद अवस्थी सम्मान या हतभागी हुए तो केवल प्रमोशन के लिए काम आते हैं, अलावा मुझे पिछले पंद्रह-बीस सालों की कविताओं पर कोई सुसंगत किताब नज़र नहीं आती, कोई विस्तृत आलेख भी नहीं.  पंकज चतुर्वेदी, शिरीष कुमार मौर्य, निरंजन श्रोत्रिय, आशीष त्रिपाठी  और जितेन्द्र श्रीवास्तवके अलावा मुझे कोई ऐसा व्यक्ति भी  दिखाई नहीं देता जिसने इधर की कविताओं पर अलग-अलग ही सही, कोई मानीखेज टिप्पणी की हो, उसमें भी पंकज जी को हाइबर्नेशन में गए अब अरसा हुआ. यहाँ यह भी गौरतलब है कि ये सभी  मूलतः कवि हैं. तो इस आलोचनाविहीन समय में कविता पर उठी यह बहस उम्मीद जगाती है, काश यह केवल कविता पर होती!


  *कुमार अनुपम की कविता ‘कुछ न समझे खुदा करे कोई’ से




[i]देखें कविता समय का ब्लॉग http://kavitasamay.wordpress.com/ , अनुवाद मेरा 

बहादुर पटेल की कवितायें

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बहादुर पटेलमितभाषी हैं..जीवन में भी और कविता में भी. उनसे बात करते हुए उस तड़प और उस सतत सक्रिय मानस को समझ पाना अक्सर बहुत मुश्किल होता है जिससे उनके साहित्यिक सरोकार संचालित होते हैं. उनकी कवितायें आत्मा में विन्यस्त गहन परिवर्तनकामी संवेदनाओं के तीक्ष्ण आत्मसंघर्ष से उपजती हैं. यह विन्यस्ति जितनी सहज है, उतनी ही उद्वेलनकारी. सागर के ऊपरी तलों पर दिखने वाली शान्ति की तरह. आप ज्यों-ज्यों उनकी कविताओं के भीतर प्रवेश करते हैं त्यों-त्यों न केवल इसकी तहें खुलती हैं बल्कि उस उथल-पुथल का एहसास भी होता है. शायद यही वज़ह हो कि कविता के दरवाज़े पर शोर-गुल मचाकर अपना होना सिद्ध करने वाले समीक्षकों को इसका एहसास कम ही हो पाता है. आज असुविधा पर इस प्रिय कवि-मित्र की कवितायें प्रस्तुत करते हुए अतिरिक्त संतोष की अनुभूति हो रही है.

काज़ुया आकोमोतो की पेंटिंग 'डार्क स्ट्रीट' यहाँ से 


वह अँधेरे से रंग भरता था 

 (मुक्तिबोध को याद करते हुए )


 उसने एक तितली के पंखों में रंग भरा
 और वह उड़ गयी
 तितली के रंगों से सारी धरती
 अनेक रंगों की चादर से ढँक गयी

 सूरज ने उधार लिए
 तितलियों से सात रंग
 मनुष्य ने उन रंगों से कई रंग इजाद किये
 उन्ही से दुनिया लुभावनी हुई

 फिर कुछ रंगों के सौदागर पैदा हुए
 उन्होंने तितलियों के पंखों से रंग चुराना शुरू किये
 जितना रंग वह लेते
 उससे कई गुना रंगीन हो गई वे तितलियाँ

 इसी तरह तितलियाँ आज हमारे जीवन को
 रंगीन बनाने में लगी हुई हैं

 और वह पहला आदमी
 जिसने तितलियों के पंखों में पहली बार
 भरा था रंग
 वह कोई बड़ा कलाकार था
 उसके जीवन में कोई रंग नहीं था
 उसने अपने आंसुओं से रंगों को तरल किया
 उसकी आत्मा में गहरा अँधेरा था
 वह अँधेरे से रंग भरने की कला जानता था
 .


मेरी हँसी

 मैंने हँसना चाहा
 अपने मूल स्वाभाव में हँसना चाहता था
 फीकी हँसी को जानदार बनाने के सारे जतन
 बेकार हो गए

 लोगों की हँसी से
 अपनी हँसी की तुलना की
 बहुत बोगस और नकली लगी

 मैंने एक बच्चे की हँसी से मिलाई हँसी
 एक बूढ़ा भी मिला मुझे
 जिसकी हँसी बच्चे की हँसी से बहुत करीब लगी

 एक स्त्री की उन्मुक्त हँसी से
 भयभीत हुआ
 फिर अपनी हँसी से मिलाया तो लगा कि
 मेरी हँसी को ठीक हँसी बनाने में
 उसकी अहम् भूमिका हो सकती है

 कई सालों तक एक स्त्री ने
 मेरी हँसी को हँसी से भी बड़ी बनाया
 संक्रामक कि हद तक फैलाया मैंने

 एक दिन गहरी अँधेरी रात में
 उस स्त्री की हँसी को
 मैंने रुदन में बदलते हुए सुना

 आज फिर सुन रहा हूँ अपनी हँसी
 ऐसी नकली हँसी आज तक
 इस पृथ्वी पर नहीं सुनी गई.

 .

पाँवों में भंवरा


 कितना कोहरा था मेरे आसपास
 उतना ही धुआँ
 वैसा ही धुंधलापन
 थकान का एक बड़ा हिस्सा मेरे हिस्से में
 मोतियाबिंद की अँधेरी परछाई
 उजाले का सिर्फ एक बिंदु
 उसके आसपास गहरा अँधेरे का वृत्त

 तुम्हारे साथ का एक आकाश मिला मुझे
 जिसमे कई सितारे जगमगाते मिले
 ओस की बूंदे ठहरी रही देर तक मेरी पलकों पर
 पेड़ के हरेपन का सहारा
 देर तक मुझे सहलाता रहा
 तुम्हारी छाया मेरे भीतर को आलोकित करती रही

 बहुत प्यास के बाद
 उतरा तृष्णा के गहरे कुएं में
 अंतहीन सफर के बाद
 कोई एक सूरत मिली मुझे
 जिसकी ऊर्जा का प्रकाश पुंज
 मुझे अपने भीतर समेट लेना चाहता था

 एक पगडण्डी पर बैठा
 करता रहा इंतजार देर तक
 मेरे पाँवों में भंवरा था
 फिर भी बैठा रहा कि तुम जरूर आओगी .

 .

इतिहास की शरण में


 एलोरा कि ये खुबसूरत गुफाएं
 हमें कितनी खामोशी से अपनी और खींचती हैं
 इतिहास बहुत पीछे ले जाता है हमें
 इतिहास को दुरुस्त करना
 या यों कहें कि क्रिया की प्रतिक्रिया
 बहुत खतरनाक है

 आज जो है वो कल इतिहास होगा
 क्या हमने सोचा कि
 हमारी सन्ततियां इसको किस रूप में लेगी
 हम जो देखते हैं
 कितना उजला कितना कितना अँधा है

 हो सकता है कोई पैदा हो
 हमारे समय से बहुत बाद में
 वह हमारी रेखा कि बगल में कोई रेखा खींचे
 हमारे घावों पर नमक बजाय
 गाय के दूध से बना मक्खन रखे

 हमारे समझ की दिशा को
 एक रेखीय कोण में नहीं बदला जा सकता
 पर कोई ऐसा सिद्धांत बनाये
 जो हमारे मनुष्य होने की सीमा में रोके रखे हमें
 हमारी मजबूरियों को सिक्कों की धार से न काट सके

 हम जाना चाहते हैं
 बार-बार इतिहास की शरण में
 जैसे कि बच्चे जाते है पाठशाला में
 जैसे कि हम जाते है नींद के आगोश में
 जैसे सपने चले आते हैं दबे पांव
 जो कभी पूरे नहीं होते
 लेकिन एक आशा हमें दूर तक ले जाती है
 जैसे हम प्रवेश कर रहे हों बार-बार इतिहास में.

 .

जानने को उत्सुक तो हर कोई होता है


किसी को कोई किस तरह जानता है
यह नहीं जान पाता कोई
हम भी नहीं
कोई भी नहीं

कई बार किसी की हरकतों को हम देखते रहते हैं टुकुर-टुकुर
और कोई इस तरह हमारी और देखता है
जैसे वह धंसना चाहता है हमारे भीतर
इतना भीतर कि हम उसकी जद से अपने को बहार नहीं कर पाते
वह हमारी रोशनी में कुछ धब्बे ढूंढना चाहता है
कितना निरीह पाते हैं तब हम अपने आपको

जानने को उत्सुक तो हर कोई होता है
हम भी होते हैं
कई कई बार हम अपने आपको अपनी ही परछाई में ढूंढते रहते है
हम अपने होने के तिलस्म को नहीं तोड़ पाते
हमारी वेदना में कोई कीड़ा रेंगता रहता है
पहचान का कोई सिरा हमारी पकड़ से रहता है बाहर
अपनी गली में हम अनजान से घुमाते हुए अपना पता पूछते रहते हैं
कोई हमसे अपनी पहचान छुपाकर निकल जाता है दूसरी गली में
दरअसल ऐसी कई कई गलियां है जिनमे बेवजह कई लोग भटकते रहते है
दिमाग के किसी कोने में हमारा अपना पता अटका रहता है

कोई बहुत जानने की जिद में अपने को तो भूलता ही है
हमारी स्मृति के टिमटिमाते दिए पर अपनी बौद्धिकता का अँधेरा उडेलता है
दोस्तों उसके बाद भी जलते रहना मुश्किल तो है
पर नामुमकिन भी नहीं
हाँ यह तभी संभव हैं जब हम उसको जाने
और उसको जानना तभी संभव है जब हम अपने आपको जाने.

 .



शब्दों को देता रहता है रौशनी


एक पत्ता हरता है हमारा दुःख कई रूपों में
हहराता हुआ या सूखता हुआ
या अपने पीलेपन के साथ
आखिर में सूखा खनक
हमेशा मंडराती रहती है
उसकी आत्मा हमारे आसपास
हमारे साथ देर तक उड़ता रहता है
लेप बनकर फैल जाता है
हमारे जीवन के समूचे विस्तार में

बहुत दबे पांव आता है हमारे स्वाद में
कोई हड़बड़ी नहीं
सबसे उजास चीजों में भरता है अपना प्रकाश
अपनी ही ज्योति में देखता है अपने आपको
अपना इतिहास खुद लिखता है हमारी कापी किताबो में
सूखता रहता है उन्ही में
शब्दों को देता रहता है रौशनी
जब खुलती है किताब
तो शब्दों से पहले वह कहता है कोई कहानी
अपनी पीठ के निशान दिखाकर देर तक रोता रहता है हमारे सामने
हमारे रोने को कई बार इस तरह सोखता है
और जब बिखरता है तो न किताब समेट पाती है
न हमारा शरीर
हमारी स्मृति के कैनवास बिखर कर एक चित्र की शक्ल लेता है

कितनी तरह से आता है
कितनी कितनी बार आता है
संगीत के कितने राग समेटे रहता है अपने भीतर
उसकी परछाई में जीवन के कितने ही रहस्य छुपे होते हैं
हमारी उदासी उसके हरेपन में तैरती रहती है
हमारे सपनों की तलछट में बैठकर जीवन भर गंधाता रहता है.

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बहादुर पटेल 

देवास में रहने वाले सुपरिचित कवि बहादुर पटेल का एक कविता संकलन 'बूंदों के बीच प्यास' अंतिका प्रकाशन से २०१० में प्रकाशित हुआ है. बहादुर इन दिनों 'ओटला' शीर्षक से होने वाले साहित्य के महत्वपूर्ण आयोजन से जुड़े हैं.

संपर्क - bahadur.patel@gmail.com

 .



अस्त्राखान की हिंदी सराय वाया पुरुषोत्तम अग्रवाल

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  •  सौरभ बाजपेयी 


"हिंदीसराय: अस्त्राखानवायायेरेवान " नामअपनेआपमेंहीएकद्वैधछुपायेहै।हिंदीसरायएकजानापहचानासानामलगताहै।हिंदीयानिहिंदुस्तानीऔरसराय वोजगहजहाँलोगोंकेरुकने-ठहरनेकाइंतजामहो।हमनेअपनेघरोंमेंमेहमानोंकीआमदसेऊबेघरवालोंकोअक्सरकहतेसुनाथा-घरहोगयासरायहोगयी, लेकिनयेअस्त्राखान औरयेरेवानभलाकिसबला कानामहै? दरअसल,यहीवोद्वैधहैजोबिनाएकभीपन्नापलटे यहअहसासदिलाताहैकि जरूरयेकिन्हीदोअनजानोंकानाताहै।कोईऐसाअंतर्संबंधजोभाषाईपरिवेशमेंएकदमभिन्नहोतेहुएभीएकहीराहगुजरताहै- अस्त्राखानसेयेरेवानवायाहिंदीसराय। 

इसअंतर्संबंधकीखोजअपनेआपमेंबहुतदिलचस्पहै। येरेवान, आर्मेनियाकी राजधानीऔरदेशकासबसे बड़ाशहर।दुनियाकेकुछसबसेपुरानेऔर चुनिन्दाजिन्दाशहरोंमेंएक, जोएकबारबसनेकेबादकभीउजड़ेनहीं।कहसकतेहैं, येरेवानआर्मेनियाकाबनारसहै। अस्त्राखान, रूसमेंवोल्गाकेकिनारेबसाएकप्राचीनशहरजहाँकभीहिंदी (हिंदुस्तानी) व्यापारियोंकीएकभरीपूरीसरायहुआकरती थी।नामथा-हिंदीसराय। भारतसेतकरीबन 5,166 किलोमीटरदूर।आखिरसामाजिकरूपसेरूढ़भारतीय, जिन्हें समुद्रयात्राओंऔरउनजगहोंपरजानेसेख़ासा परहेजथाजहाँकालेहिरनऔरमूंजमिलतीहो, अस्त्राखान कैसेपहुंचेऔरइतनेमहत्त्वपूर्णकैसेबनगएकिस्थानीयसत्तानेउन्हेंतरजीहीतौरपरअपनामेहमानबनाया, एकसरायबसादी।यहीवोसवालथाजोऔपनिवेशिकज्ञानतंत्रकेउपजाए-फैलाएहुएस्टीरिओटाइपसेसीधेजाकर टकराजाताहैऔर यहींपरयहयात्रावृत्तान्तमहज़किस्सागोईरहकरऔपनिवेशिकज्ञानतंत्रकेखिलाफएकसशक्तवैचारिकदखलबनजाता है। बकौललेखक-"परंपराकेवास्तविक, गतिशीलरूपकापूरानकारऔरइसनकारकीस्वाभाविकपरिणतिहै-आत्मघृणा।भारतमेंऔपनिवेशिकआधुनिकताकीसबसेबड़ीकामयाबीयहीहैकिउदार, प्रगतिशीलयाआधुनिकहोनेकाबपतिस्माकरानेकेलिएसांस्कृतिकआत्मघृणाकेजलमेंअभिषिक्तहोनाआवश्यकहै।" 16वींसदीमेंअस्त्राखानकीयहहिंदीसरायखूबगुलज़ारथी।नेहरूनेअपनीआत्मकथामेंइसबातकाज़िक्रकियाहैऔरआजभीइससम्बन्धकी तमामनिशानियाँहासिलहैं।मसलन 'अस्तर' एकखूब जानीपहचानीचीज़है।कपड़ोंसेलेकररजाईतककोअन्दरसेगर्मरखनेकेलिएलगायाजानेवालाकपड़ाअस्तरकहलाताहै, क्योंकिफर (पैदाहोनेसेपहलेहीबकरीकेपेटसेचीरकरनिकाले गएमेमनेकीखालसेबनायागयाएकगर्मकपड़ा) काआयातअस्त्राखानसेहुआकरताथा।आजभीफर सेबनी अस्त्राखानटोपीएकख़ासऔरनायाबचीज़मानीजातीहैऔरसरायभी,दरअसल, एकआयातितशब्दहै।अस्त्राखानमेंबड़ेऔरभव्यभवनोंकोसरायकहतेथेऔरहिंदुस्ताननेसरायकोऐसाअपनायाकिवोहिंदीसेलेकरउर्दूतकएकसर्वमान्यशब्दबनगया।वास्तवमेंयेबातें एक गहरेव्यापारिकसंबंधकीगवाहीदेतीहैं, जोअपनेसाथखुलेदिलसेसभ्यताऔरसंस्कृतिकाआयात करनेसेभी नहींचूकतीथी।लेकिनहमारीमौजूदाऐतिहासिकस्मृतिमेंअबभी यहवहीसमयहैजिसेअन्धकारयुगबताकरइतिहासकेसांप्रदायिकपाठोंकेबीजरोपे गएथे।यहभीसिद्धकियागयाथा किजड़भारतीयसमाजकोएकगतिशीलसत्ताकीजरूरतथी, जोइसेआधुनिकताकीओरलेजातीऔरजिसका निष्कर्षयहबनाकिमहारानीकामहानभारतीय साम्राज्यदरअसलखुद भारतीयोंकेभलेकेलिएहै-'दैटइज़ व्हाइटमैन्सबर्डन'यहवहीज्ञानतंत्रहैजिसने"अभिज्ञान शाकुंतलम्"कोभारतमेंइसबिनापर बैनकररखाथाकियहकामुकताफैलातीहैऔरइसीकोलन्दनयूनिवर्सिटीकेपाठ्यक्रममेंक्लासिकबताकरशामिलकियागयाथा।   

आर्मेनियाकेएककवि हुएहैं-येगिशेचारेंत्स, जिनकीकविताकाविस्तारऐसाहै "जिसमेंआर्मीनियाकीसांस्कृतिकस्मृतियोंकेमिथकीयपाठभीनिवासकरतेहैं, ऐतिहासिकभी।" और "आर्मेनियाकेसुख- दुःखभीरहतेहैं, औरआशाएं, आकांक्षाएंऔरआशंकाएंभी।वहांअतीतकीयातनाएंभीरहतीहैंऔरवर्तमानकीचुनौतियाँभी।" ख़ासबातकि-एकटैक्सीड्राइवरसेलेकरआर्मेनियाकेप्रधानमंत्रीतकसिर्फचारेंत्सकोजानतेहैंबल्किवेउनकीराष्ट्रीयस्मृतिहैं।जिनकेनामपरएकम्यूजियम है, चारेंत्स म्यूजियम। हमहिंदी (हिंदुस्तानीकेसन्दर्भमें) लोगोंकेलिएतोयहबातएकअजूबेकीतरहहै।अपनेयहाँतोलोकऔरकविताकेकेबराबरसम्बन्धहैंऔर नइसहालपरकोईबहसहैमुबाहिसा।इसदूरीकाफायदामंचीयकवितासेउपजेफूहड़चुटकुलेबाजोंऔर आगलगाऊवीररसिकोंनेखूबउठायाहै।वहीलोगोंकीचेतना, स्मृतिऔरअभिरुचियोंकेनियंताबनगएहैं।इसीलियेअनायासयहसंशयमनमेंआया-यातोवोसमाजइतनासंवेदनशीलहैकिकविताकीभावुकताकोअपनीस्मृतिमेंबसासकायाफिरवोकवि, जिसनेइतनीसघनताकेसाथलोगोंकेह्रदयकोछुआजिसेवेभुलासके। 

कविचारेंत्सकेबहानेएकऔरबातपुख्ताहुयी। गाँधीपूरीदुनियामेंएकक्रांतिकारीकीतरहदेखेजातेहैंसिवायहिंदुस्तानके।यहाँतोरजनीपामदत्तनेइंडियाटुडेमेंलिखकर गाँधीको "मैस्कॉटऑफ़बुर्जुआजी" बनादियाऔरअहिंसा "प्रोप़रटीडक्लासेजकोडिफेंड" करनेकीस्ट्रेटेजीबनगयी।जबकिआर्मेनियाजैसेदेशमेंएकसचेतकवि, जोएकओररूसीक्रांतिकाघोरप्रशंसकथाऔरदूसरीओरस्टालिनके "ग्रेटपर्ज़" काशिकारसंघर्षके क्षणोंमेंगाँधीसेताकतहासिलकरताहै। खुदको 'महात्माचारेंत्स' कहाताहै।और, पद्मासनकीमुद्रामेंबैठीअपनीतस्वीरपरपंक्तियाँलिखताहै- "तुम्हारीआत्माअभीतकअनुभवरहितहै, अभीतकतुमकमजोरहो, चारेंत्स।आत्माकोमजबूतकरो।पुजारी, योग्य, सूर्यबनो, जैसेमहात्मागाँधी-प्रतिभासंपन्नहिंदुस्तानी।और यहाँपरहमारा आर्मेनियाकीचेतनामेंपैबस्तसबसेगहरेदुखोंसेसाबकाहोताहै-पहलेओटोमनसाम्राज्यकेअत्याचारऔरफिरस्टालिनकेदिएघाव।जहाँचारेंत्सकीएकमित्रकोउनकीसारीकविताएँजमींदोज़करनीपड़ीं, क्योंकिअपनेकल्टऑफ़पर्सनालिटीकोबनानेकेमहाअभियानमेंस्तालिनसबकुछबहुतगोपनीयरखनाचाहताथा, ताकिआस्थाबनीरहे। इस सन्दर्भमें एकसवालबहुतमौजूंलगा-"क्यायहबिलकुलनामुमकिनहैकिविवेकऔरआस्थासंवादकेघरमेंएकसाथरहसकें?" यद्यपि यहसिर्फस्तालिनपरहीनहींपूरेस्तालिनिस्टिकऔरएंटी-स्तालिनिस्टिककम्युनिस्टमूवमेंटपरभीलागूहोतासवालहै।यहकन्फर्मिस्टअप्रोच, जोकि 'लाइन' परहदसेज्यादाजोरदेतीहै, दरअसलगोपनीयताऔरआस्थाकेइसीअंतर्संबंधपरआधारितहै। जहाँसवालपूछनारिवीजनिस्टहोनाहैऔरयहपूछनाभीकिहमेंगाँधीकीक्रांतिकारी संभावनाएंक्योंनहींदिखतींजबकिखुदलेनिनगाँधीकोएकक्रन्तिकारीमानतेहैंऔर होचीमिन्ह, मार्टिनलूथरकिंग, नेल्सनमंडेलासेलेकरचारेंत्सतक- सभीखुदकोगांधीकाशिष्यबताकर उनसे ताकतजोड़ते- बटोरतेहैंहिंदुस्तानकेवाम-विमर्शमेंगांधीएकमजबूरीकानामभलाक्यों है?  

इस तरह यह यात्रा वृत्तान्त एक बड़े कैनवास को समेटता है। इतिहासराजनीतिसमाजनृजातीयतापुरातत्वधर्म-एक गहन शोधक की बारीक नज़र सब कहीं सब कुछ दिखाती चलती है। इतनी बारीक कि एक अनजान दुनिया का तार-तार दिखाई दे, सोचने और बहस करने पर मजबूर करे। एक यात्रा वृत्तांत वास्तव में तभी पाठक को कनेक्ट कर पाता है जब लेखक नहीं पाठक खुद उस दुनिया में घूमता सा महसूस करे। यह किताब यह बखूबी महसूस कराती है। वर्ना एक कहावत लाज़िम है- 'मजा मारै कोई और ताली पीटै कोई' यात्रा वृत्तांतों  पर तो यह बात हूबहू लागू होती है। 

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सौरभ बाजपेयी जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय में इतिहास के शोधार्थी हैं.
  

पाठ्य पुस्तकें और राष्ट्रीय कविता - कुमार अम्बुज

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कुमार अम्बुज जी का यह लघु आलेख एक बेहद महत्वपूर्ण विषय को उठाता है. एक ख़ास तरह की कविता को "राष्ट्रीय कविता" कहने का चलन रहा है. जैसे अंग्रेजों के ख़िलाफ़ या पाकिस्तान-चीन जैसे "शत्रु" राष्ट्रों के ख़िलाफ़ या फिर राष्ट्र के यशोगान वाली "वीर हिमालय, जान दे देंगे, पग पखारता समुद्र" मार्का कविताओं को. इन कविताओं को खासतौर पर छोटी कक्षाओं में पढ़ाने पर भी खूब ज़ोर रहा है. तो क्या अन्य कवितायें "अराष्ट्रीय" होंगी? आखिर इस राष्ट्रीयता की राजनीति क्या है? इस सवाल पर शायद ही किसी का ध्यान गया हो. अम्बुज जी का यह लेख इस बात की गहरी तफ्तीश करता है.


  • कुमार अम्बुज 

(एक)

‘राष्ट्रीय कविता’ के बारे में शिक्षा प्रणाली के समकालीन सनातन स्वरूप और पाठ्य पुस्तकों के जरिए, एक विशिष्ट लेकिन संकीर्ण समझ प्रदान की जाती रही है। इस पूरी समझ में राष्ट्रवाद का उठान और उससे राजनैतिक लाभ लेने की नीयत हमेशा ही शामिल रही है। दरअसल, ‘राष्ट्रीय कविता’ की अनुदार व्याख्या और परिभाषाओं ने आजादी आंदोलन के दौरान रची गई तत्कालीन प्रासंगिक और अंग्रेज शासन के खिलाफ लिखी कविता को कुछ इस तरह अनवरत विराटता और औचित्य प्रदान किया गया मानो एक खास तरह की कविता ही राष्ट्रीय कोटि की होती है। बाद में पाकिस्तान और चीन से हुए युद्धों और फिर कारगिल संघर्ष ने जैसे बार-बार वातावरण बनाकर पुष्टि की कि सीमा पर लड़ रहे जवानों की यशोगाथा कहनेवाली, उनके संकटों का बयान, उनका हौसला बढ़ानेवाली, भौगोलिक सीमा पर आँच न आने देने की कसमें खानेवाली कविता ही राष्ट्रीय कविता है। यही वह अधूरी समझ है जो स्थापित करना चाहती है कि भौगोलिक सीमाएँ ही राष्ट्र बनाती हैं, उसके भीतर रह रहा समाज राष्ट्र नहीं है।
जैसे राष्ट्र सिर्फ सीमाओं से बनता है, किसी मनुष्य समाज से नहीं।

(दो)

धर्माधारित राजनैतिक पार्टियों के लिए तो राष्ट्रवाद एक शानदार ‘लांचिंग स्टेशन’ है। इस समझ को व्यापक करते हुए फिर हर चीज का वर्गीकरण किया गया। एक राष्ट्रीय। और दूसरा जिसे तथाकथित अर्थ में राष्ट्रीय न कहा जा सके। कविता में भी यही हुआ! इस ‘राष्ट्रीय कविता’ को कविता और कला और साहित्य की कसौटी पर कभी कसा ही नहीं गया। इस समझ के साथ देखा जाये तो फिर कबीर, तुलसी, मीर, गालिब राष्ट्रीय कविता लिख ही नहीं रहे थे और निराला, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय से लेकर चंद्रकांत देवताले, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल और अमित उपमन्यु तक तमाम कवियों की कविताएँ राष्ट्रीय कोटि में नहीं आ सकेंगी। जबकि वास्तविकता यह है कि तमाम कवि कहीं अधिक गहरे अर्थ में राष्ट्रीय कविता लिखते रहे हैं। समूची समकालीन कविता व्यापक रूप से राष्ट्रीय कविता है क्योंकि वह पूरे समाज, जनपद और आत्म को भी लक्ष्य करती है। बेहतरी का स्वप्न देखती है और इसके लिए वह धरती पर खींची गईं रेखाओं का गुणगान अथवा कल्पित गौरवशाली अतीत और जोश का वर्णन करना कतई जरूरी नहीं समझती। वह इन सबसे पार जाती है। दरअसल, हमारी राष्ट्र की समझ जब एक सामूहिक मनुष्य समाज के आधार पर, उसकी मुश्किलों और उपलब्धियों और चुनौतियों को दृष्टिगत रखते हुए बनेगी तो कई संकटों का हल आसान होगा। 

(तीन)

लेकिन यह समझ बनना तब कुछ आसान होगा जब कविता की जातीय श्रेष्ठता और योद्धाओं के गुणगान या प्राकृतिक भौगोलिक सीमाओं के यशोगान के शब्द-समूहों को कविता की विशेष कोटि में तबदील किए जाने का उपक्रम कुछ थमे। अभी भी हालत यह है कि पाठ्य पुस्तकों और अन्यथा शिक्षा में बच्चों को ‘देशभक्तिपूर्ण कविता’ या ‘राष्ट्रीय कविता’ के नाम से एक खास तरह की कविता का परिचय कराया जाता है। फिर सहज की मान लिया जाता है कि समकालीन राजनीति, अन्याय, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, मीडिया, प्रदूषण, प्रशासन, शोषण या घर-परिवार की वृहत्तर मुश्किलों और हमारे समय की वास्तविकताओं को लक्ष्य कर लिखी गई कविता ‘देशभक्ति रहित’ है या ‘गैर राष्ट्रीय’ है। मानो राष्ट्र के दायरे में समाज की ये बातें और समाज के ये लोग आते ही नहीं हैं। इसका सीधा अर्थ यही निकलेगा कि राष्ट्रीय कविता का काम सामाजिक विसंगतियों, अभावों, दुरवस्थाओं को विषय बनाने की बजाय सैनिकों की, स्मारकों की, सत्ता की और राष्ट्रीय प्रतीकों की प्रशंसा करना है। तब तो निश्चित ही ‘राष्ट्रीय कविता’ की यह एक सामंती समझ है जिसका पर्दाफाश किया जाना जरूरी लगता है। जबकि ऐसी कविता महज विरुदावली तक सीमित रह सकने को अभिशप्त है।

(चार)

पाठ्य पुस्तकों, तथाकथित राष्ट्रीय फिल्मी गानों से प्रारंभ होनेवाली यह समझ हमें राष्ट्र की एक गलत और अधूरी अवधारणा तक पहुँचाती है, इससे राष्ट्रवाद के झाँसे में आना कुछ आसान हो जाता है। फिर देश ‘माँ’ की जगह ले लेता है और आस्था का ऐसा केंद्र बन जाता है जिसके बारे में, जिसके प्रतीकों के बारे में, सेनाओं के बारे में कोई भी तार्किक बातचीत या ऐतिहासिक समझ के साथ बात करना लगभग देशद्रोह जैसा प्रतीत हो सकता है। इसी समझ का नवीनीकरण आजादी के बाद समय-समय पर आकाशवाणी, दूरदर्शन, मीडिया के अन्य स्वरूपों और शासकीय प्रतिष्ठानों द्वारा साल में कम से कम दो बार तो किया ही जाता है। इसीके चलते राष्ट्र को एक शाश्वत प्रकृति का तथ्य मान लिया जाता है और महज पचास या सौ या दो सौ साल पुरानी सीमाओं की हम याद भी नहीं करते हैं और मानते हैं कि ये जो वर्तमान राष्ट्र की भौगोलिक सीमाएँ हैं, वे ही स्थायी हैं और रक्षा योग्य हैं। इन्हीं वजहों से ‘कविता की राष्ट्रीयता’ और ‘कविता की सामाजिकता’ की समझ गड़बड़ होते-होते यहाँ तक आ गई है कि जो कविता राज्य की सीमाओं की, नीतियों की, युद्धोन्मादी हिंसा की, तत्संबंधी नीतियों, पूर्वज राजनेताओं, युद्धकाल में सेनाओं की प्रशंसा करे वही राष्ट्रीय कविता है। फिल्मों और गीतकारों ने इस समझ का खासा व्यावसायिक उपयोग भी किया है।


(पाँच)

अर्थात सुभाष चंद्र बोस, भगतसिंह, महात्मा गाँधी या जवाहरलाल नेहरू पर लिखी कविता राष्ट्रीय होगी और रवीन्द्रनाथ टैगोर, दिलीप कुमार, पीटी ऊषा या मदर टेरेसा पर लिखी कविता राष्ट्रीय नहीं होगी।भाखड़ा नंगल बाँध पर लिखी कविता राष्ट्रीय होगी लेकिन नर्मदा बाँध की समस्याओं या विस्थापन को लेकर लिखी कविता राष्ट्रीय नहीं होगी। फिर यह भी सहज है कि खेल पर राष्ट्रीय कविता लिखना है तो हाॅकी पर लिखें और पक्षी चुनना है तो मोर को चुनें। अंततः यह समझ वहाँ जाएगी ही कि राजनैतिक या युद्ध के मोर्चे पर काम कर रहे हैं तो राष्ट्रीय काम हैं लेकिन साहित्य, समाज, संस्कृति, विज्ञान या अन्य मोर्चे पर किए जानेवाले काम राष्ट्रीय नहीं हैं। तब तो थल सेनाध्यक्ष को ही सर्वाधिक ‘राष्ट्रीय कार्य’ कर रहा व्यक्ति घोषित किया जाना उचित होगा। देश के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक, न्यायाधीश, डाॅक्टर, इंजीनियर लेखक, उद्योगपति या समाजसेवी के काम उस तरह राष्ट्रीय नहीं हैं। फिर उस बेचारे की क्या बिसात जो मिस्त्री है, कंडक्टर है, दुकानदार है या फेरी लगाकर सामान बेच रहा है।

(छह)

किसी भी देश में धीरे-धीरे यह राष्ट्रीय समझ, बहुसंख्यक जातीयता की समझ में तबदील हो जाती है। जैसे हमारे यहाँ ‘हिन्दुत्व’ को ही ‘राष्ट्रीयता’ की समझ में संयोजित किया जा रहा है। यही समझ अंधे राष्ट्रवाद की तरफ ले जाती है। यदि मान ही लिया जाए कि राष्ट्र मूलतः सिर्फ एक भौगोलिक सीमा है तो फिर जाहिर है कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ गहरे अर्थों में एक राष्ट्रविरोधी नारा है या फिर एक साम्राज्यवादी स्वप्न। इस समझ के आधार पर फिर उचित है कि एक सैनिक की बेईमानी तो देशद्रोह मानी जाए लेकिन एक उद्योगपति, राजनेता, संस्सकृतिकर्मी या प्रशासक की बेईमानी को देशद्रोह न माना जाए। तात्पर्य यह कि एक गलत समझ को सही मान लेने से सारी सामाजिक-राजनैतिक-सांस्कृतिक-नैतिक परिभाषाएँ भी नकारात्मक रूप से प्रभावित हो जाएँगी। इस राष्ट्रीय समझ के कारण ही कह दिया जाता है कि माक्र्सवादी विचार से प्रभावित भारतीय लोग देशभक्त नहीं हैं क्योंकि वे एक विदेशी विचारक से संचालित हैं। तब कहना प्रासंगिक होगा कि श्रीलंका या जापान के लगभग सभी निवासी देशद्रोही हैं क्योंकि वे एक विदेशी विचारक ‘महात्मा बुद्ध’ से प्रेरित होकर धार्मिक हैं। रिचर्ड एटनबरो अपने देश के प्रति द्रोही हैं कि उन्होंने तमाम देशज महापुरुषों का त्याग करते हुए गाँधी पर फिल्म बनाई। और कम्बोडिया, इंडोनेशिया वगैरह में रामलीला आयोजित करनेवाले और वे जो वहाँ रहकर महावीर, नानक या विवेकानंद आदि के विचारों के समर्थक हैं लेकिन भारतीय नहीं हैं, उन्हें भी उनके देशों द्वारा राष्ट्रविरोधी मान लिया जाना चाहिए। जाहिर है कि यह समझ पर्याप्त अराजक, अपरिपक्व और मानव विरोधी है। ज्ञान विरोधी तो है ही।

चिकित्सा, कंप्यूटर और यांत्रिकी विज्ञान की तमाम अवधारणाएँ तत्काल स्वीकार करते समय भी फिर यही विचार आना चाहिए कि ये तो अन्य राष्ट्रों से प्रसूत हुई हैं और इन्हें अपनाकर राष्ट्रविरोधी हो जाएँगे।

(सात)

कहना यह है कि सच्ची कविता अपने स्रोत  से, उद्गम से और प्रस्थान से ही मनुष्य और समाज सापेक्ष होती है, जितनी स्थानीय होती है उतनी है वैश्विक होती है और वही उसकी सच्ची राष्ट्रीयता है। उसकी अलग से कोई ‘राष्ट्रीय’ कोटि नहीं होगी क्योंकि राष्ट्र मूलतः एक मनुष्य समाज होता है। इसलिए राष्ट्रीय कविता का अर्थ सुजलाम सुफलाम तक या वीरों की स्तुतिगान तक सीमित नहीं किया जा सकता। ऐसी कविता भी यदि कविता है तो सिर्फ कविता ही होगी। जातिप्रथा, रंग भेद, लिंग भेद, कुरीतियों, अंधवश्विासों, कूपमण्डूपताओं, सांप्रदायिकता और असमानताओं पर लिखी गई कविताएँ भी राष्ट्र सापेक्ष और राष्ट्रीय होती हैं यदि वे एक बेहतर, मानवीय, स्वस्थ, वैज्ञानिक और अन्याय रहित समाज के पक्ष में खड़ी होती हैं, अपने राष्ट्र के भीतर-बाहर उठनेवाले राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक सवालों और हलचलों से टकराती हैं, उनसे प्रतिकृत होती हैं और तथाकथित ‘राष्ट्रकवियों’ की कविता से अलग कहीं अधिक वास्तविक सवालों को उठाती हैं या उन पर विमर्श संभव करती हैं। अपनी काव्यकला के साथ और संवेदना और भाषा की शक्तियों के साथ। या यों ही अपनी गहन व्याकुल प्रखरता के साथ।

लाल्टू की कवितायें

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लाल्टू हिन्दी कविता की मुख्यधारा से बाहर रहकर आपरेट करने वाले कवि हैं. 'मुख्यधारा' यानि संस्था, अकादमी, पुरस्कार,यात्रा वाले खेलों की रंगभूमि से अकसर अनुपस्थित. मुख्यधारा यानि दिल्ली-पटना-लखनऊ-भोपाल-इलाहाबाद स्थित मल्लक्षेत्र से अक्सर असम्बद्ध. शायद यही वज़ह है कि समकालीन विचारहीन विमर्शकेन्द्रित शोरगुल के कानफाडू माहौल में भी वह प्रतिरोध की कविता लिखने में मशगूल हैं. एक पुराने साबित कर दिए गए शिल्प में पूरी ताक़त के साथ नयी बात कहने को प्रतिबद्ध. उनकी कविता अक्सर खुरदरी नज़र आती है, भीतर तक चोटिल कर देने वाली. इधर बहुत कोमल, बहुत संभल कर, बहुत बचते-बचाते कविता लिखने की जो 'कला' प्रचलित हुई है, उसके बरक्स लाल्टू और ऐसे कुछ 'पुराने' ढब के कवियों को पढ़ना मुझ जैसे पाठक को 'असुविधा' का सुकून देता है. 
लाल्टू जी की तस्वीर उनके फेसबुक पेज से, ब्लॉग की सज्जा के लिहाज़ से फ्लिप की गयी. सो 'सिर्फ तस्वीर में ' जो  दायाँ है उसे बायाँ समझा जाय 



दिखना
आप कहाँ ज़्यादा दिखते हैं?

अगर कोई कमरे के अन्दर आपको खाता हुआ देख ले तो?बाहर खाता हुआ दिखने और अन्दर खाता हुआ दिखने में/ कहाँ ज्यादा दिखते हैं आप?

कोई सूखी रोटी खाता हुआ ज़्यादा दिखता है
जॉर्ज बुश न जाने क्या खाता है
बहुत सारे लोगों को वह जब दिखता है
इन्सान खाते हुए दिखता है
आदम दिखता है हर किसी को सेव खाता हुआ
वैसे आदम किस को दिखता है !

देखने की कला पर प्रयाग शुक्ल की एक किताब है
मुझे कहना है दिखने के बारे में
यही कि सबसे ज्यादा आप दिखते हैं
जब आप सबसे कम दिख रहे हों.

आदमी और तानाशाह


आदमी तहरीर चौक पर मरता है, वह दिल्ली की चौड़ी सड़क किनारे मरता है। वह मरते हुए देखता है देश, धर्म, जाति, लिंग सब कुछ मरते हुए। मरने के बाद वह मर चुका होता है।


उसका देश होता है असीम
, काल अनंत।


वह फिर से जनमता है, वह फिर से मरता है। फिर से जन्म लेते हैं देश, धर्म। फिर से मरते हैं। हर बार उसके मरते ही मर जाते हैं नक्शे, मरते हैं स्त्रोत। हर बार उसके मरते ही


हम बच्चों से कहते हैं कि आसमान में अनगिनत तारों में कहीं भी उसे ढूँढ लो।

उससे प्रेम करने वालों की स्मृति में वह कभी नहीं मरता। स्नेह से संभोग तक हर तरह का प्रेम जीवित रहता है। लोगबाग वर्षों तक उसके बारे में ऐसे बात करते हैं जैसे वह कभी मरा ही नहीं।


तानाशाह पालता है दरबारी कवि। दोनों एक जैसे मरते हैं। अभिशप्त लोक में उनकी आत्मा रहती है लावारिश। उनकी लाश पर नाच रहे लोगों की तस्वीरें छपती हैं। पर बच्चों के सामने


हम कभी उनकी बात नहीं करते गोया वह मर कर भी बच्चों को हमसे कहीं छीन न लें।

तानाशाह के मरने के बहुत पहले ही मर जाते हैं उसके प्रेम। मर चुके प्रेम को ढूँढता हुआ उसका प्रेत भटकता रहता है। किसी को परवाह नहीं होती कि वह कैसे मरा। वह मिला था


गोलियों से भुना हुआ या अपने महल में गुलाम सिपाहिओं से डरता हुआ मरा वह। उसकी लाश मिली किसी सिपाही को या मेरे या तुम्हारे जैसे किसी राही को किसको परवाह।

खबरों में आदमी कम और तानाशाह ज्यादा मरता है। कभी आमोदित, कभी अचंभित, हम उसकी लाश की देखते हैं तस्वीरें।




आदमी हमेशा शहीद नहीं होता। आदमी मरने के बाद आदमी होता है।
तानाशाह ज़िंदा या मुर्दा कभी आदमी नहीं होता। उसकी मौत को हमेशा कुत्तों की मौत कह देते हैं हम। इस बात से परेशान कुत्ते रातों को भौंककर हमारी नींद खराब करते हैं।




शहर लौटते हुए दूसरे खयाल


पहले वालों से भरपूर निपट लेने के बाद
आते हैं रुके हुए दूसरे खयाल
दिखने लगती है शहर की उदासी
वैसी ही जैसी यहाँ से जाते वक्त थी।
न चाहते हुए भी आँखें देखती हैं
कौन हुआ पस्त और कौन निहाल

शहर तो थोड़ा फूला भर है,
इससे अलग क्या हो सकता है उसे।
झंडे बदले हैं, पर उनके उड़ने के कारण नहीं बदले
उदासीन आस्मान के मटमैले रंग नहीं बदले
शोर बढा है पर कौन है सुनता, है पता किसे

उल्लास का गुंजन छूकर बहती है नदी
पहले जैसा है लावण्य पर बढ़ी है गंदगी
दीवारें बढ़ी हैं, छतें भी और बढ़े हैं बेघर
शहर ऊँघता है, जीने को अभिशप्त लंबी उमर
हिलता डुलता, कोशिश में बदलने की करवट

अंतर्मन से टीस है निकलती उसे यूँ देखते
एकाएक मानो अपना यूँ सोचना हम रोक लेते
और उसकी अदृश्य आत्मा को सहलाते हैं।

बहुत बदल चुके हमें चुपचाप देखता है शहर
हम नहीं जानते कि हमें भी सहला रहा होता है शहर
यह उसी को पता है
कि किस वजह से कभी जुदा हुए थे हम।





वह तोड़ती पत्थर




पथ पर नहीं
वह मेरे घर तोड़ती है पत्थर

हफ्ते भर पहले उसकी बहू मरी है
घबराई हुई है कि
बिना बतलाए नहीं आई हफ्ते भर

नज़रें झुकी हैं
गायब है आवाज़
घंटे भर से झाड़ू पोछा लगाती
तोड़ रही पत्थर दर पत्थर।





उजागर




जिसको नंगा कर पीटा गया
उसकी तस्वीर पर्दे पर है
जब वह मार खा रहा थाउसका शिश्न खड़ा था

वह बच गया उसका शिश्न बच गया

छिपाने लायक कुछ रह ही गया
अन्यथा हर तरह से उजागर आदमी के पास।

हिलते डुलते धब्बे
कुहासे से लदी है सुबहकारनामे सभी रात के छिप गए हैंभारी नमी के धुँधलके मेंसड़क पर साँय साँय बढ़ता चला हैहम जानते हैं कि यह एक आधुनिक शहर हैऐसे में कोई चला समंदर में कश्ती सासुबह सुबह अखबार बाँटनेया कि दूधवाला है या औरत जिसे चार घरों की मैल साफ करनी हैकुहासे को चीरते चले चले हैंकोई नहीं देख पाता उन्हेंकुहासा जब नहीं भी होता हैहिलते डुलते धब्बे दिखते हैं दूर तक। 

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लाल्टू 
हिन्दी के बेहद महत्वपूर्ण कवि. चार कविता संकलन "एक झील थी बर्फ की (1990 - आधार प्रकाशन), डायरी में तेईस अक्तूबर (2004 - रामकृष्ण प्रकाशन),लोग ही चुनेंगे रंग 2010 - शिल्पायन )तथा सुंदर लोग और अन्य कविताएँ (2011- वाणी )प्रकाशित. साथ में एक कहानी संकलन और बच्चों के लिए लिखी कुछ किताबें भी.साथ में हावर्ड ज़िन की पुस्तक 'A People's History of the United States' के बारह अध्यायों का अनुवाद (विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित). इन दिनों हैदराबाद में सैद्धांतिक प्रकृति विज्ञान (computational natural sciences) के प्रोफेसर



दुष्यंत क्यों रक्तबीज हो गए हैं? - बसंत जेटली

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पारम्परिक आख्यानों का कविता में प्रवेश और उनसे नए पर कुछ कहने का प्रयास हिंदी में कोई नई चीज़ नहीं है. मिथक हों या इतिहास, उनके मूल में उस काल की सामाजिक-राजनीतिक अवस्थितियों से निर्मित परिवेश और आदर्श रहते ही हैं. ऐसे में कई बार उनमें भटक जाने, उनकी आभा से दृष्टि के चुंधिया जाने और इस प्रभाव में किसी पुरोगामी कुपथ पर भटक जाने के खतरे भी होते हैं. 

बसंत जेटलीकी यह कविता  अपने कथ्य के लिए एक प्राचीन आख्यान का सहारा लेती है. शकुन्तला-दुष्यंत का आख्यान. लेकिन इस अति-प्रसिद्ध आख्यान की अँधेरी कंदराओं में भटकने की जगह वह इसके द्वारा स्थापित सहजबोध को प्रश्नांकित करने का ज़रूरी काम करती है और इस रूप में हमारे समय पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करती है. पार्श्व में चलते अभिनव शाकुंतलम की गूँज से निर्मित इसकी भाषा का प्रवाह कविता में एक विशिष्ट प्रवाह देता है. बसंत जी के प्रति आभार सहित यह कविता .. 



शकुन्तला के प्रश्न 


विश्वामित्र के
तपभंग को प्रेषित
अप्सरा माता के गर्भ से
अनचाहे जन्मी थी मै |
इसमे कसूर न तुम्हारा था
न मेरा,
यह अलग बात है
कि आज तक
बूझ नहीं पाई मै
अनेक ऋषियों का संयम |
जन्मते ही छोड़ गयी माँ,
समझा नहीं पिता ने
अपना दायित्व |
मृगछौने सहलाती
भागती – दौडती
कब हो गई युवा
और तुमने कब कहा मुझे
‘ प्रभा – तरल ज्योति ‘
नहीं जानती मै |
दुनियादारी नहीं थी मुझमे
जब शुरू किया तुमने
यकायक एक खेल |
आश्रम में भेज दिया तुमने
अचानक एक राजा,
वह भी तब
जब नहीं थे वहाँ
मेरे पालक पिता |
उसकी शिकारी नज़रों में
मै थी अनाघ्रात पुष्प,
नखों से अस्पृष्ट किसलय,
अनबिंधा रत्न,
अनास्वादित मधु,
और मन में था
बस एक सवाल
कि यदि मै नहीं
तो भला और कौन होगा
इसका भोक्ता ?
भोगी गई मै,
शापग्रस्त हुई मै,
त्यागी गई मै,
क्या था मेरा अपराध,
वह प्रेम जो हो गया
या तुमने लिख दिया ?
प्रेम का दंड मिला मुझे,
उसे नहीं
जो था उत्तरदायी,
तुम्हे भी नहीं
जो थे इसके सूत्रधार |
बस मेरा था दोष,
मै ही थी हतभागी,
मै थी
सिर्फ एक भोग्या
जिसे भूल सकता था
कोई भी भोक्ता |
विदा की वेला में
पिता के सारे उपदेश भी
मेरे लिए थे,
पति कहाँ था जवाबदेह
यह नहीं कहा तुमने,
नहीं कहा पिता ने |
तुम्हारे सारे विमर्श में
क्या यह ही थी
एक औरत,
मीठे बोलों से ठगा जाना
और गर्भावस्था में परित्याग ही
हो सकती है जिसकी नियति ?
महाकवि !
आज प्रश्नाकुल हूँ मै,
सिर झुकाए
चुप बैठे हो तुम
जैसे रीत गई हो
तुम्हारी सारी कल्पना |
उस क्षण
जो एक दुष्यंत रचा था तुमने
आज क्यों
रक्तबीज हो गए हैं वह ?
और क्यों
आज भी वही है
हर शकुन्तला का भवितव्य ?

राजेश जोशी की कवितायें

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राजेश जोशीहमारे समय के बेहद ज़रूरी कवि हैं. विचारधारा के क्षय के इस दौर में पिछले चार दशकों से वह जिस ज़िद और जिस उत्साह के साथ कविता को परिवर्तन के हथियार की तरह बरतने की कोशिश कागज़ से सड़क तक करते रहे हैं, वह मुझ जैसे युवा कलमकारों के लिए एक प्रेरणा की तरह काम करता है. ज़ाहिर है कि वे लोग जिन्होंने विचारधारा को प्रगति की सीढियों की तरह उपयोग करने के बाद अब उससे पीछा छुडाना चाहते हैं, उन्हें उनकी कविता असुविधा की तरह लगती है, चुभने वाली, तीखी. खुद को स्थापित करने की शर्मनाक कोशिश में लगे लोगों को कभी नहीं समझ आएगा कि "डायरी लिखना एक कवि के लिये सबसे मुश्किल काम है". खैर, पाठकों के बीच राजेश जोशी की स्वीकृति और सम्मान असंदिग्ध है. हमारे अनुरोध पर उन्होंने अभी हाल में 'पक्षधर' तथा 'पहल' में प्रकाशित कवितायें असुविधा के लिए उपलब्ध कराई हैं.   




यह समय

यह मूर्तियों को सिराये जाने का समय है ।

मूर्तियाँ सिराई जा रही हैं ।

दिमाग़ में सिर्फ़ एक सन्नाटा है
मस्तिष्क में कोई विचार नहीं
मन में कोई भाव नहीं

काले जल में बस मूर्ति का मुकुट
धीरे धीरे डूब रहा है !




डायरी लिखना

डायरी लिखना एक कवि के लिये सबसे मुश्किल काम है ।

कवि जब भी अपने समय के बारे में डायरी लिखना शुरू करता है
अरबी कवि समीह-अल-कासिम की तरह लिखने लगता है
कि मेरा सारा शहर नेस्तनाबूत हो गया
लेकिन घड़ी अब भी दीवाल पर मौजूद है ।

सारी सच्चाई किसी न किसी रूपक में बदल जाती है
कहना मुश्किल है कि यह कवि की दिक्कत है या उसके समय की
जो इतना उलझा हुआ , अबूझ और अंधेरा समय है
कि एक सीधा सादा वाक्य भी साँप की तरह बल खाने लगता है ।
वह अर्धविराम और पूर्ण विराम के साथ एक पूरा वाक्य लिखना चाहता है  
वह हर बार अहद करता है कि किसी रूपक या बिम्ब का
सहारा नहीं लेगा
संकेतों की भाषा के करीब भी नहीं फटकेगा ।
लेकिन वह जब जब कोशिश करता है
उसकी कलम सफ़े पर इतने धब्बे छोड़ जाती है
कि सारी इबारत दागदार हो जाती है ।

हालांकि वह जानता है कि डायरी को डायरी की तरह लिखते हुए भी
हर व्यक्ति कुछ न कुछ छिपा ही जाता है
इतनी चतुराई से वह कुछ बातों को छिपाता है
कि पता लगाना मुश्किल है कि वह क्या छिपा रहा है
कवि फ़क़त दूसरों से ही नहीं ,
अपने आप से भी कुछ न कुछ छिपा रहा होता है
जैसे वह अपनी ही परछाई में छिप रहा हो।

एक कवि के लिए डायरी लिखना सबसे मुश्किल काम है ।
भाषा को बरतने की उसकी आदतें उसका पीछा कभी नहीं छोड़तीं
वह खीज कर कलम रख देता है और डायरी को बंद कर के
एक तरफ़ सरका देता है ।

एक दिन लेकिन जब वह अपनी पुरानी डायरी को खोलता है
तो पाता है कि समय की दीमक ने डायरी के पन्नों पर
ना समझमें आने वाली ऐसी कुछ इबारत लिख डाली है
जैसे वही कवि के समय के बारे में
लिखा गया सबसे मुकम्मिल वाक्य हो ।


   
संग्रहालय

वहाँ बहुत सारी चीज़ें थी करीने से सजी हुई
जिन्हे गुजरे वक़्त के लोगों ने कभी इस्तेमाल किया था ।

दीवारों पर सुनहरी फ्रेम में मढ़े हुए उन शासकोे के विशाल चित्र थे
जिनके नीचे उनका नाम और समय भी लिखा था
जिन्होंने उन चीजों का उपयोग किया था
लेकिन उन चीजों को बनाने वालों का कोई चित्र वहाँ नहीं था
न कहीं उनका कोई नाम था ।

अचकनें थीं ,पगड़ियाँ थीं , तरह तरह के जूते और हुक्के थे ।
लेकिन उन दरजियों ,रंगरेजों , मोचियों और
हुक्का भरने वालों का कोई ज़िक्र नहीं था ।
खाना खाने की नक्काशीदार रकाबियाँ थीं ,
कटोरियाँ और कटोरदान थे ,
गिलास और उगालदान थे ।
खाना पकाने के बड़े बड़े देग और खाना परोसने के करछुल थे
पर खाना पकाने वाले बावरचियों के नामों का उल्लेख
कहीं नहीं था ।
खाना पकाने की भट्टियाँ और बड़ी बड़ी सिगड़ियाँ थीं
पर उन सिगड़ियों में आग नहीं थी ।

आग की सिर्फ कहानियाँ थीं
लेकिन आग नहीं थी ।

आग का संग्रह करना संभव नहीं था ।

सिर्फ आग थी
जो आज को बीते हुए समय से अलग करती थी ।




ज़िद

निराशा मुझे माफ करो आज मैं नहीं निकाल पाऊँगा तुम्हारे लिये समय
आज मुझे एक जरूरी मीटिंग में जाना है

मुझे मालूम है तुम भी वही सब कहोगी
जो दूसरे भी अक्सर ही कहते रहते हैं उन लोगों के बारे में
कि गिनती के उन थोड़े से लोगों की बिसात ही क्या है
कि समाज में कौन सुनता है उनकी बात ?
कि उनके कुछ करने से क्या बदल जायेगा इस दुनिया में ?
हालांकि कई बार उन्हें भी निरर्थक लगतीं हैं अपनी सारी कोशिशें
फिरभी एक ज़िद है कि लगे ही रहते हैं वे अपने काम में
कहीं घटी हो कोई घटना
दुनिया के किसी भी कोने में हुआ हो कोई अन्याय
कोई अत्याचार कोई दंगा या कोई दुर्घटना
वे हरकत में आजाते हैं तत्काल
सूचित करने निकल पड़ते हैं सभी जान पहचान के लोगों को
और अक्सर मुफ्त या सस्ते में उपलब्ध किसी साधारण सी जगह पर
किसी दोस्त के घर में या किसी सार्वजनिक उद्यान में
आहूत करते हैं वे एक मीटिंग
घंटों पूरी घटना पर गंभीरता से बहस करते हैं
उसके विरूद्ध या पक्ष में पारित करते हैं एक प्रस्ताव

अपनी मीटिंग की वे खुद ही तत्काल खबर बनाते हैं
खुद ही उसे अखबारों में लगाने जाते हैं
प्रतिरोध की इस बहुत छोटी सी कार्यवाही की खबर
कभी कभी कुछ अखबार सिंगल काॅलम में छाप देते हैं
अक्सर तो बिना छपी ही रह जाती हैं उनकी खबरें

कई बार उदासी उन्हें भी घेर लेती हैं
उन्हें भी लगता है कि उनकी कोई आवाज़ नहीं इस समाज में

निराशा !
मैंने कई कई बार तुम्हें उनके इर्द गिर्द मंडराते
और फिर हाथ मलते हुए लौटते देखा है
मैंने देखा है तुम्हारे झांसे में ज्यादा देर तक नहीं रहते
                                      वे लोग


कभी कभी किसी बड़े मुद्दे पर वे रैलियाँ निकालते हैं


दो 


खुद की ही जेबों को निचैड़ कर
खुद ही रात रात जाग कर तैयार करते हैं
मशालें पोस्टर और प्ले कार्ड
अगर रैली में जुट जाते हैं सौ सवा सौ लोग भी
तो दुगने उत्साह से भर जाते हैं वे

दुनियादार लोग अक्सर उनका मज़ाक उड़ाते हैं
असफलताओं का मखौल बनाना ही
व्यवहारिकता की सबसे बड़ी अक्लमन्दी है
कभी कभी छेड़ने को और कभी कभी गुस्से में
पूछते हैं दुनियादार लोग
क्या होगा आपके इस छोटे से विरोध से ?

पर वे किसी से पलट कर नहीं पूछते कभी
कि तुम्हारे चुप रहने ने ही
कौनसा बड़ा कमाल कर दिया है
इस दुनिया में ?
पलट कर उन्होंने नहीं कहा कभी किसी से
कि दुनियादार लोगो ! तुम्हारी चुप्पियों ने ही बढ़ाई है
अपराधों और अपराधियों संख्या हर बार
कि शरीफजादों ! तुम्हारी निस्संगता ने ही बढ़ाये है
अन्यायियों के हौसले
कि मक्कार चुप्पियों ने नहीं छोटी छोटी आवाज़ों ने ही
बदली है अत्याचारी सल्तनतें

वे दुनियादार लोगों की सीमाएँ जानते हैं
उनके सिर पर भी हैं घर गृहस्थी और बाल बच्चों की
जिम्मेदारियाँ
भरसक कोशिश करते हैं कि दोनों कामों में संतुलन बना रहे
पर ऐसा अक्सर हो नहीं पाता
घर में भी अक्सर झिड़कियाँ सुननी पड़ती हैं उन्हें
सब उनसे एक ही सवाल पूछते हैं
कि दुनिया भर की फिक्र
वे ही क्यों अपने सिर पर लिये घूमते रहते हैं
कि उनके करने से क्या बदल जायेगा इस समाज में ?

वे जो दुनिया की हर घटना के बारे में बोलते हैं
इस सवाल पर अक्सर चुप रह जाते हैं !!



गुरूत्वाकर्षण


न्यूटन जेब में रखलो अपना गुरूत्वाकर्षण का नियम
धरती का गुरूत्वाकर्षण खत्म हो रहा है ।

अब तो इस गोलमटोल और ढलुआ पृथ्वी पर
किसी एक जगह पाँव टिका कर खड़े रहना भी मुमकिन नहीं
फिसल रही है हर चीज़ अपनी जगह से
कौन कहाँ तक फिसल कर जायेगा ,
किस रसातल तक जायेगी यह फिसलन
कोई नहीं कह सकता
हमारे समय का एक ही सच है
कि हर चीज फिसल रही है अपनी जगह से ।

पृथ्वी का गुरूत्वाकर्षण ख़त्म हो रहा है ।

फिजिक्स की पोथियो !
न्यूटन के सिद्धान्त वाले सबक की ज़रूरत नहीं बची ।

पृथ्वी का गुरूत्वाकर्षण खत्म हो रहा है ।

कभी भी फिसल जाती है राष्ट्राध्यक्ष की जबान
कब किसकी जबान फिसल जाएगी कोई नहीं जानता
श्लोक को धकियाकर गिरा देती है फिसलकर आती गालियाँ
गड्डमड्ड हो गये है सारे शब्द
वाक्य से  फिसलकर बाहर गिर रहे हैं उनके अर्थं
ऐसी कुछ भाषा बची है हमारे पास
जिसमें कोई किसी की बात नहीं समझ पाता
संवाद सारे ख़त्म हो चुके है , स्वगत कर रहा है
नाटक का हर पात्र ।

आँखों से फिसल कर गिर चुके हैं सारे स्वप्न ।

करोड़ों वर्ष पहले ब्रम्हाण्ड में घूमती हजारों चट्टानों को
अपने गुरूत्वाकर्षण से समेट कर
धरती ने बनाया था जो चाँद
अपनी जगह से फिसल कर
किसी कारपोरेट के बड़े से जूते में दुबक कर बैठा है
बिल्ली के बच्चे की तरह ।

फिसलन ही फिसलन है पूरे गोलार्ध पर
और पृथ्वी का गुरूत्वाकर्षण खत्म हो गया है !

ओ नींद
मुझे इस भयावह स्वप्न-सत्य से बाहर आने का रास्ता दे !





अनुपस्थित-उपस्थित

मैं अक्सर अपनी चाबियाँ खो देता हूँ ।

छाता मैं कहीं छोड़ आता हूँ
और तरबतर होकर घर लौटता हूँ ।
अपना चश्मा तो मैं कई बार खो चुका हूँ ।
पता नहीं किसके हाथ लगी होंगी वे चीजें
किसी न किसी को कभी न कभी तो मिलती ही होंगी
वो तमाम चीजें जिन्हें हम कहीं न कहीं भूल आये ।

छूटी हुई हर एक चीज तो किसी के काम नहीं आती कभी भी
लेकिन कोई न कोई चीज तो किसी न किसी के
कभी न कभी काम आती ही होगी
जो उसका उपयोग करता होगा
जिसके हाथ लगी होंगी मेरी छूटी हुई चीजें
वह मुझे नहीं जानता होगा
हर बार मेरा छाता लगाते हुए
वह उस आदमी के बारे में सोचते हुए
मन ही मन शुक्रिया अदा करता होगा जिसे वह नहीं जानता ।

इस तरह एक अनाम अपरिचित की तरह उसकी स्मृति में
कहीं न कहीं मैं रह रहा हूँ जाने कितने दिनों से ,
जो मुझे नहीं जानता
जिसे मैं नहीं जानता ।
पता नहीं मैं कहाँ ,कहाँ कहाँ रह रहा हूँ
मैं एक अनुपस्थित-उपस्थित !

एक दिन रास्ते में मुझे एक सिक्का पड़ा मिला
मैंने उसे उठाया और आसपास देखकर चुपचाप जेब में रख लिया
मन नहीं माना ,लगा अगर किसी ज़रूरतमंद का रहा होगा
तो मन ही मन वह बहुत कुढत़ा होगा
कुछ देर जेब में पड़े सिक्के को उंगलियों के बीच घुमाता रहा
फिर जेब से निकाल कर एक भिखारी के कासे में डाल दिया
भिखारी ने मुझे दुआएँ दी ।

उससे तो नहीं कह सका मैं
कि सिक्का मेरा नहीं है
लेकिन मन ही मन मैंने कहा
कि ओ भिखारी की दुआओं
जाओ उस शख़्स के पास चली जाओ
जिसका यह सिक्का है ।



अंधेरे के बारे में कुछ वाक्य


अंधेरे में सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि वह किताब पढ़ना
नामुमकिन बना देता था ।

पता नहीं शरारतन ऐसा करता था या किताब से डरता था
उसके मन में शायद यह संशय होगा कि किताब के भीतर
कोई रोशनी कहीं न कहीं छिपी हो सकती है ।
हालांकि सारी किताबों के बारे में ऐसा सोचना
एक किस्म का बेहूदा सरलीकरण था ।
ऐसी किताबों की संख्या भी दुनिया में कम नहीं ,
जो अंधेरा पैदा करती थीं
और उसे रोशनी कहती थीं ।

रोशनी के पास कई विकल्प थे
ज़रूरत पड़ने पर जिनका कोई भी इस्तेमाल कर सकता था
ज़रूरत के हिसाब से कभी भी उसको
कम या ज्यादा किया जा सकता था
ज़रूरत के मुताबिक परदों को खींच कर
या एक छोटा सा बटन दबा कर
उसे अंधेरे में भी बदला जा सकता था
एक रोशनी कभी कभी बहुत दूर से चली आती थी हमारे पास
एक रोशनी कहीं भीतर से , कहीं बहुत भीतर से
आती थी और दिमाग को एकाएक रोशन कर जाती थी ।

एक शायर दोस्त रोशनी पर भी शक करता था
कहता था ,उसे रेशा रेशा उधेड़ कर देखो
रोशनी किस जगह से काली है ।

अधिक रोशनी का भी चकाचैंध करता अंधेरा था ।

अंधेरे से सिर्फ अंधेरा पैदा होता है यह सोचना गलत था
लेकिन अंधेरे के अनेक चेहरे थे
पाॅवर हाउस की किसी ग्रिड के अचानक बिगड़ जाने पर
कई दिनों तक अंधकार में डूबा रहा
देश का एक बड़ा हिस्सा ।
लेकिन इससे भी बड़ा अंधेरा था
जो सत्ता की राजनीतिक जिद से पैदा होता था
या किसी विश्वशक्ति के आगे घुटने टेक देने वाले
गुलाम दिमागों से !
एक बौद्धिक अंधकार मौका लगते ही सारे देश को
हिंसक उन्माद में झौंक देता था ।

अंधेरे से जब बहुत सारे लोग डर जाते थे
और उसे अपनी नियति मान लेते थे
कुछ जिद्दी लोग हमेशा बच रहते थे समाज में
जो कहते थे कि अंधेरे समय में अंधेरे के बारे में गाना ही
रोशनी के बारे में गाना है ।

वो अंधेरे समय में अंधेरे के गीत गाते थे ।

अंधेरे के लिए यही सबसे बड़ा खतरा था ।


पक्की दोस्तियों का आईना


पक्की दोस्तियों का आईना इतना नाजुक होता जाता था
कि जरा सी बात से उसमें बाल आ जाता और
कभी कभी वह उम्र भर नहीं जा पाता था ।

ऐसी दोस्तियाँ जब टूटती थीं तब पता लगता था
कि कितनी कड़वाहट छिपी बैठी थी उनके भीतर
एक एक कर न जाने कब कब की कितनी ही बातें याद आती थीं
कितने टुच्चेपन , कितनी दगाबाजियाँ छिपी रही अब तक इसके भीतर
हम कहते थे ,यह तो हम थे कि सब कुछ जानते हुए भी निभाते रहे
वरना इसे तो कभी का टूट जाना चाहिये था ।

पक्की दोस्तियों का फल
कितना तिक्त कितना कटू भीतर ही भीतर !

टूटने से खाली हुई जगह को भरती थी हमारी घृणा !

उम्र के साथ साथ नये दोस्त बनते थे और पूराने छूटते जाते थे
बचपन के लंगोटिये यार बिछड जाते थे ।
कभी कभी तो महीनों और साल दर साल उनकी याद भी नहीं आती
साल चैमासे या बरसों बाद उनमें से कोई अचानक मिल जाता था
कस कर एक दूसरे को कुछ पलों को भींच लेते थे
फिर कोई कहता कि यूँ तो मैंने सिगरेट पीना छोड़ दिया है
पर आज तेरे मिलने की खुशी में बरसों बाद एक सिगरेट पिऊँगा
दोनों सिगरेट जलाते थे।
अतीत के ढेर सारे किस्सों को दोहराते थे ,जो दोनों को ही याद थे
बिना बात बीच बीच में हँसते थे , देर तक बतियाते थे
लेकिन अचानक महसूस होता था
कि उनके पास सिर्फ कुछ यादें बची हैं
जिनमें बहुत सारे शब्द हैं पर सम्बंधों का ताप कहीं चुक गया है ।

पक्की दोस्तियों का आईना
समय के फ़ासलों से मटमैला होता जाता था।

रात दिन साथ रह कर भी जिनसे कभी मन नहीं भरा
बातें जो कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं
बरसों बाद उन्हीं से मिल कर लगता था
कि जैसे अब करने को कोई बात ही नहीं बची
और क्या चल रहा है आजकल..... जैसा फ़िज़ूल का वाक्य
बीच में बार बार चली आती चुप्पी को भरेने को
कई कई बार दोहराते थे ।
कोई बहाना करते हुए कसमसाकर उठ जाते थे
उठते हुए कहते थे ........ कभी कभी मिलाकर यार ।
बेमतलब है यह वाक्य हम जानते थे
जानते थे कि हम शायद फिर कई साल नहीं मिलेंगे ।

मुश्किल वक़्त में ऐसे दोस्त अक्सर ज़्यादा काम आते थे
जिनसे कभी कोई खास नज़दीकी नहीं रही ।

पक्की दोस्तियों के आईने में
एक दिन हम अपनी ही शक़्ल नहीं पहचान पाते थे ।

कहानियों में प्रेम और प्रेम की कहानी - राकेश बिहारी

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राकेश बिहारी एक समर्थ कहानीकार ही नहीं, कहानी के एक जिम्मेदार आलोचक हैं. अभी उनकी कथा-आलोचना की पहली किताब शिल्पायन से छप कर आई है. इसी किताब से युवा कहानीकारों (जिन्हें वह भूमंडलोत्तर समय के कहानीकार कहते हैं) की कुछ प्रेम कहानियों पर लिखा उनका लेख आज प्रस्तुत है असुविधा पर.




बेचैनी और विद्रोह के बीच एक सामाजिक विमर्श

- राकेश बिहारी



भूमंडलोत्तर समय की प्रेम कहानियोंपर बात करते हुये मुझे सुरेन्द्र वर्मा के बहुचर्चित उपन्यास मुझे चांद चाहियेका एक दृश्य याद आ रहा है जिसमें वर्षा और शिवानी आपसे में बात करते हुये अपने निजी अनुभवों के आधार पर प्रेम को परिभाषित करने की कोशिश करती हैं. दृश्य कुछ इस तरह है -

वर्षा उदास-सी मुस्कुरायी, "मैंने तकिये के नीचे हर्ष की तस्वीर रखी है. बिस्तर पर जाने के बाद उसी से उल्टी-सीधी बातें करती हूं. मैंने प्रेम की निजी परिभाषा बनाई है. बताऊं?"
"हूं?" शिवानी कौतुक से मुस्कुरायी.
"जब किसी की स्मृति नींद ला देने में समर्थ होने लगे तो इसे व्यावहारिक रूप से प्रेम कहा जा सकता है."
शिवानी उदास चपलता से मुस्कुरायी - " और जब किसी की स्मृति से नींद उड़ने लगे तो, क्या यह भी प्रेम की उतनी ही सार्थक परिभाषा नहीं होगी...?""

सवाल यह है कि यहां प्रेम की कौन सी परिभाषा सच्ची है - पहली, दूसरी या दोनोंया फिर प्रेम इतना भर न होकर कुछ इससे आगे की चीज़ है?

सवाल कई और भी हैं... प्रेम एक नितांत निजी धारणा है या फिर इसकी कुछ सामाजिक अंत:क्रियायें भी हैं? प्रेम बेचैनी है या विद्रोह? क्या जाति और लिंग की सामाजिक हकीकतें प्रेम के व्यावहारिक पक्ष को प्रभावित करती हैं? क्या समय और समाज से कटा वायवीय प्रेम संभव है? न तो ये प्रश्न नये हैं और न इनके संभावित उत्तर ही. लेकिन प्रेम पर बात करते हुये प्रश्न और उत्तर की इस श्रंखला से बचा भी नहीं जा सकता. या यूं कहें कि बिना इन प्रश्नों से टकराये हम किसी भी समय की प्रेम कहानियों पर कोई सार्थक चर्चा नहीं कर सकते. फिलहाल चर्चा यहां १९९५ के बाद उभरकर आये कथाकारों की उन कहानियों की जिनके केन्द्र में स्त्री-पुरुष का प्रेम है.

हां, तो हम प्रेम के मूल प्रश्न पर लौटते हैं. वह प्रेम- जिसका एक सिरा बेचैनी से जुड़ता है तो दूसरा विद्रोह से. जिसका एक छोर नितांत निजी और गोपन संवेदनाओं के आवेग से धड़कता है तो दूसरा छोर जाति, धर्म, पैसा और हैसियत के क्रूर खेल का शिकार होकर कदम-दर-कदम सामाजिक बहिष्कार, मौत और हत्या की त्रासदियों से दो-चार होता हुआ बार-बार विफल होने को अभिशप्त होता है. इंटरनेट और मोबाईल के इस उत्तर आधुनिक समय में आज के युवक-युवतियां जिस तरह प्रेम को लेकर समय और समाज की बनी-बनाई अवधारणाओं को चुनौती दे रहे हैं, वह न सिर्फ चौकाता है बल्कि हमें नये सिरे से आश्वस्त भी करता है. इस सिलसिले में एक कहानी के एक पात्र, वह भी एक स्त्री पात्र, का यह कथन गौर करने लायक है - "मैं डार्लिंग फार्लिंग नहीं कहने वाली हूं समझे, और सुन लो मैं तुम्हारी याद में बेचैन भी नहीं हूं... सुनो उस रोज किशोर बोला, "अपनी जाति का लाज नहीं है. बर्दाश्त नहीं होता तो मुझसे कहो." मैं भी बोल दी, "काहे बर्दाश्त करें, जिसको कहना था कह दिये हैं. जिससे शादी होगी मैं तो उसी की जाति की हो जाऊंगी"... चाचा से मत डरना. वह कुछ नहीं कर पायेगा. पापा को मरवा दिया. पापा से जमीन सब अपने नाम करा लिया और ठीक से इलाज भी नहीं करवाया. कल कह रहा था, "अब स्कूल नहीं जायेगी." मां बोल दी, "जायेगी." वह तुम्हारे यहां जायेगा, वहीं पिटवा देना..."नया ज्ञानोदय (प्रेम महाविशेषांक, सितंबर २००९) में प्रकाशित राजीव कुमार की कहानी तेजाबमें सलोनी द्वारा अपने प्रेमी को लिखे गये पत्र का यह अंश सिर्फ इसलिये महत्वपूर्ण नहीं है कि इसमें जाति और हैसियत की सामंती व्यवस्था को चुनौती दी गई है, बल्कि इसका महत्व इसलिये भी है कि इस व्यवस्था को एक स्त्री चुनौती दे रही है और प्रतिरोध के इस परिवर्तनकामी अनुष्ठान में उसकी मां भी उसके साथ है. लेकिन जाति-व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं कि दो-चार व्यक्तियों का यह उपक्रम प्रतिरोध को निर्णायक मोड़ तक नहीं पहुंचा पाता. पूरी व्यवस्था से लड़ता यह प्रेम अगड़े-पिछड़े की प्रतिक्रियावादी लड़ाई का एक मोहरा बनकर रह जाता है और एक दिन सलोनी की हत्या कर दी जाती है... कहानी के अंत में व्याप्त किशोर भावुकता और नाटकीयता के बावजूद यह कहानी जिस तरह जातिगत राजनीति और प्रेम के आलोक में समाज के दकियानूसी और क्रूर बर्ताव के खिलाफ एक सार्थक आवाज़ उठाती है, वह हमें नई उम्मीदों से भरने वाला है.

वंदना रागअपनी कहानी आज रंग है(नया ज्ञानोदय, मई २०११) में प्रेम और राजनीति के संबंधों को जाति से दो कदम और आगे अपराध के धरातल से उठाती हैं. मैं जब-जब किसी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेता की प्रेम कहानी के बारे में सुनता हूं मेरे मन में कई तरह के प्रश्न उठ खड़े होते हैं, मसलन, कैसे कोई लड़की किसी अपराधी से प्यार कर सकती है? जिसे हम ऊपर से प्यार समझते हैं कहीं वह किसी भय या आतंक से उत्पन्न कोई मजबूरी तो नहीं? और सबसे ऊपर यह कि दिन-रात अपराध और दबंगई में मशरूफ रहनेवाले व्यक्ति के प्रम का हश्र क्या हो सकता है? अव्यक्त प्रेम, स्मृति और अनुमान के सहारे यह कहानी इन तमाम प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने की कोशिश करती है. श्रुति और समीर एक दूसरे को प्यार करते हैं. श्रुति जहां अपने प्यार को लेकर एक स्वाभाविक संवेदनात्मकता और रूमानीपन में डूबी है वहीं समीर लगातार खयालों में उस मल्लिका की यादों से उलझता रहता है जिसे कभी वह मन ही मन प्रेम करता था और वह किसी दिन चुन्नू यादव नामक एक आपराधिक छवि वाले नेता से शादी रचाकर चली गई थी. अभी मैंने जिन सवालों का जिक्र यहां किया उसके समानांतर यह कहानी दो और प्रश्नों से  जूझती है - एक यह कि क्यालव ऐट फर्स्ट साइटजैसी कोई चीज़ भी होती है? और दूसरा यह कि क्या लड़कियां क्रूरताओं की तरफ आकर्षित होती हैं? सच है कि प्रेम हमारी संवेदनाओं को हमेशा जीवंत रखता है, राजनीति का कोई भी दुष्चक्र उसे हताहत नहीं होने देता लेकिन इसके समानांतर एक सच यह भी है कि अपराध और राजनीति में डूबा व्यक्ति न सिर्फ अपने प्रिय पात्र को आतंक और असुरक्षा के बीच सहम कर रहने को विवश कर देता है बल्कि षडयंत्र करते-करते एक दिन खुद किसी षडयंत्र का शिकार हो जाता है. प्रेम और राजनीति के इन्हीं दो समानांतर सत्यों का अंतर तेजाबऔर आज रंग हैको न सिर्फ एक दूसरे से अलग करता है बल्कि कई अर्थों में आमने-सामने भी खड़ा कर देता है.

उल्लेखनीय है कि तेजाबकी सलोनी और आज रंग हैकी मल्लिका दोनों ही पितृहीन हैं. यहां एक प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि क्या स्त्रियों के भीतर प्रेम का स्पन्दन कहीं न कहीं उनके सुरक्षाबोध से भी जुड़ा होता है? क्या अपने भीतर बैठा यह असुरक्षाबोध ही उन्हें क्रूर और आपराधिक छवि वाले पुरुषों तक के निकट भी ले आता है? इस संदर्भ में रेखांकित किया जाना चाहिये कि मल्लिका से प्रेम और शादी करने के पहले चुन्नू यादव ने उसकी मां को नौकरी दिलवाने में भी मदद की थी. चूंकि यह पूरी कहानी समीर की दृष्टि से लिखी गई है, मल्लिका और उसकी मां के मन की परतें यहां नहीं खुलती हैं. चूंकि  मल्लिका और चुन्नू यादव के संबंधों के संदर्भ में समीर की सारी व्याख्यायें कयास और अनुमान पर आधारित हैं, अपनी अच्छी खासी लंबाई के बावज़ूद यह कहानी आपराधियों से प्रेम करनेवाली या अपराधियों से प्रेम करने को मजबूर कर दी जानेवाली लड़की के मनोविज्ञान की पड़ताल नहीं कर पाती है. मल्लिका के मन की गहराइयों में उतरकर यह कहानी कई ऐसे सवालों का सार्थक जवाब खोजने का जतन कर सकती थी जिनके सामाजिक निष्कर्ष बहुधा सुनी सुनाई बातों पर ही निर्भर होते हैं.

नया ज्ञानोदय के ही प्रेम कहानी अंक में प्रकाशितपंकज मित्र की कहानीपप्पू कांट लव सा...प्रेम करने के सपने और प्रेम न कर पाने की विवशता के बीच आर्थिक विपन्नता की भूमिका को रेखांकित करती है. एक मैकेनिक का बेटा पप्पू कॉम्पीटीशन पास करने के बावज़ूद न तो इंजीनीयर बन पाया और न ही तमाम कोमल भावनाओं और एकात्म समर्पण के बावज़ूद उसे सुवि शर्मा का प्यार ही मिला. इन दोनों ही परिणतियों के मूल में बस एक ही कारण है उसका गरीब बाप का बेटा होना. गरीबी, एक ऐसा अभिशाप, जिसके कारण एक तरफ बैंक एजुकेशन लोन देने से बिदक जाता है और दूसरी तरफ शमीमा, सुवि शर्मा बनकर उसे अपने एस एम एस से न सिर्फ परेशान करती है बल्कि प्रेम का एक भ्रमजाल रचकर उसकी ज़िंदगी तबाह कर जाती है. पप्पू की विडंबना तब और त्रासद हो जाती है जब सुवि शर्मा के प्रति उसके एकतरफा प्रेम को, जिसके मूल में शमीमा की क्रूर हरकतें छिपी है, ऊंची जाति के लड़के सच मान बैठते है और उसके किये की सजा उसे वैलेंटाइन डे को उसकी बुरी तरह पिटाई करके देते हैं. यह कहानी जिस तरह  प्रेम के बहाने समाज में व्याप्त आर्थिक खाइयों की सामाजिक परिणति को हमारे सामने खड़ा करती है वह कई आर्थिक-सामाजिक हकीकतों से पर्दे हटाता है. इस तरह यह कहानी  बिना प्रेम के घटित हुये भी पूंजी और बाज़ार के गठजोड़ से उत्पन्न संक्रमणकाल की उन विडंबनाओं को उजागर कर जाती है जो आये दिन न जाने कितने संभावित प्रेमों की बली लेता फिरता है.

पप्पू की निरीह और दयनीय विडंबना का ही एक अनुपूरक रूप हम शशिभूषण की कहानी फटा पैंट और एक दिन का प्रेम(कथादेश, प्रेम कहानी विशेषांक, जनवरी २००६) के जानकी में देख सकते हैं, जो अपनी फटी पैंट के कारण एक दिन अचानक बाज़ार में दिख गई बचपन की दोस्त से बातचीत करने में भी झिझक और संकोच महसूस करता है. कहने की जरूरत नहीं कि यह झेंप अनजाने ही पैंट के फट जाने से नहीं, उसके उस अर्थाभाव से उत्पन्न हुई है जिसके कारण  न जाने कब से वह फटी पैंट पहनकर कॉलेज जाने को विवश है. वर्षों बाद बचपन की दोस्त के मिलने के उत्साह और उल्लास के इस कदर टूट-बिखर जाने की स्थिति के बीच जानकी के यह पूछने पर कि वह कभी चिट्ठी कार्ड क्यों नहीं भेजती, उस लड़की का यह कहना कि नहीं लिख पाती, डर लगता हैप्रेम के एक और सामाजिक पहलू की तरफ इशारा करता है कि बचपन की दोस्ती या प्रेम का स्मरण भी कैसे किसी व्यक्ति, खासकर स्त्री, के वैवाहिक जीवन में बिखराव पैदा करने का डर भर देता है.

प्रेम एक क्रांति है, जिसके घटित होने या न होने के मूल में जितनी सामाजिक अभिक्रियायें शामिल हैं, उसकी सफलता या विफलता उसी या उससे भी ज्यादा मात्रा में बेहद ही निजी और मानसिक अंत:क्रियाओंको भी जन्म देती है. मतलब यह क प्रेम एक ऐसी सामाजिक-मानसिक प्रक्रिया है जिसकी जड़ें जितनी हमारे भीतर धंसी होती हैं, उसकी शाखयें उतनी ही बाह्य जगत में फैली होती हैं. प्रेम मनुष्य और मनुष्यता के लिये सबसे बड़ी संवेदनात्मक पूंजी है. इसका अहसास न सिर्फ हमारे भीतर की नमी को बचाये रखता है बल्कि हमारे अंतस में  निरंतर सभ्य होने या बने रहने की एक अदृश्य आकांक्षा के बीज भी रोपता है. इसके विपरीत प्रेम का प्रतिरोध या उपेक्षा हमें बर्बर और असभ्य भी बनाते हैं. मतलब यह कि सभ्यता का इतिहास कहीं न कहीं मनुष्य के भीतर पल रहे प्रेम और संवेदना के संवर्द्धन या क्षरण की कहानी भी है. यूं तो कहने को मानव सभयता का इतिहास स्त्री और पुरुष का साझा इतिहास है, लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि सभ्यता विकसित होते-होते न जाने कितनी स्त्रियों की संवेदनाओं और अधिकारों की बलि ले लेती है. और तो और इस क्रम में स्त्री तन-मन का मालिक बन बैठा पुरुष उसे अपनी संपत्ति से ज्यादा कुछ नहीं समझता - एक ऐसी संपत्ति जिस पर सिर्फ और सिर्फ उसका हक है, वह चाहे उसका इस्तेमाल करे या फिर अपने मिथ्याभिमान की तुष्टि के लिये जब-तब  किसी बिसात का मोहरा बना उसपर अपनी हेठी का दाव खेल जाये. नया ज्ञानोदय (युवा पीढ़ी विशेषांक, मई २००७) में प्रकाशित राकेश मिश्र की कहानी सभ्यता समीक्षाएक स्त्री की संवेदना के साथ खेले जाने वाले इसी क्रूर खेल की दास्तान है. कहानी का मुख्य पात्र शार्दूल सिंह जिस तरह अपने दोस्त के साथ शर्त लगाकर अपने विश्वविद्यलय में आई एक नई लड़की ब्रिजिट को अपने प्रेम के भ्रम में फंसाकर उसकी भावनाओं को क्षत-विक्षत करता है, वह प्रेम के नाम पर स्त्रियों की बहुविध की जाती रही प्रताड़नाओं का ही एक रूप है. लेकिन कहानी के अंत में अपनी गलती का अहसास करके शार्दूल का रो पड़ना सभ्यता के विकास में प्रेम और संवेदना की भूमिका को मजबूती से रेखांकित कर जाता है. लेकिन सभ्यता की दीवार पर टंगा यह प्रश्न तब भी अनुत्तरित ही रह जाता है कि क्या बंद कमरे में ढुलक आये शार्दूल के आंसू ब्रिजिट की आहत संवेदनाओं की भरपाई कर सकते हैं?

नीलाक्षी सिंह की कहानी आदमी औरत और घर(कथादेश, प्रेम कहानी विशेषांक, जनवरी २००६) तथा मोहम्मद आरिफ की कहानी दांपत्य (वागर्थ, मई २००४) जो उनके पहले संग्रह फूलों का बाड़ामें फुर्सत नाम से संकलित है, प्रेम कहानियों के इस संसार में सर्वथा अलग रंग भरती हैं. ये कहानियां रोजमर्रा की व्यावहारिक उलझनों के कारण विवाहित स्त्री-पुरुषों के जीवन से गुम हो चुके प्रेम के पुनर्वापसी की कहानियां हैं. एक कर्मचारी की मौत के कारण दफ्तर में हुई छुट्टी के दिन जब फुर्सतकहानी का नायक मानिक दिनों बाद छत पर जाता है तो जैसे उसकी मुलाकात अचानक ही अपनी ज़िंदगी की उन छोटी-छोटी खुशियों से हो जाती है जिसे न जाने वह कब का भूल चुका था. भरी दोपहर छत पर पसरे सन्नाटे के बीच वह जैसे एक-एक कर उन घटनाओं, अहसासों, उम्मीदों और इच्छाओं को फैलाता जाता है, जिनके बिना वह जी तो रहा था लेकिन जीवन जैसे उससे कोसों दूर था. छत की सफाई हो या बेर की डालियोंका कटना, या फिर पड़ोस के कबाड़ीवाले के झंझट की सूखी स्मृतियां या फिर दैनंदिनी के चिकचिक को भूलाकर अनायास ही बथुए की साग वाली चने की दाल खाने की इच्छा उसे लगता है जैसे यह सब कैसे दबे पांव उसकी ज़िंदगी से बाहर निकल, उसके जीवन का सारा रस निचोड़ चुके हैं. पुराने दिनों की इन स्मृतियों को अलगनी पर फैलाता-बटोरता मानिक अपनी पत्नी अनीता को छत पर बुलाता है और फिर जिस आत्मीय तन्मयता के साथ दोनों अपनी ज़िंदगी का अंतरंग सिंहावलोकन करते हैं, लगता है उसकी ऊंगली पकड़ उनके जीवन  से रीत चुका प्रेम एक बार पुन: उनके बीच उपस्थित-सा हो गया है. जीवन की उलझनों में खो चुके प्रेम की पुनर्वापसी की यह कहानी पिछले दिनों लिखी गई कहानियों में खासी दिलचस्प और महत्वपूर्ण है. इसी तरह आदमी औरत और घरके अधेड़ दम्पत्ति जिस तरह अपनी उम्रगत झेंप मिटाने की खातिर आपसी दूरी का छद्म ओढ़कर, अपने घर के युवा और तरुण सदस्यों से बचते-बचाते अपने अतीत हो चुके प्रेम की पुनर्रचना के लिये नई जमीन तैयार करते हैं, उसमें प्रेम के खोने के अहसास के बीच उसकी पुनर्स्थापना में होनेवाले सहज संकोचों और उससे उपजी विवशता का मर्मांतक सच छिपा है.

परिकथा (नवंबर-दिसंबर, २०१०) में प्रकाशित जयश्री राय की कहानी साथ चलते हुयेआस्था-अनास्था तथा स्वप्न और छलावे के मारक द्वन्द्व के बीच प्रेम और भरोसे के महत्व को पुनर्स्थापित करती है. इस कहानी के दो प्रमुख पात्र अपर्णा और कौशल आपस में अपना दुख साझा करते हैं और दुख की यही साझेदारी उनके बीच प्रेम के अंकुरण का कारण बनती है. यहां यह भी रेखांकित किया जाना चाहिये कि लेखिका इस कहानी में दुखों की साझेदारी के बीच सुख के नये क्षेत्रों के अनुसंधान का जो जतन करती हैं, उसकी नींव में किसी तीसरे व्यक्ति की कराह या आह शामिल नहीं है. बल्कि अपर्णा का कौशल से यह कहना कि वह आदिवासी समाज की बेहतरी के लिये किये जा रहे उसके काम में सहयोगिनी होना चाहती है, प्रेम के एक बेहद ही निजी अनुभव के उदात्तीकरण की तरफ इशारा करता है. दो व्यक्तियों के दुखों के मेल से बनी प्रेम की यह नई दुनिया जिस तरह हाशिये पर जीने की त्रासदी झेल रहे जन-समूहों के लिये रोशनी की नई संभावनायें तलशाना चाहती है वह अपने समय की तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद प्रेम और आस्था की सार्थक उपस्थिति को रेखांकित कर जाता है. अपने शेष बचे जीवन में सुख की कामना से भरे अपर्णा और कौशल के बेहद निजी क्षणों में वतावरण के सन्नाटे को तोड़ते आदिवासी स्वर-लहरियों के बीच नई सुबह की पगध्वनियों का सुनाई पड़ना कहीं न कहीं निजता को सार्वजनिकता में बदल डालने के प्रेम के अकूत सामर्थ्य का ही पुनरान्वेषण है.

तथा (अक्टूबर,२००८) में प्रकाशित प्रत्यक्षा की कहानी पांच उंगलियां पांच प्यार उर्फ ओ मेरी सोन चिरैया ऐसे मत होना फुर्रजो पांच छोट-छोटे लेकिन सर्वथा अलग-अलग कथा-दृश्यों का समुच्चय है, कहानी के परंपरागत ढांचे का अतिक्रमण करते हुये लिखी गई है. इसे एक मुकम्मल कहानी माना जाये या नहीं यह एक अलग चर्चा का विषय हो सकता है, लेकिन धुंधले और आभासी से दिखने वाले ये पांच दृश्य प्रेम और उसको लेकर स्त्री-पुरुष मानसिकता में व्याप्त अंतर की बारीक छवियों को व्यंजित कर जाते हैं. अलग-अलग सामाजिक और वर्गीय पृष्ठभूमि के पात्रों की उपस्थिति के बावज़ूद, लेकिन जिस तरह ये कथा-बिंब स्त्री को लेकर लगभग एक-से निष्कर्षों की तरफ इशारा करते हैं, वह एक बड़े सामाजिक सत्य की तरफ इशारा करता है. दूसरों के जीवन में रोशनी भरने के तमाम उपक्रम करती एक स्त्री के खुद के जीवन का अंधेरा कब छंटेगा? स्मृतियों के भार और भविष्य की आशंकओं के बोझ तले दबी औरत सुख के चरम क्षणों में भी कबतक दुख की नदी बनी रहेगी? निर्विकार-से दिखते पुरुषों की आंखों तक कब पहुंचेगी स्त्रियों की तकलीफ? ये कुछ ऐसे जरूरी प्रश्न हैं जिसे यह कहानी सूक्ष्मता से रेखांकित करती है. एकरस और दोयम दर्जे की ज़िंदगी जीने को अभिशप्त स्त्रियों के जीवन में उनके हिस्से का सुख जबतक शामिल नहीं हो जाता उनकी पीठ पर जड़ी आंखों में ऐसे सवाल लगातार टंगे रहेंगे.

तरुण भटनागर के पहले कहानी-संग्रह गुलमेंहदी की झाड़ियांमें संकलित कहानी बीते शहर से फिर गुजरना’, जो उत्तर प्रदेश (जुलाई २००३) में प्रकाशित उनकी छायाएंकहानी का संशोधित-परिमार्जित रूप हैएक शहर की स्मृतियों के बहाने ऐसे प्रेम की अन्तर्यात्रा है जो बीत कर भी नहीं बीतता. यह कहानी जिस सूक्ष्मता से मन की अतल गहराइयों में डूबकर प्रेम की सघनतम अनुभूतियों को स्वर देती है, वह किसी भी पाठक को उसके अपने प्रेम की स्मृतियों तक सहज ही ले जाता है. इस कहानी का नायक रेलयात्रा के दौरान गहराती रात में अपने उस प्रेम की स्मृतियों से गुजरते हुये, जो किन्हीं कारणों से उसके जीवन का स्थाई हिस्सा नहीं बन सका, सोचता है - प्रेम खुद के होने में नहीं, खुद को भूलने में है. खुद को खोना क्या सचमुच इतना आसान होता है? नहीं न! लेकिन तरुण भटनागर प्रेम  की इस दुर्लभ पराकाष्ठा को जिस आत्मीयता के साथ अपनी कहानी में उपस्थित करते हैं, वह सहज ही हमें अपना-सा लगने लगता है. प्रेम एक आवेग है, संवेदना का एक ऐसा ज्वार - जो कहकर नहीं आता और जब आता है इसकी पुलक और छुअन से सारा अग-जग भींग जाता है, और तब सिर्फ हमारा प्रेम पात्र ही नहीं उससे जुड़ी हर स्मॄतियां, हर वस्तु, हर जगह... जैसे हमारी ज़िंदगी का अटूट हिस्सा हो जाते हैं. जिस सादगी और आसानी से तरुण इस अनुभूति को इस कहानी में सजीव करते हैं, उसका एक टुकड़ा आप भी देखिये - "ऐसे बहुत से शहर हैं जो बीत गये, जहां जाना समय को खोना है. जहां जाकर कुछ नहीं हो सकता, पर वह थी और आज यूं शहर पूरी तरह से बीत नहीं पाया है. उसके होने के कारण यह शहर मर नहीं पाया है. लगता है कुछ रह गया है. कुछ रह गया है बीतने से."  सर्वांग प्रेममय होने की यह सूक्ष्म स्थिति, जहां बीत कर भी न बीतने, रीत कर भी न रीतने और छूटकर भी न छूटने का अहसास हमारी संवेदना का अभिन्न हिस्सा हो जाता है, को जिस खूबसूरती से यह कहानी पुनर्सृजित करती है वह इसे इधर की कहानियों में विशिष्ट बनाता है.

प्रेम हमारे भीतर सुरक्षा और भरोसे के बीज रोपता है. लेकिन इसी प्रेम पर यदि उम्र, हैसियत आदि को लेकर बैठे हीनताबोध का साया पर जाये तो...असुरक्षाबोध से उत्पन्न ऐसी स्थितियां कब किसी प्रेमी को क्रूर और निर्मम बना देती हैं पता नहीं चलता.  उदात्तता, संवेदनात्मकता और एकात्म होने की सारी अनुभूतियां देखते ही देखते असुरक्षा, एकाधिकार, और स्वामित्वबोध के भाव में बदल जाती हैं. मुक्ति, विद्रोह और कामना के संयोग से बना प्रेम-कुटीर कब-कैसे यातना गृह में तब्दील हो जाता है, हम समझ भी नहीं पाते. संवेद (अगस्त, २००७) में प्रकाशित कविता की कहानी यह डर क्यों लगता हैमन की अतल गहराईयों में विन्यस्त असुरक्षाबोध से उत्पन्न प्रेम के इन्हीं साइड इफेक्ट्स और उससे उबरने का एक सघन और संवेदनात्मक उपक्रम है. कहानी का मुख्य पात्र दानिश अपनी कम-उम्र पत्नी आमना को लेकर इतना मजबूर और असुरक्षित हो जाता है कि वह उसे कैद करके रखने में ही अपने प्यार की सार्थकता ढूंढ़ने लगता है. लेकिन प्रेम का पंछी भला कैद में कब रह पाया है. मुक्ति की आकांक्षा आमना को दानिश का साथ छोड़ेने को मजबूर कर देती है और इस दंश से व्यथित दानिश निर्मम, क्रूर और प्रतिघाती हो जाता है. लेकिन कालांतर में उसके जीवन में आई शबनम, जो आमना की अनुकृति जैसी ही दिखती है, की निस्संग तटस्थता उसे प्रेम के सही मायने तक खींच लाती है और वह उसकी शादी उसके मनचाहे लड़के से करवा देता है. इस तरह यह कहानी मुक्ति और बंधन तथा डर और सुरक्षा के बीच के फासले पर फैले प्रेम के व्यावहारिक मनोविज्ञान की बारीक पड़ताल कर जाती है. इस कहानी में डर के अनेकार्थी मनोविज्ञान की परतें उघारने वाले दानिश के अनुभव से निकला यह सूत्र कि प्यार मुक्ति देने में है, बांधने में नहीं प्रेम की सार्थकता को एक नई आभा से भर देता है.

आधुनिक समय में प्रेम के विविध रूपों, पल-प्रतिपल बनते-बिगड़ते उसके सामाजिक-मानसिक बिंबों-प्रतिबिंबों को रूपायित करने वाली कहानियां अभी और भी हैं, जिन सबका जिक्र एकसाथ संभव नहीं. लेकिन जिन थोड़ी सी कहानियों की चर्चा यहां हुई, उससे यह जरूर रेखांकित होता है कि प्रेम समय और समाज से कटी कोई वायवीय अवधारणा नहीं है. इसलिये प्रेम कहानियों पर बात करना कहीं न कहीं अपने समय और समाज के जरूरी विमर्शों से ही जूझना है. एक  ऐसा विमर्श - जिसकी जड़ों में न जाने कितनी सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक विसंगतियां और मनुष्य के गहरे अंतस में उठ-गिर कर उसके आचार-व्यवहार को प्रभावित करनेवाली कई-कई शारीरिक-मानसिक अंत:क्रियायें सहज और स्वाभाविक रूप से शामिल होती हैं. काश, प्रेम कहानी का नाम सुनते ही नाक-भौंह सिकोड़नेवाले तथाकथित सरोकारवादी विश्लेषक भी इस बात को समझ पाते!

(विश्व पुस्तक मेले में विमोचित पुस्तक केन्द्र में कहानीमें संकलित यह लेख कथाक्रमके प्रेम विशेषांक में भी प्रकाशित हुआ है.)
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राकेश बिहारी

जन्म 11अक्टूबर 1973, शिवहर (बिहार) में, शिक्षा ए. सी. एम. ए. (कॉस्ट अकाउन्टेंसी), एम. बी. ए. (फाइनान्स), प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेख प्रकाशित, वह सपने बेचता था (कहानी-संग्रह) और केन्द्र में कहानी(कथालोचना), संप्रति  एनटीपीसी लि. में कार्यरत


संपर्क               :          एन एच 3 / सी 76, एनटीपीसी विंध्याचल, पो.-विंध्यनगर, जिला - सिंगरौली
486885 (म. प्र.)

मो.                  :         09425823033

ईमेल               :           biharirakesh@rediffmail.com

नेहा नरुका की कवितायें

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नेहा नरुका की कवितायें अभी बिलकुल हाल में सामने आई हैं. इन कविताओं को पढ़ते हुए दो तरह के ख्याल आते हैं- पहला यह कि कहीं ये अतिरिक्त सावधानी से अपनाई हुई विद्रोही मुद्रा तो नहीं है और दूसरा यह कि एक स्त्री के क्रोध को हमेशा उसकी मुद्रा या फिर उसके निजी अनुभवों से जोड़कर ही क्यों देखा जाय? कहानी में अगर कहानीकार अपने परिवेश से पात्र गढ़ने की आज़ादी लेता है तो कविता को हमेशा कवि का आत्मकथ्य क्यों माना जाय. मैं अभी इस सकारात्मक पक्ष के साथ ही होना चाहता हूँ. इन कविताओं में जो क्रोध है, जो विद्रोह है, जो तड़प है और मुक्ति की जो असीम आकांक्षा है वह हिंदी कविता ही नहीं समाज में ज़ारी स्त्री-मुक्ति आन्दोलनों से कहीं गहरे जुड़ती है. साथ ही इन कविताओं में जो एक ख़ास तरह की स्थानीयता भाषा और चरित्रों के आधार पर लक्षित होती है, वह इन्हें आथेंटिक ही नहीं बनाती बल्कि इस ग्लोबल होती दुनिया के बीच मध्यप्रदेश के एक पिछड़े सामंती समाज के लोकेल को बड़ी मजबूती के साथ स्थापित भी करती है. इस रूप में यह विद्रोह हवाई नहीं रह जाता बल्कि विकास की चकाचौंध में छूट गए समाजों की हक़ीक़त के साथ टकराते हुए एक बड़े सच को भी सामने लाता है. मैं इस कवियत्री को बहुत उम्मीद के साथ देख रहा हूँ और इसमें यह उम्मीद भी जोड़ रहा हूँ कि यह आवाज़ विमर्शों के पंचतारा शोर में खोने से खुद को बचाते हुए अपने समाज और समकालीन राजनीति की विडम्बनाओं को पुरजोर तरीके से सामने लाने और यथास्थिति का सार्थक प्रतिकार करने में पूरी प्रतिबद्धता से सन्नद्ध होगी.  


बावरी लड़की

एक लड़की बावरी हो गयी है
बैठी-बैठी ललराती है
नाखूनों से
बालों से...,
भिड़ती रहती है
भीतर ही भीतर
किसी प्रेत से

चाकू की उलटी-तिरछी रेखाएं हैं
उसके माथे पर
नाक पर
वक्ष और जंघाओं पर
उभरे हैं पतली रस्सी के निशान  

होंठों से चूती हैं
कैरोसीन की बूंदें
फटे वस्त्रों से
जगह-जगह
झाँकते हैं
आदमखोर हिंसा के शिलालेख

सब कहते जा रहे हैं
बाबरी लड़की
ज़रूर रही होगी
कोई बदचलन
तभी तो
न बाप को फिकर
न मतारी को

सुनी सुनाई
पते की बात है
लड़की घर से
भाग आयी थी

लड़का-लड़की चाहते थे
एक दूसरे को
पर यह स्वीकार न था
गांव की पंचायतों को
सो लड़कालड़की को एक रात
भगाकर शहर ले आया

बिरादरी क्या कहेगी सोचकर
बाप ने फांसी लगा ली
मतारी कुंडी लगा के पंचायत में
खूब रोई
बावरी लड़की पर

पटरियों...ढेलों से होती हुई
लड़की मोहल्लों में आ गई
रोटी मांग मांग कर पेट भरती
ऐसे ही गर्भ मिल गया
बिन मांगी भीख में
बड़ा पेट लिए गली-गली फिरती
ईंट कुतरती

एक इज्जतदार से यह देखा न गया
एक ही घंटे  में पेट उसने
खून बनाकर बहा दिया
और छोड़ आया शहर से दूर
गंदे नालों पर
कचरा होता था जहाँ
सारे शहर का
कारखानों का
पाखानों  का
बावरी लड़की कचरा ही तो थी
सभ्य शहर के लिए
जिसमें घिन ही घिन थी

नाक छिनक ली
किस्सा सुनकर महाशयों ने
मालिकों-चापलूसों  ने
पंडितों-पुरोहितों ने
और अपने अपने घरों में घुस गये
बाहर गली में
बावरी लड़की पर कुछ लड़के
पत्थर फेंक रहे हैं
कहाँ से आ गयी यह गंदगी यहाँ
हो.. हो.. हो.. हो...
बच्चे मनोरंजन कर रहे हैं
जवान  और  बूढ़े भी

खिड़कियां और रोशनदान बंद  कर
 कुलीन घरों की लड़कियां
वापस अपने काम में जुट गईं

अरे भगाओ इसे-
जब तक यह...
यहां अड़ी बैठी रहेगी
तमाशा होता रहेगा
एक अधेड़ सज्जन ने कहा..
पौधों में पानी दे रही उनकी बीबी
नाक-भौं सिकोड़ने लगी
कौन भगाए इस अभागिन को

लड़की बावरी
खुद ही को देख-देख के
हँस रही है
खुद ही को देख-देख के
रोती है
सेकेंड दो सेकेंड
चेहेर के भाव बदलते हैं
गला फाड़ कर पसर जाती है
गली में ही
जानवरों की तरह
बावरी लड़की...


 मर्द बदलनेवाली लड़की

मैं उन लड़कियों में से नहीं
जो अपने जीवन की शुरूआत
किसी एक मर्द से करती है
और उस मर्द के छोड़ जाने को
जीवन का अंत समझ लेती हैं
मैं उन तमाम सती-सावित्रीनुमा
लड़कियों में से तो बिल्कुल नहीं हूं

मैंने अपने यौवन के शुरूआत से ही
उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर
अलग-अलग मानसिकता के
पुरुष मित्र बनाए हैं
हरेक के  साथ
बड़ी शिद्दत से निभाई है दोस्ती

यहां तक कि कोई मुझे उन क्षणों में देखता
तो समझ सकता था
राधाअनारकली या हीर-सी कोई रूमानी प्रेमिका

इस बात को स्वीकार करने में मुझे
न तो किसी तरह की लाज है
न झिझक
बेशक कोई कह दे मुझे 
छिनालत्रिया चरित्र या कुलटा वगैरह-वगैरह

चूंकि मैं मर्द बदलने वाली लड़की हूं
इसलिए 'सभ्य' समाज के खांचे में
लगातार मिसफिट होती रही हूं
पतिव्रता टाइप लड़कियां या पत्नीव्रता लड़के
दोनों ही मान लेते हैं मुझे आउटसाइडर
पर मुझे इन सब की जरा भी परवाह नहीं
क्योंकि मैं उन लड़कियों में से नहीं
आलोचना और उलहाने सुनते ही
जिनके हाथ-पैर कांपने लगते हैं
बहने लगते हैं हजारों मन टेसूए
जो क्रोध को पी जाती हैं
प्रताड़ना को सह लेती हैं
और फिर भटकती हैं इधर-उधर
अबला बनकर धरती पर

चूंकि मैं मर्द बदलने वाली लड़की हूं
इसलिए मैंने वह सब देखा है
जो सिर्फ लड़कियों को सहेली बनाकर
कभी नहीं देख-जान पाती
मैंने औरतों और मर्दों दोनों से दोस्ती की
इस बात पर थोड़ा गुमान भी है
गाहे-बगाहे मैं खुद ही ढिंढोरा पिटवा लेती हूं
कि यह है मर्द बदलने वाली लड़की

यह वाक्य
अब मेरा उपनाम-सा हो गया है



चोर और  बागी

उसे लगता है
वह एक चोर है
जो रहती है हरदम
एक नई चोरी की फिराक में
जब भी वह अपने शरीर को गहने
फैशन-एसेसरीज से सजाती है
मेकअप में लिपे-पुते होंठ
आंखगालमाथा और नाखून
उसे बेमतलब ही
चोर नज़र आते हैं
उसे लगता है
वह छिपाए फिरती है
इन सब में
कुछ

उसे लगता है
घर में
कालोनी में
शहर में हर कहीं
सभी उसके पीछे पड़े हैं
क्या वाकई वह कोई चोरी कर रही है
उसे तो अमूमन यही लगता है
कि उसका भाई जो उसे टोकता है
पड़ोसी जो उसे देखता है
मां जो उसे डांटती है
बहन जो उसे घूरती है
ये सब उसे चोर समझते हैं

उसके पर्स में
किताब में ...
जो रखा है
उसकी डायरी में जो लिखा है
उसमें मन में जो घूमता है
यह सब चोरी का सामान
कहीं  कोई  देख  न ले
पढ़  और समझ न  ले

उसे लगता है
समाज की मान्यताओं को नकार कर
लगातार चोरी कर रही है
और ...
सजा से बचने के लिए
कभी-कभी वफादारी का दिखावा कर लेती है
फिर भी उसे महसूस होता है
आज नहीं तो कल ये सब लोग
कोई न कोई सजा तय करेंगे उसके लिए

नहीं, वह नहीं जिएगी
तयशुदा घेरे में बंधकर
चोर की अपनी सीमा होती है
वह सोचती है
उसे तो बागी ’ होना पड़ेगा



बब्बुल की बहुरिया

बंद आंखें झुलसा चेहरा
रुक-रुक कर
रात गए जगाता है मुझे
नियति की जंजीर थामे
बेचैन हो बैठ जाता हूं
सोचता हूं...
तुम गांव में
कैसी होगी बब्बुल की बहुरिया
खाती-पीती होगी या नहीं
दिन-रात खटती रहती होगी
खेत की मेड़ पर,
सुबकती होगी  लेकर मेरा नाम

सोचता हूं जरूर गांव में
कोई बात हुई होगी
अम्मा ने ही डांट  दिया हो कहीं
अबकी फागुन न पहुंच सका था
जरूर चटकी होगी
कलाई की कोई लाल चूड़ी

मुझे याद करके
मेरी तस्वीर से लिपट-लिपट
बहुरिया खूब फफकी होगी
गोरी-चिट्टी सत्रह साल की बहुरिया
गरीबी में दबी-दबी
गांव में कितना झुलसी है

आह!
आज रात एक बार और
वह फिर झुलसी होगी
एक बार और
बड़बड़ाई होगी...


अम्मा की रोटी

अम्मा लगी रहती है
रोटी की जुगत में
सुबह चूल्हा...
शाम चूल्हा...

अम्मा के मुंह पर रहते हैं
बस दो शब्द
रोटी और चूल्हा

चिमटा...
आटा...
राख की पहेलियों में घिरी अम्मा
लकड़ी सुलगाए रहती है

धुएं में स्नान करती
अम्मा नहीं जानती
प्रदूषण और पर्यावरण की बातें
अम्मा तो पढ़ती है सिर्फ
रोटी...रोटी...रोटी

खुरदुरे नमक के टुकड़े
सिल पर दरदराकर
गेंहू की देह में घुसी अम्मा
खा लेती है
कभी चार रोटी
कभी एक
और कई बार तो
शून्य  रोटी ।

रघुवंश मणि की एक कविता

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रघुवंश मणिहिंदी के लब्ध-प्रतिष्ठ आलोचक हैं. पिछले दिनों उन्होंने समकालीन तीसरी दुनिया के ताज़ा अंक में प्रकाशित यह कविता पढने के लिए भेजी. इस कविता को देश में भेद्य तबकों के साथ लगातार हो रहे अत्याचारों के बीच एक जेनुइन गुस्से की अभिव्यक्ति की तरह पढ़ा जाना चाहिए. हालांकि, मेरे जैसे मृत्युदंड के विरोधी के लिए अंतिम पंक्तियों में मृत्युदंड के आह्वान तनिक असुविधा पैदा करने वाले हैं, फिर भी कविता पंछी के बहाने जिस तरह से हमारे समय में आज़ादी से रहने, बोलने, घूमने, लिखने का अधिकार छीने जाने के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करती है, वह मानीखेज़ है.             


  हवा के पखेरू

                                         

मुझे पंछी पसंद हैं

हवा में उड़ते हुए पंछी
परवाज के लिए पाँव खींचे
गरदन आगे बढ़ाए हुए
ऊॅंचाइयों को नापते
जिनकी आँखों में सूरज की रौशनी
खेतों की फसलें
और जंगल का गहरा हरापन है
मुझे ऐसे पंछी पसंद हैं।

मुझे वे सारे रंग पसंद हैं
जो उनकी आँखों में हैं
उनके सपनों में हैं
उनकी आँखों के सपनों में हैं

मुझे वे सारे स्वाद पसंद हैं
जिनके लिए वे दूर-दूर तक उड़ानें भरते हैं
एक बाग से दूसरे बाग तक
एक जंगल से दूसरे जंगल तक
स्वाद उनकी सहज इच्छाओं में बसे
खटलुस, मीठे, कर्छ, कसैले
मासूम और पगले
सारे के सारे स्वाद पसंद हैं

मुझे वे पेड़ पसंद हैं
जिन पर वे बसते हैं
और बसाते हैं
तिनकों के बसेरे
अजब-गजब की कलाकारी करते
हैरत में डालने वाले बसेरे
गोल, लम्बोतरे, सीधे, तिरछे
डालियों में फॅंसे और लटके
श्रम और कला के ताने बाने में
गुँथे-बिंधे घरौंदे

मुझे वे हरियाले पेड़ पसंद हैं
मुझे वे कलाकारी घरौंदे पसंद हैं।

मगर मुझे पिंजरों में बंद परिंदे बिलकुल पसंद नहीं
पिंजरे चाहे कितने भी सुन्दर क्यों न हों
लोहे, सोने, ताँबे या चाहे किसी और धातु के ही बने
बड़े से बड़े या छोटे से छोटे
मोटे तारों वाले या पतले
बड़े दरवाजों वाले या छोटे
मुझे पिंजरे बिल्कुल-बिल्कुल पसंद नहीं
मुझे पिंजरों में बंद परिंदे बिल्कुल पसंद नहीं

मगर वे कहते हैं
पंछी पिजरों में ही सुरक्षित हैं
और बाहर बहुत से खतरे हैं

वे बहेलियों के जाल में फॅंस सकते हैं
उन्हें गोली मार सकते हैं शिकारी
उनके साथ बलात्कार हो सकता है
उनकी गरदनें मरोड़ सकते हैं परकटवे

वैसे भी मौसम बहुत खराब है
लोगों की निगाहें खराब हैं
हवा खराब है, पानी खराब है
पता नहीं कौन सी हवा
उनके लिए जहर बन जाय
पता नहीं कौन सा पानी पीकर
वे तुरंत सुलंठ जाँय
पंख कड़े हो जाँय
मुँह खुला रह जाय
और ऑंखें फटी...

इसलिए वे कहते हैं इसीलिए
उन्हें पिंजरों में ही रहना चाहिए
बड़े से बड़े पिंजरे तो बने हैं उनके लिए
छोटे से छोटे और सुन्दर से सुन्दर
जिनमें वे रह सकते हैं सुरक्षित
मंदिरों-मस्जिदों में बना सकते हैं खोते
जहाँ शिकारी नहीं आते मुल्ला-साधुओं के सिवा

उन्हें रहना चाहिए
पुराने किलों, गुफाओं और गुहांध अंधेरों में
जहाँ  हवा और रौशनी भी नहीं पहॅुंचती
उन असूर्यमपश्या अंधेरों की संरक्षित जगहों पर
उन्हें कोई खतरा नहीं है
वे सुरक्षित रहेंगे और जीवित भी।

मगर मैं क्या करूँ
हम हवा के पखेरू हैं

हमें उड़ते हुए परिंदे ही पसंद हैं
खतरों के वावजूद
रौशनी स्वाद और उड़ान के लिए
हवा में पंख मारते परिंदे
किलकारी भरते
रंगों और चहचहों से
माहौल को खुशगवार करते

हम हवा के पखेरू हैं
यह हमारा पागलपन ही सही
और इसीलिए हम चाहते हैं कि
सारे शिकारियों को गोली मार दी जाय
सर कलम कर दिये जाँय सारे बहेलियों के
सारे बलात्कारियों को फाँसी पर लटका दिया जाय
सभी परकतरों को सूली पर चढ़ा दिया जाय

हमें उड़ते हुए पंछी पसंद हैं
हमें परवाज पसंद है
हमें स्वाद पसंद है
हमें अपने पेड़ और आसमान पसंद हैं

हमें पसंद है अपनी आजादी !

दुःख से कितना भी भरी रहे एक कविता एक समुद्र का विकल्प होती है.- अरविन्द की कवितायें

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  अरविन्द की कवितायें इधर पत्रिकाओं और ब्लाग्स में  लगातार आई हैं. उनके यहाँ कविता के लिए ज़रूरी ताप भी है और वह मिनिमलिज्म भी जो इधर अक्सर या तो कम होता गया है या एक गूढ़ और अपठनीय  शिल्प में रूपांतरित. अरविंद की कविताएँ पढ़ते हुए हमारे आसपास की दुनिया के कुछ बेहद परिचित दृश्य एक मानीखेज बिम्ब की शक्ल में कुछ इस तरह आते हैं कि वे चमत्कृत करने की जगह भीतर के किसी खालीपन को भरते से लगते हैं. ज़ाहिर है कि हम उन्हें बेहद उम्मीद के साथ देख रहे हैं...

Sabin Corneliu Burga की पेंटिंग यहाँ से साभार 


एक

सोचता हूँ
एक तस्वीर लूँ तुम्हारी जिसमे
तुम्हारे बगल में खड़ा
मै नहीं रहूँगा
बस बगल में खड़ा रहने की मेरी इच्छा रहेगी

तस्वीर लेने के ठीक पहले
जो गुजर गयी हो एक चिड़िया
वह आये उसमे
और ठीक बाद
गिर रही पत्ती भी.

तस्वीर में बालों की एक लट
जो चहरे पर नहीं गिरेगी की वजह
हवा नहीं रहेगी
वह लट गिर जाये की बस एक क्रिया रहेगी.

एक मद्धम मुस्कान
जो तुम मेरे लिए हंसोगी 
वह नहीं रहेगी


उपजा था जो गुस्सा तुम्हारा नाक को लाल करते
थोड़ी देर पहले थोड़ी देर से आने पर
वह रहेगा.
संग में मै नहीं


तुम्हे हँसा लेने की मेरी एक गुदगुदी रहेगी.
पिघल रही एक आइसक्रीम नहीं रहेगी
तुम्हारे होठों पर बसा हुआ उसका स्वाद रहेगा
मै नहीं रहूँगा
बस एक बहाना रहेगा.

कई वर्षों के बाद
देखना जब मै नही रहूँगा कि
कैसे इच्छाएं एक गुजर गए आदमी को
''तस्वीर में'' जीवित कर देती है


दो

नहीं पढ़ी गयी कविताओं से भी
मै प्रेम करता हूँ
दुनिया में इतनी भाषाएँ हैं 
मै कहाँ जानता हूँ !
बस कोई एक मेरा प्रिय कवि नहीं है
इस तरह तो कई प्रिय कवि छूट जायेंगे
दुनिया में इतने प्रिय कवि है
मै सबको कहाँ जानता हूँ!
जो नहीं लिखी गयी है कवितायेँ
मै उनसे भी प्रेम करता हूँ
दुनिया में
एक कवि के पास ढेर सारे दुख है
जब लिखने से पहले ही रोने लगा हो कवि
और एक कविता
नहीं कविता रह जाये.

बहुत सारी नहीं कवितायेँ भी है
जो होती दुनिया की सुन्दर कवितायेँ
उन्हें कोई नहीं जानता
मै उनसे भी प्रेम करता हूँ.

मै उन सारे कवियों से प्रेम करता हूँ
जिन्होंने कर ली आत्महत्याएं
जिनकी हत्याएं कर दी गयी
या जिन्हें चौराहों पर टांग दिया गया
जो होते तो मेरे समय के अभिभावक होते
जो होते तो उनके कई संग्रह होते
मै उन नहीं संग्रहों से प्रेम करता हूँ.

मै उनकी जगह लेना चाहता हूँ
मै चाहता हूँ वे मेरे मुंह से बोलें.

(अंतिम दो पंक्तियाँ – मंगलेश डबराल की डायरी से)

तीन

कोई तुरंत नहीं मरता


एक नदी धीरे धीरे मरती है
एक तारा अचानक नहीं टूटता
एक कवि चुपके से नहीं मरता
एक सभ्यता कितना भी मरे
बीज भर बची रहती है.

एक नदी पूरी पृथ्वी भर समय के लिए होती है
एक तारा आकाश भर समय के लिए होता है
एक सभ्यता मनुष्यता भर समय के लिए होती है
एक कवि दुःख भर जीवन के लिए होता है

कई चीजें बेसमय चली जाती है
और हम उनके बचाओ की पुकार सुनते रहते है
हमारे पास बचाव भर समय रहता है
पर हम गवाह भर भी समय नहीं हो पाते.
और पृथ्वी दुःख में गलती जाती है


कोई कहे हमें नहीं मालूम
तो हम एक हत्यारे की ही भूमिका
निभा रहे होते है.

चार

रात से पहले परछाई की तरह
शाम आती है
शाम सुन्दर दिखती है


रात से
चाँद
रात पर
सूरज की परछाई है
.
चाँद में
रंगी रात
दिन से सुन्दर दिखती है.
तुम नहीं आती
तुम्हारी परछाई बन के
तुम्हारी याद आती है
तुम्हारी याद
माना कि तुम नहीं
पर तुम से कम नहीं लगती

                   
पांच  

गर्भ में चौथी बार हत्या कर दी गयी बच्ची
पहुँच गयी
फिर ईश्वर के पास
ईश्वर हैरान था.
इन दिनों उसका कर्ता धर्ता
जीवन का लेखा जोखा लेकर हैरान था.
उसके सारे उपाय असफल होते जा रहे थे.
ईश्वर बुदबुदाया
कि कितना कमीना है वह इन्सान
उसने बही में लिखवाई कि वह मरेगा खुद अपने हांथो
पांचवी बार गयी वह लड़की
और पैदा हो गयी.
उसने शिकायत नहीं की अपने पिता से
और पहली लड़की बन कर जीवित रही.
उसने हत्यारा नहीं कहा उसे
पिता ही बुलाती रही.
एक रात जब आत्महत्या करने जा रहा था वह
जिस पल दबाने वाला था वह ट्रिगर
एक दस्तक हुई
उसने देखा कि चाय लिए लड़की खड़ी है.
जैसे जीवन से भाप निकलती है
वैसे ही चाय से भाप निकल रही थी.
उस रात बताया उसने अपने पांचवी होने के बारे में
और आत्महत्या की तारीख के बारे में
जिसे उसने पृथ्वी पर आते हुए सुन लिया था.
ईश्वर फिर हैरान था

छः
लैम्पपोस्ट अपनी चकाचौंध के बाद भी
कितना निरीह और एकाकी दिखता है
इतना दुखी कि
शायद ही कर सके कोई उसका अभिनय भी

और हो भी क्यों ना
रात के सन्नाटे में वहां रुकता है
एक रिक्शा वाला,अपने खुरदुरों दुखों के ताप से
जलाता है अपने हिस्से की चिंगारी
अभी तुरंत मर गए एक आदमी की
शिनाख्त के लिए वह जलता है पूरी ताकत से
एक बिना आसमान की स्त्री
रात की बेगारी के बाद
गिरती है वहां अपने नुचे पंखो के साथ
और ठीक करने लगती है आईने में अपना वजूद
रात के अंतिम पहर में भी
जलता है वह पूरी आत्मा से
कि कोई भी आ सकता है उसकी रोशनी में
पढ़ने अपना भूला हुआ पता
दूर से आई हुई चीख को सुनता रहता है वह


पड़ रही घनी ओस के बीच
खड़ा रहता है सर झुकाए विवश किसी कवि की तरह


कि भूलकर भी नही करना चाहिए लैम्पोस्ट का अभिनय भी
अचानक बुझ सकता है हृदय.
                                                                                     




सात  

बहुत सी मेरी कवितायेँ खो गयी
जीवित
साँस ले रही वे कविताये कहाँ होंगी.

क्या वे मिलेगी
तो बढ़ गयी होंगी कई अच्छी पंक्तियाँ
शायद हाँ!
कई तो अधूरी थी
शायद वे पूरी हो गयी हो.

वे जो जेब में रखी थी
घुल गयी एक दिन पानी में
देर तक रहा उदास मै
पानी और शब्द का रिश्ता तो होगा ही
पानी के पत्थर कविता की तरह कैसे मुलायम होते है.

जो भी हो पर होती है कवितायेँ अमर
वे तलाशती है एक घर
अपने होने के लिए.

एक उदास कविता
नहीं ऊबती अपने उदासी से आजीवन
प्रेम कवितायेँ हमेशा तलाशती है एकांत
दुःख से कितना भी भरी रहे एक कविता
एक समुद्र का विकल्प होती है.

                                                                                                       

आठ  

वह गोली नहीं चली 
पिघल गयी बन्दूक की नाल में ही
इतनी कम आवाज हुई कि
नहीं टूटी एक बच्चे की नीद
फूल पर बैठी रही एक तितली .

वह लोहा 
जो लाया गया था बुद्ध की नगरी से 
वह पिघलकर चाहता था होना 
किसी बच्चे के जन्मोत्सव के लिए एक केक.

वह गोली नहीं बनना चाहता था
नहीं उड़ाना चाहता था एक बच्चे की नीद
एक तितली 
वह देह को खोखला नहीं करना चाहता था.

क्या वह लोहा 
अशोक की तलवार से गिरा था
क्या वह उस घोड़े की नाल से लगा था
जिससे बुद्ध गए थे वन में
या वह क्षत्रप से गिरा था.

जो भी हो 
उसका स्वप्न
युद्ध नियंताओ के सपनों पर भारी पड़ गया था.



                           _________________________________________________
अरविन्द 

जन्म- 29/07/1987

तद्भव ,कथादेश,वागर्थ,परिकथा में कवितायेँ आई।बी एच यु से स्नातक और परास्नातक हिंदी साहित्य से , छपने और लिखने से ज्यादा पढ़ने में यकीं ,प्राइमरी स्कूल में अध्यापन।फिल्मों में विशेष रूचि।

संपर्क -7376844005 

            
  

युवा नाट्य समारोह 2013:एक रिपोर्ट

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  •  मंजरीश्रीवास्तव 




दिल्लीमेंहरवर्ष जनवरीकामौसमतोभारतरंगमहोत्सवकीवज़हसेरंगारंगहोताहीहैपरइसवर्षतोरंगमहोत्सवकीइसश्रृंखलाकोसाहित्यकलापरिषद्, दिल्ली  नेअपनेआयोजन 'युवानाट्यसमारोह' सेवसंतयानिफरवरीतकरंगारंगबनायेरखाहै।

कईवर्षोंकेपश्चातहोनेवालेइसयुवानाट्यसमारोहमेंइसवर्षदिल्लीकेआठसक्रिययुवानाट्यनिर्देशकोंकोअपनीप्रतिभाकेप्रदर्शनकाअवसरदियागया।आठदिवसीयइसयुवानाट्यसमारोहमेंसुरेन्द्रवर्मा,नीलसिमोन, प्रो. अविनाशचन्द्रमिश्र, मोहनराकेश, महाकविभास, भीष्म साहनीऔरविजयतेंदुलकरजैसे सुप्रसिद्धनाटककारोंकेप्रख्यातनाटकोंक्रमशः - क़ैद--हयात, खुसर-फ़ुसर, बड़ानटकिया कौन, आषाढ़काएकदिन,प्रतिज्ञायौगंधरायण, कबिराखड़ाबजारमें, ख़ामोशअदालतजारीहैऔरआधे-अधूरेकोयुवानिर्देशकोंक्रमशःदानिशइक़बाल, कुलजीतसिंह, प्रकाशझा,भूपेशजोशी, भूमिकेश्वरसिंह, गोविन्दसिंहयादव, रोहितत्रिपाठीऔरचंद्रशेखरशर्माकेनिर्देशनमेंमंचितकियागया।

इसनाट्यसमारोहकाउदघाटन 11 फरवरी 2013 को सुरेन्द्रवर्मा  द्वारालिखितएवंदानिशइक़बालद्वारानिर्देशितनाटक 'क़ैद--हयात' सेहुआऔर 21 फरवरीको इससमारोहकीआख़िरीप्रस्तुतिथीमोहनराकेशद्वारारचित 'आधे-अधूरे' जिसकेनिर्देशकथेचंद्रशेखरशर्मा।  

क़ैद--हयातमहान उर्दूशायरमिर्ज़ाग़ालिबकेकष्टप्रदसंसारपरपकड़बनाताहुआनाटकथा।इसमेंग़ालिबकीतल्ख़घरेलूज़िन्दगी, आर्थिकतंगीऔरइनसबसेऊपरकातिबाकेलिएउनके असफलप्रेमकोप्रदर्शितकियागया।यहनाटकतीनअंकोंमेंविभक्तथा।पहलाअंकग़ालिबकेघरमेंहीघटताहै, जहाँउनकीपत्नीउमरावहैऔरहमदर्दबहन।साथहीकर्ज़दारभीहैंजोलगातारग़ालिबकीमानसिकयंत्रणाकाकारणबनतेहैं।दूसरे अंकमें कातिबाऔरग़ालिबकीअंतरंगताकेलिएतीव्रउत्कंठाकाचित्रणहै।तीसराअंकएकपूरेवर्षकालेख-जोखाहै, जबग़ालिबकलकत्तासेवापसलौटतेहैं, पेंशनकीअपीलठुकरादिएजानेकेबादवेअपनेहीघरमेंनज़रबंदहैं।कातिबा कीमौतपरउनकीआत्माचीत्कारकरउठतीहै।        

नाटककारनीलसाइमनकीनाट्यकृतिरयूमर्सकाहिंदीरूपांतरण 'खुसर-फ़ुसर' शुरूहुआकुछधनाढ्यजोड़ोंकेसाथजोएकदम्पतिकीपहलीविवाह वर्षगाँठमानानेकेलिएउनकेरईसइलाकेमेंस्थितघरपरएकत्रहुएहैं।जबवेवहांपहुँचतेहैंतोपातेहैंकि वहांकोईनौकरनहींहै, साथहीउनकीमेज़बानभीलापताहैऔरदिल्लीमेंएकआलीशानइलाकेमेंरहनेवालेउनकेमेज़बाननेकनपटी केनीचेसेगोलीचलाकरखुदकोमारदियाहै।उससमयहास्यात्मकजटिलताएंपैदाहोतीहैं, जबअपनीउच्चवर्गीयस्थितिकोदेखतेहुएवेयहनिश्चयकरतेहैंकीस्थानीयपुलिसऔरमीडियाकीआँखोंसेइसशामकीघटनाकोछुपानेकेलिएजोभीसंभवहोगावेकरेंगे।यहदूसरेदिनकीप्रस्तुतिथी।

निर्देशकप्रकाशझा, जोमैथिलीरंगमंचकोएकनयाआयामदेनेऔरराष्ट्रीयनाट्यफलकपरलानेमेंपिछले 6-7 वर्षोंसेअपनीसक्रियभूमिकाकानिर्वाहकररहेहैं, हिंदीनाटकमेंउनकापहलाप्रयासथा 'बड़ानटकियाकौन' जोयुवानाट्यमहोत्सवकेतीसरेदिनकीप्रस्तुति थी।नाटक 'बड़ानटकियाकौन' आजकेउपभोक्तावादीजीवनमेंव्यक्तिकीव्यावहारिकउपस्थितिपरएकसपाटबयानथा।आजकेजीवनकीएकबड़ीविडम्बनायहहैकिमंचसेकहींअधिकदैनिकजीवनमेंहमारेव्यवहारअतिरंजित, असामान्यऔरनाटकीयहोनेलगेहैं।ऐसेमेंकिसीपेशेवरनटकिया (रंगकर्मी) कीऊर्जाएकओरपारंपरिककलाओंकेप्रतिसम्मानऔरसंरक्षणकेअभावसे, तोदूसरीओरदैनिकजीवनकेनटकियोंसेजूझनेमेंखपरहीहै। 'बड़ानटकियाकौन' ऐसेहीकुछअसली-नकलीअसामान्यचरित्रोंकीगाथाथीजिसनेगाँवसेशहरतकव्याप्तजीवनकीसहज-सरलऔरदिलचस्पपृष्ठभूमिकोखुदमेंसमेटाथा।

महानसंस्कृतकवि औरनाट्यकारकालिदासकेजीवनपरकेद्रित 'आषाढ़काएकदिन' मोहनराकेशकापहलाहिंदीनाटकहैऔरपहलाहीआधुनिकहिंदीनाटकभीमाना गयाहै।कालिदासआधुनिककलाकारकाप्रतीकहैजोअपनीकला, अपनीउपस्थिति, अपनीस्वतंत्रता, अपनीपहचानकेलिएसतत संघर्षरतहै।दूसरीओरमल्लिकाहैजोकालिदासकीसहजप्रेरणाहै।जोउसेएकमहानकवि/कलाकारबनतेदेखनाचाहतीहैऔरउसकेलिएत्यागभीकरतीहै।यहकथाहैआकांक्षओँकी, प्रेमकी, अंतर्द्वंद्वकी, त्यागकीऔरभीनाजानेकिनमूकअभिव्यक्तियोंकी।नाटकमहाकविकालिदासकेजीवनऔरकालकीएकसशक्तझांकीप्रस्तुतकरताहै।भूपेशजोशीद्वारानिर्देशितयहनाटकचौथेदिनकीप्रस्तुतिथी।    

इससमारोहकेपांचवेंदिनकीप्रस्तुतिथीमहाकवि भासद्वारारचितऔरभूमिकेश्वरसिंहद्वारानिर्देशित  'प्रतिज्ञायौगन्धरायण' जो समकालीनराजनैतिक कुचक्रोंऔरराष्ट्रीयनिष्ठांएवंसाहसकेपरिप्रेक्ष्यमेंकईदृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है।इसमेंएकओरआत्मविश्वासहीनउज्जयिनीनरेशप्रद्योतहैंतोदूसरीओरपडोसीराज्यकौशाम्बीकापराक्रमी, प्रजावत्सलऔरलोकप्रियशासक है।अपनेमंत्रियोंऔरअधिकारियों  केनिष्ठाहीनएवंस्वार्थलोलुपरवैयेकेकारण स्वयंमेंअक्षमऔरनितांतअसहायप्रद्योत,छल-कपट कासहारालेकरवत्सराजकोबंदीबनालेताहै।यहाँनाटक में प्रवेश होताहैप्रद्योतकीपुत्रीराजकुमारीवासवदत्ता का।इधरवत्सराजउद्यन कास्वामिभक्त, एकनिष्ठऔरकर्तव्यपरायणमहामंत्रीयौगन्धरायणअपनेस्वामीकोबंधन मुक्तकराने कीप्रतिज्ञालेताहै।उद्यनऔरयौगन्धरायणकीरीति-नीतिऔरकुशाग्रबुद्धिकेकारणप्रद्योतपग-पग  पर असफल होताहै।औरवासवदत्ता ..... वहउद्यनकेसाहस, चरित्रऔरकौशलपरमुग्धहै।इसतरह नाटककोअनेकसमसामयिकप्रसंग मिलते  हैं।              

समारोहके छठेदिनभीष्मसाहनी  द्वारारचितएवंगोविन्दसिंहयादवद्वारानिर्देशितनाटक  'कबिरा खड़ा बजारमेंकासफलमंचनहुआ।भीष्मसाहनी कीयह  नाट्य कृतिमध्यकालीनवातावरणमेंसंघर्षकररहेकबीर कोउनकेपारिवारिकऔरसामाजिक सन्दर्भों सहितआजभीप्रासंगिकबनाती  है।नाटककामुख्यलक्ष्यआमजनकोयह एहसासकराना हैकिईश्वरहममेंसेहरएककेभीतरहीबसताहै।नाटककेमुख्यपात्रकबीरतत्कालीन समयकेसभीप्रचलितधर्मोंसेबुद्धिकीअपीलकरतेहैं, किन्तुवेस्वयंकिसीधर्मसेसम्बंधितनहींहैं।कबीरकीसाहित्यिकतासामाजिकजड़ताकोतोड़ने माध्यमबनतीहै। कबीरकीभूमिकाकोसफलतापूर्वकनिभाया - सुधीररिखारीने।  
  
सातवेंदिनकीप्रस्तुतिथीविजयतेंदुलकरद्वारारचितऔररोहितत्रिपाठीद्वारानिर्देशित 'ख़ामोशअदालतजारीहै'. यहनाटक प्रेसीडेंट जॉनसनपरएकमुकदमा हैजोअणुबमकेख़िलाफ़हैकिन्तुनाटककिसीऔरहीदिशामेंचलाजाताहै।मंडली मेंएककलाकारकीउपस्थितिऔरनएकलाकारकीरिहर्सलमेंहीपूरानाटकसमाप्तहोजाताहै।दरअसलवोरिहर्सलकिसीव्यक्तिगतजीवन केइर्द-गिर्दघूमतारहताहै।अंततकआते-आतेपूरेमाहौलपरएकलम्बीख़ामोशीछा जातीहै।जिसउद्देश्यसेमंडलीनाटकदिखानेआतीहैवोउद्देश्यपूरानहींहोता।इसनाटककेमाध्यमसेलेखकनेपुरुषप्रधानसमाज मेंस्त्रीकीविवशताकोदिखानेकाप्रयत्नकियाहै, जोइससमाजकेलिएएककटाक्षहै।        

आठवेंदिनकीप्रस्तुतिथीमोहनराकेशद्वारारचितचंद्रशेखरशर्माद्वारानिर्देशित 'आधे-अधूरे'. यहइससमारोहकी अंतिम प्रस्तुतिथी।यहनाटकएकमध्यवर्गीयपरिवारकेबिखरावऔरइसकेसामाजिक, पारिवारिकमूल्योंकीगवेषणाकरताहै।बदलतेहुए शहरीजीवनकेपरिप्रेक्ष्यमेंयहस्त्री-पुरुषसंबंधोंकाखुलासाकरताहै।नाटककाकथानकएकअधेड़औरतसावित्रीकेइर्द-गिर्द   घूमताहैजोअपनेवैवाहिकजीवनसेसंतुष्टनहींहैपरपरिस्थितियोंसेसमझौतेकोभीतैयारनहीं।वोअपनेबिखरेपरिवारकेटुकड़ोंकोसमेटनेकाभरसकप्रयासकरतीहैपरव्यर्थ ...औरइसीकुंठा मेंवहकिसीऐसेपुरुषकोतलाशनेमेंजुटतीहैजोपूर्णहोऔरउसकीसामाजिकऔरआर्थिकसुरक्षासुनिश्चितकरसकेक्योंकिउसकाखुदकापतिउसकीज़रूरतें करपाने  मेंअसमर्थहै।उनकेअशांतऔरक्षोभोन्मुखसंबंधोंकीपरछाईउनकेबच्चोंकेजीवनपरभीपड़तीहै।   

लैटिन अमेरिका से कुछ कवितायें

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पिछले दिनों लैटिन अमेरिकी कवियों के मार्टिन एस्पादा द्वारा संपादित संकलन ' पोएट्री लाइक ब्रेड' को पढ़ते हुए कई कविताओं का अनुवाद भी किया...उन्हीं में से कुछ



राबर्टो सोसाकी कवितायें
राबर्ट सोसा 


साझा दुःख

हम
दुनिया भर की माँयें और बेटियाँ
यहाँ करती हैं
उनका इंतज़ार

सुनो हमें. उन्हें ज़िंदा ले गए थे वे, हम उन्हें ज़िंदा वापस चाहती हैं
गौर करो हम पर, गिरफ्तार और लापता बाप और बेटे और भाइयों के नाम पर

हम सर उठाये हुए करती हैं उनका इंतज़ार
एकसाथ यूं कि जैसे किसी घाव पर लगे हुए टाँके

कोई नहीं बाँट सकता
कोई नहीं अलगा सकता हमारे इस साझे दुःख को    


स्मृति संख्या १ और २

मेरी सबसे पुरानी स्मृति
शुरू होती है एक जल कर खत्म हो चुकी स्ट्रीटलाईट से
और खत्म होती है एक मुर्दा गली में बहते हुए
सार्वजनिक नल से

मेरी दूसरी स्मृति एक ताबूत से पैदा होती है
हिंसक रूप से मृत ताबूतों का एक जुलूस


खत

मैं दिलासा देता हूँ खुद को कि किसी दिन
किराने की इस बेचारी दुकान का मालिक
मेरे लिखे हुए पन्नों से कागज़ के ठोंगे बनाएगा
जिसमें भविष्य के उन लोगों को देगा काफी और शक्कर
जो ज़ाहिर वजूहात से
आज नहीं ले सकते काफी और शक्कर का स्वाद 





मार्टिन एस्पादा की एक कविता 

चर्च के चौकीदार जार्ज ने अंततः छोड़ दिया काम 

कोई नहीं पूछता
कि कहाँ से हूँ मैं
निश्चित तौर पर
चौकीदारों के देश से ही होउंगा मैं
हमेशा से पोछा लगाया है मैंने इस फर्श पर
उनकी समझ के शहर के बाहर
तुम अवैध अप्रवासियों का कैम्प भर हो, होंडुरास

कोई नहीं ले सकता मेरा नाम
मैं स्नानागार के उत्सवों का मेजबान हूँ
शौचालय को रखता हूँ सरगर्म शराब की प्याली की तरह
नष्ट हो जाता है मेरे नाम का स्पेनिश संगीत
जब मेहमान शिकायत करते हैं
टायलेट पेपर्स के बारे में

सच ही होगा
जो वे कहते हैं
चपल हूँ मैं
पर व्यवहार बुरा है मेरा

कोई नहीं जानता
कि मैं छोड़ रहा हूँ आज रात यह काम
हो सकता है कि पोछा
एक मदमस्त समुद्री फेन की तरह
खुद ही चल पड़े
अपने धूसर रेशेदार जालों से
साफ करता हुआ फर्श
फिर लोग इसे ही कहेंगे जार्ज.



 रॉक डाल्टन की एक कविता 



तुम्हारी ही तरह


तुम्हारी ही तरह मैं
चाहता हूँ प्रेम को, ज़िंदगी को
चीजों की खुशबू को
जनवरी के आसमानी-नीले भू-दृश्य को

और मेरा भी लहू गर्म हो उठता है
और मैं हंसता हूँ आँखों में
और जानता हूँ आंसूओं की कलियों को

मुझे भरोसा है कि बहुत खूबसूरत है यह दुनिया
और रोटी ही की तरह  कविता भी है सभी के लिए

और यह कि मेरी शिराएं नहीं खत्म होतीं मेरी ही देह में
बल्कि जातीं हैं उनके साझा लहू तक
जो लड़ते हैं ज़िन्दगी की खातिर 
प्रेम की खातिर
भू-दृश्यों की खातिर 
छोटी-छोटी चीजों की खातिर 
और सबके लिए रोटी और कविता के खातिर  
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