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मयंक सक्सेना की कवितायें

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मयंक सक्सेना एक्टिविस्ट हैं. एक्टिविस्ट कवि कहें या बेहतर होगा कि एक्टिविस्ट पत्रकार. यह पत्रकारिता उनके जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है. इतनी कि कविता लिखते समय भी वह उन विवरणों का मोह नहीं छोड़ पाते. इसीलिए अक्सर बहुत ज़्यादा डिटेल्स में चले जाते हैं. इनमें जो चीज़ आकर्षित करती है वह है कवि का सकारात्मक आक्रोश. उसकी उलझनें और उससे टकराने की कोशिश. आज असुविधा पर पढ़िए उनकी कुछ कवितायें


अग्नि 
हमेशा पवित्र ही होती है...
चाहें जले वह  
47
के बंटवारे में
84
की दिल्ली में
गोधरा में 
नरोडा में 
गुजरात में 
मिर्चपुर में 

हमेशा दैवीय 
महान 
सब कुछ 
शुद्ध कर देने वाली 

अग्नि 
हमेशा पवित्र ही होती है...
 

बलात्कार का प्रशिक्षण

वो अक्सर बाज़ार से लौटते हुए
कहते थे मुझसे 
क्या लड़की जैसे चलते हो 
दो झोले उठाने में 
थक जाते हो तुम

जब कभी किसी गाने पर
मैं नादान
हिला कर कमर
लगता था नाचने
तब अक्सर कहते थे
चारपाई पर खांसते बुज़ुर्ग वो
ये क्या लड़कियों सा
लगते हो नाचने

खाना बनाने के मेरे शौक पर
मां को
अक्सर आ जाती थी
तेज़ हंसी
कहती थी वो
लड़की पैदा हो गई है घर में
खुश रहेगी बीवी तुमसे

क्रिकेट खेलते हुए
जब भी वो देखता था मुझे
खेलते हुए लंगड़ी टांग
लड़की-लड़की कह कर
चिढ़ाता था
मेरा बड़ा भाई

स्कूल में भी
जब नहीं कर पाता था
मैं नाटे कद का
कमज़ोर सा लड़का
उस मोटे तगड़े साथी से
लड़ाई
लड़की सा होने का ही
मिलता था ताना

रक्षाबंधन के दिन
स्कूल के टीचर
ज़बरन बंधवाते थे राखी
उसी सलोनी से
जिसे देख कर लगता था
बेहद अच्छा
अलग अलग रखी जाती थी
लड़कियों और लड़कों की कक्षा
अलग अलग थे गाने
अलग अलग खेल भी

कच्चे आम तोड़ कर
काले नमक के साथ खाना
छुप कर ही होता था
देख लेती थीं तो
छेड़ती थी भाभियां
कि क्या भैया
आपको तो लड़कियों वाले ही
शौक हैं सब

दाढ़ी बनाने के ब्लेड
खरीदते रहे हम
देख कर लड़कियां
चड्ढियों के भी होर्डिंग पर
दिखती थी
लड़की ही बस
टूथपेस्ट दांतों में लगाने का
मक़सद भी एक ही था
वही जो था
खास खुशबू पसीने से तर
बगलों में छिड़कने का
हाल ही में कहा किसी ने
क्यों रगड़ते हो
लड़कियों वाली क्रीम

और फिर जब
दोस्तों ने मेले, बस और
सड़क पर भी
लड़कियों को न घूरने के लिए
कहा कि
तू तो लड़की है बिल्कुल यार

बस वो सब
घर से लेकर
सड़क तक
उस अनजान
सुनसान
आसान पल के लिए
कर चुके थे पूरा
मेरा प्रशिक्षण
मैं तैयार
बलात्कारी बन चुका
बस साब
एक मौके की तलाश थी....

वो कहते थे कि
मेरी बहन को
पढ़ना चाहिए उस स्कूल में
जहां जाती हैं
सिर्फ लड़कियां
उसके लिए
घर पर नहीं आने चाहिए
लड़कों के फ़ोन
उसकी दोस्ती भी क्यों थी
लड़कों से
जब वो जाती है
लड़कियों के स्कूल

बूढ़े बाबा
जो खुद उठते थे
मेरी मां के सहारे से
डांटते थे अक्सर
मेरी बहन को
कि क्या लड़कों के साथ
खेलती है तू
और फैलाए रहती है
हर वक़्त ही किताबें
हंसती है क्यों
ज़ोर ज़ोर से
जा रसोई में
मदद करो मां की
सीखो कुछ घर के काम
लड़कियां ऐसे अच्छी नहीं लगती

दादी मां को
अक्सर रात टोंका करती थी
कैसी कतरनी सी
चलती है तेरी ज़ुबान
हर बात का जवाब
देती है तुरंत
डांट खाती है
किसी रोज़ मार भी खाएगी
सही हुआ पड़ा तेरे
ज़ोर का तमाचा
ससुर के सामने
आदमी से लड़ा रही थी
ज़ुबान
औरत को इतना गुस्सा
ठीक नहीं है...

मां अक्सर
रात को रोती हुई
आती थी बिस्तर पर
पिता जी को
नहीं देखा था
कभी भी ऐसे रोते छिप कर
मां को आंसू भी
छिप कर बहाने पड़ते थे
अमूमन बहन भी
धीरे धीरे
ऐसे ही रोने की
हो गई थी आदी
चाची, भाभी और कभी कभी
दादी भी

स्कूल में
अक्सर लड़कियों की
पीठ सहलाते थे
गणित वाले वो टीचर
गर्दन के पास
रख कर हाथ
हिंदी वाले मास्साब
समझाया करते थे
विद्यापति का
साहित्य में योगदान
भौतिकी के सर
कई बार अश्लील मज़ाक करते थे
रसायन शास्त्र वाली
मैडम के साथ
वो हंसती थीं खिसियानी हंसी
पीटी की टीचर को देख
हंसते रहते थे
कमीनगी से वो दो
इंस्पेक्शन वाले मास्टर

टीवी पर अक्सर
महिलाओं की मदद के लिए
आगे आ जाते थे
फिल्म निर्देशक
जिनकी हर फिल्म में
ज़रूरी था
एक आईटम नम्बर
नौकरानी पर घर में अक्सर
मुग्ध हो कर मुस्कुराते थे
कभी कभी उसकी
खिसकी साड़ी के पल्लू को
निहारते रहते थे वो मामा हमारे
मुंहबोले चाचा न जाने क्यों
मेरी बहन को करते थे
कुछ ज़्यादा ही लाड़
और हां बड़े भाई का वो दोस्त
अक्सर दे जाता था
अखबार का कवर चढ़ी
न जाने कौन सी ज़रूरी किताबें

हां मेले में
बचता था मैं भीड़ से
लेकिन मेरे बड़े भाई
और कहते थे चाचा भी
कि मेले का मज़ा तो
भीड़ में ही है
अस्पताल में डॉक्टर के
होने पर भी
मरीज़ का हाल
उस कुंवारी नर्स से ही लेते थे
मेरे घर के कई मर्द

और हां याद होगा ही
कहते रहते थे वो अक्सर
औरतों के हाथ में गया जो घर
उसको होना ही है बर्बाद
है न याद...
और फिर मर्द होना ही है
शक्ति का पर्याय
शक्ति अपराजित, असीमित
अराजक

दफ्तर में
झाड़ू लगाने वाली
उस चार बच्चों की मां से लेकर
अपनी महिला सहकर्मियों तक
सबसे करता रहा मैं
छेड़खानी
अपनी मातहतों से
करता रहा मैं
फ्रैंडली जेस्चर
न होने की शिकायत
और वो सीधी सी लड़की
याद तो होगी ही न
जिसके प्रमोशन पर फैलाई थी मैंने
उसके बास के साथ
सोने की अफ़वाह...

और फिर सड़कों पर
अक्सर मैं घूरता था
लड़कियों को
देखता था
उनके शारीरिक सौष्ठव को
देह को देख
करता रहा हर रोज़
आंखों से ही
उनका न जाने कितनी बार
बलात्कार
और चूंकि दुस्साहसी होना
प्रमाण था
उसके पौरुष का
मैं करता रहा कभी
शब्द बेधी वार
कभी नयन सुख के उपचार
कभी छेड़खानी
और बसों, मेट्रो, रेल में
अक्सर शामिल हो जाता था
उनको घेर कर
उनके तन से लिपट कर
जगह जगह डसने वाले
सर्पों के झुंड में

देखिए न
घर से बाहर तक
बलात्कार करने का
मेरा प्रशिक्षण कितना पक्का था
हां अब घूमता था
रात को झुंड में कभी सड़कों पर
तो कभी अकेले
शिकार की खोज में
जानता ही था मैं
समाज और परिवार मेरे साथ है
तो इनसे ही उपजे
पुलिस, कानून और सरकार
क्या बिगाड़ लेंगे मेरा...

सबसे गहरी कविताएं,
निरुद्देश्य लिखी गईं
जल्दबाज़ी में उकेरे गए
सबसे शानदार चित्र
हड़बड़ी में गढ़े गए
सबसे अद्भुत शिल्प
सबसे महान अविष्कार
हो गए अनजाने में ही
सबसे पवित्र है
असफल पहला प्रेम

कभी सरल रेखा में
रास्ता नहीं बनाती नदियां
दिन भर आकार बदलती हैं
परछाईयां
हर रोज़ चांद का चेहरा
बदल जाता है
दिन भी कभी छोटा
कभी बड़ा हो जाता है
कभी भी पेड़ पर हर फल
एक सा नहीं होता
ठीक वैसे, जैसे एक सी नहीं
हम सबकी शक्लें

सबसे सुंदर स्त्री भी
सर्वांग सुंदर नहीं होती
सबसे पवित्र लोगों के सच
सबसे पतित रहे हैं
सबसे महान लोगों ने कराया
सबसे ज़्यादा लज्जित
सबसे ईमानदार लोगों के घर से
सबसे ज़्यादा सम्पत्ति मिली
सबसे सच्चा आदमी
उम्र भर बोलता रहा झूठ...

और ठीक ऐसे ही
कभी भी कुछ भी
पूर्ण नहीं है
न तो कुछ भी
सच है पूरा...न झूठ....
पूर्णता केवल एक मिथक है
एक छलावा
ठीक ईश्वर की तरह ही
एक असम्भव लक्ष्य...
जिस पर हम
केवल रुदन करते हैं व्यर्थ
कुछ भी पूर्ण नहीं है
न शब्द और न अर्थ
केवल अपूर्णता ही तो पूर्ण है
अपने अर्थ में....
और वैसे ही हम सब
पूरी तरह अपूर्ण...
 संस्कार

छोटी बच्चियों के लिए
उनके पास थे
नई डिज़ाइन के बुरके
या फिर सलवार कमीज़
और सिर ढंकने के लिए
स्कार्फ़
लड़कों का उपनयन
और लड़कियों के
नकछेदन
कनछेदन के
बहुमूल्य गौरवशाली
संस्कार
बड़ी होती लड़कियों को
घर से बाहर
कम निकलना चाहिए था
लड़कों से बात
कम करना चाहिए था
हंसना और बोलना भी
कम ही चाहिए था
बड़े होते लड़के
अब लड़के ही थे
और जवान खून है
तो सौ खून माफ़ हैं न
इस उम्र में नहीं करेंगे
तो क्या बुढ़ापे में करेंगे...
और फिर छोटी बच्चियां
बड़ी होती लड़कियां
बुढ़ापे तक
क़ैद रहीं बुर्कों, दुपट्टों
और चहारदीवारियों में
छिदे हुए नाक...कान...
और रिसते हुए
दिलों के साथ
और छोटे लड़के
बड़े होते लड़के
करते रहे बुढ़ापे तक
वो ही
जिसे वो बूढ़ा होने पर
नहीं कर सकते थे...

देशभक्ति
"
छोटी बच्चियों के लिए
उनके पास थे
नई डिज़ाइन के बुरके
या फिर सलवार कमीज़
और सिर ढंकने के लिए
स्कार्फ़
लड़कों का उपनयन
और लड़कियों के
नकछेदन
कनछेदन के
बहुमूल्य गौरवशाली
संस्कार
बड़ी होती लड़कियों को
घर से बाहर
कम निकलना चाहिए था
लड़कों से बात
कम करना चाहिए था
हंसना और बोलना भी
कम ही चाहिए था
बड़े होते लड़के
अब लड़के ही थे
और जवान खून है
तो सौ खून माफ़ हैं न
इस उम्र में नहीं करेंगे
तो क्या बुढ़ापे में करेंगे...
और फिर छोटी बच्चियां
बड़ी होती लड़कियां
बुढ़ापे तक
क़ैद रहीं बुर्कों, दुपट्टों
और चहारदीवारियों में
छिदे हुए नाक...कान...
और रिसते हुए
दिलों के साथ
और छोटे लड़के
बड़े होते लड़के
करते रहे बुढ़ापे तक
वो ही
जिसे वह बूढ़ा होने पर
नहीं कर सकते थे...



नीरु असीम की कवितायें

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नीरु असीमपंजाबी में लिखती रही हैं. हिंदी में उनकी कवितायें कम ही आई हैं. इन कविताओं को पढ़ते हुए उनके कवि के रूप में परिपक्वता का अंदाज़ा आप लगा सकते हैं. यहाँ एक भाषा है जो एक साथ इतनी तरल और इतनी सघन है कि अपने कथ्य के साथ घुली-मिली सी लगती है. 'संकरे रास्तों से गुज़रती हवा में /आक्सीजन के अलावा/ और क्या होगा' जैसी काव्य-पंक्तियाँ उनकी क्षमता का पता देती हैं. उनकी कविताओं के अर्थ उतना शब्दों के बाहर नहीं जितना शब्दों के भीतर गूंजते मंद्र संगीत में हैं. असुविधा पर उनका स्वागत और उम्मीद कि आगे भी हम यहाँ उनकी कवितायें पढेंगे.



तिरछापन 
तुम्हारा तिरछापन
छुरी से पूछे बिना ही
खुन गया है
चमड़ी की सातों परतों में

ख़ून नहीं दिखेगा

सीलन में पलते पलते
जिस्म काक्रोची हो गया है

क्लोरोफार्म में पड़े-पड़े
धुत्त घूमता है
ब्रहमाण्ड़…

आजकल किसके पास है
जिलाने और
मारने का परमिट

मैं यहाँ
जीने या मरने को
बेचैन हूँ…

और तुम्हारा तिरछापन
कम पड़ रहा है…


रोज़नामचे से…

सब कुछ तरल है
पहली
और बाद वाली बातों समेत…

हमारे अलावा
बातें भी
बतियाती रहीं हमसे…

जो कभी सुनी नहीं गयीं

कहाँ बही होंगी
पता नहीं…

अब
कोई कुछ नहीं कहता

सुनता रहता है कुछ-कुछ फिर भी…

जमता है
हृदय धमनियों में

संकरे रास्तों से गुज़रती हवा में
आक्सीजन के अलावा
और क्या होगा

क्या…?



क्या

तुम कुछ ढूँढ रहे थे…

मैनें तुम्हें
फूलों के पराग में देखा…

तुम्हीं थे उन रंगों में
जो बदलने लगते हैं
तमाम पत्तियों के
झर जाने से थोड़ा पहले…

सारे वाहनों की गतियों में
दौड़ रहे थे तुम
कि अचानक
शैय्या पे पड़ी
लाश में छिप गए…

सूँघते रहे
लाश के प्राण…

हमकती रहीं
धारणाएँ…
अधीनताएँ…

और वो हिलजुल
जो वहाँ नहीं थी
उसी के हिंड़ोले में बैठ
तुम बैंक चले गए
स्पर्म बैंक…

दिख नहीं रहे
न जाने कौन सी
स्पर्म नली में बंद हो…

मैं यहाँ
सागर किनारे
लहरों की
कशमकश में ढूँढती हूँ…

तुम जलकणों में थरथराते 
किरणों के रथ पे चढ़ने को
प्रतिबिंम्बित हो रहे हो…

आज मैं रात ढ़ले चैट-बाक्स में ढूँढूँगी
और तुम…?


इस तरह

कई बार पहले भी
हम इस तरह
मिल चुके हैं…

बातें करते हैं
तो लगता है…
जैसे ग़ुलाम की डायरी के
पन्ने पढ़ रहे हों…

कई बार पहले भी हम
विश्वसनीयता जता चुके हैं…

ठीक-ठीक आंकने के यंत्र
न तुम्हारे पास हैं
न मेरे पास

“कैसे अनजान से बतियाना है ये”
ऐसा स्पष्टतयः
न तुम कहते हो
न मैं…

पर ऐसा स्पष्टतः
तुम भी सुनते हो
मैं भी सुनती हूँ…


इंतज़ार

क्या तुम
एक और बार
आने वाले हो…

इस बार कम उत्साहित
कम उत्कंठित
अधिक जागरुक व्यग्रता के लिए…

बहुत सी शीर्ष पंक्तियाँ
कबाड़ हो चुकी हैं…

इस्तेमाल हो गईं
उन समयों में
दुहरा दुहरा
अन्यान्य बार…

इस बार वार्ता में
कम पंक्तियाँ हैं
उक्तियाँ
शायद ज़्यादा हो…

क्या आ रहे हो
जैसै तुम
आते रहे हो…
क्या आते रहोगे
देर तक…

मैं तो यहीं हूँ
देर तक…



कुछ घड़े

कुछ घड़े
अनुगूँजों से
भरे रहते हैं

थापो तो कैसे-कैसे 
मंद उग्र स्वर कहते हैं…

भाव भंगिमाएँ
आस्थाएँ प्रतिमाएँ
शाब्दिक अर्थों में
सारी ही व्यस्तताएँ…
अपने अपने
छुनछुनों में बजती हैं…

जब भी मुँह खोलो
गूँज उठती हैं…

अनुगूँजें शोषित करने को
मैं घड़े टांगती हूँ

कुछ घड़े
उल्टे टंगे
अनुगूँजों से भरे रहते हैं…



इस तरह

धीरे-धीरे बात बनी है
धीरे-धीरे दिन से रात…

मौसम गहन गंभीर हुआ है
धीरे-धीरे उठ कर
बादल बरस पड़ा है…

पिता ने
फिर सिगरेट सुलगाई…
ऐश-ट्रे में
राख भरी है
धीरे-धीरे…

अंगुलिमाल की माला में
मनकों सी पुरी है
इक इक अंगुलि
धीरे-धीरे…

साधु ने प्रवचन किया है…
चोरी से है
सेंध लगाई
धीरे-धीरे…

धीरे-धीरे फिर
इक मां के
गर्भ में मैंने…
जन्म लेने को
समय बिताया
धीरे-धीरे…
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हमने परिचय माँगा तो नीरू ने जो जवाब भेजा वह ज्यों का त्यों यहाँ संलग्न है 

बठिंड़ा, पंजाब मेरा जन्म स्थान है और तिथि 24 जून 1967 । मां श्रीमती सावित्री देवी और पिता स्वः श्री सत्य प्रकाश गर्ग।

पढ़ाई लिखाई एक यंत्रवत अनुभव था। समय का एक हिस्सा इससे चुकता किया। कविता माता पिता से मिली। सौभाग्य रहा होगा। जीवन माता पिता का ऋण है, जिसे मैं चाह कर भी नहीं चुका सकती, ऐसा अब तीव्रता से महसूस होता है।

पति, दो बेटे और मैं परिवार हैं।

पंजाबी में कविता की दो किताबें हैं। ‘भूरियां कीडियां’ और ‘सिफ़र’।

लिखना ज़रूरी है, ख़ुराक है, फिर भी भुखमरी के दिन रहते हैं। जिये गये में क्या था, देखने के लिए कविता यंत्र है। बस। देखना खोलता है, तोड़ता है। मुझे ज़रूरी है लिखना। ड्रग है लाईफ सेवर।

जीना देखने से अलग होता है क्या…!

पता नहीं…। कविताएँ न होतीं तो यह सवाल इस ख़्याल के साथ मेरे पास न होता।

यही परिचय स्वीकार करें।





अनीता भारती की कवितायें

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गंभीर अध्येता और चिंतक अनीता भारती की कवितायें उनके वैचारिक संघर्ष का ही हथियार है. यहाँ वही जद्दोजेहद और उत्पीडक सामाजिक संस्थाओं के खिलाफ वही क्रोध से भरा, लेकिन तार्किक प्रतिरोध है जो उनके गद्य में दिखता है. चालू मुहाविरों से आगे ये कवितायें देश और समाज के उस हिस्से तक जाती हैं, जिन पर कविता में बात करना आजकल चलन से बाहर है. ज़ाहिर है कविता के अभ्यस्त पाठकों को इनसे असुविधा होगी ही...इन कविताओं का उद्देश्य भी तो वही है.

 


*आठ मार्च 

बीते सालों की तरह
बीत जायेगा आठ मार्च

भागो कमलासुनीता, बिमला
मुँहअंधेरे उठ
ले चलेगी ढोर-डंगर
जायेगी बेगार करने
खेत खलिहानों में
उठायेगी बांह भर-भर ईंटें
खटेगी दिन भर पेट की भट्टी में
बितायेगी इस आस पर दिन
कि काम जल्दी निपटे---

फिर धूप में बैठ दो पल
एक छोटी सी बीड़ी के सहारे
मिटायेगी थकान
सच, महिला दिवस
इनके लिए अभी सपना है

बीतेगा उनके लिए भी
यह आठ मार्च
जो क्लर्क है, आया है  
टीचर है सेल्सगर्ल है
जो खटती और बजती है
घर-बाहर के बीच
आधे दाम पर दिन-रात
काम करती है
इस उम्मीद से कि प्याला भर चाय
सकून से पी पायेगी
महिला दिवस
अभी भी उनकी ज़रूरत है।

कितनी सरिताएं
कंधों पर झोले लादे
समाज बदलाव के विचार से
लबरेज
अपनी फटी जिन्स पर
आदर्श का मफलर डाल
मानवता के फटे जूते पहन
जायेंगी
गांव- देहातस्लम
और एक दिन
मारी जायेंगी
शायद महिला दिवस
उनसे ही आयेगा-----



* भेददृष्टि 

सच बताओ तुम
क्या सच हमारी जमात
स्त्री विरोधी है ?
स्त्री एकता, स्त्री आंदोलन को
तोड़ने वाली
या फिर उसे विभाजित कर
भटकाने वाली ?

तुम्हारी जमात ने कहा
हमें स्वतंत्रता चाहिए
हमारी जमात ने कहा
स्वतंत्रता हमें भी चाहिए
तुमसे और
तुम्हारे जाति आधारित समाज से

तुम्हारी जमात ने कहा
हमें समानता चाहिए
हमारी जमात ने कहा
समानता सिर्फ़
स्त्री की पुरुष से ही क्यों ?
दलित की सवर्ण से क्यों नहीं ?

तुम्हारी जमात ने कहा
लम्बे संधर्ष के बाद
हम अब
उस मुकाम पर आ गये हैं
कि जहां हम अपनी देह
एक्प्लोर कर सके
हमारी जमात ने कहा
बेशक देह एक्सप्लोर करो
पर उस झाडू लगाती
खेत रोपती पत्थर तोडती
रोज बलत्कृत होने को मजबूर
देह को भी मत भूलो

तुम्हारी जमात ने कहा
अब हम उनकी बराबरी करेंगे
जो हमेशा हमें दबाते आये है
हमारी जमात ने कहा कि
पहले उनको बराबर लाओ
जिनको हमेशा से
सब दबाते आए है

तुमने कहा पितृसत्ता
हमने कहा
ब्राह्मणवादी पितृसत्ता

तुम्हारी जमात ने कहा
बस याद रखो
स्त्री तो स्त्री होती है----
न वह दलित होती है न ही सवर्ण
हमारी जमात ने कहा
समाज में वर्ग है श्रेणी है जाति है
इसलिए स्त्री
दलित है ब्राहमण है
क्षत्रिय है वैश्य है शूद्र है

और बस इस तरह
तुम्हारी और हमारी जमात की
सतत लड़ाई चलती है
अब तुम्हीं बताओ
क्या हम स्त्री विरोधी हैं ?

  
* झुनझुना 

जब भी मैं
आवाज उठाती हूँ
तुम तुरंत
जड़ देना चाहती हो
मेरे मुंह पर
नैतिकतावाद की पट्टी

मैंने तुम्हारे सामने
तुम्हारे बराबर खडे होकर
कुछ सवाल क्या पूछे
कि तुमने मुझे एक तस्वीर की भाँति
कई फतवों से मढ़ दिया
मसलन मर्द की सहेली
औरतों की आज़ादी की दुश्मन
पितृसत्ता की पैरोकार
आदि-आदि

मैने तुमसे पूछा
स्त्री आजादी का मतलब क्या है ?
क्या अनेक मर्दों से
संबंध बनाने की स्वतंत्रता ?
या फिर अपने निर्णय
स्वयं लेने की क्षमता ?
या कोरी उच्छृंखलता ?
तुमने मुझे स्त्री मुक्ति विरोधी
साबित कर दिया

मैंने तुमसे पूछा
हमारे समाज की औरतों पर
रेप दर रेप पर क्या राय है ?
चुप्पी क्यों है तुम्हारी ?
तुमने कहा
कर तो रही है हम
बलात्कार पर बात
जो रोज हो रहा है
हमारे घर पर हमारे साथ
और आस-पास

मैंने पूछा
क्यों नही लाती तुम
अपनी संवेदनशीलता के दायरे में
गरीब टीसती
दलित औरत का दर्द ?
तुमने कहा
अरे रहती है वे हरदम
हमारे साथ
भीड़ में हमारी आवाज बनकर

मैने पूछा भीड़ कब
मंच का अभिन्न हिस्सा बनेगी?
तुमने झट कहा
अभी नही
अभी वक्त नही है
अभी हमें मत बांटो
अभी हमें जाना है बहुत दूर
पहले ही देर से पहुँचे है यहाँ तक
अब तुम आगे से हटो
सब कुछ रौंदते हुए
आगे बढ़ने दो हमें
तुम्हारे बोलने से
हमारी एकता टूटती है
हमारा संघर्ष बिखरता है
अच्छा है तुम चुपचाप
हमारे साथ रहो
आँख मुँह कान पर पट्टी बाँधे
सब्र का फल हमेशा मीठा होता है
जब हम मुक्त होगी तब
तुम्हारा हिस्सा
तुम्हें बराबर दे देगीं

और तुम मुझे हमेशा
सब्र के झुनझुने से
बहलाना चाहती हो
पर अब इस झुनझुने के पत्थर
घिस चुके है
उनकी आवाज घिसपिट चुकी है
सुनो,
अब अपना झुनझुना
बदल डालो ।


4)

* इतिहास

समय की धूल में दबे
हजारों कदमों की परत हटाती हूं
तो उसके अनोखेपन
त्याग और बलिदान पर
मुग्ध हो जाती हूं

पर
दूसरे ही पल मन टीस उठता है
इतने बेशकिमती कदमों में
मेरा अपना कुछ भी नहीं ?
सुबह की धूप
दिन का उजियारा
चमकती स्वच्छ श्वेत चांदनी
कुछ भी हमारा नहीं है ?

लो,
इतिहास से भी हमारा नाम गायब है
बेदखल हैं हम उससे
फाड दिया गया है
हमारे संघर्ष का पन्ना,

हमें शिकायत है
उस अबोध, निर्मम इतिहास से
कि जिसके लिए
हम दिन-रात
सुबह-शाम
आंधी- तूफान में लड़ते रहे
बनाते रहे अपने निशां
वो ही विद्रूपता से
हमारी झुलसी नंगी पीठ पर
हाथ रख कहता है
तुम अपने पैरों से कब चलीं
तुम्हारे पैर थे ही कब?
तुम तो बस हम पर थीं आश्रित
मैंने ही तुम्हें दी
छाया-माया-काया
अब तुम्हें और क्या चाहिए ?


साथियों,
ये इतिहास झूठा है
मुझे इस पर विश्वास नहीं
ये कभी हमारा था ही नही
मैं तुम्हें फिर से खंगालूगी
मैं कटिबद्ध हूँ
क्योंकि ज़रूरत है आज ये बताना
कि इतने ढेर से कदमों के बीच
एक कदम मेरा भी है

 *फर्क 

अरी सुनो बहनों,
थोड़ा पास आओ
मत शरमाओ
शरमा जाने से
किसी के गुनाह कम नही हो जाते

अरी सुनो,
तुम्हे पसंद है
गोरा-गोरा गोल-गोल
सुंदर चांद
और उसकी चांदनी को पीना

हमें पसंद है
परिश्रम की आग में तपे
लाल तवे पर सिकती
रोटी की गंध

तुम्हे पसंद है
तुम्हारे भव्य मंदिर में रखे
दिव्य देव
और हमें पसंद है
उन पर उंगली उठाना

तुम्हे पसंद है
शब्दों के खेल में
जीवन के पर्याय बताना
प्यार सेक्स बलात्कार
यौनिकता पर थोड़ा
रुमानी होते हुए चर्चा छेड़ना
और हमें पसंद है
इस खेल के व्यापार को
एक विस्फोटक डिब्बे में
बंद कर
एक तिल्ली से उड़ा देना

अब बताओ
कितना फ़र्क है
तुम में और हम में ?


लाल तवे पर सिकती
रोटी की गंध

तुम्हे पसंद है
तुम्हारे भव्य मंदिर में रखे
दिव्य देव
और हमें पसंद है
उन पर उंगली उठाना

तुम्हे पसंद है
शब्दों के खेल में
जीवन के पर्याय बताना
प्यार सेक्स बलात्कार
यौनिकता पर थोड़ा
रुमानी होते हुए चर्चा छेड़ना
और हमें पसंद है
इस खेल के व्यापार को
एक विस्फोटक डिब्बे में
बंद कर
एक तिल्ली से उड़ा देना

अब बताओ
कितना फ़र्क है
तुम में और हम में ?


* कोशिश

इक औरत
जो दिखती है
या बनती है

वह कभी बनना
नहीं चाहती
भूमिकाओं में बंधना
नहीं चाहती

उसके ज़मीर को
जज़ीरों में बांधकर
पुरजोर कोशिश की जाती है
कि वह बने औरत
बस खालिस औरत

भूमिकाओं में बंधा
उसका मन
रोता है
चक्की के पाटों में पिसा
लड़ती है वह अपने से हज़ार बार
रोती है ढोंग पर
धिक्कारती है वह  
अपने औरतपन को-----

मेरी मानो,
उसे एक बार छोड़ के देखो
उतारने दो उसे
अपने भेंड़ के चोले को

फिर देखो
कि वह बहती नदी है
एक बार वह गयी तो    
फिर हाथ नहीं आयेगी
हाथों से फिसल जायेगी।



* रहस्य 

मेरी मां के जमाने में
औरतों की होती थी
नन्हीं दुनिया
जहाँ वे रोज
अचारपापड़ बनाते हुए
झांक लेती थी आह भर
आसमां का छोटा- सा टुकड़ा
नहीं कल्पना करती थीं उड़ने की

खुश थीं वे
सोने-चांदी के बिछुए पहन
उन्हें भाता था
आंगन मे लगा तुलसी का पौधा
बर्तनों को
बड़े लाड-प्यार से
पोंछकर रखती थीं
गोया कि वे उनके बच्चे हों
आंगन की देहरी तक था
उनका दायरा
पिताचाचाताऊपडौसी की
निगाह में
वे अच्छी पत्नी, अच्छी औरत थीं

एक दिन उसने
बोझ से दबी अपनी कमर
कर ली सीधी
अचानक
उसके स्वर में आयी थी गुर्राहट :
क्यों ? आखिर मैं ही क्यों ?
आखिर कब तक चलेगी
गाड़ी एक पहिये पर ?
उस दिन मेरी मां के अन्दर
मेरे ज़माने की औरत ने
जन्म लिया------

मेरे ज़माने की औरतें
कसमसाती है
झगड़ती हैंचिल्लाती हैं
पर बेड़ियां नहीं तोड़ पाती है
कमा-कमा कर
दोहरी हुई जाती हैं
उधार के पंख लगाइधर से उधर
घर से दफ्तर,  दफ्तर से घर
फिर लौट आती हैं अपने डेरे में

पर मेरी बेटी
जो हम सबके भविष्य की
सुनहरी नींव है
जो जन्म घुट्टी में सीख रही है
सवाल करना   
कब से ? क्यों ? कैसे ? किसका ?
मुझे पता है
वो हालत बदल देगी
उसमें है वो जज्बा
लड़ने काबराबरी करने का
क्योंकि उसे पता है
संगठनएकता का रहस्य





8)
* आकांक्षा 

सुनो,
नहीं चाहिए हमें
तुम्हारी कृपादृष्टि
नहीं चाहिए
तुम्हारा कामधेनु वरदहस्त
नहीं चाहिए
तुम्हारे शब्द-तमगे
नहीं चाहिए
तुम्हारी प्रशंसात्मक लोलुप नज़रें
नहीं चाहिए
तुम्हारे झुर्रीदार कांपते हाथों का
लिजलिजा स्नेह
अब हमें नहीं करनी
किसी की जी- हजूरी
हम हैं खुद गढ़ी औरतें

हम लड़ेंगे गिरेंगे
लड़खड़ाएंगे
उठेंगे चलेंगे
और अपने ही मजबूत पैरों से
नाप लेंगे दुनिया
हमें चाहिए खुला बादलरहित
साफ आसमान
जो सिर्फ़ अपना हो।






* तुम्हें लगता है 

तुम चाहते हो
तुम्हारे सुर में मिला दे हम
अपना सुर
क्योंकि तुम्हे लगता है
हमारे सुर का अस्तित्व
तभी बचेगा

तुम चाहते हो
तुम्हारे ख्याब में हम
अपने ख्याब जोड़ दे
क्योंकि तुम्हारा मानना है
तभी पूरे होंगे हमारे ख्याब 

तुम चाहते हो
तुम्हारी मंजिल के साथ खींच लाएं हम
अपनी मंजिल
क्योंकि तुम्हारी धारणा है
तभी हमारी मंजिल को
दिशा मिलेगी

तुम चाहते हो
अपने मनपसंद रंग में रंगना हमको
क्योंकि तुम्हे लगता है
सबकी पसंद एक सी होनी चाहिए

पर हमें पसंद है
अपनी तरह के रंग में
रंगे ख्बाव, सुर और मंजिल






* मेरे पक्ष में 

मेरे तुम्हारे बीच में
बीसियों तरह
के फासले हैं-------
उन फासलों को
मैंने बड़ी शिद्दत से
पार करने की कोशिश की
पर नहीं कर पायी
वह फासला हमारे तुम्हारे बीच
किसी गंदे नाले की तरह पसरा पड़ा है
जिसकी बदबू हमारे वजूद को
ढक लेती है

एक फासला
मेरे तुम्हारे बीच
तुम्हारे अधिक इंसान होने
और मेरे इंसान
न समझे जाने का है
जो एक खून भरी खाई की तरह
अटल खड़ा है
जिसमें तुम्हारी परछाईं
हरी घास पर चलते हुए
बाघ की तरह दिखती है
और मेरी एक मासूम छौने की तरह
जिसने अभी-अभी एकदम चलना सीखा है।

एक और फासला
मेरे तुम्हारे बीच
औरत और मर्द होने का है
जो हमारे बीच गहरे कुएं की तरह
पसरा पड़ा है
जिसमें झांकने में तुम्हारी शक्ल
किसी आदमखोर की तरह
दिखती है

आखिरी फासला
तुम्हारे हमारे बीच
जीने मरने की नींव पर
खड़ा है
तुम्हारे जीने की क्रूर लालसा
और हमारे मरने की मजबूरी के बीच
काँटे की टक्कर है

लेकिन यह भी तय है
मेरे अजीज दोस्त
कि इस फासले की जीत
अवश्य ही मेरे पक्ष में होगी



स्यूडो फेमनिस्ट

सुनो,
सूडो फेमनिस्ट !
तुम्हारे स्त्री विचारों ने
फैला दी है चारो तरफ
बास
तुम्हारे अधकचरे विचार
पैदा कर रहे है
समाज में द्वंद
आज़ादी स्वतंत्रता समानता
और मुक्ति के नाम पर
गफ़लत फैला रहे है

एक की आजादी नहीं होती
सबकी आजादी
इसलिए
सबकी आजादी की बात करो
मुक्ति भी
एक दूसरे से जुड़ी होती है
जैसे माला में
मोती से मोती जुडे होते हैं
किसी एक वर्ग के मुक्त होने से
नहीं हो सकते सभी मुक्त

तुम्हारी अपनी कुंठाए
अपनी महत्वकांक्षा
केवल और केवल
अपने बारे में सोचते हुए
आंदोलन और आजादी के
नाम पर
भोगविलास में डूबॆ जीवन के
झंडे गाड़ना बंद करो।

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अनिता भारती दलित-स्त्री साहित्य की गंभीर चिंतक एवं आन्दोलनधर्मी लेखिका हैं. कई किताबें, अनेक महतवपूर्ण किताबों का सम्पादन. दिल्ली में रहती हैं.

सम्पर्क 
मोबाईल-9899700767



















































पवन करण की तीन कविताएँ

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पवन करणहिंदी के सुपरिचित कवि हैं . ग्वालियर के एकदम आरम्भिक दिनों से उनसे गहरा नाता रहा है और कविता को लेकर एक लम्बी बहस भी. हम दोनों एक दूसरे को पढ़ते हैं, कई बार प्रसंशा करते हैं और कई बार लड़ते भी हैं. वह बड़े हैं तो डांट लेते हैं, लेकिन बहस ख़त्म नहीं करते. खैर, पवन भाई को अक्सर उनकी स्त्री-विषयक कविताओं के लिए जाना जाता है. मैंने भी उन कविताओं को केंद्र में रखकरएक लंबा लेखलिखा है. लेकिन जैसा कि मैंने उनके संकलन 'अस्पताल के बाहर टेलीफोन' पर परिंदे पत्रिका में लिखी समीक्षा में कहा है कि मुझे उनकी इतर विषयों पर लिखी छोटी कवितायें हमेशा से बहुत मारक और मानीखेज लगती रही हैं. और उन्होंने ऐसी राजनीतिक स्वर की (वैसे स्त्रियों पर लिखी कवितायें भी राजनीतिक कवितायें हैं और यह मैंने एकाधिक बार कहा भी है) कवितायें लगातार लिखी भी हैं. अभी ये कवितायें समकालीन जनमत के ताज़ा अंक में आईं तो इन्हें पढ़कर हमारी बात हुई. मैंने उनसे इन्हें असुविधा के लिए भेजने का निवेदन किया तो उन्होंने लौटती डाक से अनुरोध स्वीकार करते हुए तीनों कवितायें भेज दीं. इन पर अलग से कुछ कहने की जगह मैं इन्हें गंभीरता से पढने भर का अनुरोध करूँगा. 

कार्नेल कोपा का यह फोटोग्राफ इंटरनेट से साभार 

झाउछम्ब 

एक 

जिन्होंने मेरी ज़मीन अपने नाम
लिख  ली  वे मेरे   दुश्मन  हैं

जिन्होंने  मुझे  मेरे   ही घर से
खदेड़ दिया मैं उन्हें नहीं छोड़ूगा

जिनकी वजह से मैं फिर रहा हूं
मारा-मारा मेरी लड़ाई उनसे है

जिनके कारण मैं दाने-दाने को
मोहताज हूं मैं उन्हें मार डालूंगा

मैं झारखंड उड़ीसा छत्तीसगढ़
मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल हूँ



दो 

मेरी लड़ाई तुमसे नहीं है जिनसे है
वे मेरे सामने नहीं आते हैं
मुझसे लड़ने तुम्हें भेज देते हैं

तुम उन्हें बचाने मुझसे लड़ते हो
मैं खुद को बचाने तुमसे लड़ता हूं

उनको बचाने तुम तो
बस मुझसे लड़ते हो
क्या तुम जानते हो
खुद को बचाने के लिये
मैं किस-किस से लड़ता हूं

तुम मुझसे लड़कर मारे जा रहे हो
मैं तुमसे लड़कर मारा जा रहा हूं
आपस में हमारी लड़ाई नहीं कोई

मुझे अपने लिये लड़ना है
मुझे तुमसे भी लड़ना है!


उस पार


तुम कितने बड़े घर में रहते हो
तुम्हारे पास कितनी गाड़ियां हैं

तुम कितनी बिजली जलाते हो
पेट्रोल का कोई हिसाब ही नहीं

तुम्हारे घर कितने फल आते हैं
कितना खाना बरबाद करते हो

घर में नोट गिनने की मशीन है
ज़मीन जायदाद के कागज़ात हैं

सड़क के उस पार खड़े रहकर
घर की तरफ़ देखता हूं तुम्हारे

मेरा हाथ जेब में बीड़ी के साथ
पड़ी माचिस पर चला जाता है !

                                       
       
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संपर्क          ‘सावित्री‘ आई-10 साईट नं-1
                   सिटी सेंटर , ग्वालियर-474002 (म.प्र.)
             
ई मेल          pawankaran64@rediffmail.com
मोबाईल      09425109430

कृष्णकांत की कवितायें

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कृष्णकांतकी कवितायें आप असुविधा पर पहले भी पढ़ चुके हैं. वह आन्दोलानधर्मी कवि हैं. गहरे गुस्से और झुंझलाहट से भरे हुए. कई बार जल्दबाजी में लगते हुए, लेकिन गौर से पढने पर पता चलता है कि अपनी विचार यात्रा को लेकर वह काफी सजग हैं. इसीलिए उनकी कवितायें अपने समय-समाज की एक गहरी पड़ताल करती हैं.

पाल नैश की पेंटिंग 


नारे 

जिनके माथे पर चस्पा थे 
देशभक्ति के पोस्टर 
देश की सुरक्षा और संस्कृति 
बचाने का पीटते रहे ढिंढोरा 
वे चकलाघरों के अव्वल दलाल निकले 
जमीन लूटी, आसमान लूटा 
खेत लूटे, खलिहान लूटा 
आंख में धूल झोंकी 
सब के स​ब जनसेवक नटवरलाल निकले 

जिनके नाम पर बने सत्ता के गलियारे 
वे खाइयों में, खेतों में 
नदियों में रेतों में 
पाथर पहाड़ में 
उगाते रहे रोटी 
बचाते रहे सांसें 
मरते रहे बुझाते रहे 
सत्ता लोलुपों की प्यासें 
उनके लिए लगाए गए 
कोटि कोटि नारे 
लाल किले का दिल पिघला 
भाषणों में चिल्लाया 
बेचारे—बेचारे 
गरीबी हटाओ, गरीबी हटाओ
दिए गए नारे 

बरसाए गए फूल सजाई गईं थालियां 
मन मसोस गुदड़ी के लाल 
सुनते रहे... सुनते रहे 
अपने लिए अश्लील नारे 
भद्दी गालियां  
आरक्त मुस्कराते चेहरों का 
यह संभ्रांत व्यापार 
मरती रही जनता
लुटते रहे घरबार  




कश्मीर घाटी की गुमनाम कब्रें 

जिन कब्रों के बारे में कोई नहीं जानता 
मैं जानता हूं कि उनकी आगोश में 
सोए हैं मेरे निर्दोष बच्चे 
इनके जिंदा दफन होने से लेकर 
इनकी तफ्तीश की नूराकुश्ती तक का नाटक 
गुजरा है मेरी आंखों के सामने 
यह सब हुआ है 
लोकतंत्र के नाम पर 
हमने आंखे बिदोर बिदोर कर देखा 
उन्हेंं घरों से खींच कर ले जाते हुए 
जब वे जा निकल रहे थे स्कूल के लिए 
फूल बागानों में फूल चुनते हुए 
वादियों में कंचे खेलते हुए 
मैं कातिलों को जानता हूं 
उनके खून सने हाथ नाचते हैं मेरी आँखों के आगे 
मैं नरसंहार के आयोजकों और 
और लोकतंत्र के हत्यारों को भी जानता हूं 

मैं स्तंब्ध बैठा हूं उन कब्रों के पास 
और सुनता हूं उन बच्चों  से 
उनके कत्ल की दास्तान 
उनके नरम गालों पर 
देखता हूं सैनिकों के बूटों के निशान 

मैं देखता हूं सपनों से भरी उनकी नन्हीं-नन्हीं आंखें 
जो हिंदू-मुसलमान नहीं जानतीं 
जो भारत-पाकिस्तान नहीं जानतीं 
उनकी शफ्फाक रूहें गवाही देती हैं 
उनके निर्दोष होने की 
उनके माथे पर लिखें हैं 
उनके हत्यारों के नाम 
मेरे वे सारे बच्चे 
उन कब्रों में जिंदा हैं अभी...



सुनो जहांपनाह 


सुनो जहांपनाह! 
अब हमने तोपों, बंदूकों और सैनिक बूटों से 
डरना छोड़ दिया है 
और हम निहत्थों  की तनी हुई मुट्ठियों में 
इतनी ताकत है 
कि उलट हम उलट सकते हैं तुम्हारा सिंहासन 
आओ या तो हाथ मिलाओ 
या फिर जाओ, अपने लिए नई जनता चुनो 
हम अपना रहनुमा 
इस माटी से, इसी माटी के लिए पैदा कर लेंगे 
फिर से 
तुम अपने लिए नई धरती खोजो...




शहर

इतना कोलाहल है 
कि यह शहर निगल सकता है 
किसी की भी चीख 
यहां कबूतरों के चुनने,
गौरैया के घोसले को 
नहीं है कोई जगह 
शिकारी बाजों से भर गया है 
पूरा आसमान 
छोटे छोटे बच्चों की आँखें 
निकाल लिए जाने का खतरा प्रबल है 
जो राहज़न हैं, वही रहबर हैं 
राजदंड लुटेरों के हाथ में है 
और राजा बंसी बजा रहा है 
अपनी फुलवारी में



हम और तुम 

नैतिक अनैतिक होने का फर्क 
एकदम वैसा है 
जैसे हमारे तुम्हारे बीच 
मतभेद का एक पहाड़ खड़ा है 
तुम हमें भद्दा कहो 
असभ्य कहो 
मूढ़-जाहिल-गंवार कहो
और दाहिनी हथेली के पाखंड को 
बायीं हथेली के छूत से 
एक गज दूर रखो 

इससे मुतास्सिर हुए बगैर 
मैं मानता हूं कि मैं गंवार हूं 
क्योंकि अपनी गंदगी 
दोनों हाथों से धो लेता हूं 
तालाब की मिट्टी से सर धोता हूं 
और गुस्सा आता है 
तो गालियां भी बकता हूं 
हर हाल में, तुम्हारे पाखंड से 
बचे रहना चाहता हूं...
------------------------------

संपर्क 
कृष्णकांत 
गली नम्बर- 3, पश्चिमी विनोद नगर,  
नई दिल्ली-92
मो- 9718821664

निरंजन श्रोत्रिय की कवितायें

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निरंजन श्रोत्रिय हिंदी कविता में एक सुपरिचित नाम हैं. निजी जीवन की सहज अनुभूतियों को कविता में गहन आवेग के साथ प्रस्तुति की उनकी खासियत को बहुधा लक्षित किया गया है. गुना जैसे छोटे से शहर में रहते हुए उन्होंने कस्बाई जीवन, वहां की सामाजिक-सांस्कृतिक विसंगतियों तथा विद्रूपताओं और  राष्ट्रीय - अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के साथ उसके गहन अंतर्संबंधो की गहन पड़ताल की है और उसे कविता में संभव भी किया है.  आज उनकी कुछ नई-पुरानी कवितायें
 

 

           अपनी एक मूर्ति
           बनाता हूँ और ढहाता हूँ 
           आप कहते हैं कि कविता की है।
                                                         
                                        रघुवीर सहाय


     
       कठिन समय की कविता

   ‘कठिन समय है! कठिन समय!!’
   बुदबुदाता कवि
   उठ बैठता आधी रात
  लेकर कलम-दवात

   भक्क से जल उठता लैम्प
   रोशनी के वृत्त में
   संचारी भाव स्थायी रफप से
   बैठने लगते कविता की तली में

  तय करता है कवि
 ड्राफ्ट कठिन समय का
 बुनता है भाषा कठिन समय की
 याद करता किसी कठिन समय को
 तय करता अनुपात
 बिम्ब और तर्क
जटिलता-सम्प्रेषण
मौलिकता-दोहराव के

 ‘कठिन समय -कठिन समय’
 बुदबुदाता कवि तय करता
 अपने सम्पादक, आलोचक और पाठक
 और चोर-दरवाजे भी
 किसी कठिन समय पर भागने के लिये

 फिलहाल
जबकि सारे जाहिल लोग
थक कर सोये हैं
नींद से लड़ता कवि
लिखता एक आसान-सी कविता
कठिन समय पर

प्रिय पाठक!
सचमुच कठिन समय है यह
कविता के लिये
           
           
               
                       जश्न की रात
                                                       
‘अब छोड़ो भी ये बातें मनहूसियत की
और जश्न की इस मधुर संध्या पर
उठाओ यह छलकता जाम’ जैसी मीठी झिड़की को
नकार सकते हैं यदि आप, तो ही पढ़ें
यह कविता........

कविता जो शुरु  करना चाहता था कवि
उमंग, उल्लास, उजास, उम्मीद जैसे कुछ शब्दों से
लेकिन नहीं कर सका
क्योंकि वह देख पा रहा था
इस जगमग रोशनी के पार
पसरा हुआ एक अँधियारा जो ध्ंसा हुआ था
पृथ्वी की आत्मा में
लोग खुश थे- खिलखिला रहे थे
मार रहे थे ठोकर  पैरों में लोटते किसी भयावह सच को
लेकिन सच था कि लिपटने को आमादा

गरजती थी आवाजें
कैसे आ गया यह बिन बुलाये
हुआ जा रहा रंग में भंग--हटाओ इसे यहाँ से
लोग ढूंढते उसे कभी टेबिल के नीचे, कभी कनात के पीछे
कभी पीछे किसी झाड़ी के
लेकिन वह टुकड़ा था हमारी आत्मा से रिसता/ झुठलाते जिसे
बीती जा रही थी सदियों पर सदियां

पार्टी थी पूरे शबाब पर
जिसकी रंगीनियों में किये जा रहे थे कुछ नये वादे
सौदे की शक्ल में
किये जा रहे थे कुछ प्रस्ताव जिसका मसौदा
ले चुका था अंतिम शक्ल
मनाया जा रहा था ईश्वर को जो सो चुका था कोप-भवन में रोते-रोते

उस सर्द रात में जब पारा शून्य के आसपास ठिठुर रहा था
गर्माहट के कुछ शर्मनाक तरीकों की धुंध के पार
दिखाई पड़ रहा था सियाचीन का साफ और उजला आसमान



जहां शून्य से पचास डिग्री सैल्सियस नीचे
कोई जाँबाज पुकार रहा था अपनी बर्फीली मगर दृढ़ आवाज़ में

कि चिन्ता न करना हमारी हम हैं यहां महफूज़ !

पार्टी में चिन्ता की जा रही थी संभावित वृद्धि की पेट्रोल के भावों में
पहियों के रुकने की आशंका में दुखी थे दलाल और मुनापफाखोर
उध्र किसी घर में ‘पापा’ लिखना सीख रही थी कुछ मासूम अंगुलियां
पापा की अंगुलियां ट्रिगर पर फंसी थी और ध्यान लक्ष्य पर
कवि प्रदीप और लता मंगेशकर की आत्माओं से निकला मर्मभेदी गीत
समय की अतल गहराईयों में डूब चुका था।

पार्टी जम रही थी और कनात के उस पार जूठन की उम्मीद में बैठी
कुछ आशाएं बुझने को थीं
लेकिन कनात के इस पार मचा हुआ था द्वन्द्व कुछ चश्मों, झोलों, दाढ़ियों,
तोंदों और लिपस्टिक्स के बीच
कि होनी ही चाहिये समतावादी समाज की स्थापना
इस मुल्क में वरना होगी क्रान्ति
सुन लिया समाजवाद ने और वह दुबक गया आलू की चिप्स के नीचे
क्रान्ति शब्द सुनते ही जोश में खुला एक ढक्कन
और फैन लगा बहने दरिया बन
मुक्तिबोध् की कविता के डोमाजी का वंशज
जो इस तरल बहस में दुःखी होने की हद तक
भावुक हो चला था अचानक करने लगा उल्टियां झाड़ियों के पीछे
और वह दूसरा जिसे चढ़ता था नशा पांच पैग के बाद ही
समझाने लगा जीन्स में फंसे एक दुबले नौजवान को
--‘दिस कन्ट्री हेज नो पफ्यूचर! व्हाय डोन्ट यू  ट्राय फाॅर ए फारेन एसानइमेंट!’
दुबला नौजवान गद्गद् था।

पार्टी खत्म नहीं होना चाहती थी मगर ज्यादातर लोग लुढ़क चुके थे
सहमत और असहमत जा चुके थे एक ही गाड़ी में बैठ
मेजबान खुश थे कि मेहमान खुश हुए
मेहमान खुश थे कि इस बार पार्टी में कनात के उस पार से
किसी ने नहीं उछाला पत्थर!

                         
                           

                 खोज
 (समाचार पढ़कर कि एक 23 वर्षीय युवक ने कम्प्यूटर ज्ञान से तृप्त होकर इसलिये आत्म हत्या कर ली कि अब इस दुनिया में जानने के लिये बचा ही क्या है!)

सब कुछ पा चुकी इस दुनिया में
बहुत कुछ बचा है खोजने को

कुछ सुगंध गुम हुई अंधेरे  के भीतर
या कि याद अपनी ठेठ बोली के ठेठ मुहावरे की
कोई सच जो समाया मुहल्ले की पापड़ बेलती औरतों की गप्पों में

मुन्ने की घुटनचाल में उलझा
टुकड़ा कोई बचपन का सिरहाने जिसके आती नींद गहरी
बूढ़ी आँखों को
गया बाहर दरवाजे के पहन सूट
तो लौटी आवाज़ केवल सवार घंटियों पर

समवेत स्वाद रोटियों का पकी साझी आंच पर तन्दूर की
चट कर गई संगीनें दहशत की
आवाज़ किसी बीज की घोट दी गई जो
सौंधी मिट्टी के गर्भ में

पहाड़ा तेरह का कठिन जो हुआ याद
दबाते हुए पैर पिता के
हवाले अंततः फ्लापी के
कुछ पल बेशकीमती फुरसत के
सोखे जो विज्ञापन-गीतों की गुनगुनाहट ने
बिछाकर बाजार घर में

सदाशयता ‘कोई बात नहीं’ की मुस्कुराहट की
टकरा जाने पर अनायास
गुम हुई जो न मिली आज तक

हुए कुछ ज़रुरी सवाल कैद
उस गाड़ी में बख़्तरबन्द
जिस पर लिखी इबारत इनामी क्विज की



जबकि मनुष्य की अनिवार्य आकांक्षाएं बदल दी गई हैं
कम्प्यूटर की ‘बेसिक लैंग्वेज’ की बाइट में
जो करती बयां स्क्रीन पर/ धुंधला चेहरा कोई
खोजता हूं --धडकन अविकल!

     



घर-गिरस्ती की पांच कविताएं

             एक/  पत्नी से अबोला

बात बहुत छोटी-सी बात से
हुई थी शुरु
इतनी छोटी कि अब याद तक नहीं
लेकिन बढ़कर हो गई तब्दील
अबोले में ।

संवादों की जलती-बुझती रोशनी हुई फ्यूज़
और घर का कोना-कोना
भर गया खामोश अंधकार से ।

जब भी होता है अबोला
हिलने लगती है गृहस्थी की नींव
बोलने लगती हैं घर की सभी चीजें
हर वाक्य लिपटा होता है तीसरी शब्द-शक्ति से
सन्नाटे को तोड़ती हैं चीजों को ज़ोर से पटकने की आवाज़ें
भेदने पर इन आवाज़ों को
खुलता है--भाषा का एक समूचा संसार हमारे भीतर ।

सहमा हुआ घर
कुरेदता है दफन कर दिये उजले शब्दों को

कहाँ बह गई सारी खिलखिलाहट
कौन निगल गया नोंक-झोंक के मुस्काते क्षण
कैसे सूख गई रिश्तों के बीच की नमी
किसने बदल दिया हरी-भरी दीवारों को खण्डहर में
अबोले का हर अगला दिन
अपनी उदासी में अधिक भयावह होता है ।

दोनों पक्षों के पूर्वज
खाते हुए गालियाँ
अपने कमाए पुण्य से
निःशब्द घर को असीसते रहते हैं ।


कालबेल और टेलीफोन बजते रहते
लौट जाते आगंतुक बिना चाय-पानी के


बिला वजह डाँट खाती महरी
चुप्पी टूटती तो केवल कटाक्ष से
‘भलाई का तो ज़माना नहीं’
या
‘सब-के-सब एक जैसे हैं’ जैसे बाण
घर की डरी हुई हवा को चीरते
अपने लक्ष्य की खोज में भटकते हैं ।

उलझी हुई है डोर
गुम हो चुके सिरे दोनों
न लगाई जा सकती है गाँठ
फिर कैसे बुहारा जाएगा इस मनहूसियत को
घर की दहलीज से एकदम बाहर
अब तो बरदाश्त भी दे चुकी है जवाब !

इस कविता के पाठक कहेंगे
... यह सब तो ठीक
और भी क्या-क्या नहीं होता पति-पत्नी के इस अबोले में
फिर जितना आप खींचेंगे कविता को
यह कुट्टी रहेगी जारी

तो ठीक है
ये लो कविता समाप्त !

 
दो /टावेल भूलना 

यदि यह विवाह के
एक-दो वर्षों के भीतर हुआ होता
तो जान-बूझकर की गई ‘बदमाशी’ की संज्ञा पाता

लेकिन यह स्मृति पर
बीस बरस की गृहस्थी की चढ़ आई परत है
कि आपाधापी में भूल जाता हूँ टाॅवेल
बाथरूम जाते वक्त ।

यदि यह
हनीमून के समय हुआ होता
तो सबब होता एक रूमानी दृश्य का
जो तब्दील हो जाता है बीस बरस बाद
एक खीझ भरी शर्म में ।

‘सुनो, जरा टाॅवेल देना !’
की गुहार बंद बाथरूम से निकल
बमुश्किल पहुँचती है गन्तव्य तक
बड़े हो चुके बच्चों से बचते-बचाते

भरोसे की थाप पर
खुलता है दरवाजा बाथरूम का दस प्रतिशत
और झिरी से प्रविष्ट होता
चूड़ियों से भरा एक प्रौढ़ हाथ थामे हुए टाॅवेल
‘कुछ भी ख्याल नहीं रहता’ की झिड़की के साथ ।

थामता हूँ टाॅवेल
पोंछने और ढाँपने को बदन निर्वसन
बगैर छूने की हिम्मत किये उस उँगली को
जिसमें फँसी अँगूठी खोती जा रही चमक
थामता हूँ झिड़की भी
जो ढँकती है खीझ भरी शर्म को

बीस बरस से ठसे कोहरे को
भेदता है बाथरूम में दस प्रतिशत झिरी से आता प्रकाश !
               
         
                           तीन/ अचार

अचार की बरनी
जिसके ढक्कन पर कसा हुआ था कपड़ा

ललचाता मन कि
एक फांक स्वाद भरी
रख लें मुँह में की कोशिश पर
पारा अम्माँ का सातवें आसमान पर
भन्नाती हुई सुनाती सजा फाँसी की
जो अपील के बाद तब्दील हो जाती
कान उमेठ कर चौके से बाहर कर देने में ।

आम, गोभी, नींबू, गाजर, मिर्च, अदरक और आँवला
फलते हैं मानो बरनीस्थ होने को
राई, सरसों, तेल, नमक, मिर्च और हींग -सिरके
का वह अभ्यस्त अनुपात
बचाए रखता स्वाद बरनी की तली दिखने तक ।

सख्त कायदे-कानून हैं इनके डालने और
महफूज़ रखने के
गंदे-संदे, झूठे-सकरे हाथों
और बहू-बेटियों को उन चार दिनों
बरनी न छूने देने से ही
बचा रहता है अम्माँ का
यह अनोखा स्वाद-संसार !

सरल-सहज चीजों का जटिलतम मिश्रण
सब्जी-दाल से भरी थाली के कोने में
रसीली और चटपटी फांक की शक्ल में
परोस दी जाती है घर की विरासत!

चौके में करीने से रखी
ये मौलिक, अप्रकाशित, अप्रसारित कृतियाँ
केवल जायके का बदलाव नहीं
भरोसा है मध्य वर्ग का
कि न हो सब्जी घर में भले ही
आ सकता है कोई भी आधी रात !



                     चार/ फर्ज़ निभाना

जिन्हें सींचा अपने रक्त और दूध से
प्राणवायु दी जिन्हें अपने फेफड़ों की
बहते रहे शिराओं में जिनकी जिजीविषा बनकर
तैयार हुआ जो आदमकद हमारी भूख और पसीने से गुँथकर
लाँघ जाते वे एक दिन घर की दहलीज़
‘यह तो हर माँ-बाप का फर्ज़ है’ का
तमाचा मार कर ।

चल देता है दरख़्त उन्मुक्त दिशा में
खींचकर जमीन से जड़ें अपनी और छाँह आकाश से
फिर बंजर हुई उर्वरा वह
समेटती है अपने सूने गर्भ में
सूखे पत्तों की चरमराहट
भूलती है हिसाब चूसे गये खनिजों का
और प्रार्थना में गाने लगती है हरीतिमा का गीत

क्या जिया जीवन !
निभाते रहे फर्ज़ केवल
पूत-सपूत की तमाम लोकोक्तियाँ नकारते
भरते रहे भविष्य निधि की गुल्लक पाई-पाई से
अपने स्वप्नों को डालकर उनकी बची हुई नींद में
देते रहे पहरा दहलीज पर रात भर ।

पोंछती है वह साड़ी के उसी पल्लू से आँख की कोर
गाँठ से जिसकी निकलती थी चवन्नी चुपके से स्कूल भेजते वक्त
मारी हुई घर-खर्च से

सुनें ! दुनिया के तमाम सीनियर सिटीजन्स सुनें !
कि उर्जा गतिकी के नियमों के अनुसार
यह प्रवाह होता एक दिशीय
कि ऋण अदायगी का शास्त्रोक्त तरीका भी यही
कि उनकी खुशी के फलों में ही छुपे
बीज हमारी खुशी के ।

चुनें ! दुनिया के तमाम बुज़ुर्गवार चुनें !
इन चहकती हवाओं के बीच



आँगन में रखी एक आराम-कुर्सी
जिसके उदास हत्थे पर टिकाकर सिर
सुना जा सके ममत्व का संगीत

दबाए सीने में
घुमड़ती सुनामी लहरों के ज्वार को
थामे कस कर लगाम रुलाई की
रखा जा रहा है अटैची में
तह कर के एक-एक फर्ज़ !





 पांच/ टेलीफोन का बिल
         
 डाक से आने वाला यह कागज़
 बिल है टेलीफोन का या
 घर में होने वाली खटपट का द्वैमासिक दस्तावेज!

 बजट से बाहर पसारता पैर
 कागज का बेशर्म टुकड़ा
 वसूली हवा में गुम हो गये शब्दों की

बिल के साथ नत्थी डिटेल्स ही
मूल में होते खटपट की
‘ये देखो तुम्हारे इतने-मेरे इतने’
संख्या, समय और यूनिट के आंकड़ों का
एक कसैला समीकरण
कुतरता घर के बटुवे को एक सिरे से!

‘करना चाहिये केवल ज़रुरी बात ही ’
की सार्वजनिक सीख
‘मेरे ही फोन होते हैं ग़ैर ज़रूरी’
के पलटवार से हो जाते परास्त।

समीकरण से चुनकर
उसके हिस्से के समय को
बदलता हूं मुद्रा में
और कोसता हूं अपने  रिटायर्ड ससुर की बचत के लिये
की गई पहल को

 बेटी बेटी ही होती है
 शादी के बीस बरस बाद भी!
 उसके हिस्से की इकाईयों में छुपा है
 पिता के दमे और भाभी के बर्ताव का संताप
 भतीजे के लिये एक तुतलाती भाषा भी दर्ज़ वहाँ
 कुछ घरेलू नुस्खे....व्यंजन विधियाँ
 कुछ निन्दा-सुख, कुछ दूरी का दुःख
 यदि ध्यान से खंगालें उन ‘पल्सेज़’ को
 तो सिसकियों का एक दबा संसार भी खुल सकता है वहाँ


इन सबके बरक्स
दूसरे हिस्से में थोथी गप्पें दोस्तों से
जो होती हैं ऊर्जावान मेरे हिसाब से

न जाने किस निष्कर्ष पर पहुंचेगा
टेलीफोन का बिल का यह तुलनात्मक अध्ययन!

एक दिन जब वह
होती है वहाँ
लगाता हूं एस टी डी
‘मेरे मोजे रखे हैं कहां ?’




              मैं अटपटा आदमी

इन दिनों मैं एक अटपटा व्यक्ति होता जा रहा हूँ

इस कथित सहज-सरल दुनिया में
मैं एक अटपटा व्यक्ति
अटपटी पोशाक, अटपटे व्यक्तित्व के साथ
अटपटी बातें करता हूँ

मित्रों में सनकी और अफसरों में कूड़मगज
कहलाने वाला मैं
अपने अटपटेपन पर शर्मिन्दा होने से मुकरता हूँ

शोकसभा में दो मिनट के मौन की अंतिम घड़ी में
फूट पड़ती है मेरी हँसी

आभार प्रदर्शन के औपचारिक क्षणों में
गरिया देता हूँ सभापति को

दफ्रतरों में घुसता हूँ अब भी
पतलून की जेब में हाथ डाले बगैर

मुझे पता है
अटपटे के दुःख और
विशिष्ट के सुख के बीच की दूरी

अपनी बात न कहकर मैंने पहले ही
बहुत खतरे हैं उठाये
अब अटपटी बातों की वजह से
और गंभीर खतरे उठाऊँगा ।

           
           

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 परिचय


जन्म: 17 नवम्बर 1960, उज्जैन
शिक्षाःआद्योपान्त प्रथम श्रेणी कैरियर के साथ विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से वनस्पति शास्त्र में       एम.एस-सी., पी-एच. डी.। मेटल टाक्सिकालाजी पर अनेक शोध-पत्र अन्तरराष्ट्रीय जरनल्स में प्रकाशित।

सृजनःएक कहानी संग्रह ‘उनके बीच का जहर तथा अन्य कहानियां’ 1987 में पराग प्रकाशन, दिल्ली  से प्रकाशित। दो कविता-संग्रह ‘जहाँ से जन्म लेते हैं पंख’ 2002 में तथा ‘जुगलबंदी’ 2008 में  प्रकाशित तथा चर्चित, एक कहानी संग्रह ‘धुआँ’ (2009) तथा  एक निबंध-संग्रह ‘आगदार तीली’ (2010) में प्रकाशित । हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियां, आलोचना , निबन्ध तथा नाट्य रूपान्तर प्रकाशित। नव- साक्षरों एवं बच्चों के लिये पर्यावरण एवं  विज्ञान की पुस्तकों का लेखन। कई कविताएं अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित  एवं प्रकाशित।  देश के अनेक महत्वपूर्ण कथा-कविता समारोहों में शिरकत। अनेक रचनाओं का अंग्रेजी एवं भारत की अन्य भाषाओं में अनुवाद।
     
सम्मानः 1998 में अभिनव कला परिषद, भोपाल द्वारा ‘शब्द शिल्पी सम्मान’।

सम्प्रतिःप्राध्यापक एवं अध्यक्ष, वनस्पति शास्त्र विभाग, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,गुना (म.प्र)

सम्पर्कः                                  ‘विन्यास’, कैन्ट रोड, गुना- 473 001 (म.प्र.), दूरभाषः ;07542- 254734
                                               मोबाइलः 98270 07736
                                           








                       

नवाबों के शहर में केदार जी और मैं - उमेश चौहान

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दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका 'कथा' में उमेश चौहान का यह स्मृति-आरेख प्रकाशित हुआ. वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह की गहन आत्मीय छवियों से भरा-पूरा इस आलेख में उमेश जी की पुस्तक के विमोचन समारोह की रपट भी बड़े अनूठे ढंग से आई है. 


  • उमेश चौहान


लगभग चौबीस घंटे के लखनऊ प्रवास के बाद वापसी के लिए घर से बाहर निकलते ही हमेशा की तरह हमें विदा करने के लिए सोनू गेट की बगल में आ खड़ा हुआ था। लगभग तीन-चार साल का प्यारा सा बच्चा। उसे देखते ही प्यार उमड़ता था। हर बार की तरह उसे सामने पाते ही मेरा हाथ अपने आप जेब में चला गया और मैंने सौ रुपए का एक नोट निकालकर उसके हाथ में थमाना चाहा कि अचानक केदारनाथ सिंह जी ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोले, -नहीं, यह मेरी तरफ से होगा।उन्होंने अपने कुर्ते की जेब से सौ का नोट निकालकर बड़े वात्सल्य के साथ सोनू को पकड़ाया। सोनू मंद-मंद मुस्कराता हुआ उन्हें देख रहा था। केदार जी की आँखों में आनन्द तैर रहा था उस समय। हम सब केदार जी के इस वात्सल्य-भाव से अभिभूत थे। यह हमारे लिए उनके विशाल कवि-हृदय में छिपे हुए एक और विकार-केन्द्र के एकायक उद्घाटित होने जैसा था। मुझे ध्यान आया कि जब आज सुबह-सुबह सोनू घर के भीतर डाइनिंग टेबिल की कुर्सी पर बैठा बीकानेरी भुजिया खा रहा था, तब भी केदार जी उसे बड़ी प्यार भरी नज़रों से देखते रहे थे। मैंने उस समय सोनू की दो प्यारी-सी तस्वीरें भी अपने कैमरे में कैद कर ली थीं और सोचा था कि उन्हें प्रिंट कराकर केदार जी को भेंट करूँगा। सोनू मेरे घर की छत पर बने कमरे में रहने वाले बिजली विभाग के जूनियर इंजीनियर सत्यनारायण का बेटा था। पिछले करीब एक दशक से मेरे लखनऊ के मकान की देख-रेख सत्यनारायण के ही जिम्मे है। लगभग दस वर्ष पहले जब वह तराई के जंगली इलाके के एक थारू आदिवासियों के एक गाँव से मेरे विभाग में चपरासी के पद पर काम करने आया था तब उसके पास लखनऊ में रहने की कोई जगह नहीं थी। मैंने यहीं उसके रहने का इंतज़ाम कर दिया था। तब से लेकर आज तक उसका परिवार यहीं पर रहता रहा है और वह मेरे घर की देख-भाल भी करता रहता है। यहाँ रहकर खूब तरक्की की है उसने और उसके परिवार ने, इसीलिए वह यह जगह छोड़ने की कभी सोचता भी नहीं। केदार जी की लखनऊ से विदाई की इस बेला में सत्यनारायण का पूरा परिवार आनन्द-विभोर होकर मेरे साथ गेट के पास आ जुटा था।

हिन्दी के वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह जी के साथ लखनऊ की यात्रा करने का आनन्द तो दिल्ली से चलने के
पहले से ही आने लगा था। जैसे ही केदार जी द्वारा लखनऊ में नियोजित मेरे नए कविता-संग्रह जनतंत्र का अभिमन्युका लोकार्पण करने की हामी भरी और उसकी तारीख़ पक्की की, कविमित्र मिथिलेश श्रीवास्तव भी स्वतःस्फूर्त उत्साह के साथ उसमें सम्मिलित होने के लिए चलने को तैयार हो गए। अगले ही दिन शिल्पायन प्रकाशन के ललित शर्मा ने भी पुष्टि कर दी कि वे भी लोकार्पण के अवसर पर लखनऊ पहुँचेंगे। राजकमल प्रकाशन में कार्यरत मित्र सुशील सिद्धार्थ पहले से ही वहाँ थे। मेरे लिए इतना सब काफी था। इधर मेरे और भी साथी तैयार थे। मैं कहता ही रह गया कि उन्हें इस यात्रा में कष्ट होगा। रेल टिकट भी पता नहीं कन्फर्म होगा या नहीं। पर उन्होंने खुद ही टिकट कराकर अपना जाना सुनिश्चित कर लिया। मैंने भी सोचा कि चलो ये सब मित्र वहाँ पहुँचेंगे तो केदार जी को बोरियत नहीं होगी, क्योंकि यदि मैं कार्यक्रम की तैयारियों के चक्कर में कुछ व्यस्त भी हो गया तो ये लोग वहाँ के प्रवास में उनका साथ देंगे। तब तक मुझे यह अंदाजा नहीं था कि केदार जी लखनऊ जा रहे हैं तो उनसे मिलने वाराणसी, गोरखपुर, देवरिया, बाराबंकी, कानपुर आदि अनेक जगहों से उनके मित्रगण आएँगे ही आएँगे और उन्हें बोरियत होने का कोई सवाल ही नहीं था। बल्कि सभी मुलाकातियों के लिए समय का समायोजन करने के लिए ही बाद में वापसी की यात्रा का कार्यक्रम अगले दिन सुबह के बजाय दोपहर के बाद रखना पड़ा। एक मित्र की उसी रात की वापसी की रेल-यात्रा के अलावा बाकी का पूरा कार्यक्रम सुनियोजित था ताकि किसी को कहीं कोई परेशानी न हो।

यह तो दिल्ली से चलने के पहले ही तय हो गया था कि केदार जी लखनऊ में मेरे खाली पड़े घर में ही रुकेंगे। जब उन्होंने मुझे यह बताया कि उनसे मिलने दो लोग बाहर से आएँगे, जिन्हें उनके साथ ही रुकना होगा तो मैंने कहा कि वे भी घर पर ही रुक जाएँगे। रुकने के लिए मेरा घर सबसे उपयुक्त स्थान था, क्योंकि लोकार्पण का कार्यक्रम गोमतीनगर स्थित उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के सभागार में था और किसी भी गेस्ट हाउस की तुलना में मेरा घर वहाँ से पास में ही था। बाद में केदार जी से बातचीत में पता चला कि घर पर रुकने वाले मेहमानों में देवरिया के सुप्रसिद्ध गीतकार गिरिधर करुण जी तथा गोरखपुर निवासी केदार जी के पुराने मित्र स्वर्गीय श्री हरिहर सिंह जी के बेटे अजीत सिंह होंगे। चूँकि घर बंद पड़ा रहता है इसलिए एकबारगी तो यह संकोच हुआ कि पता नहीं उसकी हालत इन मेहमानों को टिकाने लायक होगी या नहीं। लेकिन फिर सोचा कि देखा जाएगा, घर पर जैसे चाहेंगे वैसे उठने-बैठने की सुविधा तो होगी। वहाँ पहुँचकर बिस्तर वगैरह ठीक-ठाक करके उन्हें किसी तरह वहीं सुलाने की व्यवस्था कर ली जाएगी। चिन्ता बस एक ही बात की थी कि जाड़े के दिन होने की वजह से जरूरत भर की कंबल या रजाइयाँ वहाँ न मिलीं तो क्या होगा! घर लम्बे समय तक बंद पड़े रहने के कारण यह ध्यान नहीं रहता था कि वहाँ कौन सा सामान है, कौन सा नहीं और कौन सा सामान कहाँ रखा है। ललित शर्मा व डॉ.अनुज रात की ट्रेन से दिल्ली से चलकर सुबह ही लखनऊ पहुँच गए थे। मिथिलेश श्रीवास्तव जी को दोपहर को पहुँचना था। उनके लिए गेस्ट हाउस में कमरे आरक्षित थे इसलिए चिन्ता नहीं थी। दोपहर होते-होते हम भी वहाँ पहुँच गए क्योंकि कार्यक्रम अपरान्ह तीन बजे से था।

घर पहुँचकर मुझे लगा कि केदार जी अपने अतिथियों के रुकने की व्यवस्था को लेकर थोड़ा चिन्तित थे। उनकी चिन्ता देखकर मुझे अच्छा भी लगा, क्योंकि अपने से ज्यादा मित्रों या मेहमानों की चिन्ता होना व्यक्ति के एक दुर्लभ सद्गुण को दरशाता है, जो उनमें परिलक्षित हो रहा था। मैंने केदार जी को सीधे ड्राइंग रूम में बिठाकर उन्हें चाय पिलवाने की व्यवस्था की। साथ ही साथ मैंने घर के दोनों कमरे साफ करवाए, बिस्तर ठीक-ठाक किए तथा आलमारियाँ खोल-खालकर खोज-बीन की तो जरूरत भर के कंबल व रजाइयाँ भी वहाँ मिल गए। सब कुछ व्यवस्थित हो जाने तक केदार जी चाय-पान कर चुके थे। इसी बीच मेरी पुस्तक के प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ के साथ मिलकर लखनऊ में लोकार्पण-कार्यक्रम का आयोजन कर रही संस्था माध्यमके मुख्य संयोजक व मेरे मित्र अनूप श्रीवास्तव जी आकर केदार जी से मिल चुके थे। कुछ समय के अंतराल से कार्यक्रम की आयोजन-समिति के अध्यक्ष एवं मेरे बड़े भाई शीलेन्द्र चौहान भी, जो स्वयं देश के एक जाने-माने नवगीतकार हैं, केदार जी से मिलने आए। यह शीलेन्द्र भैया की आयोजन-क्षमता एवं लखनऊ के साहित्यिक जगत में उनकी पैठ का ही परिणाम था कि मुझे कार्यक्रम के आयोजन के संबन्ध में कभी कुछ सोचने की जरूरत ही नहीं थी और यह सुनिश्चित था कि वहाँ वह बृहत सभागार आस-पास के जिलों के मेरे साहित्यिक व पारिवारिक मित्रों तथा लखनऊ के शहरी व मेरे गाँव के आस-पास के ग्रामीण क्षेत्र के साहित्य-प्रेमियों से भरा होगा। अब केदार जी को प्रतीक्षा थी अपने मेहमानों के पहुँचने की। उन्हें इस बात की भी चिन्ता थी कि लखनऊ पहुँचकर भी अब तक ललित शर्मा वहाँ क्यों नहीं पहुँचे। मैंने फोन किया तो पता चला कि ललित तो सुबह-सुबह ही नहा-धोकर शहर में अपना प्रकाशक-धर्म निभाने निकल गए थे। उस समय वे दूर कहीं चारबाग की तरफ थे। खैर, मेरा फोन मिलते ही वे घर की तरफ पलटे। तभी गिरिधर करुण जी व अजीत सिंह भी वहाँ आ पहुँचे।

गिरिधर जी के वहाँ पहुँचते ही घर का माहौल ही बदल गया। अकाल का सारस (‘अकाल में सारस’ केदार जी की मशहूर कविता है) जैसे एकाएक सावन की रिम-झिम में मदमस्त हो गया हो! पुराने मित्र के साथ केदार जी की जो चुहलबाजियाँ भोजपुरी में शुरू हुईं, वे अगले दिन गिरिधर जी के वहाँ से जाने तक किसी भी वक्त थमी नहीं। धीरे-धीरे जमावड़ा बढ़ रहा था। ललित तथा अनुज भी आ गए थे। साहित्यकार अनिल त्रिपाठी तथा कवि मित्र सर्वेन्द्र विक्रम सिंह भी वहाँ आ जुटे। घर पर कोई रहता नहीं था सो खाना बाहर से ही आया।  बात-चीत करते-करते ही हम सबने खाना खाया। मदद के लिए मित्र अरुण भदौरिया तथा घरेलू सहायक श्याम सिंह व सत्यनारायण मौजूद ही थे। हम लोग भोजन आदि से निबटे ही थे कि दिल्ली से कविमित्र मिथिलेश श्रीवास्तव भी आ पहुँचे। रोटियाँ भले ही ठंडी पड़ चुकी थीं लेकिन मिथिलेश जी ने गर्मजोशी से उनका स्वागत किया। चूँकि कार्यक्रम का दूल्हा वे लोग मुझे ही मान रहे थे, सो ढाई बजे के करीब मुझे कार्यक्रम-स्थल की ओर रवाना कर दिया गया। केदार जी को साथ लाने के लिए शेष लोग वहाँ थे ही। कार्यक्रम की अध्यक्षता करने के लिए सुप्रसिद्ध व्यंग-लेखक व उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान के पूर्व अध्यक्ष श्री गोपाल चतुर्वेदी तथा उसमें भाषण देने के लिए आमंत्रित वरिष्ठ कवि श्री नरेश सक्सेना, कथाकार एवं तद्भवपत्रिका के संपादक श्री अखिलेश एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के निदेशक एवं लेखक श्री सुधाकर अदीब भी वहाँ समय से ही पहुँच गए। श्रोताओं के बीच ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों से पधारे तमाम साहित्य-प्रेमी इष्ट-मित्रों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश शासन के प्रमुख सचिव डॉ हरशरण दास व विशेष सचिव श्री विशाल चौहान जैसे भारतीय प्रशासनिक सेवा के मित्रों को भी पाकर मन प्रसन्न हो गया। इसी बीच केदार जी भी पूरी मित्र-मंडली के साथ वहाँ आ पहुँचे। अब सभागार कार्यक्रम के संचालक श्री आलोक शुक्ला जी के जिम्मे था।

कार्यक्रम के आयोजक कई बार अतिथियों को सांसत में डाल देते हैं। परम्पराओं के निर्वाह के चक्कर में कुछ ऐसा ही यहाँ भी हुआ। पहले दीप-प्रज्ज्वलन, फिर देवी सरस्वती की प्रतिमा का माल्यार्पण। रही-सही कसर अतिथियों के सम्मान में उनके माथे पर लाल टीका लगाकर पूरी कर दी गई। अब वामपंथी विचारधारा वाले अतिथियों को इस सबमें कोई रुचि तो थी नहीं। लेकिन मरता क्या न करता। भरी महफिल में कोई असहज स्थिति भी तो नहीं पैदा की जा सकती थी। संकोच से भरकर केदार जी, नरेश जी व अखिलेश आदि ने वे सभी औपचारिकताएँ निभाईं जो आयोजकों ने उनसे चाहीं। केदार जी का सम्मान करने के बाद शीघ्र ही कविता-संग्रह का लोकार्पण भी संपन्न हो गया। सभी के वापस सीटों पर बैठते ही मुझे लगा कि केदार जी माथे के टीके को लेकर कुछ असहज हो रहे थे। मैं उठकर उनके पास गया तो वे बोले कि यह एलर्जी पैदा कर देता है। मैं समझ गया। मैंने अपने रूमाल से उसे साफ कर दिया। अब टीका नहीं दिख रहा था और वे सहज हो चुके थे। मैंने सोचा कि उनकी त्वचा में तो टीके का द्रव्य प्रविष्ट हो ही चुका होगा। अब एलर्जी होगी तो देखा जाएगा। खैर, उन्हें एलर्जी जैसा कुछ नहीं हुआ तो राहत मिली। मैं उन अतिथियों की सहृदयता का कायल भी हुआ, जिन्होंने बिना कोई उफ किए अपनी अतिथीय मर्यादा का निर्वाह किया। मुझे यह आशंका भी हुई कि आयोजकों की परम्परा का निर्वाह करने की इस ललक के चलते कहीं उस कार्यक्रम के वामपंथी अतिथिगण मुझे वाकई में एक प्रतिक्रियावादी कवि न करार दे दें, क्योंकि इस शब्द के हिन्दी-आलोचना के क्षेत्र में प्रचलित अर्थ को न जानने की अज्ञानतावश मैंने अपने कविता-संग्रह की भूमिका में खुद ही इस बात की मुनादी कर दी थी कि मेरी अधिकांश रचनाएँ प्रतिक्रियावादी हैं। मैं सोचने लगा कि क्या समारोह के भाषणों में मेरे इस कथन के बारे में भी कोई बात उठेगी, क्योंकि इससे पहले व्यक्तिगत बातचीत में वामपंथी विचारधारा के कुछ आलोचक मित्र मेरे इस कथन पर टिप्पणी कर चुके थे।

            यह बात सभी को स्पष्ट पता थी कि आलोचना-शास्त्र के प्रचलित मुहावरों अथवा शब्दावली से अनभिज्ञ होने के कारण ही मैंने अपनी पुस्तक के प्राक्कथन में अपनी अधिकांश रचनाओं के प्रतिक्रियावादी होने की बात कही है। क्योंकि उस कथन के आगे मैंने वहीं पर यह भी कहा है कि मेरी कविताएँ प्रतिक्रियावादी इसलिए हैं कि क्योंकि उनमें आस-पास घटित होती घटनाओं के प्रति मेरे मन में उठने वाली प्रतिक्रियाएँ हैं। कविता-संग्रह के लोकार्पण तथा मेरे कविता-पाठ के बाद जब अतिथियों के बोलने का सिलसिला प्रारंभ हुआ तो अखिलेश एवं केदार जी ने इस बारे में जमकर चर्चा की। लेकिन मेरी आशंका के विपरीत उन्होंने मेरी अज्ञानता में भी आशा की एक नई किरण देखी। उन्होंने मेरी रचनाओं के प्रतिक्रियावादी होने की बात की नए तरह से विवेचना करते हुए, मुझे कटघरे में खड़ा करने के बजाय, मेरे उक्त कथन के कुछ नए अर्थ तलाशे। अखिलेश ने अपने भाषण में मेरी कविताओं के प्रतिक्रियावादी होने के बारे में कुछ इस प्रकार कहा, - उमेश चौहान ने एक जगह अपनी भूमिका में लिखा है कि उनकी कविताएँ प्रतिक्रियावादी हैं। कोई मार्क्सवादी आलोचक जब भी इन पंक्तियों को पढ़ेगा तो अगर वह इसे मार्क्सवाद के अपने मुहावरे में देखेगा, तो कहेगा कि चूँकि ये कविताएँ प्रतिक्रियावादी हैं, इसलिए ये गड़बड़ कविताएँ हैं। प्रतिक्रिया का अर्थ इन कविताओं में, जो मार्क्सवाद का प्रतिक्रियावाद है, उसके विरुद्ध है। प्रतिक्रिया का अर्थ यहाँ इस संग्रह में यह है कि जो हमारे समाज में विकृति है, जो हमारे समाज में गलत हो रहा है, उस पर एक हस्तक्षेप, उस पर एक प्रतिक्रिया। यहाँ प्रतिरोध है। ये प्रतिरोध करती हुई कविताएँ हैं। इनमें इस प्रतिरोध की रेंज भी आप देख सकते है। यह जो हमारी आधुनिकता है, इसमें ऐसा नहीं है कि रोजमर्रा की हर बात में प्रतिरोध की मुद्रा अपनाई जाती हो। यहाँ आधुनिक विचार हैं। खास तौर पर तीसरी दुनिया, उसमें भी भारत और फिर भारत के जो पिछड़े इलाके हैं, उनको आप देखिए तो जो हमारे लोकतंत्र के अपने अन्तर्विरोध हैं, वे इन कविताओं में हैं। दूसरी तरफ प्रकृति के लगातार दोहन से जो एक आधुनिकता का मॉडल तैयार किया जा रहा है, उसका प्रतिरोध इन कविताओं में बार-बार किया गया है। उमेश प्रगति के विरोधी नहीं हैं, क्योंकि गाँवशीर्षक कविता में उन्होंने बताया है कि एक पुल बन जाने से शहर वाले किस प्रकार से गाँव से जुड़ने लगे हैं। लेकिन यह जो अंधाधुंध विकास है, जिसकी मार किसानों, आदिवासियों और ऐसे तमाम लोगों पर पड़ रही है, इसको उन्होंने प्रश्नांकित किया है। वे इसकी व्याख्या करते हुए कैसे राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय यथार्थ तक पहुँच जाते हैं, आप इसको सुनामी से जुड़ी उनकी कविता महानाश के कगार परमें देख सकते हैं। कैसे साम्राज्यवादी ताकतें तीसरी दुनिया के विकास पर असर डालती हैं! सुनामी में बचा हुआ एक बच्चा कैसे देखता है यह सब! यह एक बड़ी भावुक-सी कविता भी हो सकती थी। पूरी गुंजाइश थी इस बात की, क्योंकि सुनामी में तमाम घर तबाह हो गए, तमाम लोग मर गए, पूरी सभ्यता नष्ट हो गई और बस एक बच्चा बचा हुआ है तीन साल का। लेकिन यहाँ तीन साल का बच्चा जो बयान कर रहा है, उसमें हमारी जो आधुनिक सभ्यता है, उस पर साम्राज्यवाद की पकड़ में कैसे एक शिकंजा कसता जा रहा है, इसकी अभिव्यक्ति देखने लायक है।

केदार जी ने समारोह में बतौर मुख्य अतिथि बोलते हुए इस बारे में जारी संवाद को आगे बढ़ाया, - अखिलेश जब उमेश द्वारा अपनी कविताओं को प्रतिक्रियावादी बताए जाने वाली बात का उल्लेख कर रहे थे तो मुझे ध्यान आ रहा था कि इस प्रकार के कथन के लिए भी एक ऐसा ही आदमी चाहिए जो कहे कि हमें डर नहीं लगता। अपने आपको प्रतिक्रियावादी कहना बड़े साहस का काम है। ऐसे समय में, जब प्रतिक्रियावाद एक जार्गन बन चुका है, जिसको रिएक्शनरी कहते हैं, जो गतिशीलता या प्रगतिशीलता का विरोधी हो, तब जिस अर्थ में उमेश ने उसका प्रयोग किया है, वह इस प्रचलित शब्द के अर्थ को बदलते हुए किया है और वह एक तरह से ऐसा है कि उनकी हर कविता प्रतिक्रियावादी होती है। किसी शब्द की कोई नई परिभाषा एक तरह के अन्तर्विरोध से ही पैदा होती है। सही परिभाषा वही होती है जो किसी तरह से चीज को आपके सामने प्रकट कर सके, प्रभाषित कर सके, आप तक पहुँचा सके या पूरी तरह समेट सके अपने आप में। जो वास्तविकता न प्रकट करे वह परिभाषा नहीं होती। वह या तो एक अतिशयोक्ति होगी या मात्र एक कथन भर रह जाएगी। छायावाद शब्द के प्रणेता रायगढ़ निवासी श्री मुकुटधरपांडे द्वारा लिखी गई कविता की एक परिभाषा मैने पचास-साठ साल पहले एक पत्रिका में पढ़ी थी, कविता आसन्न जीवन की पुकार का जवाब है।यह पुरानी परिभाषा है। आज भी मुझे याद रहती है। कविता के माध्यम से मैं आज भी आसन्न जीवन की पुकार का जवाब ही तो दे रहा हूँ। उमेश ने अपनी कविताओं से इस अर्थ में प्रतिक्रिया शब्द को एक नया अर्थ दिया है और जो लोग इस बारे में सोचेंगे, वे जरूर विचार करेंगे इस पर। वे एक सरकारी कर्मचारी हैं, इस कारण से मैं उनकी कविताओं को आलोचनात्मक कविताएँ कहूँगा। इनमें न सिर्फ राजनीति है, बल्कि समाज है, परिवेश है, बढ़ती हुई समस्याएँ हैं, सब है। इन सब विषयों पर विचार व्यक्त करने के लिए कवि, जो एक सरकारी विभाग में काम करता है, बड़े पद पर आसीन है, वह साहसपूर्वक मुझे डर नहीं लगताकी श्रेणी में आते हुए कुछ कहना चाहता है। इसके लिए बड़ा जिगरा चाहिए। उमेश इसका परिचय देते हैं। उन्होंने अपनी भूमिका में इसकी व्याख्या भी की है, एक सरकारी कर्मचारी होने के कारण, अभिव्यक्ति के मामले में बराबर आचरण नियमावली से बँधे रहना पड़ता है। फिर भी मैं अपने तरीके से व्यवस्था की हर बुराई की तीखी आलोचना करने से कभी नहीं चूकता। हाँ, कोई राजनीतिक पक्ष कभी नहीं लेता। किसी वाद से जुड़ कर नहीं चलता। जो मनुष्य-संगत है उसी के प्रति मेरा लगाव रहता है। जो कुछ अमानवीय है, उसे जड़ से उखाड़ फेंकने का ही मन करता है। जब भी किसी बात के प्रति मन उद्वेलित होता है, तो सरकारी कर्मचारी होने के नाते सड़क पर निकल कर जिन्दाबाद-मुर्दाबाद तो नहीं कर सकता, बस अपने मन के उद्वेग को शांत करने के लिए अपनी प्रतिक्रिया को शब्दों में अभिव्यक्त कर देता हूँ।जो कुछ भी ये कविताएँ कहती है, वह बड़े शान से कहती हैं और कई बार गहराई में जाकर कहती हैं। इन कविताओं के प्रतिक्रियावादी होने को उनके इसी वक्तव्य के आलोक में देखा जाना चाहिए।

अखिलेश एक लम्बे अरसे से मेरी छंद-मुक्त कविताओं को सराहते रहे हैं। अस्तु उन्होंने अपने भाषण में जहाँ एक तरफ मेरी अवधी व छंद-बद्ध कविताओं की तारी्फ़ की वहीं पर वे मेरी छंदमुक्त कविताओं को तुलनात्मक रूप से बेहतर बताने से भी नहीं चूके, - तीन तरह की कविताएँ इस संग्रह में हैं। एक तरफ तो जैसा मैंने कहा, जनतंत्र का अभिमन्युजैसी, सामाजिक विसंगतियों पर आक्रमण करने वाली या उस पर दखल देने वाली कविताएँ हैं। दूसरी तरफ कुछ प्रेम की कविताएँ हैं। तीसरी तरफ अनुभव-जन्य छंद में रची गई कविताएँ हैं। वे बचपन से छंद में कविताएँ लिखते रहे हैं। चूँकि वे कविता के परिदृश्य के दबाव या तनाव से मुक्त कवि रहे हैं, अतः उन्होंने छंद को केवल किसी फैशन में नहीं अपनाया होगा। लेकिन जो उन्होंने जो कहा है, जो हस्तक्षेप किया है, जो प्रतिरोध दर्ज किया है, वह शायद छंदों में उस तरह संभव ही नहीं था। सुनामी के प्रकरण में जिस तरह से आज एक नवसाम्राज्यवाद तीसरी दुनिया के देशों में प्रकृति का दोहन कर रहा है और उसके कारण कैसे हमारी सभ्यता विनाश के कगार पर पहुँच गई है, इसका चित्रण है। लोग समझ रहे हैं कि सभ्यता को तरक्की के छोर पर पहुँचा रहे हैं, जबकि वे संभवतः उसे विनाश के कगार पर पहुँचा रहे हैं। इसमें सुनामी में एक तीन साल का बच्चा बचा रह गया है। वहाँ से लेकर, जिसे एक पूरी साम्राज्यवादी साजिश कह सकते हैं कि कैसे प्रगति के नाम पर पर्यावरण तबाह किया जा रहा है, कैसे कचरा फेंका जा रहा है, वह सारी चीजें हैं। यह छंद की संरचना में संभव ही नहीं था। मुझे लगता है, छंद से लेकर यहाँ तक का जो उमेश का आगमन है, वह स्वाभाविक है।

चूँकि अखिलेश ने छंद-मुक्त कविताओं की प्रशंसा करके मेरी कविताओं के विमर्श को एक मोड़ दे दिया था अतः अपने भाषण में नरेश सक्सेना जी इस पर टिप्पणी करने से कैसे चूकते। उन्होंने छंद-मुक्त कविताओं की आलोचना करते हुए कविता के शिल्प तथा शैली पर विधिवत टिप्पणी की, - अखिलेश ने ऐसा कहा है कि छंद में सब कुछ नहीं कहा जा सकता। देखा जाय तो सभी ने ऐसी ही एक धारणा बना ली और फिर लिखना शुरू कर दिया एक पंक्ति बड़ी फिर एक पंक्ति छोटी, जिससे कविता का सिम्त गायब हो गया। हमारे आलोचकों ने भी एक काम किया, इतना जोर दिया कथ्य पर कि शैली का कोई मतलब ही नहीं रह गया। शैली का अर्थ रह गया बस छोटी-बड़ी लाइनें। कथ्य बहुत बड़ी चीज़ होती है लेकिन सिर्फ कथ्य कविता नहीं होती। विज्ञान में तो सिवा कथ्य के कुछ होता ही नहीं। वहाँ शैली-वैली नहीं चलती कि क्या खूब निबन्ध लिखा है आपने! क्या शुरुआत है! अरे, क्या बताया है उसमें! वहाँ सिर्फ यही देखा जाता है कि कोई नई बात बताई है आपने या नहीं। अगर एक बार कोई बात बता दी गई तो फिर दूसरा वैज्ञानिक यह नहीं कहेगा कि अब मैं उसी बात को एक नई शैली में बताऊँगा। साहित्य में यह नहीं होता कि अगर जैनेन्द्र जी ने अगर किसी बात को एक बार कह दिया है तो अब आप उसे मत बताइए, कृपा करके कोई नई बात हो तभी बताइए। बताई गई बात को भी एक नए तरीके से बताने का काम सिर्फ कला करती है। वह वही बात नई-नई शैली में कहती रहती है जो पहले कही जा चुकी होती है।आगे नरेश जी पूरी तरह छंद की प्राण-प्रतिष्ठा पर उतर आए, - जनतंत्र का अभिमन्युमें बहुत सारी छंद-मुक्त कविताएँ हैं, बहुत सारी पंक्तियाँ हैं, बड़ा विस्तार है, जो ध्यान आकर्षित करता है। पर्यावरण की इतनी सारी कविताएँ हैं। ऐसी कविताएँ तो बहुत कम लिखी जाती हैं, जैसी उमेश ने लिखी हैं। तो वह अच्छा हुआ कि वे छंद छोड़ गए भाई! लेकिन किसने कहा कि हमने छंद छोड़ दिया? हम भी तो लिखते थे छंद में! लेकिन छंद को छोड़ोगे तो तब जब पहले उसे ग्रहण करोगे! खाली हाथ क्या छोड़ोगे! पहले उसे हाथ में तो लो! बिना हाथ में लिए ही छोड़ दिया! तो छोड़ा नहीं भैया, तुमसे छूट गया! तुमको तो पता ही नहीं चला! हमारे एक आलोचक हैं जो बड़े-बड़े कवियों से कहते हैं कि एक अच्छा दोहा तो लिखकर दिखा दो, बाकी कविताएँ तो समझ में नहीं आतीं कि वे कविताएँ हैं। यह भी कोई मुक्ति है! अरे मुक्ति तो तभी होगी जब बंधन होगा! बिना बंधन के ही मुक्त हो गए! यह कैसी मुक्ति हो गई है! यह झूठी मुक्ति है।

            नरेश जी ने कविता की शैली पर बात करते-करते कहन की रीति पर भी उतर आए और प्रेम-कविताओं की उद्दामता को उदाहरण बनाकर उन्होंने अद्भुत रूप से मीराँबाई और गालिब की तुलना कर डाली, - गालिब ने प्रेम के बारे में कितना कहा है। लेकिन मीराँबाई ने उन्हीं बातों को अपने ढंग से कहा था। अपने ढंग से कहते समय क्या कहा था उन्होंने, जल-जल भईं भस्म की ढेरी, अपने अंग लगा जा जोगी।अंग लगने की इच्छा है। तड़प व बेचैनी ऐसी कि जा नहीं रही है। प्रियतम जोगी है। जोगी तो जोगी ही ठहरा, वह तो अंग लगाएगा नहीं। उसकी तो आसक्ति ही समाप्त हो गई है न। लेकिन वह भस्म तो लगाता है न। इसीलिए वे जलकर भस्म हो गई हैं। वे जली लकड़ियों की तरह विरह में राख हो गई हैं और कह रही हैं कि जोगी, यह राख ही लगा ले अपने तन में। तर्क की संगति ने इसको और बड़ा बना दिया। वे कहती हैं, हम तो भस्म हो गए, अब तो लगा लो!यह बात मीराँ ने जिस तरह से कही, गालिब वैसे कह ही नहीं सकते थे। उनके लिए यह असंभव था। ऐसे मीराँ ही कह सकती थीं। योगी ही भस्म लगा सकता था और वे ही उसके लिए विरह में भस्म हो सकती थीं। ऐसी बात कविता में पैदा होने से ही बड़ी बात बनती है।

            केदार जी के छंद-प्रेम के बारे में सभी जानते हैं। वे आधुनिक हिन्दी के शीर्षस्थ कवि हैं और उन्होंने तमाम गीत भी लिखे हैं। गीत और गीतकार उन्हें आज भी प्रिय हैं। वे अन्य बड़े कवियों तथा आलोचकों की तरह छंदमय कविता को तथा गीतकारों को खारिज नहीं करते। गिरिधर करुण जी से उनकी दोस्ती का मर्म भी यही है। वे गिरिद्गर जी के देवरिया से पहुँचने के पहले ही मुझसे कई बार उनके गीतों की प्रशंसा कर चुके थे। हिन्दी के जाने-माने गीतकार तथा लखनऊ के हमारे पारिवारिक मित्र डॉ.सुरेश केदार जी से मिलने मेरे घर आए तो वे उनसे बड़े प्रेम से मिले तथा उनके तीन गीत सुने बिना उन्हें छोड़ा नहीं। डॉ.सुरेश ने उन्हें अपने सर्वाधिक लोकप्रिय गीत सैकड़ों सुइयाँ चुभाता है समय, सोने के दिन, चाँदी के दिनतथा इस नगर हैं, उस नगर हैंसुनाए। लखनऊ प्रवास के दौरान ही नहीं, दिल्ली लौटने के बाद भी केदार जी मुझसे डॉ सुरेश के गीतों का जिक्र करना नहीं भूले। तो जब ऐसे छंद-प्रेमी केदार जी को वहाँ लोकार्पण-समारोह में बोलना था तब वे मेरी छंदकारी पर न बोलते यह असंभव था। वे गंभीरता से बोले, - उमेश ने छंद में भी बहुत अच्छी कविताएँ लिखी हैं। छंद का विद्यार्थी मैं भी रहा हूँ और अभी भी छंद का मोह या आकर्षण या उसकी ताकत मुझे आकृष्ट करती है। छंद में बड़ी से बड़ी बातें कही गई हैं। जिसमें तुलसीदास या वाल्मीकि लिख सकते हैं और बड़ी से बड़ी बात कह सकते हैं, उस छंद को एकदम नकार देना वैसे ही है, जैसे कि आदमी एक पैर पर चलने की कोशिश करे। मेरा मानना है कि कविता को छंद और बेछंद दोनों का इस्तेमाल करना चाहिए। कहीं न कहीं उमेश चौहान भी इसके कायल लगते हैं। वे छंद का भी इस्तेमाल करते हैं और छंदहीनता का भी उपयोग करते हैं। वे दोनों में ही अपनी शक्तियों का परिचय देते हैं। जब वे आल्हा पढ़ रहे थे तो उसमें जो ताकत दिखाई पड़ रही थी, वह जिस तरह से संप्रेषित हो रहा था, वह अद्भुत था। यह सोचना पड़ता है कि आल्हा और हिन्दी का क्या संबन्ध है। बहुत कम ही ध्यान जाता है ऐसी बातों पर हमारा। हमारी खड़ी बोली का जो सबसे प्रसिद्ध काव्य है कामायिनी, उसका पहला छंद, हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाँहआल्हा छंद ही है। यह आल्हा छंद कितना लोकप्रिय है और कितनी ज्यादा गहराई तक पैठा हुआ है, इस पर हम ज्यादा गौर भी नहीं करते। झांसी की रानीको छोड़ दीजिए, वह तो है ही, कभी निराला की प्रसिद्ध कविता यमुनाकी तरफ ध्यान दीजिए, वह पूरी कविता आल्हा छंद में है। इसमें वे यमुना के तट का वर्णन करते हैं। आल्हा छंद में हिन्दी में अनेक कवियों ने लगातार कविताएँ लिखी हैं। हिन्दी का यह अपना मौलिक छंद बहुत ही प्यारा छंद है। इस छंद को पुनर्जीवित किया है उमेश चौहान ने। यह उनका अवदान है, जिसको हिन्दी याद रखेगी।  दिलचस्प बात यह है कि आल्हा अवधी और खड़ी बोली दोनों में लिखा है उन्होंने। खड़ी बोली को आल्हा के छंद में ढालने की चेष्टा की है उन्होंने। मेरे ख्याल में यह बड़ी गौरतलब बात है जिस पर ध्यान दिया जाएगा और आगे भी चर्चा होगी। जब दिल्ली की गोष्ठी में पहली बार उमेश ने अपना आल्हा पढ़ा था तो वह एक ऐसा दृश्य था जो दिल्ली में इससे पहले देखा नहीं गया था। स्तब्ध रह गए थे सारे श्रोता।

जब छंद पर इतनी बातें वहाँ हो रही थीं तो मेरी अवधी कविताओं की चर्चा भी होनी ही थी। बात की शुरुआत तो अखिलेश ने अपने भाषण में यह कहकर ही कर दी थी, - उमेश चौहान की जो अवधी की कविताएँ हैं, ऐसा नहीं है कि वे बड़ी गीतात्मक हों या उसमें बड़ी निजी बातें कही गई हों। उनमें भी हमारे वक़्त जो एक तनाव है, उसे बाकायदे गुथ्थमगुथ्था किया गया है, उससे बाकायदा मुठभेड़ की गई है। लेकिन जहाँ उमेश की छंद-मुक्त कविताओं में एक सीधी चोट है, एक आर-पार है, एक आमना-सामना है, वहीं उनकी अवधी की कविताओं में एक दिलचस्प व्यंग्यात्मकता है।जब बारी नरेश सक्सेना जी की आई तो उन्होंने मेरी अवधी कविता जमीन हमरी लै लेउकी आत्मा को टटोलते हुए कहा, - इस कविता में ऐसा क्या है जो हमें बरबस अपनी ओर खींचता है, बुझे दिया कै बाती लेउ/ पुरिखन कै थाती लेउ/ फारि कै हमरी छाती लेउ।इसको तो खड़ी बोली में कहने में कोई दिक्कत नहीं होती, ले लो, पुरखों की थाती ले लो, सारी ठकुरसुहाती ले लो, फाड़ कर हमारी छाती ले लो।ये लो, हो गई कविता! इसमें क्या दिक्कत थी? लेकिन फारि कै हमरी छाती लेउका प्रभाव ही कुछ अलग है। क्योंकि जब हम खड़ी बोली बोलते हैं तो उसमें कितना झूठ बोलते हैं! अवधी में इतना झूठ नहीं बोला जाता। इसीलिए यह हमको प्रिय लगती है, आत्मीय लगती है। लगता है कि देखो, सच्ची बात कह रहा है! बात सीधे दिल में लगती है। कैसे कह रहा है, छाती चीरकर ले लो! क्यों छाती चीरकर ले लो? क्योंकि छाती में ही बसी है यह धरती, यह पुरखों की थाती। इसे छाती फाड़कर नहीं लोगे तो यह नहीं मिलेगी। तुम ले नहीं पाओगे इसे। यह जो बारीकी आती है, यह अनायास आ जाती है। यह चालाकी से नहीं आती। यह परम्परा में निहित है। फारि कै हमरी छाती लेउकहने पर दिल फट जाता है। पढ़ते-पढ़ते रोमांच हो जाता है, ले लोनहीं, लै लेउ, लै ही लेउ, फारि कै हमरी छाती लेउकहने पर।

केदार जी मूलतः भोजपुरी क्षेत्र के बलिया जिले से आते हैं और वे भोजपुरी बोली के अनन्य प्रेमी हैं। मैंने देख
ही रखा था कि जब से गिरिधर जी लखनऊ पहुँचे थे वे उनसे लगातार भोजपुरी में गपियाए जा रहे थे। पुरानी बातें, देवरिया-गोरखपुर की बातें, भोजपुरी लोकगीतों की बातें आदि-आदि। अपने भाषण में मेरी अवधी कविताओं पर टिप्पणी भी उन्होंने भोजपुरी से जोड़कर ही की, - भोजपुरी के एक बड़े लोक-कलाकार हुए हैं, भिखारी ठाकुर। एक बार नई कविता पर एक गोष्ठी हो रही थी बिहार में कहीं पर। संयोग से मैं भी उसमें था। बहुत से नामी-गरामी लोग बैठे हुए थे वहाँ। राजकमलचौधरी सहित सारे लोग थे। सामने श्रोताओं में एक वृद्धजन बैठे हुए थे। वे भिखारी ठाकुर थे। उस समय तक नाच-गाना छोड़ चुके थे वे। जीवन से लगभग विरक्त। पता नहीं कहाँ से उनको पता चला कि कुछ हो रहा है, सुनने आ गए थे। उनको पकड़कर मंच पर लाया गया। मैं कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहा था सो राजकमल से मैंने कहा कि भाई, माइक इनको दे दो! अब नई कविता नहीं चलेगी। जब भिखारी ठाकुर को माइक दे दिया गया तो उसके बात सारी नई कविताएँ धरी की धरी रह गईं। वे भोजपुरी में संवाद कर रहे थे, देखिए, मै तो ठहरा जाति का नाई, दाढ़ी-मूँछ बनाने वाला। लेकिन जब मैंने नाचना-गाना शुरू किया तो मेरे साथ एक घटना हुई और मैंने एक कविता लिखी।उन्होंने उस कविता की एक प्यार भरी छोटी-सी लाइन सुनाई। उस लाइन में शब्द आते थे छुरा छूटल। उनका मतलब था कि उन्होंने नाचना-गाना शुरू किया और उनका उनका छुरा छूट गया। कितनी संवेदना भरी थी उनकी छुरा छूट जाने का वर्णन करने वाली उन पंक्तियों में। कला और छुरा दोनों साथ में नहीं रह सकते। वे इस पर देर तक बोलते रहे थे भोजपुरी में और लोग मंत्र-मुग्ध से सुनते रहे थे। भिखारी ने उस दिन बिहार की गोष्ठी में जो प्रभाव डाला था, लगभग उसी तरह का प्रभाव था जब उमेश चौहान ने दिल्ली में आल्हा पढ़ा था। मुझे लगता है कि हमारा समय, खास तौर से आज का समय, भाषाओं के जागरण का समय है। वह बोलियाँ जो सोई हुई थीं, दबी हुई थीं, उनमें जाग्रति आई हुई है।श्रोताओं के बीच बैठे रहे ललित शर्मा ने मुझे बाद में बताया कि जब केदार जी ऐसा बोल रहे थे तो पीछे से कुछ श्रोताओं ने टिप्पणी की थी, पता नहीं ऐसे समारोहों में लोग क्या-क्या बोलने लगते हैं, यह हुई न कोई पते की बात।तो इन पते की बातों को अगले दिन अखबारों की सुर्खियाँ बनना ही था। उन्होंने छापा, - वर्तमान समय लोक भाषाओं के जागरण का है : केदारनाथ (राष्ट्रीय सहारा), छंद बिना कवि और कविता एक पैर का घोड़ा (अमर उजाला), आदि-आदि।

अपनी मातृ-बोली में रचना करने का जो आनन्द होता है, जो आत्म-तुष्टि होती है, उसका जिक्र भी केदार जी ने अपने भाषण में एक पुराना वाकया सुनाकर किया, - काफी पहले जब फैज़ अहमद फैज़ अंतिम बार दिल्ली आए थे तो उनको मैं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में ले गया था। रास्ते में बातचीत के सिलसिले में उन्होंने कहा,“मेरीगजलों व नज़्मों के बारे में चारों तरफ बातें हो रही हैं, लेकिन देखो, इस शब्द को जो छिपा है मन में! एक कसक हैमेरे दिल में, और यह कसक यह है कि मैंने उर्दू में तो इतना लिखा है, लोग तारीफ भी करते हैं, लेकिन मेरी जो ठेठ पश्चिमी पंजाबी है, वह पंजाबी जो मेरी माँ बोलती है, अब मैं उसमें कुछ लिखना चाहता हूँ।” ‘वह बोली जो मेरी माँ बोलती थी’ कहने में बड़ी कसक थी। यह प्रत्यावर्तन की, लौटकर अपनी भाषा के मूल में जाने की, जड़ों में जाने की जो कसक होती है, वह बड़ी अजीब होती है। मैंने कई जगह कलाकारों को कुछ विदेशी लेखकों के बारे में ऐसा ही कहते हुए सुना है। अफ्रीका के कई ऐसे बड़े लेखक हैं, जो अंग्रेज़ी में लिखने के साथ-साथ, अपनी बोली, जिसकी अभी तक ठीक से लिपि भी नहीं बनी है, में भी लिखते हैं। नागार्जुन और राजकमल दोनों इसी प्रकार के द्विभाषी कवि थे और खड़ी बोली तथा अपनी मातृ बोली दोनों में लगातार लिखते थे। हालाँकि हिन्दी में पिछले बीस-पचीस वर्षों में पहली बार इस प्रवृत्ति को सक्षम मन से साधा है उमेश चौहान ने और उनके इस पक्ष पर लोगों द्वारा ध्यान दिया जाना चाहिए।”

            केदार जी ने लखनऊ पहुँचने के पहले ही मुझसे कहा था कि इस संग्रह में एक बहुत ही अलग तरह की कविता है - मच्छरों के बीच, उस पर वे जरूर बोलेंगे। मैं सोचता ही रह गया कि उस पर वे क्या बोलेंगे, क्योंकि उसे तो एक हल्की-फुल्की कविता मानकर पहले तो मैं इस संग्रह में ही नहीं रखना चाहता था। लेकिन जब एक दिन पटना की एक पत्रिका में भेजने के लिए दूरदर्शन के डॉ अमरनाथ अमरने मेरी कुछ कविताओं को उलट-पलट कर इस कविता को छाँटा तो मुझे लगा कि हो सकता है दूसरों की नज़र में इस कविता में कोई विशेष बात हो और मैंने उसे संग्रह में रख लिया था। खैर, उस कविता पर बोलते-बोलते केदार जी ने अपने भाषण में कुछ बड़े ही रोचक प्रसंग जोड़े, - “उमेश की एक कविता है, ‘मच्छरों के बीच’। क्या मच्छर पर भी कोई कविता हो सकती है? मच्छर भी कोई विषय हो सकता है? मुझे यह विषय अपने आप में बहुत दिलचस्प लगा। इसे पढ़कर मुझे एक वाकया याद आ गया। शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय बंगाली भाषा के महान कथाकार थे। एक दिन उनके पास एक डाकिया आया। उसने कहा, “इस पते पर एक चिट्ठी आई है श्री मच्छर के नाम से। पता नहीं किसकी है!” शरदचन्द्र जी ने चिट्ठी देखी तो बोले, “अरे, यह तो मेरी चिट्ठी है।” डाकिया बोला, “आप शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय हैं, आप मच्छर कैसे हो सकते हैं?” वे कहने लगे, “देखो भैया, मज़ाक किया है। उपाधि सहित मेरा पहला नाम लिखते हैं, ‘श्रीमत शरद’। इसे एक में मिला देने पर बगया ‘श्रीमच्छरद’।” यह तो मज़ाक की बात थी। मच्छर पर मेरी भी दो कविताएँ हैं। 

“जब मैं उमेश की ‘मच्छरों के बीच’ कविता पढ़ रहा था, तो मुझे एक और प्रसंग याद आया। मच्छरों पर एक कविता दुनिया के मशहूर नाटककार और महाकवि ब्रेख्त ने भी लिखी है। यहाँ मच्छर एक समस्या थे। हुआ यह कि एक बार स्टेम्पोल के मजदूरों ने लेनिन डे मनाने का फैसला किया। आयोजन के लिए एक बैठक हुई, जिसमें विचार-विमर्श किया गया कि लेनिन की जयंती पारंपरिक रूप से न मनाकर कुछ नए तरीके से मनाई जाय, कुछ विशिष्ट किया जाय। कई सारे प्रस्ताव आए – लेनिन की एक बहुत अच्छी प्रतिमा लगाई जाय, फलां धातु की हो, ऐसी हो, वैसी हो, अच्छी-अच्छी कविताएँ लिखी जाएँ, आदि-आदि। तभी एक मजदूर ने उठकर प्रस्ताव रखा कि लेनिन मजदूरों, दुःखी व दलित लोगों के जननायक थे, अतः अच्छा यही होगा कि उस दिन लोगों के भले का कुछ काम किया जाय। इलाके में मच्छर बहुत हो गए हैं, इसलिए मच्छरों को मारने की दवा का छिड़काव किया जाय ताकि मजदूरों को उनसे मुक्ति मिले और उन्हें मलेरिया न हो। अंत में लेनिन की प्रतिमा वगैरह लगाने के विचारों को छोड़कर मच्छरों को मारने की दवा मँगाई गई और पूरे इलाके में उसका छिड़काव किया गया। यह ब्रेख्त की एक विशिष्ट कविता थी। उसमें तो मच्छरों को मारने की बात थी। लेकिन उमेश क्या करते हैं? वह ब्रेख्त का समय था। आज पर्यावरण के साथ दोस्ती का समय है। उमेश इसमें किस तरह की सलाह देते हैं? वे स्टेशन की बेंच पर बैठकर कविता लिख रहे हैं। उनको मच्छर काट रहे हैं। ऐसे में वे जो सलाह देते हैं वह दिलचस्प है, - ऐसे में लिखी जाने वाली कविता/ या तो मच्छरों के अनियन्त्रित रक्त-शोषण से जुड़ी हुई होगी/ या फिर इस बात से कि इन मच्छरों से मुक्ति कैसे पाई जाय/ या फिर इस यथार्थ से जुड़ी होगी कि/ मच्छर अगर हैं तो नोचेंगे ही/ फिर क्यों न इन मच्छरों की प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर/ एक ही समय पर/समान रुचि से/ अपनी देह को नोचवाते हुए तथा दूसरों की देह के रक्त को चूसते हुए/ जीने का कोई तरीका सीखा जाय?मुझे यहाँ एक जबर्दस्त ह्यूमर भी दिखता है। इस तरह का खास गहरा व्यंग्य उनकी दूसरी अनेक कविताओं में भी है। ये बहुत प्रयासपूर्वक लिखी गई कविताएँ नहीं हैं।”

            कविमित्र मिथिलेश श्रीवास्तव ने तो दिल्ली में कविता को लोकप्रिय बनाने की इन दिनों एक मुहिम ही छेड़ रखी है। कैम्पस में कविता, डायलॉग, घर-घर कविता, लिखावट का कविता-पाठआदि अनेक कार्यक्रमों के माध्यम वे तमाम अपरिचित एवं नवोदित चेहरों को सामने ला रहे हैं। उनका लखनऊ के कार्यक्रम में आना लखनवी साहित्य-प्रेमियों को बहुत ही अच्छा लगा। उन्होंने अपने भाषण में मेरी कविताओं के तमाम अंश उद्धृत करते हुए कुछ गंभीर टिप्पणियाँ की, - अपनी शब्दशीर्षक कविता में उमेश चौहान कहते हैं, - शब्दों का क्या/ शब्द तो पत्थरों की तरह बेजान हो चले हैं आजकल/ उनका तो इस्तेमाल किया जा रहा है बस/ गाहे-बगाहे किसी न किसी का माथा फोड़ने के लिए। यही सच है हमारे समय का। हम एक कठोर, असहिष्णु, हृदयहीन दुनिया के निर्माण की ओर बढ़ रहे हैं और शब्द सरीखे मानवीय भावों के वाहक उपादान को पत्थर में तब्दील कर रहे हैं तथा उन्हें एक-दूसरे पर फेंक रहे हैं। शब्द की घटती हुई विश्वसनीयता को पुनर्स्थापित करने की चाहत उमेश चौहान को हमारे सामने एक सच्चे व संघर्षशील कवि-व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करती है। उमेश चौहान में सरोकारों की साफ, शीतल, दर्शनीय नदी बहती है। वे इन्सान के भीतर अनेक संकल्पों की इच्छा जगाते हैं और उससे अनछुई ऊँचाइयों तक पहूँचने का आह्वान करते हैं। उसे निरन्तर संघर्ष करते रहने की प्रेरणा देते हैं। उनकी मौन शीर्षक कविता पढ़ते हुए मुझे रघुबीर सहाय के हँसो, हँसो, जल्दी हँसोकी कविताएँ याद आने लगती हैं। बचे रहना है तो शर्म में शामिल हो जाओजैसा व्यंग्य उनकी इन कविताओं में मिलता है। इस संग्रह में इस तरह की तमाम कविताएँ हैं जो हमारे सामने अनसाइनिंग इंडिया की तस्वीरें पेश करती हैं, उसकी हकीकतें बयान करती हैं और आपसे इस बात का आह्वान भी करती हैं कि आप इन सच्चाइयों से रूबरू हों तथा एक आंदोलन, जो परिवर्तन की आकांक्षा से भरा हो, उसमें शामिल हों।

            अखिलेश ने भी अपने भाषण में मेरी कविताओं के बारे में कुछ अन्य महत्वपूर्ण विचार रखे, - जब हम लोग किसी भी पुस्तक का पाठ करते हैं तो जो सबसे पहला विचार जो मन में आता है, वह होता है कि किस जगह से वह रचनाकार दुनिया को देख रहा है या दुनिया को रचने की कोशिश कर रहा है। समग्र पर जो दृष्टि है, उस पर उसकी क्या जगह बनती है। उमेश चौहान की कविताओं को पढ़ने में मुझे जो बात लगी वह यह है कि ये कविताएँ किसी पुरस्कार के लिए या तमगे के लिए जगह बनाने के दबाव से मुक्त हैं। समकालीन कविता के बारे में एक प्रश्न अक्सर किया जाता है कि उसमें बार-बार एक तरह की एकरूपता देखी जाती है। लगभग ऐसी स्थिति कि अगर नाम हटा दें तो लगेगा कि केदार जी बैठे हैं। क्योंकि उनकी परम्परा में बहुत सारी कविताएँ लिखी गई हैं। जब से केदार जी का जमीन पक रही हैसंग्रह आया, उसके बाद से लेकर अद्यतन जो दृश्य है, उसमें बहुत सारी कविताओं में जो अनुगूँजें दिखाई पड़ती हैं, उनसे ऐसा लगता है कि जैसे कवियों का भी अपना एक व्याकरण होता है। यानी वह जो परम्परा से प्राप्त एक संरचना है कविता की, उसे आत्मसात कर लिया गया है। परम्परा में एक सुविधा होती है। उसका एक दबाव भी होता है। उमेश की कविताओं को पढ़ते समय मुझे सबसे पहले यही बात लगती है कि इनकी कविताओं पर कविता होने का कोई दबाव नहीं है। ये किसी परम्परा में शामिल होने या किसी से संस्तुति पाने या किसी समुदाय में अपनी पैठ बनाने के आतंक से मुक्त कविताएँ हैं। और क्यों मुक्त हैं, इसकी तलाश करते हुए मैंने देखा है कि ये कविताएँ कविता होने, एक कला होने से पहले सामाजिक हस्तक्षेप की तरफदार हैं।

            “उमेश चौहान की कविताओं में जो पहली अभिरुचि या जो बुनियादी सरोकार दिखाई पड़ता है, वह यह है कि हमारे समय का कथित या तथाकथित, जो भी कहिये, यह जो जनतंत्र है, इसकी दुरभिसंधि में, इसके चक्रव्यूह में या इसके शिकंजे में जो एक साधारण आदमी की चीखें हैं या उसकी परख है, उसको आवाज़ देना है। यही उनकी कविताओं का संकल्प है। यह इतना उदात्त संकल्प है कि बहुत बार उनकी कविताएँमुख्यधारा में प्रवाह नहीं करती। सोचना पड़ता है कि आखिर क्या इससे कहीं कोई जोखिम तो पैदा नहीं हो रहा? कविता का अपना बना-बनाया एक रटन-सा या एक संरूप-सा जो परिदृश्य है, उससे अलग तो नहीं हो रहीं ये कविताएँ? मैं कहता हूँ कि यह अलग होना ही सकारात्मक है, महत्वपूर्ण है। चूँकि ये कविताएँ एक अपने अलग तरह के मुहावरे में, अपने अलग व्याकरण में, अपने अलग ढंग से लिखी जा रही हैं, अतः मैं कहूँगा कि ये कविताएँ स्वतःस्फूर्तित हैं और अपने भीतर की बेचैनी से रची गई हैं। मुझे लगता है कि इन कविताओं की संरचना के स्रोत समकालीन कविता के दिशांतरों में नहीं हैं। तो फिर कहाँ हैं? मुझे लगता है कि इन्हें इन कविताओं के भीतर ही खोजा जाना चाहिए। वे एक प्रशासनिक अधिकारी हैं। सत्ता में हैं, लेकिन उसके केन्द्र में नहीं हैं। उनमें सत्ता का अहंकार नहीं है। बल्कि वे उसके खिलाफ हैं। न केवल उनकी कविताएँ सत्य का प्रतिख्यान करती हैं, बल्कि उनके खुद के मिज़ाज में भी सत्य का प्रतिख्यान है। उनमें सामाजिक विसंगतियों, समस्याओं व घटित हो रही घटनाओं के पूर्वावलोकन एवं पुनरावलोकन की ऐसी अचूक पकड़ है कि मैंने देखा है कि बहुत सारे पत्रकार भी उनसे कई बातों की व्याख्या के बारे में पूछते रहते हैं, बात करते रहते हैं। वे एक तरफ तो राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर अपनी अचूक पकड़ रखते हैं, वहीं दूसरी तरफ अपने गाँव-देश से भी गहराई से जुड़े रहते हैं। यह जो विस्तार है,उसमें एक तरफ सत्ता-केन्द्र की असलियत, जिसे जनतंत्र कहते हैं, उसकी विसंगतियों की विरूपता और कुरूपता को जानना तथा दूसरी तरफ अपनी मिट्टी से जुड़े रहना शामिल है। इसमें एक तरफ उच्चता है तथा उच्च वर्ग का कविता-सम्पन्न समुदाय है, दूसरी तरफ एक मामूली आदमी का अपना समुदाय है। इन दोनों के यथार्थ का मिलाप आप इस किताब में देख सकते हैं। एक बात मैं पुनः कहना चाहूँगा कि एक तरफ ये कविताएँ संरचना या शिल्प के आतंक से मुक्त कविताएँ हैं वहीं दूसरी तरफ ये कविताएँ अपने समय की जो बड़ी समस्याएँ हैं उनसे सीधे जुड़ी हुई हैं। जैसा कि इन कविताओं में कई जगह आया है, उमेश विचारधारा के दबाव को स्वीकार नहीं करते। मेरे ख्याल से ये कविताएँ किसी विचारधारा में शामिल भी नहीं होती।

नरेश सक्सेना जी ने मेरे संग्रह में शामिल कविता मैं चोर नहींको पिछले वर्ष अपने द्वारा संपादित रचना समयके कविता-विशेषांक में स्थान दिया था। उन्होंने लोकार्पण-समारोह के अपने भाषण में भी इस कविता पर विशेष रूप से टिप्पणी की और उसी में अपनी इधर हाल की एक काफी चर्चित कविता आधा चाँद माँगता है पूरी रातके प्राण-तत्व भी जोड़ दिए, - बात करने के लिए उमेश चौहान के संग्रह में बहुत सी कविताएँ हैं। मैं चोर नहींकविता में लोग अपनी माँ की अरथी सजा रहे हैं। चिता में लकड़ियाँ लगा रहे हैं। तभी एक बुढ़िया चुप-चाप बीच-बीच में से एक-एक लकड़ी उठाकर ले जाती दिखती है। लगता है कि वह उन्हें चुरा रही है और कहीं ले जाकर बेच देगी। वे उसे पकड़ लेते हैं। वह उन्हें खींचकर ले जाती है और एक गठरी खोलकर दिखाती है। उसमें एक छोटी सी बच्ची की लाश है। इस जगह पर आ करके यह कविता तो हिला देती है। उसके पास बच्ची की लाश जलाने के लिए लकड़ियाँ भी नहीं हैं। और वह बच्ची मरी कैसे? क्योंकि इलाज़ नहीं हो पाया। और वह बीमार क्यों हुई? क्योंकि दिमागी बुखार एक महामारी की तरह फैला हुआ है उसके गाँव में। भोजन भी नहीं था शायद उनके पास। आज आज़ादी के पैंसठ वर्ष बाद भी देश में पचास प्रतिशत से अधिक बच्चे कुपोषित हैं। क्या यही कुपोषित बच्चे इस देश का भविष्य हैं? शर्म नहीं आती हमें ऐसा कहते हुए ऐसा कहते या विज्ञापित करते हुए। ये कुपोषित बच्चे मानसिक रूप से विकलांग हो जाते हैं। इनमें से हर साल बीस लाख बच्चे बिना भोजन के मर जाते हैं। जो मरते नहीं, वे विकलांगता के साथ बड़े होते हैं। क्या इसका जश्न मनाया जा सकता है कि अगर बीस लाख मरते हैं तो बीस लाख बच भी तो जाते हैं? उमेश की इस कविता में या ऐसी ही अन्य कई कविताओं में आप इन चिन्ताओं को देख सकते हैं।अपनी आधा चाँद माँगता है पूरी रातशीर्षक कविता में नरेश सक्सेना जी ने आर्थिक एवं सामाजिक विषमता की शिकार एवं अभावग्रस्त आधी से ज्यादा दुनिया की दशा का दिल को छू लेने वाला वर्णन किया है, - आधी पृथ्वी की पूरी रात/ आधी पृथ्वी के हिस्से में आता है/ पूरा सूर्य/ आधे से अधिक/ बहुत अधिक मेरी दुनिया के करोड़ों-करोड़ लोग/ आधे वस्त्रों से ढाँकते हुए पूरा तन/ आधी चादर में फैलाते पूरे पाँव/ आधे भोजन से खींचते पूरी ताक़त/ आधी इच्छा से जीते पूरा जीवन/ आधे इलाज की देते पूरी फीस/ पूरी मृत्यु/ पाते आधी उम्र में।  विषमता की त्रासदी को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से सामने रखा है उन्होंने इस कविता में। वास्तव में आधी उम्र में ही पूरी मृत्यु पाते हुए आधे से ज्यादा सर्वहारा इनसानों से भरी यह धरती पूर्णस्य पूर्णमिदंगाते रहने के बावजूद भी कितनी अधूरी है।

केदार जी ने भी अपने भाषण की समाप्ति की ओर बढ़ते हुए मेरी कविताओं के बारे में समग्रता से अपना दृष्टिकोण कुछ इस प्रकार से दर्ज कराया, - “यह बहुत प्रयासपूर्वक लिखी गई कविताएँ नहीं हैं। ये स्वचालित एवं स्वतःस्फूर्त कविताएँ हैं। इनमें एक वाचिकता है। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि ये बोलती हुई कविताएँ हैं। बोलीं गईं पहले, लिखी गईं बाद में। यह उमेश की प्रतिक्रियाएँ हैं और इनके बारे में बहुत सी बातें कही जा सकती हैं।” कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे गोपाल चतुर्वेदी जी ने अंत में मुझे अपना संदेश देते हुए कहा, - मैं उमेश चौहान से आग्रह करूँगा कि वे एक बौद्धिक एवं जागरूक इन्सान होने के नाते इसी तरह से मानवीय सरोकारों की कविताएँ लिखते रहें। कोई इनको प्रतिक्रियात्मक कविताएँ माने तो मानता रहे। इन कविताओं में सिर्फ आम आदमी की आवाज़ है जो एक लम्बे समय से आज तक कुचली जाती रही है। केदार जी ने छंद की ताकत के बारे में कहा हैं। मुझे लगता है कि जनतंत्र का अभिमन्युकी कविताएँ अन्तर्विरोध की ताकत की कविताएँ हैं। इन कविताओं में एक ऐसी अन्तर्लय है जो जीवन से जुड़ी है। 

कार्यक्रम के बाद हम घर लौटे, फिर थोड़ी ही देर में गोपाल चतुर्वेदी जी के घर की ओर प्रस्थान कर गए। वहाँ थोड़ी देर पुरानी यादों को ताजा करने के उपरान्त हम बाहर निकले और फिर डिनर करके ही घर वापस लौटे। उस दिन शहर में कहीं जाकर कुछ देखने का समय ही नहीं बचा था। रात को लौटकर जब केदार जी और गिरिधर जी अपनी गप-शप में मस्त हो गए तो मैंने चुपचाप ड्राइंग रूम में एक फोल्डिंग खाट लगाई और उस पर अपना बिस्तर जमा लिया। केदार जी ने शाम को ही मुझसे दो-तीन बार पूछा था कि मैं कहाँ सोऊँगा, क्योंकि उन्हें पता था कि मैंने दोनों ही बेडरूम मेहमानों के सोने के लिए निर्धारित कर रखे थे। उस समय मैंने उन्हें यह कहकर टाल दिया था कि मैं ऊपर के किसी कमरे में जाकर सो जाऊँगा। मैंने उन्हें बता रखा था कि मेरे घर के प्रथम तल भी दो कमरे हैं।लेकिन वे कमरे फर्निश्ड नहीं थे। अतः मैंने ऊपर जाने के बजाय मन ही मन में यही सोचा था कि नीचे ड्राइंग रूम में ही फोल्डिंग खाट डाल लेना ठीक रहेगा। इससे मैं मेहमानों का ख्याल भी रख सकता था। मुझे पता था कि केदार जी देखेंगे तो उन्हें अच्छा नहीं लगेगा। सो मैं खाट लगाते ही बीच का पर्दा खींच, ड्राइंग रूम की बत्ती बुझाकर, वहाँ अँधेरा कर लेट गया ताकि उन्हें लगे कि मैं सो गया हूँ। सोने का समय भी हो ही गया था। सोचा था कि सुबह जल्दी उठकर फोल्डिंग खाट वगैरह समेटकर लैपटॉप पर कुछ काम कर लूँगा। इस प्रकार उन्हें पता भी नहीं चलेगा कि मैं कहाँ सोया था।

            रात के करीब तीन बजे ही नींद खुल गई। पहले तो लगा कि फोल्डिंग खाट पर सोने के कारण ही नींद जल्दी खुल गई होगी। लेकिन तभी लगा कि शायद ऐसा नहीं है। देखा कि गिरिधर जी के कमरे की लाईट जल रही है और भीतर से कुछ आवाज़ भी आ रही है। मैं उठकर बैठ गया। फिर धीरे से टॉयलेट गया। तभी यह अहसास हुआ कि वह आवाज़ कुछ और नहीं, गिरिधर जी के गुनगुनाने की आवाज़ थी। वे शायद कोई भजन गुनगुना रहे थे। या फिर शायद किसी गीत का रियाज़ कर रहे थे। मैंने ड्राईंग रूम की लाईट जला ली और लैपटॉप खोलकर उसमें पिछले दिन के कार्यक्रम में खींचे गए फोटो देखने लगा। सोचा लोकार्पण की एक फोटो छाँटकर सुबह होने के पहले ही फेसबुक पर लगा दूँगा। तब तक गिरिधर जी कमरे से निकलकर टॉयलेट में घुस चुके थे। वहाँ से लगातार नल से पानी गिरने तथा बाल्टी आदि भरने की आवाज़ें आती रहीं, जिससे लग रहा था कि वे नहा रहे हैं। मैंने सोचा कि शायद किसी असुविधा के कारण वे ठीक सो नहीं पाए होंगे और इसीलिए उन्होंने जल्दी उठकर प्रातःक्रिया व स्नान आदि करने का फैसला किया होगा। खैर, मैं लैपटॉप पर अपना समय काटने लगा, क्योंकि अब मुझे फिर से नींद नहीं आनी थी। लगभग चार बजे नहा-धोकर गिरिधर जी बाहर निकले और फिर थोड़ी ही देर में वे केदार जी के कमरे के दरवाज़े पर पहुँचकर उसे थपथपाने लगे। लेकिन कई बार थपथपाने के बाद भी केदार जी ने दरवाज़ा नहीं खोला। शायद वे गहरी नींद में थे। जब मैंने यह देखा, तो मैं उठकर उधर गया और गिरिधर जी को आग्रहपूर्वक ड्राईंग रूम में बुला लाया। उनके बताने पर ही मुझे पता चला कि यह नियमित रूप से उनके उठने का समय था। हम दोनों घंटे-डेढ़ घंटे गीत-साहित्य, नव-गीतों के विकास तथा गीतकारों के बारे में बातें करते रहे। इसी बीच सत्यनारायण ने आकर हमें चाय भी पिला दी।

बात-चीत के इस सिलसिले में गिरिधर जी ने केदार जी से जुड़ा हुआ एक बड़ा ही रोचक प्रसंग सुनाया। हुआ यूँ कि देवरिया के रसूलपुर कस्बे में गिरिधर जी का सम्मिलित परिवार एक छोटे से मकान में रहता है, जिसमे एक ही टॉयलेट था। तभी केदार जी ने उन्हें सूचित किया कि वे एक कार्यक्रम के सिलसिले में गोरखपुर आ रहे हैं तथा उनसे मिलने रसूलपुर भी आएँगे और एक रात वहीं रुकेंगे। दस-पन्द्रह दिन का समय बाकी था सो गिरिधर जी ने तय किया कि केदार जी के आने पर एक टॉयलेट से काम तो चलना नहीं, अतः उनके आने से पहले ही घर के बाहर सटी हुई जमीन पर एक नया टॉयलेट बनवा दिया जाय। बस फिर क्या था आनन-फानन में मिस्त्री बुलवाया गया। वेस्टर्न कमोड लाया गया। सोक पिट बना और फिर एक सप्ताह में ही टॉयलेट का निर्माण पूरा करा लिया गया। इस काम के हो जाते ही इसकी सूचना केदार जी को भी दे दी गई। अब गिरिधर जी को बेसब्री से अपने मित्र के आने की प्रतीक्षा थी। केदार जी गोरखपुर आए और वहीं से उन्होंने गिरिधर जी को फोन करके वहाँ आने का आग्रह किया। गिरिधर जी ने कहा कि हम लोग तो तरह-तरह के पकवान बनाकर आपके रसूलपुर आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अभी-अभी बनाया गया टॉयलेट भी आपके इंतजार में है। अतः आपको यहाँ जरूर आना चाहिए। केदार जी बोले कि उसी टॉयलेट की वजह से तो वे वहाँ नहीं आ रहे। अगर वे आए तो उसमें जाना ही पड़ेगा, और जब वे उसमें जाएँगे तो कहा जाएगा कि केदार जी ने उसका उद्घाटन किया। अखबारों में भी खबर छाप दी जाएगी कि केदारनाथ सिंह ने रसूलपुर में गिरिधर करुण के घर पर नवनिर्मित टॉयलेट का उद्घाटन किया। भले ही उन्होंने यह बात मज़ाक के तौर पर कही हो लेकिन वे नया टॉयलेट बनवाने के कारण ही वहाँ नहीं आए। गिरिधर जी द्वारा सुबह-सुबह सुनाया गया यह वाकया वाकई मज़ेदार था। सुबह के लगभग साढ़े पाँच बजे केदार जी भी अपने कमरे से उठकर बाहर आ गए। शायद हम लोगों की बात-चीत ने उन्हें डिस्टर्ब किया होगा। लेकिन वे चिर-परिचित मुस्कराहट के साथ ड्राईंग रूम में घुसे और गिरिधर जी से भोजपुरी में कुशल पूछी। तभी अजीत सिंह भी उठ गए। चाय का एक दौर फिर से चला। अब प्रातःकालीन महफ़िल जम चुकी थी। केदार जी ने आग्रह किया तो गिरिधर जी ने सूरदास के एक पद का सस्वर गायन किया। फिर अपना एक गीत भी तरन्नुम में सुनाया। उनकी धीर-गंभीर संगीतमय आवाज़ देर तक हमारे मन में गूँजती रही।

चाय की चुस्कियों के बीच चली गप-शप के बाद हम सब नहा-धोकर फारिग हो गए। नौ बजे तक नाश्ता-पानी भी निबट चुका था। गिरिधर जी का मन हुआ कि थोड़ा बाहर निकलकर मोहल्ले में घूमा जाय। जब केदार जी भी चलने को तैयार हो गए तो मैंने प्रस्तावित किया कि पैदल टहलने के बजाय गाड़ी से चला जाय और थोड़ा लंबा चक्कर लगाकर लखनऊ के बदलते चेहरे का कुछ जायज़ा लिया जाय। बस हम तीनों ही निकल पड़े। पहले हम अंबेडकर स्मारक के ऊपर गोमती नदी के तट पर बने बंधे वाली सड़क पर पहुँचे। वहाँ से स्तूपनुमा अबेडकर स्मारक तथा उसी से सटकर निर्मित दो पंक्तियों में खड़े पत्थर के एक सौ आठ हाथियों वाले शोध संस्थान के परिसर का विहंगम दृश्य दिखता है। हमने बंधे के किनारे-किनारे टहलकर उसका नज़ारा लिया। तट-बंध की सड़क के बीचो-बीच में स्थापित बुद्ध की संगमरमर की बनी चतुर्मुखी प्रतिमा का दृश्य भी काफी आकर्षक था। उसके बाद हम सामाजिक परिवर्तन-स्थल की तरफ आए। वहाँ हमने पुल के एक तरफ स्थापित कांसीराम जी व मायावती की प्रतिमाओं का अवलोकन किया। फिर पुल के दूसरी तरफ स्थापित डॉ.अंबेडकर व रमाबाई जी की प्रतिमाओं को भी देखा। हमने सभी जगह फोटो भी खींचे और फिर हम वहाँ से चल पड़े। अब बारी थी हजरतगंज बाज़ार के बदले हुए स्वरूप को देखने की। राज्य की पिछली सरकार ने हजरतगंज का पुनरुद्धार कराते हुए उसको अंग्रेज़ों के जमाने के पुराने स्वरूप में लाने का कार्य कराया था। उसके तहत वहाँ से अवैध कब्ज़े हटाकर भवनों के प्राचीन स्वरूप को संरक्षित किया गया। इसी के साथ-साथ दूकानों व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के सारे बोर्ड सफेद पट्टी पर काले अक्षरों में लिखकर एक ही शैली में लगवाए गए। इससे बाज़ार का स्वरूप काफी बदला-बदला सा लगता है। सुबह के वक्त गंजिंग करने का लुत्फ़ तो उठाया नहीं जा सकता था, सो हम वहाँ से गुजरते हुए राणा प्रताप मार्ग की तरफ मुड़ गए और फिर छतरमंजिल तथा मोतीमहल पर गाड़ी से ही एक निगाह डालते हुए हम लोहिया पार्क पहुँचे।

लोहिया पार्क समाजवादी पार्टी की सरकार द्वारा अंबेडकर स्मारक की प्रतिस्पर्धा में बनवाया गया पार्क है, जिसके भीतर डॉ.राम मनोहर लोहिया जी का स्मारक है तथा एक घड़ी वाला स्तम्भ भी है। हमने पार्क के भीतर जाकर स्मारक का जायज़ा लिया। पार्क में उस समय सन्नाटा था। इक्का-दुक्का जोड़ों के अलावा उस समय वहाँ केवल माली व अन्य कर्मचारी ही थे। सुबह टहलने के लिए आने वाले लोगों का हुज़ूम वहाँ से जा चुका था। घड़ी वाले स्तम्भ के पास सफाई चल रही थी। वहाँ के सफाई कर्मचारियों की सुपरवाइजर एक महिला थी। स्तम्भ की घड़ी न जाने कब से निश्चल पड़ी थी। मैंने उस महिला से पूछा, - यह घड़ी चलती क्यों नहीं? क्या इसकी मरम्मत का जिम्मा तुम्हारा नहीं है?उसने कहा, - नहीं, इसकी मरम्मत मेरे जिम्मे नहीं। इसके बारे में तो विकास प्राधिकरण वाले ही कुछ बता सकते हैं।गिरिधर जी ने कहा, यही तो समस्या है इस देश की। बन तो बहुत कुछ जाता है पर सही-सलामत नहीं रहता।हम थोड़ी दूर तक टहलते हुए लोहिया पार्क की एक वीथिका से गुजरे। गिरिधर जी ने कहा, - बड़ी शांति है यहाँ।केदार जी ने हँसकर पूछा, - किधर है शांति?उनकी बात में छिपे विनोद को समझते ही हम सब ठठाकर हँस पड़े। तभी गिरिधर जी ने भोजपुरी में कोई पंक्ति गुनगुनाई। केदार जी उसके रस में डूब गए। फिर हम शादी के मौकों पर गाए जाने वाले गालियों से सराबोर उन लोक-गीतों की बातें करने लगे, जिन्हें लड़की के परिवार की औरतें बारातियों के द्वार-चार के समय अथवा उन्हें खाना खिलाने के वक्त सुना-सुनाकर पूरे वर-पक्ष को शर्मशार कर देती हैं। बात-चीत के बीच मैंने इन गउनइयों की उत्पत्ति के बारे में अपने विचार रखे। मेरा मानना है कि इस परम्परा का जन्म इसलिए हुआ होगा क्योंकि हमारे यहाँ पारम्परिक रूप से लड़के वाले अपने को लड़की वालों से श्रेष्ठ मानते हैं तथा उन पर अपना रोब झाड़ते हैं। इसीलिए शादी के वक्त वधू-पक्ष की औरतों द्वारा वर-पक्ष के पुरुषों व स्त्रियों को इन गउनइयों के माध्यम से शर्मशार करने की यह रस्म   बनी ताकि वर-पक्ष को यह अहसास दिलाया जा सके कि वे श्रेष्ठ नहीं हैं, बराबर के ही हैं और अपने भीतर फालतू का कोई अहंभाव न पालें। हम इसी प्रकार की रोचक बातें करते हुए घर वापस आ गए।

केदार जी के लखनऊ-प्रवास का शेष कार्यक्रम पहले से ही निर्धारित था। गिरिधर जी तथा अजीत सिंह को दोपहर के पहले ही डॉ सुरेश के साथ किसी अन्य कार्यक्रम में भाग लेने हेतु चले जाना था। इसी बीच केदार जी से मिलने के लिए बाराबंकी तथा कानपुर से कुछ अन्य लोगों को आना था। उसके बाद हमें भोजन आदि से निबटकर लगभग ढाई बजे रेलवे स्टेशन के लिए प्रस्थान करना था। सब वैसे ही होता चला गया और हम तीन बजे चारबाग स्टेशन पहुँचकर दिल्ली जाने वाली ट्रेन में सवार हो चुके थे। हम का मतलब, केदार जी, ललित शर्मा, मिथिलेश श्रीवास्तव तथा मैं।इस प्रकार हमारी यह लखनऊ यात्रा समाप्त होने जा रही थी। मुझे दिल्ली पहुँचने के पहले से ही लगने लगा था कि यह सुखद यात्रा एक लम्बे समय तक याद रहेगी। दिल्ली पहुँचकर अगले ही दिन केदार जी से फोन पर कुछ यूँ बात हुई, -

आपका लखनऊ चलना और मेरे घर पर रुकना मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात थी। यह यात्रा मुझे लम्बे समय तक याद रहेगी।
मेरे लिए भी यह एक यादगार यात्रा रहेगी। मुझे लखनऊ का बदला हुआ स्वरूप भी बहुत अच्छा लगा। इस परिवर्तन के लिए लोग लम्बे समय तक मायावती को याद रखेंगे।
हाँ, यह तो है, लोग यही कहते हैं कि मायावती ने लखनऊ का चेहरा बदल दिया। भले ही इन सब निर्माण कार्यों के पीछे उनके कुछ निहित स्वार्थ भी रहे हों।
तो क्या हुआ? स्वार्थवश हीतो ताजमहल भी बनवाया गयाथा!

लगा सही ही कहा है केदार जी ने। स्वार्थवश ही तो ताजमहल बनवाया होगा बादशाह शाहजहाँ ने, जिसे आज दुनिया देखने जाती है। लगा स्वार्थवश ही तो मैं भी ले गया था केदार जी को लखनऊ, लेकिन वहाँ उनके द्वारा कही गई बातों को लखनऊ वाले लम्बे समय तक याद रखेंगे । एक तरह से देखा जाय तो यह तो है ही कि दुनिया का हर बड़ा काम किसी न किसी स्वार्थवश ही होता आया है। तो क्या साहित्य-सृजन भी यूँ ही स्वार्थवश हो जाता है? क्या स्वार्थवश ही लोग कुछ का कुछ बोल जाते हैं या लिख देते हैं? बस इसी बात पर आकर मुझे कुछ संदेह पैदा होता है कि शायद साहित्य-सृजन एक ऐसी चीज़ है जो स्वैच्छिक क्रियाओं की तरह अपने आप होती है, आत्मा की अनुभूति पर और उसकी आवाज़ पर होती है, केवल स्वार्थवश नहीं हो सकती। लेकिन तभी ध्यान आता है रंजीत वर्मा के अभी हाल ही में राष्ट्रीय सहारा अखबार में छपे ‘कविता का महाजन वर्ग’ लेख का, जिसमें उन्होंने लिखा है, - ‘चाहे वह भारतीय प्रशासनिक सेवा का कोई अधिकारी हो या किसी थाने का दारोगा। कानून साथ दे न दे, अपनी अकड़ में सब पर अपनी पकड़ बनाये रहते हैं। आज इसी जमात से बड़ी संख्या में लोग कविता में आ गये हैं। वैसे तो पता नहीं ये कब से आते रहे हैं, लेकिन इनके आने को पहली बार चिन्हित किया गया अस्सी के दशक में। यानी इनका बड़ी संख्या में आना समय के ठीक उस बिंदु पर हुआ जब रचना और विचार को एक-दूसरे से अलग होते हम देखते हैं।’ इसे पढ़कर लगा कि कवि होने के अलावा एक प्रशासनिक अधिकारी भी होने के नाते कहीं स्वार्थवश मैं कोई बेवकूफी तो नहीं कर रहा हूँ। लेकिन फिर लगा कि पता नहीं रंजीत वर्मा ने किसको कितना पढ़ा हो, या किसको कितना सुना हो, या फिर पता नहीं किस स्वार्थवश उन्होंने ऐसा कहा हो। उन्हें जो कहना है, कहने दीजिए और आप अपने रास्ते पर आगे बढ़िये और जो कुछ लखनऊ में कहा-सुना गया उसे भी लोगों को पढ़ने दीजिए। सो केदारनाथ सिंह जी के साथ की गई लखनऊ-यात्रा की याद में शब्दों से रचा गया यह ताजमहल यहाँ इस स्वार्थवश आपके सामने प्रस्तुत है कि शायद इससे हिन्दी-कविता की आज की दशा और आगे की दिशा के बारे में आपको कुछ मार्गदर्शन मिल सके।

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अमित उपमन्यु की ताज़ा कवितायें

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अमितकी कवितायें आप पहले भी असुविधा पर पढ़ चुके हैं. इन दिनों वह मुंबई में है और फिल्म लेखन के क्षेत्र में काम कर रहा है. अपनी शुरूआती कविताओं में उसने जो उम्मीदें जगाई थीं, इन कविताओं को पढ़ते हुए वह उन्हें पूरा करने की दिशा में मेहनत करता दीखता है. इन कविताओं में बुनावट तो सघन हुई ही है, साथ में वह जिस तरह रोज़ ब रोज़ के जीवन से लेकर इतिहास, विज्ञान और तकनीक से अपने बिम्ब लेकर आता है और जिस तरह उन सबको एक मानीखेज़ वाक्य में तब्दील कर देता है, वह एक कवि के रूप में उसकी ताक़त का एहसास कराता है. सिनेमा से प्रत्यक्ष संपर्क ने भी उसकी भाषा और दृष्टि को संपन्न किया है
पेंटिंग यहाँ से साभार 



भ्रम

झील की सतह पर बर्फ की पतली सी जमी हुई परत
सतह के नीचे से मुझे घूरती एक धुंधली देह
हम दोनों एक साथ एक ही बिंदु पर सतह को छूते हैं
हमारी लालसाओं के ह्रदय सम्पाती हैं सतह के उस एक बिंदु पर
जिस पर हमारे अचरज मछली हो तड़प रहे हैं.
सतह,
जोएक ठोस भ्रम है
हम दो कैदी
एक-दूजे के भ्रम में

पानी पर फेंके गये पत्थर की तरह
मैं दो बार खुद से टकराता हूँ
तीसरी आवृत्ति पर
भ्रम की ख़ालमें उतर जाता हूँ

पृथ्वी पानी से भरी एक पारदर्शी गेंद है
जिसके केंद्र में है चांदी का दिल
मैं ज़िंदा आईने पर दौड़ता हूँ
अथक
विपथ
लथपथ...
परपृथ्वी गोल है
जीवन भी वैसा ही है
हर कदम पर हमारा अक्ष बदल रही है पृथ्वी
जीवन का आयतन पृथ्वी की त्रिज्या के सुदूर छोर पर टंगा है
इच्छाओं की त्वचा से बने थैले में

दिल पर दौड़ का कोई अंत नहीं
दिल का कोई अंत नहीं...
थक जाता हूँ
मैं रुकता हूँ,
झुकता हूँ,
और खुद की आँखों में आँखें डाल तोड़ डालता हूँ सारे सम्मोहन

तब
मैं देखता हूँ!
मैं घटनाओं को देखता हूँ
घटनाओं की श्रंखलाओं को देखता हूँ
ब्रह्माण्ड में गूंजते उनके अनंत विस्तार को देखता हूँ
विस्मित हो घूमता रहता हूँ अपनी धुरी पर
आश्चर्यचकित!
तब सुदूर ब्रह्माण्ड से आती रोशनी के महीन रेशों से
मुझमें जन्मता हैएक शब्द...

शब्द
गूँज रहे हैं सन्नाटे में
वे विरोध करते हैं
शब्द चुप्पी का विरोध करते हैं
वे शोर नहीं पर,
शांति हैं
शांति हैं हिंसा नहीं
वे संस्कृति हैं
शब्द कोलाहल का विरोध करते हैं
शब्द वृहस्पति का चौंतीसवाँ चंद्रमा हैं
भ्रम शनि का वलय
भ्रम की माला में मोती से भी सफ़ेद पिरोये गये हैं शब्द

हमारी आत्माओं का केंद्रबिंदु
संपाती है वैश्विक गुरुत्व केंद्र के
फिर भी
सबचैतन्य पिंड
परिक्रमारत अपने भ्रम की
बंधे उसके गुरुत्व बल से अपनी कक्षाओं के अनुशासन में;
और अवचेतन,
तोड़ने को उद्धृत
सब अभिकेंद्री बल

महज़ एक घटना की तरह घट जाते हैं हम वक़्त में
साथ ही
प्रक्रिया की तरह चलते रहते हैं अपनी चेतना के गुरुत्व केंद्र में
खोजते निहितार्थ
कि सतह का कौन पृष्ठ है भ्रम
कौन यथार्थ?


पतन 


इसे कहते हैं नरीमन पॉइंट
यहाँ से शुरू होता है मुंबई के गले का हार
जो चमचमायेगा रात भर
और सूरज को सौंप देगा अपनी दो मुट्ठी चकाचौंध
भोरकाल.
तीन मुंह वाली अनगिनत चट्टानें
झेलती रहेंगीं अरब सागर की सारी चोटें सीने पर
बरकरार रखने
अपनी हार की चमक

इसे रेसकोर्स कहते हैं!
अभी दबेगी बन्दूक की लिबलिबी
और दौड़ पड़ेंगे घोड़े जीतने के लिए.
आपने दांव खेला सात नंबर पर
नहीं पूछा मगर
कि जीतेगा कौन?
मैं? घोड़ा? या घुड़सवार?
हारेगा कौन?
मैं? घोड़ा? या घुड़सवार?
गर पूछते तो गूंजती एक आवाज़ टिकट पर छपे सात नम्बर से
पैसे की जीत!
पैसे की हार!

सात नम्बर हार गया!

डूबता हुआ सूरज
दो प्राचीन खम्भों के बीच बैठा है
अपनी कमज़ोर रीढ़ और पलकें झुकाए....
सामने हिलोरें मार रहा है गहरा नीला अलिखित संविधान
इसके गर्भ में नहीं पलते क्षमादान
बनना ही पड़ेगा गिलोटीन का ग्रास

यह छत्तीसवे माले की छत है
यहाँ हज़ारों लोग खड़े हैं आसमान ताकते, हाथ फैलाए
गोधूली की लालिमा चमक रही है चेहरों पर
कुछ उड़ जायेंगे पतंग की तरह...
यहाँ तक आएगा उनके लिए मुंबई का हार
कुछ जल जाएंगे पतंगे की तरह...
यहाँ तक आएगी उनके लिए मुंबई की हार

यह छत्तीसवे माले की छत है!
यहाँ हज़ारों लोग खड़े हैं अकेले
ज़िन्दगी?
बस यहाँ से छत्तीस माले दूर!
मौत?
यहाँ से बस छत्त्तीस माले दूर!

देह का गिरना
धरा तक
आत्मा का पतन
चिरंतन


अन्य पुरुष 

मैं चूमता हूँ प्रेयसी के होठों को
महसूसता हूँ प्रेम का आध्यात्म
आलिंगन करता हूँ
और उसी वक़्त
दस मीटर दूर
पार्क की एक बेंच पर बैठा देख रहा होता हूँ
इस प्रेम को निर्वात में स्थान घेरते हुए

मैं कहीं पहुँचने के लिए रेलवे स्टेशन पहुँचता हूँ
जहां भारतीय रेल मेरा स्वागत करती है
मैं ट्रेन के दो खुले दरवाजों के बीच खड़ा गति को महसूसता हूँ
(सद्गति?)
मेरे पास खड़ा एक जवान लड़का
गति से लड़ने दरवाजे से छलांग लगा देता है...
(दुर्गति?)
...उसका भी भारतीय रेल ने स्वागत किया था
उसने स्वागत अस्वीकार कर दिया.
गति से लड़कर
अब वह प्रथम पुरुष है.
जो चीख रहे हैं, रो रहे हैं, चिंतित हैं
वे सब द्वितीय पुरुष हैं
मैं अन्य पुरुष हूँ!

मैं टी.वी. देखता हूँ
लोग मर रहे हैं,
हत्याएं हैं,
बलात्कार हैं,
आन्दोलन हैं...
मैं खाना खाते हुए टी.वी. देखता हूँ.
लूट हैं,
भ्रष्टाचार है,
घोटाले हैं...
खाना ख़त्म हो जाता है
मैं टी.वी. बंद कर सो जाता हूँ.
मैं और टी.वी.
हम दोनों अन्य पुरुष हैं.

सड़क के बीचों-बीच खड़ा,
निश्चल तन-मन,
मैं एक साथ महसूसता हूँ विपरीत दिशाओं में सनसनाती गति को...
(असंगति?)
प्रथम या द्वितीय पुरुष होने की असीम संभावनाओं के बीच भी
मैं अन्य पुरुष हूँ!

मुझमें अंगड़ाई लेता समय उद्विग्न है!
मैं द्रव्यमान की अनुपस्तिथि नहीं
केंद्र के असीमित विस्तार के कारण व्योम हो रहा हूँ.
मुझमें एक कैनाइन जंगल विस्तृत होता जा रहा है
मैं उसकी उपस्तिथि को निरस्त करने में व्योम हो रहा हूँ
मेरा प्रथम पुरुष अपने माध्य के दोनों ओर “साइन वेव” में लहरा रहा है
वह आवृत्ति-आयाम में उलझा जा रहा है
मैं लहराते प्रथम पुरुष
और व्योम होते द्वितीय पुरुष की उपस्तिथि में
अन्य पुरुष हूँ

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अमित उपमन्यु 

पेशा सीखा इंजीनियर का. शौक थियेटर का. बीच में साफ्टबाल भी खेलते रहे राष्ट्रीय स्तर पर. जूनून फिल्मों का. की नेतागिरी भी. दख़ल से जुड़े. अब मुंबई में स्क्रिप्ट लिखते भी हैं और एक इंस्टीच्यूट में सिखाते भी हैं. 

संपर्क - amit.reign.of.music@gmail.com







विमल चन्द्र पाण्डेय की नई कहानी

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 जाने-माने युवा कथाकार विमल चन्द्र पाण्डेय की यह कहानी इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका अनहद में प्रकाशित हुई है.



सातवां कुआँ

उसके दिन की शुरूआत ही ख़राब हुयी थी। उसकी नींद सुबह पांच बजे की बजाय चार बजे एक सुबह का सपना देखकर टूट गयी थी जिसमें पानी के गिलास में नाखून डालने की वजह से उसे नौकरी से निकाल दिया गया था। अगले एक घण्टे तक वह बिस्तर पर करवट बदलता रहा था और सुबह के सपने के सच हो जाने की आशंका से ग्रस्त रोटी कमाने के नये तरीके सोचता रहा था। वह अपनी सोचों में इतना भीतर तक उतर चुका था कि जब उसकी बीवी अपने कपड़े संभालते बिस्तर पर आयी तो उसने कहां थी इतनी देर सेकी बजाय पूछा कि क्या गांव में किसी के सुबह के सपने सच हुये हैं

रामदयाल पत्नी, कुत्तों और दुनिया यानि तीन चीज़ों से परेशान था। सभी कुत्तों को वह खत्म नहीं कर सकता था, पत्नी का क्या करना है उसे समझ नहीं आता था और दुनिया को बदला भी जा सकता है, यह उसके विकल्प से बाहर की चीज़ थी। उसकी पत्नी और दुनिया उससे अजनबियों की तरह बर्ताव करते थे। पत्नी के खि़लाफ़ वह जब चाहता सबूत जुटा सकता था और शायद उसकी पत्नी भी यही चाहती थी लेकिन वह उस दिन से बचता था। वह नहीं चाहता था कि अपनी आंखों के सामने वह अपने दुःस्वप्नों को सच होता देखे। दुनिया में उसका गांव था, उसका दफ्तर था और उसके दफ्तर के लोग थे जो उसे बरदाश्त नहीं कर पाते थे। वह एक छोटे से सरकारी ऑफिस में चपरासी था और उसे लगता था कि इस अतिरिक्त योग्यता के कारण लोग उससे जलते थे।
            
पत्नी के लौट आने के बाद उसने बिस्तर छोड़ दिया था और खेतों की तरफ़ चला गया था जहां उसने देखा कि उसका पड़ोसी और चचेरा भाई उसके घर के पीछे वाली ज़मीन में कुदाल से खुदाई कर रहा था।

’’यह क्या कर रहे हो ?’’ उसने यह मेरी ज़मीन हैके बदले में कहा था।

’’मैं पपीते का पेड़ लगा रहा हूं।’’ उसने संक्षिप्त जवाब दिया और फिर से खुदाई में लग गया। उसने देखा कि उसके भाई का छोटा बेटा भी पिता की मदद कर रहा था। उसे याद आया कि उसका बेटा किसी भी काम में उसकी मदद नहीं करता और हमेशा सिर्फ किताबों में खोया रहता है। भले उसके पास बहुत थोड़ी सी ज़मीन है, अगर वे दोनों मिलकर उस पर लगातार मेहनत करें तो अच्छा ख़ासा उपजाया जा सकता है। थोड़ी ज़मीन से उसे फिर कुछ याद आया और उसने अपने भाई को टोका।

’’मगर मेरी जमीन पर क्यों....?’’
उसके भाई ने कुदाल चलाना छोड़ दिया और बीड़ी जलाने लगा। बेटे ने बीड़ी जलाने में पिता की मदद की।

’’जानते हो भाई। पपीता एकमात्र ऐसा फल है जिसमें सभी विटामिन होते हैं। एकमात्र फल पूरी दुनिया में....। सोच सकते हो ? हम खुशकिस्मत हैं कि हमारे पास पपीते के फल जैसी अनमोल विरासत है। है या नहीं ?’’ उसके भाई ने भारी और गंभीर आवाज़ में कहा। साथ में उसने यह भी जोड़ा कि पपीते का फल किसी एक नहीं होता और उस पर सबका अधिकार होता है।

उसने प्रश्नवाचक नज़रों से अपने भतीजे की ओर देखा। भतीजे ने पिता की बात से सहमति जताते हुये बताया कि उसने अपनी कक्षा सात की किताब में पढ़ा है कि पपीते के फल में सभी विटामिन पाये जाते हैं और इससे कई बीमारियों का इलाज होता है। भतीजे ने ही उसे याद दिलाया कि उसे खेत में दिशा मैदान के लिये जाना चाहिये वरना उसे देरी हो सकती है। उसने तुरंत मुस्कराते हुये खेतों का रुख कर लिया था। जब वह अपने दफ्तर के लिये तैयार हो रहा था तो उसकी पत्नी ने उसे ताना मारा कि धीरे-धीरे उसका चचेरा भाई उसका आधा खेत हड़प चुका है और वह डरपोक होने के कारण कुछ नहीं कर रहा है। उसने पत्नी से पूछा कि वह इतनी सुबह-सुबह कहां गयी थी। पत्नी ने कहा कि आज तो हद ही हो गयी जब देवर जी ने घर के पीछे वाली जमीन में अपना पेड़ लगा लिया। उसने पत्नी को समझाया कि पेड़ के फल सब खाते हैं और उन पर किसी एक का हक नहीं होता और खास तौर पर पपीते का जिसमें सारे विटामिन पाये जाते हैं।

दफ्तर के लिये निकलते वक़्त उसने अपने नाखून एक बार फिर चेक किये और अपने छोटे से बैग में रखे गये पत्थर गिने। हर तीसरे दिन काटने के बावजूद उसे लगता था कि उसके नाखून बढ़ गये हैं। कई बार तो वह सायकिल चलाता हुआ उस वक़्त अपने नाखून देखने लगता था जब दफ्तर का गेट सामने हुआ करता था। उसे डर लगता कि घर से काट के चलने के बावजूद कहीं दफ्तर के बाहर पहुंचते-पहुंचते उसके नाखून बढ़ तो नहीं गये। नाखूनों का उसे डांट सुनवाने में अभूतपूर्व योगदान था। शादी के शुरूआती दिनों में जब उसकी पत्नी ने उसे डांटा था तो उस डांट में मीठा उलाहना था। वह देर तक पत्नी के सीने और कंधे पर बने नाखूनों के निशानों को सहलाता और चूमता रहा था। बाद में सालों बाद भी उसे कई बार अपने नाखूनों की वजह से डांट सुननी पड़ती थी और उसकी पत्नी उसे जंगली कहती थी, एक कमज़ोर जंगली। उसे समझ नहीं आता था कि अगर वह जंगली है तो कमज़ोर कैसे हो सकता है और कमज़ोर है तो उसे जंगली किस हिसाब से कहा जा सकता है। उसे लगता था एक दिन उसकी पत्नी उसे छोड़ कर चली जाना चाहती है और उसी दिन के लिये उसने यह कमज़ोर वाला जुमला उछाला है ताकि समय पड़ने पर वह इसे हथियार की तरह प्रयोग कर सके।

वह कुत्तों से बहुत डरता था और अपने छोटे से बैग में कुछ कागज़ों और कलम के अलावा आठ-दस छोटे आकार के पत्थर ज़रूर रखता था। कुत्ते, जो उसे पहली बार भी देखते थे, पहचान लेते थे कि इस आदमी के बैग में छोटे पत्थर रखे हुये हैं, और वे उस पर भौंकने या उसे ध्यान से देखते पूंछ हिलाने लगते थे। वह तुरंत अपने बैग से पत्थर निकालता और कुत्तों पर आक्रमण कर देता। कुत्ते आखि़रकार वहां से भाग जाते। अपनी जीत के बाद वह सारे पत्थर दुबारा वहां से इकट्ठा करता और बैग में भर लेता और किसी दीवार के सहारे खड़ी या फिर पास में गिरी सायकिल उठा कर घर की राह लेता। उसके डर का कारण क्या था वह नहीं जानता था लेकिन उसके गांव में कहा जाता था कि हर कुत्ते का एक दिन आता है और वह किसी कुत्ते के उस दिन से डरता था। उसका मानना था कि उसके बड़े और छोटे साहब भी दो कुत्ते हैं और क्या पता उनका भी कभी दिन आ जाय। नाखून और कुत्ते उसके दुश्मन थे और ऑफिस में वह जब भी छोटे साहब से अपने बेटे की पढ़ाई के बारे में कोई सलाह मांगने की हिम्मत जुटाता था उसका साहब उससे कहता कि पहले वह अपने नाखून काटे, बाल सही करे उसके बाद बेटे को बड़ा आदमी बनाने का सपना देखे।
            
दफ्तर में आखिर शाम तक बचाने के बावजूद छोटे साहब ने, जो बड़े साहब से डांट खाने के बाद भन्नाया हुआ था, उसकी क्लास ले ली थी। उसे अच्छी तरह याद है कि उसके नाखून गिलास में नहीं थे जब साहब ने पानी मांगा था। नाखून पानी में डूबे हुये हैं, यह कहकर पानी फिंकवाया गया था और गिलास के साथ उसे अपने हाथ भी साबुन से धोने पड़े थे। कई बार उसे लगता था कि उसका उसका लाया पानी तभी पीयेगा जब वह अपने हाथ काट डाले।
            
लौटते वक़्त उसका मन था कि वह अपने दोस्त किशन के यहां थोड़ी देर रुके जो उसी कस्बे में कोठरी लेकर रहता था और बाप से झगड़ा होने के बाद कभी गांव नहीं जाता था। किशन ने अपनी पत्नी से उसके लिये दूध वाली चाय बनवायी थी और वह चाय और पत्नी की मिठास को महसूस करता रहा था। किशन ने घर, समाज और गांव का विरोध करके एक कुजात से शादी की थी और आजकल बहुत ख़ुश था। पहले उसे लगता था कि किशन, जिसने अपने मां-बाप को खून के आंसू रुलाया है, अधिक दिन तक जी नहीं पायेगा। वह खुद चाहता था कि मां-बाप को समाज में जलील करने वाले इस इंसान को ज़रूर दंड मिले जिसने उनके चुने एक अच्छे रिश्ते को ठुकराकर एक कुजात से भाग कर शादी कर ली। लेकिन अब उसे किशन का घर बहुत अच्छा लगता था। किशन दिन पर दिन तंदुरुस्त होता जा रहा था और ऑटो चलाने में आजकल बरकत भी बहुत हो रही थी।

’’तुम इतना परेशान क्यों हो जाते हो ? तुम जानते हो सरकारी दफ्तरों में ये सब चला करता है।’’ किशन ने चाय पीते हुये समझाया था।

’’मेरी नौकरी....।’’ उसने रुंआसा होकर कुछ कहना चाहा था कि किशन की पत्नी नमकीन लेकर आ गयी थी।

’’अरे यार, तुम एक सरकारी ऑफिस में चपरासी हो। तुम्हारी नौकरी छोटा साहब तो क्या बड़ा साहब भी नहीं ले सकता।’’ वह हंसा था तो उसे भी थोड़ी देर के लिये राहत महसूस हुयी थी। वह ख़ुद को इस बात के लिये कोसता था कि वह बार-बार भूल जाता है कि वह एक सरकारी नौकरी में है। यह नौकरी उसे एक चमत्कार की तरह मिली थी और इसके बाद से वह चमत्कारों में विश्वास करने लगा था। गांव के अपने सबसे पढ़े-लिखे मित्र के साथ उसने भी समूह के लिये आवदेन कर दिया था और बिना एक रुपये घूस दिये इस नौकरी का मिल जाना उसकी जि़ंदगी की पहली और अब तक की आखि़री ख़ुशगवार याद थी।


घर लौटते वक्त़ उसे सिर्फ़ एक जगह कुत्ते मिले थे और उसने हमेशा की तरह बहादुरी से उनका मुकाबला किया लेकिन आज उसका दिन ही ख़राब था। वह अपनी सायकिल से एक गली पार कर ही रहा था कि छह-सात कुत्तों ने उसकी सायकिल के पीछे-पीछे भौंकना शुरू कर दिया। उसने एक बार तो सायकिल की गति बढ़ा दी और कुत्तों को पीछे छोड़ दिया था लेकिन फिर उसे लगा कि ये नये कुत्ते हैं जो उसके पत्थरों से परिचित नहीं हैं। अगर आज इनसे डर कर भाग गया तो ये रोज़ फिर इसी तरह परेशान करेंगे। इसलिये उसने गली के मोड़ से अपनी सायकिल तब मोड़ी जब कुत्तों ने उसकी सायकिल के पीछे दौड़ना बंद कर दिया था, यहां तक कि उनकी भौंकने की आवाज़ें आना भी बंद हो गयी थीं। उसने सायकिल धीरे से मोड़ी और कुत्तों ने जहां घेरा था, वहां से थोड़ा पहले अपनी सायकिल को दीवार के सहारे खड़ा कर दिया। फिर उसने कैरियर में से अपना बैग निकाला और उसे खोल कर सबसे बड़ा पत्थर हाथ में ले लिया।

अब वह युद्ध के लिये पूरी तरह तैयार था। वह ऐसे ही थोड़ी दूर तक टहलता चला आया लेकिन कुत्ते अब आराम की मुद्रा में पसर चुके थे और उनका लड़ने भिड़ने का बिल्कुल मूड नहीं था।

उसे लगा यह कुत्तों की कोई चाल है और उसने सबसे बड़ा पत्थर लेटे हुये एक कुत्ते पर चला दिया। कुत्ता इस अचानक हमले से घबरा गया और उसके किंकियाने की आवाज़ दूर तक गूंज गयी जिसके बारे में गांव वालों ने सोचा कि किसी सायकिल वाले ने किसी सोये हुये कुत्ते का पांव कुचल दिया है।
            
रात के ग्यारह बज चुके थे। आमतौर पर गांव के लोग हद से हद नौ बजे तक सो जाते थे लेकिन आज उसके घर पर उसकी खैरियत पूछने वालों का तांता लगा हुआ था। कुत्तों और उसका कोई पिछले जन्म का संबंध है, यह बात सबकी ज़बान पर थी। कई लोगों के इसरार पर उसने कुत्ते द्वारा काटे जाने की घटना का रोमांचक और वर्णनात्मक शैली में चित्र खींचा था जिससे उसकी पत्नी और बेटे को भी अब तक पूरी घटना याद हो चुकी थी। सबसे अंत में उसका चचेरा भाई आया और उसने घटना को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुये कुत्तों को ढेर सारी गालियां दी जिनमें उन्हें कुत्ते से ज़्यादा कहा गया था। उसकी पत्नी ने घूंघट से ही अपने जेठ के जख्मी पांव को देखा और घटना के बारे में जानने के लिये उत्सुकता ज़ाहिर की। रामदयाल के बोलने से पहले ही उसका बेटा बोल उठा, ‘‘बापू जैसे ही सायकिल वापस मुड़ा कर लाये, सारे कुत्ते सहम कर चुप हो गये। उन्हें पता चल गया था कि बापू के हाथ वाला पत्थर इकलौता नहीं है बल्कि उनके झोले में ऐसे ढेर सारे पत्थर भरे पड़े हैं। बापू ने जैसे ही बड़ा वाला पत्थर एक लेटे हुये कुत्ते को मारा.....।’’ ‘‘चुप रह, कितना पकपक पकपक बोलता है।’’ चाची के डपटे जाने पर बेटा चुप हो गया और रामदयाल ने आगे की घटना सुनानी शुरू की।

‘‘मैंने जैसे ही एक को पत्थर मारा, बाकी के सारे कुत्ते मुझे घेर कर मेरे ऊपर भौंकने लगे। मैंने अपने बैग में से पत्थर निकाल कर सबको मारना शुरू कर दिया। मेरे बैग में दस से ज़्यादा पत्थर थे और कुत्ते सिर्फ़ चार-पांच थे। मैंने सबको मार कर भगा दिया था और कहीं कोई कुत्ता अब नज़र नहीं आ रहा था। मैंने जैसे ही सारे पत्थर सड़क से उठा कर अपने बैग में भरे और सायकिल पर बैठने ही वाला था कि पास की नाली में से निकल कर एक मरियल सा कुत्ता आया और मेरे पैर को ज़ोर से पकड़ लिया। मैंने जितना ही अपना पैर छुड़ाने की कोशिश की वह उतना ही ज़ोर से अपने दांत गड़ाता गया और अब तो तुम....।’’ उसकी आंखों में नमी सी आ गयी और उसने एक वाक्य और जोड़ा, ‘‘एक सबक मिला कि जिससे खतरा कभी दिखायी नहीं देता, दरअसल असली ख़तरा उसी से होता है।’’ उसके यह कहने पर उसका भाई जो अपनी भाभी की ओर देख कर मुस्करा रहा था, खिड़की की ओर देखने लगा। खिड़की का एक पल्ला टूट कर निकल चुका था और दूसरे को बड़ी मुश्किल से से खिड़की की दीवार पर टिकाया गया था जो जूट की रस्सी से खिड़की की सलाखों से बंधा था।

भाई की पत्नी ने सारी कहानी सुनी और फिर चिंतित स्वर में कुछ कहानियां सुनायीं और कुछ रहस्योद्घाटन किये जिसका सार यह था कि कुत्ते का काटना सदी की सबसे भयानक घटना होती है। उसकी कहानियां सुनने से साफ़ ज़ाहिर था कि उसकी नज़र में जितने लोगों को कुत्तों ने काटा है वे सब कुत्तों की तरह भौंक-भौंक कर कुत्ते की मौत मरे हैं। रामदयाल और उसके घर वालों के चेहरे पर जब डर साफ़ दिखायी देने लगा तो भाई की पत्नी ने बताया कि ये सारी मौतें इसीलिये हुयी हैं कि इन लोगों ने सुइयां तो लगवायीं लेकिन पुरानी मान्यताओं को बेवकूफ़ी समझ कर भूल गये और इसकी सज़ा इन्हें मिली। पुरानी मान्यताओं के अनुसार कुत्ते के काटने पर सात कुओं में झांकना ज़रूरी है और अगर डाक्टर फाक्टर के चक्कर में ना भी पड़ा जाये तो यह इलाज अपने आप में पर्याप्त है। इस ज्ञान रूपी लम्बे चैड़े भाषण को देने के बाद भाई की पत्नी ने एक साथ ख़ुद को काफी हल्का भी महसूस किया और काफी थका हुआ भी। उसे लगा कि उसकी बात को हल्के ढंग से नहीं लिया गया है और इस बात से उसे लगा कि अब चलकर सो जाना चाहिये। भाई ने चलते वक्त पहले अपनी पूज्यनीया भाभी के पांव छुये और उसके बाद भाई के। उसके बेटे ने यह भी बताया कि कुएं झांकने वाली बात में वैज्ञानिक तथ्य भी शामिल होते हैं क्योंकि कुत्ते के काटने से पानी से डर लगने वाली बीमारी होती है और कुएं झांकने पर अपने आप इस बीमारी का एडवांस में इलाज हो जाता है। चचेरे भाई ने पांव छूते वक़्त भाई को चेताया कि हमारी परम्पराओं में बहुत शक्ति है और वह डाक्टर फाक्टर के चक्कर में पड़कर समय बर्बाद न करे और जितनी जल्दी हो सके सात कुंएं झांकने का इंतज़ाम करे। उसने चचेरे भाई की बात पर ध्यान देना चाहा लेकिन उसकी पत्नी का कहना था कि चचेरे भाई हमेशा गलत सलाहें देते हैं और उन पर अमल करना अपने पैर पर हथौड़ा मारना है। उसने कहावत में कुल्हाड़ी की जगह हथौड़ा मारने के प्रयोग पर बुरा नहीं माना और चचेरे भाई द्वारा पूर्व में दी गयी सलाहों और उनके असर के बारे में सोचने लगा। पत्नी कहावतों में अक्सर गलती करती थी और उन दिनों सौ सुनार की एक लुहार कीउसकी पसंदीदा कहावत थी जिसका वह दिन में कम से कम आठ से दस बार प्रयोग करती थी।
            
चचेरे भाई चाचा के लड़के हुआ करते थे और ज़मीन से बहुत प्यार करते थे। उनका सबसे ज़रूरी काम अपने चचेरे भाई की जड़ खोदना हुआ करता था और वे पूरे गांव के लिये भले सुहानुभूति रख लें, अपने चचेरे भाई के प्रति भीतर से नफ़रत का भाव रखते थे। चचेरे भाई के परिवार की बढ़त और तरक्की से इन्हें क्रोध आता था और ये कहते थे कि आज के दौर में कमीने लोग ही ज़्यादा उन्नति करते हैं। सभी भाइयों के चचेरे भाई बहुत ही गंदी सोच वाले और भितरघात करने वाले थे और ये भाई दुनिया से सबसे अच्छे लोग थे जो कभी किसी का बुरा नहीं सोचते थे। सभी भाइयों को ये याद नहीं आता था कि वे भी अपने चचेरे भाइयों के चचेरे भाई हैं और वे अपने-अपने चचेरे भाइयों के कृत्यों से दुखी रहते थे। वे अपने चचेरे भाइयों के बारे में उसी चैपाल पर बैठ कर बुराइयां करते थे जहां से थोड़ी देर पहले उनका चचेरा भाई उनको जी भर कोसने के बाद बाज़ार की ओर चला गया होता था। चचेरे भाई अपनी पत्नियों की हर बात मानते थे और भाइयों की पत्नियों को इस बात का बहुत कष्ट हुआ करता था जिसका ताना वे अपने पतियों को अक्सर दिया करती थीं। चचेरे भाइयों के बेटे भी अपने पिता में पड़े होते थे और उनकी माताएं उन्हें उनके साथ खेलने से मना करती थी। रामदयाल इन अर्थों में चचेरा भाई होने के बावजूद चचेरे भाई की परिभाषा पर खरा नहीं उतरता था लेकिन उसकी पत्नी ज़रूर चचेरे भाई की पत्नी की हर योग्यता रखती थी। अगली सुबह जब रामदयाल उठा तो उसकी पत्नी की साड़ी वह नहीं थी जो पहन कर वह रात में सोयी थी। उसने इसका कारण पूछा तो पत्नी ने कहा कि रात से उसका पेट खराब है और वह तीन बार खेत को दौड़ चुकी है। तीसरी बार वाला दबाव तो इतना ख़तरनाक था कि उसने साड़ी ही ख़राब कर दी। उसने अपने दफ़्तर में छुट्टी के लिये एक दरख़्वास्त लिखी और अपने बेटे से बाहर के कुछ पत्थर चुन कर लाने को कहा। बेटा अपनी हिंदी की किताब पढ़ रहा था जिसमें वह कुछ लाइनों पर अटका हुआ था, ‘‘हे ग्राम देवता ! नमस्कार ! सोने चांदी से नहीं किंतु तुमने मिट्टी से किया प्यार।’’ उसने पिता की तरफ़ पत्थर लेने जाने से पहले प्रश्नवाचक नज़रों से देखा और पंक्तियां एक बार फिर दोहरा दीं। ‘‘ग्राम देवता मतलब क्या ?’’ उसने पूछा। गा्रम उसने सिर्फ़ गणित की किताब में पढ़ा था और उसे अच्छी तरह याद था कि एक किलोग्राम में एक हज़ार ग्राम होते हैं। रामदयाल सीधा हो गया और पत्थर गिनने वाले कार्यक्रम को उसने थोड़ी देर के लिये स्थगित कर दिया, ‘‘देखो ग्राम देवता का अर्थ होता है गांव के देवता।’’ बेटे ने बात काट दी, ‘‘तो हमारे गांव के देवता कौन हैं ? मुखिया जी या चाचा...या फिर....?’’ उसने बेटे को समझाने की कोशिश की, ‘‘ये सब नहीं, गांव खुद एक देवता है जिसमें कई तरह के देवता निवास करते हैं। जो लोग मिट्टी से प्यार करते हैं और मिट्टी के लिये कुछ भी कर सकते हैं।’’ ‘‘लेकिन लोग मिट्टी से क्यों प्यार करते हैं ? मिट्टी तो गंदा कर देती है ?’’ लड़के की जिज्ञासा मिटाना आसान नहीं था। उसे उदाहरण देकर समझाना आसान हुआ करता था और रामदयाल हमेशा उसे कोई न कोई उदाहरण देकर समझाया करता था लेकिन आज उसे कोई उदाहरण सूझ नहीं रहा था। ‘‘मिट्टी से ही हर आदमी पैदा हुआ है और उसे फिर मिट्टी में ही मिल जाना है। मिट्टी से ही प्यार करना चाहिये और उसके लिये किसी और चीज का लालच छोड़ देना चाहिये।’’

‘‘सहर में तो मिट्टी नहीं होती है ना ?’’ बेटे की जिज्ञासाएं अनंत थीं।

‘‘किसने कहा ? हर जगह मिट्टी होती है। सहर में थोड़ी कम होती है क्योंकि वहां की सड़कें पक्की होती हैं।’’

‘‘अंजोरी ने बताया है कि सहर में कहीं मिट्टी नहीं होती और किसी को चाहिये तो दुकान से खरीदनी पड़ती है।’’ बेटे ने अपने किसी काबिल दोस्त की दलील पेश की।

‘‘हां लेकिन होती है....कम भले हो....।’’ रामदयाल शहर को पूरी तरह परिभाषित करने में नाकामयाब साबित हो रहा था।

‘‘हमारे कई दोस्त सहर घूम आये हैं। हमको कब घुमाओगे सहर ?’’ लड़के के इस नाज़ुक सवाल पर रामदयाल मौन हो गया और बाहर पत्थर बटोरने बाहर निकल गया।
            
आसपास के सभी गांवों को मिलाकर सिर्फ़ पांच कुंए थे और इलाज सात कुएं झांकने से होता था। रामदयाल के गांव में तो सिर्फ़ तीन कुंएं थे और उनमें से भी आम आदमी सिर्फ़ दो कुंओं में झांक सकते थे। तीसरा कुआँ मंदिर के पुजारी जी के घर में था जिसमें झांकने के लिये आदमी का पंडित होना ज़रूरी था। पंडित के अलावा पुजारी जी सिर्फ़ उन्हीं लोगों को अपने अहाते में घुसने की इजाज़त देते थे जो ठाकुर थे या फिर पुजारी के लिये अपने खेत में उगी कोई तरकारी या फिर फल खंचिया में भर कर ले जाते थे ताकि उसका प्रसाद बनवा का पुण्य अर्जित कर सकें। गांव में और जितने भी कुंए थे, पिछले तीन से चार सालों में सूख चुके थे और अब लोग उन कुओं में कूड़ा फेंकते थे या फिर गांव में पुलिस की रेड होने पर जुआ खेल रहे जुआरी या देसी ठर्रा बना रहे ग्रामीण उसकी शरण लेते थे। गांव के आसपास के भी कई कुएं सूख चुके थे और सरकार की किसी योजना के तहत उनमें पानी फिर से पैदा करने के लिये कुछ लाख रुपये स्वीकृत किये गये थे। सभी गांव में प्रधानों ने अपने मजदूरों से सभी सूखे कुओं में कम से कम सौ बाल्टी पानी डलवाया था और बाद में कुएं में पानी पैदा कर पाने में असमर्थता ज़ाहिर की थी। रामदयाल ने आसपास के सभी गांव घूमने के बाद पाया कि पचास सूखे कुओं की तुलना में सिर्फ़ पांच पानी वाले कुएं थे और उन पांच कुंओं में से भी ज़्यादातर का पानी महक रहा था। फिर भी उसने तीन कुंए झांक ही लिये। जिस हिसाब से उसने तीन कुएं झांके, उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कुएं झांकना भी किसी के जीवन की सबसे यादगार घटना हो सकती है। तीनों कुंओं से जुड़ी कोई ख़ास याद नहीं रही थी और कुछके छोटी-छोटी बातों ने उसे विचलित किया था। जैसे वह जब पहला कुआँ झांकने अपने गांव के डीह पर गया था तो उसने पाया कि वहां एक बोरी पड़ी हुई है। उसने कुंआं झांका और थोड़ी दूर वापस आ जाने के बावजूद चैन न आने पर वापस गया और बोरी खोली थी। बोरी में हाई स्कूल बोर्ड परीक्षा की न चेक हुयी काॅपियां थीं। रामदयाल ने एक कॉपी निकाली और पढ़ने लगा। नियमानुसार उस पर नाम न लिख कर रोल नं. लिखा हुआ था इसलिये पता नहीं चला कि कॉपी लड़की की है या लड़के की। उस कॉपी के अंत में एक बीस रुपये का नोट नत्थी किया हुआ था और निहायत ही गंदी हैंडराइटिंग में लिखा था - ‘‘गुरू जी, मुझे जरूर जरूर से पास कर देना नहीं तो मेरे बाबूजी मेरी सादी कर देंगे और आगे नहीं पढ़ाएंगे। मैंने आपके लिये बहुत दिन में ये पैसे बचाये हैं, इससे बच्चों के लिये मिठाई लेते जाना।’’
            
उसने वह नोट उखाड़ कर जेब में रख लिया। जब उसने दूसरी कॉपी उठायी तो उत्साहवश पहले पीछे ही खोला लेकिन उसमें कुछ नहीं था। उसने देखा मेरा गांवशीर्षक से एक निबंध लिखा हुआ था। उसने कुछ पंक्तियां पढ़ीं।

‘‘मेरे गांव में बहुत सुख और शांति है। वहां सभी धर्मों और जातियों के लोग प्रेम से रहते हैं और कोई किसी की जमीन पर नजर नहीं डालता। सब एक दूसरे की औरतों को बहन की तरह मानते हैं और रात-बिरात आने पर चुंगी पर किसी को लूट लिये जाने का कोई डर नहीं है। मेरे गांव में कोई मारपीट नहीं होती है और किसी के घर में कोई चाकू या तलवार नहीं है। यहां के नौजवान हमेशा पढ़ने लिखने की बातें करते हैं और कोई कभी अपने गांव की किसी लड़की को खेत में नहीं खींचता। मेरे गांव के पास जो अस्पताल है वहां एकदम असली दवाइयां मिलती हैं जिनकी एक्सपायरी डेट बहुत दूर होती है। हमारे गांव में न तो कोई किसी बीमारी से मरता है और न ही किसी डाॅक्टर के इलाज करने से। हमारे गांव में मंदिर में सभी को घुसने और भगवान का दर्शन करने की इजाजत है और किसी के मंदिर छू देने पर उसे गंगाजल से नहीं धोया जाता............।’’ उससे आगे नहीं पढ़ा गया। उसे पंक्तियों के बीच लिखी पंक्तियां साफ दिखायी पड़ रही थीं जिसका अर्थ उसने यही समझा कि कम बुद्धि होने के बावजूद एक उम्र में बहुत कुछ समझ में आ जाता है। उसने बोरा बांधने से पहले एकाध कॉपियां और देखीं कि क्या पता किसी और कॉपी में कोई नोट मिले। कुछ और न मिलने की स्थिति में उसने बोरा बांध दिया कि वह प्रधान जी के यहां पहुंचा देगा फिर वह चाहे जो निर्णय लें। उसे एक पल के लिये चिंता भी हुई कि कितने ही लड़कों का भविष्य किसी की इस हरकत से दांव पर लगा हुआ है।
           
दूसरा कुआँ झांकना अपेक्षाकृत अधिक आसान था और वह कुआँ प्रधान जी के घर के पीछे था। उसने जब प्रधान जी को बोरा सौंपा तो उस समय न झांक कर उसने रात का समय चुना। वह अपनी जाति के कारण कोई अप्रिय स्थिति नहीं पैदा होने देना चाहता था और प्रधान जी जातपांत का बहुत ध्यान रखते थे। वह जब रात में प्रधान जी के घर के पीछे वाले कुंए पर पहुंचा तो उसने देखा कि प्रधान जी के घर के सामने बीडीओ साहब की गाड़ी आकर रुकी है। वह डर गया। उसे लगा प्रधान जी को उसने जो बोरा दिया था उसमें वह उसी का हाथ न मान लें। उसने कुआँ झांका और धीरे से प्रधान जी के कमरे की खिड़की के पास पहुंच गया। उसने सोच लिया कि अगर प्रधान जी उसका नाम लेकर उसे जि़म्मेदार ठहरा रहे होंगे तो वह अंदर घुस कर बीडीओ साहब के पांव पकड़ लेगा और उनसे कहेगा कि उसकी कोई ग़लती नहीं है। उसने जो सुना उससे उसका डर और बढ़ गया। प्रधान जी बीडीओ साहब के सामने चापलूसी वाले अंदाज़ में बात कर रहे थे और उन्हें समझा रहे थे कि उनकी कोई गलती नहीं है। बीडीओ साहब ने कहा कि अगर उनका नाम आया तो वह किसी को नहीं छोड़ेंगे। रामदयाल ने सोचा कि उसके दिये हुये बोरे की वजह से कुछ गड़बड़ हुयी है लेकिन जितना उसने सुना और उसमें जितना उसकी समझ में आया, उससे यह पता चला कि दोनों लोगों में किसी योजना को लेकर बात हो रही थी जिसमें प्रधान जी बीडीओ साहब से कुछ और पैसे देने की मांग कर रहे थे और बीडीओ उन्हें धमका रहे थे। उसे बीडीओ साहब की ताक़त का अंदाज़ा हुआ। उसे लगा कि प्रधान जी उनके सामने कितने कमज़ोर हैं। वह धीरे से वहां से निकल आया।

अगले दिन जब वह तीसरा कुआँ झांकने ब्लॉक पर पहुंचा तो दोपहर का समय था। एसडीएम साहब के दफ्तर वाले अहाते में ही कुंआं था। कुंआं झांकने के बाद वह लौटने वाला था कि उसकी नज़र बीडीओ साहब के दफ्तर के बाहर खड़ी एक मोटरसायकिल पर पड़ी जिस पर प्रेस लिखा हुआ था। बोरे और उत्तर पुस्तिकाओं वाला डर उसके भीतर तारी था इसलिये उसने दरवाज़े पर खड़े होकर भीतर की बातें सुनने का जोखि़म उठाया। उसने दरवाज़े पर कान सटाये और थोड़ी देर तक भीतर की बातें सुनीं। दरवाज़े की झिरी से उसने देखा एक युवक बीडीओ साहब से तल्ख़ आवाज़ में बातें कर रहा था। उसने थोड़ी देर तक रुक कर पूरी बात सुनने की कोशिश की कि कहीं उसके बोरे की बात तो नहीं हो रही। उसे एक पल को लगा कि उसी योजना की बात हो रही है। थोड़ी देर तक सुनने के बाद उसे पता चला कि वे दोनों ही बातें नहीं हो रहीं बल्कि किसी दोपहर के भोजन की बात हो रही है और उसे लेकर वह नवयुवक बीडीओ साहब को हड़का रहा है। बीडीओ साहब उसे कोई ख़बर रोकने के बदले कुछ पैसे देने की बात कर रहे थे। युवक कीमत बढ़ाने की बात कर रहा था। उसे लगा कि उस युवक के सामने बीडीओ साहब कितने कमज़ोर हैं। रामदयाल आश्वस्त हुआ कि उसकी बात नहीं हो रही है। वह वहां से निकल गया।
           
इस घटना का जि़क्र जब उसने अपने मित्र शम्भू से किया तो उसने अपना पुराना रोना रोया कि गांव रहने के लिहाज से बहुत गंदी जगह है और वह जल्दी ही इस गंदी जगह को छोड़ कर कहीं चला जायेगा। शहर ही उसकी पहली और अंतिम प्राथमिकता थी। कुंएं झांकना रामदयाल की सबसे पहली प्राथमिकता थी।

इसके बाद के दो कुओं में झांकने में उसे परेशानी हुयी थी। अपने गांव में और ब्लॉक के पहले तीन कुओं के बाद जब वह चौथे कुंएं के पास पहुंचा तो उसके पांव में कांटे चुभ चुके थे और उसकी धोती कंटीली झाडि़यों में फंसने से एकाध जगहों से चिर गयी थी। यह चौथा कुआँ उसके गांव से बाहर दो गांव छोड़ कर छह कोस की दूरी पर था। यह काली जी के मंदिर के पास था और इसके बारे में कहा जाता था कि वह अभिशप्त मंदिर था। यहां दर्शन करने वाला इंसान जिंदा नहीं बचता था। दरअसल किसी ने बहुत पहले दूषित ज़मीन पर यह मंदिर बनवा दिया था और काली मां ने उसे सपने में आकर दूसरी जगह पर मंदिर बनाने का आदेश दिया था। मंदिर फिर गांव में दूसरी जगह बनाया गया था और यहां की मूर्ति वहां स्थापित कर दी गयी थी। यह मंदिर खाली था और वहां की हवा में एक अजीब सी सरसराहट रहती थी जिसे सुनने पर पेशाब की हाजत लग जाने का भ्रम होता था। रामदयाल ने गांव के एकाध लोगों को अपने साथ आने के लिये मनुहार की थी लेकिन सबने कोई न कोई बहाना बना दिया था। डर उसे भी लग रहा था लेकिन जो असली डर था उसके सामने इस डर की कोई बिसात नहीं थी। जैसे ही वह कुएं की मुंडेर तक पहुंचा एक ज़बरदस्त बदबू का भभका उसकी नाक से टकराया। दुर्गन्ध इतनी भीषण थी कि वह अपनी नाक बंद करने पर मजबूर हो गया। एक हाथ से नाक बंद कर जब उसने कुंएं में झांका तो उसकी चीख निकल गयी। अंदर एक क्षत-विक्षत लाश पड़ी थी जो सिर्फ इस लिहाज से लड़की की कही जा सकती थी कि उसने फ्रॉकनुमा कोई पोशाक पहन रखी थी। ख़ौफ़ और हैरानी से उसकी उंगलियां नाक से हट गयीं और देर से सांस रोक कर रखने की बात भूल कर उसने घबराहट में एक ज़ोर की सांस खींची। बदबू का एक भभका उसके फेफड़े में समा गया और सुबह का खाया हुआ पूरा अचार और भात एक उबकाई के साथ बाहर आ गया।
            
पुलिस द्वारा जब लाश बाहर निकाली गयी तो पता चला कि वह सिरपत की आठ साल की बेटी की लाश थी जिसका सामूहिक बलात्कार किया गया था। सिरपत और उसकी पत्नी छाती पीट-पीट कर रो रहे थे और पूरा गांव सकते में था। क्योंकि वहां एकाध अख़बारवाले भी आ गये थे, पुलिस ने दावा किया कि दस दिन के अंदर अपराधी को पकड़ लिया जाएगा और उसको कड़ी सज़ा दी जाएगी। सिरपत की पत्नी को उसकी बेटी की लाश नहीं देखने दी गयी क्योंकि वह बर्दाश्त नहीं कर पाती। रामदयाल जानता था कि सिरपत को अब कभी रात को नींद नहीं आयेगी क्योंकि जैसे ही उसे नींद आने वाली होगी, उसे अपनी बेटी की विक्षत लाश दिखायी दे जाएगी। उसकी पत्नी हर रात रोयेगी और उससे पूछेगी कि उसने बेटी की शक्ल क्यों नहीं देखने दी। वह अपनी पत्नी को चुप कराने की कोशिश में ख़ुद भी रोने लगेगा और मन ही मन सोचेगा कि अगली सुबह वह थाने जाकर पूछेगा कि अपराधी कब तक पकड़े जाएंगे। अगली सुबह दारोगा उससे सुहानुभूति जताएगा और कहेगा कि गुनाहगार जल्द ही पकड़े जाएंगे। कुछ सबूत मिले हैं जिनके आधार पर तलाश की जा रही है और हफ्ते दस दिन में हत्यारे को पकड़ लिया जाएगा। वह सोचेगा कि वह जब अगले हफ्ते थाने जाएगा तो थाने में कुछ हत्यारों को पकड़ कर पुलिस ने हथकड़ी लगा कर रखा होगा। वह उनके गिरेबान पकड़ कर पूछेगा कि कैसे कोई इतना हैवान हो सकता है। गांव का प्रधान कुएं के आसपास के स्थान से झाडि़यां कटवा कर कुंएं की सफ़ाई करवा देगा। फिर किसी को कुत्ता काटेगा तो उसे इतना दहशतनाक और वीभत्स दृश्य नहीं देखना पड़ेगा।
            
पुजारी जी का कुआँ जब वह झांकने पहुंचा था तो उसे नहीं पता था कि कुएं झांकना भी इतना बड़ा और ख़तरनाक काम साबित हो सकता है। जितनी आसानी से उसने पहले तीन कुएं झांके थे, उसे अंदाज़ा भी नहीं था कि आगे के कुएं उसकी जि़ंदगी का सबसे ख़तरनाक अनुभव साबित होने वाले हैं। जब वह पहुंचा तो पुजारी जी संध्या कर रहे थे और उसे आंखों से इशारा किया कि वह उनके लकड़ी के दरवाज़े से दूर रहे। उसने पूरी आपबीती पुजारी जी को सुनायी तो पुजारी जी ज़ोरों से हंसने लगे।

‘‘करे दयलवा, दुनिया कहां से कहां जा रही है अउर तूं कुक्कुर काटने पर कुआँ झांक रहा है ? अरे पागल इंटरनेट का जमाना है रे...देख प्रधान जी अपने लड़का से कम्पूटर पर बतियाते हैं फोटो के साथ। जो सूई लगवावऽऽ।’’
            
रामदयाल पुजारी जी की आधुनिकता पर थोड़ा हैरान हुआ। इस बात का कुत्ते के काटने से कुछ मतलब नहीं था लेकिन पुजारी जी ने उसे कुछ और भी बातें बतायीं जैसे उनके बेटे की याद में मंदिर में अगले हफ्ते एक भण्डारे का आयोजन किया जायेगा जिसमें आस-पास के सभी गांवों के लोगों के लिये भोजन और मिठाई की व्यवस्था होगी। उसने फिर से कुआँ झांकने वाली बात कही तो पुजारी जी ने उसे झिड़क दिया।

‘‘अरे पागल, तुमको एकदम बुद्धि नहीं है का, तुम हमारे घर में घुसोगे ? अरे कुआँ बाहर रहता तो हमको परेशानी नहीं होता लेकिन उ आंगन में है न....।’’
            
उसने फिर बहस नहीं की। पुजारी जी अच्छे और मिलनसार आदमी थे और कभी किसी से ऊंची आवाज़ में बात नहीं करते थे। उनके बेटे की अभी हाल ही में ट्रेन से कट कर मौत हो गयी थी और पुजारी जी काफ़ी उदार से रहने लगे थे। उसने मन से इच्छा न होने के बावजूद सोचा कि अपने मित्र शम्भू की सलाह अनुसार रात को जब पुजारी जी मंदिर में कीर्तन में होंगे तो वह रात को चुपचाप उनके आंगन में जाकर कुआँ झांक आयेगा।
           
जब वह रात को पुजारी जी के घर पहुंचा तो लगभग आधा गांव मंदिर पर कीर्तन में व्यस्त था। शम्भू बाहर खड़ा था ताकि कोई आये तो वह सियार की आवाज़ निकाल कर उसे होशियार कर सके। चूंकि पुजारी जी के घर में सिर्फ उनकी पत्नी थी इसलिये रामदयाल को ज़्यादा फि़क्र नहीं थी। बहू कीर्तन के समय मंदिर में प्रसाद की व्यवस्था देखती थी। जब वह दरवाज़े से भीतर घुसा तो लालटेन पता नहीं क्यों बुझायी जा चुकी थी और घुप्प सन्नाटा था। जैसे ही उसने कुएं की तरफ पहला कदम बढ़ाया कि उसे किसी के कराहने की आवाज़ सुनाई दी। उसके कदम अपने आप आवाज़ की दिशा में उठ गये। पुजारी जी के कमरे से लगी जो भूसा रखने वाली कोठरी थी उसमें से किसी आदमी के कराहने की आवाज़ आ रही थी। रामदयाल ने चांद की रोशनी में देखा की दरवाज़े की सांकल चढ़ी हुयी है। भीतर से कांपती हुयी रोने की आवाज़ रात को रहस्यमय बना रही थी। हवा ठंडी थी और रामदयाल की गर्दन पर पसीने की बूंदें मोतियों की तरह चमक रही थीं। उसके पांव धीरे-धीरे कांप रहे थे क्योंकि वह कराहने की आवाज़ उसे पहचानी हुयी लग रही थी। उसने पवनसुत हनुमान का नाम लेकर सांकल उतार दी और भूसे भरे कोठरी में बाहर से ही खड़ा आंखें फाड़ कर देखने लगा।
           
शम्भू को यह तो पता नहीं चला कि रामदयाल भीतर से भागता हुआ क्यों आ रहा है लेकिन वह समझ गया कि मामला ज़रूर कुछ गड़बड़ हो गया है। शायद पंडिताइन ने उसे कुआँ झांकते देख लिया है। दोनों भागते रहे और तालाब के पास जाकर रामदयाल धम्म से ज़मीन पर बैठ गया।

‘‘काहे भाग रहे हो ? भूत देख लिये क्या ?’’ शम्भू ने हांफते हुये टूटी आवाज़ में पूछा।
           
रामदयाल ने जवाब में जो कहा उसे सुनकर शम्भू पहले तो मुस्कराया कि रामदयाल पागल हो गया है। फिर वह हंसने लगा कि रामदयाल को कुत्ते काटने से जो बीमारी होती है वह हो गयी है और वह उलजुलूल बक रहा है। थोड़ी देर हंसने के बाद वह अचानक गंभीर हो गया और उसके चेहरे पर भयानक चिंता और सुरसुराते डर के भाव हावी हो गये।

‘‘जोगलाल जिंदा है ?’’

‘‘हां, हमने अपनी आंखों से देखा। अधमरे जैसा....पहले हमने सोचा कि वह जोगलाल का भूत है। हम डर के मारे वहीं चक्कर खाकर गिर जाते लेकिन फिर हमारी नजर उसके माथे पर गयी। वहां से खून चू रहा था।’’

‘‘बाप रे....।’’ शम्भू डरता-डरता अचानक कहने लग रहा था कि उसे डर तो लग रहा है लेकिन पूरी तरह से विश्वास अभी भी नहीं हो रहा।

‘‘हम जब दरवाजा खोले तो वह कहने लगा कि हमको बचा लो। हमको बाबू ने दो महीने से बांध कर रखा है। हमारा हाथ-पांव खोल दो। उसकी आवाज बहुत भयंकर थी। वो ऐसी बात बोला कि हम कांप उठे....। हम अभी सोच ही रहे थे कि क्या करें कि पंडिताइन की आवाज सुनायी दी और हम सांकल चढ़ा कर वहां से भाग लिये।

‘‘क्या बात बोला...?’’ शम्भू ने पूछा। ‘‘और भागते हुये कुंआं झांके कि नहीं ?’’

‘‘कुएं की बात तो दिमाग से एकदम निकल गयी थी लेकिन कुएं की जगत छोटी है इसलिये भागते हुये उसके बगल से भागे तो हमारी परछांई उसमें बनी और अपने आप झांकना हो गया।’’

‘‘क्या कहा जोगलाल ने...?....अउर ऊ जिंदा कइसे हो सकता है ?’’ शम्भू अब भी संशय में था। पंडित जी ने दो महीने पहले ट्रेन से कट कर मरे जोगलाल की ख़ुद पुलिस थाने में पहचान की थी और पूरे सम्मान से उसका अंतिम संस्कार किया था।

‘‘जोगलाल ने कहा कि बाबूजी ने कजरी को रख लिया है और चाहते हैं कि हम खुद मर जाएं ताकि उनको पाप न लगे।’’ बोलते हुये रामदयाल के शरीर में फिर एक बार वही झुरझुरी दौड़ गयी।

‘‘बकवास है..........।’’ शम्भू चिल्लाया और झटके से खड़ा हो गया मगर थोड़ी देर बार अपने आप में भुनभुनाने लगा। ‘‘आधी बात तो हम मान सकते हैं लेकिन अपने बेटे को.....अपने सगे बेटे को....हे शिवशंकर...एक औरत के लिये.....हे विधाता....हे दीनदायल....हे रघुनंदन।’’ रामदयाल समझ गया कि शम्भु को इस बात का गहरा सदमा पहुंचा है। जोगलाल उसका अच्छा मित्र था और पंडित ठाकुरों वाले चोंचले उसके भीतर बिल्कुल भी नहीं थे। वह मस्त रहता था और हमेशा हंसी मज़ाक करना उसकी आदत में शामिल था। जब वह दूसरे गांव से कजरी को अचानक एक दिन ब्याह लाया था तो पूरा गांव उसका परियों जैसा रूप-रंग देखकर भौंचक था। पंडित जी पहले तो बहुत चिल्लाये थे और उसे घर से निकाल दिया था लेकिन जब कजरी ने रोकर उनके पांव पकड़ लिये तो उनका मन पसीज गया था। कजरी ब्राह्मण न होने के बावजूद बहुत बहुत धार्मिक निकली थी और पंडित जी के लिये यह बहुत बड़ाई वाली बात थी। धीरे-धीरे वह कजरी को मानने लगे थे। लेकिन अभी दो महीने पहले जब जोगलाल शहर से काम की तलाश कर वापस आ रहा था कि उसकी ट्रेन से कटने से मौत हो गयी थी। कहा गया था कि वह कान में इयरफोन लगाये अपने मोबाइल पर गाना सुन रहा था इसलिये ट्रेन की सीटी नहीं सुन पाया। पंडित जी बहुत रोये थे, कजरी दहाड़ें मार-मार कर चीखती रही थी लेकिन पंडिताइन बुत बनी बैठी रही थीं। लाश इंजन में फंस कर दूर तक घिसटती गयी थी और लाश की हालत ऐसी हो गयी थी कि उसे अंदाज़े से सिर्फ़ मां-बाप पहचान सकते थे या फिर पत्नी। शिनाख्त पंडित जी ने की थी और पूरा गांव इस बात पर हैरान था कि पंडिताइन इतनी कठकरेजिन निकली थीं कि उन्होंने एक आंसू नहीं बहाया था। जोगलाल के बाद ससुर और बहू पूरी तरह से धार्मिक बन गये थे और दिन का बड़ा हिस्सा मंदिर में ही बिताया करते थे। कजरी हमेशा सफे़द साड़ी पहनती और गुमसुम रहती थी लेकिन उसका सौंदर्य दिन प्रति दिन निखरता जा रहा था।
            
शम्भु ने आक्रोशित होकर कहा कि वह पंडित जी के घर में आग लगा देगा तो रामदयाल उसका कंधा सहलाने लगा।
‘‘गांव नरक हो गया है यार...। एकदम नरक...रहने लायक नहीं रहा।’’ शम्भू ने भरे गले से कहा। रामदयाल ने हामी भरी। शम्भू बोलता रहा।

‘‘सहर कुछ भी हो गांव से बहुत अच्छा है भाई...बहुत अच्छा। सब खुलेआम होता है कम से कम...इतनी गंदगी नहीं है वहां...उफ्फ...घिन आ रही है गांव से....।’’ शम्भू बहुत कुछ कहता रहा और दोनों बीडि़यां पीते रहे।

दोनों ने नौ-नौ करके अठारह बीडि़यां पी और अपने घरों की ओर चले गये। रात पूर्णमासी की थी और उनकी परछाइंया दूर से देखने पर ऐसी लग रही थी जैसे दो दानव रात पर कब्ज़ा करने जा रहे हों।
            
अगले दिन उसने अपने दफ्तर में छुट्टी की दरख्वास्त जमा की और फिर से किशन के घर पहुंचा। उसने छठवां कुंआं किशन की मदद से झांकने की सोची थी और पहुंचने पर किशन ने उसकी पूरी मदद करने का निश्चय किया। यह तय रहा कि कल चल कर डॉक्टर के यहां किशन पहले उसे कुत्ते के काटने पर लगवायी जाने वाली सुई लगवायेगा फिर कुओं के बारे में सोचा जायेगा।
            
अगले दिन डॉक्टर से सुई लगवाने के बाद किशन उसे लेकर उस छोटे से कस्बे में इधर-उधर कुएं खोजता रहा। कस्बा आधुनिक होने के लिये मचल रहा था और उसने कुओं को अपने पेट में कहीं छिपा लिया था। हर जगह कोई इमारत बनती दिखायी देती थी और कुआँ तो दूर कहीं नल तक नहीं दिखायी देता था। जल्दी ही यहां पानी के ठेले वाले एक रुपये में ठंडा शीतल जल पिलाने के लिये अवतार लेने वाले थे।

‘‘मैंने इस एरिये में कुआँ देखा था एकाध साल पहले लेकिन सही जगह नहीं याद आ रही है।’’ थक कर एक चाय की दुकान पर बैठते हुये किशन ने कहा। वह भी साथ में बैठ गया। उसे लगा कि वह बेकार में अब तक किशन को भाग कर शादी करने के लिये मन में कोसता रहा है। वह कितना अच्छा इंसान है, उसकी कितनी मदद कर रहा है। उसने चाय वाले से कुंए के बारे में पूछा तो उसने अनभिज्ञता ज़ाहिर की और बताया कि वहां से सात-आठ किलोमीटर दूर एक मंदिर है जहां पहले एक कुआँ था जो अब जादुई कुआँ बन गया है जिसमें झांकने से सारे पाप धुल जाते हैं और सारी बीमारियां ठीक हो जाती हैं।
            
दोनों ने पहली बार इस कुएं के बारे में सुना था। किशन को आश्चर्य हुआ कि इसी कस्बे में रहकर कभी उसने इस कुएं के बारे में क्यों नहीं सुना। दोनों ने वहां के लिये जीप पकड़ी और किशन ने कहा कि अगर वाकई ऐसा है तो वह अपनी पत्नी को भी ले आयेगा ताकि उसके श्वेत प्रदर की बीमारी ठीक हो जाये। रामदयाल को श्वेत प्रदर का अर्थ नहीं पता था लेकिन उसने सोचा कि वह कुएं में झांकने के बाद इसके बारे में पूछेगा।
            
जिस मंदिर के पास वह कुआँ था वहां दूर-दूर तक मेला लगा हुआ था। कुएं की जगत को झंडियों और झालरों से सजाया गया था और लाउडस्पीकर पर रामकथा चल रही थी जिसमें कोई ज्ञानी गा-गाकर बता रहा था कि राम और भरत सगे भाई न होकर भी दुनिया के सबसे अच्छे भाई थे और वैसे भाई आजकल मिलना मुश्किल है। मंदिर के पुजारी जी मंदिर के द्वार पर एक चैकी पर बैठे थे और अपने चेले इंद्रासन तिवारी से, जो कि बलात्कार के आरोप में जमानत पर छूटने के बाद एकदम धार्मिक और वैरागी हो गया था, पर्चियां कटवा रहे थे। पर्चियों के अनुसार व्यक्ति का नाम पुकारा जाता और वह अपने साथ वाले मरीज़ को लेकर पंडित जी के पास आता। उनके साथ नरोत्तम नाम का पंडित जी का दूसरा शिष्य जो सावन और नवरात्रि में मांस, मदिरा, छिनैती और वेश्याओं की पूरी तरह उपेक्षा करता था, जाता और कंटीली बाड़ से घिरे कुएं के क्षेत्र में मरीज़ और उसके साथ के व्यक्ति को प्रवेश कराता। इस समय उसकी ख़ास जि़म्मेदारी होती कि कुएं में सिर्फ़ मरी़ज़ ही झांक पाए जिसके नाम पर दो हज़ार रुपये के शुल्क की पर्ची कटवायी गयी होती थी। अक्सर बिना पर्ची कटवाए ही मरीज़ के साथ आया व्यक्ति भी उचक कर कुएं में झांककर अपनी बीमारी का इलाज़ कर लेना चाहता था। यहां से नरोत्तम की दूसरी भूमिका शुरू होती थी। वह समझ जाता था कि गठिया या मिर्गी के रोगी के साथ आये इस व्यक्ति को ज़रूर कोई गुप्त रोग है जिसका इलाज़ तो उसे चाहिये लेकिन किसी से बताना नहीं चाहता। वह बाहर निकलते समय उस व्यक्ति को भरोसे में लेता था और कुछ ही दिनों बाद वह व्यक्ति भी पर्ची कटवाने पहुँच जाता था। कुएं के पास एक व्यक्ति चौबीसों घण्टे बैठा रहता था जो रस्सी में बंधा लोटा कुएं में डालकर एक लोटा पानी निकालता था और उसमें से एक चुल्लू निकाल कर मरीज के ऊपर छिड़कता था। मरीज़ के साथ वाले व्यक्ति पर उसके छींटें न पड़े, इसका चिंता पहले से नरोत्तम करता ही था और वह मरीज़ के साथ आये व्यक्ति को पीछे रहिये, पीछे रहिये, बस बस इसके आगे मत जाइयेकह कर और पीछे धकेल कर उसे पानी के छींटों से वंचित कर देता था। कुएं के पास बैठे व्यक्ति की ड्यूटी हर आठ घण्टे पर बदलती थी और उनका मानना था कि आठ घण्टे एक जगह बैठने के लिये दो हज़ार रुपये की तनख्वाह काफ़ी कम है। पण्डित जी के इस तर्क की ‘‘यह पैसा तो बस खर्चे पानी के लिये है, असली कमाई तो वह पुण्य है जो मरीज़ों की सेवा से मिल रहा है’’ शिफ्ट में काम करने वाले तीनों कर्मचारियों को अब तक कोई काट नहीं सूझी थी। उनमें से दो तो दुनियादार थे और पण्डित जी को क़ायदे से पहचानते थे और इस काम को कोरम की तरह पूरा करते थे लेकिन तीसरा व्यक्ति कुछ अधिक ही धार्मिक था और हर समय इस जुगत में रहता था कि अगर किसी तरह वह दो हज़ार रुपये बचा सकता तो पर्ची कटवा कर वह भी अपनी बीमारी से छुटकारा पा लेता। वहां कांटेदार बाड़ के पास एक बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था - ‘‘बिना शुल्क दीये यदि आप चामत्कारी जल की बुंदे पा भी जायें तो कोई लाभ नहीं। प्रभू के दरबार में बेइमानी न करें, पुर्ण शूल्क देकर ही जल का लाभ प्राप्त करैं - आज्ञा से, पंडित अरुण शीत महाराज पूर्णयोगि’’
            
मंदिर के आसपास मेला लगा हुआ था और वहां गोलगप्पे का भी ठेला लगाने के लिये पंडित जी को कुछ पैसे देने पड़ते थे यानि मंदिर में कुछ दान-पुण्य करके पुण्य अर्जित करना पड़ता था। जो लोग दान-पुण्य करने में कमज़ोर साबित होते थे उन्हें कुछ मरीज़ों को जुटा कर लाना पड़ता था जिन्हें कोई असाध्य टाइप की बीमारी हो। नगर निगम और नगर पालिका जैसे नामों वाली संस्थाओं में काम करने वाले सभी लोग आस्तिक थे और प्रभु की किसी भी लीला में टांग अड़ाकर अपना अहित करवाने की हिम्मत किसी में नहीं थी। मंदिर के बाहर बने तंबुओं में उन अख़बारों की कटिंग लटकाई गयी थी जिसमें इस कुएं की महिमा का वर्णन था। चमत्कारिक कुएं ने किया कैंसर के मरीज़ को स्वस्थ‘, ‘आस्था का केंद्र बना श्रीराम का आशीष प्राप्त कुआँया चमत्कारी कुएं का पानी पीकर बोलने लगा जन्म से गूंगाजैसे शीर्षकों से ख़बरें छपी थीं जो पंडित जी को ख़ासी महंगी पड़ी थीं इसलिये उन्होंने लालची पत्रकारों को ज़्यादा तवज्जो न देकर एक बार में ही सभी अख़बारों में छपवायी गयीं ख़बरें काट ली थीं और मढ़वा कर उस तंबू में लटकवा दिया था जहां पर्चियां कटती थीं। पंडित जी का आरोप था कि पत्रकार जिन्होंने ये ख़बरें छापी हैं, उनमें ज़रा भी शराफ़त (यहां शराफ़त से उनका अर्थ प्रोफ़ेशनलिज़्म था) नहीं है और ये लोग एक बार ख़बर छाप कर कई बार पैसे ऐंठने की जुगत में लगे रहते हैं। ईमानदारी का ज़माना नहीं रह गया था जैसा कि कुछ साल पहले तक था जब पत्रकार कर्मठ और ईमानदार हुआ करते थे। पंडित जी बताते हैं कि अभी कुछ ही साल पहले तक, जब ईश्वर के चमत्कार से एक तालाब में उन्होंने बीमारियां दूर करने वाले गुण खोजे थे, पत्रकार इतने ईमानदार थे कि एक ख़बर के लिये सिर्फ़ एक बार धन की मांग करते थे। कुछ तो इतने ईमानदार थे कि पैसे तक नहीं मांगते थे और ख़ुद मरीज़ ले आने में पंडित जी की सहायता करने लगते थे। बदले में वे ईमानदार लोग सिर्फ़ पंद्रह या बीस प्रतिशत पर आगे भी काम करने को तैयार हो जाते थे। हालांकि कुछ बेईमान नास्तिक पत्रकार तब भी थे जिनमें से एक ने पुलिस को भड़का कर इन नेक काम में बाधा डाल ही दी थी लेकिन पंडित जी को गिरफ्तार करने वाले तीन पुलिकर्मियों में से कोई आबाद नहीं बचा। पंडित जी बताते हैं कि एक का बेटा लापता हो गया और दूसरे की पत्नी उसे छोड़कर प्रेमी के साथ भाग गयी। गिरफ्तारी में जो मुख्य पुलिसकर्मी था, उसके तो पूरे परिवार की सड़क दुर्घटना में मौत हो गयी। इस घटना के बाद से पंडित जी कोई भी चमत्कार करने से पहले सभी पत्रकारों और संबंधित थाने के कर्मचारियों को वशीकरण के द्वारा वश में करके ही काम आगे बढ़ाते थे।
            
रामदयाल और किशन जब यहां पहुंचे तो यहां की भव्यता देखकर चकित हो गये। रामदयाल तो काफ़ी घबरा गया और वहां से चलने की बात करने लगा। किशन ने उससे कहा कि थोड़ी देर देख लेते हैं और पंडित जी के चेले से मिल कर बात करने की कोशिश करते हैं क्योंकि उन्हें कौन सा कुएं का पानी चाहिये। किशन ने एक दो लोगों की मदद से तंबू में घुसने में इसलिये सफ़लता प्राप्त कर ली क्योंकि दो बज गये थे और दोपहर के भोजन का वक़्त हो गया था। कुएं के पास बैठने वाला कर्मचारी तो वहीं बैठा था लेकिन पंडित जी और अन्य कर्मचारी आधे घण्टे के लिये खाना पानी और प्रभु की भक्ति का नशा वगैरह करने चले गये थे। तंबू में पहले तो उन्हें साफ़ मना कर दिया गया लेकिन सौ रुपये देने पर बात इस पर तय रही कि लंच के समय में ही आठ सौ रुपये देने पर रामदयाल को चुपके से कुएं में झांकने का मौका दे दिया जायेगा पर उनके ऊपर जल नहीं छिड़का जायेगा। किशन तुरंत तैयार हो गया। वह वहां की भव्यता देखकर प्रभावित हो गया था लेकिन रामदयाल की जेब में सिर्फ़ छह सौ रुपये थे और वह इन्हें खर्च करने के पक्ष में नहीं था।
‘‘और एकाध जगह देखें तो शायद कोई कुआँ मिल जाये।’’ उसने धीरे से किशन से कहा। किशन ने उसकी बात नहीं सुनी और सारी सेटिंग करते हुये दस मिनट के भीतर ही दोनों कुएं के पास थे। रामदयाल ने कुएं में झांका और किशन ने अपने पैसे मिलाकर आठ सौ रुपये का बिल चुकता किया। बाहर निकल कर वह पूरा समय वहां आये मरीज़ों से यह पूछता रहा कि उनमें से कितने वहां पहले भी आ चुके हैं और कितनों की बीमारी वहां के पानी से ठीक हुयी है। उसके सर्वे का परिणाम अच्छा रहा और उसने तय किया कि कल ही वह अपनी पत्नी को लेकर वहां आयेगा ताकि उसकी श्वेत प्रदर की बीमारी ठीक हो जाय।

‘‘श्वेत प्रदर कौन सी बीमारी होती है ?’’ रामदयाल ने उससे पूछा तो वह बुरी तरह उदास हो गया।

‘‘ये एक ऐसी बीमारी होती है जिसमें सभी अरमानों पर सफ़ेद पानी फिर जाता है।’’ उसने आसमान में देखते हुये कहा। साथ में उसने यह भी जोड़ा कि आदमी प्रेम करके विवाह करे या घरवालों की मर्जी से, दोनों दरअसल अलग-अगल श्रेणी के चूतियापे ही हैं लेकिन प्रेम विवाह अधिक बड़ा चूतियापा है। प्रेम विवाह वालों जैसी ही राय वह भी रखते थे जिनकी शादी घरवालों की रज़ामंदी से हुयी होती थी। दोनों ने अपने गांव के दिनों को याद किया जब वे खेतों में तम्बाकू पीते हुये गांव के बारे में बातें किया करते थे। रामदयाल अगली फसल में पूरी जीजान लगाने की बात किया करता था और किशन गांव की किसी ताज़ा-ताज़ा जवान हुयी लड़की को भोगने के सपने देखा करता था। छठवां कुआँ झांक लेने के ख़याल से रामदयाल बहुत ख़ुश था और उसने किशन के पीने के प्रस्ताव को मना नहीं किया जबकि इसके पहले पांच बार उसने सिर्फ़ किशन के साथ ही पी थी।
           
दोनों जब कस्बे से बाहर किसी गांव के रास्ते पर एक सूखे कुएं की जगत पर बैठ कर पी रहे थे और आधी माधुरी ख़त्म हो गयी थी, किशन ने एक ऐसी बात कही जिससे रामदयाल का नशा बिना सीढ़ीयों के ही उतरने लगा। पहले उसने अपनी पत्नी के बारे में कुछ बातें कीं और फिर अचानक चिल्लाया।

‘‘दुनिया की सभी औरतें कमीनी होती हैं ?’’

‘‘क्यों ?’’ रामदयाल ने उत्सुकता व्यक्त की।

किशन ने जो रामकहानी सुनायी उसका सारांश यह था कि ऑटो स्टैण्ड पर उससे एक महिला मिली थी जिससे उसकी कभी-कभी मोबाइल पर बात होती थी। उसे वह महिला अच्छी लगने लगी और वह छिप-छिप कर मोबाइल पर कुछ अधिक ही बातें करने लगा था। दोनों कई बार मिल चुके थे और उस महिला को भी उसके साथ वक़्त बिताना अच्छा लगने लगा था। मोबाइल पर बातें करने के बाद वह कॉल डिटेल्स मिटा दिया करता था लेकिन एक दिन जब वह पैखाने में था, उस महिला का कॉल आ गया जो उसकी पत्नी ने उठा लिया और तब से पति-पत्नी के बीच तनाव चल रहा है।

‘‘जानते हो दोस्त, मैं इतना सीधा और सरल हूं कि पकड़ा गया नहीं तो मेरे साथ कितने ऑटो चलाने वालों ने दो-दो रखी हैं और उन्हें उनकी बीवियां कभी नहीं पकड़ सकतीं। इतने चालू हैं वे....।’’ उसे अपने सीधे होने पर दुख हो रहा था और अन्य ऑटो चालकों के चालूपने के कारण वह रुंआसा हो चला था। रामदयाल उसके कंधे पर हाथ रख कर सांत्वना देता रहा। किशन ने अपना दुखड़ा रोना चालू रखा और माधुरी की दूसरी बोतल खुल गयी थी।

‘‘जानते हो, एक तो मैं पड़ जाता हूं सीधा और दूसरे मेरी पत्नी है बहुत तेज। औरतें तीन तरह की होती हैं.....।’’ इसके बाद उसने तीन तरह की महिलाओं की श्रेणी बतायी जिसे सुनते वक़्त रामदयाल सिर्फ़ यह सोचता रहा कि उसकी पत्नी किस श्रेणी में आती है।

‘‘.........और तीसरी तरह की महिलाएं वे होती हैं जो दिमाग से बहुत तेज होती हैं और उनमें भावना नाम की कोई चीज़ नहीं होती जैसी मेरी पत्नी है। उसे अपने पति पर जरा भी विश्वास नहीं....। शर्म आनी चाहिये उसे...।’’ वह बाकायदा रोने लगा और अपनी पत्नी की इस स्थिति का जि़म्मेदार इस कस्बे को बताने लगा।

‘‘जानते हो बिरादर आदमी या तो गांव में रहे या तो सहर में। ये साला हिजड़ों की तरह इस झांटू कस्बे में रहने से ही सब गड़बड़ हुई है। यहां कोई आदमी किसी औरत से बात कर ले बस्स...हो गया बवाल। सहर में कम से कम इस पर कोई रोकटोक तो नहीं और गांव में भी जिसे मन करे वो रात को...।’’

रामदयाल ने प्रतिवाद किया कि उसके हिसाब से कस्बा ही रहने के लिये सबसे मुफ़ीद जगह है तो किशन भड़क गया।
‘‘कस्बों में सबसे बड़ी दिक्कत होती है बिरादर की वे एक पिछड़ी औरत की तरह अपटूडेट होने का नाटक तो करते हैं लेकिन होते नहीं। साला यहां पानी, बिजली, हगना, मूतना हर चीज का पैसा देना पड़ता है लेकिन सुविधा एक नहीं। हवा, पानी, सब्जी आदमी हर चीज में मिलावट...। देखना मैं किसी दिन यह घटिया जगह छोड़ कर अपने गांव चला जाउंगा या फिर किसी बड़े सहर...मेरी बीवी साली...।’’’

 रामदयाल को लगा कि किशन अपनी बीवी से बहुत नाराज़ है तो उसने उसका गम हल्का करने के लिये अपनी पत्नी का विषय प्रस्तुत कर दिया। उसकी पत्नी का नाम सुनते ही किशन, जो कि होश में एकदम गऊ टाइप की चीज़ हुआ करता था, भड़क गया और चिल्लाने लगा।

‘‘तुम तो साले मिट्टी के माधो हो, तुम्हारी बीवी तुम्हारे भाई से फंसी है और तुम्हें ख़बर ही नहीं....।’’ यह कहकर उसने दूसरी ओर मुंह कर लिया। रामदयाल ने सोचा कि अधिक पीने और अपनी पत्नी से दुखी होने के कारण किशन को दुनिया की सारी पत्नियां बेवफ़ा नज़र आ रही हैं। उसने किशन से पूछा कि सातवां कुआँ कहां मिलेगा। किशन ने उसे गाली देने के बाद अपनी बोतल, जिसमें थोड़ी सी माधुरी बची हुयी थी, घुमा कर फेंक दी जो एक पत्थर से टकराकर टूट गयी और पास ही निश्चिंतता से सोया एक खजुहट वाला कुत्ता चिहुंक कर भाग गया। किशन ने बताया कि सातवें कुएं के लिये उसे शहर जाना पड़ेगा क्योंकि उसकी जानकारी में अब कोई कुआँ नहीं बचा। रामदयाल ने कहा कि कल सुबह वह गांव जाकर कुछ पैसों का बंदोबस्त करेगा उसके बाद शहर के लिये निकलेगा।
            
शहर में रामदयाल के गांव के मुखिया का बेटा रहता था जो वहां हर किसी को यही बताया करता था कि उसका पुश्तैनी घर इस शहर से थोड़ी दूर एक कस्बे में है। भूल से भी अपने गांव का नाम वह नहीं लेता था और अपने घर के किसी भी सदस्य को उसने शहर में उसके कमरे पर आने के लिये मना कर रखा था। मुखिया जी से जब रामदयाल ने उनके बेटे का पता मांगा तो उन्होंने सहर्ष दे दिया क्योंकि वह जानना चाहते थे कि उनका इंजीनियर बेटा हाथ से निकला है तो आखि़र कितना निकला है। उसी हिसाब से उन्हें आगे की रणनीति तय करनी थी जिसमें बेटे का विवाह वग़ैरह एक राजनीतिक घर में तय करके उन्हें अगले साल विधायकी का चुनाव लड़ना था।
           
जब वह मुखिया जी के घर से अपने घर पहुंचा तो उसका बेटा दुआर पर पड़े खटिये पर सो गया था और उसकी पत्नी नदारत थी। वह पत्नी को खोजता घर के भीतर गया और पलानी तक में खोज आया। उसका कहीं नामोनिशान न पाकर वह खलिहान की तरफ़ निकल गया। रात का अंधेरा घिर आया था और उसने देखा कि खलिहान के पास जो ट्यूबवेल है उसके हौदे की जगत पर उसकी पत्नी की साड़ी पड़ी है। उसे लगा कि उसकी पत्नी का पेट फिर से ख़राब हो गया है और वह चिंतित हो गया। उसने कदम साड़ी की ओर बढ़ाये ही थे कि ट्यूबवेल के मशीन वाले कमरे से फुसफुसाने की आवाज़ें आने लगीं। यह उसके भाई की आवाज़ थी।

‘‘हमारी आलता की सीसी, तुम आज बहुत नखरे दिखा रही हो। जब तक पूरे कपड़े नहीं उतारोगी हम आज शुरू ही नहीं करेंगे।’’

‘‘तुम तो एकदम जंगली हो जाते हो, पूरे कपड़े उतारने का मतलब है पहनने के लिये कम से कम पंद्रह मिनट चाहियें। इतने में अगर वो आ गये तो....? ऐसे ही करो ना।’’ यह उसकी पत्नी की आवाज़ थी जिसमें मनुहार था।

‘‘नहीं रानी, आज दिये की रोशनी में तुम्हारे एक-एक अंग को निहारना और चूमना चाहता हूं....उतारो ना।’’ भाई ने फिर से मनुहार किया और एक के बाद एक पुच्च-पुच्च की छह सात आवाज़ें आयीं।

‘‘जाओ पहले मेरी साड़ी ले आओ बाहर से, सूख गयी होगी।’’ उसकी पत्नी ने ऐसी आवाज़ में कहा मानो वह सामने वाले को तड़पाना और चिढ़ाना चाहती है और इस प्रक्रिया का ज़रूरत से ज़्यादा आनंद उठा रही है। उसकी ऐसी आवाज़ सुनकर रामदयाल को सबसे अधिक दुख हुआ।

‘‘मैं यहां जो है वह भी उतारने की बात कर रहा हूं और तुम हो कि साड़ी मंगा रही हो....रुक जाओ बताता हूं।’’

इसके बाद जो आवाज़ें आयीं वो भाई के सांसों की ज़ोर-ज़ोर से चलने की थीं, उसकी पत्नी के हंसने की थीं और भाई को बार-बार जंगली और जानवर कहने की थी। थोड़ी देर बाद सारी आवाज़ें बंद हो गयीं और दोनों के हांफने की आवाज़ें आने लगीं। पत्नी के ज़ोर से चिल्लाने की आवाज़ आयी जैसा कि चरम के क्षणों में पहुँचने से पहले वह चिल्लाया करती थी और उसकी चिल्लाहट सुनकर वह अब भी अपनी गति रोक देता था जिसके कारण उसे पत्नी की गालियां सुननी पड़ती थीं। पत्नी चिल्ला-चिल्ला कर कह रही थी, ‘‘धीरे से, धीरे से...’’ लेकिन उसकी कराहट थी कि बढ़ती ही जा रही थी। आखि़र थोड़ी देर में उसके अपनी पत्नी के इतने ज़ोर से कराहने की आवाज़ आयी जैसा उसके साथ कभी नहीं आयी थी। उस कराह में अपूर्व संतुष्टि थी और कुछ पा जाने का सुख। उसे याद आया कि वह पत्नी की बिस्तर पर शीशे के सामान की तरह परवाह किया करता था जिसके कारण पत्नी उसे हमेशा ताना देती थी। उसने पत्नी की साड़ी, जिधर से कम सूखी थी, पलट कर फैला दी ताकि जल्दी सूख जाये और वहां से चला आया।
            
सुबह जब वह खेतों से वापस आ रहा था तो उसने देखा कि उसके भाई ने उसकी ज़मीन में कांटो की बाड़ लगा दी है और गांव के काफी लोग जो वहां एकत्र हैं आपस में खुसर-फुसर कर रहे हैं। वह वहां पहुंचा तो भाई सबको बता रहा था कि गांव के कुछ लोगों की उसके भाई की ज़मीन पर नज़र है इसलिये वह उसकी रक्षा कर रहा है। उसने लोटा हाथ में लिये-लिये भाई से बाड़ लगाने की वजह पूछी। भाई उसका हाथ पकड़ कर किनारे ले गया और फुसफसाहट में बोला।
‘‘भइया आप तो आजकल कुएं झांकने में लगे हैं और आपको पता ही नहीं कि आपके खेत पर कितने हरामजादों की गंदी नजरें लगी हुयी हैं। मैं इसीलिये इसको अपने खेत के साथ जोड़ रहा हूँ कि अपने खेत के साथ-साथ आपके खेत की भी रक्षा करता रहूंगा।’’ वह अपने खेतों की ओर ताकने लगा। उसका पूरा खेत भाई ने घेर लिया था। खेतों की सीमा देखते हुये उसकी नज़र पत्नी पर पड़ी तो उसने देखा कि पत्नी नफ़रत भरी नज़रों से भाई की तरफ़ देख रही है। उसे लगा कि उसने रात कोई बुरा सपना देखा था। उसका ध्यान नहीं गया कि उसकी पत्नी उसके भाई के हिस्से वाले खेत में खड़ी थी।
            
उसका भाई खेती करने के साथ लोहे का काम भी करता था और उसने पत्नी के समझाने पर शहर निकलने से पहले भाई से अकेले में बात करने का निश्चय किया। पत्नी ने कहा था कि आज अगर उसने अपने भाई से साफ़-साफ़ बात नहीं की तो वह उसे छोड़ कर चली जाएगी। वह समझ गया था कि वह कमज़ोर जानवर है और उसकी पत्नी को जंगली जानवर पसंद हैं, इसलिये वह उसके पास अधिक दिन तक नहीं टिकने वाली। वह किसी से भी लड़ने के पक्ष में नहीं था और दूसरे यह कि वह जानता था कि वह किसी से भी लड़ेगा तो हार जायेगा। बचपन से जि़ंदगी की हर लड़ाई में हारते-हारते उसकी फि़तरत कुछ ऐसी हो गयी थी कि लड़ने से पहले ही वह हार मान लेने में ही अपनी भलाई समझता था। जब वह अपने भाई के लोहा कूटने वाले अड्डे पर पहुंचा तो देखा कि उसका बेटा लोहा कूटने में उसकी मदद कर रहा था। धौंकनी चल रही थी और वहां पहुंचते ही उसकी हृदयगति भी धौंकनी की तरह ही चलने लगी। उसने कहा कि थोड़ी देर के लिये वह अपने बेटे को बगीचे में भेज दे क्योंकि उसे कुछ व्यक्तिगत बातें करनी है। चचेरे भाई ने कहा कि उसका बेटा अपनी उम्र से काफ़ी समझदार है और उसके सामने सारी बातें की जा सकती हैं। उसने फिर इस बात के लिये ज़ोर दिया तो उसके भाई ने कहा कि उसका बेटा इस साल सातवीं कक्षा में गया है और दो बार से वह पूरी कक्षा में पहला आ रहा है इसी बात से उसके दिमाग का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। उसने बात शुरू करते हुये कहा कि वह अपने खेतों की रक्षा कर सकता है और उसे उसमें लगायी गयी कांटों की बाड़ हटा लेनी चाहिये। भाई ने कहा कि वह जब भी कहेगा और उसे कुछ बोना या जोतना होगा वह बाड़ हटा लेगा लेकिन तक तक ऐसा ही रहना चाहिये क्योंकि कुछ लोगों की बुरी नज़र उसके खेत पर है। चूंकि वह बहुत सीधा आदमी है, लोग उसके खेत को हड़प सकते हैं। भाई ने अपने बारे में कहा कि वह ताक़तवर है इसलिये उसके खेत पर अगर किसी ने नज़र डाली तो वह रात को सोते में ही उस आदमी के घर में घुस कर हथौड़े से उसको कूंच डालेगा।

 उसने भाई के हथौड़े को गहरी नज़र से देखा और उससे कहा कि देवर और भाभी का संबंध मां और बेटे का होता है। इसके लिये उसने रामचरितमानस नाम की एक लोकप्रिय कहानी की किताब से लक्ष्मण और सीता नाम के दो पात्रों की कहानी सुनायी। यह कहानी की किताब लगभग हर घर में पायी जाती थी और इसकी कहानी को सुनने के लिये लोग दूर-दूर तक भीड़ में जाकर बैठा करते थे लेकिन इसकी कहानियों से कोई कुछ अच्छा ग्रहण करने की कोशिश नहीं करता था। इस किताब का लेखक दुनिया के सबसे प्रतिभाशाली किस्सागो में से एक था। उसकी कहानी में बहुत अच्छी-अच्छी बातें थीं लेकिन लोगों ने प्रचलन के अनुसार उसकी किताब की पूजा करना शुरू कर उसकी अच्छी चीज़ों को भुला दिया। कमज़ोर लोगों ने अपने काम के उदाहरण उस किताब से छांट लिये थे और जगह-जगह प्रयोग करते थे जिसके कारण लोग इस किताब को प्रभुवाणी टाइप की चीज मान चुके थे। उस किताब को लाल पवित्र कपड़े में लपेट कर किसी ऊंची जगह पर रख दिया जाता था जिसकी वजह से लोग इसे पढ़ते नहीं थे और पढ़ने का मन करने पर भी बाद के लिये टाल देते थे।
            
भाई ने थोड़ी देर इधर-उधर की बात की और जब उसने फिर से रामचरितमानस की कहानी को दोहराया तो भाई ने कहा कि वह बड़े भाई के सामने ऐसा बोलना नहीं चाहता लेकिन सच्चाई यही है कि औरतें और आंधी एक ही तरह की चीज़ें होती हैं और उन्हें बस में करने के लिये जांघों में दम होना चाहिये।

वह थोड़ी देर के लिये चुप हो गया और उसने अपने चचेरे भाई के बेटे की ओर देखा जो सिर नीचे करके गरम लोहे पर पानी के छींटे डाल रहा था और होंठ दबा कर मुस्करा रहा था। उसने फिर से कहा कि घर की कोई बात बाहर वालों को पता चले तो बदनामी आग की तरह फैलती है। उसके भाई ने कहा कि जो भी जैसा भी है, उसमें उसकी कोई गलती नहीं है और इस बात के लिये उससे जवाबतलब करने से पहले उसे अपने गिरेबान में झांकना चाहिये था। 
    
 उसने कहा कि उसके थोड़े से खेत हैं और छोटा सा परिवार है जिस पर उसके भाई को बुरी नज़र नहीं डालनी चाहिये। भाई ने कहा कि उसे अपनी नज़र बदलनी चाहिये क्योंकि वह भी उसके परिवार का ही हिस्सा है और उसकी इज़्ज़त अब उसकी भी इज़्ज़त है इसलिये वह निश्चिंत होकर शहर जाए और सातवां कुआँ झांक कर आये। वहां से आने के बाद आराम से इस मुद्दे पर बात की जाएगी और उस समय वह अपने बेटे को घर से बाहर भेज देगा। वह भाई की बातों पर विश्वास करके वहां से आ गया। वह बहुत जल्दी सबकी बातों पर विश्वास कर लेता था और सबकी बातों पर विश्वास करने वालों के बारे में उनके सामने कहा जाता था कि अमुक व्यक्ति बहुत सीधा है और उसकी पीठ पीछे कहा जाता था कि साला बहुत बेवकूफ़ है। रामदयाल के साथ भी ऐसा ही था और वह इस बारे में जानते हुये भी अपनी वर्तमान स्थिति से ख़ुश था। वह बहुत सारे आम इंसानों की तरह चीज़ों को तब तक टालने में विश्वास रखता था जब तक कि उनका सामना करने के अलावा कोई और रास्ता न बचे। उसे अब भी लग रहा था कि उसकी पत्नी की आवाज़ जैसी किसी महिला के उसके भाई से संबंध हैं और उसका भाई आजकल के भाइयों की तरह कलियुगी न होकर उसकी इतनी परवाह करने वाला है कि उसकी खेतों की रक्षा के लिये पूरे गांव के लोगों की आलोचना झेल रहा है।
            
उसका शहर की ओर जाने का अब बिल्कुल मन नहीं था लेकिन एक खटका सा उसे लगातार लगा हुआ था। गांव से शहर जाने का फैसला करने में उसे तीन रातें लगीं और उन तीन रातों में उसे कई काली रातों को अनुभव हुआ। उसे अचानक सपना आता कि वह कुत्तों की तरह चार टांगों पर चलने लगा है और वह चौंक कर जाग जाता। उसकी नज़र अपने बगल में पड़ती को उसकी पत्नी वहां मौजूद नहीं होती। एक रात में पांच के औसत से उसने डरावने सपने देखे और चौथी सुबह यह तय रहा कि सातवां कुआँ झांके बिना उसे मुक्ति नहीं मिल सकती। दूसरी रात तो उसने इतना डरावना सपना देखा कि उसे चिल्ला कर अपने बेटे को बुलाना पड़ा। उसने देखा कि उसके दफ्तर के बड़ा साहब की एक पूंछ निकल आयी है और उसके पंजे नुकीले हो गये हैं। वह रामदयाल के पीछे भौंकता हुआ दौड़ रहा है और उसके फेंके पत्थरों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। अचानक वह उछलता है और रामदयाल के पैर में काट लेता है। उसके काटते ही रामदयाल का एक पैर गायब हो जाता है और वह लंगड़ाने लगता है। एक टांग पर घिसटते हुये उसे दिखायी देता है कि उसकी पत्नी हाथ में लोटा लिये उसके भाई के ट्यूबवेल की तरफ जा रही है। उसकी नींद साहब रूपी कुत्ते के काटने से नहीं टूटी बल्कि अपनी पत्नी के भावहीन चेहरे पर एक मुर्दा मुस्कान देखकर डर के मारे टूट गयी। वह चिल्लाता हुआ उठा और पत्नी को बगल में न पाकर बेटे को आवाज़ लगायी। बेटा आया और उसने आते ही सलाह दी कि उसे शहर जाकर सातवें कुएं की तलाश करनी चाहिये।
            
सुबह जब वह घर से शहर के लिये प्रधान जी के बेटे का पता लेकर निकला तो गांव के उसके कई मित्रों ने उसे अलग-अलग सलाहें दीं। सलाहें देने वालों के चेहरे पर यह भाव था कि वह दुनिया की सबसे राज़दार बातें अपने मित्र को बता रहे हैं और लाख रुपये की सलाहें मुफ़्त में इसीलिये दे रहे हैं क्योंकि रामदयाल उनका मित्र है। रामदयाल ख़ुद लोगों को ऐसी ही सलाहें दिया करता था जब वे गांव छोड़कर कहीं बाहर जाया करते थे। उसके बेटे ने जिद की कि वह भी उसके साथ शहर चलेगा लेकिन उसने कहा कि एक बार वह कुआँ झांक आये और शहर देख आये फिर वह दुबारा उसे अपने साथ ले चलेगा।
           
शहर में लोगों के डराने और भयानक कहानियां सुनाने जैसा कुछ भी नहीं हुआ और उसकी शुरुआत बहुत अच्छी हुयी। उसने स्टेशन से रिक्शा पकड़ा और काग़ज़ पर लिखी कॉलोनी में एक ही बार में पहुंच गया। वहां से उसने एक पान की दुकान पर वह काग़ज़ दिखाया तो वहां खाली खड़ा एक आदमी उसके साथ जाकर उसे उस पते तक पहुंचा आया। प्रधान का बेटा जिस कमरे में रहता था उसमें एक कोने में ढेर सारी लम्बे मुंह वाली खा़ली बोतलें पड़ी थीं। प्रधान के बेटे का नाम हरिओम था पर उसने कहा कि उसे सिर्फ ओम पुकारा जाये तो रामदयाल ने उसे बबुआ कहना बंद कर दिया। उसे लगा कि वहां उसे बहुत परेशानी होगी क्योंकि शहर के बारे में उसने बहुत बुरी-बुरी बातें सुनी थीं। लेकिन ओम ने उसके साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया और उसके लिये फोन करके किसी बढि़या होटल से अच्छा खाना मंगा कर खिलाया। रामदयाल की पूरी समस्या उसने ध्यान से सुनी और उसे सलाह दी कि उसे कुओं के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिये लेकिन रामदयाल के बार-बार विनती करने पर वह इस बात पर राजी हो गया कि वह कुएं के बारे में पता लगवा कर रामदयाल को ज़रूर झंकवाएगा। उसने कहा कि पहले वह दो-चार दिन आराम करे, थोड़ा शहर घूमे और फिर कुएं की फिक्र करे। रामदयाल ने कहा कि उसे जल्दी से जल्दी कुआँ झांककर गांव वापस जाना है।
            
अगले दिन ओम सुबह जल्दी नये कपड़े पहन कर निकल गया और पूरा दिन नहीं आया। रामदयाल पूरा दिन लेटा-लेटा टीवी देखता रहा और ओम के बताये बटन को दबा-दबा कर पूरी दुनिया के जलवों की सैर करता रहा। एक चैनल पर बताया जा रहा था कि देश के प्रधानमंत्री एक नये किस्म का बैंगन मंगाने जा रहे हैं तो वह रुक गया। उसे पूरा तो समझ में नहीं आया लेकिन वह इतना समझ कर चिंतित हो गया कि बैगन की खेती उस तरह नहीं हो सकेगी जैसे पहले होती थी। एक चैनल पर उसने देखा कि आसमान में किसी ओजोन नाम की परत में छेद हो रहा है और पूरी दुनिया में गर्मी बढ़ती जा रही है। पानी के सभी स्रोत सूखते जा रहे हैं और तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिये होगा। पानी से उसे कुंए की याद आयी और वह बाहर निकल कर बालकनी में टहलने लगा।
           
रात को ओम बहुत देर में आया और आते ही बिस्तर पर पसर गया। रामदयाल ने उसे पानी पिलाया और उसके सुबह जल्दी जाने और इतनी देर से आने की वजह पूछी। वह कुछ नहीं बोला। उसने अपनी बाइक की डिग्गी से एक बोतल और कुछ नमकीन के पैकेट निकाले और भीतर आकर बैठ गया। उसने रामदयाल को भी साथ बैठने के लिये कहा। रामदयाल पहले तो मना करता रहा लेकिन जब ओम को पता चला कि उसने पहले भी अपने एक दोस्त के साथ कई बार पी है तो उसने उसका हाथ पकड़ कर ज़बरदस्ती बिठा लिया। रामदयाल ने बताया कि उसने अपने एक दोस्त के साथ पूरे जीवन में सिर्फ़ छह बार पी है तो ओम ने कहा कि आज आपको ऐसी चीज़ पिलाउंगा कि आप देसी भूल जाएंगे। रामदयाल ने उससे यह वादा लिया कि किसी भी तरह यह बात प्रधान जी के कानों तक नहीं पहुंचेगी।

दोनों ने पीना शुरू किया तो रामदयाल ओम की मेहमाननवाज़ी से बहुत ख़ुश हुआ। वह बार-बार उसे हर घूंट के बाद अपने साथ लाया नमकीन खाने का आग्रह करता। रामदयाल को स्वाद तो इस शराब का भी ख़राब ही लगा लेकिन उसे ओम के साथ पीना अच्छा लग रहा था क्योंकि ओम हर पैग के साथ उससे गांव के बारे में ढेर सारी बातें कर रहा था। ओम ने तीन पैग तो ठीक से पीये और गांव और गांव के लोगों के बारे में ढेर सारी बातें की, लेकिन इसके बाद उसकी आवाज़ आश्चर्यजनक रूप से नम होने लगी और पांचवे पैग में तो वह बाक़ायदा रोने लगा। रामदयाल ने सिर्फ दो ढाई पैग पी थी लेकिन सिर उसका भी तेज़ी से घूम रहा था। ओम ने उसका हाथ पकड़ा और अपने सिर पर रख लिया।

‘‘मुझे आपका आशीर्वाद चाहिये काका...।’’ उसकी इस हरक़त से रामदयाल घबरा गया। वह जिस जाति का था उस लिहाज़ से यह दृश्य उसके ऊपर पंचायत में अभियोग चलाने के लिये बहुत था। अभी वह ओम के सिर से हाथ उठाने की कोशिशें कर ही रहा था कि अचानक ओम ने एक ऐसी हरकत की कि वह डर के मारे पीछे सरक गया। उसने झपट कर रामदयाल के दोनों पांव पकड़ लिये और अपना सिर उसके पांवों पर रगड़ने लगा। इसके साथ ही उसके रोने की आवाज़ भी बढ़ती जा रही थी। रामदयाल यूं घबराने लगा जैसे उससे कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया हो, वह बचने के लिये पूरे कमरे में ताक रहा था लेकिन उसे कोई रास्ता नहीं दिखायी दे रहा था। ओम रोये जा रहा था।

‘‘आप बहुत अच्छे हैं काका, आप मेरे बुजुर्ग हैं, मेरे सिर पर आशीर्वाद का हाथ रख दीजिये। अपने गांव की मिट्टी से दूर होकर ही मेरी यह दुर्दशा हुयी है काका। आप सब लोगों का आशीर्वाद ही अब मुझे बचा सकता है। मुझे आशीर्वाद दीजिये काका, अपने बच्चे को अपनी दुआएं दीजिये.....अपने गांव से....अपने स्वर्ग से हटकर मैं यहां इस नरक में आ गया हूं...अब मेरा कहीं ठिकाना नहीं है....।’’ ओम की बातों का मतलब वह नहीं समझ पा रहा था लेकिन अब उसकी घबराहट कुछ कम हो रही थी। थोड़ा नशा उस पर भी हावी था और उसने ओम को अपने पांवों से उठाकर अपने सीने से लगा लिया।

‘‘काहे बबुआ, काहे रो रहे हो ?’’ यह सुनकर ओम और ज़ोर से रोने लगा। ‘‘यहां ऐसे कोई नहीं मुझसे पूछता काका कि मैं जिंदा हूं कि नहीं, यहां तक कि मेरे बाप को भी मुझसे कोई मतलब नहीं है। मैं इस जंगल में कैसे जिंदा हूं, मैं ही जानता हूं। यह शहर नहीं है काका, जंगल है जंगल, यहां ऐसे खतरनाक-खतरनाक जानवर हैं कि का बताएं....हमें गांव ले चलो काका...।’’ उसने ओम का सिर सहलाना जारी रखा और ओम ने बोलना जारी रखा।

‘‘हमें गांव ले चलो काका...हम खेती कर लेंगे....हमें नहीं करनी पढ़ाई....हमें कुटिल लोगों के बीच नहीं रहना...बड़े कमीने लोग हैं काका....मेरा गांव कितना प्यारा है....वहां लोग एक दूसरे से कितना प्यार करते हैं....हे प्रभु...मेरा प्यारा गांव....मुझे अपने साथ...।’’ ओम को उसने भरोसा दिलाया कि वह उसे अपने साथ गांव ले जायेगा। फिर उसने पूछा कि उसकी मोटरसायकिल और अन्य सामानों का क्या होगा। ओम ने कहा कि मोटरसायकिल वह अपने दोस्त को बेच देगा और बाकी सामान किसी बाज़ार में आधे दाम में दे देगा। उसने रामदयाल को बताया कि उसकी पी.एचडी. अब कभी पूरी नहीं हो सकती क्योंकि उसने अपने गाइड के कहने पर दूसरे शोधार्थियों के नोट्स लिखने से इंकार कर दिया है। उसके खिलाफ़ एक झूठा मामला बना कर उसके विश्वविद्यालय में उसके खिलाफ़ अनुशासनात्मक कदम उठाये गये हैं। उसने बताया कि जब तक उसके बाप गांव से पर्याप्त पैसे भेजते थे, कमरे पर उसके दोस्तों का तांता लगा रहता था और सब उसके पैसों से ऐश करते थे। जब से गांव आकर शादी करने के सवाल पर अपने पिता से उसकी तनातनी हुयी है और उन्होंने पैसे भेजने बंद किये हैं, उसे अपने सारे दोस्तों की हकीक़त पता चल गयी है।

‘‘यहां सब पैसे के दोस्त हैं काका....मेरा गांव...।’’ वह फिर से रोने लगा। उसने रामदयाल को कहा कि कल वह उसे कुआँ झंकवा देगा और कल ही वह दोनों की परसों की टिकट निकालेगा।

‘‘ले चलेंगे न काका मुझे मेरे गांव....?’’ उसने ऐसी आवाज़ में पूछा कि इस बार रामदयाल भी ज़ोर से रोने लगा। ‘‘हां बेटा चलना मेरे साथ, गांव में सब तुम्हें याद करते हैं। अपना गांव अपना होता है।’’

‘‘पिताजी ने अगर मुझे घर में नहीं घुसने दिया तो मैं कुछ दिन आपके घर में रह लूंगा...काका आप मेरे पिता समान हैं....मैं पिताजी को मना लूंगा...।’’ उसकी बातें सुनकर रामदयाल थोड़ी देर चिंतित रहा फिर उसके सिर पर हाथ फेर कर उसे आश्वस्त किया।

‘‘जब तक जी चाहे मेरे घर रहना बेटा।’’

‘‘काका...आई लव यू...मैं बहुत बेकार आदमी हूं।’’ रामदयाल उसकी बात का मतलब नहीं समझा पर इतना समझ गया कि उसने उसके लिये कोई अच्छी बात ही कही है। उसे खुद पर थोड़ा गर्व भी हुआ। ओम को नींद आने लगी। रामदयाल ने उसे खाने के लिये कहा पर वह ज़मीन पर ही लुढ़क गया। रामदयाल ने देखा कि इतने पैसों में मंगाया गया खाना बेकार होगा तो उसने दो थालियों में थोड़ा-थोड़ा खाना निकाला और ज़बरदस्ती अपने साथ ओम को भी थोड़ा खिलाने की कोशिश की। उसे ओम पर बहुत दया आयी और वह सोचने लगा कि वह उसे इस मतलबी शहर में नहीं रहने देगा। उसे अपने साथ गांव ले जायेगा ताकि वह खुश रह सके।
            
अगली सुबह जब ओम की नींद खुली तो रामदयाल जाग चुका था और नहा धोकर पूजा कर रहा था। उसने एक सिगरेट जलायी और टॉयलेट  में घुस गया। टॉयलेट में घुसने से पहले उसने रामदयाल से कहा, ‘‘तैयार रहिये, हम लोग दस बजे कुआँ खोजने चलेंगे।’’ रामदयाल ने बंडी के ऊपर अपना कुर्ता पहन लिया और पूरी तरह से तैयार हो गया।

ओम भी जल्दी से नहा-धोकर तैयार हुआ और अपनी बाइक कपड़े से पोंछने लगा। पांच मिनट में ही उसने रामदयाल को बुलाया, ‘‘चलिये रामदयाल जी....चला जाये।’’
            
उनकी मोटरसायकिल शहर में दौड़ने लगी। ओम को जहां-जहां कुंओं का अंदेशा था, वह जाकर पता करने लगा। रामदयाल उसके सुबह के नियंत्रित रूप को देखकर थोड़ा आश्चर्य में था। ओम उससे कुछ बात भी नहीं कर रहा था। उसने ही बात शुरू की।

‘‘दुनिया में सबसे खतरनाक जानवर है कुत्ता...किसी भी जानवर से अधिक खतरनाक।’’ उसने ओम की राय चाही।

‘‘कुत्ते से भी ख़तरनाक जानवर है एक दुनिया में....।’’ ओम ने कमज़ोर और थकी आवाज़ में कहा लेकिन शायद रामदयाल ने सुना नहीं।

‘‘कुत्ते का काटा कभी बचता नहीं बबुआ...कुत्ते का विस पांच साल दस साल बाद कभी भी अपना असर जरूर दिखाता है। सायद कुंआं झांकने से हम बच जाएं इस जहर से बबुआ...।’’

‘‘ओम कहिये...मैंने आपको कहा था न ?’’ उसने डपटा तो रामदयाल सहम गया और थोड़ी देर के लिये चुप हो गया।
‘‘सहर में बहुत सुविधा है...गांव में ई सब कहां...?’’ उसने ओम का मन टटोलने के लिये कहा लेकिन वह चुप रहा।

‘‘का हुआ...तबियत खराब है का ?’’ उसने अपनेपन से पूछा।

‘‘हां...सर में बहुत तेज दर्द है। आपका कुंआं झंकवा देता हूं आज कैसे भी ताकि आप कल जा सकें। मुझे भी कल एक सेमिनार में बाहर जाना है।’’

ओम की ठस्स आवाज़ सुनकर उसकी हिम्मत नहीं हुयी कि वह पूछे कि वह कब सारा सामान बेच कर गांव चलेगा खेती करने के लिये। उसके सामने मोटरसायकिल चलाता यह युवक कोई और ही था। वह अपने दिमाग में उमड़ते-घुमड़ते ढेर सारे सवालों को पकड़े बैठा रहा।
            
एक चैराहे पर पूछने पर पता चला कि यहां से थोड़ी दूरी पर एक झुग्गी बस्ती है उसमें एक कुआँ है। ओम ने बाइक उधर ही मोड़ दी। अभी वह चैराहे से थोड़ी दूरी पर ही था कि एक कार ने एक सायकिल सवार को टक्कर मार दी। कार से एक हाथ बाहर निकला और एक लम्बी सी बोतल बाहर फेंकी। कार चलाने वाला बाहर से अपनी नज़र सामने की ओर करता, इससे पहले ही दुर्घटना हो गयी। सायकिल सवार सड़क पार कर रहा था और सामने से आती कार को देखकर उसने सायकिल मुड़ाने की कोशिश भी की लेकिन तब तक उसे धक्का लग चुका था।

रामदयाल के सामने वह आदमी सड़क पर तड़प रहा था और आनन फानन में उसके आसपास सैकड़ों लोगों की भीड़ जमा हो गयी थी। वहां मौजूद हर आदमी आपस में खुसर फुसर कर रहा था लेकिन कोई उस तड़पते आदमी को वहां से उठा कर अस्पताल ले जाने का उपक्रम नहीं कर रहा था। रामदयाल तड़प गया, उसने ओम से कहा कि वह उसे लेकर अस्पताल चले तो ओम ने कहा कि ये काम कार वालों को करना चाहिये क्योंकि उनकी गाड़ी में जगह होती है। कार वाले भी ऐसी ही बातें पैदल और बाइक वालों के बारे में बातें करते थे क्योंकि उनके हिसाब से उनके पास समय होता है। जब रामदयाल ने कई बार ऐसा कहा तो ओम ने सड़क किनारे गाड़ी खड़ी की और इसलिये भीड़ में घुसा क्योंकि वैसे भी उस भीड़ को तुरंत चीर कर निकलना आसान नहीं था।

‘‘मैं देखता हूं, वैसे उसकी हालत देखकर लगता नहीं है कि वह बचेगा लेकिन फिर भी मैं किसी कार वाले से उसे ले जाने की विनती करके देखता हूं। आप यहां से हटियेगा मत और गाड़ी देखते रहियेगा।’’

ओम भीड़ को चीरता हुआ उस घायल के पास पहुंच गया जो शायद अपनी आखि़री सांसें गिन रहा था। भीड़ उसके बारे में कयास लगाने में व्यस्त थी।

‘‘बचेगा नहीं।’’ एक ने कहा।

‘‘सवाल ही नहीं है।’’ दूसरी आवाज़ आयी।

‘‘सिर की चोट बहुत नाजुक होती है...मान लो बच भी गया तो या तो याद्दाश्त चली जायेगी या पागल हो सकता है।’’

‘‘मेरे मामा के ससुर का ऐसा ही एक्सीडेंट हुआ था पिछले साल...ऑपरेशन भी हुआ...लाखों रुपये लगे लेकिन महीने भर के अंदर ही....।’’

‘‘अस्पताल पहुंचाया जाय तो शायद बच जाये....।’’

‘‘अरे छोड़ो यार, अब बचेगा भी तो आगे की ज़िन्दगी नरक है....बेचारा इससे अच्छा मर ही जाये।’’

‘‘कोई इसको अस्पताल पहुंचा दो यार।’’

‘‘अरे अब बचेगा थोड़े...। अस्पताल पहुंचाने में भी बहुत समस्या है। एक बार मेरे भाई ने एक को अस्पताल पहुंचाया था। मारने वाला तो टक्कर मार कर भाग गया, पुलिस वालों ने मेरे भाई को ही पकड़ लिया...। मैंने तो बॉस उसी दिन कसम खा ली कि दूसरे के फटे में टांग नहीं अड़ाउंगा।’’

‘‘नहीं हमेशा ऐसा थोड़े होता है भाई साहब। ये सब तो बहाने हैं।’’

‘‘तो आप ही लेते जाइये न इसे अस्पताल।’’

‘‘अजीब लोग हैं। इंसानियत नाम की चीज़ ही नहीं बची।’’
            
 उसको मरने में देर हो रही थी इसलिये कुछ लोग जो उसके मरने का सीधा प्रसारण देखने के इच्छुक थे, दफ्तर में देर होने की वजह से खिसकने लगे। वह मना रहे थे कि वह जल्दी मर जाता तो वह अपने दफ्तरों में इस पूरी दुर्घटना का आंखों देखा हाल बताते, हालांकि कुछ लोगों ने मान लिया था कि वह मर गया और ऑफिस में घुसते ही इस हृदयविदारक घटना का आंखों देखा हाल बताने के लिये अपने संवाद तैयार कर रहे थे। कुछ धैर्यवान लोग जो अब भी वहां टिके उसके मरने का इंतज़ार कर रहे थे, उनकी बातों की दिशा कुछ भटक रही थी।

‘‘कार वाले आजकल बहुत तेज चलाने लगे हैं।’’

‘‘आदमी को आदमी नहीं समझते ये साले कार वाले..।’’

‘‘एकदम सही बात...इंसानियत नाम की कोई चीज़ ही नहीं रह गयी है।’’

‘‘कारें इतनी सस्ती हो गयी हैं कि सड़क पर आदमी से अधिक कारें ही हो गयी हैं।’’

‘‘सही बात है, नैनो के आने से कोई भी कार खरीद ले रहा है।’’

‘‘वैसे नैनो है बेकार गाड़ी, इंजन बहुत जल्दी गरम हो जाता है। दूर तक जाने के लिये सही नहीं है। थोड़ा और लगाके आदमी इंडिका न ले ले।’’

‘‘अरे तो कीमत भी तो देखिये...इतने कम पैसे में किसी ने सोचा भी था कभी कि कार मिलने लगेगी ? भला हो टाटा का कि हर आदमी कार में चलने लगा है।’’

‘‘आप लोग गलत बात कर रहे हैं। मेरे साढूभाई ने अभी नैनो खरीदी है, उन्हें तो कोई शिकायत नहीं है, उनकी गाड़ी एकदम सही चल रही है। माइलेज भी अच्छा दे रही है।’’

‘‘अरे भाई साहब, शिकायत होगी भी तो आपको बताएंगे थोड़े, उसमें उन्हीं की तो बेइज्जती है....हाहाहाहा।’’

‘‘हा हा हा हा...हां सही बात कही आपने।’’

‘‘अरे मर गया...।’’

‘‘नहीं भाई अभी जि़ंदा है...देखिये हिल रहा है।’’    

‘‘कुछ भी कहिये सैण्ट्रो अच्छी गाड़ी है सबसे....जगह की जगह और आराम का आराम...। शाहरुख खान ऐड करता है उसका।’’

‘‘जगह की बात करेंगे तो इनोवा से अच्छी कोई गाड़ी नहीं...। उसका ऐड आमिर खान करता है।’’

‘‘कुछ भी कहिये शाहरुख ज्यादा हिट है आज भी...।’’

‘‘अरे साहब आमिर की एक फिल्म उठा लीजिये और शाहरुख की सारी फि़ल्में एक तरफ...।’’

‘‘क्यों शाहरुख ने ही हॉकी पर फिल्म बनायी थी चक दे इंडिया....आमिर ने तो लोकप्रिय खेल क्रिकेट का ही दामन थामा था लगान में हिट होने के लिये।’’

‘‘अरे हॉकी हॉकी है भाई और क्रिकेट क्रिकेट...दोनों को एक में मत जोडि़ये।’’

‘‘हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है भई, हमें उसका सम्मान करना चाहिये।’’

‘‘सम्मान वम्मान अपनी जगह ठीक है बड़े भाई लेकिन पैसा और नाम कहां है ? आप अपने बेटे को कहां भेजेंगे हॉकी में या क्रिकेट में ?’’

‘‘हॉकी भी बहुत सम्मानित थी भाई साहब एक ज़माने में....देश का सिस्टम ही साला इतना करप्ट है। सब लूटने में लगे हैं।’’

‘‘अरे आपके क्रिकेटर कौन से दूध के धुले हैं....सब साले पैसे कमाने में लगे रहते हैं....खेल जाये भाड़ में।’’

‘‘जिसको मौका मिला लूटने में लगा है। किसी को देश की फिक्र ही नहीं।’’

‘‘जिसको देश की जिम्मेदारी है वे नेता मंत्री लोग तो सबसे करप्ट हैं आजकल।’’

‘‘इसीलिये तो देश की लगी पड़ी है। सब लूटने में लगे हैं साले।’’

‘‘देश ज्यादा दिन चलेगा नहीं।’’

‘‘हां ऐसा ही रहा तो खत्म हो जायेगा जल्दी ही।’’

‘‘लगता है खत्म हो गया।’’

‘‘देश ?’’

‘‘नहीं यार, वो आदमी....देखो हिल नहीं रहा।’’

‘‘पुलिस को फोन किया है किसी ने ?’’

‘‘हां वह सामने पान की दुकान वाले ने बुलायी है पुलिस।’’

            
ओम वहीं खड़ा-खड़ा ये देख रहा था और उसे शहर वालों की संवेदनहीनता पर बहुत गुस्सा आ रहा था। उसने एकाध कारवालों से कहा कि वे उसे अस्पताल ले जायें तो उन्होंने कहा कि उनकी कार ने उसे टक्कर थोड़े मारी है। एकाध ने कहा कि वह खुद ले जाये। वह एक तरफ खड़ा होकर पिछली रात की बातें सोचता रहा। उसे लगा कि उसने कुछ ज्यादा ही आंसू गांव के उस गंवार के सामने गिरा दिये हैं। उसे चिंता हुयी कि रामदयाल उसके बारे में पता नहीं क्या सोच रहा होगा।
            
रामदयाल ओम के जाने के बाद बाइक पर बैठ गया। उसे गाड़ी की देखभाल करने का यही एक तरीका समझ में आया। वह भीड़ को देख ही रहा था कि दो लोग उसके पास रोते हुये आये। एक औरत जो 45-50के बीच की थी और एक लड़का जो 16-17साल का लग रहा था। दोनों सीधे उसके पास आये और उसका हाथ पकड़ कर रोने लगे। रामदयाल घबरा गया। दोनों ने रोते-रोते उसे बताया कि जिसका एक्सीडेंट हुआ है, वह उनका पति और पिता है और अभी-अभी उसकी मौत हो गयी है। वे लोग बहुत गरीब हैं और वह आदमी मोहल्लों में झाडू लगाने का काम करता था। उसके दाह संस्कार के लिये घर में एक फूटी कौड़ी तक नहीं है और वे लोग भीड़ से उसका क्रियाकर्म करने के लिये पैसे मांग रहे हैं। रामदयाल ने अपनी धोती के फेंटे से एक छोटी सी बरसाती थैली निकाली और उसमें से निकाल कर पैसे गिनने लगा। उसने दस रुपये का नोट देना चाहा तो लड़का ज़ोर से रोने लगा और उस औरत ने कहा कि शहर में बहुत महंगाई है और इतने में कुछ नहीं होगा। रामदयाल ने सौ का नोट हाथ में लिया ही था कि लड़के ने झपट कर उसे अपनी पैंट में रख लिया और बार-बार उसके पांव छूने लगा। वह औरत उसके बगल में अपनी बाइक खड़ी कर उस पर बैठ भीड़ छंटने का इंतज़ार कर रहे एक आदमी के पास गयी और उससे वही बातें दोहराने लगी। उसने कहा कि उसके घर में कुछ नहीं बचा और क्रियाकर्म करने के लिये पैसे चाहियें। आदमी ने पूछा कि घर में कुछ नहीं बचा तो वे खाते क्या हैं।

‘‘कुछ रुखा सूखा बना लेते हैं साहब ?’’

‘‘किस पर बनाती हो ? स्टोव या गैस ?’’

‘‘मट्टी का चूल्हा है साहब।’’

‘‘क्या बनाती हो ?’’

‘‘क्या साहब...गरीब को पूछना क्या...मंडी में जो सब्जी गिरी हुई मिल गयी वही बना लेती हूं।’’

‘‘ये तेरा पति था ?’’

‘‘हां साहब।’’

‘‘बेवकूफ बना रही है ? ये तो कम उम्र का लगता है।’’

‘‘नहीं साहब, मेरा शरीर बीमारी से खराब हो गया है।’’

‘‘अब इतना खराब भी नहीं है तेरा शरीर....क्या उमर है तेरी ?’’

‘‘साहब पैंतालिस साल।’’

‘‘तेरा पति तेरे साथ सोता था अभी भी...?’’ आदमी ने ललचाई नज़रों से उसकी ओर देखते हुये पूछा। औरत थोड़ी शरमा गयी या शायद शरमाने का अभिनय किया।

‘‘कभी कभी साहब...।’’

‘‘आय हाय तू तो शरमा रही है....बोल कितना लेगी ?’’

‘‘साहब कुछ भी दे दो। गरीब का क्रियाकर्म....।’’

‘‘अरे मैं क्रियाकर्म के लिये नहीं....मैं जानता हूं तेरा रोज का है। बोल कितना...।’’

‘‘दो सौ।’’ औरत ने धीरे से कहा।

‘‘ज्यादा है। डेढ़ सौ ?’’

‘‘ठीक है साहब। जगह...?’’

‘‘वहीं...रेलवे यार्ड।’’ आदमी ने धीरे से कहा। औरत ने इधर-उधर देखा और एक ओर जाने लगी। उसे लड़के को इशारा किया। पुलिस आ गयी थी और भीड़ धीरे-धीरे छंटने लगी थी। लड़का पुलिस को देखते ही धीरे से निकल लिया। औरत भी एक ओर जा रही थी। आदमी ने अपनी बाइक मोड़ी और उसकी ओर जाने लगा। रामदयाल ने देखा मरने वाले की उम्र मुश्किल से बीस साल थी।

‘‘मर गया बेचारा।’’ ओम ने आते हुये कहा और अपनी मोटरसायकिल स्टार्ट करने लगा। वह चुपचाप उसकी मोटरसायकिल के पीछे बैठ गया। ओम मोटरसायकिल चलाता रहा और वह ख़ामोश बैठा रहा।

‘‘जिंदा था ना ?’’ उसने धीमी आवाज़ में ओम से पूछा।

‘‘हां...लेकिन अगर अस्पताल ले भी जाते तो बचने की उम्मीद कम ही थी। चोटें गहरी थीं बहुत।’’ ओम ने भी धीरे से 
कहा।

‘‘लगता है सबने उसके मरने से पहले ही तय कर लिया था कि उसे मर जाना चाहिये...ये सिर्फ़ सहर में ही हो सकता है बेटा।’’ रामदयाल की आवाज़ भरी तो नहीं थी लेकिन एक मरूस्थल सा एकाकीपना उसमें साफ़ महसूस किया जा सकता था।

‘‘क्योंकि शहर में लोग ज़्यादा समझदार होत हैं....फालतू इमोशनल नहीं होते। उसे मरना था यह बात सबको पता थी तो क्या फायदा फालतू भागदौड़ का...?’’ ओम ने धीमी आवाज़ में कहा। आवाज़ में अविश्वास था।
            
ओम की बात पता नहीं रामदयाल तक पहुंची या नहीं, वह दूर कुछ बच्चों को एक सरकारी नल के पास छोटे-छोटे बर्तन लिये झगड़ते देख रहा था। कुछ देर में उनमें उसे अपना बच्चा भी खड़ा दिखायी दिया। कुछ समय बाद उसे दिखायी दिया कि उसका बेटा बड़ा हो गया है और दूसरे के हिस्से का पानी भी छीन रहा है। उसके सामने पता नहीं क्यों बहुत सारे ऐसे दृश्य चलने लगे जिनका कोई स्पष्ट मकसद वह समझ नहीं पा रहा था। उसका कुटिल भाई, अपनी उम्र से तेज़ उसके भाई का बेटा, बहुत सारे पैसे, गहने और कपड़ों की

शौकीन उसकी महत्वाकांक्षी पत्नी, हमेशा दूसरों की सम्पत्ति पर नज़र रखने वाला उसका गांव, एक दूसरे से जलन रखने वाला कस्बा, एक अंधी दौड़ में भागता शहर, कुत्तों से डरने वाला वह, आदमियों से कभी न डरने वाला वह, दुनिया के हिसाब से बहुत दब्बू और संकोची वह, दुनिया का सबसे बड़ा बेवकूफ़ वह। उसने आंखें मूंदी और यह सोचने की कोशिश की कि वह क्यों कुत्तों से इतना डरता था, क्यों कुत्ते के काटने पर कुंएं झांकने के लिये दर-दर की ठोकरें खा रहा है। वह मौत से डरता है, वह दर्द से डरता है...क्यों ? जि़ंदगी से प्यार...? किस चीज़ से भाग रहा है वह...किस चीज़ की तलाश में है वह...किस बात से डरता है वह..?.किस चीज़ से डरते हैं सब...? किस चीज़ की तलाश में हैं सब ? उसकी आंखों से गाल तक एक गरम लहर दौड़ गयी। उसने आंखें खोल कर अपना चेहरा पोंछा और एक लम्बी सांस ली। कभी-कभी बहुत सारी चीज़ें कुछ नहीं सिखा पातीं लेकिन अचानक आप सारी चीज़ों को एक क्रम में रख देते हैं और बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है। क्यों नहीं उसने कुछ ठीक करने की कोशिश की ? क्यों नहीं पहली बार में ही पूछ कर पत्नी से सब कुछ साफ़ कर लिया ? कौन सा डर है ये जो न जीने देता है न कुछ करने की कोशिश ? उसे लगा बहुत कुछ ठीक हो सकता था अगर वह कहीं रुक कर कुछ पलों के लिये सुस्ताया होता और पीछे देखा होता। वह कहीं दूर आसमान में उड़ रही पतंगों को देख रहा था। वह स्थिर था, दृढ़ था और शांत था।

‘‘आदमी के रहने के लिये कितनी जगहें होती हैं ओम बबुआ ?’’ उसने वैसी ही आवाज़ में पूछा। ओम उसका मतलब नहीं समझ पाया। उसने अपने हिसाब से काफी सरल शब्दों में ओम को समझाने की कोशिश की तब उसे थोड़ा समझ में आया।

‘‘बहुत जगहें हैं जैसे गांव हैं, कस्बे हैं, शहर हैं, महानगर हैं....और भी हैं बहुत।’’ ओम ने उसकी बात को बहुत वज़न न देते हुये कहा।

‘‘इन जगहों के अलावा भी है कोई जगह ?’’ उसने पूछा तो ओम को थोड़ी झल्लाहट हुयी लेकिन वह दबा गया।

‘‘हां पहाड़ हैं। जिन्हें संन्यासी बनना होता है वे पहाड़ों पर चले जाते हैं।’’

‘‘नहीं पहाड़ नहीं....जिन्हें संन्यासी नहीं बनना हो उनके लिये कोई जगह...इन सारी जगहों के अलावा ?’’ रामदयाल की आवाज़ में अजीब सी शांति और एक अजनबी सा अवसाद था।

‘‘आप के ऊपर उस आदमी के मरने का कुछ ज्यादा ही असर हो गया है। चुपचाप बैठे रहिये। यहां रोज ऐसा होता है। मैं भी बहुत दुखी हूं।’’ ओम ने पीछे मुड़ने की कोशिश करते हुये कहा।

‘‘नहीं वह बात नहीं, उस आदमी को तो मैं भूल गया। मैं उसे जानता तक नहीं तो उसकी बात क्या करूं ? मैं बस ऐसे ही पूछ रहा था कि क्या कोई और जगह होती है ?’’

‘‘हां होती है न....आसमान में।’’ ओम ने बाक़ायदा आसमान की ओर उंगली उठा कर कहा। रामदयाल मुस्कराया। ‘‘आसमान में तो मैं भी जानता हूं। मैं यहीं इसी जमीन की बात कर रहा हूं।’’ मुस्करा कर कही गयी इस बात पर ओम पता नहीं क्यों नाराज़ हो गया।

‘‘आप चुपचाप अपना कुंआं झांकिये और गांव जाइये....ज्यादा सवाल मत करिये। कुआँ पास ही है।’’ ओम की आवाज़ में तुर्शी थी।

‘‘बेटा यहां से रेलवे स्टेशन कितनी दूर है ?’’ रामदयाल के इस प्रश्न पर ओम चैंक गया।

‘‘क्यों ?’’

‘‘मुझे छोड़ दे बेटा स्टेशन तक...मैं अभी गांव जाना चाहता हूं। मुझे कुंआं नहीं झांकना।’’ उसकी आवाज़ में एक दृढ़ निश्चय था जिससे ओम सहम गया। उसने अपनी ऊंची आवाज़ के लिये माफ़ी मांगी लेकिन रामदयाल ने हंसकर कहा कि उसे उससे कोई शिकायत नहीं है। बस वह तुरंत अपने गांव जाना चाहता है। ओम ने मोटरसायकिल मोड़ दी।
            
रामदयाल जब अपने गांव पहुंचा तो अगले दिन की सुबह हो चुकी थी। चालू डिब्बे में रात भर बैठकर आने के कारण उसका शरीर दर्द कर रहा था। वह अपनी झोंपड़ी में पहुंचा तो उसका बेटा खाट पर बैठा एक पुराने टॉर्च से खेल रहा था।

‘‘तेरी मां कहां है ?’’ उसने पूछा।

‘‘वह तो चाचा के यहां चली गयीं। बहुत झगड़ा हुआ चाचा और चाची में...चाचा ने चाची को मारा भी और कहा कि भाभी अब यहीं रहेंगीं।’’ बेटे ने चहकते हुये बताया। ‘‘मुझे चाचा ने दो जोड़ी कपड़े दिलाये हैं।’’ उसकी चहचहाहट पर उसका ध्यान गया तो उसने पाया कि बेटे ने नया कपड़ा पहना हुआ है। उसने बेटे के चेहरे की ओर ध्यान से देखा और पाया कि उसकी शक्ल हूबहू उसके चचेरे भाई से मिलती है, ख़ास तौर से होंठ और नाक। उसे सुकून महसूस हुआ कि उसकी आंखें उसके चचेरे भाई से नहीं मिलतीं। उसने एक झोले में अपना कुछ सामान रखा और कपड़े तह करने लगा।

‘‘मेरे साथ चलेगा ?’’ उसने बेटे से पूछा।

‘‘कहां बापू ?’’ बेटा खुश हो गया। ‘‘सहर ?’’

‘‘नहीं...सहर नहीं...कहीं और...। कोई और जगह खोजने...। गांव और शहर दोनों से अच्छी। जहां प्यार से रहा जा सके। चलेगा ?’’ रामदयाल ने कपड़े तहाना रोक कर पूछा।

बेटा लपक कर गया और अपने कुछ कपड़े लाकर बाप के पास रख दिये। दोनों जब अपनी झोपड़ी से निकले तो शाम का धुंधलका छाने लगा था। रामदयाल ने दरवाज़े पर इससे पहले कभी ताला नहीं लगाया था और आज भी उसका मन नहीं हुआ। उसने दरवाज़े को भिड़का कर छोड़ दिया।

जब दोनों गांव की सीमा के पास यानि डीह पर पहुंचने वाले थे तो रामदयाल ने पीछे देखा। गांव काग़ज़ पर बने एक सुंदर दृश्य की तरह झिलमिला रहा था। उसने अपनी आंखें पोंछीं जिनमें थोड़ी धूल आ जाने से किरकिरी हो रही थी।

‘‘कितना देर लगेगा बापू वहां पहुंचने में ?’’ लड़के ने उत्साह में पूछा।

‘‘पता नहीं...।’’उसने ठंडी आवाज़ में कहा।

‘‘अगर नहीं मिली ऐसी जगह तो....?’’ लड़के के सवाल हमेशा की तरह अनंत थे।

‘‘जहां भी रहेंगे ऐसी जगह बनाने की कोसिस करेंगे बेटा।’’ रामदयाल ने बेटे की हथेली दबाते हुये कहा।

‘‘कैसे...?’’

‘‘फिर से...सुरुआत से सुरू करेंगे एक बार सब कुछ।’’

‘‘क्या करेंगे..सुरू..?’’ बेटे ने सवाल उछाला।

‘‘सब कुछ..।’’

‘‘तुम करोगे...?’’ बेटे ने फिर से सवाल दागा क्योंकि उसे पिता का यह दोस्ताना रुख बहुत रास आ रहा था।

‘‘नहीं तुम करोगे.....।’’ यह कह कर रामदयाल मुस्कराया।

बाप के ये बोलने पर बेटे को बहुत अच्छा लगा। उसे नहीं पता था कि क्या शुरू करना है और कैसे करना है लेकिन एक अजीब सा उत्साह उसके भीतर भर गया। वह एक बार उत्साह से उछला और एक ज़ोर की किलकारी मारी।

अंधेरा घिरने लगा था लेकिन रात इतनी रोशनी वाली थी कि सब कुछ साफ़-साफ़ दिखायी दे रहा था। जब दोनो बाप-बेटे गांव की डीह तक पहुंचे तो कुछ क्षणों के लिये रुक गये। डीह ऊंचाई पर था और पीछे दूर से देखने पर उनकी परछाइयां थीं और सिर्फ़ दूर तक फैला अनंत आकाश।


नवनीत सिंह की कवितायें

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नवनीत सिंह बिलकुल नए कवि हैं. जब उन्होंने इस इसरार के साथ कवितायें मेल कीं कि 'न पसंद आये तो भी प्रतिक्रिया दें' तो उनकी कविताओं को गौर से पढ़ना ज़रूरी लगा. इनमें अभी कच्चापन है, अनगढ़ता भी और शब्द स्फीति भी,  लेकिन इन सबके साथ एक गहरी सम्बद्धता और रा एनर्जी है जो उनके भीतर की संभावना का पता देती है. भूमंडलोत्तर काल में युवा हुई पीढ़ी के अपने अनुभव हैं और उन्हें दर्ज़ कराने के लिए अपनी भाषा -अपनी शैली. वहां 'वृक्ष और टहनियों के दर्द' का एहसास भी है और 'धनुष-बाण के कारखाने बंद ' किये जाने का अनुभव भी. लोगों को पहचानने के उनके अपने नुस्खे हैं, जिनसे आप असहमत भले हों पर जिन्हें नज़रंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए. असुविधा पर इस नयी आवाज़ का स्वागत....  


चित्र यहाँ से साभार 




उम्मीदें बढ़ रही है


हमारे निशाने मे चिड़िया की आँख नहीं थी,
वृक्ष की टहनियों और पत्तियों का दर्द था,
धनुष बाण के कारखाने बन्द करने के बाद
हमे निराशावादी कहना
हमारी संवेदना का मजाक उड़ाना था,

आशावादिता हारने के बाद,
खिसियाहटो को बचाने मे काम आयी,

उन गुरुओं को आज भी हमसे काफी उम्मीदे हैं,
जिनकी कक्षा मे शोर मचाना,
हमने अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझा,
उनकी उम्मीददें जानती थीं कि,
हम वहाँ भी चुप नही बैठेंगे,
जहाँ चुप्पियाँ हमारी मजबूरी होंगी

वे उम्मीदे बढ रही हैं,
एक कवि की कविताओ मे उमडते प्रेम की तरह,
किसान के खेतो मे पड़े हुये बीज की तरह

उम्मीदें अप्रत्याशित नहीं होती,
पूँजी की दौड मे पीछे रह जाने से,
जब जीवित हो जाती है रचनात्मकता,
उम्मीदें अपनी उम्मीदो के साथ,
बढ जाती है!

 जगह जो आज भी खाली है

सभी लोग नही ले पाते सबकी जगह,
और वहाँ तो बिल्कुल भी नही जहाँ
आशियाने भावनाओं की इंटों से बने थे,
बेशक दुनियाँ बिना किसी इतंजार के चलती होगी
नही समझते खाली जगह ,
ढूँढते है हमारी परछाइयाँ
हमारे आयतन और आकार को लेकर,

बुलाते है अतीत की दुहाई देकर,
बाँटते है हमारे हिस्से का दर्द,
बहते है समय की धार बन हमारी आँखो से
देखते है हमारे चेहरे को
जिनके पंखो की छाँव ने
बचा रखी थी हमारी मुस्कुराहट,हमारी उम्मीदे

मूर्ख है वे जो तुलनाये करते है संघर्षों की,
इच्छाएं एक होने के बाद भी
लङाईयाँ बराबर कहाँ होती है?
कुछ लोग मंजिलों से पहले
रोटियों  के लिये लङते है
रोटियों और मंजिलो के बीच की जगह,
कहाँ भर पाती है,
सिर्फ मंज़िलों के लिये लड़ने वालों से,


पहचान के नुस्खे


व्यक्ति पहचान के नुस्खे,कुछ मैने भी ईजाद किये है,
अनुभव कर सके तो बच जाओगे वरना,
सैकङो दुर्दशायेँ झेलने के बाद ही पछताओगे,

कुछ स्त्रियाँ काँटेदार मछलियो की तरह होती है,
हाथो मे चुभने और सरकने मे माहिर,
इनकी कीमते बाजार नही आदमी तय करते है,

देह और वासना से घिरे हुये लोग,
तुम्हारे आर्दश कब से बन गये,
अपनी अज्ञानता को अन्धविश्वास बनाने से पहले सोचा होता कि,
दक्षिण दिशा मे मुँह करके खाने और पश्चिम की ओर पैर करके सोने से डरना,
एक तरह की लाईलाज बीमारी से ग्रसित होना है,

तुलसी बनने के लिये किसी स्त्री का होना जरूरी नही,
न ही किसी बुद्ध के लिये वृक्ष का,
किताबे भी तुम्हे मानवीय न बना पायी,
तब इसमे तुम्हारे गुरूओ का क्या दोष,
सुनो अपने बुजुर्गो की बातेँ जिन्हे अब तक बकवास मानते रहे

यदि मुझपर यकीन करने मे तुम्हारी ऊर्जा नष्ट हो रही है
तब सामने गौर से देखो और अनुभव जुटाओ,
बगल मे खड़ा आदमी तीसरे के साथ जैसे पेश आयेगा,
एक दिन तुम पर भी वही नुस्खा आजमायेगा,
जैसे आजमाया था गौरी ने जयचन्द के साथ,

तुम जिन्हें विनम्र समझने की भूल करते रहे,
उनसे धोखा खाने के बाद,
उन्हे गालियाँ देने मे शरमाओगे,
अतीत के पन्नो मे झाँकते हुये चिल्लाओगे,
अपनी विनम्रताओ से दूर होते हुये इंसानो के लिये!

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नवनीत सिंह


20जनवरी1988 को चन्दौली(उ0 प्र0) मे जन्म,अर्थशास्त्र से परास्नातक. ,नये लेखकों को पढने में रुचि है,अब तक कुछ कवितायें सिताब दियारा व नजरिया ब्लाग पर प्रकाशित,

संपर्क -महावीर रोड धानापुर -चन्दौली,वाराणसी,(उ0प्र0
                                                   पिन- 232105

मोबाईल -9616636302
ई मेल - navaneetgaharwar@gmail.com

रामजी यादव की कविताएँ

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रामजी यादव को हम उनकी कहानियों के लिए जानते हैं. गाँव-गिरांव की संघर्षशील जन के प्रतिरोध की सशक्त कहानियों के लिए. लेकिन जब उन्होंने थोड़े दिन पहले ये कवितायें भेजीं तो यह मेरे लिए थोड़ा विस्मित होने का सबब था. इनका टोन बिलकुल अलग है. लेकिन इस अलग कहन की पालिटिक्स वही है. आखिर प्रेम भी जीवन दृष्टि से विहीन तो नहीं होता न? प्रेम की राजनीतियाँ होती हैं. वहाँ भी आप एक आक्रामक पितृसत्तात्मक पुरुष हो सकते हैं जहाँ प्रेम भी रणभूमि में बदल जाता है और विजय से कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं होता. इन प्रेम कविताओं की भी एक राजनीति है. जो एक राग है इसमें कभी धीमा और कभी ऊंचा बजता हुआ, वह रणभेरी नहीं है बल्कि एक सम पर होने की कोशिश है.... 





एक स्त्री के समक्ष एकालाप
                                    
             एक

अगर तुम चांदनी की किरण होतीं
तो सारी बेरौनक आंखों को तुम्हें दे देता

अगर तुम बारिश की बूंद होतीं
तो दे देता तुम्हें जंगल को कि वे हरे भरे होकर निखर आयें  

लेकिन हे प्रेम की चिरकुमारी
तुम तो समा गयी हो मुझमें मैं बनकर
आईना देखता हूं तो झांकती हो साफ साफ

तुमसे भरा होना था सारी कायनात को
और तुमने भरा केवल मुझे !

               दो  

जैसे जौ में बालियां आने से पहले ही चेहरे पर सरसराती है टूंड
जैसे सूरज उगने से पहले होने लगता है दिन का आभास
जैसे कुयेँ को देखते ही कमज़ोर पड़ जाती है प्यास
हम दूर रहते हों कितना भी
छिटककर फिर उमड़ता चला आता है प्यार

हम देखते ही हैं ऐसे कि जैसे प्यार उमड़ रहा हो हमारे भीतर
तुम्हारी दीवानगी निखर उठती है तुम्हारे इनकार में

तुमने ग्रंथों में बिताया है जीवन
ओ प्रिये , क्या कभी नहीं पढ़ा यह सबक
कि प्यार को छिपाने के लिये नहीं बनी है कोई सावधानी
इसके आगे बेकार हैं सारे मंत्र !

           तीन

यह होली हर साल आकर कहती है
कि चुन लो एक रंग अपने लिये
और सराबोर कर दो हरेक को
लेकिन कहीं कोई भी तो न था

सिर्फ़ एक नकली मुस्कान
और निशदिन की मौकापरस्ती
और स्वार्थ के गले कोई कैसे मिल सकता है   

किसी को अपने रंग में न पाया सिवा तुम्हारे !
सोचता हूं ,
आज तुम्हें अपने विश्वास के रंग से कर दूं सराबोर
तुम आजीवन डूबी रहो रंगों में
मैं आजीवन तुम्हें देखता रहूं
उल्लास की कहानियां लिखते हुए !

तुममें बची रहे युवता
तुम्हारी आत्मा से फूटता उजास
फैल जाये शब्दों में

अपने हृदय में साफ होते
सुर्ख रक्त सा विश्वास का रंग   
तुम्हें भेंट करना चाहता हूं !!

          चार

अगर तुम्हें दे सकता एक दुनिया
तो देता कि जहां निर्भीक होतीं लड़कियां
जहां नहीं होता बाजार
और उत्फुल्ल होता बचपन

जहां नहीं मची होती जंगलों में लूट
जहां कीटनाशक न पीते किसान
जहां झूठ न बोलतीं सरकारें
जहां न होता विज्ञापन जगत
और न होते चैनल्स
जहां अखबार न होते चापलूस

और कोई न उठाता किसी का जूता
जहां न होतीं कारें
और न आते गांवों से लोग भाग कर शहरों में
जहां न होतीं जातियां
और न होता स्त्री विमर्श

जहां हर आदमी को मिलती दाल
और हर बच्चे को झूला
हर स्त्री को पेट भर भोजन और सम्मान

मगर नहीं है यह दुनिया ऐसी
जो देना चाहता हूं तुम्हें

इराक , सोमालिया , अफगानिस्तान की तरह
हर जगह है बदहाली
मेरे सपनों का नहीं है यह भारत
और तुम्हें नहीं दे पा रहा हूं कोई भी निशानी

सिर्फ जल रहा हूं दिन-रात
विचारों में आग की तरह !

               पाँच

यह समूची पृथ्वी तुम्हारे लिये है सिर्फ

हवायें तुम्हारे लिये सीखती हैं विनम्रता की भाषा

वसंत के साथ साथ जब आता है गेहूं की बालियों में दूध
और आम के टिकोरों में खटास
तो मैं सारा पर्यावरण कर देना चाहता हूं तुम्हारे नाम

मैं तुम्हारी खुशियों का एक शब्दकोश बनाना चाहता हूं

उम्र के इस छोर से उस छोर तक
तुम हो सिर्फ एक धार
जिससे काट देता हूं मैं समय के सारे रज्जू

मैं इस जीवन में तुम्हें देना चाहता हूं
एक बेमिसाल सूर्योदय !

               छः

बहुत हरे भरे रेवड़ में भी जैसे कोई हिरन अकेला
वैसे मैं हूं इस दुनिया में तुम्हारे बिना

जैसे कोई झरना गिरता हो
सैंकड़ों मीटर की ऊंचाई से बेआवाज़
जैसे उन्माद में नहीं बहता हो पानी
बस ढुलकता हो जैसे आंसू

जैसे चमकते हुए परदेस में
कोई ढूंढता रहा हो किसी अपने को
वैसे मैं ढूंढता हूं तुम्हें !

थककर चूर हो रहे हों पांव
और उठने से कर रहे हों इनकार
लेकिन मन है कि भागा जाता है तुम्हारी ओर !

आंखें अक्षर नहीं , तुम्हें ढूंढ रही हैं
हर किताब के पन्नों में !

              सात

जब आंखें देखती हैं कुछ
तो उर्वर होता है मस्तिष्क

जब आंखें देखती हैं कुछ अधिक
तो रचने लगते हैं हाथ

जब आंखें देखती हैं बहुत कुछ
तो झरने लगते हैं शब्द बेशुमार

जब आंखें देखती हैं अपने आप को
तो जन्म लेता है प्यार का अहसास

दो आंखों ने चुन ली होती हैं
दुनिया में असंख्य भूमिकायें


              आठ

जैसे जीवन के झूठे मेलों में खोये सारे लोग
घबराते हैं अंत को सोचकर
और जाते हैं बिना रुके अंत की ओर
वैसे ही तुम भी डरी हुई हो मेरी भावनाओं से
और उन्हें झूठा कहकर नकार देती हो

तुम खोज रही हो शाश्वतता
और मैं रोज़ देख रहा हूं अपना अंत

तुम्हारा हठ है खोई हुई चीज़ों को पाने का
मेरा हठ है जीने के लिये सबकुछ खो देने का

अगर मैं भी न बचूं तो नष्ट तो नहीं होगी दुनिया
कहीं न कहीं तो तब भी बची रहेगी इन्सानियत
लेकिन बचा रहा तुम्हारे बिना तो क्या होगा हासिल ?

कुछ ही पल हों बेशक तुम्हारे साथ पर यही तो है जीवन
भले ही शरीर का हो दुखद अंत
भले विस्फोट में उड़ जाये एक एक पुरजा
मैं क्यों छोड़ूं उम्मीद कि तुम्हारे साथ से ही
सबसे खूबसूरत हो उठती है दुनिया !


            नौ

अक्सर जो खेत को जोतते हैं
मेंड़ बांधते हैं
और हेंगाकर ज़मीन को भुरभुरा बनाते हैं
वैसा ही एक किसान हूं मैं

तुम्हारी आत्मा की ज़मीन को उर्वर बनाने का
काम दिया है नियति ने

जैसे कभी पड़ जाता है सूखा
तो खोल देता है किसान अपने बैल और मवेशी
जायें कहीं भी खोज लें घास
ढूंढ लें पानी और बचा लें जीवन

वैसे ही मैंने भी खोल दिया है
सारी महत्वाकांक्षाओं का जीवन
कि जाओ हो जाओ कोई कहानी
और घुल जाओ किसी कविता में
लौटा दो भाषा में जीवन और विश्वास

मैंने सिर्फ तुम्हें रोक लिया है अपने लिये
नहीं कर सका हूं बंधन मुक्त
जैसे संवेदना हो तुम जीवन की
और तुम्हीं से बच सकती है
मनुष्यता और कल की उम्मीद

जैसे चाहता है कोई किसान अपनी किसानिन को
जैसे कोई स्वार्थी संगीतकार
सारी धुनों पर करना चाहता है कब्जा
वैसे मैं हूं तुम पर हक जमाता हुआ
हर बार भूल जाता हूं अपनी सीमायें !

           दस

जैसे सन्नाटे में गिरती है सुई
जैसे कोई चुपचाप पांव रखता है सूखे पत्तों पर
जैसे हवा में सरसराती है रेत
जैसे प्रेमी फुसफुसाकर भी कर लेते हैं झगड़ा

वैसे ही तुम आ जाती हो मुझ तक
जब भी कोई पास नहीं होता
और अब होता कहां है कोई और ....
अब तो सिर्फ तुम हो और तुम्हारा वजूद है
अब कान नहीं सुनते कोई संगीत
सिवा तुम्हारी खिलखिलाहट के
अब आंखें नहीं देखतीं कुछ भी
सिवा तुम्हारे उत्फुल्ल मन के

और सबकुछ चल रहा है बेआवाज़

तुम नहीं करती हो मुझ पर भरोसा तो क्या हुआ
मैं बहुत कम आहटों में भी सुनता रहूंगा तुम्हें
आजीवन !

             ग्यारह

एक बिगड़ी हुई बेढंगी कविता हूं तुम्हारे लिये
उड़ंत घोड़ा हूं तुम्हारे सपनों और इच्छाओं को
उठा लेने को तत्पर

डगमगाता हुआ जहाज हूं
दुनिया के समंदर में तुम्हारे लिये
बरबाद किया गया कागज हूं तुम्हारे लिये

बरसता हुआ बादल हूं तुम्हारे लिये
उदास आसमान हूं तुम्हारे लिये
बेरंग हुआ सूरज हूं तुम्हारे लिये
दागों से भरा चांद हूं तुम्हारे लिये

सबकुछ हो जाना चाहता हूं तुम्हारे लिये
चाहे कितना भी कर दो दूर
और मत करो मेरा विश्वास

लेकिन दुनिया इसीलिये है खूबसूरत
कि हर चीज़ देख रहा हूं तुम्हारी आंखों से
हरसांस में जी रहा हूं तुम्हें !

              बारह

कितनी शिद्दत से चली आती है यह दुनिया हमारे भीतर
कितने चुपके से आकार लेता है एक मोहल्ला
कितने चुपचाप उग आता है एक पड़ोस
और बिना कहे हर चीज़
गवाही देती लगती है हमारे प्रेम की
तुम इनकार को बना देती हो अपनी तस्दीक
बारहां सफाई देती हो रोम रोम से

एक शब्द है - है
कि जिसको नहींलिखना चाहती हो तुम
चाहती हो एक नयी शाम का सुख
और दोपहर से भागना चाहती हो

यह तुम्हारा आकर जाना
और हांको बदलना नहींमें
चाहना जीवन और भागना कड़ी धूप से
क्या करे कोई

जाओ कितना भी अंधेरे में
लेकिन नहीं छिप सकता प्यार

यह हादसा ऐसा है !!

            तेरह

प्यार उमड़ता है ऐसे
कि अब अंटता नहीं कविताओं में

जैसे भरी दुपहरी में उमड़ती है सुर्खी
पलाश के फूलों में
और लगता है जैसे आग लगी हो जंगल में
नहीं बचेगा कोई पेड़ , वनस्पति और जीवन

जैसे कूदता है कोई हिरन उछाह में
जैसे निकल आता है दिन जबरदस्ती
और खटने चल देते हैं लोग
एक और दिन की गुलामी
और उन पर लद जाती हैं
ज़रूरतें और इच्छायें

जैसे कोई असंतुष्ट विचारक
उमड़ते देख रहा हो अपने भीतर
भयानक गुस्सा

जैसे मिट्टी हटा देने से
उमड़ आता है कुंए में पानी

वैसे ही उमड़ कर चला आता है प्यार ऐसे
कि तुम्हें खींच लूं अपनी ओर
और बरस पड़ूं बेगानी वजह से

           चौदह

मैं रहा होऊंगा कभी एक पेड़
काटा गया होऊंगा किसी लकड़हारे के हाथों
चीरा गया होऊंगा आरा मशीन पर
और बांटा गया होऊंगा न जाने कितने टुकड़ों में

बुरादा और टहनियां जलने के काम आई होंगी
और पतरों से बनाई गई होगी तुम्हारी मेज़
अगर महसूस करो तो रहा हूं तुम्हारे पास न जाने कब से
अगर देख सको तो ज़र्रे ज़र्रे में बसा हूं मैं

तुमने उतना ही लिया है
जितने में अहसास बने अपनापे का
तो मैं क्या कर सकता हूं

मैं तो यहां वहां हर जगह तुम्हारे पास हूं
बस , ज़रा हाथ बढ़ाओ और छू लो मुझे !

               पंद्रह


रात का अर्थ केवल निद्रावाहिनी नहीं होता
एक सन्नाटे का वाचाल हो जाना भी होता है

तुमसे भरा हुआ दिन और तुमसे भरी पृथ्वी
दोनों ही जब डूब जाते हैं अंधेरे में

जब मचाया गया शोर और न सुनी गयी बातें
थककर उदास बैठ जाती हैं

जब फैसले से पहले जज वसूलता है गड्डियां
जब शहर में यहां-वहां सज उठता है जिस्म का बाज़ार
जब चुपचाप अंजाम दी जाती हैं दमनात्मक कार्यवाहियां

जब घेर लिया जाता है कहीं कोई गांव
और करार दिया जाता है युवाओं को नक्सली
किसी सबूत के चीखने से पहले ही चीख उठती हैं बंदूकें
जब बारिश को तरसती धरती नहा लेती है खून से

तब रात का अर्थ केवल सन्नाटा नहीं हो सकता
उस रात में किसी नदी की तरह उमड़ आती हो तुम
एकदम समो लेना चाहता हूं तुम्हें आगोश में

लेकिन रात और सन्नाटा मुझे एकाग्र नहीं होने देते
मैं मुल्तवी कर देता हूं प्यार
और स्थगित कर देता हूं खुशियां !!

असुविधा टाकीज़ : लव इन द टाइम आफ कॉलरा

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कॉलरा की चपेट में प्रेम
विजय शर्मा


किसी साहित्यिक कृति पर फ़िल्म बनाना एक बहुत बड़ा जोखिम है। किसी विश्वप्रसिद्ध साहित्यिक कृति पर फ़िल्म बनाना और बड़ा जोखिम है। कोलम्बियन नोबेल पुरस्कृत लेखक गैब्रियल गार्षा मार्केस इस बात से परिचित थे कि अक्सर फ़िल्म बनते ही साहित्यिक कृति का सत्यानाश हो जाता है। इसी कारण उन्होंने काफ़ी समय तक निश्चय किया हुआ था कि वे अपनी कृतियों पर फ़िल्म बनाने का अधिकार भूल कर भी किसी को नहीं देंगे। उनके प्रसिद्ध उपन्यास वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सोलिट्यूड’ पर फ़िल्म बनाने के लिए उन्हें एक बहुत बड़ी रकम की पेशकश की गई। काफ़ी समय तक वे टस-से-मस नहीं हुए, अपनी जिद पर अड़े रहे। उनका एक और प्रसिद्ध उपन्यास है लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’। इसके फ़िल्मीकरण के लिए निर्देशक उनके चक्कर लगा रहे थे। वे इसके लिए भी सहमत न थे। 

इस विश्व प्रसिद्ध उपन्यास में फ़रमीना डाज़ा और फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा का प्रेम तब प्रारंभ हुआ था जब वह १३ साल की और वह १८ साल का था। मगर जैसा कि अक्सर होता है लड़की के नवढ़नाढ्य पिता को लड़के का स्टेट्स अपने बराबर का नहीं लगा। उसने अपनी बेटी को काफ़ी समय के लिए दूर अपने कस्बे में भेज दिया। लड़की लौटती है और अपने पिता की मर्जी के डॉ. जुवेनल उर्बीनो से शादी करती है। दोनों का दाम्पत्य ऊपर से देखने पर बड़ा सुखी नजर आता है। अंदर उसमें तमाम विसंगतियाँ है। यह एक अनोखे प्रेम की अनोखी कहानी है जिसे मार्केश ने अपने माता-पिता के जीवन के आधार पर रचा है। (विस्तार के लिए विजय शर्मा का कथाक्रम प्रेम विशेषांक में प्रकाशित लेख देखा जा सकता है)


फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा फ़रमीना डाज़ा को भूला नहीं है। हाँ, इस गम को भुलाने के लिए वह कई लड़कियों, स्त्रियों से शारीरिक संबंध बनाता है। वह इन संबंधों का रिकॉर्ड भी रखता है जिसकी संख्या ६२२ तक पहुँचती है। आधी सदी बीत चुकी है जब डॉ. उर्बीनो की एक दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। यह फ़रमीना डाज़ा के वैध्व्य की प्रथम रात्रि है जब फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा अपने प्रेम का पुन: इजहार करने पहुँचता है। वह वियोग के एक-एक दिन का हिसाब रखे हुए है और बताता है कि ५१ साल नौ महीने और चार दिन के बाद उसे यह अवसर मिला है। उपन्यास बताता है कि अब तक फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा रिवर बोट कम्पनी का मालिक बन चुका था और वह अपनी प्रेमिका को लेकर जलयात्रा पर निकलता है।

प्रोड्यूसर स्कॉट स्टेनडोर्फ़ ने तय किया कि वे मार्केस के उपन्यास लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलेरा’ पर फ़िल्म बनाएँगे। इसके लिए उन्होंने मार्केस को घेरना शुरु किया। मार्केस राजी न हों। तीन साल तक मार्केस से अनुनय-विनय करते रहने के बाद अंत में स्कॉट स्टेनडोर्फ़ ने साफ़-साफ़ कह दिया कि जैसे फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा ने फ़रमीना डाज़ा का पीछा नहीं छोड़ा था वैसे ही वे भी मार्केस का पीछा नहीं छोड़ने वाले हैं। हार कर मार्केस ने अपने उपन्यास पर फ़िल्म बनाने की अनुमति स्कॉट स्टेनडोर्फ़ को दे दी। निर्देशन का काम किया एक जाने-माने फ़िल्म निर्देशक माइक नेवेल ने। और इस तरह १९८८ में लिखे गए उपन्यास पर २००७ में फ़िल्म रिलीज़ हुई। फ़िल्म पूर्व प्रदर्शन के समय मार्केस उपस्थित थे। फ़िल्म की समाप्ति पर उन्होंने चेहरे पर मुस्कान लिए हुए केवल एक शब्द कहा "Bravo!"  

उपन्यासकार ने फ़िल्म देख कर ब्रावो!’ कहा, लेकिन फ़िल्म देख कर दर्शकों पर क्या प्रभाव पड़ता है? यदि आपने पुस्तक पढ़ी है तो पहली बार में फ़िल्म जीवंत और तेज गति से चलती हुई लगती है। अगर पुस्तक नहीं पढ़ी है तो बहुत सारी बातें बेसिर-पैर की लगती हैं। दर्शक उपन्यास की गूढ़ बातों से वंचित रहता है। नायिका की मुस्कान उसका लावण्य दर्शकों को लुभाता है। उसकी डिग्निटी देख कर उसके प्रति मन में आदर का भाव उत्पन्न होता है। प्राकृतिक दृश्य बहुत कम हैं मगर सुंदर हैं, आकर्षित करते हैं। फ़िल्म का रंग संयोजन मन भावन है। फ़िल्म देखने में आनंद आता है। कारण फ़िल्म की गति और उसकी जीवंतता है। पर जब दूसरी बार आप समीक्षक की दृष्टि से इसे देखते हैं तो यह आपको उतनी प्रभावित नहीं करती है।

यह सही है कि साहित्य और फ़िल्म दो भिन्न विधाएँ हैं और उनके मानदंड भी भिन्न है। चलिए इस वजह से लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ उपन्यास और लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ फ़िल्म की तुलना नहीं करते हैं। जब सिर्फ़ फ़िल्म को लें तो पाते हैं कि जिस दर्शक ने पुस्तक नहीं पढ़ी है उसके पल्ले क्या पड़ेगा? उसके पल्ले पड़ेगा एक ऐसा हीरो जो कहीं से कंविंसिंग नहीं लगता है। उसका हेयर स्टाइल, उसका झुका हुआ बॉडी पोस्चर, उसकी मुस्कान एक कॉमिक इफ़ैक्ट पैदा करती है। वैसे यह कोई नया एक्टर नहीं है। जेवियर बारडेम को इसके पहले नो कंट्री फ़ॉर ओल्डमैन’ के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का ऑस्कर पुरस्कार मिल चुका है मगर यहाँ कुछ तो गड़बड़ हो गई है। दोष किसे दिया जाए उनके मेकअप मैन को या जिसने उनकी विग डिजाइन की या उसको जिसने उनकी मूछें और ड्रेस बनाई, या फ़िर निर्देशक को जिसने उनकी ऐसी कल्पना की, आखीर फ़िल्म तो उसी की आँख से बनती है। ठीकरा किसी के सिर फ़ोड़ा जा सकता है लेकिन बारडेम की एक्टिंग और मुस्कान फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा के रूप में प्रभावित नहीं करती हैं। ठीक है वह एक निम्न आर्थिक स्तर, क्लर्क ग्रेड के लड़के के रूप में जीवन प्रारंभ करता है। बाद में जब वह रिवर बोट कम्पनी का मालिक बन जाता है तब भी उसकी चाल-ढ़ाल में कोई परिवर्तन नहीं आता है, वह वैसा ही झुक कर रहता है। सबसे खराब प्रभाव डालती है उसके चेहरे पर चिपकी उसकी मुस्कान। इस मुस्कान के चलते वह एक क्लाउन नजर आता है, डाई हार्ट प्रेमी नहीं, जैसा कि मार्केस ने उसे दिखाने का प्रयास किया है। वैसे उपन्यास में वह ठीक इसी रूप में चित्रित है। (फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा का रूप-रंग-बाना देखने योग्य है, मौसम कोई हो मगर उसकी पोषाक तय है। एक उपयोगी और गंभीर बूढ़ा, उसका शरीर हड्ड़ीला और सीधा-सतर, त्वचा गहरी और क्लीन शेवन, रुपहले गोल फ़्रेम के चश्मे के पीछे उसकी लोलुप आँखें, रोमांटिक, पुराने फ़ैशन की मूँछें जिनकी नोंक मोम से सजी हुई। गंजी, चिकनी, चमकती खोपड़ी पर बचे-खुचे बाल बिलक्रीम की सहायता से सजाए हुए। उसकी मोहक और शिथिल अदा तत्काल लुभाती, खासकार स्त्रियों को। अपनी छियत्तर साल की उम्र को छिपाने के लिए उसने खूब सारा पैसा, वाक-विदग्धता और इच्छाशक्ति लगाई थी और एकांत में वह विश्वास करता कि उसने किसी भी अन्य व्यक्ति से ज्यादा लम्बे समय तक चुपचाप प्रेम किया है। उसका पहनावा भी उसकी तरह विचित्र है। वेस्ट के साथ एक गहरे रंग का सूट, सिल्क की एक बो-टाई, एक सेल्यूलाइड कॉलर, फ़ेल्ट हैट, चमकता हुआ एक काला छाता जिसे वह छड़ी के रूप में भी प्रयोग करता। – पुस्तक के अनुसार )लेकिन लिखित शब्दों में पढ़े वर्णन के साथ आपकी, पाठक की कल्पना जुड़ी होती है, वहाँ उसका यह रूप गबता है। वही रूप-रंग जब परदे पर रूढ़ हो जाता है तो खटकता है। यही अंतर है साहित्य और सिनेमा का। सिनेमा चाक्षुक है अत: अधिक सावधानी की आवश्यकता है। यहीं निर्देशक चूक गया है।

पूरी फ़िल्म में एक बात बड़ी शिद्दत से नजर आती है और दर्शकों पर उतना अच्छा प्रभाव नहीं डालती है वह है हर स्त्री – चाहे वह किशोरी अमेरिका हो या फ़िर बूढ़ी फ़रमीना डाज़ा – का अपना वक्ष दिखाने को तत्पर रहना। हाँ, शुरु से अंत तक फ़रमीना डाज़ा के रूप में जिवोना मेजोगिओर्नो अपनी सुंदरता से, अपने अभिनय से लुभाती है। उसकी स्मित मन में गहरे उतर जाती है। उसके बैठने, चलने और खड़े रहने का अंदाज उसकी उच्च स्थिति और उसके आंतरिक गर्व को प्रदर्शित करता है। फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा की माँ ट्रांसिटो अरीज़ा के रूप में ब्राज़ील की अभिनेत्री फ़र्नांडा मोंटेनेग्रो का अभिनय प्रभावित करता है। फ़रमीना डाज़ा की कजिन हिल्डेब्रांडा सेंचेज के रूप में सुंदरी काटालीना सैडीनो को देखना अपने आप में एक भिन्न अनुभव है। यह किशोरी एक शादीशुदा व्यक्ति के प्रेम में है। उसकी मासूमियत पर फ़िदा होने का मन करता है। डॉ. जुवेनल उर्बीनो के रूप में बेंजामिन ब्राट के लिए कुछ खास करने को न था। द विडो नजरेथ के रूप में एंजी सेपेडा जरूर परदे (स्क्रीन) को हिलाती है।

सिनेमेटोग्राफ़ी अवश्य प्रभावित करती है। घर, बोट की आंतरिक साज-सज्जा और बाह्य प्राकृतिक सौंदर्य को कैमरे की आँख से इतनी खूबसूरती से पकड़ने के लिए सिनेमेटोग्राफ़र एफ़ोंसो बीटो बधाई के पात्र हैं। मेग्डालेना नदी और सियेरा नेवादा डे सांता मार्टा की पर्वत शृंखला बहुत कम समय के लिए दीखती है पर अत्यंत सुंदर है। फ़िल्म की शूटिंग के लिए कोलम्बिया के ऐतिहासिक पुराने शहर कार्टाजेना के लोकेशन का प्रयोग हुआ है। घर और बोट की साज-सज्जा पात्रों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति के अनुरूप है।

फ़िल्म की शुरुआत में जब क्रेडिट चल रहे होते हैं बहुत खूबसूरत ऐनीमेशन है। चटख रंगों में फ़ूलों का खिलना उनके प्ररोहों (टेंड्रिल्स) का सरसराते हुए आगे बढ़ा, विकसित होना और साथ में चलता संगीत। इसी तरह फ़िल्म की समाप्ति का ऐनीमेशान। दक्षिण अमेरिका के पर्यावरण और अरंगों का विशेष रूप से ध्यान रखते हुए, उनसे प्रेरित होकर इसे लंदन के एक ऐनीमेशन स्टूडियो वूडूडॉग’ ने तैयार किया है। संगीत इस फ़िल्म की जान है। क्यों न हों। संगीत लैटिन अमेरिका की प्रसिद्ध गायिका शकीरा ने दिया है। वे गैब्रियल गार्षा मार्केस की बहुत अच्छी दोस्त है। उन्होंने एक गाना लिखा भी है और गाया भी है। फ़िल्म को संगीत देने में शकीरा के साथ हैं अंटोनिओ पिंटो। क्रेडिट का ऐनीमेशन फ़िल्म के मूड को सेट कर देता है। दर्शक तभी जान जाता है कि वह एक रोमांटिक फ़िल्म देखने जा रहा है। फ़िल्म लैटिन अमेरिकन खास कर कोलम्बियन जीवन को बड़े मनोरंजक तरीके से प्रस्तुत करती है। स्पैनिश लोग हॉट ब्लडेड होते हैं। लड़ने, मरने-मारने को जितने उतारू उतना ही प्रेम करने को उद्दत। भारत के पंजाब प्रांत के लोगों की तरह वे जो भी करते हैं खूब शान-बान और आन से करते हैं।

लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ फ़िल्म का स्क्रीनप्ले रोनांड हार्वुड ने तैयार किया है। स्क्रीनप्ले ठीकठाक है। साढ़े तीन सौ पन्नों के उपन्यास में पात्रों का जो मनोवैज्ञानिक चित्रण और विकास है उसे १३९ मिनट की फ़िल्म में समेटना संभव नहीं है। उपन्यास के कई महत्वपूर्ण अंशों को बिल्कुल छोड़ दिया गया है, जैसे लियोना कैसीयानी का प्रसंग, जैसे फ़रमीना डाज़ा का अपने पति की कब्र पर जाकर उसे एक-एक बात बताना, जैसे डॉ. जुवेनल उर्बीनो और फ़रमीना डाज़ा का गैस बैलून में पत्र लेकर उड़ना, बुढ़ापे में फ़रमीना डाज़ा का पति की सेवा करना, प्रकृति का मनुष्य द्वारा दोहन, प्रकृति का उजाड़ होते जाने, पर्यावरण प्रदूषण आदि, आदि। माइक औड्स्ले की एडीटिंग अच्छी है। फ़िल्म में एक बात और खटकती है वह है इसके पात्रों द्वारा बोली गई भाषा। फ़िल्म इंग्लिश भाषा में बनी है। यह फ़िल्म स्पैनिश भाषा में नहीं बनी है, इंग्लिश में डबिंग नहीं हुई है। फ़िर पात्र स्पैनिश लहजे (एक्सेंट) में इंग्लिश क्यों बोलते हैं? अगर फ़िल्म स्पैनिश भाषा मेम होती तो क्या पात्र किसी खास लहजे में बोलते या सहज-स्वाभिक स्पैनिश भाषा का प्रयोग करते?

१८८० से १९३० तक की अवधि को समेटे हुई लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ फ़िल्म के विषय में मेरे मित्र कथाकार सूरज प्रकाश का कहना है कि यह उनकी पसंदीदा फ़िल्मों में से एक है। मेरा भी यही कहना है कि मुझे यह फ़िल्म बहुत अच्छी लगी। अगर ऊपर गिनाई गई कमजोरियाँ इसमें न होती तो यह अवश्य मेरी पसंदीदा फ़िल्मों की सूची में काफ़ी ऊपर स्थान पर होती जैसे कि मार्केस मेरे पसंदीदा लेखकों की सूची में पहले नम्बर पर आते हैं। यह मार्केस के उपन्यास पर हॉलीवुड स्टूडियो में बनी पहली फ़िल्म है जिसे लैटिन अमेरिकन या इटैलियन निर्देशकों ने नहीं बनाया है।

हॉलीवुड के निर्देशक बहुत कुशल होते हैं। इसके साथ ही उनकी एक सीमा है। एक खास तरह की सभ्यता-संस्कृति से ये निर्देशक बखूबी परिचित हैं। मगर इस खास दायरे के बाहर की सभ्यता-संस्कृति की या तो उन्हें पूरी जानकारी नहीं है या फ़िर वे उसे महत्व नहीं देना चाहते हैं। लैटिन अमेरिकी सभ्यता-संस्कृति अमेरिकी सभ्यता-संस्कृति से बहुत भिन्न है। यह बहुत समृद्ध है, इसकी बहुत सारी विशेषताएँ हैं। मार्केस का साहित्य इसकी बहुत ऑथेंटिक झलक देता है। लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ फ़िल्म इस सभ्यता-संस्कृति की खुशबू को समेटने में समर्थ नहीं हो सकी है। हॉलीवुड के श्वेत निर्देशक अपने ही देश की अश्वेत सभ्यता-संस्कृति को पकड़ने में कई बार चूक जाते हैं। स्टीफ़न स्पियलबर्ग जिन्होंने बहुत उत्कृष्ट फ़िल्में बनाई हैं लेकिन जब वे एफ़्रो-अमेरिकन साहित्य से लेकर द कलर पर्पल’ पर फ़िल्म बनाते हैं तो उसके साथ न्याय नहीं कर पाते हैं। एलिस वॉकर का यह उपन्यास जिस संवेदनशीलता से रचा गया है स्टीफ़न स्पियलबर्ग ने यह फ़िल्म उतनी ही असंवेदनशीलता से बनाई गई है।

क्यों करते हैं हॉलीवुड के माइक नेवेल या स्टिफ़न स्लीयलबर्ग ऐसा खिलवाड़? क्यों दूसरों को कमतर दिखाते हैं? क्या यह हॉलीवुड श्वेत निर्देशकों का अहंकार है अथवा उनकी समझ की कमी? क्या यह उनकी अज्ञानता है या फ़िर उनका दंभ? यह शोध का विषय हो सकता है। अगर यह नासमझी है तो आज के जागरुक और वैश्विक युग में इस तरह की नासमझियाँ स्वीकार नहीं की जानी चाहिए। अगर यह झूठा दंभ है तब तो इसे कतई स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।
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विजय शर्मा

संपर्क   १५१ न्यू बाराद्वारी, जमशेदपुर ८३१ ००१ फ़ोन: ०९४३०३८१७१८, ०९९५५०५४२७१, ०६५७-२४३६२५१


नीलेश रघुवंशी की कवितायें

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नीलेश रघुवंशी की कविताएँ समंदर के बीच किसी पोत पर बैठकर बनाए गए रेखाचित्रों सी हैं, तूफ़ान के बीच से बयान तूफ़ान की कहानी सी और गहरे अँधेरे के बीच से रौशनी की तरह बिखरती आवाज़ों सी. जीवन के  गहरे और त्रासद अनुभवों के बीच भी नीलेश उम्मीद और उल्लास के स्वर ढूंढ लेती हैं. उनकी कविताएँ एक तरफ गहन अनुभूति की कविताएँ हैं तो दूसरी तरफ जीवन की कुरूपता के ख़िलाफ़ प्रतिबद्धता की भी. स्त्री विमर्श के तुमुल कोलाहल में मुझे ये कविताएँ एक स्त्री की नज़र से जीवन के विविध पक्षों को सहज द्रष्टव्य के उस पार जाकर देखने की बेचैन कोशिश लगती हैं.

हमारे आग्रह पर उन्होंने ये कविताएँ 'असुविधा' के लिए उपलब्ध कराईं जिसके लिए हम आभारी हैं. साथ ही हाल में ही उन्हें मिले 'स्पंदन कृति सम्मान' के लिए हमारी बधाईयाँ भी.  




          चक्रः ग्यारह कविताएँ
  
 भूख का चक्र

सबके हिस्से मजदूरी भी नहीं अब
शरीर में ताकत नहीं तो मजदूरी कैसे ?
छोटे नोट और सिक्के हैं चलन से बाहर
पाँच सौ के नोट पर छपी
पोपले मुँह वाली तस्वीर भी
कई दिन से भूखी है !    


प्यार का चक्र

उछालती जब उसे बाँहों में
दिल काँपता था मेरा
उसकी दूध की उल्टी से
सूखता था मेरे भीतर का पानी
एक वृक्ष की तरह
उसकी जड़ें भीतर फैलती चली गईं !
सोचती
जब अठारह का हो जाएगा
छोड़ दूँगी घने जंगल में
बर्फीले पहाड़ों के ऊपर होगा उसका मचान
अन्तहीन आकाश में उड़ते देख
पीठ फेर लूँगी !

बदलती दुनिया जोखि़म रोमांच से प्यार
बड़ी लम्बी उछाल है उसकी
जाने क्या होता है अब मेरे भीतर
फड़फड़ाती हूँ उसे उड़ते देख
अपने हाथों को ढाल बना
उड़ना चाहती हूँ उसके संग
प्यार का ये चक्र
घूमकर आ ठहरता है उसी जगह
जहाँ...मैं सोचती हूँ बस एक बरस और...!

फैशन का चक्र 
कितना दूर रहती हूँ
दूर और पास को देख चलती नहीं
अगर चलती तो
फैशन नाम क्यों होता फिर !

हर घर का दरवाजा खटखटाना
गिड़गिड़ाहट को विनम्रता की तरह वापरना
क्रोध भय और स्वाभिमान को गिरवी रख
उत्पाद को न चाहते हुए भी बेचना
बदलते फैशन का मिजाज
भाँप सको तो
सेल्समेन और सेल्सगर्ल के चेहरे पर भाँपो...!

झूठ का चक्र

एक झूठ बोला
बचते बचाते दो चार झूठ और बोले
एक नहीं सौ नहीं हज़ारों हज़ार झूठ बोले
आखिर में लड़खड़ाती जुबान में
थक हारकर सच बोला... !

सच धैर्य नहीं खोता
झूठ की मृत्यु की प्रतीक्षा भी नहीं करता
झूठ करता है वो सब कुछ
जिसे करने की सच सोचता भी नहीं
तर्क में नहीं कुतर्क में घुटता है दम झूठ का...! 

मौसम का चक्र

थोड़ा थोड़ा सब कुछ लेने के फेर में
नहीं मिलता कुछ भी 
मौसम बदलता है तो बदलती है सोच
अपने चरम पर पहुँचता
हर चार माह में बदलता
मौसम भी बनाता है हमें निकम्मा !



  रोने का चक्र

तुमने जन्म लिया तो रोए
भूख लगी तो रोए
मन की कोई चीज न मिली तो रोए
अपनों से बिछुड़ने पर रोए खूब रोए !

खुशी में फूट फूटकर नहीं रोए कभी
आँखें गीलीं हुईं और तुमने कहा
ये आँसू खुशी के आँसू हैं..!

फिर
तुमसे कहा गया
बात बात पर रोना अच्छी बात नहीं
रोने से नहीं मिलता कुछ भी
तुमने
अपने भीतर आँसूओं का कुआँ बना लिया
जो मारे ठंडक के जम गया
बहुत दिन से नहीं रोए सोचकर
अचानक तुम रोए खूब रोए....!

जीवन में रोने से नफरत करना भी
एक रोना है....!  





हँसने का चक्र

हँसने हँसाने का दूसरा नाम है जीवन  !
लेकिन जाने कब कैसे और क्यों
हँसना छोड़ दिया हमने
हँसी को छोड़ दौड़ के पीछे लग गए
धीरे धीरे हँसी सेल्समेन सेल्सगर्ल
क्रेडिट कार्ड बेचने वालों की हो गई
हँसी को शिष्टाचार के संग रोजगार बनाया उन्होंने
ठगे जाने के भय से न हँसे न मुस्कुराए
रो भी न सके हम !

हँसना जरूरी है निरोगी काया के लिए
हँसी क्लब में प्रवेश के लिए मोटी फीस भरी
हँसने के नाम पर
कैसी डरावनी आवाजें निकालने लगे हम
हमेशा बुरा माना जाता है बिना वजह दाँत दिखाना !

नदी किनारे मिलती है सच्ची हँसी
नदियों को हमने जाने कब का बेच दिया
हँसने का कोई चक्र नहीं
बिकने की कोई उम्र नहीं...! 
सोचने का चक्र

जब
महानगरों को देखा
चकाचौंध में उनकी घिग्गी बँध गई मेरी
भाषा ने साथ छोड़ दिया
खुद की भाषा को छोड़
लपलपाने लगी दूसरे की भाषा में
स्वचालित सीढ़ियों से डरते
पानी को बिकते खुद को फिकते देख
अपनी जगह लौट आई

लौटकर
गाँवों नगरों को महानगर में बसाने का सोचने लगी
नगर उपनगर गाँव देहात कस्बे महानगर
चकाचौंध धिग्गी लपलपाहट सनसनाहट
नींद ने मेरा साथ छोड़ दिया
नींद को बुलाने के लिए
एक से हज़ार तक गिनती गिनने लगी
गिनते हुए गिनती के बारे में सोचने लगी..!

यात्रा का चक्र

बंजर जिंदगी को पीछे छोड़ देना
बारिश को छूना चाँद बादलों से यारी
नंगे पाँव घास पर चलकर ओस से भीग जाना
खाना-बदोश और बंजारों के छोड़े गए घरों को देखना
खुद को तलाशना उन जैसा हो जाना
न होने पर ईर्ष्या का उपजना.....

प्राचीन इमारतों के पीछे भागना
स्थापत्य मूर्तियों को निहारना
एक पल में कई बरस का जीवन जी लेना
ट्रेन का छूट जाना जेब का कट जाना
किसी के छूटे सामान को देखकर
बम आर.डी.एक्स. की आशंका से सिहर जाना
घर पहुँचना और पहुँचकर घर को गले लगा लेना
यात्रा का पहला नाम डर दूसरा फकीरी  !

बहुत दिनों से जाना चाहती हूँ यात्रा पर
लेकिन जा नहीं पा रही हूँ
एक हरे भरे मैदान में
तेज बहुत तेज गोल चक्कर काट रही हूँ
यात्रा के चक्र को पूरा करते
खुद को अधूरा छोड़ रही हूँ..


नींद और स्वप्न का चक्र

नींद के गुण दोष स्वप्न के गुण दोष हैं !
अनिद्रा की शिकार नहीं
फिर भी
नींद नहीं मेरे पास !
कहती है नींद
खुद के लिए जियो
स्वप्न कहते हैं
औरों के लिए जियो !
न जागती हूँ न रोती हूँ
नींद से भरी
स्वप्न की पगडंडी पर चलती हूँ..!

 
जीवन का चक्र

एकदम घुप्प अंधेरे में
चाक को चलते देखा
अंधेरा इतना ज्यादा
न कुम्हार दिखता न दिखता था आकार !

दुख ही सुख है
यही चक्र है जीवन का...! 

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खिड़की खुलने के बाद

मुंडेर पर अनगिन चिड़िया
दूर कहीं
झुण्ड में उड़ते सफेद बगुले
पेड़ की डाल पर नीलकंठ
कूकती कोयल हरे भरे झूमते पेड़
ताज़गी से भरी सुबह
प्रकृति प्रेम हिलोरें मारता है मेरे भीतर
खोलती हूँ जैसे ही खिड़की
दिखते हैं

सड़क पर शौच करते लोग
कीचड़ में भैंसों के संग धँसते बच्चे
बिना टोंटी वाले सूखे सरकारी नल पर
टूटे फूटे तपेले में अपना मुँह गड़ाए
एक दूसरे पर गुर्राते कुत्ते
दिखता है
कूड़े और नालियों पर बसर करता
सडा़ँध मारता जीवन

देखना कुछ चाहती हूँ
दिख कुछ और जाता है
खिड़की खुलने के बाद.....

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 अखबार में फोटो

पीले पड़ चुके अखबार के पन्नों में छपे....

पहले फोटो में
श्रीनगर के हरीसिंह स्ट्रीट मार्केट में
हरी-भरी सब्जियाँ, कफ्र्यू में ढील ,उतावले जरूरतमंद लोग
चमकदार ताजी सब्जियों पर चमकती दहशत ।

दूसरे में अयोध्या में ग्राहक न आने की वजह से
चाँदी की दुकान में
मंदिर-मस्जिद से परे गहरी नींद में दुकानदार
बेफिक्री ऐसी कि लूट का डर नहीं और जमाने की परवाह नहीं ।

तीसरे में हैदराबाद में तेज बारिश के बाद
सड़क पर भर आए पानी से जूझते हुए लोग ।

चौथे में बाढ़ के पानी में डूबता यमुना मंदिर
एक भी फकीर नहीं आस-पास
पानी में डूबती-तिरती फकीरी नहीं, भव्यता की परछाई है ।


पाँचवे में वृंदावन के बाढ़ग्रस्त इलाके में
तोते को पिंजरे में लिए घुटनों तक डूबी महिला
फोकस करता एक फोटोग्राफर
जिसने तोते की फड़फड़ाहट को भी स्टिल कर दिया है

छठवें फोटो में
उफनती नदी से तबाह हुए घर को देखते किसान परिवार की तीन पीढ़ियाँ हैं
जिसमें बच्चे टीले पर चढ़े हुए
जवान नदी को ऐसे घूर रहे हैं, जैसे वे उसे लील जाएँगे
और वयोवृद्व हाथ जोड़ते हुए ।

कविता के लिए कितने सटीक विषय हैं ये
लेकिन इन पर कविता लिखना कितना मुश्किल... ?

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परिचय 
4 अगस्त 1969 को मध्य प्रदेश के गंज बासोदा में जन्मीं नीलेश के तीन कविता संग्रह 'घर निकासी' , 'पानी का स्वाद' और 'अंतिम पंक्ति में' प्रकाशित हुए हैं. इसके अलावा अभी हाल में उनका उपन्यास 'एक कस्बे के नोट्स' भी खूब चर्चित रहा है. उन्हें 'भारत भूषण सम्मान' सहित कई पुरस्कार और सम्मान भी मिले हैं




'फुर्सत में आज' : आनंद कुमार द्विवेदी का पहला ग़ज़ल संग्रह

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आनंद कुमार द्विवेदी बड़ी सादगी से लगातार ग़ज़लें कहते रहते हैं. उनके अशआर और उनकी कहन में एक ताज़गी भी है और जदीदी शायरी की रवायत का एक साफ़ असर भी. किताब बोधि प्रकाशन से आई है और क़ीमत है 70/- रुपये. असुविधा की ओर से इस किताब का एहतराम और यह उम्मीद कि किताब ग़ज़ल के कद्रदानों द्वारा पसंद की जायेगी. 




मुझे होशियार लोगों  को कभी ढ़ोना नहीं आया
कि ज़ालिम  की तरह बेशर्म भी होना नहीं आया
|

मैं यूँ ही घूमता था नाज़ से, उसकी मोहब्बत पर ,
मेरे हिस्से में उसके दिल का इक कोना नहीं आया |

अगर सुनते न वो हालात मेरेकितना अच्छा था
ज़माने भर का गम था पर  उसे रोना नहीं आया |

खुदा  को भी बहुत ऐतराज़,  है मेरे उसूलों पर,
वो  जैसा चाहता है  मुझसे वो होना नहीं आया |

नहीं हासिल हुई रौनक , तो उसकी कुछ वजह ये है 
बहुत पाने की चाहत थी मगर  खोना नहीं आया  |

मैं अक्सर खिलखिलाता हूँ, मगर ये रंज अब भी है,
मुझे  'आनंद' होना था ...मगर होना  नहीं  आया  |


 (2) 



अपने स्कूलों  से तो, पढ़कर मैं आया और कुछ ,
जिंदगी जब भी मिली
, उसने सिखाया और कुछ!

सख्त असमंजश में हूँ बच्चों को क्या तालीम दूँ  ,
साथ लेकर कुछ चला था, काम आया और कुछ !

आज फिर मायूस होकर, उसकी महफ़िल से उठा,
मुझको मेरी बेबसी ने ,   फिर रुलाया और कुछ  !

इसको भोलापन कहूं या, उसकी होशियारी कहूं?
मैंने पूछा और कुछ,   उसने बताया और कुछ  !

सब्र का फल हर समय मीठा ही हो, मुमकिन नहीं,
मुझको वादे कुछ मिले थे,   मैंने पाया और कुछ !

आजकल 'आनंद' के,    नग्मों की रंगत और है ,
शायद उसका दिल किसी ने फिर दुखाया और कुछ


 (3)

 इतना भी गुनहगार न मुझको बनाइये
सज़दे के वक़्त यूँ न मुझे  याद आइये

नज़रें नहीं मिला रहा हूँ अब किसी से मैं
ताक़ीद कर गए हैं वो, कि, ग़म छुपाइये

मतलब निकालते हैं लोग जाने क्या से क्या
आँखें छलक रहीं हो अगर मुस्कराइये

वो शख्स मुहब्बत के राज़ साथ ले गया
अब लौटकर न आयेगागंगा नहाइये

सदियों का थका हारा था दामन में रूह के
'आनंद' सो गया है, उसे मत जगाइये 


(4)

मेरी राम कहानी लिख
ये बेबाक बयानी लिख

मरघट जैसी चहल-पहल
इसको मेरी जवानी लिख

मेरे आँसू झूठे लिख
मेरे खून को पानी लिख

मेरे हिस्से के ग़म को
मेरी ही नादानी लिख

मेरी हर मज़बूरी को
तू मेरी मनमानी लिख

ऊँघ रहे हैं लोग, मगर
मौसम को तूफानी लिख

मेरे थके क़दम मत लिख
शाम बड़ी मस्तानी लिख

ज़िक्र गुनाहों का मत कर
वक़्त की कारस्तानी लिख

दिल से दिल के रिश्ते लिख
बाकी सब बेमानी लिख

जब भी उसका जिक्र चले
दुनिया आनी-जानी लिख

लिखना हो 'आनंद' अगर
बिधना की शैतानी लिख


(5)

क्या तमाशे कर रहा है आदमी
अब नज़र से गिर रहा है आदमी 

बिन लड़े जीना अगर संभव नहीं
बिन लड़े क्यों मर रहा है आदमी 

हर जगह से हारकर, सारे सितम 
औरतों पर कर रहा है आदमी 

देश की नदियाँ सुखाकर, फ़ख्र से 
बोतलों  को  भर रहा है आदमी
  
हाथ में लेकर खिलौने एटमी  
आदमी से डर रहा है आदमी 

योग, पूजा, ध्यान नाटक है, अगर  
भूख से ही लड़ रहा है आदमी 

है पड़ी स्विच-ऑफ दुनिया जेब में 
ये तरक्की कर रहा है आदमी  



(6) 

 मंज़िल  के  बाद  कौन  सफ़र  ढूंढ  रहा हूँ
अपने  से  दूर  तुझको  किधर  ढूंढ  रहा हूँ

कहने को शहर छोड़कर सहरा में आ गया
पर   एक    छाँवदार  शज़र  ढूंढ  रहा   हूँ

जिसकी नज़र के सामने दुनिया फ़िजूल थी
हर शै  में  वही  एक  नज़र  ढूंढ  रहा  हूँ

लाचारियों का हाल तो देखो कि इन दिनों
मैं दुश्मनों  में  अपनी  गुजर  ढूंढ  रहा  हूँ

तालीम  हमने पैसे  कमाने  की दी  उन्हें
नाहक  नयी  पीढ़ी  में  ग़दर  ढूंढ  रहा हूँ

जैसे शहर में  ढूंढें  कोई  गाँव वाला  घर
मैं मुल्क  में  गाँधी का असर ढूंढ रहा हूँ

यूँ गुम हुआ कि सारे जहाँ में नहीं मिला
'आनंद' को  मैं  शामो-सहर  ढूंढ रहा हूँ



 (7)

  
बैठा हुआ सूरज की अगन देख रहा हूँ
गोया तेरे जाने का सपन देख रहा हूँ

मेरी वजह से आपके चेहरे पे खिंची थी
मैं आजतक वो एक शिकन देख रहा हूँ

सदियों के जुल्मो-सब्र नुमाया है आप में
मत सोचिये मैं सिर्फ़ बदन देख रहा हूँ

दिखती कहाँ हैं आँख से तारों की दूरियाँ
ये कैसी आस है कि  गगन देख रहा हूँ

रंगों से मेरा बैर कहाँ ले चला मुझे
चूनर के रंग का ही कफ़न देख रहा हूँ

जुमले तमाम झूठ किये एक शख्स  ने
पत्थर के पिघलने का कथन देख रहा हूँ

'आनंद' इस तरह का नहीं, और काम में
जलने का मज़ा और जलन देख रहा हूँ


विमलेश त्रिपाठी की कविताएं

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आम आदमी की कविता



      
             [ 1 ]


मेरी कही जाने वाली यह धरती 
क्या मेरी ही है
अन्न जो उगाए मैंने 
क्या मेरे ही हैं
यह देश जिसमें मेरे पूर्वज रहते आए सदियों
क्या यह मेरा ही है

यह पृथ्वी यह जल यह आकाश
इनके उपर किसका हक है

कहां है वह कंधा 
जिसके उपर धरती यह टिकी हुई है
एक सच को कहावत की तरह
कौन कर रहा है इस्तेमाल

इस समय कुछ नही मेरे पास
सिवाय इसके कि मुझे भाषणों और
कहावतों में बदल दिया गया है

कुछ लोगों के लिए 
विज्ञापन बन गया मैं
इस देश और इस समय का आम आदमी
अपनी ही धरती पर अपनी पहचान के लिए
लड़ता हारता लहुलुहान होता जाता लागातार...


    
   [2 ]

रूमाल के कोने पर लिखा एक चीकट नाम रह गया हूं
एक नाम पट्ट धूल के गुबार में सना
एक ईश्वर परित्यक्त किसी निर्जन वन में
सूख गया एक कुँआ ईंट कंकड़ों से भरा

एक स्त्री के चेहरे पर सूख गए आंसू का नमक
एक भूखे किसान के आंख का कींचड़

एक शब्द जिसका अर्थ नहीं समझता यह देश
एक अर्थ जिसे गलत समझा गया हमेशा
एक कवि जिसका इस समय में कोई नहीं उपयोग

एक आम आदमी अपने ही देश के माथे पर 
एक कलंक की तरह

एक सपना जिसे पैंसठ साल की उम्र तक
भूल गए हैं वे लोग 
बंद कर कर चुके सात तालों के बीच
जो सुना है
दिल्ली नाम के किसी शहर में रहते हैं..।


           [3 ]

कौन हूं मै घंटो धूप में इंतजार करता 
रामलीला मैदान  ब्रिग्रेड परेड ग्राउण्ड  गांधी मैदान
 
या खुले सरेह में बांस की बरिअरों से घिरा
अपने तथाकथित अन्नदाताओं के भाषण स
ुनता 
जिसमें बहुत सारे झूठे वादे 
और गालियां शामिल
हर फरेब पर तालियां बजाता नारे लगाता
कौन हूं मैं

कौन हूं मैं सड़कों पर मिछिलों में चलता
खाली पैर अपने झाखे और ठेले से दूर
अपने राशन कार्डों लाइसेंस और पहचान पत्रों के 
छिन लिए जाने के भय से

अपने कमजोर घरों को बचाने के डर से
सभाओं की भीड़ बढ़ाता मैं कौन हूं
खड़ा होता छाता लगाए वोट डालने की कतार में
यह जानते हुए कि जिसको दे रहा वोट
वही जिम्मेवार सबसे अधिक 
भूख और गरीबी और तंगहाली के लिए

अपने परिवार में खुश रहने 
और एक सुरक्षित जीवन के लिए
डर का कवच पहने
गूंगी साधे हर अन्याय के सामने 
मैं कौन हूं

कौन हूं मैं अपने ही बनाए एक गोलघर में कैद
देश और दुनिया के तमाशों से अलग 
खटता रात दिन कारखानों दुकानों खेतों में
अपने कंधे पर धरती के बोझ को थामें
चुपचाप सदियों से

अपनी ही पहचान से बंचित
शोषित दमित और परिमित
कौन हूं मैं 
जिसके कंधे पर खड़ी है इस देश की
सबसे शक्तिशाली इमारत

कौन हूं मैं
कि जिसकी मुक्ति का गीत 
सदियों हुए बीच में कहीं रूक गया है...।।

          [ 4 ]

जो चुप है कि जिसके बोलने से पहाड़ पिघलते हैं
और इसलिए जिसके बोलने पर तरह-तरह की पाबंदियां
कि वह बोलेगा जब तो हिलने लगेगी यह धरती
आकाश की छाती कांपेंगी
कि प्रलय आएगा जिसमें ढह जाएंगे आलिशान महल

उसके बोलने से डरती है एक पूरी कौम
और इसलिए उसके दिमाग में संस्थापित किया गया है 
चुप्पी का एक साजिशी सॉफ्टवेयर
बांधा गया है उसे सदियों पुरानी गुलाम जंजीरों से

चुप्पी के बदले उसे दी गई है दो जून की रोटी
एक घर जिसमें हवा और रोशनी की पहुंच नहीं

उसकी चुप्पियों की आड़ में चल रहा है खेल
शासन और राजनीति का
पैसे और घोटालों का
खड़ा है पहाड़ अन्याय और जोर जुलूम का

मैं सदियों की उस चुप्पी को तोड़ने के लिए
सदियों से लिख रहा हूं कविताएं 
फेंक रहा हूं शब्दों के गोले
बहुत समय हुआ
कि अब मेरे शब्द मुझसे ही पूछ रहे हैं सवाल 
और मैं निरूत्तर हूं अपने ही शब्दों के सामने

मैं कवि नहीं 
हूं एक आम आदमी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का रहनावर
शब्दों और चुप्पियों के बीच अपने लिए रोटी के टुकड़े जुगाड़ता
कायरता और साहस के बीच के एक बहुत पतले पुल की यात्रा करता

मैं वही हूं जिसकी आवाज पहुंच नहीं पा रही
जहां पहुंचनी थी बहुत-बहुत जमाने पहले....।।



          [ 5 ]

अपनी फांफर झुग्गियों से निकल कर
मैं फैल जाना चाहता हूं हर ओर मधुमक्खियों की तरह
बैठना चाहता हूं उन मुलायम चेहरों पर 
जो पता नहीं कितनी सदियों से और अधिक मुलायम होते गये हैं
मैं छिपकलियों की तरह अपने बिल से निकल कर गिरना चाहता हूं
उन हजारों थालियों में जो सजी हैं मेरे ही हाथों की कारीगरी से

मैं अपने घोसले से निकल कर गिद्धों की तरह गायब नहीं होना चाहता
झपटना चाहता हूं अपने हक का निवाला तेज चीलों की तरह
अपने अंडो का शिकार करने वाले सांपों के फन
कुचल देना चाहता हूं अपनी लंबी लाठियों के हूरे से

सावधान हो राजधानियां  राजमहल के बाशिंदों सावधान
मैं मेघ की तरह घिरकर 
गिरना चाहता हूं कठोर और आततायी बज्र की तरह

और अंततः
मैं अब उड़ना चाहता हूं बेखौफ महलों के चौबारों   कंगूरों पर सफेद कबूतरों की तरह
अंतहीन.
अंतहीन समयों तक...।।



****

विमलेश त्रिपाठी

·         बक्सर, बिहार के एक गांव हरनाथपुर में जन्म ( 7 अप्रैल 1979 मूल तिथि)। प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही।
·         प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातकोत्तर, बीएड, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत।
·         देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन।


पुस्तकें
·          “हम बचे रहेंगेकविता संग्रह, नयी किताब, दिल्ली
·         अधूरे अंत की शुरूआत, कहानी संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ


·         संपर्क:साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
                1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.
·         ब्लॉग: http://bimleshtripathi.blogspot.com
·         Email: bimleshm2001@yahoo.com
·         Mobile: 09748800649



जेल जाने के लिए अपराध ज़रूरी नहीं होता न भूख के लिए गरीबी

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इधर लम्बे अरसे से अपनी कोई कविता असुविधा पर नहीं लगाई थी. आज एक ताज़ा कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ जो बया के नए अंक में प्रकाशित हुई है ...

          Trine Meyer Vogsland की पेंटिंग The Queue of Desperation यहाँसे साभार साभार 




 
मैं फ़िलवक्त  बेचेहरा आवाजों के साथ भटक रहा हूँ...


दिल्ली के जंतर-मंतर पर खड़ा हूँ
और वहाँ गूँज रही है अमरीका के लिबर्टी चौराहे से टाम मोरेलो के गीतों की आवाज़

मैं उस आवाज़ को सुनता हूँ दुनिया के निन्यानवे फीसद लोगों की तरह और मिस्र के तहरीर चौक पर उदास खड़ी एक लड़की का हाथ थामे ग्रीस की सडकों पर चला जाता हूँ नारा लगाते जहाँ फ्रांस से निकली एक आवाज़ मेरा कंधा पकड़कर झकझोरती है और मैं फलस्तीन की एक ढहती हुई दीवार के मलबे पर बैठकर अनुज लुगुन की कविताएँ पढने लगता हूँ ज़ोर-ज़ोर से.

मैं शोपियाँ के सड़कों पर एक ताज़ा लाश के पीछे चलती भीड़ में सबसे पीछे खड़ा हो जाता हूँ और कुडनकुलम की गंध से बौराया हुआ उड़ीसा की बिकी हुई नदियों के बदरंग बालू में लोटने की कोशिश करता हूँ तो एक राइफल कुरेदती है और मैं खिसियाया हुआ मणिपुर के अस्पताल में जाकर लेट जाता हूँ भूखा जहाँ श्योपुर के जंगलों में जड़ी-बूटी बीनती एक आदिवासी लड़की मेरे सूखे ओठों पर अपनी उंगलियाँ फिराती हुई कहती है – भूख चयन नहीं होती हमेशा, ली गयी भूख अपराध है और दी गयी भूख देशभक्ति!

ठीक उसी वक़्त बिलकुल साफ़ शब्दों में गूंजती है एक आवाज़ – जेल जाने के लिए अपराध ज़रूरी नहीं होता न भूख के लिए गरीबी. ज़रूरी तो वीरता पदक के लिए वीरता भी नहीं होती. यह जो पत्थर तुम्हारी आँखों में पड़े हैं वे मेरी योनि से निकले हैं. तुम्हें साफ़-साफ़ दिखेगा इन्हें हाथों में लो तो एक बार. मैं पूछता हूँ सोनी सौरी? तो झिड़कती हैं कितनी ही आवाजें  – आत्महत्या नहीं की तुमने अभी तक और जेल में नहीं हो अगर तुम और कोई अपराध नहीं तुम्हारे सर पर तो सिर्फ कायर हो तुम. जो अपराधी नहीं वे अपराध में शामिल हैं आज. यह जो माला है तुम्हारे गले में उसके मनके मेरे खेत के हैं तुम्हारे पेट में जो दाने हैं वे मैंने अपने बच्चे के लिए बचाकर रखे थे वह जो साड़ी लिए जा रहे हो तुम अपनी पत्नी के लिए वह सरोंग है सेना भवन के सामने खड़ी नंगी औरतों की. कौन जाने तुम्हारे भीतर जो बीमार सा गुर्दा है वह किसी अफ्रीकी का हो !


कितनी ही आवाज़ें छाने लगती हैं मेरे वज़ूद पर
कितनी भाषाओं के शब्द कसने लगते हैं मेरी गर्दन
मैं अपने कानों पर हाथ रखना चाहता हूँ तो वे कस जाते हैं होठों पर.

लहू-लुहान मैं लौटता हूँ कविता की दुनिया में
जहाँ एक लड़की कहती है मुझे तुम्हारी आवाज़ से मोहब्बत हो गयी है
एक दोस्त कहता है बड़े स्नेह से कितने दिन हुए शराब नहीं पी हमने साथ में

मैं उनकी ओर देखता हूँ अवाक और वे दया भरी निगाह से मेरे उलझे बालों में उंगलियाँ फिराते हैं. आले की तरह रखते हैं मेरे सीने पर हाथ और कहते हैं देखो कितनी सुन्दर चिड़िया आई है इस बार सीधे फ्रांस से ... और कितने सालों बाद इस बसंत में पीले-पीले फूल खिले हैं हमारे आँगन में. उठो अपने जख्म धो डालो शहर में गुलाबी उत्सव है कविता का और दिल्ली में तो मदनोत्सव अब बारहमासी त्यौहार बन गया है. इस बार आना ही होगा तुम्हें डोमाजी खुद अपने हाथों से देंगे इस बार पुरस्कार. मैं घबराया हुआ अपनी माचिस ढूंढता हूँ तो वह लड़की बहुत करीब आते हुए कहती है देखो न कितना प्रेम है चारों ओर और कितनी मधुर अग्नि है इन उन्नत उरोजों में. इन दिनों हृदय का अर्थ उरोज है , कान में कहता है मित्र पूरी गंभीरता से.

मैं भरी महफ़िल में चीखना चाहता हूँ
पर पिछली गली से निकल आता हूँ चुपचाप

वहाँ एक सांवली सी लड़की कहती है मुझसे – मैंने फिर बदल दिया है अपना बयान और यहाँ खड़ी हूँ कि महफ़िल ख़त्म हो और वह लौटकर मुझे पैसे दे बचे हुए मुझे अपने पिता की कब्र पर ताज़े गुलाब चढ़ाने हैं और न मैं अहमदाबाद जा सकती हूँ न अमेरिका आप जानते हैं न इस महफ़िल से बाहर जो कुछ है सब जेल है.

मैं पूछता हूँ – भायखला?

तो कोई चीखता है – अबू गरीब!  

शिरीष कुमार मौर्य की ताज़ा कविताएं

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शिरीष की ये कवितायें अभी बिलकुल हाल में लिखी गयी हैं. इन पर अलग से किसी विस्तृत टिप्पणी की जगह सिर्फ़ इतना कि इन्हें पढ़ते हुए मुश्किल हालात में एक कवि की प्रतिक्रिया के भीतरी तहों में उठती उथल-पुथल को न सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है बल्कि अपने एकदम करीब घटित होते अनुभव भी किया जा सकता है. 

पेंटिंग पाल नैश की 





स्‍थायी होती है नदियों की याददाश्‍त


कितनी बारिश होगी हर कोई पूछ रहा है
कुछ पता नहीं हर कोई बता रहा है

बारिश तो बारिश की ही तरह होती है
पर लोग लोगों की तरह नहीं रहते
रहना रहने की तरह नहीं रहता
भीगना भीगने की तरह नहीं होता

नदियां मटमैले पानी से भरी बहने की तरह बहती हैं
बहने के वर्षों पुराने छूटे रास्‍ते उन्‍हें याद आने की तरह याद आते है 
वे लौटने की तरह लौटती हैं
पर उनकी आंखें कमज़ोर होती हैं
वे दूर से लहरों की सूंड़ उठा कर सूंघती हैं पुराने रास्‍ते
और हाथियों की तरह दौड़ पड़ती हैं

बारिश नदियों को हाथियों का बिछुड़ा झ़ंड बना देती है
जो हर ओर से चिंघाड़ती बेलगाम आ मिलना चाहती हैं
किसी पुरानी जगह पर
जहां उनके पूर्वजों की अस्थियां धूप में सूखती रहीं बरसों-बरस

नदियों के पूर्वज पूर्वर्जों की तरह होते हैं
पुरखों की ज़मीन जिस पर आ बसे नई धज के लोग
नई इमारतें
वहां से उधेड़ी गई मिट्टी, काटे गए पेड़ और तोड़ी गई चट्टानें
पहाड़ पानी के थैले में बांध देते हैं दुबारा
वहीं तक पहुंचाने को

वापिस लौटाने होते हैं रास्‍ते
बारिश की इसी बंदोबस्‍ती में 
लोगों की तरह नहीं रहने वाले लोगों को
छोड़नी पड़ती है ज़मीन
जो पीछे नहीं हटता ग़लती या ख़ुशफ़हमी में
मारा जाता है

नदियां हत्‍यारी नहीं होतीं
हत्‍यारी होती हैं लोगों की इच्‍छाएं सब कुछ हथिया लेने की
बारिश तो बारिश की ही तरह होती है
पहाड़ों पर
मैं भी इसी बारिश के बीच रहता हूं
भीगता हूं भीगने की ही तरह
मेरी त्‍वचा गल नहीं जाती ढह नहीं जातीं मे‍री हड्डियां
मैं ज्‍़यादा साफ़ किसी भूरी मज़बूत चट्टान की तरह दिखता हूं
उस पर लगे साल भर के धब्‍बे धुल जाते हैं धुलने की तरह

कुछ अधिक तो नहीं मांगती
मेरे पहाड़ों से निकल सुदूर समन्‍दर तक जीवन का विस्‍तार करती नदियां

बस लोग लोगों की तरह
रहना रहने की तरह
छोड़ देना कुछ राह जो नदियों की याद में है याद की तरह

नदियों की पूर्वज धाराओं की अस्थियों पर बसी बस्तियां
स्‍थायी नहीं हो सकतीं
पर स्‍थायी होती है नदियों की याददाश्‍त  
 
मुश्किल दिन की बात

आज बड़ा मुश्किल दिन है
कल भी बड़ा मुश्किल दिन था
पत्‍नी ने कहा –
                   चिंता मत करो कल उतना
                   मुश्किल दिन नहीं होगा
उसके ढाढ़स में भी उतना भर संदेह था

मुश्‍किल दिन मेरे कंठ में फंसा है
अटका है मेरी सांस में
मैं कुछ बोलूं तो मुश्किल की एक तेज़ ध्‍वनि आती है
मुश्किल दिन से छुटकारा पाना
मुश्किल हो रहा है

मां उच्‍च रक्‍तचाप और पिता शक्‍कर की
लगातार शिकायत करते हैं
पत्‍नी ढाढ़स बंधाने के अपने फ़र्ज़ के बाद
पीठ के दर्द से कराहती सोती है  

अपनी कुर्सी पर बैठा मैं
घर का दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल जाता हूं
बच्‍चे की नींद और भविष्‍य ख़राब न हो
इसलिए मैं बहुत चुपचाप बाहर निकलता हूं

बाहर मेरे लोग हैं वे मेरी तरह कुर्सी पर बैठे हुए नहीं हैं

उनमें से एक शराब के नशे में धुत्‍त
बहुत देर से सड़क पर पड़ा है
मैं उसे धीरे से किनारे खिसकाता हूं
वह लड़खड़ाते अस्‍पष्‍ट स्‍वर में एक स्‍पष्‍ट गाली देता है मुझे
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा

एक हज़ार रुपए में रात का सौदा निबटा कर
बहुत तेज़ क़दम घर वापस लौट रही है एक परिचित औरत
एक हज़ार रुपए इसलिए कि दिन में यह आंकड़ा बता देते हैं
उसकी रातों के ज़लील सौदागर
मैं मुंह फेर कर उसे रास्‍ता देता हूं
कल सुबह मिलने पर वह मुझे नमस्‍ते करेगी
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा

एक अल्‍पवयस्‍क मजदूर
एक दूकान के आगे बोरा लपेट कर सोया पड़ा है
कल जब मैं अपने काम पर जाऊंगा
वह चौराहे पर मिलेगा अपने हिस्‍से का काम खोजता हुआ
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा

घबरा कर कुर्सी पर बैठे हुए मैं घर का दरवाज़ा खोल वापस आ जाता हूं
कमरे के 18-20 तापमान पर भी पसीना छूटता है मुझे
कम्‍प्‍यूटर खोलकर मैं अपने जाहिलों वाले पढ़ने-लिखने के काम पर लग जाता हूं
अपने लोगों को बाहर छोड़ता हुआ
कल मुझे उन्‍हीं के बीच जाना है
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा

मेरे स्‍वर में मुश्किल भर्राती है
मेरी सांस में वह घरघराती है पुराने बलगम की तरह
मैं उसे खखार तो सकता हूं पर थूक नहीं सकता
मुश्किलों को निगलते एक उम्र हुई
कल भी मैं किसी मुश्किल को निगल लूंगा
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा

जानता हूं
एक दिन मुश्किलें समूचा उगल कर फेंक देगी मुझे
मेरी तकलीफ़ों और क्रोध समेत
जैसे मेरे पहाड़ उगल कर फेंक देते हैं अपनी सबसे भारी चट्टानें
बारिश के मुश्किल दिनों में
और उनकी चपेट में आ जाते हैं गांवों और जंगलों को खा जाने वाले
चौड़े-चौड़े राजमार्ग
दूर तक उनका पता नहीं चलता
कल कोई ज़रूर मेरी चपेट में आ जाएगा
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा
                                   लेकिन मेरे लिए नहीं 
***

सुबह हो रही है

सुबह हो रही है मैं कुत्‍ता घुमाने के अपने ज़रूरी काम से लौट आया
घर वापस
घर में बनती हुई चाय की ख़ुश्‍बू
और पत्‍नी की इधर से उधर व्‍यस्‍त आवाजाही
आश्‍वस्‍त करती है मुझे
कि यह सुबह ठीक-ठाक हो रही है

यह इसी तरह होती रही तो घर की सीमित दुनिया में ही सही
एक अरसे बाद मैं कह पाऊंगा अपने सो रहे बेटे से
कि उठो बेटा सुबह हो गई
वरना अब तक तो कहता रहा हूं उठो बेटा बहुत देर हो गई

रात होती है तो सुबह भी होनी चाहिए
पर वह होती नहीं अचानक लगता है दिन निकल आया है बिना सुबह हुए ही
रात के बाद दिन निकलना खगोल विज्ञान है
जबकि सुबह होना उससे भिन्‍न धरती पर एक अलग तरह का ज्ञान है

इन दिनों मेरे हिस्‍से में यह ज्ञान नहीं है
सुदूर बचपन में कभी देखी थी होती हुई सुबहें
अब उनकी याद धुंधली है

पगली है मेरी पत्‍नी भी
मुझ तक ही अपनी समूची दुनिया को साधे
कितनी आसानी से कह देती है
मुझे उठाते हुए उठो सुबह हो गई

मैं उसे सुबह के बारे में बताना चाहता हूं
रेशा-रेशा अपने लोगों की जिन्‍दगी दिखाना चाहता हूं
जिनकी रातें जाने कब से ख़त्‍म नहीं हुईं
बस दिन निकल आया
और वे रात में जानबूझ कर छोड़ी रोटी खाकर काम पर निकल गए
जबकि रात ही उन्‍हें
उसे खा सकने से कहीं अधिक भूख थी

मेरी सुबह एक भूख है
कब से मिटी नहीं
जाने कब से मै भी रोज़ रात एक रोटी छोड़ देता हूं
सुबह की इस भूख के लिए

पर यह एक घर है जिसमें रोटी ताज़ी बन जाती है
मैं रात की छोड़ी रोटी खा ही नहीं पाता
और फिर दिन भर भूख से बिलबिलाता हूं

मेरी सुबह कभी हो ही नहीं पाती
वह होती तो होती थोड़ी अस्‍त–व्‍यस्‍त
बिखरी-बिखरी
किसी मनुष्‍य के निकलने की तरह मनुष्‍यों की धरती पर

जबकि मैं नहा-धोकर
लकदक कपड़ों में
अचानक दिन की तरह निकल जाता हूं काम पर
*** 

किसी ने कल से खाना नहीं खाया है

रात मेरे कंठ में अटक रहे हैं कौर
मुझे खाने का मन नहीं है
थाली सरका देता हूं तो पत्‍नी सोचती है नाराज़ हूं या खाना मन का नहीं है

यूं मन का कुछ भी नहीं है इन दिनों
अभी खाने की थाली में जो कुछ भी है मन का है पर मेरा मन ही नहीं है

मन नहीं होना मन का नहीं होने से अलग स्थिति है

मैंने दिन में खाना खाया था अपनी ख़ुराक भर
भरे पेट मैं काम पर गया

शाम लौटते हुए
सड़क किनारे एक बुढिया से लेकर बांज के कोयलों पर बढिया सिंका हुआ
एक भुट्टा खाया था
वह भी खा रही थी एक कहती हुई –

बेटा कल से बस ये भुट्टे ही खाए हैं और कुछ नहीं खाया
तेज़ बारिश में कम गाड़ियां निकली यहां से
इतने पैसे भी नहीं हुए एक दिन का राशन ला पाऊं
पर सिंका हुआ भुट्टा भी अच्‍छा खाना है भूख नहीं लगने देता

मैंने भी वह भुट्टा खाया था और अब मेरा खाने का मन नहीं
अपने लोगों के बीच इतने वर्षों से इसी तरह रहते हुए
अब मैं यह कहने लायक भी नहीं रहा
कि किसी ने कल से खाना नहीं खाया है
इसलिए मेरा भी मन नहीं

कविता के बाहर पत्‍नी से
और कविता के भीतर पाठकों से भी बस इतना ही कह सकता हूं 
कि मैंने शाम एक भुट्टा खाया था 
अब मेरा मन नहीं

और जैसा कि मैंने पहले कहा मन नहीं होना मन का नहीं होने से अलग
एक स्थिति है
***

सांड़

सांड़ की आंखों को लाल होना चाहिए पर गहरी गेरूआ लगती हैं मुझे
विशाल शरीर उसका
अब भी बढ़ता हुआ ख़ुराक के हिसाब से
उसके सींग जब उसे लगता है कि हथियार के तौर पर उतने पैने नहीं रहे
उन्‍हें वह मिट्टी-पत्‍थर पर रगड़ता है पैना करता है

राह पर निकले
तो लोग भक्तिभाव से देखते हैं
क़स्‍बे के व्‍यापारियों ने पूरे कर्मकांड के साथ छोड़ा था उसे शिव के नाम पर
जब वह उद्दंड बछेड़ा था
तब से लोगों ने रोटियां खिलाईं उसे
उसकी भूख बढ़ती गई
स्‍वभाव बिगड़ता गया
अब वो बड़ी मुसीबत है पर लोग उसे सह लेते हैं

वह स्‍कूल जाते बच्‍चों को दौड़ा लेता है
राह चलते लोगों की ओर सींग फटकारता है कभी मार भी देता है
अस्‍पताल में घायल कहता है डॉक्‍टर से
नंदी नाराज़ था आज पता नहीं कौन-सी भूल हुई

उसे क़स्‍बे से हटाने की कुछ छुटपुट तार्किक मांगों के उठते ही
खड़े हो जाते हिंदुत्‍व के अलम्‍बरदार

इस क़स्‍बे की ही बात नहीं
देश भर में विचरते हैं सांड़ अकसर उन्‍हें चराते संगठन ख़ुद बन जाते हैं सांड़

सबको दिख रहा है साफ़
अश्‍लीलता की हद से भी पार बढ़ते जा रहे हैं इन सांड़ों के अंडकोश
उनमें वीर्य बढ़ता जा रहा है
धरती पर चूती रहती है घृणित तरल की धार
वे सपना देखते हैं देश पर एक दिन सांड़ों का राज होगा
लेकिन भूल जाते हैं कि जैविक रूप से भी मनुष्‍यों से बहुत कम होती है सांड़ों की उम्र

ख़तरा बस इतना है
कि आजकल एक सांड़ दूसरे सांड़ को दे रहा है सांड़ होने का विचार

उनका मनुष्‍यों से अधिक बलशाली होना उतनी चिंता की बात नहीं
जितनी कि एक मोटे विचार की विरासत छोड़ जाना

सबसे चिंता की बात है
इन सांड़ों का पैने सींगो,मोटी चमड़ी और विशाल शरीर के साथ-साथ
पहले से कुछ अधिक विकसित बुद्धि के साथ
मनुष्‍यों के इलाक़े में आना  
***






संपर्क : द्वितीय तल
,ए-2,समर रेजीडेंसी,निकट टी आर सी,भवाली,जिला-नैनीताल (उत्‍तराखंड) 263 132

दिनेश कुशवाह की लम्बी कविता

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दिनेश कुशवाह समकालीन हिंदी कविता के एक सुपरिचित हस्ताक्षर हैं. उनका कविता संकलन 'इसी काया में मोक्ष'  खूब चर्चित हुआ. कोई एक दशक एक वामपंथी संगठन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहे दिनेश भाई की कविताओं में मुझे जो सबसे ख़ास बात दिखती है वह है लोक से उनका गहरा अनुराग...यह उनके कथ्य और भाषा-शिल्प, दोनों में बखूबी लक्षित किया जा सकता है. यह कविता जब उन्होंने मुझे मेल से भेजी तो साथ में कहा कि 'यह तुमको खासतौर पर पसंद आएगी'. इस कहे कि वज़ह आपको इस कविता से गुज़रते हुए स्पष्ट होगी जिसमें वह समकाल पर एक तीखी टिप्पणी ही नहीं करते बल्कि इसकी विडम्बनाओं से गुज़रते हुए एक महाकाव्यात्मक आख्यान के पक्ष में कविता संभव करते हैं. यहाँ 'अपनी ही पीठ ठोंक कर अजानबाहू हो चले लोगों' की सटीक पहचान ही नहीं है बल्कि उनके प्रभावी होते जाने के साथ आम लोगों की ज़िन्दगी पैदा हुई मुश्किलात और उनके खिलाफ एक फैसलाकुन जंग की ज़रुरत भी साफ़ ज़ाहिर होती है. दिनेश भाई के मुझ जैसे पुराने पाठकों को इस कविता को पढ़ते हुए बार-बार एहसास होता है कि यहाँ वह खुद को ही अतिक्रमित कर रहे हैं...






उजाले में आजानुबाहु

बड़प्पन का ओछापन सँभालते बड़बोले
अपने मुँह से निकली हर बात के लिए
अपने आप को शाबाशी देते हैं
जैसे दुनिया की सारी महानताएँ
उनकी टाँग के नीचे से निकली हों
कुनबे के काया-कल्प में लगे बड़बोले
विश्व कल्याण से छोटी बात नहीं बोलते।

वे करते हैं
अपनी शर्तों पर
अपनी पसंद के नायक की घोषणा
अपनी विज्ञापित कसौटी के तिलिस्म से
रचते हैं अपनी स्मृतियाँ और
वर्तमान की निन्दा करते हुए पुराण।

लोग सुनते हैं उन्हें
अचरज और अचम्भे से मुँहबाए
हमेशा अपनी ही पीठ बार-बार ठोकने से
वे आजानुबाहु हो गये।

उन्होंने ही कहा था तुलसीदास से
ये क्या ऊल-जलूल लिखते रहते हो
रामायण जैसा कुछ लिखो
जिससे लोगों का भला हो।

गांव की पंचायत में
देश की पंचायत के किस्से सुनाते
देश काल से परे बड़बोले
बहुत दूर की कौड़ी ले आते हैं।

सरदार पटेल होते तो इस बात पर
हमसे ज़्ारूर राय लेते
जैसा कि वे हमेशा किया करते थे
अरे छोड़ो यार!
नेहरु को कुछ आता-जाता था
सिवा कोट में गुलाब खोंसने के
तुम तो थे न
जब इंदिरा गांधी ने हमें
पहचानने से इंकार कर दिया
हम बोले-हमारे सामने
तुम फ्राॅक पहनकर घूमती थीं इंदू!
लेकिन मानना पड़ेगा भाई
इसके बाद जब भी मिली इंदिरा
पाँव छूकर ही प्रणाम किया।
मैंउनकेे लिए नहीं बना
वे हमहैं
हम होते तो इस बात के लिए
कुर्सी को लात मार देते
जैसे हमने ठाकुर प्रबल प्रताप सिंह को
दो लात लगाकर सिखाया था
रायफल चलाना।

झाँसी की रानी पहले बहुत डरपोक थीं
हमारी नानी की दादी ने सिखाया था
लक्ष्मीबाई को दोनों हाथों तलवार चलाना।

एकबार जब बंगाल में
भयानक सूखा पड़ा था
हमारे बाबा गये थे बादल खोदने
अपना सबसे बड़ा बाँस लेकर।

हर काल-जाति और पेशे में
होते थे बड़बोले पर
लोगों ने कभी नहीं सुना था
इस प्रकार बड़बोलों का कलरव।

वे कभी लोगों की लाश पर
राजधर्म की बहस करते हैं-
शुक्र मनाइए कि हम हैं
नहीं तो अबतक
देश के सारे हिन्दू हो गये होते
उग्रवादी
तो कुछ बड़बोले
नौजवानों को अल्लाह की राह में लगा रहे हैं

कुछ बड़बोलों के लिए
आदमी हरित शिकार है
कमाण्डो और सशस्त्र पुलिस बल से
घिरे बड़बोले कहते हैं
हम अपनी जान हथेली पर लेकर आये हैं।

कभी वे अभिनेत्री के
गाल की तरह सड़क बनाते हैं
कभी कहते हैं सड़क के गढ्ढे में
इंजीनियर को गाड़ देंगे।

जहाँ देश के करोड़ों बच्चे
भूखे पेट सोते हैं
कहते हैं बड़बोले
कोई भी खा सकता है फाइव-स्टार में
मात्र पाँच हजार की छोटी सी रक़म में।

अपनी सबसे ऊँची आवाज़ में
चिल्लाकर कहते हैं वे
स्वयं बहुत बड़ा भ्रष्ट आदमी है यह
श्री किशन भाई बाबूराव अन्ना हजारे
इरोम चानू शर्मिला से अनभिज्ञ
देश की सबसे बड़ी पंचायत में
कहते हैं बड़बोले
एक बुढ्ढा आदमी कैसे रह सकता है
इतने दिन बिना कुछ खाये-पिये
और वे भले मानुष
ब्रह्मचर्य को अनशन की ताकत बताते हैं।

यहाँ किसिम-किसिम के बड़बोले हैं
कोई कहता है
इनके एजेण्डे में कहाँ हैं आदिवासी
दलित-पिछड़े और गरीब लोग
ये बीसी-बीसी (भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार) करें
हम इस बहाने ओबीसी को ठिकाने लगा देंगे।

कोई कहता है
किसी को चिन्ता है टेण्ट में पड़े रामलला की
इस संवेदनशील मुद्दे पर
धूल नहीं डालने देंगे हम
अभी तो केवल झाँकी है
मथुरा काशी बाकी है।

देवता तो देवता हैं
देवियाँ भी कम नहीं हैं
कहती हैं बस! बहुत हो चुका!!
भ्रष्टाचार विरोधी सारे आंदोलन
देश की प्रगति में बाधा हैं
पीएम की खीझ जायज है
या तो पर्यावरण बचा लो
या निवेश करा लो
छबीली मुस्कान, दबी जबान में
कहती हैं वे
सचमुच बहुत भौंकते हैं
ये पर्यावरण के पिल्लै।

नहीं जानतीं वे कि उन जैसी हजारों
स्वप्न-सुन्दरियों की कंचन-काया
मिट्टी हो जायेगी तब भी
बची रहेंगी मेधा पाटकर अरुणा राय और
अरुंधती, चिर युवा-चिरंतन सुंदर।


सचमुच एक ही जाति और जमात के लोग
अलग-अलग समूहों में इस तरह रेंकते
इससे पहले
कभी नहीं सुने गये।

बड़बोले कभी नहीं बोलते
भूख खतरनाक है
खतरनाक है लोगों में बढ़ रहा गुस्सा
गरीब आदमी तकलीफ़ में है
बड़बोले कभी नहीं बोलते।
वे कहते हैं
फिक्रनाॅट
बत्तीस रुपये रोज़ में
जिन्दगी का मजा ले सकते हो।

बड़बोले यह नहीं बोलते कि
विदर्भ के किसान कह रहे हैं
ले जाओ हमारे बेटे-बेटियों को
और इनका चाहें जैसा करो इस्तेमाल
हमारे पास न जीने के साधन हैं
न जीने की इच्छा।

बड़बोले देश बचाने में लगे हैं।

बड़बोले यह नहीं बोलते कि
अगर इस देश को बचाना है
तो उन बातों को भी बताना होगा
जिनपर कभी बात नहीं की गई
जैसे मुठ्ठी भर आक्रमणकारियों से
कैसे हारता रहा है ये
तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं का देश?
तब कहाँ थी गीता?
हर दुर्भाग्य को राम रचि राखाकिसने प्रचारित किया!
लोगों में क्यों डाली गयी भाग्य-भरोसे जीने की आदत?

पहले की तरह सीधे-सरल-भोले
नहीं रहे बड़बोले
अब वे आशीर्वादीलाल की मुद्रा में
एक ही साथ
वालमार्ट और अन्डरवर्ल्ड की
आरती गाते हैं
तुम्हीं गजानन! तुम्ही षड़ानन!
हे चतुरानन! हे पंचानन!
अनन्तआनन! सहस्रबाहो!!

अब उनके सपने सुनकर
हत्यारों की रुह काँप जाती है
उनकी टेढ़ी नजर से
मिमिआने लगता है
बड़ा से बड़ा माफिया
थिंकटैंक बने सारे कलमघसीट
उनके रहमों-करम पर जिन्दा हैं।

पृथ्वी उनके लिए बहुत छोटा ग्रह है
आप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उनके मुँह में
देख सकते हैं
ऐसे लोगों को देखकर ही बना होगा
समुद्र पी जाने या सूर्य को
लील लनेे का मिथक।

बड़बोले पृथ्वी पर
मनुष्य की अन्यतम उपलब्धियों के
अन्त की घोषणा कर चुके हैं
और अन्त में बची है पृथ्वी
उनकी जठराग्नि से जल-जंगल-जमीन
खतरे में हैं
खतरे में हैं पशु-पक्षी-पहाड़
नदियाँ-समुद्र-हवा खतरे में हैं
पृथ्वी को गाय की तरह दुहते-दुहते
अब वे धरती का एक-एक रो आं
नोचने पर तुले हैं
हमारे समय के काॅरपोरेटी कंस
कोई संभावना छोड़ना नहीं चाहते
भविष्य की पीढ़ियों के लिए
अतिश्योक्ति के कमाल भरे
बड़बोले इनके साथ हैं।

बड़बोलों ने रच दिया है
भयादोहन का भयावह संसार
और बैठा दिये हैं हर तरफ
अपने रक्तबीज क्षत्रप।

तमाम प्रजातियों के बड़बोले
एक होकर लोगों को डरा रहे हैं
इस्तेमाल की चीजों के नाम पर
वैज्ञानिकों की गवाही करा रहे हैं
ब्लेड, निरोध, सिरींज तो छोड़िये
वे लोगों को नमक का
नाम लेकर डरा रहे हैं।

अब हँसने की चीज नहीं रहा
चमड़े का सिक्का
उन्होंने प्लाटिक को बना दिया
मनीऔर पारसमणि
छुवा भर दीजिए सोना हाजिर।

बड़बोले ग्लोबल धनकुबेरों का आह्वान
देवाधिदेव की तरह कर रहे हैं
कस्मै देवाय हविषा विधेम
पधारने की कृपा करें देवता!
अतिथि देवो भव!!
मुख्य अतिथि महादेवो भव!!!

बड़बोले आचार्य बनकर बोल रहे हैं
जगती वणिक वृत्ति है
पैसा हाथ का मैल
हम संसार को हथेली पर रखे
आँवले की तरह देखते हैं
वसुधैव कुटुम्बकमतो
हमारे यहाँ पहले से ही था।

भूख गरीबी और भ्रष्टाचार के
भूमण्डलीकरण के पुरोहित
बने बड़बोले सोचते हैं
बर मरे या कन्या
हमें तो दक्षिणा से काम।

बड़बोले भगवा, कासक, जुब्बा
पहनकर बोल रहे हैं
पहनकर बोल रहे हैं
चोंगा-एप्रिन और काला कोट
बड़बोले खद्दर पहनकर
दहाड़ रहे हैं।

पर आश्चर्य!!
कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक
कोई असरदार चीख नहीं
सब चुप्प।
जिन्होंने कोशिश की उन्हें
वन, कन्दरा पहाड़ की गुफाओं में
खदेड़ दिया गया।

बड़बोले ग्रेट मोटीवेटर बनकर
संकारात्मक सोच का व्यापार कर रहे हैं
और कराहने तक को
बता रहे हैं नकारात्मक सोच का परिणाम।

बड़बोले प्रेम-दिवस का विरोध
और घृणा-दिवस का प्रचार कर रहे हैं
वे भाई बनकर बोल रहे हैं
वे बापू बनकर बोल रहे हैं
वे बाबा बनकर बोल रहे हैं।

बड़बोले अब पहले की तरह फेंकते नहीं
बाक़ायदा बोलने की तनख्वाह या
एनजीओ का अनुदान लेते हुए
अखबारों में बोलते हैं
बोलते हैं चैनलों पर
एंकरों की आवाज़ में बोलते हैं।

बाजार के दत्तक पुत्र बने बड़बोले
बड़े व्यवसायियों में लिखा रहे हैं अपना नाम
और येन-केन-प्रकारेण
बड़े व्यवसायियों को कर रहे हैं
अपनी बिरादरी में शामिल।

शताब्दी के महानायक बने बड़बोले
बिग लगाकर तेल बेच रहे हैं
बेच रहे हैं भारत की धरती का पानी
बड़बोले हवा बेचने की तैयारी में हैं।

कहाँ जायें? क्या करें?
जल सत्याग्रह! या नमक सत्याग्रह!
गांधीवाद या माओवाद!
एक बूँद गंगा जल पीकर
बोलो जनता की औलाद!!

बड़बोले अब मदारी की भाषा नहीं
मजमेबाजों की दुराशा पर जिन्दा हैं
कि आज भी असर करता है
लोगों पर उनका जादू
बड़बोले ख़ुश हैं
हम ख़ुश हुआ कि तर्ज पर
कि उन्होंने लोगों को
ताली बजाने वालों की
टोली में बदल दिया।

बड़बोले अर्थशास्त्र इतिहास
शिक्षा-संस्कृति और सभ्यता पर
बोल रहे हैं, बोल रहे हैं
साहित्य-कला और संगीत पर
सेठों और सरकारी अफसरों के रसोइये
बड़बोले कवियों की कामनाओं और
कामिनियों के कवित्व का
आखेट कर रहे हैं।

बड़बोले समझते हैं
जिसकी पोथी पर बोलेंगे
वही बड़ा हो जायेगा
सारे लखटकिया और लेढ़ू
पुरस्कारों के निर्णायक वही हैं।

परन्तु वे किसी के सगे नहीं हैं
वे जिस पौधे को लगाते हैं
कुछ दिनों बाद एकबार
उसे उखाड़कर देख लेते हैं
कहीं जड़ तो नहीं पकड़ रहा।

अगर आप उनके दोस्त बन गये
तो वे आपको जूता बना लेंगे
पहनकर जायेंगे हर जगह
मंदिर-मस्जिद-शौचालय
और दुश्मन बन गये
तो आप
उनकी नीचता की कल्पना नहीं कर सकते।

वे चुप रहकर कुछ भी नहीं करते
सिवाय अपनी दुरभिसंधियों के
खाने-पचाने की कला में निपुण बड़बोले
अब अपने बेटे-दामाद-भाई-भतीजों को
बना रहे हैं भोग कुशल-बे-हया।

शीर्षक से उपरोक्त बने बड़बोलों को
अब किसी बात का मलाल नहीं होता
उन्हें इसकदर निडर और लज्जाहीन
अहलकारों ने बनाया या उस्तादों ने
उन्हें आदत ने मारा या अहंकार ने
कहा नहीं जा सकता
पर उन्होंने वाणी को भ्रष्ट कर दिया
भ्रष्ट कर दिया आचारण को
ग्रस लिया तंत्र को
डँस लिया देश को
सिर्फ बोलते और बोलते हुए
वाणी के बहादुरों ने
लोकतंत्र पर कब्जा कर लिया
और बाँट दिया उसे
जनबल और धनबल के बहादुरों में
और अब तीनों मिलकर
देश पर मरने वालो को

पदक बाँट रहे हैं।

चंद्रकांता की कवितायें

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 चंद्रकांताकी कवितायें मैंने नेट पर ही इधर-उधर पढ़ी हैं.  इस दशक में एक प्रवृति की तरह उभरी स्त्री आन्दोलन की तीक्ष्ण अभिव्यक्ति वाली कवितायें लिखने वाले स्त्री स्वरों के क्रम में ही चंद्रकांता एक तिक्त और स्पष्ट स्वर हैं. उनके यहाँ जो चीज़ विशेष ध्यानाकर्षित करती है वह है मध्य वर्ग से आगे जाकर सर्वहारा स्त्रियों के बीच उन समस्याओं और विडम्बनाओं को लक्षित करने की क्षमता. हालांकि उनकी संस्कृतनिष्ठता की तरफ झुकी भाषा कई बार इसमें व्यवधान पैदा करती है, लेकिन इनके तेवरों और पक्षधरता को देखते हुए यह उम्मीद की ही जा सकती है कि आने वाले समय में वह  गंभीर वैचारिकता के साथ शिल्प और भाषा की दृष्टि से भी  और मानीखेज़ कवितायें लिखेंगी.                            


तुम्हारी धरोहर

1

मैं गुड़िया नहीं होना चाहती 
नहीं खोना चाहती स्वत्व 
निर्जीव गुड़िया 
जो ना हंसती है 
न मुंह खोल पाती है 
जिसे समाज के 
चिर-विक्षिप्त मान-दंडों पर 
कभी मूक, कभी बधिर हो जाना पड़ता है 

मुझे नहीं अधिकार 
अपनें ही अस्तित्व पर 
सभ्य समाज पाकर अधि-सूचना 
मेरे वैदेही होने की 
जारी कर देता है फ़तवा 
गर्भ में अनुनय-विनय करती 
मेरी प्रार्थनाएं भी 
उसके शिला से हृदय को 
पिघला नहीं पाती 

और किसी तरह 
विरोध की समस्त 
काली-तीस्ताओं को 
पार कर 
यदि अवसर पाती हूँ 
जनम लेने का 
तब जीवन का प्रत्येक बसंत 
बना दिया जाता है कारागृह नवीन 

तुम्हारे धर्म की विषम खाद 
मुझे पल्लवित-पुष्पित-गर्भित 
नहीं होने देती 
वसुंधरा की कोख़ में 
और मैं नवजात 
पीस दी जाती हूँ 
तुम्हारे क्रूर हाथों से 
संस्कारों के अंकगणित में 
सिल और बट्टे के मध्य 



         
2

यह टंकित की गयी 
कोई सरकारी प्रतिलिपि नहीं 
यह एक प्रबोध की 
हस्तलिखित संवेदनाएं हैं 
जो अभिव्यक्ति के स्वानुभूत 
स्वरचित पथ पर 
पंक्तिबद्ध हो 
पारिजात की तरह अमरवृक्ष 
हो जाना चाहती हैं 

इस अमिय अभिलाषा में, कि 
कभी तो मेरा भी आना 
उत्सव होगा, मृदंग बाजेंगे 
और दादी माँ 
सवा मन बूंदी वाले पीले लड्डू 
मोहल्ले भर में बाटेंगी 
प्यारी माँ मुट्ठी भर बताशा 
मुझ पर वार कर 
मेरी भी बलैया लेगी 

बाबा सुनो ! 
तुम दोगे ना अपनी तनया को 
स्नेह की मीठी भु-र-भु-री थपकी 
सदियों से स्रावित होती पीड़ा पर 
गली-चौराहों पर 
मेरी अस्मिता के फटे ढोल 
नहीं पीटे जाएंगे 
और नहीं बनाया जाएगा 
कुछ चिथड़ों को 
मेरे अस्तित्व का यक्ष प्रश्न 

सुनो ! अम्मा
मेरे वक्षस्थल पर नहीं होगा भार 
मान-सम्मान की 
मैली-कुचली गठरी का 
और मेरी योनि पर अधिष्ठित नहीं होगा 
वह अभिमंत्रित लिंग 
जो प्रतीक है पुरुष-प्रकृति की सन्निधि का
किन्तु जिसके भौतिक बिम्ब से 
वर्चस्व की गंध आती है 

बिरादरी की द्यूत-क्रीड़ा पर 
हरी-भरी सभा में 
दुर्योधन की जंघा पर 
अब नहीं बैठाई जाएगी कृष्णा 
पांडवों के आमोद-प्रमोद हेतु 
मंदिर के प्रसाद की भांति 
वह नहीं बांटी जाएगी 
और दामिनी की खंडित देह पर 
हितोपदेश के दाँव-पेंच नहीं खेले जाएंगे 

मैं बेटी हूँ 
तुम्हारी धरोहर 
तुम्हारी ललनाओं का एक अंश 
तुम्हारे क्षितिज का एक नाजुक छोर 
और तुम्हारी चौखट का एक मजबूत स्तंभ 

मुझे मेरे अस्तित्व का 
प्रज्ज्वलित दीप 
हिम की अभेद्य श्रृंखलाओं पर 
जला लेने दो 
जब नहीं रहूंगी 
तो बुझ जाएगा जीवन गीत 
रुद्ध हो जाएंगे सामजिक आचार 
विलुप्त हो जाएगी सभ्यता 
और प्रगति के समस्त चिन्ह एकालाप करेंगे 

मैं बेटी हूँ 
तुम्हारी धरोहर ..

***

कूड़ेवाली

कूड़ा बीनती
तरबूज़ सी मोटी आंखोंवाली
मतवाली
वह लड़की
जिसके दायें गाल पर तिल था

गंदगी से
छांटकर बचा-खुचा सामान
जूट की सस्ती 
किचली-किल्लाती बोरी में 
भरती जाती थी 

पगली लड़की 
ढीठी आँखों से 
अपना जीवन चुनती थी 
झाड़-पोंछकर सपनों को फिर 
झोली में धर गिनती थी 

एक दिवस 
सांझ को सूरज ढले 
बस्ती के सुनसान कोने में 
एक पुरानी फैक्टरी के बिछौने में 
लड़की का मन ठिठकाया 

तांबे के 
टूटे-फूटे तार देख उसका 
भूखा मन ललचाया 
कानों में दस रूपया खनका 
और दीदों में राम हलवाई की 
तीखी चाट उतर आई थी 

सी sssss..s..s

अचानक 
घात लगाए बैठा 
एक भेड़िया आया 
उसने अपने सख्त पंजों से 
लड़की को धरा दबाया 
नोचा ! 
आह्ह ..खरोचा !

अवसर मिलते से 
सर पर रखकर पाँव 
वह लड़की सरपट भागी 
किन्तु, उधड़ गयी मैली कतरन भी 
झाड़ी में फंसकर आधी 

प्रकृति का 
एक बासी फूल, पुनः 
धूल पड़े मुरझाया 
उसकी बुझी देह पर सबनें 
अपना अपना दीप जलाया 

***


भीख


1

चिथड़ों से झांकती
वह चितकबरी देह
फैलाकर हाथ खड़ी थी
भागती, सड़क के उस पार

होठों पर मैली मुस्कान
लिए, असमंजस की
उबड़-खाबड़ लकीरें
वह शीशे पर ठहर गयीं
सरपट दौड़ती उस मोटर-कार के

मैंने देखा !
उन दियासलाई सी आँखों
से गुमशुदा थे ख्वाब
पेट की भूख-प्यास
उसके नन्हें हाथों पर
ठेठ बनकर पर उभर आई थी


2

मैं भीख हूँ 
धूल से लबरेज़ 
खुरदरे हाथ-पाँव 
सूखे मटियाले होंठ, निस्तेज 
निर्ल्लज ख-ट-म-ली देह को 
जिंदगी की कटी-फटी 
चादर में छिपाती हूँ

मैं भीख हूँ
अपनी बे-कौड़ी किस्मत
खाली कटोरे में आजमाती हूँ 
कूड़े करकट के रैन-बसेरों में 
मैली-कुचली कतरनों को 
गर्द पसीनें में सुखाती 
ओढती-बिछाती हूँ 

मैं भीख हूँ
आम आदमी की दुत्कार 
पाती हूँ घृणा-तिरस्कार 
फांकों में मिलता है बचपन 
चिथड़ों में लिपटा आलिंगन 
मैं नहीं जानती सभ्यता के 
आचार-व्यापार, व्याभिचार 

मैं भीख हूँ
ढीठ, फिर मुस्कराते हुए 
निकल पड़ती हूँ 
हर रोज सड़क पर 
अकेली, भीड़ में 
अपने हिस्से के छूट गए 
मांगने को 'दो टुकड़े चाँद' के

***
 

गौरैया 

आज सांझ के
प्रथम पहर में
अपने छज्जे से बाहर, मैंने
धरती की गोलाई नापते वक़्त
दूर तलक फैले विस्तृत क्षितिज़ को टोहा

पास के मैदान के
ठीक बीचों-बीच से
एक ठहरी हुई सड़क जाती थी 

सड़क के उस पार 
शहर के कुछ लड़कों का जमावड़ा 
गेंद-बल्ले का कोई युद्ध मालूम होता था 
कुछ फ़ील्डिंग में जुटे थे 
और कुछ फील्ड को तोड़ने में

सर के ऊपर 
खुला आकाश था नीला 
और उसके नीचे फागुन का गीत 
गाते, ऊंचे-नीचे क्रीड़ा करते पंछी

अचानक नीचे 
जमीन पर निगाह हुई 
इकठ्ठा हुए गंदे पानी में एक सिहरन थी 
कुछ कम्पन की आवाज़ सुनी 

उत्सुकतावश 
मैं भी नीचे उतर आई 
देखा गौरैया के दो अधपके बच्चे 
बेजान गिरे पड़े थे पानी में
और झाड़ियों पर टूटा हुआ एक घोंसला 

मैं सहमी 
सहसा कुछ कौवों नें ध्यान खींचा 
मैंने मन को भींचा 
काँव-काँव करते शोक गीत गाते थे 
या करते थे विजय का उत्सव गान 

ठीक उसी क्षण 
सूखे तिनके जैसा लड़का 
कुछ ढूंढते हुए वहां आया 
अचरज से देख मुझे, सकपकाया
और झाड़ियों से गेंद निकाली काली 

मन बहुत व्याकुल हुआ 
समझकर यह सारी क्रीड़ा
पहले कंक्रीट की ऊँचाईयों नें 
फिर खेल के मैदानों नें 
आह ! छीन ली हमसे 
हमारे बचपन की दोस्त चीं-चीं करती गौरैया 

***

तम्बाकू की बेटी

सूखे मैदान में
घास के झुरमुटों के दायीं ओर
लोहे के कंटीले तारों से
ठीक तीसरे छोर
पड़े हुए बीड़ी के टुकड़े नें
ब-र-ब-स ही मेरा ध्यान खींचा

आख़िर किसने ?
सुलगाया होगा 
तेंदू पत्ते में कई फोल्ड लिपटी 
तम्बाकू की बेटी को 

अरसे पहले रिटायर हो चुके 
बु-द-बु-दा-ते हुए 
किसी बुजुर्ग नें 
बेंच के कोने पर बैठ 
अपनें कांपते हाथों से 
अपनी उम्मीदों को जलाया होगा ?

किसी अर्द्ध-डिग्रीधारक नौजवान नें 
पैसे की तंगी को लेकर 
अपनें खस्ताहाल सपनों को 
जलती हुई बीड़ी के 
नग्न पतंगों के बीच 
तिल-तिल बुझाया होगा ?

गाँव की किसी ताई-अम्मा नें
पेट में उफनती 
पुरानी कब्ज़ मिटाने को 
लिए होंगे सुट्टे दो-चार 
लगभग पैंतालिस डिग्री कोण पर 
पताका को मुट्ठी में भींच ?

आज बैडमिंटन खेलते हुए 
बेसुध पड़ी बीड़ी को देख 
क्रीड़ा के आरोह-अवरोह के मध्य 
यह ख़याल गु-ड़-गु-ड़ा-या 
यहाँ बीड़ी जली थी 
या जिंदगी के कुछ जाने-पहचाने चेहरे 

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परिचय

सुश्री चंद्रकांता स्वतंत्र रचनाकार एवं आयल आर्टिस्ट हैं व दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं. वह ग्रामीण विकास और मानवाधिकार विषय से परास्नातक हैं.
ब्लॉग : www.chandrakantack.blogspot.in
 
ई मेल :  Chandrakanta.80@gmail.com 





कुमार अनुपम की ताज़ा कवितायें

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कुमार अनुपम की कवितायें आपने असुविधा पर पहले भी पढ़ी हैं. वह कुछ उन कवियों में से है जिनके यहाँ कविता एक रुटीन की तरह नहीं घटना की तरह घटित होती है. इसीलिए उनके यहाँ विमर्शों की आपाधापी नहीं बल्कि समकालीन विडम्बनाओं का गहरा मानवीय चित्रण होता है. यहाँ इन दो कविताओं में जल है...जल जो जीवन भी है, प्रलय भी...पानी भी और काला पानी भी. अधिक कहना कविता में अनावश्यक हस्तक्षेप होगा तो मैं आपको इन दो कविताओं की संगत में अकेला छोड़ता हूँ...

सर जान एवर्ट मेलास की एक आयल पेंटिंग यहाँ से 



जल 

एक तिहाई पृथ्वी है
 खेतों का स्वेद 

उसी की गन्ध से
 साँस की सुवास 

उसी की आवाज़ से
 रक्त में पुकार 

उसी की चमक से
 रिश्तों में प्रकाश 

उसी के स्वाद से
 नमक में मिठास 

उसी के स्पर्श से 
​है ​दुनिया सहलग। 
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काला पानी

कुछ ही देर बाद
सिलवटें साफ़ करती उठ जाएगी रात 
ख़ामोशी 
पत्थर की तरह तपते हुए टूट जाएगी 

चिड़ियाँ उठेंगी 
और छोड़ देंगी अपना नीड़ 

सपने 
नींद की प्रतीक्षा में 
पुनः स्थगित हो जाएँगे 

अँधेरा फिर भी नहीं हटेगा उन पुतलियों से 
जिनमें बाढ़ का पानी 
ख़तरे के निशान को डुबाता जा रहा है 

एक हाथ उठेगा कहीं से 
और लुप्त हो जाएगा    एक चिराग बुत्त 

वह हाथ किसका है 
जिसकी उँगलियों में 
पुरखों की विघ्नहारी अंगूठियाँ

बहन कलपेगी 
बप्पा हेराने 
बचाते क्यों नहीं
देखो डूब रहा है 
भाई
​​
अम्मा को सम्हालो गई दादी की फूल बटुली भी गई 
​नन्हे तो बोल भी नहीं सकता
भाई फसल तो गई
 

मेरी आवाज़ पानी से भर रही है 
गरू है यह काला पानी 

इसी पानी से नहाना जैसे नियति है हमारी 
और सुबह काम पर जाना है प्रफुल्लित मुख लिये 
थकान की ख़ुराक अभी कम है शायद 
उस नींद के लिए 
जिसमें सुन्दर सुन्दर सपने रहते हैं।   ​
   


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