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चेष्टा सक्सेना के छंद




चेष्टा छंद में लिखती हैं. खरा और तीख़ा. कवि कहलाये जाने की आकांक्षा उनके यहाँ नहीं है और न ही पोलिटिकली करेक्ट होने की. रोज़ ब रोज़ के निजी और सामाजिक जीवन की विसंगतियों को वह ज़रूरी तंज़ के साथ कहती चली जाती हैं और यही उनकी ताक़त है. हिंदी के अलावा बुन्देली में भी वह लिखती हैं और उम्मीद है आप जल्द ही वह भी पढेंगे.



(एक)

सरकार हमारी है करारी
धन्ना सेठों की हितकारी

इनकी बात से इतर जो बोले
पाकिस्तान की हो तैयारी

गाज गिराते हैं ये उसी पर
जिसमें भी पायें खुद्दारी

तिनका भी ये मुफत न देते
बहुत ही पहुँचे हैं व्यापारी

हम गर कुछ पूछें इनसे तो
कहते क्या औकात तुम्हारी

साधू,बाबा और सन्यासी
जाप करें ये सब सरकारी

हाँ में हाँ तुम जाओ मिलाते
चाहो गर बनना अधिकारी
 (दो) 
जिंदा हैं पर मरे-मरे से
सच से वो कुछ डरे-डरे से।

रहमत उनको मिलती है जो
दर पर दिनभर गिरे-पड़े से।

नियम रईसों पर हैं ढीले
मजलूमों पर बड़े कड़े से।

कैसे समझें दर्द हमारा
जो सोने में जड़े-मढे से।

इस सत्ता में स्वागत उनका
चिकने हों जो बड़े घड़े से।

(तीन)

तुमने किया क्यूँ ऐसा राम
सीता क्यों भेजी वनधाम

जंगल-जंगल साथ घुमाया
छोड़ दिया जब निकला काम

तुम्हें पता था चलन बनेगा
औरत को करना बदनाम

तुम्हारे बचपन में पग-पग पर
रची-बसी थी ख़ुशी तमाम

कितनी सहमी कर दी तुमने
लव-कुश के जीवन की शाम

मात-पिता में एक मिलेगा
इतने मंहगे प्यार के दाम

आखिर में धरती में समाई
त्याग का है क्या ये परिणाम

इक जीवन में कितनी परीक्षा
लेकर मिला तुम्हें आराम

लीला-वीला कुछ ना जाने
भोली-भाली जनता आम

आज भी दर-दर भटके सीता
लेकर रोये तुम्हारा नाम



(चार)

जान देकर भी जो हाथ खाली रहे
अपने हक के बेचारे सवाली रहे।

बेकसूरों ने झेली सजा बेवज़ह
जिनके रुतबे थे आली वो आली रहे।

जो हैं काजल के शौक़ीन डरते नहीं
ढूंढ लेंगे कहीं रात काली रहे।

इन गुलाबी रुखों पे जो है आजकल
देखें कब तक बची इनकी लाली रहे।

आप चाहते हैं और हाथ उठें नहीं
सिर्फ दो हाथों से बजती ताली रहे।

बात सत्यम शिवम् सुंदरम बोलिये
देखें कैसे असर से वो खाली रहे।

साफ़ नियत के ही सच हुए "चेष्टा"
ख्वाब ज़हनों में कितने ख्याली रहे।

(पाँच)

भूख गरीबी ज़िल्लत कोड़े
तन से ज्यादा मन को तोड़े।

थाली में भर-भर दुःख परसा
सुख चटनी के जैसे थोड़े।

रहमत में जो मिले वो दाने
शहजादों ने चखकर छोड़े।

ख्वाहिश जब भी पंख पसारे
मंहगाई के खाए हथौड़े।

रंज-ओ-अलम कितना सह पाते
बहने लगे अब घाव निगोड़े।



अनुराधा सिंह की कविताएँ


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पिछले कुछ सालों में हिंदी कविता संसार में स्त्रियों की जो नई खेप आई है वह न केवल अपने अधिकारों और वंचना को लेकर सावधान और व्यग्र है बल्कि अपनी अभिव्यक्ति के लिए लगातार नई भाषा और नए शिल्प की तलाश में है. ऊपरी तौर पर दिखने वाला साम्य भीतरी तहों तक उतरने पर विविधता के तमाम पते मिलते हैं. अनुराधा सिंह ने कम समय में इस परिदृश्य में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई है. मुख्यधारा की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित हो रही उनकी कविताएँ उम्मीद जगाती हैं. उनके यहाँ देश, दुनिया के साथ भीतर की दुनिया की यात्रा भी है और इन सब यात्राओं को दर्ज़ करते हुए उनकी स्त्री दृष्टि लगातार और शार्प होती जा रही है. 

ये कविताएँ उन्होंने काफ़ी पहले मुझे भेजी थीं, लेकिन अब अपने कुख्यात हो चले आलस्य के चलते जो विलम्ब हुआ उसके लिए माफ़ी के साथ इन्हें अब प्रकाशित कर रहा हूँ और उम्मीद करता हूँ उनका सहयोग नियमित मिलता रहेगा.

तिरिया 

वह सेमल जैसी नर्म आवाज़ में कहता है नाम बताओ किसने कहा........यह आवाज़ उसके खुरदुरे भीतर बाहर पर सूट नहीं करती........नाम जान कर ऐसे चिल्लाओगे कि मेरे कान में छेद हो जायेगा........नहीं चिल्लाऊंगा ........वह उस सेमल के नीचे अंगारे छिपाने की कोशिश कर रहा है ....अच्छा बस शहर बता दो ....मैं उसकी आवाज़ में छिपे फुर्तीले गिरगिट का नया रंग पढ़ लेती हूँ ........तुम मेरे सबको जानते हो, शहर बताते ही नाम जान जाओगे .......उसका बहुत थोडा सा सब्र अब चुक रहा है......अच्छा काम काज ही बता दो.......फिर तो सब पता चल जायेगा तुम्हें.......वह जोर से बोलना शुरू करता है और मैं कहती हूँ- देखा, मैंने कहा था न तुम चिल्लाओगे.........वह थक जाता है, हार जाता है .......नहीं चिल्ला रहा, सो जाओ .

बेआवाज़ हो हर लाठी

मेरी आस्तिकता नहीं 
मेरा आलस्य
विश्वास बनाये रखता है 
भगवान के लिए गढ़े मुहावरों पर 

चूँकि भगवान सब देखता है 
तो मुझे आँख खोल कर 
वह सब अब और देखने की ज़रूरत नहीं 

उसकी लाठी का बेआवाज़ होना मुझे पसंद है 
 क्योंकि लाठियां वैसी ही बेआवाज़ होनी चाहिए 
जैसे अन्याय चला आता है जीवन में दबे पाँव 
आत्मीय चले जाते हैं दूसरी दुनिया में चुपचाप 
और हम रोते रहते हैं भीतर ही भीतर हाहाकार 
भगवान के घर देर से भी ज़्यादा अंधेर है 
यह मानते हुए भी मैं चाहती हूँ कि 
उसकी सत्ता के पक्ष में 
गढ़े जाएँ कुछ और मुहावरे तुरंत 
ज़रा भी देर न की जाये इस अंधेर में ।


वे अच्छी तरह जानती हैं कि साल १४९८ में वास्को दि गामा भारत तक पहुँचने का समुद्री मार्ग तय करने ही नहीं आया था वह आया था व्यापार और घुसपैठ करने भी. उन्हें मालूम है कि हर बार मुहम्मद गोरी के लौटने के बाद दिल्ली किस हाल में मिलती होगी अपने आपसे. वे जानती हैं कि आक्रमण केवल शाब्दिक या सांकेतिक नहीं होते वे अक्सर होते हैं ख़ामोशी से, नज़रअंदाजी में, तिरस्कार में, भर्त्सना में और उपहास में. सबसे खतरनाक होते हैं वे आक्रमण जो प्रशंसा और प्रेम के मुखौटे लगा कर आते हैं, क्योंकि तब वे अपने सब कवच और हथियार गिरा देती हैं.



जो डरती थी सो नहीं डरती

आगे निकल जाने से डरती थी
पीछे रह जाने से डरती थी
तुम्हारे कहीं छूट जाने से डरती थी

मैं डरती थी तो एक फांक बन जाती थी सीने में
और उगता था उससे कल्पवृक्ष
लगते थे जिस पर असंभव सपने
डरती थी तो ढूँढ़ती थी एक आवाज़
जिसे लपेट कर सोना पड़ता था नाउम्मीद रातों में  
मैं डरती थी तो नाराज़ हो जाती थी दुनिया से

अब नहीं डरती कभी 
नहीं नाराज़ किसी से
नहीं ढूँढ़ती कोई आवाज़
जानती हूँ कि अपने हत्यारे को माफ़ करना
कई कई बार आत्महत्या करने जैसा है
इसलिए छूट गयी थी जहाँ
उल्टी चल दी हूँ वहीँ से
पाँव तले की ज़मीन छीन ली है
एक आसमान ने
दुनिया अब भी गोल है
फिर भी नहीं मिलूँगी
सामने से आती
किसी भी दिन
दुःख की उंगली पकड़
वहीँ जा पहुँचूँगी जहाँ छूटी थी
उतना ही चलूँगी
जितनी छूटी थी .


हम लौट नहीं पाए कही से

कसम से हमने बहुत कुछ सीखा ज़िन्दगी में 
मरना मारना 
थोडा जीना भी 
हमने जाना सीखा 
मन से बेमन के 
पहियों में फंस कर घिसटे बड़ी दूर तक 
और फिर मुंह पर ओली बना कर चिल्लाये हे! आना रे SS’
और नहीं आया कोई तो इंतज़ार करना सीखा 
कसम से, बिना रोये खड़े रहे हम वहीं
शाम भर जीवन भर 
हमने सीखा कि कोई प्रेम करे तो करना पड़ता है 
तेजाब में पिघलने से बेहतर है हाँ कहा जाये 
एकांत में धरती और असमान को बाँध लिया आलिंगन में 
और बाज़ार में एक नाम लेने से डरना सीखा 
इतना कुछ सीखा 
और लौटना नहीं सीख पाए 
कहीं से नहीं लौट पाए 
कहीं नहीं लौट पाए 
जाने के लिए कह दिया गया / ठगे से खड़े रह गए 
जानते थे बाहर उलटी थाली बजायी जाएगी स्वागत में 
जब कोख से नहीं लौटे 
तो कैसे लौटते तुम्हारे हृदय से .



डरो


डरो जब वह तुम पर से हटा ले 
अपना हाथ धीरे से 
डरो उस दिन से 
जब कोई उलाहना बाकी न रहे 
लहजे और खतों में
छोड़ दे वह सारी तितलियाँ एक साथ
एक मकबरे के उजाड़ में 
लौट आए फ़कीर सी खाली हाथ 
अलमस्त,
तुम्हें बार बार गुम जाने की आदत है 
डरो 
जब वह न डरे एक शाम  
तुम्हारे घर न लौटने से 

कभी नहीं डरे तुम
उसकी बेख्वाब करवटों से 
पर डरना 
जब तुम्हारी रात के 
दोनों तरफ दीवार हो 
और खिड़की पर टंगी हो 
उसकी उखड़ी हुई नींद । 

कहाँ जातीं हैं वे

कहाँ जातीं हैं वे चीज़ें
जो चलती तो हैं
पर नहीं पहुंचती कहीं
वह उतरता है
मेरी आँख में खून की तरह
गरम और धड़कता हुआ
फिर कहाँ जाता है आखिर
आँसू तो जलता नहीं इतना

याद आता है तो जो ठेस लगती है
उसका अपना एक नाम है
जो मैं सही सही नहीं जानती बोलना
जानती तो मैं उस पार वाली सड़क का
नाम भी नहीं
फिर भी यह सड़क
आई थी एक दिन उसका हाथ थामे  
बस यहाँ तक
तबसे पड़ी है कमला तालाब के सामने
सूखी सकरी हड़ीली और गड्ढेदार
बुढ़ा रही है जल्दी जल्दी
उसके जाने के बाद से
फिर कहीं नहीं गयी

मई की एक शाम
बात जो मैंने शुरू की थी
और जिसे खा गया था उसका मौन
वह कहाँ तक पहुंची होगी अब
इतनी अधूरी चीज़ें लिए बैठी हूँ
कि बिना किसी के बताये उनके
कहीं सकुशल पहुँचने की ख़बर पाना

मुश्किल है  .  




अप्रेम

तुम हर बार कितने भी अलग
नए चेहरे में आये मेरे पास
मैं पहचान लेती रही
विडम्बना यह थी कि 
मैं तुममें का
प्रेम पहचानती रही

आह्लाद से आपा खोती रही हर बार
भूल-भूल जाती रही
कि प्रेम तुम तब तक
और उतना ही कर पाओगे मुझसे
जब तक और जितनी मैं तुम्हारे अप्रेम में रहूंगी

मेरी माँ यह कठिन यंत्र सिखाना भूल गयी थीं मुझे
और उनकी माँ उन्हें
वे सब कच्ची जादूगर थीं
पहले ही जादू में अपनी पूरी ताकत झोंक देतीं थीं
उस पर कि
बस आधा जादू जानती थीं
अपने ही तिलिस्म में फँस कर
दम तोड़तीं रहीं
उन्हें उस मंतर का तोड़ तक नहीं मालूम था
जो पलट वार करता था

हालाँकि सीना पिरोना साफ़ सफाई और पकाने से ज़्यादा
अनिवार्य विषय था
अप्रेम में रहना सीखना और सिखाना
बहुत करीब से दूर तक जो पगडंडियाँ
सड़कें और पुल पुलिया देखती हूँ
जो तुमने बनाये हैं
किसी न किसी सदी तारीख या पहर 
वे सब  किसी न किसी  जगह से बाहर 
जाने के तरीके  हैं
प्रेम से बाहर जाने का तरीका नहीं है इनमें से एक भी।




स्त्री सुबोधिनी संविधान

वह कि जिसने
सुरंग में पहली बारूद भरी थी
और जिसने
पुरुषों के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता बताया था 
जाने कबसे उसे ही ढूंढ रही हूँ मैं
कि जब तुम यह स्त्री सुबोधिनी संविधानलिख रहे थे
तो क्या तुम एक भी ऐसे पुरुष से नहीं मिले 
जो उजले,निखरे,ताज़ा चेहरों से प्रेम करता हो
जिसे सोती सुंदरी सुंदर लगती हो
और ज्ञान बघारती पत्नी जिम्मेदार  
या जिसे बस एक बात
एक मस्तिष्क
एक दिल
एक देह
एक सोच 
एक आवाज़
एक स्पर्श 
एक चाल
एक सुगंध 
एक दृष्टि
बस एक झलक भर से प्रेम हो जाए

तुम्हारे हवनकुंडों की समिधा बनते बनते
न जाने कितनी देहें,दिल और दिमाग
जो बोल,सुन और देख सकते थे
और शायद बिना लाग लपेट वाला प्रेम भी कर सकते थे
धसकी अँगीठियों में तब्दील हो गए
रंग और मुश्क़े हिना हल्दी,तेल और आटे की
बसायन्ध में खेत रहे 
भंवों का पसीना झुलसे गुलाबों तक ही छनक गया
कितना ही प्रेम झिलमिलाती आँखों से
सरक गिरा फूंकनी के रास्ते
फुंक गया खांड़ू की पोली लकड़ियों के साथ
यार,अगर तुम्हें बड़े बड़े हंडे और देग माँजती
स्त्री इतनी ही मोहक लगती थी
तो वह कौन था
जो मधुबाला,नर्गिस और मीना कुमारी पर मर मिटा था 
तुम समूचा प्रेम लील गए
कई बार तो डकार भी नहीं ली
और कैज़ुअल वर्कर्स बिछाते ही रह गए 
बजरी और धधकता डामर
तुम्हारे पेट से दिल जाते सिक्स लेन एक्सप्रेस वे पर।


देगची में प्रेम

बगल वाले कमरे में
उसके अब्बा घर की सबसे बड़ी देग में
परमाणु बम बना रहे थे
फ्रिज में एक नामालूम सा लाल रंग का माँस रखा था
बहुत आगे जाकर पूरब में कहीं
तख़्ता पलट होने वाला था
मैं प्रेम को सिरे से खारिज करता हुआ
प्रेमकी आखिरी किश्त भी
भुना लेना चाहता था 

और यही आखिरी मुद्दा पिछले कई सौ सालों से
उसे परेशान किए हुए था

आज तो
हमारे मजहब और धर्म की निरी अदला बदली
भी उसकी हताशा कम नहीं कर पाएगी 
उसके और मेरे लोग
घरों,बाज़ारों,सड़कों,स्कूलों को
परमाणु रियेक्टर बनाए हुए हैं

फ्रिज में पता नहीं क्या क्या रखा है
और पूरब में लोग कितना ऊपर चढ़ने के लिए
यहाँ कितने गहरे गिर रहे हैं
इन सबसे ज़्यादा बड़ा मसला
मेरा उसके प्रेम को हल्के में लेना था
और वह सिरे से कहना सीख रही थी ।

प्रेमिकाएँ प्रेम नहीं करतीं थीं 

प्रेमिकाएँ प्रेम नहीं करतीं थीं 
दूसरे कई काम करती थीं दिन भर
प्रेम न करने वाली स्त्रियों सी
शांत, संयत दिख पाने में विफल होकर
व्याकुल रहती थीं


सोचतीं रहतीं कि कैसे इस पार उतरते ही 
सब कश्तियाँ जला दीं थीं उस दिन
बस तभी से थीं लगातार गुमशुदा
शहर के पुराने रास्ते
ख़ुमारी में काट देतीं रहीं
वर्षों नहीं सीखीं नए रास्ते
अपरिचित सड़कों या आसमानों के रंग तक
नहीं पहचानना चाहतीं थीं
भनभनाहटों और व्यवधानों में
फ़ासले तय करती रहीं 
ठिकाने पर बमुश्किल होश में लायी जाती थीं
ये प्रेम में बेसुध स्त्रियाँ 

उलटे पाँव तय करती रहीं
सब काले अँधेरे जंगल निर्विकार
जिन्नों औघड़ों मसानों से अविचलित
कितने ही सिरों और कन्धों पर
हवा के पाँव रखते
गुजर गयीं
ये विदेह औरतें
लेकिन काँपती थीं
प्रेम की क्षीण हूक भर से

जाने कैसे माएँ बनी रहीं इस दौरान ये प्रेमिकाएँ
बच्चों के पुराने सामानों को देख
थरथराती रहीं इनकी छातियाँ
चिर वियोग और क्षणिक रोमांच के बीच
लगाती रहीं खाने के डिब्बे
याद रखती रहीं डाक्टर की विज़िट और परीक्षा की तिथियाँ  
बच्चों के उन्हीं चेहरे मोहरों में तलाशती रहीं
हालिया प्रेम के नाक नक़्श
आनुवांशिकी के नियमों से अनजान
कुपढ़ औरतें

इनके तकिये दीवार की तरफ करवट लिए
बहुत नम थे
और चादरें थीं एक ही तरफ घिसी
पति सुख से चूम लेते थे सुबह
उषा से गुलाबी मुख
और बहुत रात गए,हर रात
छनके हुए लहू से निस्तेज हुए
पीले चेहरे बिछा देती रहीं
कुछ दीवार की ओर सरक कर बिना नागा
अपराध विज्ञान नहीं पढीं थीं  
दण्ड व्यवस्था भी नहीं
लेकिन कैद समझती थीं
और जिस ढब की मैनाएँ वे थीं
उसमें प्यास ही ऊपर ले जाती है
पंख नहीं
ये बेमियादी प्यास थी
कि धसकती ही जा रही थी
पेस्टन जी की रेत घड़ी में  
ज़र्रा ज़र्रा

सबको सुनती और मानती थीं ये निर्विरोध
बस झगड़ पड़ती थीं प्रेमी से 
पहले तीन मिनटों के भीतर
प्रेमिकाएँ खर्च करतीं थीं सब ईंधन
प्रेम छिपा लेने में।


छूटा हुआ प्याला

आज उन सब स्त्रियों की पीठ थपथपाओ
जिन्होंने अपने लिए एक प्याली चाय बनाई है
और पी ली है
गरम रहते घूँट दर घूँट
जिन्होंने नहीं दुरदुराया है अपनी ख़्वाहिशों को
जिन्हें पता था कि तलब क्या होती है
और उसे मारा नहीं जाता है बार-बार
जो नहीं बैठी रह गयी हैं होंठों तक आई एक बात मसोस कर
या नहीं खड़ी हो गईं हैं होंठों तक पहुंचा कप रख कर अधबीच

बस टाँकने एक टूटा हुआ बटन,ढूँढ्ने एक खोयी जुराब
इस्तिरी करने एक मैचिंग कमीज़  
या निबटाने एक बेहद ज़रूरी काम
वे जो बसों ट्रेनों और रिक्शा में बैठी सोचती हैं
पीछे छूटी उम्र और कामनाओं की बाबत
और सोचतीं हैं उन पीछे छूटे 
अधपिए ठंडे चाय के प्यालों के बारे में
ऐसे ही न जाने कितनी राहत
इच्छाएं और सुकून छूट गये
उनके हाथों से 

इन्हें तो इस चाय के पिये जाने पर
कोई सम्मान भी दिया जा सकता है
कि इस एक कप के साथ वे एक पूरी व्यवस्था पी गईं हैं
उन्हें मैरी पिजाँ या ग्लोरिया स्टाइनेम हो जाने की
काँच की अदृश्य दीवारें तोड़ने के दुस्साहस की ज़रूरत नहीं है  
राजघाट या जंतर मंतर पर धरना देने की भी नहीं 
बस चाय की एक प्याली
अपने मन मुताबिक बनाना 
और उसे पी लेना ही काफी है ।

खत्म होना लाज़मी था

तुम्हारा खत्म होना लाज़मी था
लाज़मी था कि मुझे नहीं आते थे नए सपने
कि मेरी खिड़कियों के पर्दों पर
उसी बसंत के फूल चस्पाँ थे अब तक
कि मैं पुराने चेहरों से कतराती थी
और नए चेहरे दिलचस्प नहीं लगते थे मुझे
कि मुझे सुख दुख में फर्क ही नहीं लगता था
और खट्टे मीठे, या रंगीन और बेरंग में भी
तुम्हारा खत्म होना लाज़मी था।

लाज़मी था कि मुझे आईने की फ़राखदिली खलती थी अब
कि मुझे रुखसत के दिन का स्क्रीन सेवर पसंद नहीं था
कि मुझे ज़िंदगी बेशकीमती लगने लगी थी 
और तुम्हारे बहाने बड़े खोखले
कि मैंने जान लिया था कि लोग पुरखुलूस और सच्चे भी हैं
कि मैंने तुम्हारी आँखों में सर्द बिल्लौरी काँच देख लिए थे



सुजाता की कविताएँ


सुजाता ने इधर हिन्दी कविता जगत में महत्त्वपूर्ण पहचान हासिल की है.दो साल पहले उनकी कविताएँ असुविधा पर प्रकाशित हुई थीं. अपने अलहदा बिम्ब, परम्परा तथा आधुनिकता संपन्न भाषा संस्कार, टटका बिम्बों व सघन शिल्प तथा बौद्धिक तैयारी के साथ साहित्य जगत में प्रवेश कर कम समय में वह लगभग सभी महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं.
आज उनके के कविता- संग्रह 'अनन्तिम मौन के बीच'की पांडुलिपि को भारतीय ज्ञानपीठ के द्वारा नवलेखन पुरस्कारों की श्रेणी में अनुशंसित किया गया है. उन्हें बहुत बधाई. यहाँ प्रस्तुत हैं इसी संकलन से कुछ कविताएँ.


अनंतिम मौन के बीच


दृश्य-1
(बात जहां शुरु होती है एक भंवर पड़ता है वहाँ, दलीलें घूमती हुई जाने किस पाताल तक ले जाती हैं)

मैं कहती हूँ बात अभी पूरी नहीं हुई
जवाब में तुम बुझा देते हो बत्ती
बंद होता है दरवाज़ा
उखड़ती हुई सांस में सुनती हूँ शब्द
- अब भी तुम्हें प्यार करता हूँ
स्मृतियाँ पुनव्र्यवस्थित होती हैं
बीज की जगहों में भरता है मौन
किसी झाड़ी मे तलाशती हूँ अर्थ
कपड़े पहनते हुए कहती हूँ - एक बात अब भी रह गई है
उधर सन्नाटा है नींद का!

दृश्य-2
तुम नहीं जानती यह निपट अकेलापन
वीरानियाँ फैली हुई इस झील की तरह
और दूर एक टिमटिमाती सी बत्ती है तुम्हारी स्मृति
जाने दो खैर
    तुम नहीं समझोगी!

(एक वाक्य दरवाज़े की तरह बंद होता है मेरे मुंह पर अपने थैले में टटोलती हूँ हरसिंगार के फूल जो बीने थे रात तुम्हें देने को...नहीं मिलते... मुझे झेंप होती है... कैसे खाली हाथ आ गई हूं... इस सम्वाद में मुझे मौन से काम लेना होगा, बंद दरवाज़े फिर खुलने से पहले एक ग्रीन रूम चाहिए, पुनव्र्यवस्थित होती हूँ, समझने के लिए क्या करना होगा? मेरी उम्र अब 40 होने चली है।)

- कैसे गटगटा जाती हो! पियो आराम से
थामे रहो गिलास जैसे थमती है सांस पहली बार कहते हुए - प्रेम!
और फिर एक घूँट आवेग का ज़बान पर जलता और उतरता गले से सुलगता हुआ

नाराज हो?
हर बात का अर्थ निकालती हो तुम
(झील पर घने कोहरे जैसा पसरा है सन्नाटा, उस पार जलती बत्तियाँ बुझ गई हैं, मुझे अभी सुरूर आने लगा है)

दृश्य बदलते हैं जल्दी-जल्दी, पटाक्षेप के लिए भी वक्त नहीं
इस झील को यहां से हटाना होगा
मंच पर लौटना होता है आखिर हर नाटक को
कोई विराट एकांतिक अंधकार साझा अंधेरों से मिले बिना नहीं लाता रोशनी

दृश्य-3
बहस के बीच कोई कह गया है-
जो मंदिर नहीं जाती पब जाती होंगी
ऐसी ये समाजवादी भिन्नाटी औरतें!
तुम कहते हो - बीच का रास्ता क्यों नहीं लेती
परिवार का बचना ज़रूरी है
स्त्री की मुक्ति इसी के भीतर है
मैं समझता हूँ तुम्हें
सारा तर्क आयातित दर्शन हो जाता है
कोई उपहास करता है- है आपके दर्शन में सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़ी व्याखाएं?
मैं कहती हूँ
तुमने मेरी गर्दन पर पांव रखे
  कोख को बनाया गुलाम
  ऐसे हुई सृष्टि की उत्पत्ति

- कैसे बात करती हो मुझसे भी!

तुम्हारा रुआँसा चेहरा देख पिघल जाती हूँ
तुम देखते हो अवाक और चूमती हूँ तुम्हें पागलों सा
मेरे बच्चे!
(उमस भरी चुप्पी है। प्यार के सन्नाटे असह्य हैं!)

झाँकती है देह आँखों के पार


...और इस दूसरे जाम के बाद मुझे कहना है
कि दुनिया एकदम हसीन नहीं है तुम्हारे बिना
हम तितलियों वाले बाग में खाए हुए फलों का हिसाब
तीसरे जाम के बाद कर ज़रूर कर लेंगे...

हलकी हो गई हूँ सम्भालना ...
मौत का कुँआ है दिमाग,बातें सरकस
बच्चे झांक रहे हैं खिलखिलाते 
एक आदमी लगाता है चक्कर लगातार
धम्म से गिरती है फर्श पे मीना कुमारी
न जाओ सैंया...कसम तुम्हारी मैं रो पड़ूंगी...
और सुनो -
       जाना,तो बंद मत करना दरवाज़ा।
       आना ,तो खटखटा लेना ।

मौत के कुएँ पे लटके ,हंसते हुए
बच्चे ने उछाल दिया है कंकड़
आँखें मधुमक्खियाँ हो गई हैं
आँखें कंकड़ हो गई हैं
आँखें हो गई हैं बच्चा
आँखें हंसने लगी हैं
झाँक रही हैं आँखें
अपने भीतर !

बच्चे काट रहे हैं कागज़ कैसे आकारों में
कि औरतों की लड़ी बन जाती है मानो
दुख के हाथों से बंधी एक-से चेहरों वाली
एक- सी देह से बनी
झाँकती है देह आँखों के पार

अरे ...देखो ! उड़ गई मधुक्खियाँ शहद छोड़
जीने की लड़ाई में मौत का हथियार लेकर
 

आँसू कुँआ हैं,भर जाता है तो
डूब जाती है आवाज़ तुम्हारी 
सूखता है तो पाताल तक गहरा अंधेरा !

 बहुत हुआ !

तुम फेंकते हो झटके-से बालटी डोरी से बंधी 
भर लेते हो लबलबाता हुआ ,उलीचते हो
रह जाती हूँ भीतर फिर भी उससे ज़्यादा

उफ़ ! दिमाग है कि रात की सड़क सुनसान
जिन्हें कुफ्र है दिन में निकलना
वे दौड़ रहे हैं खयाल बेखटके

इंतज़ार रात का
इंतज़ार सुबह का

बहती है नींद अंतरिक्ष में,आवारा होकर
भटकती है शहरज़ाद प्यार के लिए
अनंत अंधेरों में करोड़ों सूर्यों के बीच 
ठण्डे निर्वात में होगी एक धरती 
हज़ारों कहानियों के पार !  

एक अबबील उड़ी
दो अबाबील उड़ीं
तीन अबाबील उड़ीं
चार...
पाँच...
सारी
फुर्र !



 पुर ते निकसीं रघुवीर वधू

बेमतलब -सी बात की तरह होती है सुबह
नीम के पेड़ पर कमबख्त कोयल बोलती ही जाती है
उसे कोई उम्मीद बची होगी

सारी दोपहरें आसमान पर जा चिपकी हैं आज,उनकी अकड़ !
एक शाम उतरती है पहाड़ से और बैठ जाती है पाँव लटका कर,ज़िद्दी बच्ची !           
ढलने से पहले झाँकना चाहता है नदी में कहीं कोई सूरज
सिंदूरी रेखा खिंचती है
जैसे छठ पूजती स्त्रियों की भरी हुई मांग
पूरा डूबा है मन आज
आधी डूबी हैं मछलियाँ
मल्लाह पुकारता है हे हो !
आज और गहरे जाएंगे पानी में ...
                                 
यह लौटने का समय है
समयप्रतीक्षाओं की लय ...

झूठ बोलकर खेलने चले गए बच्चे पहाड़ी के पीछे
तितलियाँ साक्षी हैं उनके झूठ की
अभी साथ में करेंगे धप्पा और चांद को आना पड़ेगा बाहर मुँह लटकाये   
ये देखो आज शिकारी छिपा है आसमान में , एक योगी भी है
छिप-छिप के रह-रह टिमकते तारे ...चोर हैं चालीस
कहानियों की सिम-सिम ...नींद का खज़ाना...लो...सो गए...


अब सब काम निबट गए
पाँव नंगे हैं मेरे
बच्चों ने छिपा दी होगी...
या रख दी होगी मैंने ही कहीं
मेरे नाप की कोई चप्पल नहीं है भैया ?
आपको कुछ पसंद ही नहीं आता
ह्म्म...
           


सपनों के लिए बुलाया गया है आज मुझे कोर्ट
अचानक लगता है खो गई हूँ 
यहाँ वह पेड़ भी नहीं है बरगद का चबूतरे वाला
किसी हत्या के भी निशान नहीं हैं मिट्टी पर
चौकीदार कहता है पूजा करनी होगी आपको , गलत गेट से आ गई हैं आपदूसरी तरफ है बरगद , सही-सलामत ।

एक प्रेम को भर देना चाहती थी आश्वासनों से ,मीलॉर्ड !
                                       फुसफुसाता है कोई- झूठ !
शब्दकोश से मेरे गायब हो रहे हैं शब्द जजसाहब -
गड्ढे बन गए हैं जहाँ से उखड़े हैं वे...मैं गिरती हूँ रोज़ किसी गड्ढे में
                                     फुसफुसाता है कोई- झूठ !


मैं धरती से बहिष्कृत थी...
कोई बोला- झूठ !

मैं कविता लिखती थी ...मैंने लिखा था सब ...ये देखिए
सारे काग़ज़...मेरी ही हस्तलिपि है...मेरी..
वह छीनते काग़ज़ उठ खड़ा हुआ है- झूठ !

मैं तब भी थी ...अनाम...मैं भटक रही थी अँधेरी गुफाओं में
चलती रही हूँ रात-रात भर ...दिन भर स्थिर ...
बड़बड़ाती रही हूँ नींदों में ...दिन भर  मौन ...

मीलॉर्ड ! मुझे सुना नहीं गया मेरे क़ातिलों को सुनने से पहले
                                     वह चिल्ला पड़ा है चुप्प् प !!

आप पर अनुशासनहीनता का आरोप है
अदालत की तौहीन है ...

होती हूँ नज़रबंद आज से ...अपने शब्दों में ...कानो में गूंजता है झूठ है !
होती हूँ मिट्टी ...हवा ...आँसू ...पानी...  
मुझे उनके जागने से पहले पहुँचना है
                                                 
चीखता है ऑटो वाला- हे हो !

मरने का इरादा है क्या ! 

जानते होंगे बादल साँवले

एक ख्वाब में धुला निखरा अंधेरा है

दूर तक बीहड़, सूखे, उदास, जले,काले पेड़
भागती हूँ बदहवास, बेपता 
तलाशती हूँ तुम्हे थामती हूँ अपना ही हाथ
अपना ही पर्दा हूँ
खुद ही से झाँकती हूँ
छिप जाती हूँ

सहलाती हूँ ज़मीन जैसे तुम छूते हो
करना चाहती हूँ प्रेम और संशय में पथरा जाती हूँ
चूमती हूँ दीवार सपाट
खिरने लगता है चूना , नमक से भरती जीभ
खारे ,अपने ही आँसुओं में लगाती हूँ डुबकी नदियों के सिकुड़ने से पहले
लेती हूँ श्वास और महुआ की गंध में उन्मत्त हाथी से खयाल
झुंड के झुंड मचाते हैं उत्पात
उतारना चाहती हूँ त्वचा
आखिरी परत तक होने एकदम नग्न
कि ठीक ठीक महसूस कर सकूँ सब जैसे मिट्टी
विवस्त्र औ’ आज़ाद
हो जाया चाहती हूँ ढेलाचाँद होने से पहले
धरती का गला रुँध गया है उसे चिपटा लेना चाहती हूँ सीने से बहुत कस कर
आज रात अकेले नहीं सोने दूँगी उसे
उसकी दरारों में उंगलियाँ फंसा कर गुनगुनाऊँगी...

मैं बेपता सही ...
जानते होंगे बादल साँवले...
                 
            प्रतीक्षाएँ...   
            सूखा हैं !

नहीं मरूंगी मैं

जाऊंगी सीधी,दाएँ और फिर बाएँ 
आगे गोल चक्कर पर घूम जाऊंगी और
लौट आऊँगी इसी जगह फिर से

जब सो जाओगे तुम सब लोग
उखाड़ दूंगी यह सड़क और उगा आऊँगी इसे
समन्दर पर
गोल चक्कर को चिपका दूंगी 
सड़क के फ़टे हुए हिस्सों पर

कुछ भी करूंगी
सोऊँगी नही आज

मैं मरूंगी नही बिना देखे काली रात सुनसान
लैम्प पोस्ट की रोशनी में चिकनी सड़कें
मरूंगी नही मैं
शांतिनिकेतन के पेड़ों की छाँव मेँ निश्चेष्ट कुछ पल पड़े रहे बिना
नहीं मरूंगी उस विद्रोहिणी रानी का खंडहर महल 
अकेले घूमे बिना
मर भी कैसे सकती हूँ मैं
बनारस के घाट पर देर रात
बैठ तसल्ली से कविताएँ पढे बिना

नहीँ मरूंगी 
किसी शाम अचानक पहाड़ को जाती बस में सवार हुए बिना
बगैर किए इंतज़ाम और सूचना दिए बिना
और फिर...

मैं लौटूंगी एक दिन 
बिल्कुल ज़िंदा। 

घनश्याम कुमार देवांश की कविताएं

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इस वर्ष के ज्ञानपीठ नवलेखन सम्मान से सम्मानित घनश्याम कुमार देवांशयुवा कवियों के उस विरल समूह से हैं जो और सब तो छोड़िए, फेसबुक पर भी नहीं पाये जाते। अपने चुने हुए एकांत मे पिछले सात-आठ सालों से लगातार कविताएं रचते घनश्याम जीवन के उतार चढ़ाव को अपनी सहज भाषा और सधे शिल्प मे सामने रख देते हैं। उनकी कविताओं मे किसी जल्दबाज़ी की जगह एक प्रौढ़ ठहराव है। सीधी लगने वाली इन कविताओं मे पंक्तियों के बीच ढेर सारा खाली स्थान है और पाठक उसे अनुभूत किए बिना उन तक नहीं पहुँच सकता।  

घनश्याम ने हमारे आग्रह पर अपने सद्य प्रकाश्य संकलन "आकाश में देह"से कुछ कविताएं असुविधा के लिए भेजी हैं।  कोई पाँच साल बाद उनकी कविताएं असुविधा पर दुबारा पोस्ट करते हुए मुझे हर्ष और संतोष की अनुभूति हो रही है। 



वे थोड़े से पैसे

वे थोड़े से पैसे भी
खत्म हो गए
जब वे दिन आ गए
तो लगा उनका होना
कंपकंपाती सर्दियों में
आग की तरह होना था
वे प्रलय में आखिरी बचे
कुछ बीजों की तरह थे
वे उन पत्तियों की तरह थे
जिन्हें आँधियाँ भी नहीं उड़ा पाई थीं
नदी की कोख में मछलियों
और तपते आकाश में
रूई के टुकड़ों की तरह थे वे

वे विशाल भूख के सामने
एक चुनौती
और
घोर तनाव के दिनों में
बची रह गई नींद के तरह थे

वे थोड़े पैसे
पैसों से कुछ अधिक थे
...

 नौकरी न होने के दिनों में

एक

ऐसा भी होता है कि
कभी अच्छा खासा आदमी खरगोश हो जाता है
जिसे लगता है कि
दुनिया में उसके
और शिकारियों के अलावा कोई
तीसरी प्रकार की जीवित चीज़ नहीं पाई जाती

ऐसा बहुत आम बात है
कि ऐसा आदमी हर बात पर शक करता है
इस बात पर भी जब उसकी प्रेमिका
उसके गालों को चूमते हुए
बराबर कहती है कि वह अब भी
उसे प्यार करती है

उसे अक्सर अपने ही घर का दरवाजा
बुरा मानता प्रतीत होता है
वह अक्सर खिड़कियों से भीतर
बुदबुदाता है कि उसके और घर के बीच से
दरवाजा हटा लिया जाए

वह माँ का मुंह ताकता रह जाता है
जब माँ
घर में सिर्फ उसी से पूछती है
आज क्या खाने का मन है
जब पिता घर में प्राय सोते हुए
मिलते हैं और बहनें
धूप में चोटियाँ सेंकती हुईं

खरगोश हुआ आदमी
नहाते समय बाल्टी के सामने
शर्मिंदा होता है
कि वह आखिर इतना क्यों डरता है
पार्क में आलिंगनबद्ध एक जोड़े से

दो 

आजकल
अकेले में पीनी पड़ती है चाय
टिफिन खोलना पड़ता है
बिना किसी आवाज के
सफर पर निकलना होता है
अकेले ही
प्रेमिका से बोलना पड़ता है
झूठ
कि बहुत व्यस्त हूँ
बुखार को थकान
और बेकारी को मंदी कहना पड़ता है

रेजगारी संभालते हुए
एक परिचित की निगाह को
बतानी पड़ती है
महानगर में उसकी अहमियत
जबकि
शादी और जन्मदिन की पार्टियां
वाहियात लगती हैं
और अच्छे खासे दोस्त
आवारागर्द

कितना मुश्किल है आजकल
विनम्र बने रहना
और
प्रकट करना उदारता
नौकरी न होने के दिनों में
...

आलू

दिनदहाड़े वह मिट्टी की जेब से निकला
और सपनों के रास्ते मेरी नींद में चला आया
वह जिस रास्ते से गुजरता हुआ
मेरी नींद में पहुंचा वह यूरोप में
औद्योगिक क्रान्ति का युग है
जिसे उसने भूख से अकेले बचा लिया था
जब मौत और मजदूर के बीच
वह अपनी अपार सेना के साथ
अकेला डट गया था

आज वह जमीन छोड़कर सपने में चला आया है
और यह एक खतरनाक बात है
...

सवाल यह नहीं था

सवाल प्यार करने या न करने का नहीं था दोस्त
सवाल किसी हाँ या न  का भी नहीं था
सवाल तो यह था
कि उन आँखों में हरियाली क्यूँ नहीं थी
और क्यूँ नहीं थी वहां
खामोश पत्थरों की जगह
एक बुडावदार झील?

सवाल मिलने या न मिलने का नहीं था दोस्त
सवाल ख़ुशी और नाराजगी का भी नहीं था
सवाल तो यह था
कि एक उदास तख्ती के लिए क्यूँ नहीं थी
दुनियाभर में कहीं कोई खड़िया मिट्टी
और क्यूँ नहीं थी एक भी दूब
इतने बड़े मैदान में?

सवाल ताल्लुकात रखने या मिटा देने का नहीं था दोस्त
सवाल जरूरत या गैर जरूरत का भी नहीं था
सवाल तो यह था कि इतनी बड़ी दुनिया में
कोई इतना अकेला क्यूँ था
और क्यूँ नहीं था उसके पास
एक भी सवाल
इतनी बड़ी दुनिया के लिए?
...


 अबोध 

प्यार करने वाले
अबोध  भेड़ शावकों
की तरह होते हैं

कसाई की गोद में भी 
चढ़ जाते हैं
और
आदत से मजबूर बेचारे
भेडिये की थूथन
से भी नाक सटाकर
प्यार
सूंघने लगते हैं
...


  तवांग के बच्चे 

हर सुबह हजारों मील दूर से
चली आती हैं तुम्हारी बौद्ध प्रार्थनाएँ
हवा में तैरते हुए

तुम्हारी हंसी
महानगर के भयानक शोर में भी
आत्मा की आवाज की तरह साफ साफ सुनाई देती है

तुम मुसकुराते हो
तो तुम्हारे चेहरों के प्रतिबिंब
चाँद के दर्पण में पूरी पूरी रात दमकते हैं

जब भी छूते हो कहीं तुम कोई दरख्त
पृथ्वी पर पेड़,पानी और मनुष्य बढ़ जाते हैं
... 

स्वर्ग के बच्चे
(तवांग के बच्चों के लिए)

स्वर्ग के बच्चे पैदा नहीं होते
इसलिए वे जिंदा रहते हैं हमेशा
सृष्टि के हिमशिखरों पर
वे कहीं नहीं जाते इसलिए उन्हें कभी
वापस नहीं लौटना होता
वे सूरज की तरह अचल और प्रकाशमान हैं

स्वर्ग के बच्चे हर कष्ट को
अपने जादुई स्पर्श से खुशी में बदल देते हैं
मुझे भरोसा है कि एक दिन वे
अपने जादुई लिबासों में
इस धरती पर उतरेंगें
और धरती के सारे कष्ट हर लेंगें
...

खबर

देर रात एक पक्षी अपार्टमेंट की ऊंची बिल्डिंगों
के बीच चीखता रहा चक्कर काटता हुआ
खिड़कियों के भीतर पूरा जंगल सो गया था
बहुत देर तक पीटी उसने जंगल की खिड़कियाँ
लेकिन दरवाजा एक न खुला
सुबह दरवाजे पर वह एक अखबार में
लिपटा मिला
...



 सातवें माले पर अखबार

यहाँ सूरज के उगने और
डूबने की कोई आवाज नहीं होती
इतनी ऊपर अखबार सनसनाकर नहीं आता बालकनी के गमले पर
वह दरवाजे के बाहर ठंड में मर गए
लावारिस पिल्ले सा पड़ा रहता है
दोपहर होती है,शाम होती है
और अखबार उठता जाता है
लेकिन किसी किसी दरवाजे से
कई कई दिन तक नहीं उठता अखबार
अखबार दरवाजे पर एक ढेर में बदल जाते हैं
और ढेर एक डरावने ख्याल में
सातवें माले पर पड़ोस का दरवाजा खटखटाना
सचमुच एक डरावना सा ख्याल है
...


मैं तुम्हें वहीं मिलूँगा

जब आकाश का आखिरी तारा टूटकर समंदर में समा जाए
तुम अपनी आँख के पानी में डूबकर
अपनी आत्मा को टटोलना
मेरे होंठ उसी तकिए पर मिलेंगे
जिसपर उसने तुम्हें पहली बार चूमा था
मेरी आँखें मैंने दुनिया से छिपाकर
तुम्हारी आँखों के नीचे छुपा दी हैं
इन दिनों मुझे कुछ दिखाई नहीं देता
मुझे नहीं पता मैं तुम्हें ढूंढ पाऊंगा या नहीं,
लेकिन तुम मुझे ढूंढ लेना
जब आकाश का आखिरी तारा समंदर में टूटकर समा जाए
जब सूरज किसी राख के गोले सा
मैदान में लावारिस पड़ा दिखाई दे
तुम मुझे ढूंढ लेना
मैं तुम्हें वहीं मिलूँगा

...

उज्ज्वल भट्टाचार्य की कविताएँ

लम्बे समय से जर्मनी में रह रहे आधे जर्मन और पूरे भारतीय उज्ज्वल भट्टाचार्यको कविता की दुनिया में आमतौर पर एक शानदार अनुवादक के रूप में जाना जाता है. एरिष फ्रीड, बर्तोल्त ब्रेष्ट, हान्स माग्नुष एन्त्सेबर्गर और गोएठे की कविताओं के उनके द्वारा किये अनुवाद पुस्तक रूप में आ चुके हैं. लेकिन लम्बे समय से उन्होंने लगातार कविताएँ लिखी हैं. उनकी कविताएँ एक बेचैन राजनीतिक कार्यकर्ता की कविताएँ हैं. अपने समय की विडम्बनाओं से जूझते वह अपने पक्ष में मज़बूती से खड़े ही नहीं रहते बल्कि गहन वैचारिकता के साथ इस "पक्ष"के भीतर के अंतर्द्वंद्व से भी लगातार गुज़रते हैं.

अपनी कविताओं के प्रकाशन को लेकर उनकी सावधानी का आलम यह है कि अब जाकर उनका पहला कविता संकलन - "राजा का कुर्ता और अन्य कविताएँ"वाणी प्रकाशन से आ रहा है. संकलन तो ख़रीद कर पढियेगा, अभी उनकी कुछ कविताएँ असुविधा पर.



अपनी लाश देखकर

जब वह सुबह घर से बाहर निकला तो दरवाज़े के बाहर उसकी लाश पड़ी थी। पन्नी से ढकी लाश, पास में एक पुलिसवाला खड़ा था। बताया, तीसरी मंज़िल की खिड़की से उसकी लाश नीचे गिर पड़ी थी। क्यों, उसने पूछा। पता नहीं, कंधे उचकाकर पुलिसवाले ने जवाब दिया। सुबह 9 बजे, पुलिसवाले ने कहा, उस समय गिरजे का घंटा बज रहा था।

नीचे गिरने से पहले उसकी लाश ने विदा ली थी : सलमान रुशदी से, अमरीकी राष्ट्रपति से, किसी अफ़्रीकी देश में आई भुखमरी से, अपनी बीवी से। बच्ची का माथा सहलाते हुए उसकी आँखें छलछला आई थीं। ठिठककर एक लमहे के लिए उसने कुछ सोचा था।
पर पूरब की ओर खुली हुई खिड़की उसे न्योता दे रही थी।

बगल की दीवार पर उसकी किताबें लगी हुई थीं, कोने में म्युज़िक बाक्स था, मेज़ पर कविताएँ, संपूर्ण-असंपूर्ण, अधकचरे नोट। मेरे बाद सब कुछ ख़त्म हो जाएगा, ठहरकर उसने सोचा था। लेकिन जब वह खुद ही ख़त्म हो चुका है, फिर क्या सारी चीज़ें ख़त्म नहीं हो गई हैं ?

एक मरे हुए आदमी को लाश बनते कितनी देर लगती है ? चौंककर उसने सोचा था :
अब सब जान जाएँगे कि वह मर चुका है। दो दिन पहले मौसम के बारे में अपनी राय देनेवाला पड़ोसी अब क्या सोचेगा ? मौसम कैसा भी हो, क्या लाश के लिए कोई फ़र्क पड़ता है ? उसे थोड़ा नज़ला सा था और उसने सोचा था : क्या नज़ले के साथ नीचे कूद पड़ना ठीक रहेगा ?

उसने सोचा था, लोग सोचेंगे, इसीलिए वह मुस्कराया करता था, इसीलिए वह इतना बोलता था, इसीलिए वह चुप रहता था।


अपनी लाश को देखकर वह सोचने लगा : लाश बनने का फ़ैसला उसने क्यों लिया था?
क्या उसने वाकई कोई फ़ैसला लिया था ? क्या मरा हुआ आदमी कोई फ़ैसला ले सकता है ? लेकिन अगर उसने फ़ैसला लिया, फिर क्या वह सचमुच मरा नहीं था ? अगर वह मरा नहीं था, फिर उसने लाश बनने का फ़ैसला क्यों लिया ? क्या यह सिर्फ़ एक ग़लतफ़हमी थी ?

उसने सोचा, पुलिसवाले से पूछा जाए। लेकिन पुलिसवाले के पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं था।

उसका जीवन

बचपन से ही मां-बाप कहते थे
बेटी को पढ़ाऊंगा
एक अच्छे घर में शादी होगी
और ऐसा ही हुआ
आनर्स में उसे फ़र्स्ट डिवीज़न मिला था
फिर शादी हो गई
ससुराल में उलाहने
लगभग नहीं के बराबर मिले
पति के साथ
छुट्टी पर जाने का मौका मिला
एकबार जयपुर
एकबार तो दस दिनों के लिये साउथ की टूर
दो बच्चे हुए
नौकरी का इरादा छोड़कर
घर संभालना पड़ा
पति साहब हो गए
एकबार सेक्रेट्री से इश्क का लफ़ड़ा चला था
जल्द ही ठीक हो गया
बेटे को मैनेजमेंट में डिग्री के बाद
अच्छी नौकरी मिल गई
बेटी की भी शादी हो गई
जीवन भरा-पुरा था
शाम को वह सीरियल देखती थी
अचानक एक छोटी सी बीमारी के बाद
वह चल बसी.

अब वह लेटी हुई थी
पड़ोस की औरतें कह रही थीं
भागवंती है
सुहाग लेकर चली गई.
पेरुमल मुरुगन

शहर के चौक के बीच खड़े होकर
उस शख़्स ने कहा :
मुझे पता है
धरती घूमती है
घूमती रहेगी.
मैं पेरुमल मुरुगन हूं.
और मैं ज़िंदा हूं
लेकिन मेरे अंदर का लेखक मर चुका है.
मैं कुछ नहीं लिखूंगा,
मैं कुछ नहीं बोलूंगा.

पास खड़े दोस्त से मैंने पूछा :
कौन है यह पेरुमल मुरुगन ?
उसने कहा : लेखक था,
अब पता नहीं.
क्या लिखता है, मैंने पूछा.
उसने जवाब दिया : पता नहीं,
फिर उसने पूछा : जानना चाहते हो ?
मैंने कहा : पता नहीं,
लेकिन इतना ज़रूर जानना चाहता हूं
कि इसकी अहमियत क्या है ?

उसने कहा :
अहमियत सिर्फ़ इतनी है
कि वह शख़्स चीखते हुए कहता है
कि वह अब नहीं बोलेगा
और सड़क के दोनों ओर सारे मकानों में
खिड़कियां बंद हो जाती हैं,
खिड़कियों के पीछे पर्दे खींच दिये जाते हैं,
पर्दों के पीछे बत्तियां बुझा दी जाती हैं,
तुम और मैं
हम दोनों सड़क के किनारे खड़े रहते हैं.

थका हुआ क्रांतिकारी

जाड़े का मौसम है
ठंड के मारे बुरा हाल है
थका हुआ क्रांतिकारी
कम्बल लपेटकर
बिस्तर पर बैठा है
उसका सिद्धांत है -
दौड़-धूप करने से
पसीना आता है
पसीना ठंडा हो जाय
तो कंपकंपी होने लगती है.


वो कहता है :
सिद्धांत को समझे बिना
सड़क पर मत उतरो
ठंड लग जाएगी.
मुझे बिस्तर में रहने दो
कम्बल के नीचे.


मैं सिद्धांत तैयार करता हूं.
मुझे छेड़ो मत.
छेड़ो मत.

हमारा रहनुमा

जब वह झूठ बोलता है,
लोग उसे सच मानते हैं.
जब वह सच बोलता है,
तब भी लोग सच मानते हैं.
और वह परेशान हो सोचता है :
वह सच बोल रहा है या झूठ ?

लोग जब उससे ख़ुश होते हैं,
उसकी जयजयकार करते हैं.
लोग जब परेशान रहते हैं,
उसकी जयजयकार करते हैं.
और वह मायूस हो सोचता है :
लोग परेशान हैं या ख़ुश ?

जब वह झूठ बोलता है,
उसे सच बनाना चाहता है.
जब उसे सच बोलना होता है,
वह ख़ामोश रह जाता है.
वह हमेशा डरता रहता है,
उसका सच कहीं झूठ ना हो जाय.


वह सबकुछ कर सकता है,
सिर्फ़ सच नहीं बोल सकता.

पीढ़ियों के दरमियान

अपनी उम्र की घमंड के साथ
बच्चों से कहता हूं :
जानते हो, कितने सालों का तजुर्बा है
मेरी बेवकूफ़ियों का
ये बाल धूप में नहीं पके हैं,
यह कुर्सी
तुम्हारे लिये नहीं,
मेरे लिये बनी है.
कुर्सी में धंसा हुआ मेरा चेहरा –
उसे देखो –
कुछ सीखो –
तुम्हारा भी वक़्त आएगा,
लेकिन अभी नहीं.

बच्चे खड़े-खड़े मुझे देखते रहे,
मुझे देखते रहे
और मुस्कराते रहे,
फिर वो निकल पड़े
बाहर की ओर.

अब मैं अकेला हूं,
कुर्सी में धंसा हुआ

बेहद अकेला.

ऐतिहासिक प्रक्रिया

जहाँ मैं हूँ
मुझे होना नहीं है
पसंद भी शायद नहीं है
लेकिन वह भरोसा दिलाता है
वहां तक के रास्ते का
जहां मुझे पहुंचना है.

वहां मुझे पहुंचना होगा
लेकिन जब मैं वहां होउंगा
वहां मुझे होना नहीं होगा
पसंद भी शायद नहीं होगा
लेकिन वह भरोसा दिलाएगा
वहां तक के रास्ते का
जहां मुझे पहुंचना होगा.



अमिय बिंदु की कहानी - कशमकश

अमिय बिन्दु के कहानी- संग्रह "अमरबेल की उदास शाखायें"पांडुलिपि को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा नवलेखन पुरस्कारों की श्रेणी में अनुशंसित किया गया है. उन्हें बहुत बधाई. यहाँ प्रस्तुत हैं इसी संकलन से एक कहानी



सेक्रेटरी को केबिन से बाहर निकाल रघु ने धड़ाक् से दरवाजा बन्द कर दिया। इतनी जोर से कि दरवाजे का शीशा चकनाचूर होकर बिखर गया। लोगों की नज़रें उधर उठ गईं। फर्श पर शीशे के टुकड़े बिखरे थे। सारिका के मन में भी कुछ चिटक गया, कुछ टूट गया। उसकी आवाज नहीं सुनाई पड़ी। टुकड़ों को सहेजती हुई, रुलाई को गटकती हुई वह अपने केबिन में चली गई।

रघु सर गुस्से में है। बहुत ही गुस्से में है।

बात पूरी ऑफिस के वातावरण में तैरने लगी। कनाट प्लेस से थोड़ी दूर बाराखम्बा रोड पर आसमान को उंगली करती हुई एक इमारत खड़ी है। इसके ग्यारहवें तल पर देश की सबसे बड़ी तेल कंपनी का ऑफिस है यह। जिनके मां बाप गंगा में जौ बोए होते हैं उन्हीं के बेटे बेटियों को नौकरी मिलती है इसमें। बड़े भाग मानुष तन पावा। उससे भी बड़ा भाग कि इस कंपनी में आवा। अपनी मोटी आमदनी के चलते कंपनी अपने कर्मचारियों पर भी मोटा खर्च करती है।

रघु है कौन?

रघु इसी कंपनी में सीनियर सेल्स मैनेजर है। रघु, रंजना का पति भी है। रंजना, रघु से ज्यादा पढ़ी लिखी है। ज्यादा डिग्रीयां हैं उसके पास। मगर नकचढ़ी नहीं है। रंजना से शादी करके रघु खूब खुश था। शादी के समय रंजना नौकरी नहीं करती थी। पढ़ाई के बल पर मोटे तनख्वाह वाले रघु को फांस लिया था। या कहिए कि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की स्कॉलर से रघु ने शादी के लिए हां कर दी थी। रंजना इलाहाबाद में कंप्टीशन की तैयारी भी करती थी। रघु के मन में सरकारी नौकरी न होने की टीस थी। कई बरस तैयारी में उसने भी खराब किए थे। उसे लगा दोनों में से कोई एक सरकारी नौकरी में रहेगा, तब भी ज़िन्दगी की गाड़ी चल पड़ेगी।

तो क्या रघु, रंजना से गुस्सा है?

रघु बड़ी पोस्ट पर है। खूब कमाता है। ब्याह के बाद रंजना इलाहाबाद से दिल्ली आ गई। दिल्ली बड़ा शहर था। देखने के लिए बहुत कुछ था। घूमने के लिए बहुत कुछ था। अभाव जैसा कुछ था भी नहीं। राजधानी की चकाचौंध ने उसे सम्मोहित सा कर लिया। शादी के बाद एक बरस कैसे निकल गया दोनों को पता न चला। साल बीतते किसी तीसरे के आने की आहट मिल गई। तब जाकर दोनों को एहसास हुआ कि एक साल हनीमून में ही बीत गया। कुछ दिनों बाद एक पुरुष सदस्य ने घर में जन्म लिया। यह हैप्पी फेमिली का तीसरा सदस्य था। अमन के आने से घर की रौनक बढ़ गई। रघु की जिम्मेदारियां बढ़ गईं। रंजना की व्यस्तता बढ़ गई।

रघु जब तब रंजना को छेड़ता रहता। इतने अरमानों से पढ़ाई की थी। कुछ कर लो। समय निकल जाएगा तो हाथ मलती रहोगी।रंजना कसमसाती। इधर उधर थोड़ा पढ़ने लगती। उसे पढ़ता देख रघु उसे समझाने लगता। कुछ कुछ बताने लगता। तरह तरह की सलाह देता।

घर सामानों से अटा पड़ा था। सारी सुविधाएं थीं। ऑटोमेटिक मशीनों से जिंदगी में आराम बहुत आ चुका था। फिर भी रंजना पहले की तरह नहीं पढ़ पाती थी। पहले की तरह मन नहीं रमता था। किताब खोलकर बैठी रहती और रघु देश की समस्याओं पर चर्चा शुरू कर देता। वह बढ़ती जनसंख्या को लेकर खूब परेशान था। बी. टेक में उसे जनसंख्या की समस्या पर लिखे निबंध पर राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका था। वह गुस्से से कांपने लगता कि सरकारें उस दिशा में कुछ नहीं कर रहीं। उसने बहुत अच्छे सुझाव भी अपने निबंध में दिए थे।

ऐसी ही किसी चर्चा के दौरान दोनों ने सहमति से हम दो हमारे एकका चीनी फैसला ले लिया। फिर उस पर अडिग रहने की कोशिश करने लगे। रघु को कभी-कभी खुशी होती कि वह देश की इतनी भीषण समस्या के समाधान हेतु कुछ कर रहा है। रंजना बलिहारी जाती कि इतना संवेदनशील पति मिला है। फिर भी रंजना को कुछ खाली-खाली सा लगने लगा। अमन के चलते व्यस्तता तो बढ़ी थी लेकिन वह कुछ दिनों तक किताबों और पढ़ाई से दूर रहती, मन उसे कचोटने लगता। वह कुछ पढ़ने या कुछ करने के लिए कुलबुलाने लगती। अगर किसी सहेली से कभी बात हो जाती तब तो वह छटपटाने लगती। उसकी कई सहेलियां नौकरी में लग चुकी थीं।

तो क्या रघु, रंजना के कुछ न कर पाने से गुस्सा था?

दो तीन साल की लुकाछिपी और बीच-बीच की पढ़ाईयों के बाद रंजना की कोशिश रंग लाने लगी। मगर रंजना ने महसूस किया कि जब भी कोई फाइनल रिजल्ट आने वाला होता, रघु का व्यवहार बदल जाता। वह ताने मारने लगता, ‘अब तो तुम दिल्ली से चली जाओगी।’ ‘दिनभर ए सी चलाई रहती हो, वहां कहां मिलेगा?’ ‘इतने दिन दिल्ली में रहने के बाद छोटे शहर में कैसे रहोगी?’ ‘अमन की पढ़ाई का क्या होगा?’

छोटी-छोटी बातों पर रूठ जाता। मुंह फुला लेता। बोलना बंद कर देता। गांव में मॉल कहां मिलेगा? ए सी कहां मिलेगा? मेट्रो जैसा नजारा कहां होगा? बिजली भी नहीं रहेगी। वहां की सरकारी आफिसों में कूलर तक नहीं होता। कई-कई दिन बिजली ही गायब रहती है।
रंजना उसे समझाने की कोशिश करती, ‘हम लोग खुद गांव से आए हैं। तुम गांव से पढ़कर इतनी बड़ी पोस्ट तक पहुंचे हो।

रघु कुछ देर के लिए समझ जाता मगर जैसे ही किसी इंटरविव के लिए कॉल होती, वह बड़बड़ाने लगता। अजीब बात यह थी कि जब कहीं सेलेक्शन नहीं होता तो वह रंजना को अच्छे से समझाता। खूब दिलासे देता और अच्छा करने के लिए उत्साहित करता। और ज्यादा पढ़ने के लिए कहता।

तो क्या रघु, रंजना का सेलेक्शन न होने से गुस्सा था?

उस साल जनवरी में पीसीएस का रिजल्ट आया। अंतिम सूची में रंजना का भी नाम था। ट्रेजरी ऑफिसर के लिए सेलेक्शन हो गया था। रघु भी खुश हुआ। रंजना को समझाता रहा, ‘संभाल के रहना वहां। लोगों से ज्यादा घुलना मिलना मत। अमन को बचाकर रखना।

रंजना उसे टोकती, ‘अभी तो रिजल्ट आया है। पता नहीं कब जाना होगा? कहां जाना होगा?’ कहती कि कहीं दूर बस्ती, बहराइच जैसी जगहों पर होगा तब थोड़ी जाएगी। रघु आश्वस्त होने की कोशिश करता कि रंजना बिना उसकी सहमति और अनुमति के नहीं जाएगी। फिर भी वह रह रहकर परेशान हो जाता। इस बीच उसने रंजना को हर तरह से खुश करने की कोशिश की। उसे खूब घुमाया, दिल्ली की हर जगह दिखा डाली, मॉल्स में लेकर गया, मल्टीप्लेक्स में फिल्में दिखाईं, बाहर खाना खिलाया। जितना हो सकता था वह उसे दिल्ली की दुनिया में रमा देना चाहता था। वह रंजना को सीधे मना नहीं करना चाहता था। लेकिन मन ही मन चाहता था कि रंजना खुद रुक जाए।

एक दिन ऑफिस से लौटकर रघु ने कहा, ‘राजीव फूफा के यहां चलना है। जल्दी से तैयार हो जाओ।यह बहुत अप्रत्याशित बात थी। तीन साल से ज्यादा हो गए थे उनके घर गए। खुद रघु को उनके घर जाना पसंद नहीं था। राजीव फूफा के यहां तो तुम जाने से मना करते हो। कहते हो वे लोग हमेशा सरकारी नौकरी की गुणगान करते रहते हैं। बड़े लोग हैं। अपने बस का नहीं।

रघु ने कुछ नहीं सुना, ‘अब अपनी बीबी भी तो सरकारी अफसर बन गई है।रंजना ने बात में छिपे तंज को गहराई से महसूस किया। वह उदास हो गई। कोई नया बखेड़ा नहीं चाहती थी। चुपचाप तैयार होकर दोनों निकल लिए।

वहां पहुंचकर रघु ने पुराना प्रसंग छेड़ दिया, ‘बुआ, आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ाती थीं न?’

शादी के समय रघु की बुआ बीएचयू में लेक्चरर थीं। फूफा की नौकरी के चलते, उन्हें अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी थी। बुआ उस पर ज्यादा बात नहीं करना चाहती थीं मगर रघु घूम फिरकर वही बात करता रहा। रंजना ने बुआ के मन की टीस को महसूस किया। पचपन के आसपास की थीं बुआ। घुटनों की बीमारी, मोटापे और शुगर से त्रस्त। रघु ने बुआ के त्यागपर ज्यादा जोर दिया तो रंजना बिफर पड़ी, ‘नौकरी करतीं तो इतनी चुप नहीं रहतीं। तुम क्या समझोगे उनका दर्द? क्या बनारस, गाजीपुर, बलिया, गोरखपुर के बच्चे आईआईएम या एमबीबीएस नहीं कर पाते? खुद फूफाजी भी बीएचयू से ही पढ़े हैं।

तर्क से खाली होकर रघु ने ब्रहमास्त्र फेंका जो हर पुरुष, स्त्री के लिए फेंकता है, ‘तुमसे तो बहस करना ही बेकार है।’ 

तो क्या रघु, रंजना के नौकरी के फैसले से गुस्सा था?

रंजना के नौकरी ज्वाइन किए हुए चार महीने हो चुके थे। जुलाई का आखिरी हफ्ता था। मौसम में खूब उमस थी। रंजना से मिलने रघु जौनपुर गया हुआ था। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र का जिला था यह। बनारस से बिल्कुल सटा हुआ। बारिश के आसार नहीं दिख रहे थे। धरती तप रही थी। खेतों में दरारें आनी शुरू हो चुकी थीं। अमन के शरीर में जगह-जगह फोड़े फुंसियां निकली थीं। कहीं से मवाद निकल रहा था तो कहीं खून की लाली थी। पापा, पापा कहकर वह दौड़ा तो रघु ने उसे झिड़क दिया, ‘क्या हाल बना रखा है? यही सब गंदगी नहीं मिल रही थी तुम्हें वहां?’

रंजना गुस्से से कांप उठी। एक महीने बाद रघु आया था। कितना इंतजार किया था उसने? ढेर सारी बातें करना चाह रही थी। ऑफिस की, लोगों की, पड़ोस की, दिल्ली वाले पड़ोसियों की। रघु ने उसकी ओर मुंह उठाकर देखा तक नहीं? अमन को दवा दिलाने चला गया। लौटकर फोड़े-फुंसियों की सेवा में लगा रहा। अमन इतने दिनों बाद पापा को पाकर खूब खुश था। रंजना चुपचाप सिसक रही थी। अंदर ही अंदर न जाने कितने फोड़ों की टीस उठ रही थी। लग रहा था पूरे बदन में फुंसियां ही फुंसियां हैं। रात में फुंसियों की जगह कांटे उग आए। करवट बदलते रात बीत गई। वह सोचती रही। गुनती रही। कुढ़ती रही। रघु ने पिछले चार महीनों में उसे बार-बार गुनहगार ठहराया था। अमन को खरोंच लग जाए, चोट लग जाए, बुखार हो जाए, दस्त लग जाए। हर बार उसे जिम्मेदार ठहराकर कुछ होने पर देख लेने की धमकी थमा देता। जैसे दिल्ली में अमन को कभी कुछ हुआ ही न हो। जैसे अमन के लिए अकेले वही जिम्मेदार है। रंजना को जलता हुआ छोड़कर लौट गया था रघु।

तो क्या अमन के बीमार होने से रघु गुस्सा हुआ?

धीरे-धीरे एक साल बीत गया। रघु का जौनपुर आना जाना लगा रहता। कभी रघु संयत रहता तो कभी कुछ देखकर भड़क उठता। इस बार रंजना का चेहरा देखकर मुस्कुराया, ‘अपना चेहरा देखा है आइने में काली माई? कैसी थी? क्या हो गई हो?’ यह तिरछी मुस्कुराहट थी। किसी को उसकी औकात बताने के लिए मुस्कुराया जाता है, वैसी।

तिरछेपन को महसूस करते हुए भी रंजना ने हंसने की कोशिश की, ‘शादी के समय वाली रंजना को भूल गए? तुम्हीं तो कालीमाई दियासलाई कहकर चिढ़ाते थे। अब गोरी चिट्टी रखकर मुझे क्या ड्राइंग रूम में सजाओगे?’

ऐसे हल्के फुल्के क्षण बड़ी जल्दी बीत जाते। अमन की तबियत खराब थी। बुखार उतर ही नहीं रहा था। रघु को फिर मौका मिल गया। वह फिर से उसी खोल में घुस गया, ‘अब तो सोच लो। न जाने कौन सा भूत सवार है तुम पर। जब तक कुछ बुरा नहीं होगा तब तक नहीं मानोगे तुम लोग।

अब रंजना चुप न रह सकी। वह सिंहनी की तरह झपट पड़ी, ‘इस तरह क्यों कोसते हो? मेरी गलती क्या है? तुम्हीं तो नौकरी करने के लिए कहते थे? बहाने छोड़ो सीधे-सीधे बोलो चाहते क्या हो?’

यह रूप देखकर रघु हड़बड़ा गया। उसे खुद नहीं पता था कि वह चाहता क्या है? सीधे कहे भी क्या? कैसे कहे कि रंजना नौकरी छोड़ दे? कैसे कहे कि रंजना पत्नी बनकर उसका घर संभाले? उसकी देखभाल करे। खाना बनाए। कपड़े धोए। उसके पैर दबाए। मालिश करे। वह हकलाने लगा, ‘मैं, मैं, मैं क्या चाहता हूँ। तुम्हीं लोगों की खातिर कह रहा था। मुझे क्या है?’

रंजना आरपार के मूड में थी, ‘हमारी चिंता के लिए ताने मारते हो? इतनी ही चिंता है तो एक काम करो, जितनी मुझे तनख्वाह मिलती है, उतने रुपये मुझे हर महीने दे दिया करो।

रघु ने मौके को किसी योद्धा की तरह लपका, ‘मैं कमाता हूँ तुम्हीं लोगों के लिए तो। इसमें मेरा तेरा की बात कहां से आ गई?’

मगर रंजना आज फंसने वाली नहीं थी, ‘वही तो, अपने उन्हीं पैसों में से ही तनख्वाह मांग रही हूँ। तुम्हें क्या दिक्कत है?’

दही में मथानी की तरह रघु बात को घूमाने लगा, ‘क्या करोगी अलग से पैसे लेकर?’ दरअसल वह चाहता था कि जो कुछ अंदरूनी बात हो वह बाहर आ जाए।

रंजना वैसे ही शांत थी, ‘कुछ भी करूँ? बस मुझे अलग से निकालकर दे दिया करो। मेरे एकाउण्ट में।
रघु अभी दही को बिलो रहा था, ‘मुझसे छिपाकर खर्च करोगी? मैं पूछ नहीं सकता?’

रंजना मुंह बिचकाते हुए बोली, ‘ऐसी कोई बात नहीं है। क्या अपनी तनख्वाह मैं चोरी से खर्च करती हूं? तुम पूछते नहीं तब भी मैं तुम्हें बताती हूँ, तुमसे पूछती हूँ।

रघु एकटक देखता रहा। बात घूमाने से भी कुछ नहीं निकला। रंजना पास बैठी थी। वह बात को शांत करने लगी, ‘आज मेरे एकाउण्ट में भी कुछ पूंजी जमा है। वह क्या सिर्फ मेरा है? क्या बिना बताए मैं कुछ करती हूँ? लेकिन मुझे अच्छा लगता है। मेरी खुशी की खातिर ही दे दो।

रघु का दिमाग झनझना गया। कुछ बहुत बुरा बोलना चाहता था पर इतना ही कहा, ‘तो साफ साफ कहो न कि मुझे पैसे जमा करने हैं। कुछ हासिल करना है। कॅरियर बनाना है।

रंजना का गुस्सा छंट गया था। उसकी ममता उफान मारने लगी। आज शाम को रघु को वापस लौटना था। उसने धीरे से कहा, ‘तो इसमें गलत क्या है रघु? यह सब भी तो मैं तुम्हारी पत्नी बनकर ही कर रही हूँ।रघु के सिर में हथौड़े चल रहे थे। बरसों से संजोया मन का शीशा चिटक गया था। वह पूछना चाहता था कि पत्नी का मतलब भी उसे पता है? मगर पूछ नहीं सका। जो मतलब उसे पता था वह भी कहां ठीक था? फिर दोनों में कोई बात नहीं हुई। गुस्से में ही वह शाम की ट्रेन से निकल गया। सुबह ऑफिस पहुंचा तब भी मूड खराब था। मन में कई-कई दरारें थीं। यह वही सुबह थी जब सेक्रेटरी ने टारगेट पूरी होने की खुशी में पार्टी की बात कही तो रघु बौखला गया। मचलती हुई सारिका के चेहरे में उसे किसी और का अक्स दिखलाई पड़ा। उसका सिर घूम गया। सारिका को गालियां देता हुआ केबिन से गेट आउटकहकर भगा दिया। दोनों हाथों में सिर थाम रिवॉल्विंग चेयर पर बैठ गया। उसे लग रहा था उसकी चेयर अपनी पूरी गति से घूम रही है। वह अपनी नज़रें कहीं स्थिर नहीं कर पा रहा है।

रघु को खुद नहीं पता वह इतना गुस्सा क्यों है?
सम्पर्क- अमिय बिन्दु, 8बी-2, एन पी एल कॉलोनी, न्यू राजेन्द्र नगर, नई दिल्ली- 110060

मोबाइल- 9311841337

मृदुला शुक्ला की कविताएँ

 मृदुला शुक्लाने पिछले कुछ वर्षों में  हिन्दी कविता की दुनिया में अपनी पुख्ता ज़मीन निर्मित की है. उनकी कविताओं का संसार विस्तृत है. यहाँ एक मध्यवर्गीय स्त्री की प्रश्नाकुल आँखों से देखी गई दुनिया है जिसमें उसके आसपास के समाज के साथ-साथ व्यापक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ है और दोनों के बीच के अंतर्द्वंद्व भी. यहाँ सवालों के निश्चित जवाबों की जगह उन जवाबों की राह की मुश्किल जद्दोजेहद है, किसी विजय के उद्घोष की जगह संघर्ष के घाव और सैद्धांतिक निष्पत्तियों की जगह एक स्त्री की सहज व्यवहारिक दृष्टि. 

उनका एक संकलन "उम्मीदों के पाँव भारी हैं"प्रकाशित हो चुका है और पर्याप्त चर्चित हुआ है. असुविधा पर उनका स्वागत और उम्मीद है कि भविष्य में भी उनका सहयोग मिलता रहेगा.



 


लव-जिहाद
अब जबकि ये दुनिया 
धीरे धीरे तब्दील हो रही है एक बाज़ार में 
बाकायदा मोल भाव करके मिलती हैं भावनाएं 
तो शब्दों की सार्वजनिक सभा में 
आम सहमति से तय किया है किताबों से निकल
वस्तुओं में बदल जाना 

नैतिकता बन गयी है 
डुगडुगी मदारी के हाथ की 
जिसकी डुग-डुग पर नाचेंगे बन्दर 
अल्प विराम के समय हाँ में हाँ मिलायेंगे जम्हूरे 


प्रतिबद्धता शहर से बहुत दूर
निर्जन में चुपचाप खड़े 
खंडित देवालय के बाहर बंधा पीतल का घंटा है 
जिसे चुरा ले जाएगा एक चोर 
पिघला कर उसे अधिकतम तापमान पर 
चोर बाजार में उससे गढ़ी जायेंगी 
महीन नक्काशी की सजावटी मूर्तियाँ 
जिन्हें शहर के बीचो बीच 
सबसे बड़े कला केंद्र में सजाना तय पाया गया है 


प्रेम ने विरोध किया 
गहरा विरोध ,इनकार किया वस्तु बनने से 
नक्कार खानो में तूती की कौन सुनता है भला 
देखिये अब वो अन्धो की हाथ में पड़ गयी गेंद हैं 
वे खेल रहे हैं उससे एक खेल,फेंकते हैं
कभी इस पाले तो कभी उस पाले 
अभी आजकल ही तो ये नया खेल 
लव-ज़िहाद के नाम से बाज़ार में आया है


तुम्हारी ज़बान कैंची की तरह चलती है
कुछ डोरियाँ हैं जो बांधे रखती है
उसके सपनो को
कुछ बारीक से रेशे
उसकी खिलखिलाहट को

बचपन बंधा रहता है नैहर से
यौवन चुनरी
आशाये मांग से
मुस्कुराहट कोख से

पंख हैं तो सही
मगर उड़ाने बाँध दी जाते है
नोच दिए जाने के भय

सुबहें गरम पराठों से
शामें तुलसी चौरों पे जलते दिए से
दुपहरी थोड़ी ढीली सी लपेटी होती
आँगन में सूखते बड़ियों से
मर्तबानो में मुस्कुराते आचारों
जाने क्या है जो बांधे रखता है उसे देहरी से


तुम यह बंधन काटती क्यूँ नहीं?
सुना है तुम्हारी जुबान कैंची की तरह चलती है!

चुप्पी
चुप्पी हमेशा ये नहीं कहती
आपके पास शेष नहीं रहा
कहने के लिए कुछ
या चाहते ही नहीं
अब आप कुछ कहना

दरअसल चुप्पियाँ स्वेच्छा से
ओढा हुआ ताबूत होती हैं

उन कठिन दिनों में
आप टटोल रहे होते हैं
अपने आस पास के लोगों की
ग्राह्यता ,पात्रता
जो धारण कर सकें आपके
भीतर उबलते हुए मौन के आवेग को

खुद को मथते हुए आप पाते हैं
प्रकृति भी जब तोडती है
धरती और आकाश की ग्राह्यता सीमा
असीमित और व्यापक होते हुए
इनकी क्षमताएं,
टूटता मौन हमेशा विप्लव ही दे जाता है

मैं भी अक्सर ,
किसी दलदली जमीन में पड़े कछुवे सी ,
खोल से निकालती हूँ
अपना सिर बाहर
घंटों तक लेती रहती हूँ जायजा,
बाहर, मौसम की पात्रता का

फिर वापस जा लौटती हूँ
ताबूत में अपनी
खद्बदाती चुप्पियों के साथ
और सोचती हूँ ,
ताबूत भी होती है काफी आराम दायक जगह

मुस्कुराहटें

मुस्कुराहटें  होती हैं फूलों से हलकी
शायद सुगंध से भी
हंसी की पोटली से
खुल कर गिरती हैं छन्न से
और परागकणों के साथ
बहती चली जाती हैं हवा में दूर तक

बहुत सूक्ष्म होते हैं इनके के जीवाणु
एक होठ से दूसरे होठ तक
संक्रमित करते है ,अदृश्य रूप से

अजी ये सुनी सुनी सुनाई बातें हैं
बहुत भारी होती है मुस्कान
जीवन के मुश्किल दिनों ने
आप अपनी पूरी ताकत से सम्हाले रखते हैं
चिपकी रही आपके चहरे से

मगर बार बार आ ही जाता है वो लम्हा जब
कमज़ोर हो जाते हैं आपके इरादे
या बेहद भारी हो जाती है आपकी मुस्कान
छूट कर गिर जाती है आपके होठों से

छनाक से गिरती है वो
बिखर जाती हैं टूट कर
उनकी किरचें ,चुभती रहती हैं
बरसों बरस
कभी आँखों में कभी पैरों में


चाँद
नो,
दूर हो तुम
हजारों कोस,

शीतलता हो,
तृप्ति हो
एहसास हो

कामिनी का मुख
विरह में बढ़ाते हो कामना,
मिलन में उत्तेजना

प्रेरणा में हर कवि के
तुलिका में लरजते हो
प्रकृति के अनुपम चितेरों के

धुंधली उदास सी
शामो में उतरते हो
बहनों की छतो पर
तोतले दुधमुहों
को लोरियों में

शोध में विज्ञान में
आज भी तुम
विस्मय हो
रहस्य हो

जानते हो क्यूं?
दूर हो मानव पहुँच से
आज भी अनुपलब्ध हो

एक सलाह दूँमानोगे
दूर से भी यदि कभी
दिखे आदम जात
तो भागना तुम
अगर तुम आ गए
उसकी हद्द में
या फिर
उसकी ज़द में

तो फिर देखना
थूकेगा, मैला फैलाएगा तुम पर
कचरों के निस्तारण की
जगह बनाएगा
छातियों पर
हल चलाएगा

और फिर
खुद से दूर
बहुत दूर ढूँढेगा एक नया चाँद।

पिता
चौतरफा दीवारें थी 
भीतर घुप्प अँधेरा 
एक खिड़की खुली

कुछ हवा आई 
ढेर सारी रौशनी 

तुम चौखट हो गए 
आधे दीवार में धंसे से 
आधे कब्जों में कसे से 

ये जो उजाला है ना
खिडकियों के नाम है 

चौखट तो अब भी 
डटी है दीवारों के सामने 
अंधेरों से लड़ती......

पिता तुम चौखट ही तो रहे हमेशा ..
ये जो तमाम उजाले हैं हमारे हिस्से के 
ये मुझ तक पहुंचे ही हैं 
तुम्हारे कंधो पर सवार होकर


 मेरी कविताएँ
कवितायें मुझे मिलती हैं 
चौराहों पर ,तिराहों पर 
और अक्सर 
दोराहों पर 

संकरी पगडंडियों पर कवितायें 
निकलती हैं 
रगड़ते हुए मेरे कंधे से कन्धा 
और डगमगा देती हैं मेरे पैर 

इक्क्का दुक्का दिख ही जाती है 
तहखानों में अंधेरो को दबोचे 
उजालों से नहाए 
महानगरों की पोश कोलोनियों में 

पिछले दिनों गुजरते हुए गाँव के 
साप्ताहिक बाज़ार में
उसने आकर मुझसे मिलाया अपना हाथ 
और फिर झटके से गुज़र गयी 
मुस्कुराते हुए ,दबा कर अपनी बायीं आँख 

मेरे बेहद अकेले और उदास दिनों में 
वो थाम कर घंटो तक 
बैठती हैं मेरा हाथ 
थपथपाती है मेरा कन्धा 
अपनी आँखों में
सब कुछ ठीक हो जाने की आश्वस्ति लिए

सच तो ये है कि
कविताये मुझे घेर लेती हैं 
पकड़ लेती हैं मेरा गिरेबान 
सटाक ,सटाक पड़ती हैं मेरी पीठ पर 
और छोड़ जाती हैं 
गहरे नीले निशान .....

मेरी पीठ पर पड़े गहरे नीले निशान ही तो हैं मेरी कवितायें


 बडमावस

कामना के धागे कोरे थे
और कच्चे भी
पियरा उठे चुटकी भर हल्दी से
यूं ही नहीं लपेटे गए थे
गिन कर पूरे एक सौ आठ बार

मन्नतों की मौली
कितनी रंगो भरी थी
लटकते हुए बूढ़े बरगद की दाढ़ी में
वर्षों तक
धूप छांव जाते
उसने सौंप दिए थे मौसमों को रंग सारे

मोहल्ले के मुहाने पर वह जो बूढ़ा बरगद है न
अमावस की रात
मन्नतों का मेला लगता है वहां
मौली और कच्चे सूत को तिहरा कर
बांधी गयी गांठों से
बाहर निकल आती हैं मनौतियाँ
बंधे बंधे
दम घुटता है उनका भी

बरगद अचरज भरी आंखों से देखता है
वे एक ही चेहरे-मोहरे, रंग आकार की हैं
अब भला उसे कैसे पता चलेगा
कि कौन सी मन्नत किसकी है....

मन्नतें झांकती हुई एक दूसरे की आंखों में
करती हैं सामुहिक विलाप
अपनी खो गई पहचान के लिए

मगर स्त्रियां हैं
कि अगले वर्ष जेठ की अमावस को
फ़िर बांध आती हैं
अनगिनित अधूरी कामनाओं के धागे.


 तिनके

तिनको की पाठशाला में नहीं सिखाई जाती
भाषा प्रतिरोध की
वे सीखते हैं धारा के साथ बह जाने की कला
उनके बुजुर्ग जानते हैं तिनके
कभी नहीं बनते सहारा किसी
डूबते हुए का

फिर भी वे बरगलाते हैं गढ़ कर
नवजात तिनको को
अविश्वसनीय मुहावरें और कहावते

घाट घाट का पानी पिए ये
लम्बी दाढ़ियों वाले बुजुर्ग तिनके
रुक कर ठिठक कर
बह कर ,अकड़ कर
देखने जानने और
जान बूझ कर अनजान बनने की
तमाम कवायदों के बाद
आज तक नहीं समझा पाये

एक दूसरे का हाथ थाम किसी
सैलाब के सामने बाँध बन कर क्यूँ नहीं देखा
बवंडरों के भंवरो में उलझे
बवंडरों की आँखों में आँख डाल
किरकिरी सा क्यूँ नहीं कसके ....

 मदारी

तुम्हें भ्रम  है की तुम मदारी हो
इसलिए नहीं की तुम्हारे आसपास सब बंदर हैं
बल्कि तुम्हे गढ़नी आती है
खूबसूरत जंजीरे

सच ये है
की मदारी अकेला कुछ नहीं होता
सारा खेल चलता है जम्हूरे के दम पर
जो मिलाता है मदारी की हाँ में हाँ
बिना मशविरा किये बन्दर से

दरअसल दोनों को पता होता है
बंदर के गले में पड़ी जंजीर के बारे में

उड़ो मत
पढो डार्विन को लौट कर विज्ञान की कक्षा में
विकास क्रम में एक दिन
सारे बंदर हो जायेंगे जम्हूरे
और जम्हूरे मदारी
तुम शायद ढूढ़ भी लो कोई नया शिखर
लेकिन !
अगर कुछ यूँ हुआ
की विकास क्रम में
निर्जीव होने लगे सजीव
जिन्दा हो गयीं जंजीरे
तो उन्हें हाथ बदलते देर लगेगी क्या ?


श्वेता तिवारी की ताज़ा कविताएँ

श्वेता तिवारी की कविताएँ आप असुविधा पर पहले भी पढ़ चुके हैं. बहुत कम लिखने और उससे भी कम छपने वाली श्वेता अक्सर दिल्ली की साहित्यिक जमघटों से भी अनुपस्थित रहती हैं. उनकी कविताएँ अपने बेहद कसे शिल्प और मितव्ययी भाषा से अलग से पहचानी जा सकती हैं. 




 बेरोज़गार भी नहीं


मेरे पास नहीं कोई नौकरी
और बेरोज़गार भी नहीं हूँ


उठती हूँ सुबह
बुहारती हूँ घर आँगन
पोछती हूँ कमरे का हर कोना-अतरा
परिजनों के ताने साफ़ नहीं कर पाती


अपेक्षाएँ बनी रहती हैं हस्बेमामूल


बीतते समय को बचाती
छिपाती अपनी घबराहट
रसोई में जाती हूँ


हाथ पाँव और साँसों को
नसीब नहीं राहत


जब तक ऑफिस जाते पति और स्कूल जाते बच्चों
के लंच नहीं हो जाते तैयार
कितना अखरता है
जिस दिन नहीं दे पाती हूँ
समय पर समय और चीज़ें
और स्कूल बैग में नहीं रख पाती ज़रूरी किताब
तो शाम तक नहीं पढ़ पाती अपना मन


पति झल्लाहट का पुलिंदा होता
और बच्चे फिकरों के गुच्छे


बर्तन माँझती धोती कपडे प्रैस करती नहलाती धुलाती पोछती बच्चों को सुलाती----
महँगाई के इन दिनों में इन कामों के एवज
मेड माँगती है 4 से 5 हज़ार


तय नहीं हमारे मेहनत का कोई मोल
बस हमारी सेवा के बदले
मिल जाते हैं कभी कभी
बिंदी चूड़ी सिंदूर पायल या साड़ी


भोर होते ही मुझे फिर करनी है
ड्यूटी विदाउट सेलरी...


चुनाव


अनन्त उदासी से भरा मेरा मन
फिर भी
अपनी साँसों की लय
को टूटने नहीं दिया


अजीब अपनों के बीच
मेरा सामना था
बचपन से
जहाँ मानुस भेष में थे जानवर तमाम
जो लांछित और अपमानित ही करते रहे


जीने की जुगत करते हुए किया उनका प्रतिरोध
इस आशा में कि एक न एक दिन
मिलेगा मुझे स्नेह और सम्वेदना


मुझे प्रेम करता हुआ कोई मुझे सोचता हुआ महसूस करता हुआ अपने भीतर अतल में
आएगा एक न एक दिन---
इसी उम्मीद ने मुझे बल दिया और
काले दिनों में हुआ कुछ उजाला


इच्छाएँ जीने की चुनौती और
आशा ही सम्बल है।


पुराना कैलेंडर


मौसम बदला और दीवारों पर
महसूस हुई रंग रोगन की ज़रूरत
जब पलस्तर
छिपकिलियों के रेंगने तक से
झड़ने लगे
गिरने लगीं
कीलें जंग खाई हुई उधड़ उधड़ कर दीवारों
और दिल पर से खुद बखुद


परिवार चौंका और चिंतित हुआ
कुछ जुटाए साधन और मरम्मत शुरू हुई माहौल की
धीरे धीरे दुरुस्त हुआ अस्त व्यस्त
आहिस्ता आहिस्ता दीवारें जगमग हुईं और दिल रौशन


लेकिन
एक टीस की तरह
फड़फड़ाता
गिरा ज़मीन पर पुराना कैलेंडर
और उसकी तारीखें
और उसके दिन
और उन दिनों की स्मृतियाँ गिरीं


नए ने विदा कीं
आपबीती ज़िंदगी की कई
धूप छाँही घड़ियाँ...




इला जोशी की कविताएँ

इन दिनों बम्बई में रह रही इला जोशीएकदम युवा पीढ़ी के उन गिने-चुने कवियों में से हैं जिनकी सामाजिक राजनैतिक सक्रियता साहित्यिक सक्रियता से भी ज़्यादा है. वह "मोर्चे पर कवि"के आयोजकों में से हैं जो पिछले एक साल से भी अधिक समय से हर महीने बम्बई की लोकल ट्रेन से लेकर सड़क तक पर जनपक्षधर कविता को लेकर जाने का शानदार काम कर रहा है. 

इला की कविताएँ एक प्रश्नाकुल युवा की कविताएँ हैं. यहाँ लगातार सवाल हैं, सवालों से जूझने का माद्दा है, एक पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री होने की विडम्बनाएँ हैं और उम्मीद है. अक्सर छोटी कविताएँ लिखने वाली इला के पास एक बनती हुई भाषा है और अपने कथ्य को सहजता से कह पाने के लिए आवश्यक शिल्प. असुविधा में उनका स्वागत  



देशभक्ति का साहित्य

देशभक्ति के काल में
रचा गया
सबसे अश्लील साहित्य
और जुटाए गए
कामोत्तेजित आंकड़े

इसकी विषय सूची
पटी पड़ी थी
अफ़वाहों के
हस्तमैथुन उपजित वीर्य से
और अनुलग्नक में थीं
तंत्र और प्रशासन के
सम्भोग की विवेचना
 हमाममेंशर्म

नंगों के हमाम में दाख़िल हुई
पूरे कपड़े पहनी एक औरत
और अपने नंगेपन से शर्मा
उन्होंने उस औरत से मांगी
एक एक कतरन
और ढक दिया अपना पौरुष

वो अब भी हमाम में
नंगे ही खड़े थे
और अपने कपड़ों से बची
आख़िरी कतरन से
उस औरत ने ढक लीं
अपनी आंखें
उसने कभी सुना था कहीं
कि आँख की शर्म तो होनी चाहिए

संशयीप्रेम

बिस्तर के छोर से
मध्य का सफ़र
देह ने किया

साथ होने का
सफ़र किया
प्रेम ने

एक
समानांतर सफ़र में
प्रेम से देह जुड़ी
या देह से प्रेम

जीवनचक्र

जीवन के पड़ाव
बदल देते हैं मतलब
बुनियादी बातों के भी
जबकि हम हर पड़ाव पर
जी रहे होते हैं
कई समानांतर जीवन

ये नहीं होता है
किसी चक्र के भाँती
कि ज़रूरी हो लौटना
उसी जगह पर
जहाँ से की थी शुरुआत
और जीवन मृत्यु का भी
आपस में कोई सम्बन्ध नहीं

इतिहासकेतहखानेमेंऔरतें

उन्हें औरतें पसंद हैं
घरों में, दफ़्तर में
सड़क, रेल और बसों में
जहां आसान होता है
उन्हें टटोलना और
उनके अंदर के भाव
दिखने लगते हैं
उन औरतों के चेहरों पर

उन्हें नापसंद हैं
इन औरतों से अलग औरतें
जो कभी इन्हें टटोल लेती हैं
महसूस करती हैं इन्हें वैसे ही
जैसे ये करते हैं घर, दफ़्तर,
सड़क, रेल और बसों में
उस पल इनका पौरुष
झेल नहीं पाता
उन औरतों की कामुकता

इन्हें अपनी जैसी औरतें
बिल्कुल पसंद नहीं
जो जानती हैं
साम, दाम, दंड की भाषा
और देती हैं पटखनी
इन्हें इनके ही दांव में
तब खंगालते हैं ये
उसका इतिहास, रसूख़
धर्म और जाति

ये भूल जाते हैं सिर्फ़ इतना
कि औरत का नहीं होता
कोई धर्म, जाति और परिवार
और जब वो तोड़ने लगती है
अपने दायरे और इनकी नैतिकता

असली राजनीति तब शुरू होती है

स्वयं प्रकाश का सफ़र - हिमांशु पण्ड्या

यह लेख वैसे तो  "स्वयं प्रकाश की चुनिन्दा कहानियाँ"न की भूमिका के रूप मे लिखा गया है, लेकिन स्वतंत्र रूप से इसे पढ़ते हुए भी आप स्वयं प्रकाश की कहानियों के विस्तृत परिसर के देखे-अदेखे झरोखों के तमाम पते पा सकते हैं। बहुत कम लिखने वाले आलोचक हिमांशु जब डूब कर लिखते हैं तो वह प्रचलित अर्थों मे समीक्षा नहीं होती बल्कि रचना को आर पार देखने की नज़र देने वाली आलोचना होती है। उनसे यह आग्रह कि इस बहुत कम को कम अज़ कम "कम"मे तब्दील करें। 


प्यारे भाई रामसहाय[1] ,
जीना हराम कर रखा है आपने | स्वयं प्रकाश की ये ग्यारह कहानियां चुनीं आपने, अपने समय की चर्चित-चमकदार-शीर्ष कहानियां, और अब चाहते हैं, मैं इस विकास यात्रा में एक सूत्र तलाशूँ | क्यों भाई ? बिद्यार्थियों हेतु ? आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से यथार्थवाद तक प्रेमचन्द का उत्तरोत्तर विकास ! आदर्शोन्मुख प्रेमचंद के उत्तर-ओ-उत्तर यथार्थवादी प्रेमचंद | १८४४ की पांडुलिपियों के मार्क्स या पूंजी के मार्क्स | लुकाच के मार्क्स या लेनिन के मार्क्स | फ़टाफ़ट अब्बी के अब्बी बताइये – युवा मार्क्स या प्रौढ़ मार्क्स? विकास या ह्रास ?
इस प्रकार की प्रविधि में दिक्कत ये है रामसहाय जी कि हम युवा मार्क्स और प्रौढ़ मार्क्स को एक दूसरे के खिलाफ खडा कर देते हैं | या प्रेमचंद को | या किसी भी को | या तो उनका विकास हुआ या ह्रास हुआ | इधर या उधर | आर या पार | इंसान है तो बदलेगा – तो या तो लुढ़केगा या चढेगा | लेकिन इंसान जिस समय में रहता है वह बदल रहा है या नहीं ? क्या यह समय लुढकता और चढता नहीं है ? चढते समय में लुढकता इंसान या लुढकते समय में चढता इंसान – आइन्स्टाइन कुछ बत्ती जलाते हैं कि नहीं दिमाग में ?
कल आपने इतना चमकदार वाक्य बोला, “ ‘नीलकांत का सफर’ के नीलकांत सफर में होते हुए भी एक मुकाम पर पहुँच गए और ‘प्रतीक्षा’ के नायक-नायिका एक मुकाम ( नाटक) हासिल करके भी प्रतीक्षा में हैं.” मैं तो अब तक अश् अश् कर रहा हूँ | फिर मैं सोच में पड गया | क्या आप ये कहना चाहते हैं कि ‘कहाँ जाओगे बाबा?’ और ‘कौन बनेगा उत्तराधिकारी?’ का पाठक अगर ‘सूरज कब निकलेगा?’ और ‘नीलकांत का सफर’ पढेगा तो हैरान रह जाएगा कि क्या ये एक ही कथाकार ने लिखीं हैं/थी ? कि दृढ क्रांतिकारी उद्घोष वाला कथाकार आज अपने पाठकों को दोराहे पर लाकर क्यों छोड़ रहा है ? कि आप या तो इस स्वयं प्रकाश के प्रशंसक हो सकते हैं या उस स्वयं प्रकाश के. कि आप किसी भी पाठक से स्वयं प्रकाश की प्रिय कहानी का नाम पूछकर भविष्यवाणी कर सकते हैं कि उसे उनकी फलाँ फलाँ और फलाँ कहानी पसंद आयेगी और ढिकां ढिकां और ढिकां नहीं आयेगी.
रामसहाय जी, मैं इस रैखिक सूत्रीकरण से बाहर निकलकर आपसे बात करूँगा | कोशिश करूँगा कि इस परिवर्तन और परिवर्तन के साथ साथ नैरंतर्य पर निगाह डाल सकूं | शुरुआत हाल की कहानियों से करेंगे |
‘गौरी का गुस्सा’ – स्वयं प्रकाश की सबसे कम समझी गयी कहानी है | अतिलोकप्रियता के बावजूद | उपभोक्तावाद, अंतहीन दौड, संतोष परम धरम- रहने दीजिए ये सारा वाग्जाल | स्वयं प्रकाश पंचतंत्र के विष्णु शर्मा नहीं हैं | इस कहानी का इससे बड़ा सरलीकरण नहीं हो सकता कि यह संतोष का महत्त्व बताने के लिए लिखी गयी है | ‘गौरी का गुस्सा’ में पार्वती यदि – यदि रतनलाल अशांत की अंतिम मांग भी मान लेती, उसे एक अच्छी दुनिया भी दे देती, तो क्या होता ? आपका जवाब सही है कि रतनलाल अशांत तब भी अशांत ही बना रहता क्योंकि उसे जो चाहिए था वह संतोष था, धनदौलत नहीं, पर यह जवाब अधूरा है | यदि रतनलाल अशांत को उसकी मनचाही दुनिया मिल गयी होती तो उसके समानांतर एक और दुनिया होती – रोटी, झींकती, कलपती, बदबू भरी, बजबजाती, दाने दाने को तरसती, हलकान होती दुनिया | जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से, पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से |
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में वैयक्तिक प्रगति एक छलावा है | वह सदा ही किसी ‘अन्य’ को उपनिवेशित कर उसकी पीठ पर सवार होकर ही पायी जा सकती है | इस प्रक्रिया में सदा ही आपके लिए दो अन्य होंगे – एक आपसे ऊपर वाला, जो आपकी अब तक की प्रगति को फिजूल साबित करता रहेगा और एक अन्य नीचे वाला, जो आपको डराता, बेचैन करता रहेगा, आपको रतनलाल अशांत बनाता रहेगा | आप सदा ही रतनलाल अशांत की तरह छलांग लगाकर उस ऊपरवाले अन्य में शामिल होना चाहते रहेंगे ताकि आप इस निचले अन्य से दूर जा सकें | पर वह कभी नहीं होगा क्योंकि इस निचले अन्य के कारण ही आप, आप हैं | आपकी सारी दौलत , ऐशो-आराम इस निचले अन्य का हक मारकर ही हासिल किया गया है |
सबको वैयक्तिक प्रगति का पूर्ण अवसर देने का पूंजीवादी दावा धोखे की टाटी है | भैया रामसहाय, जब पार्वती मैया नहीं कर पायी तो पूंजीवाद क्या कल्लेगा ! यकीनन एक और दुनिया संभव है लेकिन वह सिर्फ और सिर्फ सामूहिक पहलकदमी से ही संभव है | ‘हम बदलेंगे, जग बदलेगा’ बकवास है | आपके अच्छे होने से कुच्छ नहीं होगा | आपको अपने चारों ओर का कूड़ा कचरा साफ़ करने के लिए कमर कसनी ही होगी और जिनके दिमागों में ये कबाड़ भरा है उनकी नज़रों में बुरा बनना ही पडेगा |
इससे बड़ी दुर्घटना कुछ नहीं हो सकती कि प्रबंधन की कक्षाओं में स्ट्रेस मैनेजमेंट पढ़ाने वाले आधुनिक मोरारी बापू ‘गौरी का गुस्सा’ को अपना रीडिंग मैटिरियल बना लें | व्यक्तिवादी उत्कर्ष के सुनहरे सपने दिखाने वाले उदारवाद की व्यर्थता को जिस कहानी ने दिखाया हो , वह उसी की खिदमत में लगा दी जाए | ‘गौरी का गुस्सा’ सीधे सीधे पूंजीवाद की हार की कहानी है और उसका सन्देश बहुत साफ़ है – मुक्ति के रास्ते अकेले नहीं मिलते |
नहीं, ‘कहाँ जाओगे बाबा?’ का भी गलत पाठ कर रहे हैं आप | ‘कहाँ जाओगे बाबा?’ को परम्परा के पक्ष में झुकी हुई तो आप तभी मान सकते हैं जब आप मास्टर रामरतन वर्मा को नायक मान लें | दरअसल , आपकी गलती नहीं है | आप तो स्वयं प्रकाश जी के पुराने अभ्यस्त पाठक रहे हैं और स्वयं प्रकाश जी कहानी में आपसे लगातार बतियाते आये हैं | ढेर सारे हस्तक्षेप के साथ वे ऐसे किसी शको शुबहे की कोई गुंजाइश ही नहीं रहने देते थे कि वे कहाँ खड़े हैं | ध्यान दीजिये रामसहाय जी, खुलकर अपने विचारों का प्रकटीकरण – यह स्वयं प्रकाश जी के यहाँ लगातार घटता गया है | न ‘कहाँ जाओगे बाबा?’ में, न ‘गौरी का गुस्सा’ में और तो और खुद के एक पात्र के रूप में होने और स्वयं के विचार प्रकट कर सकने की अपार संभावनाएं होने के बावजूद – न ‘प्रतीक्षा’ में | रामरतनीय उवाच और दृष्टिकोण के जरिये आये तमाम परम्परावादी मूल्यों और आग्रहों के बावजूद यह कहानी रामरतन जी के पक्ष में नहीं खड़ी है, इस बात को आप तभी समझ सकते हैं जब आप ‘आनंदी’ कहानी पढ़ लें | क्या आपने नहीं पढी है ? तभी | ओहो ! तो आप आनंदी को पात्र समझ रहे हैं ! अरे नहीं साहब, गुलाम अब्बास की अमर कहानी ‘आनंदी’ – जिसकी प्रेरणा से बाद में श्याम बेनेगल ने ‘मंडी’ फिल्म भी बनायी – में आनंदी तो उस कॉलोनी का नाम है जो शहर के ऐन बीचों बीच खड़ी है और सभ्य सुसंस्कृत शहर को अपनी छवि पर धब्बा लग रही है | लेकिन यह तो आज की स्थिति है, कहानी की शुरुआत तो वहां हुई थी जहां इस बदनाम मोहल्ले को सर्वसम्मति से शहर के सभ्य नागरिकों द्वारा शहर के बाहर ठेला गया था और धीरे धीरे बसता बसता फिर शहर उसके चारों ओर बस गया था | जहां जहां शहर वहां वहां आनंदी बल्कि ज्यादा सही यह क्रम – जहां जहां आनंदी वहां वहां शहर | अब इस कहानी को फिर पढ़िए | “तुम कैसे कह सकते हो कि आनंदी वहां भी नहीं पहुँच जायेगी?” कहने वाले रामरतन जी क्या आनंदी यानी ‘मायामहाठगिनी’ को दोष दे रहे हैं ? शायद नहीं, क्योंकि उन्होंने गुलाम अब्बास की ये कहानी पढी है और वे ये जानते हैं कि आनंदी हमारा प्रतिबिम्ब मात्र है, उसे दोष देना आईने में दिख रही अपनी सूरत से चिढने जैसा है |
‘हर आज बीते कल से बेहतर है’ लिखने वाले स्वयं प्रकाश पुरातनपंथी हो ही नहीं सकते | बेशक, उनकी सहानुभूति रामरतन जी के साथ है लेकिन एक त्रासदी के रूप में चित्रित ये कथा रामरतन जी के पुरातन मूल्यों के शनैः शनैः अप्रासंगिक होते जाने की ही कथा है | एक ड्राइवर के अपनी कॉलोनी में मकान बना लेने पर आश्चर्य व्यक्त करते रामरतन जी को क्या इत्ती सी बात समझ नहीं आ गयी होगी कि उनका एक जमाने का एकमात्र और भव्य मकान आज इस क्षेत्र का सबसे छोटा और पुराना मकान था | एक सुखद भविष्य की आकांक्षा में रामरतन जी लगातार अपने वर्तमान को स्थगित करते रहे और जब उस भविष्य की दहलीज पर पहुंचे तो पाया कि वह कमबख्त तो अपने नाम के अनुरूप फिर आगे चला गया था | अपने बेटे के साथ असंवाद की खाइयां अपने हाथों खोदने वाले रामरतन जी अंत में खुद संवादहीनता के टापू पर अकेले रह गए | मास्टर रामरतन वर्मा की सादगी, सादगी नहीं है, वह शुचिता है | प्रत्येक शुचिता अनिवार्यतः अवसाद की ओर जाती है क्योंकि वह अपने परिवेश के प्रति एक अनिवार्य हिकारत से भरी होती है जो मानती है कि किसी इच्छित कालखंड में इच्छित परिवेश उसका इंतज़ार कर रहा होगा | ऐसा थोड़ेई होता है बाबू रामसहाय, अपने चारों ओर के झाड़- खंखाड को पुट्ठे भिडाकर खुद ही साफ़ करना होता है | इस घर्षण का नाम ही तो जीवन है, बाकी तो सब एकता कपूर के सीरियल हैं, और क्या |
अरे वाह ! आपने तो मेरे मुंह की बात छीन ली | ‘संधान’ कहानी भी सादगी के महिमामंडन की कथा नहीं है | यह इंसान की कल्पनाशीलता, उसकी सृजनात्मकता की पहचान की कहानी है | बस, कभी कभी होता यह है कि हम खुद अपने भीतर के इस सर्जक का संधान नहीं कर पाते, उसके लिए हमें किसी कैटलिस्ट यानी उत्प्रेरक की जरूरत होती है | विश्वमोहन जी के परिवार के लिए ये भूमिका उनके दोस्त के परिवार ने निभाई | अब इसका अर्थ ये भी नहीं है कि स्वयं प्रकाश ऐसा कह रहे हों कि महानगर का जीवन यंत्रणा है और छोटे शहरों में तो – ‘थोड़े में निर्वाह यहाँ है, ऐसी सुविधा और कहाँ है’ | बात सिर्फ इतनी है कि ‘जो है उसमें खुश रहो’ की जवाबी कार्रवाई ‘कर लो दुनिया मुठ्ठी में’ नहीं हो सकती | पहला दर्शन सामंती यथास्थितिवाद का पोषक था तो उसके जवाब में आया दूसरा उदारीकृत अर्थव्यवस्था की मायावी चकाचौंध | रंक से राजा बनने की परीकथाएँ पहले भी थीं लेकिन वे आज जितनी अश्लील पहले कभी नहीं थीं | एक को (सार्वजनिक प्रदर्शन के तहत ) करोडपति बनाकर करोड़ को सपने बेचना आज के दौर में हुआ है | स्वयं प्रकाश ने उस एक पर उपन्यास लिखा और उन करोड़ों पर कहानियां लिखते हैं | लिखते आये हैं, लिखते रहेंगे |
आप को ऐसा लग रहा होगा रामसहाय जी कि जैसे मैं लगातार आपकी बातों को सिरे से काटने का तय करके बैठा हूँ, लेकिन ऐसा नहीं है | सच तो यह है कि मैं आपका आभारी हूँ कि आपने सत्तर के दशक के स्वयं प्रकाश और इक्कीसवीं सदी के इस स्वयं प्रकाश के बीच के फर्क की ओर ध्यान दिलाया | बीसवीं सदी की आख़िरी दहाई से उगे भूमंडलीकरण ने सब उलटपुलटकर रख दिया | परम्परागत टेड यूनियंस की धार भोथरी हो गयी और चुनचुनकर जुझारू-लड़ाकू श्रमिक रास्ते पर ला दिये गए | दुनिया के मजदूर तो क्या एक होते, उसके पहले दुनिया के पूंजीपति एक हो गए और उनकी संयुक्त ताकत के सामने हमारी सरकारें रिरियाने लगीं | अब ऐसे में उत्पादन के साधनों पर काहे का राज्य का नियंत्रण जब राज्य खुद थैलीशाहों के नाड़े में लटका है | अब तो प्राकृतिक संसाधनों की लूट और अंधाधुंध दोहन का दौर है | अपने जंगलों और जमीनों पर हक के लिए खड़े हो रहे आदिवासी, भारत के सर्वहारा हैं | इस बदले हुए समय के यथार्थ को व्यक्त करने के लिए रचनाकार की कलम भी नए तरीके अपनायेगी ही | स्वयं प्रकाश भी नए सवालों से रूबरू होने की चुनौती स्वीकार कर नए तेवर और नयी शैली के साथ आगे आये | कानदांव, गौरी का गुस्सा और जंगल का दाह जैसी कहानियां आयीं |
अगर उदारीकरण हमारे लिए एक ध्रुवीय विश्व, प्रगति का एकायामी सर्वग्रासी रूप और एक सपने की असम्भाव्यता लेकर आया तो रचनाकार उसके प्रतिकार में गप्प, लोककथा, फैंटेसी और स्मृतियों की ओर गया | ‘प्रतीक्षा’ कहानी जोशीले नौजवानों की एक टोली द्वारा सैमुअल ब्रैकेट के अब्सर्ड के क्रांतिकारी भाष्य की कथा है | नाटक का क्रांतिकारी तेवर और नाटक के बाहर परिस्थितियों के मारे नौजवानों का ये हताशा भरा अहसास कि वे या तो दीवार पर सर मार सकते हैं या ‘उदयवीर के पिताजी के स्वर्गीय होने’ की प्रतीक्षा कर सकते हैं | यह ब्रैकेट के साथ ब्रेख्त की जुगलबंदी है और फिर इसी जुगलबंदी के तहत कहानी समाप्ति से ठीक पहले सैंतीस साल की छलांग लगाकर लौटती है | नायक और उसका दोस्त बतिया रहे हैं | दुनिया वैसे बिलकुल नहीं बदली जैसा चाहा था पर इस बात का संतोष है कि अपनी निष्ठाओं और प्रतिबद्धताओं के लिए जिए और लडे भी | यह मानों दो दोस्तों की बातचीत नहीं है, यह प्रगतिगामी ताकतों की ‘विफलता’ का ऐतिहासिक मूल्यांकन है | ‘विफलता’ – क्योंकि प्रतिपक्ष सिर्फ पूर्णकाम हो चुके लोगों को ही प्रणम्य मानता है | निरर्थकता/सार्थकता के अर्थ ग्रहण से पहले ये देखना जरूरी होता है कि आखिर आप कहाँ खड़े होकर इसका आकलन कर रहे हैं | वरना सैमुअल ब्रैकेट को देखने की कोशिश तो मत ही कीजिये, भेंगापन होने का खतरा है | आपका कहना बिलकुल ठीक है रामसहाय जी, अगर स्वयं प्रकाश जी ने ये कहानी तब लिखी होती, जिस कालखंड का इसमें चित्रण है तो ये कहानी ऐसे बिलकुल नहीं ख़त्म होती | लेकिन – तब शायद इस अनुभव को कहानी का विषय बनाने का विचार भी स्वयं प्रकाश जी के मन में नहीं आता | किसी रूमानी आशावाद पर ख़त्म होने की जगह यह कहानी ‘निरर्थक ही था’ के पैरोकारों को सार्थकता के आयाम और उससे भी बढ़कर सार्थकता/निरर्थकता में बसे अर्थ की अर्थछवियाँ दिखाती है | घुप्प दिशाहीन अँधेरे अंत पर ख़तम कहानी में क्या आपको सिर्फ मजलूमों का पराभव और उदारवाद का अट्टहास दिखाई देता है ? मुझे तो ब्रैकेट का एक घुटना मोड सर झुकाए बैठे रहना याद आता है और ये समझ आता है कि अगर आधी सदी पहली की ऐब्सर्दिती आज भी असंगत- अप्रासंगिक नहीं है बल्कि नए अर्थ पा रही है तो सामने लिखी इबारत बहुत साफ़ है – आज भी लड़ने की जरूरत बरकरार है बल्कि पहले से कहीं ज्यादा |
इसी इक्कीसवीं सदी ने हमारी कुछ और परम्परागत धारणाओं को बदल दिया | परम्परागत मार्क्सवाद यही मानता आया था कि निम्नवर्ग के लोगों में वर्गचेतना का उदय न हो इसलिए सत्ताधारी वर्ग द्वारा साम्प्रदायिकता , जातिवाद जैसी मिथ्या चेतनाएं फैलाकर उनकी वर्गीय एकता को लामबंद होने से रोका जाता है | यह कुछ बने बनाए खांचों का निर्माण करता था, अभिजन वर्ग को नाभिनालबद्ध दिखाया जाता था, साम्प्रदायिक तनाव के पीछे वर्गीय हितों को चिह्नित किया जाता था और अक्सर कोई बाहरी शत्रु होता था जो हमारे गंगा-जमुनी ताने बाने को तहसनहस करता था | ( इसका सबसे प्रतिनिधि उदाहरण है असगर वजाहत की यों बहुत उम्दा कहानी – ‘सारी तालीमात’ ) अयोध्या चेतावनी लेकर आया और फिर गुजरात ने सब छिन्न भिन्न कर दिया | चुन चुन कर आर्थिक रूप से सक्षम- संपन्न अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर एक समुदाय को घुटनों पर आने को मजबूर किया गया | बाहर वाले नहीं, अपने ही पडौसी – हमेशा के सुखदुख के साथी- हमनिवाला , जान के दुश्मन बन गए | प्रगतिगामी शक्तियों को धीरे धीरे अहसास हुआ कि वर्गीय सवालों पर गोलबंदी करने मात्र से सांस्कृतिक सवाल हल नहीं होंगे, कि उन्होंने हमारी संस्कृति, हमारे राष्ट्रवाद में बसी गैरबराबरी, वर्चस्ववाद को आमतौर पर प्रश्नचिह्नित नहीं किया, प्रश्नचिह्नित करने लायक गौर ही नहीं किया, कि धर्मनिरपेक्ष जनशिक्षा और मूल्यों के विकास का महती काम उन्होंने यों ही छोड़ दिया था ( जिसे शिशु मंदिरों और विद्या निकेतनों ने हथिया लिया ) |
इसलिए रामसहाय जी, मैं ‘पार्टीशन’ को अपने समय से आगे की कहानी मानता हूँ और आप लाख कहें कि स्वयं प्रकाश उसी वैचारिक जमीन पर खड़े हैं जो सांस्कृतिक मुद्दों पर पृथक लड़ाई को ‘मूल सवाल’ से भटकाव मानती है, मैं तो यही कहूंगा कि पार्टीशन और इस जैसी अन्य कई कहानियों में रचनाकार स्वयं प्रकाश, चिन्तक स्वयं प्रकाश की सारी सीमाओं को लांघ गए हैं | यह यथार्थ की विजय है | पार्टीशन हिन्दी की पहली कहानी थी जिसने वक्त की आहट सुनकर खतरे की घंटी बजायी थी कि जिस ‘मौन बहुमत’ को हम सब अपने साथ मानते हैं, उसमें साम्प्रदायिकता के विषाणु किस तरह घुस गए हैं |
ठीक यही बात हम लैंगिक प्रश्नों पर स्वयं प्रकाश की कहानियों में आये मूलभूत अंतर में नोटिस कर सकते हैं | ‘अशोक और रेनू की असली कहानी’ लिखने वाले स्वयं प्रकाश ही ‘अगले जनम’ और ‘मंजू फालतू’ तक पहुंचे | ‘अशोक और रेनू की असली कहानी’ अशोक के परिप्रेक्ष्य से लिखी गयी थी | लेखक ने अंत में पूछा था, “अशोक क्या करेगा ? वह रेनू के माँ और दासी बन जाने पर छुट्टी पा लेगा ? या कुछ ऐसा करेगा, जिससे रेनू एक सार्थक जीवन की दिशा में प्रवृत्त हो सके ? तो क्या ऐसा....?”
और उसके बाद कहा था, “ यहीं से अशोक और रेनू की असली कहानी शुरू होती है |”
पर क्या वह कहानी शुरू हुई ? क्या अशोक एक सार्थक दिशा में रेनू के बढ़ते कदमों का हमकदम बना ? तो क्या ऐसा...तो क्या रेनू...ही मंजू फालतू नहीं बन गयी ?
ओके ! ओके ! आप बिलकुल सही हैं, मैं आपकी दोनों बातें मान रहा हूँ | एक, कि स्वयं प्रकाश ने अशोक को भावी पथप्रदर्शक के रूप में नहीं भावी हमकदम के रूप में ही दिखाया था, असली यात्रा-लड़ाई-जद्दोजहद रेनू की ही थी | दो , आपका यह कहना भी बिलकुल सही है कि स्वयं प्रकाश ने उस संकीर्ण अस्मितावाद का हमेशा विरोध किया है ( और सही ही किया है ) जो पहचान के सवालों को स्वानुभूति तक सीमित कर देना चाहता है | उन्होंने अलोकप्रिय होने , गलत समझे जाने का खतरा उठाकर भी इस प्रवृत्ति का हमेशा खुलकर विरोध किया | यह सही है कि ‘अशोक और रेनू की असली कहानी’ के साथ मैं और आप इसलिए तादात्म्य कर पाते थे क्योंकि वह हमें अपनी सुविधाजनक आपराधिक चुप्पी के लिए कचोटती और उसे बदलने के लिए ललकारती थी लेकिन इसका ये अर्थ कतई नहीं था कि स्वयं प्रकाश या आप या मैं रेनू की ओर से नहीं सोच सकते थे, उसके मन की थाह नहीं पा सकते थे | स्वयं प्रकाश ने हमेशा इस संकीर्ण अस्मितावाद का विरोध किया | लेखों में भी और कहानियों में भी | ‘अगले जनम’ और ‘नैनसी का धूड़ा’ जैसी कहानियां रचनात्मकता के सार्वभौम विस्तार का अमिट उदाहरण हैं |
तो फिर ? मैं जिस मूलभूत अंतर की ओर ध्यान दिला रहा हूँ वह मात्र पात्र या उवाच का नहीं है | ( ट्रीटमैंट बॉस ट्रीटमैंट ! ) बात सिर्फ इतनी सी है कि किसी शक्ति संरचना युक्त सम्बन्ध में दमित शोषित का आह्वान किया जाता है कि वो इस गैरबराबरी- शोषण को ख़तम करने के लिए एकजूट हो न कि प्रभुत्त्वशाली की अंतरात्मा को जगाया जाता है कि वह ‘कृपया’ इसे बदले | नहीं, नहीं, बडबडाना बंद कीजिये रामसहाय जी, अगर आपके और मेरे विचार यहाँ सिरे से अलग हैं तो रहें | और ये ‘एक गाडी के दो पहिये’ टाइप बातें अपने पास रखिये | इसी ‘दो पहिया सिद्धांत’ ने बरसों हमारे महान भारतीय परिवारों की गन्दगी को अदृश्य बनाने के लिए टाट के पैबंद का काम किया है | ओहो ! कौन बता रहा है पुरुष को स्त्री का विरोधी ? कम से कम स्वयं प्रकाश तो नहीं | चलिए, ‘अगले जनम’ के रवि को एकबारगी खलनायक मान भी लें तो भी- क्या ‘मंजू फालतू’ का नितिन खलनायक है ? मुझे तो बिलकुल नहीं लगता | साथ- साथ काम करते, एक दूसरे की रुचियों को जानते समझते विवाह करने वाले नौजवान, सादा सुरुचिपूर्ण विवाह, सहकार का जीवन, सुख-दुःख में हमेशा का संग- साथ | इसके बावजूद रेनू फालतू बन ही गयी ना | ओह सॉरी, मंजू !
अब बात निकली है तो मैं यहाँ वो बात भी कह दूं जो मेरी नज़र में स्वयं प्रकाश का सबसे बड़ा सातत्य है, यानी कितना भी बदल जाएँ पर जो उनमें, उनकी कहानियों में कभी नहीं बदला, कभी नहीं बदलेगा | उनकी कहानियां मध्यवर्ग, चलिए कहें – निम्नमध्यवर्ग से अपार प्रेम की कहानियां हैं | हे भगवान् ! क्या मैंने कोई कुफ्र कर दिया ? चलिए , इस बात को सिरे से पकड़ें |
यह तो हम सभी जानते हैं कि स्वयं प्रकाश की कहानियां वाचिक परम्परा की कहानियां हैं | उनकी ढेरों कहानियों में पाठक की उपस्थिति को प्रत्यक्ष बनाते हुए लेखक द्वारा कभी पाठक से सवाल किया जाता है, कभी उससे हुंकारा भरवाया जाता है, कभी कभी तो उसे लताड़ा भी जाता है | मेरा कहना यह है कि यह इतना स्वाभाविक रूप से इसलिए हो पाता है क्योंकि वह कहानी अमूमन उसी पाठक की कहानी होती है | यानी वो पात्र जिसकी दशा और दिशा पर पाठक से राय माँगी जा रही होती है, वह पात्र पाठक स्वयं ही होता है | इसे पाठक जानता है और स्वयं प्रकाश – जाहिर है, ये जानते होते हैं कि पाठक जान रहा है ! क्योंकि उनकी कहानियों के नायक विशिष्ट नहीं होते हैं – न अच्छाई में, न बुराई में |  वे हमारे विशाल मध्यवर्ग के बेचेहरा लोग हैं | क्योंकि वे अपने पात्र की कमतरी पर उंगली रखने के बावजूद उससे घृणा नहीं करते, न उसके ‘कालिख भरे कारनामों’ को उजागर करने का महान कृत्य करके उसे धरती पर बोझ साबित करते हैं | क्योंकि काला स्याह पात्र रचना आसान है पर उसे पढ़कर पाठक ‘ऐसा भी होता है’ की हैरानगी भर व्यक्त करेगा,खुद को बेचैन करने वाले साधारणीकरण से नहीं गुजरेगा | क्योंकि वे अकेले ऐसे कथाकार हैं जो छाती ठोककर कहते हैं कि उन्होंने वास्तविक लोगों को अपनी कहानियों का पात्र बनाया और कभी कोई उनसे नाराज़ नहीं हुआ | क्योंकि कहानियों में वास्तविक पात्रों (अक्सर समकालीन लेखकों ) को लाकर उनसे उट्ठक बैठक करवाकर या उनपर मनचाहे ढंग से कीचड पोतकर अपनी कहानी में स्कोर सैटल करने वाले कुंठित कथाकारों की भीड़ में वे अकेले हैं | क्योंकि उदात्तता बड़ी रचना का प्राण है |
( बाई गाॅड ! आपसे सच सच कहता हूँ – ‘नीलकांत का सफ़र’ का नीलकांत मैं हूँ | क्या कहा ? ‘संधान’ के विश्वमोहन जी आप हैं ? खूब ! )
भलेई मैंने तय किया था कि मैं इस चिट्ठी/भूमिका में कोई उद्धरण नहीं दूंगा ( भला आपके मेरे बीच उद्धरणों का क्या काम ) पर मैं यहाँ स्वयं प्रकाश जी के एक वक्तव्य को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ , “रचना अपने पाठकों को सामाजिक क्रान्ति के लिए मानसिक रूप से तैयार करती है | उनके मनोविज्ञान को समझते हुए और बदलने के लिए उन्हें पूरा मौक़ा और समय देते हुए | हम रचना में सामंती- पूंजीवादी मूल्यों का मज़ाक उड़ायेंगे.... अपने और पाठक के संस्कारों में घुसे बैठे साम्प्रदायिकता, कामचोरी, फीटीशिज़्म, मेल शाॅविनिज्म, अवसरवादिता वगैरह के चोरों पर से पर्दा हटाकर उन्हें मारते- मारते रोशनी में लाकर खडा कर देंगे और हताशा की अमानवीय दलदल में धड तक धंसे हुए जन को यह जंचाते रहेंगे कि आखिर जीत उन्हीं की यानी अपनी ही है | हम उसे न आदर्शवाद की खाई में गिरने देंगे, न सुविधाजीविता की काई में रपटने देंगे | उसके घुटनों को, पिंडलियों को, रगपुट्ठों को ( और साथ ही अपने भी ) साबुत- सलामत रखना और मजबूत बनाना, टिकने न देना आज की रचना का सबसे बड़ा और शायद एकमात्र दायित्त्व है |”
यह वक्तव्य १९८२ का है | तब से अब में झेलम में कितना पानी बह गया | रूमानी आशावाद गए जमाने की बात हो गया, भैराराम अपने मन में बसे अन्धकार से तो मुक्त हो गया था पर उस पुराने साहूकार से कहीं ज्यादा क्रूर इस आधुनिक राज्य ने उसे मामा सोन के साथ जिस गहन अंधकारा में धकेल दिया उसका पारावार न था | उदारीकरण ने उस पुराने पूंजीपति शत्रु का चेहरा ही धुंधला कर दिया जिसके खिलाफ दुनिया के मजदूरों को एक होना था | सूरज के निकलने का इंतज़ार – और इंतज़ार – प्रतीक्षा और प्रतीक्षा | सब कुछ बदला पर इस परिवर्तनशील समय में अगर कुछ नहीं बदला तो वो थी मनुष्य की अदम्य जिजीविषा | इसी मनुष्य का जयगान स्वयं प्रकाश की कहानियों में है |
और अब अंत में मैं आपके यक्ष प्रश्न से रूबरू होता हूँ यानी कि लिटमस टेस्ट | स्वयं प्रकाश की सब कहानियों में मुझे जो सबसे–ज्यादा-पसंद है वो है - ... ‘नीलकांत – का – सफ़र’ | समय बदलता है, बदलता रहेगा | नवीन जटिल जीवन परिस्थितियों में पुरानी कहानियां सरल नीति कथाएँ लगाने लग जायेंगी | थर्ड क्लास का डिब्बा तो पहले ही ख़त्म हो चुका, शायद कल तकनीक के विकास के साथ साथ गैंती- फावड़े भी किताबों के चित्र भर रह जायेंगे | लेकिन जो नहीं बदलेगा वो है सर्वहारा की मुक्ति में हम सबकी मुक्ति | अगर मगर यदि किन्तु परन्तु में फंसे हम सब को इस सफ़र से गुजरना होगा और उसकी तलाश रहेगी जो हमारी इस यात्रा में खिड़कियाँ खोले | नहीं, यह किसी मसीहा की तलाश नहीं है, यह तो ‘उसकी’ और अपनी लड़ाई को एक समझने की पहचान है | आपको तो पता है रामसहाय जी, मैंने इस कहानी का चार बार सार्वजनिक पाठ प्रदर्शन किया है – जे.एन.यू., देशबंधु कॉलेज, चित्तोडगढ़ और उदयपुर ( ओह ! आपको तो मेरी भीतरी कसक भी पता है ना | सबसे खराब पाठ मैंने तब किया जब स्वयं प्रकाश जी सामने बैठे थे – चित्तौड़ में | हद तो यह कि बीच में एक बार तो अगली लाइन भूल ही गया और गैलसफा सा आयं बायं झाँकने लगा | क्या सोचा होगा उन्होंने ! ) दिल्ली के युवा विद्यार्थियों से लेकर कस्बों के वकीलों- दुकानदारों- मिस्त्रियों तक सबको एक समान रूप से आनंद आया तो इसलिए क्योंकि अपनी तमाम भिन्नताओं- विशिष्टताओं के बावजूद हम इस विशाल देश के विशाल जनसमूह का हिस्सा हैं और उसके साथ एकाकार होकर ही हम इस भूमंडल में अपनी आवाज़ को सुनवा सकते हैं |
नीलकांत का सफ़र जन में आस्था की कहानी है | ऐसी कहानियां कभी पुरानी नहीं पड़तीं | इस संग्रह का प्रारम्भ भी इसी से हो रहा है | इससे शुरू करने पर स्वयं प्रकाश की चिंताएं, उनके सरोकार, उनका ध्येय यानी कि ‘स्वयं प्रकाश का सफ़र’ आसानी से समझ आता है | शुरू कीजिये, देखिये खिड़की खुल गयी है | ‘थोड़ी देर में ये लोग कोई गीत शुरू कर देंगे | उदासियाँ दूर भाग जायेंगी |’
आपका
हिमांशु





[1] रामसहाय जी स्वयं प्रकाश के पुराने पाठक हैं | उन्हें इस बात का बड़ा फक्र है कि स्वयं प्रकाश जी की उनसे खतोखिताबत होती रहती है | न हो तो चकमक के पुराने अंक उठाकर देख लीजिए | रामसहाय जी ने स्वयं प्रकाश की सारी कहानियां भी पढ़ रखी हैं और अमूमन उनके बारे में लिखी गयी आलोचना भी | इसके कारण हुआ यह है कि कई आलोचकों के विचार रामसहाय जी के विचार के साथ घुल-मिल गए हैं | यह भूमिका रामसहाय जी से बातचीत के दौरान ही लिखी गयी |

बंकर बस्ती - निदा नवाज़ की कविता

निदा नवाज़ हमारे लिए कश्मीर की आँख भी हैं और ज़बान भी. ख़बरों की भीड़ में कश्मीर का सच उनके यहाँ से मिलता है हमें. उनकी कविताएँ युद्ध भूमि के बीच बैठकर लिखी कविताएँ हैं...पागलपन के दौर में एक रौशनख़याल कवि के क़लम से बनी सच की तस्वीर...असुविधा आभारी है निदा भाई का कि उन्होंने इन कविताओं को आप तक पहुँचाने के लिए हमें चुना 



बंकर बस्ती  


(1)

आँखों में आँखें डाल कर
फुंकारता है डर

बंकर के चारों तरफ़ बिछी
रेज़र-वायर के नुकीले ब्लेड
जैसे ढल जाते हैं
साँपों के हज़ारों विष दन्तों में

बेसाख़्ता तेज़ हो जाती हैं
दिल की बेतरतीब-धड़कनें
बंकर के अंदर से
बन्दूकों के ट्रिगर्स पर
उँगलियों का दबाव बढ़ने लगता है
भूखी आँखों के चन्द जोड़े
एक थरथराते देह पर
साधने लगते हैं अचूक-निशाना

इस बंकर-बस्ती के नुक्कड़ पर
हर दिन मर जाता है कोई
अल्हड़ बालक परिंदा
एक बेनाम-मौत।

(2)

शाम होते ही हर तरफ़ फैल जाता है
सियाह-सहमा-सन्नाटा

लोग ढ़ल जाते हैं लाशों में
सूरज डर के मारे सिकुड़ जाता है
एक बड़े से रक्त-धब्बे में
नीड़ों में सिमट चुके परिंदे
मुश्किल से सुन पाते हैं
बंकर  बस्ती की धीमी-धड़कनें
अज़ानोँ और चिमनियों से निकलता
हरा-काला धुंआ
घेर लेता है सारी फ़ज़ा को

किसी बंकर  से निकली
रम और विस्की की ताज़ी बू
ऊँची मीनारों का चिड़ा रही है मुंह
चंद बिखरी परछाइयाँ
सुरमई साँझ की उखड़ी सांसों पर
लिख कर चली जाती हैं
इतिहास के निर्दय-अक्षरों में
अपनी पहचान खो चुके
एक सुंदर शहर की
आख़िरी वसीयत।

(3)

सब कुछ तैयार है
बौने मीडियाकर्मी बुलाये जा चुके हैं
कैमरों की आँखों तन गईं हैं
बंकर-चौक पर
एक क्लेंशिकोफ़ और चन्द हथगोले भी
हथियार-ग्रह से मंगाये गए हैं
प्रेस-नोटों में केवल नाम-मात्र भरना बाक़ी है
प्रतीक्षा है बस एक नये निशाने की

बग़ल में फाइलें दबाये
निकलेगा ही कोई बाबू दफ़्तर के लिए
किसी छात्र को
स्कूल जाने की जल्दी तो होगी
हस्पताल जाने की टोह में
कोई बीमार तो चाहता होगा दर्द से बचना
अपने बच्चों की स्कूली फ़ीस
जुटाने की मस्ती में
मज़दूर तो कोई निकलेगा ही अपने घर से
और कल परोसी जाएगी समाचार-पत्रों में
टीवी-चनलों के प्राइम-टाइम पर
बड़ी बेबाकी से यह ख़बर

"कल बंकर -बस्ती के चौक में
सुरक्षा कर्मियों के साथ हुई मुठभेड़ में
एक खूंखार आतंकी मारा गया"

(4)

बंकर  बस्ती के उस किनारे
स्कूल के आंगन में फैली
बच्चों की बेजान पंक्तियां
किसी पालीथीन के एल्बम में
सजाई गई हों तितलियां
या जैसे छोटे-छोटे रोबोज़ को
कभी न मुस्कुराने
और न ही
कभी ख़ुश रहने के लिए
प्रोग्राम किया गया हो

युध्दक्षेत्र बने मेरे इस शहर का
बेजान मुरझाया हुआ यह भविष्य
अपने नाज़ुक कांधों पर
अतीत और वर्तमान का
क्रूर बोझ उठाये
एक लक्ष्यहीन सड़क पर
दिन-रात रेंग रहा है।

(5)

बंकर  बस्ती की एक अँधेरी गली में
चेहरे पर काला नक़ाब चढाये
एक साया
धो रहा है ख़ून से सने अपने हाथ
और थोड़ी ही दूरी पर
किसी निर्दोष के जीवन-पन्नों पर
रक्तिम-छींटों से लिखी जा चुकी है
एक आख़री लाल इबारत।

(6)

फ़तवों की फ़सल काटते-काटते
उन्हें केवल मिलते हैं
आंसुओं के उपहार
पत्थरबाज़ी की बेगार
और हर तरफ़ की मार
बीच बंकर -बस्ती के
चौराहे पर

(7)

रहस्य भरी ख़ामोशी में ढलती
इस बंकर  बस्ती की
ये रंग-ब-रंगी घर-नुमा क़ब्रें
चंद लाख जाने पहचाने
कंकालों को समेटे
और इन्ही की ओट में
बेनाम क़ब्रों के विशाल स्पॉट मैदान

फास्फोरस मिट्टी के एक एक कुण्ड में
हज़ारों लोगों की निर्मम हत्याओं के षड्यंत्र की अनकही दास्तानें दफ़नाए
ये फास्फोरस गन्ध बिखेरती क़ब्रें
इतिहास के कठघरे में खड़ा होकर
ज़रूर एक दिन करेंगीं
एक एक हत्या का खुलासा

(8)

नन्हे हाथों की नाज़ुक पकड़ में
पत्थर संम्भालते चंद बच्चे
बंकर  बस्ती की दहलीज़ पर खड़े
नई सुबहह को तलाश रहे हैं
फूल-चेहरों वाले कुछ और बच्चे
ज़हरीले छर्रों की लपेट में आ गये हैं
और उनकी आँखों के सामने

फैल गई है
एक क्रूर काले अँधेरे की
अजगर-रात।

(9)

यौवन के कंधों पर
मस्ती से चलती
पीले-सुरमई लाल रंग की
एक नाज़ुक तितली का सफ़ेद फ्राक
बंकर-बस्ती के कंटीले तारों में फंस गया
देह के साथ साथ आत्मा भी
रक्त-रक्त हुईं
उसके सपनों की


मृगतृष्णा की पाँच कविताएँ

इस सदी के दूसरे दशक में ख़ासतौर से सोशल मीडिया के विस्तार के साथ स्त्री कवियों की एक पूरी खेप सामने आई है. जैसे वर्षों से दबी हुई अभिव्यक्तियाँ अचानक ज्वालामुखी के लावे सी बाहर आई हैं. कभी धधकती हुई, कभी अधपकी और कभी कला और भाषा की तमाम परिचित छवियों को नष्ट करती नवोन्मेष रचती. ज़ाहिर है इस भीड़ में नक़ली आवाज़ों की भी कमी नहीं, लेकिन उन्हें सामने रखकर खारिज़ करने की हडबडाहट की जगह आवश्यकता बहुत धीरज से इन्हें पढ़ने, समझने और इनकी परख के लिए नए नए औज़ारों की तलाश ज़रूरी है.

मृगतृष्णाइसी भीड़ का हिस्सा भी हैं और इस भीड़ में पहचाना जा सकने वाली आवाज़ भी. उनकी कविताएँ एकदम हमारे समय की कविताएँ हैं जिनके दृश्य जाने पहचाने लगते हैं और एकदम से लगता है कि अब तक यह बात इस तरह से क्यों नहीं कही गई? इन्हें बोल्ड कह देना फिर एक सरलीकरण होगा. जिस भाषा में लिहाफ़ लिखी जा चुकी हो उसमें बोल्डनेस अपने आप में कोई मूल्य नहीं हो सकता. मृगतृष्णा की ये कविताएँ परम्परा और आधुनिकता के द्वंद्व के बीच एक बेकल युवा का हस्तक्षेप हैं. मैं असुविधा पर उनका स्वागत करते हुए ढेरों शुभकामनाएं प्रेषित करता हूँ.



पत्नी की आँखें 


आजकल उजाला होने से ठीक पहले
पत्नी की आँखें देखने लगती हैं
पके सावन और हरे जेठ के सपने
कि उसका राजकुमार भटक रहा है नंगे पाँव
किसी आबनूस के जंगल में
जंगली फूलों की झोली गले में लटकाये
देवदार की कमर को छूता है हथेलियों से
और बांध देता है अपनी उम्र वाली रेखा
बांसुरी की टहनियों से पूछता है कि आख़िर
कितनी पुरानी हो सकती इश्क़ कार्बन डेटिंग

पत्नी देखती है कि उसका राजकुमार
सीने पर उगा रहा है जंगली बेल
और लांघती जाती है पहाड़ दर पहाड़
नदी करवट बदलती है उसकी पीठ पर और
रेत घड़ी से सरकती रहती है पिछली रात
वो मरुन परदे से छानती है चटख धूप
फिर कुछ यूं पीती है उसे एक सांस में जैसे
छुपकर हलक़ से उतारा गया हो टकीला शॉट

पत्नी आजकल हड़बड़ाकर नहीं उठती
भूल जाती है अक्सर कि दो कप चाय में
चुटकी भर चीनी चाहिए या चम्मच भर नमक
वो हिसाब लगाती है कि नमक ज़्यादा जरूरी है
पीनी चाहिए चाय या
घूँट भर उसकी भाप
राशन की दुकान के बजाय
क्यों न चला जाए इलायची के उस बाग़
नदी मिलती है समंदर में या
समंदर होने को चाहिए, नदी का साथ

पत्नी महसूस करने लगी है आजकल
लाल और सफ़ेद से इतर दूसरे रंगों का आत्मविश्वास
आईने ने सामने खड़ी हो
पहनती है नंगी देह पर हर रंग का लिबास
हिसाब लगाती है
कि सिर पर ज़्यादा ज़रूरी है छतरी का होना
या भादों की बरसात
सीधे पल्लू का आँचल या
निर्वस्त्र नितांत अकेले
रातभर किसी धौलाधारी झील का साथ
बैठ जाना सबसे ऊंचे पहाड़ पर
और फैला देना बाँहों का आकाश
आख़िर क्या ज़्यादा ज़रूरी हो सकता है
घर संवारने वाली कोई पत्रिका
या फ़िर आधे दामों में बिकता कोई सेकेण्ड हैण्ड ट्रैवलॉग
घर को महकाए पवित्र धूप और किसी मंत्र से
या रात जुगनुओं की मौत पर छेड़ दे रुदाली राग

पत्नी सकपका जाती है जब
जागती आखों वाले सपने में
बिना चेहरे का कोई कमउम्र पुरुष
उससे करता है रोमांस
और पूछता है प्रेम जताने का कोई नया पाठ
पत्नी सीख रही है आजकल सिर्फ़ प्रेमिका होना
और स्त्री को जूडे में लपेट पीछे
फेंक देती है बेपरवाह


एक अघोरी सुबह 

रात सोने से पहले आँखों में
काजल धौलाधार लगाना
किसी धौलाधारी झील वाले सपने से हडबडाकर
रात की चिता पर उठ बैठना
नज़र बादल होना
मौत की दिशा वाली खिड़की का आसमान होना
सप्तऋषि तारामंडल के पड़ोस में
अपनी चाहनाओं एक जुगनू जला देना

रात के जंगल में काले पेड़ों पर उम्मीद का हरा खोजना
किसी पहाड़ी नाले में
उम्मीद की शकुंतला को बहा देना
(चूँकि वर्तमान को गुज़रे वक़्त की भूख लगती आई है इसलिए)

पलटकर कमरे में फिर लौटना
और महबूब का बासी ख़त चबाना
 गोल्डेन पर्दों के बीच
मिल्की वाईट फिश हो जाना
भुरुकवा को हीरा समझ पूरब से नोंच खा जाना
सांस वाली गर्दन को पहाड़ी नदी से सहलाना
दुनियादारी के जूते पैरों में पहनकर
(हाइवे नंबर चौबीस के ज़माने याद करना)

ग्लॉसी पेपर की उम्रदराज़ मैगजींस में
दिल के दंगों पर बुक मार्क लगाना
फिर हड़बड़ाना और हडबडाकर
खाक़ी झोले की हर क़िताब बदहवास सा सूंघना
प्रीतम की नज़्म से ट्रुथ एंड डेयर खेलना
ज़वाब में तीन की जगह ग्यारह डॉट्स लगा देना

रात की दोपहर में राग पीलू शाम सुनना
बरसता है ये ज़माना बहुत
एक अघोरी सुबह में
अपनी चमड़ी से महबूब के लिए एक लिबास बुनना
                                               


यार पिता

(एक)

पिता को लिखे ख़त में
न चाहते हुए भी मैंने...
पितावश ...सम्बोधित किया था
'प्रिय पिता'

पिता हमेशा से ही जटिल बने रहते हैं
मेरे शब्दों में
जैसे भावनात्मक चक्रव्यूह में होते हैं
जब मेहमान के आधी रात आगमन पर
माँ असमंजस में पड़ जाती है
कि दाल में नमक बढ़ाऊं कि पानी

वे जटिल बने रहते हैं
उतने ही
कि मैं नहीं पूछ पाती उनसे
लम्बे अंतराल पर मिलते ही
...."यार पिता और सुनाओ! कैसे हो?"...


(दो)

जैसे माँ की छातियों से
चिपका रहता है वात्सल्य
पिता संग परछाईं सा लगा रहता है
पितापना

आजकल... पिता तनकर
नहीं खड़े होते
बस स्मृतियों के कोने से
लुढ़कते चले आते हैं
ऊन के गोले की तरह बिना बताये
और उनके पीछे -पीछे घिसटती चली आती है
एक पूरी सर्द उम्र .....

(तीन)

मेरे आकार लेते व्यक्तित्व में
पिता डेरा डाले  रहते हैं
अधिकार सहित
जैसे पुश्तैनी मक़ान की
एकलौती दीवार घड़ी
भाँय भाँय वाले सन्नाटे के साथ
परिधि की सीमा में
करती रहती है दो दो हाथ अकेले

(चार)

पिता को चढ़ गया था एक बार मीठा पान  
उन्हें बेसलीक़ा लगती थीं
ठट्ठाकर हंसने वाली लड़कियां
ये जानते हुए भी
मुझे कई बार पड़ते हैं बेतहाशा हंसी के दौरे
दुनिया को कई दफा  मैंने
अस्सी घाट की सीढ़ियों पर बैठ
उड़ाया है बैक टु बैक क्लासिक रेगुलर में
यार पिता ! ये बताओ
मध्यम वर्गीय लड़कियां क्यों नहीं कर पाती
प्रेयस को टूटकर प्यार

(पाँच)

माँ देखो तुम भौंचक्की मत हो जाना
मेरी इस ढीठ स्वीकारोक्ति से
कि तुलनात्मक रूप से मुझे
पिता की बेटी कहलाना अधिक पसंद है
दोष तुम्हारे उस ताने का भी उतना ही है
'कि बिलकुल अपने बाप पर गयी है'

(छः)

अचानक कुछ भी नहीं होता
जैसे तय होता है
बच्चे का रोना सुनकर
माँ को जागना होता है
पहले
जैसे पहलौठी का बच्चा
बाप पर थोड़ा ज़्यादा पड़ता  है
और  बुढ़ापे में
उम्र कराहती है घुटनों से

संपत्ति के बंटवारे के बाद
जैसे मान लिया जाता है
पिता ऊंचा सुनेंगे
अचानक कुछ भी नहीं होता
तय होता है सब पहले से ....

(सात)

माँ से मिलने होते हैं
सांप कि केंचुल से उतरते
महीने के वो पांच दिन
जो आप नहीं दे सकते
पिता मुआफ़ करना कि
मुझमें बची हुयी है थोड़ी माँ


पति नहीं था यक़ीनन प्रेयस

(एक)

हंसती है ज़ोर से खुल कर
बालों में उँगलियाँ फिराकर
इतराकर बताती है
पसंद नयी बात
वो चुप रहता है
मुस्कुराकर चोरी से कर लेता है
फिंगरज क्रॉस्ड
                                                               
(पति नहीं था यक़ीनन प्रेयस रहा होगा)

(दो)

उसने सबसे पहले
कागज़ के जहाज बनाने सीखे
फिर उनके पीछे-पीछे भागना
जब पहली बार किताबों में
पढ़ी उसने बरनाली की प्रमेय
सीख चुका था तब तक
प्रेम की पतंगे उड़ाना

(पति नहीं बना वो ,प्रेयस रह गया)

(तीन)

सफ़ेद रुमाल में तहकर के
रखा होठों का निशान
रखूंगा बायीं जेब में
तुम्हारा दिया दुपट्टा बांधकर आँखों पर
गुज़ारूंगा रात किसी वेश्या के साथ
तुम्हारे सवाल जवाब
स्वीकारता हूँ
फिर वही बात
प्रेम था
प्रेम है

या फिर रही होगी
प्रेम की कोई
गुप्त ऊष्मा
तुम करती रहो इंकार
हर बात में ढूंढ लूँगा
प्रेम के यथासम्भव पर्यायवाची

(पति नहीं था यक़ीनन प्रेयस रहा होगा)

(चार)

पांचों ने हामी भरी
बाँट लेंगे नितांत एकांत के क्षण भी
तुम अकेली के साथ
चौदह कदम लेकर भले बिताओ
चौदह साल का वनवास
फिर भी मांगूगा अग्नि परीक्षा
पूज्य पात्र भूल बैठे
भविष्य में लिखी जायेगी
गुनाहों का देवता के जवाब में
रेत की मछली

(पति थे सब...कोई प्रेयस नहीं रहा होगा)

(पाँच)

आत्मा की आज़ादी
साझे की बुक शेल्फ
यदि रख दूं
वात्स्यायन की कामसूत्र के जवाब में
अपनी कोई क़िताब

(आधार है...पति नहीं था प्रेयस ही रहा होगा )

 मेरी कविता की अप्रेम नायिका

(एक)

जब सब कुछ कहा जा चुका होगा
जब सब सुना जा चुका होगा
कविताओं में स्त्रियों पर
जब पूरी की जा चुकी होगी सारी लिखत-पढ़त
तब मेरी कविता की अप्रेम नायिका
आसमान के समतल पर बिछायेगी अपनी
शतरंज की गोटियां

(दो)
                                                   
आजकल खबरें कहती हैं कि
स्त्रियों में बढ़ रहा हैं
वर्जिनिटी ट्रांसप्लांट का चलन
मेरी कविता की अप्रेम नायिका
शनिच्चर ग्रह का एक छल्ला बाईं कलाई में पहन 
सूरज की तीन लपटों का रक्षासूत्र क़मर लपेटती हैं क़मर में
दाईं जेब में दिल ......ख़ंज़र दायें जानिब रखकर
तैयार हैं हर बार
टूटकर प्रेम करने को

(तीन)

मेरी कविता की अप्रेम नायिका
दीवानी हैं मरघट के सन्नाटे की
वो गुनगुनाती हैं नए जन्म के गीत वहां
क्योंकि ....
अपने जन्मे को नियति की चिता पर देखना भी
एक यात्रा के पूरे होने की संतुष्टि हैं

(चार)

धौलाधार की सबसे ऊंची चोटी पर
निर्वस्त्र बैठ
किसी सूर्य को जलाना
कुंती के लोक लाज के किस्से
चारों दिशाओं में बिखरा देना
किसी अनजान टापू की हवाएं
एक सांस में पी जाती हैं
वो चाहती हैं जब समंदर की लहरें
खेल रही हों उसके नितम्बों से
तब उसकी पीठ पीछे कोई जोड़ा कर रहा प्रेम
मेरी कविता की अप्रेम नायिका
सीख रही हैं प्रकृति होना  








अरुण कमल का संकलन "मैं वो शंख महाशंख"पढ़ते हुए


अस्सी के दशक के बेहद महत्त्वपूर्ण कवि अरुण कमल के इस संकलन पर मैंने  परिकथा के लिए लिखा था जो बाद मे राजकमल प्रकाशन के न्यूज़ लेटर मे भी छपा। आज यहाँ  उनके जन्मदिन पर शुभकामनाओं के साथ 



पीछे से ताक रही डूबती आँख के साथ चलते कदम...
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अरुण कमल का हालिया संकलन ‘मैं वो शंख महाशंख’ पढ़ते हुए उनके पहले संकलन की शीर्षक कविता ‘अपनी केवल धार’ की याद आना स्वाभाविक है. वंचित कामगार वर्ग के लिए उनका यह विनीत और कृतग्य भाव उनकी पूरी काव्ययात्रा में बार-बार आया है, लेकिन यहाँ इस कविता में ही नहीं बल्कि कई अन्य कविताओं में भी इस कृतज्ञता की जगह एक सहयात्री का भाव है. अपनी तीन दशकों से लम्बी काव्ययात्रा के इस पड़ाव में उनका पहले से कहीं अधिक धैर्यवान और परिपक्व दिखना तो स्वाभाविक है, लेकिन इसके साथ वह जो पहले से अधिक उर्जावान, व्यग्र और धारदार दिख रहे हैं, वह विस्मित करने वाला है. इस संकलन का भावबोध और इसकी वैचारिकता ही नहीं, इसके शिल्प और भाषा की बहुरंगी चमक भी उस ऊर्जा का प्रत्यक्ष प्रमाण दे रही है, जो उनके कवि को लगातार सक्रिय ही नहीं बनाए हुए है बल्कि लगातार नए-नए क्षेत्रों में प्रवेश करने, द्वंद्वों में उलझने, उनसे दो-दो हाथ करने और अपनी प्रतिबद्धता की जाँच करने की ओर अग्रसर भी कर रहा है. एक वामोन्मुख राजनीतिक कवि के लिए यह समय जितना उदासी और अवसाद का है उतना ही भविष्य की लम्बी लड़ाई की तैयारी के तौर पर अपने तूणीर में नए-नए बाणों को एकत्र कर बिखरी सेनाओं में नया उत्साह भरने का भी. यह संकलन इन दोनों कार्यवाहियों की गवाही देता है. नवसाम्राज्यवादी समय में पीछे छूटते जा रहे लोगों और आदर्शों तथा परम्पराओं की निशानदेही ही नहीं अपितु उन्हें अपनी कविता और अपने जीवन में साथ लेकर चलने का संकल्प कवि को वह ज़रूरी शक्ति देता है जिसके भरोसे वह कविताओं के ज़रिये विविधता और अर्थ बहुलता से संपन्न एक ऐसा आख्यान रचता है जिसमें उसका समय अपनी समस्त विसंगतियों तथा विपर्ययों के साथ पालिफोनिक स्वर में दर्ज़ होता है. 

संकलन की दूसरी ही कविता है – ‘निर्बल के गीत’. छह उपखंडों में विभाजित यह कविता एक आर्तनाद से शुरू होकर जिस तरह एक जिद में समाप्त होती है, वह इन उपखंडो को गीत के अलग-अलग बंद में तब्दील कर देता है. हर बंद के बीच जो अंतराल है वही है इस गीत का मुखड़ा जहां खामोशी से कवि अपनी पक्षधरता को बार-बार दुहरा रहा है. हर रात हर चीज़ से डरता हुआ निर्बल, सुनसान घर में अकेले बचे रह जाने की नियति से बचा लेने की गुहार करता निर्बल, दूब में बस ओस भर दख़ल की चाहना दुहराता निर्बल जब सारी उम्मीदों से बेआस हो जाता है और यह समझ जाता है कि ‘कोई कुछ नहीं देगा/एक शाम भोजन भी नहीं रात भर का आसरा तो दूर’ तब उसके पास जो बचता है वह है थोड़ी उदासी और थोड़ी उम्मीद में पगा उसका अपना आत्मबल, उसकी अपनी जिद जिसके भरोसे वह कह पाता है “जीता रहूँगा/उस पेड़ की तरह जिस पर ठनका गिरा/उस कुत्ते की तरह जिसकी देह में खौरा है/उस पक्षी की तरह जिसके पंख झड़ रहे हैं/ मैं एक टूटी सड़क की तरह ज़िंदा रहूँगा/ एक सूखी नदी की तरह अगले अषाढ़ तक.” अषाढ़ की प्रतीक्षा में सूखी नदी का ज़िंदा रहना मानों हमारे समय का एक महाकाव्यात्मक बिम्ब बनकर सामने आता है. प्रलय प्रवाह में बच गए राजा मनु के बरक्स यह आगामी अषाढ़ की प्रतीक्षा में इस मानवविरोधी समय में खुद को पूरी ताकत के साथ बचा ले जाने की मशक्कत करता निर्बल है. इस कविता में अरुण कमल ने जिस देसज बिम्ब-संपन्न आद्र भाषा और गीतात्मक प्रवाह वाले सबलाइम शिल्प का प्रयोग किया है, वह समकालीन रूखी और अति-गद्यात्मक कविताओं की भीड़ में अलग से दिखाई और सुनाई देने वाला स्वर है. इस कविता के साथ जिस एक और कविता का ज़िक्र मैं करना चाहूंगा वह है ‘निजी एलबम से’. निजी एलबम के सहारे अपने कवि मित्रों और अग्रजों की स्मृति दर्ज़ करती यह कविता उन चित्रों को जैसे पाठक के भावबोध में पुनर्सृजित कर देती है. अपनी इस  चित्रधर्मी भाषा में अरुण कमल केवल उन्हें याद ही नहीं करते बल्कि शमशेर, त्रिलोचन, भीष्म साहनी, नागार्जुन और केदार नाथ अग्रवाल के पैरों के पास खुद के बैठे होने की कृतग्य परन्तु स्पष्ट घोषणा भी करते हैं. यहाँ आवर्त के सम्पादक वीरेश चन्द्र और मानबहादुर सिंह की स्मृति में लिखी गयी कविताओं का भी मैं ज़िक्र करना चाहूंगा. मूक भीड़ के सामने कवि मानबहादुर सिंह की गुंडों द्वारा की गयी ह्त्या से उपजे क्रोध और हताशा को इस कविता में समेटते हुए जिस तरह बिना लाउड हुए वह कहते हैं कि ‘पर कितना कम थूक है अब इस देश के कंठ में’ वह आपको भीतर तक हिला देता है. 

ये हमारे  समकालीन गीत है, गीत की पारम्परिक संरचना की ऐतिहासिक विडम्बनाओं से टकराते हुए, अपने युगसत्य को कहने के लिए ताक़त जुटाता हुआ. इसी संकलन की एक और कविता ‘अभागा’ में वह इसी युगसत्य के बरक्स वह अपने साथी कवियों और इस रूप में खुद से भी सवाल करते हैं. वे पूछते हैं – ‘वे यहाँ इंतज़ार कर रहे थे तेरा और तू/ हवाई टिकट के लिए दौड़ रहा था/ क्या करता वहाँ जाकर उन आचार्यों सभासदों के बीच/ जिनके लिए काव्य बस डकार है अफारे की.’ कविता का अंत आज अकेले पड़ते जा रहे कविता संसार के भाग्य पर एक टिप्पणी के साथ होता है – ‘अभागा है वह जिसका कहीं कोई इंतज़ार नहीं करता/ उससे भी अभागा है वह जो इंतज़ार करते दोस्तों को छोड़/ आगे बढ़ जाता है’ – वंचना और उत्पीड़न झेलते बहुजन को छोड़कर साहित्य की सत्ता की गणेश परिक्रमा लगा रहे साहित्य का अकेला पड़ता जाना स्वाभाविक ही तो है! और इसका प्रतिकार भी वह सुझाते हैं अपनी एक और कविता ‘आलोचना पर निबंध’ में – ‘नहीं, हर धातु कंचन नहीं होता/ और कविता तो अधातु है वत्स/ कोई लिहाज मत करना न बड़े का, न नाम, न कुल गोत्र/ लिहाज बस सत्य का – जरा सा हाथ कंपा कि तस्वीर/ डिग जाएगी/ सबसे कठिन है कविता से प्यार/ उससे भी कठिन/ उस कविता के पक्ष में संग्राम. यह संकलन उस संग्राम का एक जीवंत दस्तावेज़ है. सहयात्रा का यह स्वर और भाषा और शिल्प का यही रंग ‘बस एक निशान छूट रहा था’, ‘पुराना सवाल’, ‘जिसने झूठी गवाही दी’ जैसी कविताओं और ‘किसी के लिए तीन कविताएँ’ तथा ‘तलवे के छाप’ जैसी  प्रेम कविताओं में भी लक्षित किया जा सकता है, किंचित दूसरे रूप में.

संकलन में अरुण कमल ने पाकिस्तान यात्रा के दौरान लिखी गयी कवितायें ‘दूसरा आँगन’ शीर्षक से एक साथ रखी हैं. साझा इतिहास और संस्कृति वाले देश में यह सवाल उठना तो लाजिम है ही कि ‘ये कैसा बिदेस है जो देस सा लगे है’. निदा फाज़ली ने अपनी यात्रा से लौटकर लिखा था – हिन्दू भी मजे में हैं, मुसलमां भी मजे में / इंसान परेशान यहाँ भी है वहां भी. अरुण कमल लिखते हैं – ‘मैंने लाहौर में एक तोता देखा...यहाँ भी वह फूले चने खाता वैसी ही निपुणता से/ छिलका बाहर दाना अन्दर/ और नाम भी मिट्ठू ही था यहाँ, मियाँ मिट्ठू.../ पर एक बात जो ख़ास लगी वो ये कि/ यहाँ भी वो लोहे के पिंजड़े में बंद था जैसे यहाँ/ और यहाँ भी वो पिंजड़ा काटने की मुहिम में जुटा था जैसे वहाँ.’ इस तरह एक जैसी परेशानियों से आगे जाकर एक जैसी प्रतिरोध की ताकतों को भी देख पाते हैं. लेकिन इस एक जैसे सबकुछ के बीच बाघा बार्डर पर झंडे उतारने की परेड में बाड़ के उस पार फहराया जाता भारतीय झंडा मातृभूमि के प्रति प्यार जगाता है तो धुँआ उठाते घर और दूही जाती भैंसों को देखकर एक बार फिर घर याद आता है. जहाँ झंडे हमें अलग करते हैं वहीँ यह धुँआ हमें एक करता है. यही सबब है उनकी इस इच्छा का कि ‘कितना अच्छा हो अगर दुनिया की हर सड़क हर चौक/ शाम ढलते दस्तरख्वान बन जाए/ और रात का मानी हो रोशनी और रोटी.’ शहीद-ए-आज़म की बेकद्री का उनका दर्द शायद पाकिस्तान में हुए एक हालिया फ़ैसले से कुछ कम हुआ हो लेकिन वह आशंका तो अपनी जगह है ही कि – ‘ऐसा भी हो सकता है देश में कल?/ मेरे भी देश में?’    

इस संकलन में कई कवितायें लोकतंत्र के उस हश्र को रेशा-रेशा साफ़ करते हुए उस पर सवाल खड़ा करती हैं जिसने आम जनता के जीवन को दुस्वार कर दिया है. ‘परिवर्तन’ जैसी कविता जिसमें वह कहते हैं कि ‘दुर्ग के कपाट के रंग बदल गए/ बदल गए प्रहरी उनकी बर्छियाँ/ बदले सभासद नवरत्न बदले/ बदली थैलियाँ अशर्फियाँ/ तब भी खड़ा था द्वार पर/ अब भी खड़ा हूँ द्वार पर/ कोई तो कहे/ भिखमंगे को जाने दो अन्दर’ तो असल में वह भगत सिंह की उस आशंका के सही साबित होने की निशानदेही कर रहे हैं कि ‘गोरे अंग्रेजों की जगह अगर काले अँगरेज़ सत्ता में आ गए तो स्थितियों में कोई बदलाव नहीं होने वाला’ और इस तरह वह देख पाते हैं कि आज़ादी के साठ सालों के भीतर ‘सरकार बिगड़े जमींदारों की तरह सारे कल कारखाने चम्मच कटोरी/ बेच रही थी और अंत में उसने बच्चों के दूध की बोतलें भी बेच दीं’ (सरकार और भारत के लोग). ऐसे में क्या आश्चर्य कि एक माँ यह सवाल करे कि ‘सरकार जी, ऐसा करें कि संसद भी बेच दें’. ‘घर से घूरे में’ बदल गए घरों वाले इस ‘विश्व के विशालतम लोकतंत्र’ के नागरिक की मुक्ति का रास्ता न तो उस ‘योग’ में है जिसमें ‘नगर के भद्र जन श्रेष्ठ प्रातः प्रातः / सरोवर के पास उद्यान के पवित्र पवन को/ सड़ा रहे थे   पाद पाद कर’ संपादित कर रहे हैं न ही अन्ना-केजरीवाल के नेतृत्व में ज़ारी मध्यवर्ग के उस विचारधाराहीन आन्दोलनों से जिसने ट्यूनीशिया, लीबिया, बहरैन या मिस्र में सरकारें तो बदल दीं लेकिन जनता के सपने न पूरे कर सका (इस कविता ‘हवा में हाथ’ में जो आशंका उन्होंने व्यक्त की है उसे वक़्त ने सही सिद्ध किया) बल्कि सर्वहारा वर्ग के उस प्रतिकार में जो साइकिल फेंके जाने के प्रतिरोध में काम रोक कर उन दो असंगठित मजदूरों ने किया, बस ज़रुरत उस ‘खुली मुट्ठी’ को कस कर बाँधने की है, इसीलिए कवि को धरने से वापस घर लौट रहे बाप और बेटे उम्मीद से भरा वह बिम्ब देते हैं जिसे वह कविता में दर्ज़ करता है और यह ‘निगेटिव फोटो’ सी तस्वीर उसे दुनिया की तमाम चमक-दमक और रंग-रोगन से भरी तस्वीरों से अधिक महत्वपूर्ण लगती है. इन्हीं निगेटिव्स से भरे इस ‘एल्बम’ में दुनिया को खूबसूरत बनाने वाले सपनों और संघर्षों का उम्मीद तथा आकांक्षा से भरा एक हरा-भरा संसार है.
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प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन 


तरुण भटनागर की तीन कविताएँ

                        
 तरुण भटनागरके कथाकार रूप से हम सब परिचित हैं लेकिन कविता में उनकी गहरी रूचि के बारे में कम ही लोग जानते हैं. कई मुलाक़ातों में जब उनसे कविताओं पर लम्बी लम्बी बातें हुईं तो बहुत कुरेदने पर उन्होंने अपनी कुछ कविताएँ पढवाईं जो मेरे लिए आश्चर्यचकित करने वाला तथ्य था. तरुण की कविताएँ सूक्ष्म विवरणों में जाती हैं और वहाँ से संवेदना के बेहद महीन तंतु तलाश लाती हैं. उनका विन्यास बहुत सावधान नहीं लेकिन कथ्य को बेहद करीने से उभारने और सहारा देने वाला है. भाषा पर तो खैर इस कहानीकार का अधिकार स्वयंसिद्ध है ही. सुखद है मेरे लिए उनकी कविताओं को असुविधा पर शाया करना. आशा है वह आगे भी कविताएँ लिखते रहेंगे और डायरियों की क़ैद से आज़ाद कर हमें पढने का भी मौक़ा देंगे.
 


 नाइट लैंप  

     स्याह अंधेरों की दुनिया में
     सकुचाता दीखता जो नाइट लैंप
     तमाम सपनों से अलहदा
     मगन अपनी मद्धम रौशनी में
     डटा हुआ स्याह अंधेरे प्रेत से। 
     दिखता भद्र जनों सा
     पर उनसे बेहद विलग
     न बंधे होते उसके हाथ
     न सकुचाता 
     न मुस्कुराता नकली
     न खिसियाता
     न ही यह भय
     कि कहीं बहिष्कृत ही न कर दिया जाय
     अंधेरों की समभाव दुनिया से ।
     साक्षात्कार बोर्ड के सामने
     सकुचाते, होते आत्मग्लान
     नाइट लैंप एक बेरोजगार
     जो कबका जान चुका
     कि दुनिया को उसका होना पता नहीं चलना
     कि उसके बुझ जाने से
     कोई खलल नहीं पडना
     अंधेरों में फैलती
     नींद और झूठे सपनों
     की काहिल दुनिया पर ।
     उसकी जाति में बरसों से शामिल हैं-
     अबूझमाड के अंधेरे के प्यार में
     स्याह पगडण्डी पर चलती कोई टॉर्च।

  रेल के बेखबर मुसाफिरों की मोहब्बत में दमकता
  कोई सिग्नल तन्हा पटरियों पर।
  कोई बिजली का लट्टू किसी मचान पर
  गाँव से बहुत दूर
  फसल के इश्क में किसान की नींद पर...।
  हड्डी, मिट्टी, राख के प्रेम में
  कब्र पर बूँद-बूँद अपनी रौशनी का मोम।
  जवान होती लडकी को वर्जित सपनों में
  किसी दमकते मर्दाना जिस्म सा
  रौशन, रौशन, रौशन.....। 

     देखो-देखो किस तरह तो उतर आई है
     नाइट लैंप की कंपति झिझकति मद्धम आभा
     कस्बे की वैश्या के चेहरे पर
     बेतस्दीक जिद होकर दमकती ।
     दमकता कोलाहल बिना।
     नींदों पर काँपता।
     पर्दे पर डोलती उसकी आभा देख गाता है कोई झींगुर।
     चाँद डरता सा गुजरता है चुपचाप छत के ऊपर से। 
     दमकता है जब रात के बिस्तर पर 
     स्त्री आँख भर घूर लेती है आदमी की नग्न देह।
     फर्श पर यूँ ही तो नहीं उसकी आभा का चकत्ता 
     रात के कमरे में इंसान के होने को जलता है वह।
     जलता है अंधकार की भाषा में 
     गहन अंधेरों से उसकी गुफ्तगू गुलजार करती है
     बेगैरत खामोश कमरों को, पूरी रात।

   वे जो जागते थे सारी रात
   खो चुकी थी जिनकी नींद
   दगा दे गये थे जिनके सपने
   उनकी बातों में वही था।
   रात के एकांत में 
   वीरान बिस्तरों पर दम तोडती देहों का गवाह
   वही था, वही था। 
    नाइट लैंप की बातें
    शयनकक्ष की दीवारों पर
    त्वचा में गोदने के शब्दों सी जज्ब
    बेखयाली के दौर में
    बाँचने रौशनी का किस्सा। 

     भयाक्रांत दौर में
     जो धडकाती रही
     मासूम बच्चों- औरतों को
     वही 
     बस वही
     गोल घेरे में दमकती बेहद नाजुक
     जीरो वॉट के बल्ब से भी फूट पडती जो
     कितनी कम
     पर पूरी-पूरी रात
     कांपती, पर स्थायी
     ढंके बंद भेदकर, तोडकर निकल आती जो बाहर
     रौशन न माने जाने पर भी
     जो बेझिझक गुनती
     अपनी अत्यल्प आभा।
     औंधा पडा है सूरज धरती के पीछे।
     अंधेरी सडकों पर हैं आदमखोर।
     बंदूक छिपा चुपचाप कहीं सोया है
     रात का मोहल्ले का चौकीदार।
     मुँह फाड बाहर निकल आये हैं कालरात्रि के रदनक।
     रक्त की तलाश में घूमता है ड्रैकुला और कबरबिज्जू।
     अंधेरे में पसरी नीम की प्रेत शाखों पर इत्मिनान से बैठा है हैवान।
     काँपते तारे खींच रहे हैं बादल की चादर मुँह तक।
     सन्नाटे की कब्र में सो चुकीं आवाजें। 
     डोलता है डराता चिर अंधत्व।

     बेभरोसे यतीम अंधेरे घरों में 
     जलता है
     जलता है सिर्फ नाइट लैंप।



वह इश्क हुआ

                         (1)

     कोलाहल के बीच
       जो एकाँत घिरता है
       वहाँ वजहें थीं
       तुम्हारे इंतजार की। 
       इस तरह था लाखों सालों तक
       रासायनिक क्रिया से बन रहे
       सिंक होल और गहन गुफाओं का दौर 
       अनवरत...
       अनवरत...
       सफेद से नीली
       ठोस और, और ठोस हो रही बर्फ की शिलायें
       पहाडी ढलानों पर
       परत दर परत 
       नहीं पिघलना चाहती थीं होने को नदी
       रेगिस्तान में
       काँटो की त्वचा में
       जमा होता पनीला हरा गूदा
       सिर्फ वही.....
       सिर्फ वही....
       हरा
       और गहरा हरा था
       बस उसे पता नहीं था
       कि वह इश्क था।

      

                              (2)

     इश्क जिद्दी है
     मुस्कुराता चूमता है फाँसी का फंदा
     चला जाता है इतने गहन
     कि संजो पाता है सिर्फ अंधेरा
     और मौत, खालिस मौत ।
     ऐसी दीवानगी
     कि होठों पर होंठ
     इस तरह
     कि कहीं कोई जंग न दीखने के इस दौर में
     जो युद्ध हुआ
     इश्क हुआ...।
      
                             


                              (3)
      

      करना इश्क
      जैसे हथकड़ी पर गिरता है आँसू 
      कुछ यूँ
      कि तकलीफ सिर्फ तकलीफ हो
      दुनिया फिर से दुनिया।
      इश्क करना
      जैसे मुनिस्पालिटी के मेहतर
      दफनाते हैं लावारिस लाश को
      कोई डॉक्टर
      कागजों में दर्ज करता है
      जलकर मर रही लडकी का आखरी बयान
      कि हो मिट्टी फिर से मिट्टी
      काँटे को बनना पडे फिर से काँटा । 
      
      कुछ यूँ
      कि जैसे करती है प्यार कोई वैश्या 
      जिसने गाड दी अपनी शर्म 
      तलाश में जिंदगी के जैसे।


                              (4)

  

   हँसता है आशिक
   जब पढता है इश्क के किस्से
   बुद्ध की तरह चुपचाप गुनता है
   हमारी मोहब्बत की बातों को
   डरता है, चीखता है
   रोता है एकांत में।  
   इश्क एक गप्प थी
   और इश्क का शोक मनाने वाला वह अकेला था।

                           

                                 (5)

  अभी मुठ्ठी में बची है रेत
  अभी इश्क है।
  खिडकियों के टूटे शीशे
  मोर्टार और गोलियों से उधडी बदरंग दीवारें
  शहर में कर्फ्यू का सन्नाटा
  लाशों को आँखों से गिनता ड्यूटी वाला हवलदार
  जेल ले जाये जाते कतारबद्ध फटेहाल लोग
  भूमध्यसागर के तट पर औंधे मुँह एक मृत बालक।
  खत्म होगी मुठ्ठी की रेत
  हथेली पर चिपके कणों के मानिंद
  पसीने में लिथडा
  टिमकता होगा कण-कण भर इश्क
  होगा कनस्तर में बचे आखरी मुठ्ठी भर आटे की तरह
  पता नहीं कहाँ-कहाँ
  कैसे-कैसे लोगों के बीच
  धडकता, उदात्त, बेदावा यह इश्क
  अंधेरों और तिरस्कृत अजनबियत में
  साँस ले लेगा
  अचरज में डालता फिरेगा फिर-फिर। 

                             

अबकी बार  

जन जन की है यही पुकार,
अबकी बार,
एक चाल,
एक जुगाली,
एक लीद,
एक उबासी,
सिर्फ और सिर्फ एक कतार,
सिर्फ और सिर्फ एक खामोशी,
एक खुरों की आवाज,
एक से गले में लटकते,
लकडी के बम्बे और घण्टो की आवाज,
हमेशा
हर बार,
बार-बार।
तिक्त मैदानों को
सूखे बेजान जंगलों को
राख की तरह ठण्डी
रंगहीन चरागाहों को
बस उसी जगह तक,
जहाँ होते आये जमा,
निरुद्देश्य बस पीछा-पीछी,
बस वहीं तक,
बस वहीं तक,
अबकी बार,
बार बार,
जन जन की है यही पुकार।
फूटते हों तो फूटें,
हजार हजार रास्ते,
पर उन पर से न गुजरने की चाहतों में,
देह पर मक्खी और कीडे,
और उनको चुगने मंडराते कौवों की,
एकमात्र चिंता से,
ऐतिहासिक बेखयाली में,
सिर डुला,
सींग झिडक,
धूल फुंफकार,
पूंछ पटक
लत्ती घुमा,
अबकी बार....।
एक सा मौन,
एक से सपाट चेहरे,
एक से अर्थहीन सपने,
एक सी मौत,
एक सी मुस्कान,
एक से झुके सिर,
कतारबद्ध एक से,
कहीं बहुत पास गढी जा रही,
बेहद नई भाषा के दौर में,
खाज खुजली,
अचीन्हे की तिक्तता सा,
यह बार बार,
हर बार,
गुजरना तमाम लोगों का,
हो जाना जन जन की यही पुकार।
आँखों पर बंधी है पट्टी,
कपडे के गंदे थैले में कैद हैं थन,
भौंकता है कुत्ता पीछे-पीछे,
लीद, पेशाब और कीचड से सना रास्ता,
धूल और बेनूरी में पसरा,
शताब्दियों से यथावत,
क्या हुआ अगर अब भी है,
अबकी बार......।
खींच दे,
गर कोई नया रास्ता,
या लिख ही दे एक इबारत साफ सुथरी,
आकाश पर,
मारा जायेगा
गडरिये की गोलियों से।

जितेन्द्र बिसारिया की लम्बी कविता - जोगी

 जितेन्द्रमूलतः कथाकार हैं लेकिन कविताएँ भी लगातार लिखते हैं. लोक और इतिहास का एक सुन्दर और मानीखेज़ समन्वय उनके यहाँ समकालीन आख्यान की शक्ल ले लेता है. इधर नाथ सम्प्रदाय पर बात चली तो मुझे उनकी भेजी यह लम्बी कविता याद आई. आप भी पढ़िए 



जोगी!
आजमतजा
आजउत्तरकीहवाओंने
मुझसेकीहैकुछकानाबाती
आजफिरबेलाफूलेहैं
गुड़हलनेबिछायेहैंकुछअंगार
सेजआजफिरसूनीहै

जोगी!
आजफिरबिछड़ीहै
कोईसारसजोड़ी
किसिवानवालाताल
भरगयाहै
उसकीकरुणक्रेंकारसे
किमछलीफिरछलीगईहै
एकपदध्यानस्थबगुलोंसे
कितोड़ाहैदम
फिरकहीं
ज़ालमेंफंसीहिरनीने


जोगी!
बहुतडरलगताहै
दक्खिनयांहवाओंसे
किमेरेपिछवाड़ेवालेमहुएपर
उल्लू, खूसटियाँऔर
चमगादड़ोंकीशक्लमें
जैसेबैठेहैं
कोईइब्लीस

जोगी!
पहलेजबचैतकीचांदनीमें
होरहीहोतीमदकीबारिस
लेकरछबलियामैं
पहुँचजातीथीअकेलेही
फूलोंकेबहाने
चुननेअपनेहिस्सेकासुख
किमेरेबापकाग्वाला
वहाँमेरेपीछेहोता

जोगी!
प्रेममदमातेरहनेपरभी
उमंगइतनीबाबलीहोती
किकरडालेकिसीकानिरादर
पहुँचाएख़ललकिसीकेसुखमें
किमहुएकेसूखेपत्ते
पाकरमेरेपैरोंकापरस
तोड़देंकिसीकोयलकीनींद
छेड़देंकिसीचंचलचातकीकीप्यास
हमबहुतबच-बचकरचलते

जोगी!
लोक-लाजकाभयकिसेनहींहोता
औरकौनबापचाहताहै
किउसकीधियाएँ
फाहशाकहलाएं?
किउनकीइज़्ज़तकासुनहलाआकाश
बदनामीकेधब्बोंसेहोजाएस्याह
इसलिएउठादीगईंअसमयही
गाँवसेकईडोलियाँ
पारकरगईंकुछआपही
गाँवकीसरहद
किकुछभेजदीगईंदुनियासेगुपचुप
किचुननेचाहेंथेमर्ज़ीसे
उन्होंने
ख़ुदहीमहुएऔरकच्चेआम

जोगी!
गाँवतबभीगाँवथा
अपनीरौमेंबढ़ता
जबउसमेंकुछनयाजुड़ता
तोस्वतःहीकुछपुराना
घटजाताउसकीझोलीसे
कुछपैबंदथेउसकीगूंदड़ीमें
तोकुछलाल-जवाहरटँके
किहटनहींकीथीकभी
किसीशाहकिसीकंजरने
उसेएकरंगमेंरंगनेकी

जोगी!
सुनाहैइसबार
कोईरंगरेज़राजाबनाहै
पतानहींक्याखोटहैउसकीनज़रमें
याउसकीमकतबहीझूठीहै
किरंगनाचाहताहैसारामुल्क़
एकहीरंगमें
हाँकनाचाहताहैएकहीलाठीसे
साराझंग-सियाल, खेड़ाऔरतख़्तहज़ारा

जोगी!
जबसेउसकेराजकीबयार
बहीहैगाँव-गाँव
तोजैसेहवामेंज़हरहीघुलगयाहो
तेरात्रिशूलतोकुछभीनहीं
बहुतपैनीहैंउसकीधारें
किअबलेकरजिन्हें
घूमतेहैंगाँवकेकुछशोहदे
किउनकेरहतेकभीटिकीरहसकी
गरीबकेकांधेपरआबरूओंकीचादर
किगाँवमेंजिनकेपुरखे
पहलेसेखोदतेआए
भुखमरीकेगड्ढेऔर
ग़ैरबराबरीकीअंधीखाईयाँ
अबवहीतयकररहेहैं
मेरेदामनकीलंबाई
औरघूँघटकेमाप

जोगी!
अबतककिसीकोउज़्रथा
किटिल्लाजोगियाकहाँहो
औरकहाँपंचपीरोंकीमज़ार
परउन्हेंनामसेहीनफ़रतहै
काबाऔरकलीसासे
बेनहींचाहतेहोमेल
लालकाबैंजनीसे
बैंजनीकाहरेसे
हरेकासफ़ेदसे
औरसफ़ेदकास्याहसे
...तेरेबगलमेंजोसींगी
औरहाथमेंखप्परहै
पतानहींवेतुझसे
छीनलिएजाएँकब
क्योंकितूँमोमिनहै
महादेवकागोतीनहीं

जोगी!
काफ़िरहुआदिल
तोख़ुदाकोकौनमाने
मेरातोइश्कमज़हबथा
औरजातइश्क़मेरी
मैंनेराँझेकोमानाथा
किथींराँझेसेयारियांमेरी
परवक़्तबहुतबुराआयाहै
किक़ाज़ीबिकनेलगे
चंदअशर्फियाँईमानहुईं
तोहीरपराईहोगई

जोगी!
इनहवाओंमेंनफ़रतकेरंग
होरहेहैंइतनेगहरे
किकत्लो-गारतही
मज़हबहुआजाताहै
अम्नतेरेइकतारेमेंबचाहैशायद
मेरेदिलपरतो
ख़ंजरऔरशमशीरकासायाहै

जोगी!
डर-डरकरभला
कोईकितनाजिए
कितनामानेकोई
ज़मानेभरकीफ़रमाँबरदारियाँ
! आजठहरमेरीड्योढ़ीपर
छेड़अपनेइकतारेपरकोईइश्क़कीतान
किहीरफिरहीररहे
राँझाहोजाये
राँझाजोगीरहे
हीरहोजाये

जोगी!
देखतिरीकमरमेंछुपीबंसरी
मैंनेबहुतपहलेनिरखलीथी
बहुतपहलेहीमहसूसकरलियाथा
उनहवाओंको
जिन्होंनेतेरेआनेसेपहले
खाईथींतेरेआनेकीचुगलियाँ
मेरेराँझा-जोगी
मेरेजीणजोगिया!!!


                                                                   -जितेन्द्रविसारिया

'अनारकली ऑफ आरा’ - जीवन के विरोधाभासों के करीब


  • विभावरी 




अनारकली ऑफ आरा’ देखने की बहुप्रतीक्षित ललक, पहले हफ्ते के आखिरी दिन लगभग आखिरी शो देख कर खत्म हुई. किसी फिल्म को नकार देना बेहद आसान काम है बनिस्पत उस फिल्म से उन चीज़ों को निकाल लाने के जो एक दर्शक अथवा एक समाज के बतौर हमारे काम की हो सकती हैं. सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन नहीं है. यह जानते समझते हुए भी मैं यह नहीं समझ पाती कि तमाम जनता सिनेमा को सिर्फ़ और सिर्फ़ मनोरंजन के साधन के रूप में ही क्यों देखना चाहती है?? 
इस लिहाज़ से देखूं तो ‘अनारकली ऑफ आरा’ न सिर्फ़ इश्यू बेस्ड है बल्कि मनोरंजन के तत्वों से भी भरी हुई है. और ऐसी फिल्मों को अक्सर ‘मिडिल सिनेमा’ का नाम दे दिया जाता है. 

जब इस फिल्म का टीज़र देखा था तभी यह महसूस हुआ था कि फिल्म में एक अलग तरह का रुझान है. उस वक़्त यह अलगाव शायद ठीक ठीक समझ न आया था लेकिन जब फिल्म देखने का मौका मिला तभी यह बात एक रेखांकित हो पाई. अनारकली को यदि आप खांटी मनोरंजन के लिहाज़ से देखने जा रहे हैं तो आपको निराशा हाथ लगेगी और यदि आप इसे विशुद्ध समानांतर सिनेमा के नज़रिए से देखने की कोशिश में हैं तो भी शायद आपकी अपेक्षाएं पूरी न हों. दरअसल यह एक जबरदस्त ‘कॉटेंट’ के साथ एक नये तरह के ‘फॉर्म’ की फिल्म है. फॉर्म नया इसलिए क्योंकि अपने कितने ही फ्रेम्ज़ में यह फिल्म डॉक्यूमेंट्री सरीखी लगती है तो इसके अनगिनत दृश्य अस्सी के दशक के मुख्यधारा सिनेमा की याद दिलाते हैं! और यही विरोधाभास इस फिल्म की ख़ासियत है. कहने की ज़रूरत नहीं कि यह ख़ासियत ही इस फिल्म को जीवन के विरोधाभासों के और ज़्यादा करीब ले जाती है. 

 मनोरंजक सिनेमा, अक्सर दर्शकों के ‘अविश्वास को ख़ारिज’ (Suspension of disbelief ) करता है ताकि दर्शक, पर्दे पर चल रही घटनाओं में इतना रम जाए कि उसे सच मानने लगे और अपनी जिंदगियों के द्वंद्व अथवा संघर्षों का अंत, फिल्म के केन्द्रीय चरित्र के द्वंद्व (जीवन के) के अंत के साथ मान ले. ज़ाहिर है ऐसा सिनेमा दर्शक की मनोरंजन वृत्ति को तुष्ट करने के लिए ही बनाया जाता है. लेकिन कुछ फ़िल्में आंशिक रूप से इस सिद्धांत को लागू करते हुए भी दर्शक के मन में एक ऐसी बेचैनी बनाए रखने में कामयाब होती हैं जिसे दर्शक सिनेमा हॉल के बाहर साथ लेकर जाता है. और इस बेचैनी का इस्तेमाल वह सिनेमा के पर्दे के बाहर खुद की ज़िंदगी की बेहतरी के औजार के रूप में करता है. इस लिहाज़ से देखूं तो ‘अनारकली ऑफ आरा’ अपने फॉर्म के स्तर पर बेहद सजग है. ब्रेख्तियन थियेटर की शब्दावली में कहूँ तो उसमें ‘दर्शक को प्रेक्षक में बदलने की’ क्षमता है. इस फिल्म को देखते हुए मुझे कहीं से भी यह बात भूली नहीं कि मैं एक फिल्म देख रही हूँ जो हमारे हिंदी पट्टी के समाज में स्त्री को लेकर गढ़ दिए गए तमाम आग्रहों को तोड़ती है. 

स्त्री के लिहाज़ से यह समय, सिनेमा में एक बदलाव की आहट का समय है. पिछले कुछ दिनों में ‘पिंक’ और ‘पार्च्ड’ जैसी फ़िल्मों ने अलग अलग पृष्ठभूमियों में स्त्री के शरीर के प्रति उसके अधिकार को रेखांकित किया है और स्त्री की हाँ या ना के महत्त्व को स्थापित किया है. इसी क्रम में ‘अनारकली...’ अपने क्लाइमैक्स के इस संवाद के साथ कि ‘रंडी हो या रंडी से थोड़ी कम, या बीवी, मर्ज़ी पूछ कर हाथ लगाना.’ अपने शरीर पर हक़ के लिहाज़ से एक औरत के संघर्ष का सम्पूर्ण निचोड़ प्रस्तुत करती है. फिल्म यह स्थापित करती है कि वह औरत जिसका पेशा नाचना – गाना है और सामाजिक अर्थों में वह भले ही ‘सती-सावित्री’ नहीं है लेकिन उस औरत की भी अपनी मर्ज़ी है, अपनी इज्ज़त है. फिल्म में स्वरा का वह संवाद कि ‘लोग सोचते हैं हम गाने वाले हैं तो कोई आसानी से बजा भी देगा...लेकिन अब अइसा नहीं होगा.’ से यह किरदार एक ऐसे विचार की शक्ल अख्तियार करता लगता है जो आज भी हमारे ‘संभ्रांत’ समाज के तमाम विमर्शों का हिस्सा नहीं है. यह वही समाज है जो एक तरफ तो ऐसी औरतों के विषय में बात करने भर से भी बचता है. तो दूसरी तरफ ‘संभ्रांतता’ के इस चोले के भीतर निहायत लिजलिजा सामंती पुरुषवाद बसता है और उसे इन औरतों से न केवल ‘लगाव’ है बल्कि एक स्तर पर वे ऐसे पुरुषों की हद दर्जे की बेवकूफाना ‘लत’ जैसी भी हैं. 

 जब छोटी थी तो दूरदर्शन पर आने वाली कला-फ़िल्में देख कर सोचती थी कि ये फ़िल्में इतनी रंगहीन और बोरिंग क्यों हैं! बड़ी हुई तो पता चला कि धूसर जिंदगियों का सच, रंगीन चश्मे से शायद उतना ठीक नहीं दिखता. लिहाज़ा वह सिनेमा ज़्यादा विश्वसनीय होता है जो ‘कथ्य’ के मार्फ़त अपने ‘रूप’ की तलाश करता है. अनारकली ऐसी ही एक फिल्म है जो आपको परियों की किसी कहानी जैसी नहीं लगेगी. उसके कॉस्टयूम जितने चमकदार हैं, ज़िंदगी उतनी ही स्याह. उसकी शख्सियत में जितनी ताब है समाज में उसकी जगह उतनी ही संकुचित. कहने की ज़रूरत नहीं कि यह द्वंद्व ही जीवन का सच है शायद! अनारकली को यह स्याह ज़िंदगी और यह संकुचित जगह विरासत में मिली है. बावजूद इसके अपने ही गाँव जवार के किसी आर्केस्ट्रा में गाने वाली सामान्य सी लड़की के भीतर अपने आत्मसम्मान के लिए मौजूद ताकत आपको आश्चर्य चकित कर सकती है...और यह बात इस फिल्म को खास बनाने के लिए काफी है. 

फिल्म की कुछ बातें जो अब तक ज़ेहन में बची रह गयीं हैं उन तमाम महत्वपूर्ण बातों में पहली बात यह है कि यह अविनाश दास की बतौर डायरेक्टर, डेब्यू है और एक लंबी संघर्षपूर्ण यात्रा के बाद फिल्म बना पाने की सलाहियत के लिहाज़ से शानदार डेब्यू है. इसके लिए अविनाश दास के जज़्बे को सलाम करना बनता है. उनके ब्लॉग ‘मोहल्ला लाइव’ पर सिने-समीक्षाएँ लिखते हुए और ‘सिने बहसतलब’ व ‘पटना लिटरेचर फेस्टिवल’ में उनके साथ काम करते हुए मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा है. तब मुझे नहीं पता था कि एक दिन उनकी फिल्म पर भी अपनी प्रतिक्रिया लिखूंगी. 

 दूसरी महत्त्वपूर्ण और रेखांकित करने वाली बात निःसंदेह स्वरा भास्कर की बेहतरीन अदाकारी है जो मेरे लिए अप्रत्याशित नहीं थी. पिछली तमाम फिल्मों में उनकी एक्टिंग लगातार एक पायदान आगे बढ़ती जा रही है. और यह बात बिना किसी शक-ओ-शुबहा के कही जा सकती है कि वे हमारे दौर की उन चंद संभावनाशील अभिनेत्रियों की जमात में शामिल हैं जिनकी वजह से हिंदी सिनेमा को गर्व महसूस करना चाहिए. ‘अनारकली’ के इस किरदार को निभाते हुए उनकी बेहतरीन डायलॉग डिलीवरी और चरित्र की मनोनुकूल भंगिमाओं का समायोजन सिनेमा हॉल से बाहर निकलने के बाद भी दिलो-दिमाग पर बाक़ी रह जाता है. इस ज़बरदस्त परफॉर्मेंस के लिए उनको बधाई. चूँकि वे जवाहर लाल नेहरु वि.वि. से भी सम्बन्ध रखतीं हैं इसलिए उनके प्रति एक विशेष लगाव भी है. और यह बात कहने की शायद ज़रूरत नहीं कि उनकी एक्टिंग के सन्दर्भ में कही गयी उपरोक्त बातें इस लगाव से बाहर रहते हुए लिखीं गयीं हैं.

इस फिल्म के प्रतीकात्मक प्रभाव पर बात करते हुए मुझे वह दृश्य विशेष तौर पर याद आ रहा है जहाँ ‘अनारकली’ के घर में तोड़-फोड़ करने के बाद कुछ गुंडे उसका पीछा कर रहे हैं. ...और तमाम गलियों कूचों से होती हुई उनसे बचने के लिए अनारकली भाग रही है. उस पूरे सीक्वेंस में मुझे जो बात सबसे ज़्यादा खटक रही थी, वह अनारकली के दुपट्टे का उसके दौड़ने में बाधा बनना थी. उस दृश्य को देखकर अनायास यह सवाल ज़ेहन में आता है कि यह लड़की इस दुपट्टे को छोड़ क्यों नहीं देती!! लेकिन अनारकली न सिर्फ़ उन गुंडों से बचती हुई बल्कि अपने दुपट्टे से भी संघर्ष करती हुई दिखाई गयी है. अपनी प्रतीकात्मकता में यह दृश्य, दुपट्टे के मार्फ़त औरत के अस्तित्व पर लाद दिए गए अथवा आरोपित कर दिए गए पितृसत्तात्मक मूल्यों और मान्यताओं का प्रतिनिधित्व करता है. इन मान्यताओं के बोझ तले दबी औरत के जीवन का संघर्ष निःसंदेह और गहराता जाता है. 

दूसरी प्रतीकात्मक व्याख्या के तौर पर मुझे ‘हीरामन’ का किरदार याद आता है जो ‘देश के लिए खा लीजिए या गा दीजिए’ कहते हुए एक तरफ इस ‘राष्ट्रवादी’ समय पर गहरे तक व्यंग्य करता है तो दूसरी तरफ अपनी आँखों और संवादों से ‘अनारकली’ के प्रति अपनी मासूम चाहत का इज़हार करता हुआ ‘तीसरी कसम’ में रेणु के ‘हिरामन’ की याद दिलाता है. हाँ ये ज़रूर है कि अनारकली के रूप में उसे हीराबाई नहीं मिलती (और अनारकली उसे भईया बोलती है!!) या कि अनारकली के लिए वह ‘मीता’ नहीं बन पाता. इस किरदार की ऐसी परिणति कई मायनों में फिर से ‘हिरामन’ की परिणति की याद दिलाती है जहाँ उसे हीराबाई मिल कर भी नहीं मिल पाती. हमारे समाज की ऐसी मासूम चाहतों की परिणतियाँ, बिल्कुल ऐसी ही होती हैं. हीरामन के किरदार के रूप में इश्तेयाक खान याद रह जाते हैं. 

फिल्म प्रतीकात्मकता के स्तर पर ऐसे कई दृश्यों और सीक्वेंसेज़ से भरी हुई है जिन्हें अन फोल्ड करने के लिए इस फिल्म को दोबारा देखे जाने की ज़रूरत महसूस होती है. 

पंकज त्रिपाठी और संजय मिश्रा जैसे मंझे हुए कलाकारों के साथ यह फिल्म सृजनात्मक स्तर पर लगातार खूबसूरत होती जाती है.

फिल्म के गीतों की बात करूँ तो चाहे वह ‘मोरा पिया मतलब का यार’ हो या ‘ए सखि ऊ, ना सखि बदरा’ हो ‘मेरा बलम बम्बइया’ हो या ‘मन बेक़ैद हुआ’ हो रविंदर रंधावा, डॉ. सागर, और रामकुमार सिंह जैसे गीतकारों ने बहुत ही खूबसूरती से फिल्म के कथ्य का साथ निभाया है.

अपनी बात खत्म करते हुए यदि, अपने प्रिय स्टार शाहरुख खान की फिल्म का डायलॉग उधार लूँ कि ‘अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो तो पूरी क़ायनात उसे तुमसे मिलाने की कोशिश में लग जाती है’ तो कहूँगी कि ऐसा फिल्मों में तो होता है...लेकिन फिल्म बनाने का सपना देखने वाले लोगों के साथ यह बिल्कुल नहीं होता. और असल ज़िंदगी में ठीक इसके उलट होता है...बावजूद इसके अविनाश सर ने यह फिल्म बनाई और क्या खूब बनाई! ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ उन्हें और उनकी पूरी टीम को फिर से बधाई! पूरी टीम के साथ साथ अविनाश सर के संघर्षों की साथी स्वर्ण कान्ता दी को इस फिल्म के लिए ढेर सारी बधाई दिए बिना मेरी बात कतई पूरी नहीं हो सकती.


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पेशे से अध्यापक विभावरी फिल्मों की रसिया भी हैं और अध्येता भी. उनका शोध कार्य भी फिल्मों पर ही है जिसके जल्द ही किताब के रूप में सामने आने की उम्मीद है. 

संपर्क : vibhavari2080@gmail.com 

उपासना झा की कविताएँ

 उपासना झाने ढेर सारे उपक्रम किये हैं, होटल मैनेजमेंट से लेकर हिंदी में मास्टरी तक. उनकी कविताएँ अभी एकदम हाल में सामने आई हैं और उम्मीद जगाने वाली हैं. भाषा का एक सौष्ठव है उनके यहाँ जो विषय को गतिमान बनाता है. मैं फिलहाल इसे किसी विमर्श का नाम नहीं दूँगा लेकिन एक मध्यवर्गीय स्त्री के जीवन के विश्वसनीय चित्र उनके यहाँ जिस तरह आते हैं वे भविष्य की और गहन, और मानीखेज़ कविताओं की राह खोलते हैं. असुविधा में उनका स्वागत.



उदास औरत

(एक)

जब तय था कि समझ लिया जाता
मोह और प्रेम कोई भावना नहीं होती
रात को नींद देर से आने की
हज़ार जायज़ वजहें हो सकती हैं
ज़रा सा रद्दोबदल होता है
बताते हैं साईन्सगो,
हार्मोन्स जाने कौन से बढ़ जाते हैं
इंसान वही करता है
जो उसे नहीं करना चाहिए
गोया कुफ़्र हो 

जब दीवार पर लगे कैलेंडर पर
दूध और धोबी का हिसाब भर हो तारीखें
उन तारीखों का रुक जाना
क्या कहा जायेगा 

साल के बारह महीने एक सा
रहनेवाला मौसम अचानक
बदल जायेगा तेज़ बारिश में,
जब ऐसी बरसातों में वो पहले
भीग कर जल चुकी थी,
जब मान लिया जाना चाहिए
कि ज्यादा पढ़ना दिमाग पर करता है
बुरा असर
ये तमाम किताबें और रिसाले
वक़्त की बर्बादी भर हैं
जो इस्तेमाल किया जा सकता था
पकाने-पिरोने-सजाने-संवारने में
और बने रहने में तयशुदा

जब समझ लिया गया था
चाँद में महबूब की शक़्ल नहीं दिखती
न प्यार होने से हवाएं
सुरों में बहती हैं
न धूप बन जाती है चाँदनी
न आँसू ढल सकते हैं मोतियों में
न जागने से रातें छोटी होती है

उस उम्र में अब ऐसा नहीं होना था
उन उदासी से भरे दिन-दुपहरों में
हल्दी और लहसन की गंध
में डूबी हथेलियों वाली
औरत को उसदिन
महसूस हुआ कि उसके पाँव
हवा में उड़ते रहते हैं।
उसने कैलेंडर पर एक और
कॉलम डाला है-
रोने का हिसाब....

(दो)
उस बेकार, मनहूस औरत ने
कई दिनों से आइना नहीं देखा था
उसे हुक़्म था कि फ़ालतू के कामों में
वक़्त जाया न किया जाए
बेध्यानी में एक दिन
उस औरत ने कैलेंडर पर
एक तारीख़ के नीचे
लिख दिया था कि 'रोना है' 

वो तारीख़ कब की बीत गयी थी
बीत गयी बारिशों की तरह
उसे फ़ुरसत का एक दिन चाहिए था
जब वो रोने का हिसाब करे
दिन बीत जाते थे
तवे पर पड़ी पानी की बूंदों से
ऐसे में उसने एक दिन आइना देखा
रातों की स्याही आँखों के नीचे देखी
उसने वो कैलेंडर उतारकर
कल रात हाथ सेंक लिया
और अपने बदन की कब्र में
कुछ और आँसू दफ़्न किये। 


(तीन)
औरत की पीठ पर एक तिल था
और एक था उसकी दाईं कान के नीचे
दुनिया के सब हसरतें
उन दो हिस्सों में कैद थीं,

औरत अक़्सर जोर-जोर से हँसती
और बदले में सुनती
'कैसे हँसती हो तुम के ताने'
आँखों में पढ़ती 'पागल औरत' 

औरत डरती नहीं थी पिंजड़ों से
सदियों से साथ रहकर
वो जानती थी जंजीर भी
उसकी ही तरह बेबस है
पीठ के तिल से जरा नीचे
कोई नीला निशान नहीं होता था
न ही दाएं कान के पास
होती थी कोई खरोंच
दोनों हाथ उठाकर जूड़ा बाँधते हुए
औरत अक्सर बुदबुदाती थी
शायद कोई प्रार्थना या
किसी बिसरे यात्री का नाम



लौटना और भूलना

खिड़कियों पर जमी ओस पर
मैं उकेरूँगी कोई आसान चिन्ह
कोई सीधी लकीर या कोई टूटता तारा
या कुछ भी जो न लिखे तुम्हारा नाम
सुबह सुने जा सकते हैं कई स्वर
कई धुनें, कई राग-रागिनियाँ
कई बूझ-अबूझ संगीत भी
जो भुला रखे तुम्हारी आवाज़ पहनने की लत
सुबह की जा सकती हैं कई प्रार्थनाएं
रात की कई धुँधली कामनाओं के बाद
उन प्रार्थनाओं में तुम न आओ 

एक अधजली इच्छा रखूँगी दिए की जगह
किसी सुन्दर कविता की किसी ठहरकर
पढ़ी जाने वाली पँक्ति को पढूँगी
बिना तुम्हारी मुस्कान याद किये
बिना तुम्हारे चेहरे की छांह छुए
रंग-फूल-गंध-धूप-हवा-पानी-रात-दिन
सब शाश्वत हैं फिर भी बदल जाते हैं

मर जाना नहीं होता साँस लेना बंद करना
जन्म लेना नहीं होता है नयी देह पाना
मैं इस तरह कई छोटे कदम चलूँगी
वापसी की ओर,
लौट आना और भूल जाना दोनों
लगते एक हैं, होते अलग हैं..



धुंधली इबारत

कई स्थगित आत्महत्याओं की
धुंधली इबारत
होते हैं हम सभी
कभी न कभी
दर्ज़ है जिसमें पहली दफ़ा
और उसके बाद कई बार
दिल का टूट जाना
उतनी ही बार दर्ज़ है ये शिक़ायत
कि दुनिया ज़ालिम है।
उस खंडहर पर एक आइना है
जिसमें चमकता है वो गहरा घाव
बड़ा गहरा
उस दिन का निशान लिए
जब अपने चारों उगाये थे कई बाड़
कई टूटी हुई, छूटी हुई शामें
और कई बिखरे हुए यकीन
उन नामों के साथ समय ने उकेर
दिए हैं
जो नाम खुद के नाम से ज़्यादा
अपने लगते थे
उन धुँधली-ढहती इबारतों में दर्ज हैं
कई चाँद-राते
कई सूने दिन
कई सर्द क़िस्से
कई रिसते रिश्ते
कई सख़्त रस्ते
जिनसे गुज़रे हैं
हम सभी... कभी न कभी

संज्ञा उपाध्याय की कविताएँ




 लमही के ताज़ा अंक में संज्ञा की कविताएँ देखना मेरे लिए सुखद आश्चर्य सा था.कविताओं की वह गंभीर और सहृदय पाठक है, यह  मैं  जानता था और यह भी कि उसने कभी-कभार जो कविताएँ लिखी हैं, उनके प्रकाशन को लेकर कभी उत्साहित नहीं रही. कहानियाँ उसकी आई हैं, बच्चों के लिए ख़ूब लिखा है और कथन के समय उसके वैचारिक लेखन से हम सब परिचित और प्रभावित रहे हैं. 

लेकिन इन कविताओं को पढ़ते यह मान पाना बेहद कठिन है कि ये उसकी आरम्भिक कविताएँ हैं. भाषा की जो सहजता यहाँ है और जिस तरह का मितकथन है, वह आपको रोकता है और कवि के साथ दूर तक ले जाता है. यहाँ निज से सार्वजनीन तक की वह यात्रा है जो एक कविता को व्यापक पाठक वर्ग के लिए अपनी कविता बनाती है, वह इसमें अपने जीवन की छवियाँ देख पाता है. इन्हें पढ़ने के बाद मुझे उससे और कविताओं की उम्मीद रहेगी...



भय नहीं घुल-धुल जाने का


दिन भर धूपमेंतपी
सूखी सूनी सड़क पर चलते हुए बेखयाली में
बारिश और तुम
बस यहीहैख़यालमें.
 
ठीक इन्ही शब्दोंमेंयही पूरी बात
चलते-चलते टाइप करती हूँ एक मैसेज में  
भेजती हूँ और इंतज़ार भूल जाती हूँ
जानती हूँ ख़ूब बरसात हो रहीहैतुम्हारे शहरमें
मेरा मैसेज भीग रहाहैउसीमेंजी भर.
 
तकनीक को धता बता अलमस्त
यहाँ-वहाँ भागता भीग रहा है बस.
बेपरवाह कि भय नहीं घुल-धुल जाने का.

मन भर मन की कर
तर-ब-तर
पहुँचताहैतुम तक...

मेरे मोबाइल मेंबिजली कौंधती है
तुमने लिखाहै--बारिश!
और मैं भीगती हूँ...



रास्ते में

वह जो सिर झुकाये बैठा है
अभी ज़रा देर में सिर उठायेगा
सधी आँखों से देखेगा दूर
न दिखती अपनी मंज़िल की ओर
और चल देगा

सिर झुकाना हमेशा हताशा में कहाँ होता है!


तुम ही यह कर सकती हो

तुम ही यह कर सकती हो, नदी!
दुखों, तकलीफों, तिक्त अनुभवों के भारी नुकीले चुभते पत्थर
सब के सब मृदु स्मृतियों में बदल देती हो
तुम ही यह कर सकती हो, नदी!
फिर चाहे तुम में पानी बहे कि वक्त...


लव्ज़ मी...लव्ज़ मी नॉट...

फूल हाथ में लेती हूँ
एक-एक कर इस यकीन से तोड़ती हूँ
सारे डर और शुबहे
कि आखिरी पंखुड़ी के साथ हर बार
बचा रह जाता है उम्मीद की तरह प्यार


उम्मीद

उमस रही बस की खिड़की से बाहर तकता बच्चा
बादलों संग भाग रहा है आसमान में
बादल कहाँ जा रहे हैं?
माँ के सूखे गले से बहलाने का चालाक सुर नहीं
उम्मीद की खनक फूटती है--
पानी लाने

अपनी आवाज़ में किसान पिता का स्वर सुन
चौंक जाती है
मुस्कराती है
बादल अब भी उम्मीद का पानी लाने ही जाते हैं.

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Email : upsangya@gmail.com



कश्मीरी कविता की तीन पीढ़ियाँ

कश्मीरी कविता की तीन पीढ़ियों की ये कविताएँ वागर्थ के लिए अनुवाद की थीं. अब यहाँ आपके लिए 
  • अशोक कुमार पाण्डेय 


गुलाम मोहम्मद महजूर


3 सितंबर 1885 को श्रीनगर से कोई 37 किलोमीटर दूर नेत्रगाम,पुलवामा मे जन्मे गुलाम मोहम्मद महजूर को कश्मीर का पहला आधुनिक कवि माना जाता है। लल द्यद,नुंद ऋषि और हब्बा ख़ातून की ही परंपरा मे महजूर ने कश्मीरी मे अपने क़लाम लिखे। ब्रिटिश-डोगरा की विसंगतियाँ और उसके खिलाफ़ आम कश्मीरी के गुस्से,बेबसी तथा आज़ादी की तड़प महजूर के यहाँ अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति पाती है। कश्मीरियत की धर्मनिरपेक्ष परंपरा को उन्होने बेहद स्थानीय प्रतीकों के सहारे अपनी नज़मों और ग़ज़लों मे ढाला तो वह नए कश्मीर की आवाज़ बन गए। उनकी कविताओं के दो संकलन उपलब्ध हैं,साहित्य अकादमी द्वारा 1988 मे प्रकाशित “पोएम्स ऑफ महज़ूर” और जम्मू और कश्मीर अकादमी ऑफ आर्ट,कल्चर एंड लेंगुएजेज़ द्वारा प्रकाशित त्रिलोकी नाथ रैना का अनुवाद “बेस्ट ऑफ महज़ूर।”







आज़ादी

आओ शुक्राना अदा करें
कि आ गई है आज़ादी हम तक
कितने युगों के बाद
हम पर नाज़िल हुआ है उसका नूर।

मगरिब मे आती है आज़ादी तो
रौशनी और इनायत की बारिश के साथ
लेकिन हमारी धरती पर आई है जो
तो बस एक सूखे,बांझ बादल की तरह

गुरबत और भूख
दमन और अराजकता -
आई है वो हम तक
तो बस इन्हीं ख़ुशनुमा असीसों के साथ

आसमानी पैदाइश है तो नहीं भटक सकती
इस दरवाज़े से उस दरवाजे तक आज़ादी
बस कुछेक घरों मे दिखती है
आराम फरमाती हुई

हमेशा कहती है वह नहीं करेगी बर्दाश्त
कि दौलत किसी निजी हाथ मे रहे
तो निचोड़ रहे हैं वे दौलत
हर किसी के हाथ से

हर घर मे पसरा है मातम
लेकिन अपने एकांत बागीचों मे
हमारे शासक दूल्हों की तरह
मिलजुलकर भोग रहे हैं आज़ादी को

नबीर शेख़ जानता है आज़ादी के मानी
क्यूंकि उठा ली गई उसकी औरत
तब तक करता रहा वह फरियादें
जब तक उसकी बीबी को नहीं मिल गई आज़ादी एक नए घर मे। 

सात बार तलाशी ली उन्होने उसकी काँख की
कि कहीं चावल न चुरा रखा हो
फिर शाल से ढँकी एक टोकरी मे
ले आई किसान की बीबी आज़ादी को घर

हर दिल मे है एक बेचैनी
पर किसी की हिम्मत नहीं कि खोले जुबान
डर यह कि उनकी आज़ाद जुबानों से
कहीं रूठ न जाये आज़ादी।




उठो ए बागबाँ

उठो ए बागबाँ !और एक नई बहार की चमक की ओर चलो
बनाओ हालात ऐसे कि चहचहा सके बुलबुल खिले हुए गुलों पर

उजाड़ बागीचों का मातम मनाती है ओस
परेशान गुलाबों ने फाड़ ली हैं अपनी पोशाकें
नई ज़िंदगी भर दो फूलों और बुलबुलों मे

जड़ से उखाड़ दो बागीचे से ज़हरीली झाड़ियों को ;बर्बाद कर देंगी ये फूलों को
खिलने वाले हैं गलीचे सुंदर फूलों को उन्हें खिलखिलाने दो

मादर-ए-वतन की मुहब्बत मे डूबना सरापा फबता है मर्द को
भर सकोगे यह भरोसा तो ज़रूर मिलेगी तुम्हें मंज़िल

कौन आज़ाद कराएगा तुम्हें मेरी बुलबुल,अगर तुम शोक मनाती रहोगी अपने कफ़स मे
अपने हाथों से करो कोशिश अपनी आज़ादी की

कौन आज़ाद कराएगा तुम्हें मेरी बुलबुल
जबकि ताक़त और दौलत अमीरी और शाही शान सब हैं तुम्हारी पहुँच मे
केवल पहचानना है तुम्हें उनको

ढेरों चिड़ियाँ चहचहाती हैं चमन मे लेकिन अलग अलग हैं उनके सुर
ऐ खुदा पिरो दे उन्हें एक पुरअसर तराने मे  

अगर तुम सच मे चाहते हो जगाना इस आलसी आशियाने को तो छोड़ो बीन बजाना
उठाओ जलजले और बादलों की गड़गड़ाहट,तेज़ बवंडर उठाओ।

फिर से फैल जाएगी कश्मीर की शान दुनिया भर मे अगर तुम
ताज़ी भट्ट,ललिताडित्य और मुबारक खान जैसे हीरे पैदा कर पाओ।

फिर चलेंगी दफ्तरी कलमें तुम्हारी मर्ज़ी से अगर तुम
ज़िया भान जैसे किसी को इस नए ज़माने मे पैदा कर पाओ

झुकेंगे ईरान के अहले क़लम इज्ज़त से तुम्हारे सामने अगर तुम
ग़नी जैसा जादू अपने क़लमों मे पैदा कर पाओ

मज़हूर ने शायरी की दुनिया मे खिला दिये हैं गुलाब
अब इस रंगीन चमन के लिए कोई बुलबुल भी ले आओ


आग़ा शाहिद अली

आग़ा शाहिद अली कश्मीर के सबसे सम्मानित कवियों मे से हैं। उनका कविता संकलन “अ कंट्री विदाउट अ पोस्ट ऑफिस” बेहद चर्चित रहा है। 4 फरवरी 1949 को कश्मीर के एक प्रतिष्ठित परिवार मे जन्में आगा साहब ने श्रीनगर,दिल्ली और अमेरिका मे पढ़ाई की और फिर अमेरिका मे ही बस गए,जहां 2001 मे उनकी मृत्यु हुई। कश्मीर के लापता पतों पर लिखी चिट्ठियों सी उनकी कविताएँ हमें उस अभिशप्त स्वर्ग को देखने की नई दृष्टि देती हैं। 


हिममानव

मेरा पुरखा,हिमालय की
बर्फ़ का बना इंसान
समरकन्द से आया था कश्मीर
व्हेल की हड्डियों का झोला लटकाए :
विरासत नदी की कब्रगाहों की।
  
उसका अस्थिपिंजर
ग्लेशियरों से बना था,उसकी सांस आर्कटिक की थी
अपने आलिंगन मे जमा देता था वह स्त्रियों को
उसकी पत्नी गल गई पथरीले जल मे
बूढ़ी उम्र मे एक स्पष्ट
वाष्पीकरण।

यह विरासत
मेरी खाल के नीचे उसका अस्थिपिंजर
बेटे से पोतों तक जाता
पीढ़ियाँ हिममानव की मेरी पीठ पर
वे हर साल मेरी खिड़की खटखटाते हैं
उनकी आवाज़ें बर्फ़ मे खामोश हो जाती हैं।

ना,वे मुझे जाड़े से बाहर नहीं जाने देंगे
और मैंने वादा किया है ख़ुद से
कि अगर आख़िरी हिममानव भी हूँ मैं
तो भी उनके पिघलते कंधों पर चढ़कर
जाऊंगा बसंत तक। 


उर्दू सीखते हुए


जम्मू के पास के एक ज़िले से आया था वह
(उसकी उर्दू मे डोगरी लड़खड़ा रही थी)
उन्नीस सौ सैंतालीस मे एक महाद्वीप के
दो हिस्सों मे टूटने का शिकार
उसने बताया टुकड़ों मे बंटी हवा खाने के बारे मे
जबकि लोग लहू के अलफाज मे,मृत्यु के अक्षरों मे
नफ़रत मे डूबे हुए थे।     

'मुझे केवल वह आधा लफ़्ज़ याद है
जो मेरा गाँव थाIबाक़ी मैं भूल चुका हूँ।
मेरी स्मृति रक्त रेखा की है
जिसके पार मेरे दोस्त किसी मृत शायर के
तिक्त अशआर मे डूब गए।”

वह चाहता था मुझे सहानुभूति हो। मैं नहीं कर पाया महसूस।
मेरी केवल उन तिक्त अशआर मे रुचि थी
जिन्हें मैं उसे समझाना चाहता था।

वह कहता गया ,
'और मैं जो जानता था मीर को,दीवान ए ग़ालिब के हर शेर ने
शायरी को लहू के अल्फ़ाज़ मे डूबता हुआ देखा।”

उसे अब कुछ भी याद नहीं जबकि मैं पाता हूँ
ग़ालिब को भाषाओं के चौराहे पर किसी भी ओर बढ़ने से इंकार करते
मेरे दया के थियेटर को देखने के लिए
भिखारी होने का ढोंग करते।



 नीरज नवाज़  



श्रीनगर मे रह रहे नीरज कश्मीर की सबसे युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं। उनकी कविताएँ खासतौर से पिछले एक दशक मे बद से बदतर होते गए कश्मीर के हालात की गवाही हैं।






बंदी मैं

क पतंग की तरह
मैं नाच रहा हूँ तूफान मे
हक़ीक़त का सामना करते हुए अब
अपनी तक़दीर से अन्जान
सड़कें भरम से भरी हैं
और ख़्वाब खो गए हैं

ओ क़िस्मत की रेखा
या तो थाम लो मुझे
या जाने दो
कर लेने दो मुझे दोस्ती इस तूफान से
मेरे अपने खयालात का तूफ़ान
आदी अपने फटते हुए किनारों का

तुम्हारी रेखा के धागे
हर घुमाव के साथ
कस रहे हैं मुझे और ज़्यादा
उसने धोखा दिया है मुझे
जिसको समर्पित था मैं
और अब भी नहीं कहता मैं उसे गद्दार

अपनी भावनाओं के दरिंदे को
क़ैद कर लिया है अब मैंने
उम्मीदों को कर दिया है दफन गहरे
और दर्द भरी चीख़ों को
अब दबा दिया है मैंने
एक पागल की हँसी में।

प्रदीप अवस्थी की कविताएँ

प्रदीप अवस्थी की कविताओं ने इधर लगातार प्रिंट में तथा ब्लॉग्स पर अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज़ की है. उनकी कविताएँ एक असंतुष्ट युवा की कविताएँ हैं, कई बार भाषिक संयम तोड़ डालने की हद तक  दुःख और क्रोध के बीच एक मुसलसल सफ़र करती हुई और इस रूप में हिंदी की प्रगतिशील-जनवादी परम्परा से सीधे जुड़ती हैं. असुविधा पर उनकी कविताएँ पहली बार आ रही हैं. उनका आभार और उम्मीद की हमें आगे भी उनका सहयोग मिलता रहेगा.




फिर नहीं लौटे  ! पिता

हाफलौंग की पहाड़ियाँ हमेशा याद रहेंगी मुझे   

     वॉलन्टरी रिटायरमेंट लेकर कोई लौटता है घर 
     बीच में रास्ता खा जाता है उसे
     दुःख ख़बर बन कर आता है
     एक पूरी रात बीतती है छटपटाते 
     सुध-बुध बटोरते

     अनगिनत रास्ते लील गए हैं सैकड़ों जानें
     एक-दूसरे से अपना दुःख कभी न कह सकने वाले अपने
     कैसे रो पाते होंगे फूट-फूट कर  
     
     असम में लोग ख़ुश नहीं है
     बहुत सारी प्रजातियाँ अपनी आज़ादी के लिए लड़ रही हैं
     उनके लिए कोई और रास्ता नहीं छोड़ा गया है शायद  
     हथियार उठाना मजबूरी ही होती है यक़ीन मानिए 
     कोई मौत लपेटकर चलने को यूँ ही तैयार नहीं हो जाता  

     आप देश की बात करते हैं,
     युद्ध की बात करते हैं,
     देश तो लोग ही हैं ना !
     उनके मरने से कैसे बचता है देश ?

     बॉर्डर पर, कश्मीर में, बंगाल में, छत्तीसगढ़ में, उड़ीसा में, असम में
     मरते हैं पिता
     उजड़ते हैं घर
     बचते हैं देश

     अख़बारों में कितनी ग़लत खबरें छपती हैं, यह तभी समझ आया  
     
     सामान लौटता है !
     गोलियों से छिदा हुआ खाने का टिफ़िन,
     रुका हुआ समय दिखाती एक दीवार घड़ी,
     बचपन से ख़बरें सुनाता रेडियो,
     खरोंचों वाली कलाई-घड़ी,
     खून में भीगी मिठाइयाँ,
     लाल हो चुके नोट,
     वीरता के तमगे,
     और धोखा देती स्मृति  
     
     कितनी बार आप लौट आए
     वो मेरी नींद होती थी या सपना या कुछ और
     जब चौखट बजती थी और आप टूटी-फूटी हालत में आते थे
     फिर कुछ दिनों में चंगे हो जाते थे
     ऐसा मैंने कुछ सालों तक देखा
     अब वो साल तक नहीं लौटते

     हर बार सोचा कि
     इस बार जब आप आएंगे सपने में
     तो दबोच लूँगा आपको
     सुबह उठकर सबको बोलूंगा कि देखो
     लौट आए पापा
     मैं ले आया हूँ इन्हें उस दुनिया से
     जहाँ का सब दावा करते हैं कि नहीं लौटता कोई वहाँ से,
     ऐसी सोची गई हर सुबह मिथ्या साबित हुई

     काश फिर आए ऐसा कोई सपना
     फिर मिल पाए वही ऊर्जा
     एक घर को
     जो पिता के होने से होती है

     हे ईश्वर !
     कोई कैसे यह समझ पैदा करे कि बिना झिझके सीख पाए कहना
     “पिता नहीं हैं”  

    और कितनी भी क़समें खाते जाएँ हम
    कि नहीं आने देंगे किसी भी और का ज़िक्र यहाँ
    पर एक समय था, एक शहर था बुद्ध का, एक साथ था,
    फल्गु नदी बहती थी ,
    विष्णुपद मंदिर में पूर्वजों को दिलाई जाती थी मुक्ति
    हम यहाँ दोबारा आएंगे और करेंगे पिण्ड-दान
    ऐसा कहती, भविष्य की योजनाएँ बनाती एक लड़की
    जा बैठी है अतीत में कहीं

    आख़िरी स्मृतियों में बचती है रेल,
    प्लेटफार्म पर हाथ हिलाते हुए पीछे छूट जाना
    उस आख़िरी साथ में पहली बार उन्होंने बताए थे अपने सपने  
    
    सात साल पहले इसी दिन वो लौटे
    हमने उन्हेँ जला दिया
    फिर कभी नहीं लौटे
    पिता ।  


गर्व ना करे, रोये

एक को ग़ायब किया (जो अब तक ग़ायब है )
एक को जेल में डाला ( कोर्ट परिसर में मारा पीटा )
एक को मार दिया ( वो छोड़ गया अपना लिखा )

देश ने अपना बेटा खोया
ऐसी आवाज़ आयी फिर एक मंच से

हमने ख़ुशी मनायी, न्यूज़ चैनल्स ने बताया
कि देखो मार आये घुसकर उनको
अपने कितने मरे ये गिनने का वक़्त आया तो विराट कोहली छक्के मार रहा था

जैसे क्रिकेट में शतक, द्विशतक या त्रिशतक लगने पर
झूम उठता है पूरा देश
वैसे ही सरहद पर तीन लाशें गिरने पर कभी रोये पूरा देश
बस !
गर्व ना करे, रोये.

गर्व ना करे मृतकों पर कि बहादुरी से लड़ते हुए मरे
सवाल पूछे और सोचे कि आख़िर कहाँ और क्यों बार बार
असफल होते हैं हमारे हुक्मरान

अक्सर तो वे ख़ुद ही रचते हैं माहौल युद्धोन्माद का

उनका मरना ही उनके जीवन की सार्थकता है
ऐसा तय किया गया था

फ़र्क नहीं पड़ता था उनके मरने से
लेकिन हमारी छातियों को फूलने का अवसर मिल जाता था
अपने जीवन में कुछ नहीं किया था ऐसा अब तक
ना ही आगे करने वाले थे ऐसा कुछ, यक़ीन था
जिसके दम पर गर्वित होकर फूलती हमारी छातियाँ

भाई ने लगाये चक्कर अस्सी-अस्सी एक दिन में कि अटेस्ट करो साहब
मैं पहली बार अवसाद के अंधेरे में गिरा, पिता को ढूँढता
आज तक नहीं छूटा
आज भी माँ कहती कि यहीं कहीं दिल्ली में हैं वो, पता करो

मेरा पिता गोलियों से धुना-भुना टूटा-फूटा शरीर लेकर आता है
दरवाज़ा खटखटाता है
मैं खोलता हूँ, वो मर जाता है हर बार सपने में

तुम्हें युद्ध चाहिए कमीनों !


यह वर्तमान समय का दस्तावेज़ है

यह सन 2015/16/17 की बात है
देश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है
नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं
उनकी या उनकी सरकार की नीतियों की आलोचना करना
देशद्रोह हो गया है
लोग,
सरकार और देश में फ़र्क करना भूल चुके हैं
अपराधियों और भ्रष्टाचारियों को लगातार बचाया जा रहा है

पिछली सरकार कांग्रेस की थी
वे चोर भी थे, शातिर भी
चोरी करते थे, घोटाले करते थे, बच जाते थे
कभी कभी पकड़े भी जाते थे
इस्तीफ़े होते थे, सजाएँ होती थीं
अब जो सरकार है
इसे गुंडा या डकैत कुछ भी कह सकते हैं
ये पकड़े नहीं जाते और इस्तीफों का रिवाज़ ही नहीं है

मानवता के इतिहास में यह समय यूँ दर्ज किया जाए
कि पूरा देश नए तरह के गुटों में बंट गया है
खुल्लमखुल्ला गालियों का दौर है
और देशभक्ति दर्शाने का सबसे आसान तरीका माँ-बहन की गालियाँ देना हो गया है

अच्छे अच्छे भाषण देना एक कला है
और जिसको यह आता है वह जीत रहा है
चुनावों में कुछ कम्पनियाँ पैसा लगाती हैं
फिर वही पैसा देश में रहने वाले लोगों से चूसा जाता है
जिस देश के बड़े हिस्सों में अभी तक बिजली नहीं है
वहाँ डिजिटल युग आने वाला है
कैशलेस व्यवस्था की कगार पर खड़ा है समूचा देश

अपनी बेटियों से आप प्यार करते हैं यह बताने के लिए
फ्रंट कैमरा वाला स्मार्ट फ़ोन ज़रूरी हो गया है
देशभक्ति का मतलब पकिस्तान के खून का प्यासा होना है
किसानों की लगातार आत्महत्या कभी राष्ट्रीय समस्या नहीं बनती
बनती भी है तो उन्हें नपुंसक बताया जा रहा है
स्त्रियों को उनकी मर्यादाएँ फिर याद दिलाई जा रही हैं
सेंसर में एक संस्कारी बाबा बैठे हैं जो नहीं चाहते कि आप
चूमता हुआ जेम्स बॉन्ड या
परदे पर बेझिझक चूमती और सम्भोग करती स्त्रियाँ देखें
राष्ट्रगान ज़बरदस्ती कानों में घुसेड़ा जा रहा है
और झंडे के तीन रंग डंडे में बांधकर आँखों में लपेटे जा रहे हैं

मन की बातें एकतरफ़ा हो चली हैं जहाँ कोई सिर्फ़ बोलने आता है
पर सुनने नहीं, जबकि चुना इसीलिए गया था कि सुने भी

यह वर्तमान समय का दस्तावेज़ है
आप इसे वर्षों बाद, बदलकर, स्कूलों में बच्चों को कुछ और ही पढ़ाएंगे

और अंत में इस समय के राष्ट्रवाद का एक मासूम सा उदाहरण

( मादरचोद ! भारत माता का अपमान करता है ?
  और तू साली रंडी !
  ज़्यादा ज़ुबान खुल रही है तेरी
  मेरे देश की संस्कृति के ख़िलाफ़ कुछ बोली ना
  तो बीच सड़क पर नंगा करके गैंगरेप होगा तेरा
  @#$%&*@@##$$&&~*&@#@$@#@$@% ) .



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