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Channel: असुविधा
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इन दिनों देश

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बेहतर तो यही होता कि इस कविता के किसी पत्रिका में छपने की प्रतीक्षा करता...पर आज इसे सीधे अपने पाठकों और साथियों तक पहुँचाना उचित लगा।
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पिकासो की पेंटिंग गुएर्निका इन्टरनेट से साभार 




दिशाएँ पिघलते बर्फ सी बेशक्ल गोजर की तरह असंख्य पैरों से रेंगती समय की पीठ पर कच्छप से  खुरदुरे निशानों में समय को बींधते से कंटीले बाड़ बांधती  उस पार से इस पार तक रिस रिस कर जा रही हैं  क्वार की अनमनी धूप सी कसमसा रही हैं। पश्चिम दिशा का सूर्य पूरब   तक आते आते डूब जाता है। उत्तर दिशा में चाँद का हसिया काटता है सारी रात तम की फसल और हारकर फिर दक्षिण की नदी में डूब जाता है।

पूरब दिशा में जहाँ होता था एक तारा
एक खोह है रौशनी को लीलती
उषा का संगीत नहीं बिल्लियों के रोने का स्वर समवेत
एक स्त्री भूख के हथियार से लड़ रही हारा हुआ सा युद्ध
बंदूकें सम्भाले जंगलों में भटक रहे हैं सैकड़ो बेमंज़िल
हरे पेड़ों से टपक रहा खून लगातार
रासलीला के ठीक बीच लास्य से तांडव में बादल गयी है मुद्रा
विष्णु ठेका से दुई ठेका के बीच गोलियों की आवाज़ से भटक गयी है ताल
पहाड़ों में छुप कहीं ग़म ग़लत कर रहा है चाँद
और फ़ौजी बूटों की उदास थापें गूँजती हैं कि जैसे शवयात्रा में निकली हों


शिव की भग्न मूर्ति एक जिसकी जटा में गंगा सूख गयी है। खो गया है ललद्यद का पहचान पत्र और दिल्ली उसे लाल आरिफ़ा[1]कहती हुई पूछ रही है वह रहस्य कि जिससे शेख नुरूद्दीन नन्द ऋषि हुए जाते हैं। एक चिनार सूख गया है अचानक अचानक एक झील का रंग बदल गया है। एक किताब अचानक जल गयी है। जहाजों में बैठ कर दिशाएँ जा रही हैं इधर से उधर। समय किसी हाउसबोट में शरणागत है। लाल चौक पर अभी अभी उतरा है तेज़ नाखूनों वाला सफेदपोश और बच्चे उस अजूबे को देखने उतर आए हैं गलियों में। आसार कर्फ़्यू के हैं और भीड़ बढ़ती जा रही है।

      
बर्फीली आँधियों के बीच उत्तर दिशा से टूटते हैं रोज़ तारे
बह रहा लाल लाल जल पंचनद में
गोलियों की आवाज़ रह रह कर गूँजती चीत्कार आधी रात
अल्लसुबह अँधेरा घनघोर और
कसमसाया एक नारा होंठ तक आते आते दम तोड़ देता है
माथे के बीचोबीच छेद गहरा एक नासिका पर आके रुक गया है खून
उफ़! कैसी सुघड़ है नाक कोई फ़िदा हो जाए
और आँखें यों कि जैसे डल के बीचोबीच जलता हो दिया
मरने पर भी रह गयी हैं खुली किसी के इंतज़ार में
कौन  आज़ादी?
बेनाम कब्रों के बीच घूमते हैं सपने ख़ामोश
और फ़ौजी बूटों की उदास थापें गूँजती हैं कि जैसे शवयात्रा में निकली हों

किसी मंदिर के गर्भगृह में सैकड़ों साल पुरानी मृत धातुओं का खज़ाना गिन रहे हैं लोग कुछ। एक रजस्वला चली आई है वहाँ तक और उनकी अंगुलियों पर रक्त है अपवित्र जो वे उसे उसके खुले केशों पर पोत देना चाहते हैं। फर्श के नीचे धंसा ईश्वर मुसकुराता है और अरब सागर का जल अट्टहास करता चला जाता है इस छोर से उस छोर तक। चाँदी की कटोरी का ख़ून गढ़चिरौली के जंगलों में बह रहा है अबूझमांड तक फैली है गंध कसैली बड़े तालाब[2]में मछलियाँ मर रही हैं और मछेरे जाल लिए हँस रहे न जाने किस ख़ुशी में। गांधी जख्म पर अपने नमक का लेप रखते नोआखली से लौट आए हैं साबरमती के जले तट पर ।
     

   

दक्षिण दिशा में टूटते रथ से आरुणि[3]की हाहाकार
आर्तनाद में डूबते सब
वृहति, उष्णिक, गायत्री, जगती, पंक्ति, त्रिष्टुप, अनुष्टुप[4]
अंधकार गहन आर्तनाद तीव्र और एक मौन जिसमें डूबती सातों दिशाएँ
टूटे कलम से स्याही बिखर कर जम गयी है फर्श पर
किताबें चीथड़ों सी बिखर गयी हैं गिद्ध मंडरा रहे हैं चाव से
उठता है समन्दर क्रुद्ध ज्वार में और फिर डूब जाता अपनी ही बोझिल धार में
पश्चिमी तट तक फैलता जाता है रक्तिम फेन
सत्य के मुख पर घाव गहरे कई बहता रक्त लिखता है संभल कर
शहर के शहर नींद में बेहाल
और फ़ौजी बूटों की उदास थापें गूँजती हैं कि जैसे शवयात्रा में निकली हों

कबीर और दशरथ मांझी गाँव से दोनों बहिष्कृत आँख फाड़े देखते हैं चमचमाते पर्दों पर अपने जैसे चेहरे और फिर देखते हैं एक दूसरे को और फिर उजड़ी बस्तियों  की ओर देख फूट पड़ते हैं  उदास सी एक हंसी में। जयप्रकाश लखनऊ की सड़क पर लोहिया को ढूंढते हैं खिसियाए से।  मार्क्स मटियाबुर्ज़ में सर झुकाये सुन रहे हैं फरियाद ग़ालिब की। विचार भूलभुलैया में लुका छिपी खेलते खो गए हैं। पार्कों में सर पटकती गोमती दादरी पहुँचने से पहले की जा चुकी है गिरफ़्तार। गोरखनाथ को
  यज्ञोपवीत डाल बुद्ध के साथ कर दिया गया है शहरबदर और राप्ती में हजारों शिशु-लाशें तैरती हैं कमलनाल से लिपटी हुईं। 


कर्फ्यू शहर में गाँव में हाहाकार
हृदय में शूल सी गड़ती है कोई फांस
वृद्ध गायें रो रही हों ज्यों कि वैसे रो रहे हैं हजारो स्वर
वधिक उन्मत्त होकर घूमते हैं
तबाह खेत खलिहान बंजर गाँव के गाँव बर्बाद
गंदुमी गंगा का रंग हो गया है लाल
भूख के पेट से निकली है दुधारी तलवार
शरणार्थी कैम्पों में तिरंगा मुंह छिपाये रो रहा निःशब्द
एक शिशु गर्भ से बाहर निकल कर
मिचमिचाई आँख से देखता है चारो ओर
और फिर दूध भरे स्तनों में डूब जाता है
एक हृदय सीता है जख्म एक और बार
हँसता है हारी हुई हँसी में  रोता हो ज्यों
और फ़ौजी बूटों की उदास थापें गूँजती हैं जैसे कि शवयात्रा में निकली हों

गंगा लौट रही है गंगोत्री में सफ़र के लहूलुहान किस्से बटोरे  नुकीले पत्थरों से टकराती बार बार । छावनियों में मर रहे सैनिक अज्ञात से भय से किसी कि जैसे दम तोड़ते हों  शब्द कंठ में ही। ख़ूब सारी रौशनी में पूरबिहा कोई भटक गया हो ज्यों कि ऐसे अख़बार एक पीला छिपता छिपाता किसी दरवाज़े तक पहुंचता है भोर ही में और सारे शब्द कुंडी में फंसाकर लौट आता है।
                  

रात की गोद में जलती चिता सी चमकती राजधानी में
बजती मातमी धुन उत्सवी उत्साह से
स्वांग रचते भांड जंतर मंतर पर
कसमसाई मुट्ठियों में डूबती है स्वेद की धार पिछली पंक्तियों में
राजघाट पर भेड़ियों की भीड़
उड़ते घायल कपोत
लुटियन की महफिलों में शराबी शोर
दौड़ते दिन रात नीले अश्व कफन सी सफ़ेदी रौंदते
राजपथ पर शान्ति एक श्मशानी
और फ़ौजी बूटों की उदास थापें गूँजती हैं जैसे शवयात्रा में निकली हों

यमुना के मूर्छित तटों पर नांदियाँ सारी थककर सो गयी हैं। पहले ही मिसरे में बिखरकर शे
र एक  सारी महफ़िल में उदासी बांटकर मंच पर पसरा है कि जैसे क़त्ल के बाद कोई हँसते हँसते दे गवाही।  दिशाएँ आत्महत्या कर रही हैं विशाल कब्रगाह से झक सफ़ेद गुम्बदाकार भवन के बीचोबीच के अंधेरे कुएं में समय बैठा कगार पर गिन रहा लाशें एक दिन डूब जाएगा। 










[1]लल् द्यद को कश्मीर में हिन्दू लल द्यद और मुस्लिम लाल आरिफ़ा के नाम से पुकारते हैं। आरिफ़ा का अर्थ रहस्यात्मक शक्तियों वाली से है। शेख नुरूद्दीन भी उसी परंपरा के हैं जिन्हें हिन्दू नन्द ऋषि के नाम से पुकारते हैं। जब उनकी चरारे शरीफ़ स्थित मज़ार तबाह हुई थी,तब देश भर मे चर्चा हुई थी।
[2]भोपाल स्थित बड़ा तालाब
[3]सूर्य का सारथि
[4]सूर्य के सातों घोड़े 

यह किसकी आत्महत्या है- देवेश की कविता

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देवेश कविता लिख तो कई सालों से रहा है लेकिन अपने बेहद चुप्पे स्वभाव के कारण प्रकाश में अब तक नहीं आ सका. आज जब प्रतिबद्धता साहित्य में एक अयोग्यता में तब्दील होती जा रही है तो उसकी कवितायें एक ज़िद की तरह असफलता को अंगीकार करती हुई आती है. उसकी काव्यभाषा हमारे समय के कई दूसरे कवियों की तरह सीधे अस्सी के दशक की परम्परा से जुड़ती है और संवेदना शोषण के प्रतिकार की हिंदी की प्रतिबद्ध परम्परा से. इस कविता में उसने विदर्भ के गाँवों की जो विश्वसनीय और विदारक तस्वीर खींची है वह इस विषय पर लिखी कविताओं के बीच एक साझा करते हुए भी एकदम अलग है. इस मित्र और युवा कवि का स्वागत असुविधा पर. जल्द ही उसकी कुछ और कवितायेँ यहाँ होंगी. 





यह किसकी आत्महत्या है

(एक)

श्मशान का जलता अँधेरा चीखता है बहुत तेज़
शवगंध से फटती है नाक धरती की

इन सबसे बेपरवाह डोम,
सीटी बजाता, झूमता, चुनता है हड्डियाँ
और नदी में डाल देता है..

डोम राजा है
शव प्रजा
नदी अवसाद में है..

(दो)

बहुत दूर से चली आती है बांसुरी की आवाज़
सनकहवा बांसुरी बजाता जा रहा है

भीड़ मारती है पत्थर ,
 वह मुस्कुराता है
चलता चला जाता है
बांसुरी के छिद्रों से रिसता है खून और मुख से आग

हवा उदास बहती है

(तीन)

साढ़े पचास किलो का आदमी कूदता है कुएँ में
फिर नहीं उठता
धप्प की बारीक़ आवाज़ उठती है..

परिवार कहता है खेत सूख गया था
लोग कहते हैं कुआँ सूख गया था
अखबार कहते हैं आदमी सूख गया था

बादलों ने आत्महत्या कर ली है,
ऐसा किसान कहते हैं..

(चार)

समय उलझा है अंडे और अंडकोष के बीच फर्क़ करने में

सिपहसालारी करती फौज खड़ी है,
बीच से गुज़रता है जनाज़ा जिसे उठाये चल रहा है पूरा देश
उसके पाँव में बंधी जंजीर से मचता है कोलाहल
और
राजा है कि नाचता है

'राजा बहरा है'बुदबुदाती है लाश

(पाँच)

घरों में आग नहीं है
फिर भी उठता रहता है धुआँ
मरोड़ें ढंकी जाती हैं झंडों से
जिसे देख के कै कर देता है कलमघसीट
'बहानों के भी तमाम बहाने हैं,मौत के भी'

सियाही जोर से रोती है,
इतनी कि कागज़ को भी सुनाई नहीं देता 
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सम्पर्क : vairagidev@gmail.com 


पाब्लो नेरुदा की छह कविताएं (अनुवाद- संदीप कुमार )

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पाब्लो नेरुदा दुनिया के सबसे मक़बूल कवियों में से हैं. इश्क़ और इन्किलाब के हज़ार रंग उनके यहाँ बिखरे हुए हैं. हिंदी में उनका भरपूर अनुवाद हुआ है और अब तो जैसे हमें वे अपने ही कवि लगते हैं. युवा मित्र संदीप कुमार ने उनकी कविताओं के ये जो अनुवाद भेजे उनमें एक अलग सी ताज़गी है. कविता के भीतर जाकर भाषांतर करते हुए भी उसकी कोमलता को बरक़रार रख पाना किसी भी अनुवादक के लिए बड़ी चुनौती है और संदीप इसमें काफी हद तक सफल हुए हैं. आगे उनके और अनुवाद हम प्रस्तुत करेंगे.



कुम्हार-पाब्लो नेरुदा की कविता 'पॉटर'का अनुवाद

तुम्हारे शरीर की संपूर्णता
उसकी नर्मी मेरे लिये है

जब मैं उठाता हूं अपने हाथ
तो उनमें दो कपोत पाता हूं
वह मेरी खुद की तलाश थी मानो
कुम्हार की तरह मैंने
अपने हाथों से तुम्हें 
प्यार की मिट्टïी से गढ़ा

तुम्हारे घुटने, तुम्हारे स्तन
तुम्हारी कमर
ये सब मेरे ही तो खोये हुए हिस्से हैं
मानो प्यासी धरती का शून्य
जहां से उन्होंने आखिरकार
एक रूप धरा और फिर
हम पूर्ण हुए 
एक नदी की तरह
रेत के एक अकेले दाने की मानिंद.

हमेशा-पाब्लो नेरुदा की कविता 'आलवेज 'का अनुवाद

जो कुछ भी देखा मैंने
वह कभी नहीं बन सका रश्क का सबब

तुम अपने कांधे पर एक आदमी
का बोझ लिये आओ
अपने गेसुओं में उलझा लाओ
सैकड़ों को
या फिर अपने स्तनों और तलवों के दरमियान
समेटे हुए आओ असंख्य आदमियों के निशां
तुम एक नदी की तरह आओ
जो पट चुकी हो पूरी
खुद में डूबे हुए आदमियों से

नदी की तरह आओ
जो पट गयी हो डूबे हुए आदमियों से,
जो उन्मत्त सागर से जा मिले
और समय की अनंत धारा में
विलीन हो जाये!
उन सबको वहां लाओ

जहां मैं प्रतीक्षारत हूं तुम्हारे लिये,
हम हमेशा अकेले रहेंगे
रहेंगे केवल मैं और तुम
इस भरी-पूरी पृथ्वी पर अकेले
जीवन शुरू करने की खातिर!



तुम्हारे पाँव-पाब्लो नेरुदा की कविता 'योर फ़ीट'का अनुवाद

जब तुम्हारे चेहरे पर नहीं ठहरती मेरी नजर
तब मैं तुम्हारे पांवों की जानिब देखता हूँ
तुम्हारे मेहराबदार
छोटे सख्त पाँव
मैं जानता हूँ ये तुम्हें सहारा देते हैं
इन्हीं के सहारे तो है
तुम्हारा हल्का बदन
तुम्हारी कमर और तुम्हारे स्तन,
तुम्हारे जुड़वां बैंगनी कुचाग्र
तुम्हारी झपकती पलकों के साये
तुम्हारा रसीला मुंह और
घुंघराले लाल बाल

ओ मेरी नन्ही मीनार
लेकिन मुझे तुम्हारे पांवों से प्यार है
क्योंकि उन्होंने नापी तमाम धरती,
हवाओं और सागरों को पार किया
तब तक, जब तक
तलाश नहीं लिया मुझे

गर तुम मुझे भुला बैठो- पाब्लो नेरुदा की कविता 'इफ यू फॉरगेट मी'का अनुवाद

इक बात कहना चाहता हूं तुमसे
तुम्हें पता है कैसे हैं हालात:

गर मैं देखता हूं
चमकते चांद को
या खिड़की से झांकती पतझड़ में 
सुर्ख हो चली टहनियों को
अगर मैं छूता हूं
आग के करीब
अदृश्य राख को
या झुर्रीदार दरख्त को
तो ये हर चीज मुझे तुम तक ले जाती है
मानो हर मौजूद चीज
खुशबू, रौशनी, धातुएं
सबकी सब नन्हीं कश्तियां हों
जो मुझे ले जाती हों तुम तक
तुम जो टापू थीं मेरे इंतजार का

और अब,
अगर धीरे-धीरे तुम कम कर दो मुझे चाहना
और धीरे-धीरे मैं भी..

अगर अचानक
तुम मुझे भूल जाओ
बंद कर दो मेरी राह तकना
तो मैं उससे भी पहले तुम्हें भूल चुका होऊंगा


गर मेरी जिंदगी से गुजरती हवाएं
उनमें लिपटी अतीत की परछाइयां 
तुमको बहुत लंबी लगें या प्रतीत हों मेरा कोई पागलपन
और तुम यह तय करो
कि मुझे हृदय के उस छोर पर छोड़ दोगी
जहां मेरी जड़ें हैं
तो याद रखना
कि उस दिन
उस घड़ी
मैं अपने बाजू उठाऊंगा
और मेरी जड़ें निकल पड़ेंगी
किसी और जमीन की तलाश में

लेकिन हर रोज
हर घड़ी
एक अतृप्त मीठी प्यास के साथ तुम्हें यह महसूस होगा
कि मैं तुम्हारी नियति हूं
अगर हर रोज मेरी याद 
खिला दे तुम्हारें होठों पर एक फूल
तो ओह मेरे प्यार, ओह मेरे तुम,
तो वह आग मुझमें दोबारा धधक उठेगी
मुझमें कुछ भी बुझा नहीं है और न ही भुलाया गया है
मेरा प्रेम, तुम्हारे प्रेम में पगा, उसी पर तो पलता है
और जब तक तुम जीवित हो, यह तुम्हारी बाहों में रहेगा
बिना मुझे छोड़े.

एक औरत का जिस्म-पाब्लो नेरुदा की कविता 'बॉडी ऑफ  अ वुमन'का अनुवाद

एक औरत का जिस्म
सफेद पर्वतों की सी रानें
तुम एक पूरी दुनिया नजर आती हो
जो लेटी है समर्पण की मुद्रा में 
मेरी ठेठ किसान देह धंसती है तुममें 
और धरती की गहराइयों से सूर्य उदित होता है

मैं एक सुरंग की तरह तनहा था
चिडिय़ा तक मुझसे दूर भागती थीं,
और रात एक सैलाब की तरह मुझ पर धावा बोलती थी
अपने बचाव के लिए मैंने तुम्हें एक हथियार की मानिंद बरता
मानो मेरे तरकश में एक तीर, मेरी गुलेल में एक पत्थर
लेकिन प्रतिशोध का वक्त खत्म हुआ और मैं तुम्हें प्यार करता हूं
चिकनी रपटीली काई सा अधीर लेकिन सख्त दूधिया शरीर
ओह ये प्यालों से गोल स्तन, ये खोई सी वीरान आंखें!
ओह नितंब रूपी गुलाब! ओह वह तुम्हारी आवाज, मद्घम और उदास!

ओह मेरी औरत के जिस्म, मैं तुम्हारे आकर्षण में बंधा रहूंगा
मेरी प्यास, मेरी असीम आकांक्षाएं मेरी बदलती राह!
उदास नदियों के तटों पर निरंतर बहती असीमित प्यास
जिसके बाद आती है
असीमित थकान और दर्द.

आप एक धीमी मौत मरने लगते हैं
-पाब्लो नेरुदा की कविता 'यू स्टार्ट डाइंग स्लोली'का अनुवाद

आप एक धीमी मौत मरने लगते हैं
अगर आप नहीं निकलते सफऱ पर
अगर आप नहीं निकालते पढऩे के लिए वक्त
अगर आप जिंदगी की गूँज सुनना बंद कर देते हैं
अगर आप बंद कर देते हैं खुद को सराहना

आप एक धीमी मौत मरने लगते हैं
जब आप अपने ही स्वाभिमान को मार देते हैं
जब आप औरों की मदद लेने तक से गुरेज करते हैं

आप एक धीमी मौत मरने लगते हैं
जब आप अपनी आदतों के ग़ुलाम बन जाते हैं
जब आप रोज पुरानी राहों पर ही चलते हैं
जब आप नहीं बदलते अपने पुराने ढरेज़्
जब आप की पोशाक से रंगीनियत उड़ जाती है
या आप बंद कर देते हैं अजनबियों से गुफ्तगू

आप एक धीमी मौत मरने लगते हैं
अगर आप महसूस नहीं कर पाते जुनून को
और उन उतरती चढ़ती भावनाओं को
जिनसे चमक उठती हैं आपकी आँखें
और तेज हो उठती हैं दिल की धड़कनें

आप एक धीमी मौत मरने लगते हैं
अगर आप अपने काम,अपने प्यार से संतुष्ट न होने पर
भी, बदलते नहीं हैं जिंदगी जीने का तरीका
अगर आप अनिश्चितता के पक्ष में जोखिम लेना बंद कर देते हैं
अगर आप अपने ख्वाब का पीछा नहीं करते
अगर आप जिंदगी में कम से कम एक बार
समझदारी भरी सलाह से दूर नहीं भागते

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 संदीप कुमार 

पेशे से पत्रकार दिल साहित्य में लगता है. रहनवारी भोपाल में 

अवनीश गौतम की कविताएँ

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अवनीशकी कविताओं से मेरा परिचय बहुत पुराना नहीं है. कुछ महीनों पहले एक आयोजन में पहली बार उनकी कवितायेँ सुनते चौंका था. जितनी सहजता से वह प्रेम की कोमल तान छेड़ते हैं उतनी ही सहजता से तीख़ी और ताक़तवर प्रतिरोध की कविताएँ भी लिखते हैं. ये कविताएँ उन्होंने 24 जनवरी को आग़ाज़ के सामूहिक भूख हड़ताल के समय रोहित वेमुला को समर्पित करते हुए पढ़ीं. उनकी कुछ और कविताएँ जल्द असुविधा पर होंगी.




आपके जैसा

1

हमारे और आपके आँसुओं  में एक फर्क है 
हमारे आंसू आपके आँसुओं की तरह गोल नहीं,
नुकीले हैं...तीर की तरह नुकीले..
एक दिन हम आपकी दुनिया के
इस गलीज़ मुँह  को
अपने तीरों से बींध देंगे

2                   

आपको गुस्सा अच्छा नहीं लगता
लेकिन आपको गुस्सा आता है
आपको घिन अच्छी नहीं लगती
लेकिन आपको घिन आती है

मैं आता हूँ तो आपको गुस्सा आता है
मैं आता हूँ तो आपको घिन आती है

वैसे आती है तो आए मेरी बला से
मैं तो अब आता हूँ
आपका एक एक दरवाज़ा
आपका एक एक ताला तोड़ते हुए
मैं तो अब आता हूँ
ये घर मेरा है और
अब मैं इसमे रहने आता हूँ

कब्ज़ेदारों!
जो तुमने जला रखे हैं अपनी महान
संस्कृति के हवन कुंड
ऐ पवित्र देवताओं उन्हीं में तुम्हारी हुंडियाँ
जलाने आता हूँ

ये जो तुमने चमका रखी हैं
अपनी झूठी और विशाल छवियों को प्रक्षेपित
करती विशाल काँच की दीवारें
उनको अपनी चीत्कारों से गिराने आता हूँ
ड्योढ़ी से ले कर गुसलखाने तक
अपना दावा जताने आता हूँ
अपने घर को मैं अपना बनाने आता हूँ

क्या करूँ
मुझे भी गुस्सा अच्छा नहीं लगता
लेकिन मुझे भी गुस्सा आता है


3

आप कहते हैं
मैं प्यार की बात नहीं करता
आप पर भरोसा नही करता
तो आप ही बताएँ
आप पर भरोसा कैसे किया जाए
आपने प्यार से मुझे शक्कर कहा
और अपने दूध में घोल कर मुझे गायब कर दिया
गायब क्या कर दिया आप तो मुझे पी ही गये

फिर आपने मुझे नमक कहा और
अपनी दाल में डाल कर मुझे गायब कर दिया
गायब क्या कर दिया आप तो मुझे खा ही गये

आपको धोखा पसंद नहीं

लेकिन आपको धोखा देना आता है
मुझे भी धोखा देना पसंद नहीं
लेकिन मैं भी सीख लूँगा

सब्र कीजिए एक दिन

आपको वैसा ही प्यार करूँगा
जैसे आपने मुझे किया

स्वच्छता कार्यक्रम

जिन्हे जलाया जा रहा है 
उन्हे भी बताया जा रहा हैं कि
स्वच्छता है सबसे ज़रूरी
जैसे वे बने ही नहीं हैं हाड़ मांस से
बस थोड़ा हंसिया खुरपी चलाई 
थोड़ा तेल तीली डाली और बस्स देखो कैसा
भह-भह के जले हैं होलिका की तरह

दुनिया भर के अखबारों और
टीवी चैनलों से बाहर
बिखरी पड़ी हैं लाशें
उत्तर से दक्षिण तक
पूरब से पश्चिम तक
अंग- भंग, लथ पथ,
जली -अधजली
जवान मर्दों की
औरतों की, बच्चों की लाशें

स्वच्छता कार्यक्रम जोरों पर है
और ये कोई आज की बात नही
यह तो सांस्कृतिक कार्यक्रम है
जो चलता रहता है
धार्मिक अनुष्ठानो के साथ साथ

अब तो हत्यारों ने
नए तंत्रो,
नए यंत्रों
नए मंत्रों से
वधस्थलों का ऐसा आधुनिकीकरण कर दिया हैं
कि लाशें भी शामिल होती जा रही हैं
अपनी मृत्यु के उत्सव मे


छाता

आपके पास छाता है 
आपके पास लाल रंग का छाता है
नारंगी रंग का, हरे रंग का, नीले रंग का 
और पीले रंग का भी छाता है 
आपके पास सतरंगी छाता है
आप लाल रंग का छाता लगाते है 
आपका चेहरा लाल हो जाता है 
आप हरे रंग का छाता लगाते है 
आपका चेहरा हरा हो जाता है 
आपके पास बहुत सारे छाते है 
जिन्हे आप बदल बदल कर लगाते है
आप उबते नहीँ,
उबते हैँ तो नया छाता ले आते है 
आपके दोस्तो के पास भी हैँ बहुत सारे छाते 
आप सब मिल कर
रंग बदलने वाला खेल खेलते है

मै दूर खड़ा 
आपका यह खेल देखता हूँ 
मेरे पास कोई छाता नहीँ 
धूप बढ़ती जा रही है 
मेरा चेहरा काला होता जा रहा है
और गर्म भी.


दुनिया भर की शराबों में जितना भी अल्कोहल है, सब गुरुदत्त है.: बाबुषा की कविताएँ

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बाबुषाउन कवियों में से है जिसे पढ़ना हर बार किसी ज्ञात के भीतर के अज्ञात का साक्षात्कार करना सा लगता है. अब एक लंबा वक्फ़ा हुआ उसे पढ़ते. 2011 में उसकी कविताएँ असुविधा पर शाया हुई थीं ईश्वर के साथ बैठकर भुट्टा खानेकी उसकी वह दीवानावार चाह वक़्त के साथ दीवानगी के नए मरहलों से गुज़री है. भाषा उसका बंदीगृह कभी नहीं बन पाई. किसी परम्परा से उसे जोड़ने का बोरिंग काम आलोचक करें. मुझ जैसा पाठक तो उस इमेजरी से रश्क करता है जो वह हँसते खेलते बनाते तो दिखती है पर एक कलमघसीट जानता है वह किस क़दर लहू पी के सुलझती होगी.  

ये कविताएँ हंस के ताज़ा अंक में आई हैं. मैंने कल उससे माँगी तो "लो, जो करना हो करो"वाले अंदाज़ में उसने भेज दीं. तो एक बार फिर यह हंगामाखेज़ दोस्त और मानीखेज़ शायरा असुविधा पर...



हरा गहरा नहीं मिलता


अरसा बीता किसी काली रात की गहरी खोह में बैठे
इस कदर जगमग हैं चौबीसों घन्टे 
कि गहरी नीदों में छुपने लायक अँधेरा नहीं मिलता
गाँवों में तक नहीं मिलते अब मीठे पानियों वाले गहरे कुएँ
कब से नहीं मिला कोई मरने की हद तक घायल 
किसी की आत्मा पर घाव अब गहरा नहीं मिलता
धड़कते जीवन के मुहाने खुलने वाली कोई गहरी सुरंग नहीं मिलती
यूँ तो हर ओर है बिखरा हरा, गहरा नहीं मिलता
इस बेतरह सूखाग्रस्त समय में घुटने तक भी नहीं डूबता जीवन
क्या करें
किस से कह दें
गहरी चुप्पियों में डूबने के सिवाय अब कोई चारा नहीं मिलता


महबूब की सिगरेट 

एक 

वो 
अपनी चुप्पियों से 
क़श-क़श बुनता आकाश
काढ़ लेती उसकी प्रिया
अनन्त  का घूँघट. ]

दो रास्ते होंगे उसके पास
विदा के ठीक पहले
बचे हुए सँकरे दस मिनटों में
हो सकता है खींच ले अपनी प्रिया को पास
सीने में भींच ले 
उँगलियाँ जला ले
बिखेर दे होंठों की राख
सब मिटा दे
या कि फिर खींच ले क़श
सीने में भर ले धुआँ
क़श क़श क़शमक़श

हालाँकि बिला शक 
जानती है लड़की अच्छी तरह ये बात
कि भीतर बक्से में पड़ी सफ़ेद धागे की गिटी निकाल कर
ढूँढ लेगा सुई का बारीक छेद
गोल-गोल छल्लों से बुनेगा आकाश
ख़ूब पढ़ना जानती है लड़की 
सफ़ेद अक्षरों की बारहखड़ी
धुएँ के जंगल से बीन लेती मौन बातें

वो आदमी
जिसकी उँगलियों के बीच
फँसा रहता हमेशा पूरा का पूरा एक संवाद
नहीं चूमता प्रेयसी के होंठ
वो चूमता आकाश
बादल ग़रीब
आनी-जानी रुत के सिपहिये
लड़की पर बरसता समूचा आकाश
घटाटोप धुंध में ढिबरी-सी जलती लड़की
उसके लिए
जो चपचाप बुन रहा आकाश



दो 

वो
जो धुएँ से बुन देता लड़की के हिस्से का आकाश
कि धरती मिट भी जाए तब भी बचा रहेगा आकाश
चिताओं की अग्नि को ढाँपे रखेगा 
और नदी की अस्थियों को भी सहेज लेगा आकाश
प्रलय की हिचकियों पर डोलती पृथ्वी
ईश्वर की अनंत साँस- सा आकाश
जब कुछ न था
जब कुछ न होगा

तब भी बचा रहेगा आकाश
धुएँ के बीच गुम वो आदमी
हृदय की सफ़ेद पड़ती कोशिकाओं से बुन रहा आकाश
उसकी उँगलियों के बीच
फँसा रहता हमेशा पूरा का पूरा एक संवाद
प्रिया चीन्ह लेती अपनी गुमी ओढ़नी
झट पहन लेती आकाश
लाज भरी लहर-लहर लहराती आँचल
उसके लिए
जो चुपचाप बुन रहा आकाश


साहब, बीबी और गुरुदत्त



"कोई किसी से प्यार कहाँ करता है, जानाँ ? "
लड़की उसे प्यार नहीं करती थी. वो तो सारा गुनाह बारिशों का था. इधर लड़का भी तो उसे प्यार नहीं करता. और बस ! जो भी हुआ, वो सारी शराब की ग़लती थी.
यूँ तो बारिशें बंजारा जात की औरतें हैं. जीवन और उल्लास के गीत गातीं, फिर शाम के धुंधलके में गुम हो जातीं. महुआ कच्चा-पक्का जैसा भी हर मौसम में मिल ही जाता. फिर एक और बारिश आ गयी और आई एक और लड़की. वो भी कहाँ प्यार करती थी उस लड़के से, वो तो सारा कुसूर गीता की आवाज़ का था जो उस वक़्त विविध भारती पर गुनगुना रही थीं कि,
"क़सम तुम्हारी मैं रो पड़ूँगी.."
"तुम भी चली जाओगी एक दिन. मैं नहीं भीगने वाला तुमसे. देखो ! मेरे पास छतरी है, रेनकोट है. सब इंतज़ाम पुख़्ता हैं अब की बार."
लड़की की गीली आँखों पर वो सिगरेट के छल्ले उड़ा देता. इधर वो सोचती कि अगर लड़का न मिला होता तो वो ज़िंदगी भर पानी बरसने को ही बारिश समझती रह जाती.
लड़का बेपरवाही से दूसरी ओर देखने लगता, व्हिस्लिंग करता, गुनगुनाता, चुटकुले कहता और शराब पीता.
जबकि लड़की ख़ूब अच्छी तरह जानती थी ये बात कि...
दुनिया भर की शराबों में जितना भी अल्कोहल है, सब गुरुदत्त है.


चलिये ! फिर कुछ और बात करें


ऐसा तो अक्सर ही होता है
कि पहला प्रेम घाव बन जाता है 
और दूजा औषध
इस धारणा को मानें तो घाव के साथ ही मिट जाती है
जड़ी-बूटी की भी ज़रूरत

हरे हो जाते घाव ऐसे मौसमों में
जो अब तक सूख चले थे
गाहे-बगाहे तड़कते रहते बिजलियों के साथ ही
जबकि याद में तक नहीं दर्ज रहतीं वो हरी जड़ी बूटियाँ
जिन पर इन दिनों जंगलों तक से गायब होने का संकट मंडरा रहा है
कुछ लोग नदियों में डुबकी लगाकर
जीवन की पीड़ा इत्यादि से मुक्त हो जाते हैं
कई तो सूखी भी होती हैं नदियाँ
इतनी सूखी कि उनमें कोई नहीं डूबता
ये खुद में ही डूब कर मर जाती हैं
कुछ नदियाँ लोगों को पार लगा देती हैं
कुछ लोग नदियों को पार लगा देते हैं

कई नदियों के नाम ही मिटते जा रहे नक़्शे से
बहुत सी जड़ी-बूटियाँ भी मिट चलीं सूची से
हौले-हौले फूँक कर मिटा दे अस्तित्त्व
प्रेम शायद ऐसे ही किसी इरेज़र का नाम होगा
कोरे काग़ज़ों पर लिखा जाता है चमकते अक्षरों में
नदी किनारे बसी उन गौरवशाली सभ्यताओं का इतिहास
जिसकी नींव 
हो न हो !  किसी तैराक ने ही रखी होगी

चलिये फिर ! 
लहलहाती फ़सलों की बात करें
बल खाती लहरों की बात करें
सजी-सँवरी नहरों की बात करें
नए-नवेले फूलों की बात करें
बारिश की
शहरों की बात करें
लिखी हुई बातों की बात करें
मिटी हुई चीज़ों पर इतना क्या सोचना
जाने भी दें
मार्स और प्लूटो की बात करें


नेपाली युवा कवि सुमन पोखरेल की कविताएं

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नेपाली के युवा कवि सुमन पोखरेल की ये कविताएं उस जीवन जगत के प्रामाणिक चित्र हैं जिनसे कवि वाबस्ता है।  यहाँ बच्चों का एक मासूम जीवन है जिसमें बहुत सी बदशक्ल सरंचनायेँ भी उनके स्पर्श से कोमल हो जाती है, बनता-बिगड़ता-बदलता शहर है जो अपनी सारी गैरियत के बावजूद अपना है और प्रेम है ताजमहल के सम्मुख स्मृतियों और उम्मीदों के थरथराते पुल से गुज़रता। इंका हिन्दी अनुवाद खुद कवि ने किया है। असुविधा पर उनका स्वागत  




बच्चे
तोडना चाहने मात्र से भी
उनके कोमल हाथों पे खुद ही आ जाते हैं फूल
डाली से,
उनके नन्हे पाँव से कुचल जाने पे
आजीवन खुद को धिक्कारते हैं काँटे ।

सोच समझकर
सुकोमल, हल्के हो के बारिकी से बसते हैं
सपने भी उनके आँखों में ।

उन के होठों पे रहने से
उच्चारण करते ही खौफ जगानेवाले शब्द भी
तोतले हो के निकलते हैं ।

चिडियों को ताने मारती हुई खिलखिला रही पहाडी नदी
उन की हंसी सुनने के बाद
अपने घमन्ड पे खेद करती हुई
चुपचाप तराई की तरफ भाग निकलती है।
खेलते खेलते कभी वे गिर पडे तो
उनकी शरारत के सृजनशीलता पे खोयी हुई प्रकृती को पता ही नहीं चलता
कि, फिर कब उठ के दुसरा कोतुहल खेलने लगे वे।
अनजाने में गिरे जानकार
ज्यादतर तो चोट भी नहीं लगाती जमिन ।

उनकी मुस्कान की निश्छलता
युगों के अभ्यास से भी अनुकरण कर नहीं सके कोई फूल।
विश्वभर के अनेकोदिग्गज संगीतकारों का शदीयों की संगत से भी
कोई वाद्ययन्त्र सिख न सके उनकी बोली की मधुरता।

उनके तोडने पे टुटते हुए भी खिलखिलाता है गमला,
उनके निष्कपट हाथों से गिर पाने पे
हर्ष से उछलते हुए बिखरजाते हैं जो कुछ भी,
उन से खेलने की आनन्द में
खुद रंगविहिनहोने की हकिकत भी भूल जाता है पानी
खुसी से ।

सोचता हूँ
कहीं सृष्टी ने कुछ ज्यादा ही अन्याय तो नहीं किया ?
बिना युद्ध सबको पराजीत कर पाने कसामर्थ्य के साथ
जीवन का सर्वाधिक सुन्दर जिस क्षण को खेलते हुए
निमग्न हैं बच्चे,
उस स्वर्णिम आनन्द का बोध होने तक
भाग चुका होता है वो उनके साथ से
फिर कभी न लौटने के लिए ।



यह शहर किसका है ?
  
प्रवासन के लिए आए
सुन्दर कञ्चन गावँ इकट्टा हो कर
प्रलयकारी बाढ सा शहर बना हुआ देख रहा था ।
पलबढ रहे मकान और फटते हुए फैल रहे रास्तो के बीच
पावँ रखने में खोफ जगानेवाला समय पे
धूलधुसरित सडक पे खेल रहा खुद को ढुँड रहा था मैँ ।

होश सम्हालने के वक्त से
लगातार चल रहा अपना ही सडक की पेटी पे
खोया हुआ  मुझे
जीवन की मध्यान्ह मेँ आकर
आकृतिविहीन किसी ने काँपते हुए पकडा
और पूछा
यह शहर किसका है ?

दूर पनघट से उठ आए हुए इन्द्रधनुषों को
मध्यरात्री की कृत्रिम रोशनी पे खोया हुआ देख रहा हूँ ।
क्षितिज से प्रेम का गीत गाते हुए उड आए चिडियों को
वहम की धून पे नाच रहा, देख रहा हूँ ।

देख रहा हूँ
शितलता से मुझे छु कर ढका हुआ हवा
मध्य शहर में आग लगा कर मुझे धक्के लगाते हुए लौट गया ।
जीवन बाँटते हुए चल रहा पानी
शहर मे घुस के जीवन की बाग को मसल कर निकल गया
बाहर मिलने पे सचमुच का इन्सान सा दिखनेवाले इन्सान ने भी
शहर मे एक अमानुष को बेच डाला और
खुद उसी में समाहित हो गया ।

एक पल तो ऐसा लगता है, कि
निरन्तर से गुंज रही गालीयों की आँधी मे सामिल हो जाऊँ
दायित्ववोध को खोल कर नंगा हो जाऊँ और
इसी शहर के पानी से बना हुआ खून का जोश
इसी के हवा से टिका हुवा श्वास का आवेग
इसी की सिखाई हुई बोली का कम्पन
निकाल कर चिल्लाऊँ -

यस शहर भीड के गुंगे नारों पे नाचनेवालों का है
इन्सान को छुपानेवाली लेप में सुन्दरता देखनेवालों का है
संवेदनहीनता को आदर्श बनाकर ऊँघनेवालो का है
सपनो में जी कर जागर्ती में मरते रहनेवालों का है
चलते चलते खुद को भूल जानेवालों का है
पागलों का है ।

यह शहर
जीवन का संङ्गीत ले के बुरांस की डाली से उडा हुवा मोनाल को
मन्दिर की गजुर पे चढाकर कौवा बनानेवालों का है ।
ईश्वर को बृद्धाश्रम मे छोड घर लौटकर
टेलिविजन पर ढुँडनेवालों का है
इन्सान के बच्चे को गटरों में फेँक के
कुत्ते को दूध चूसानेवालों का है ।

इस की कुरूपता का वेदना से भीँचा हुवा मन ले के
जीवन का आधी थाली समय को चुन के देखने पे, लेकिन
मै,
खुद को और इस शहर को एक ही दृष्टीपटल में देख रहा हूँ ।

यह शहर मेरे उद्वेगों को
अपने वितृष्णाओं के साथ पी कर खुस रहा है,
मेरे अपूर्ण इच्छाओं को खेला खेलाकर पलाबढा है,
मेरी प्रेमकहानी के सुन्दर सपने को ओढकर सोया हुआ है
मेरा विद्रोह का जुलुस देख के जगा हुआ  है ।

मैने इस शहर के धूल और धूवों को
घर तक ले आकर
अपने चेहरे और कपडे से साथ धोया है,
इस के कर्कश आवाजों को उठा ले आकर
चुन चुन के अपने गीतों में पीरोया है
इस के विक्षिप्त दृष्यों को समेट के अपनी कविताओँ को सजाया है,
इसी की आह को पीरो के जीवन की धून को बुना है ।

इस के तमाम गुणदोष का जिम्मा ले कर
मैं कहता हूँ,
यस शहर मेरा है ।

ताजमहल और मेराप्रेम

 सारा यौवन भर
शिने पे एक प्रेमाकुल हृदयको ही ले कर
चलता आया हूँ ।

खिलाकर दिल को
मुहब्बत का सामियाना बना लें जैसा लगता ही आया है ।
अनुराग की गहराइयों पे डुब के दिल का भिगने पर
निचोडकर प्रियाको ही भिगा डालूँ जैसा होता ही आया है ।
कभी न मिटजानेवाली एक चित्र
हृदयके  रंग से ही बना डालूँ जैसा होता ही आया है ।

खडहो कर आज
इस ताजमहल के सामने,
सूर्यकिरण के स्पर्श से शरमा रहे संगमरमर की मुस्कुराहटें,
प्रेम कीऊँचाई  को छु के मदहोश दौडरहे हवाओं के गुच्छे, 
परिक्रमरत द्रष्टाओं के शिने में गुंजरहे प्रेमास्पद संगीत
और
अपने ही दिल के अन्दर छलकते हुए
रंगीन अनुभूति के सुवासित मादकता से मदमस्त हो कर
मैं खुद को ही भूल रहा हूँ ।

इस वक्त मैं
शाहजहाँ को याद कर रहा हूँ या मुमताज को
या याद कर रहा हूँ खुद को ?
भ्रमित हूँ
अचेत हूँ, अपने ही सिने  की फैलावट से दबकर । 

शाहजहाँ,
जिस ने बादशाह को प्रेमी से बौना बना दिया
जिस ने मजार को मन्दिर
प्रेमिका को ईश्वर
और प्रेम को मजहब बना दिया ।

कम से कम दो फर्क तो जरूर है हमारे बीच
वह शहंशाह था,
मै
उस के जैसा वैभवशाली होता तो
ताजमहल बनाने के लिए
प्रेमिका की मौत का इन्तजार नहीं करता ।




एक भावुक सा राग-शोक - कुमार अंबुज

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उत्तराखंड मे विरोध सरकार का था। हक़ है सरकार का विरोध करने का विपक्ष को। पर मारा गया उस निरीह घोड़े को जिसे मनुष्यों ने सभ्यता के आरंभ मे ही गुलाम बनाया और उसकी सारी त्वरा उसकी चपलता उसका सौंदर्य मनुष्यों की सेवा मे लग गई। मनुष्यों की लड़ाई मे वह शहीद हुआ। मनुष्यों की ईर्ष्या मे उसे जहर दिये गए। और आज एक और बार मनुष्यों की लड़ाई मे वह घायल हुआ। उसका घायल होना जैसे हमारे समय की एक व्यंजना बन कर सामने आ गया है। वरिष्ठ कवि कुमार अंबुजने इस घटना से व्यथित हो यह लेख सा लिखा था अपनी फेसबुक वाल पर....उनसे पूछे बिना कॉपी कर असुविधा के लिए ले लिया है... 




एक भावुक सा राग-शोक
0000
वह इतना सुंदर है कि उससे केवल मोह या प्रेम हो सकता है। वह स्वप्न के, कल्पना के किसी भी अश्व से भी अधिक अश्व है। उसके बल, आयुष्य और सौंदर्य की बेहतरी के लिए कोई भी सहज कामना कर सकता है। इसकी तो रंचमात्र आशंका ही नहीं की जा सकती कि कोई उस पर प्रहार करे। उसके जीवन को हानि पहुँचा दे। उसके प्राकृतिक श्रेष्ठ अश्व होने के गौरव, उन्नत मस्तक और उसकी अतुल्य गरिमा को चोट पहुँचाने का ख्याल भी कोई कर सकता है, यह भी कल्पना से परे है। ऐसा दुस्वप्न भी कोई नहीं देखना चाहेगा।
लेकिन यह यथार्थ है। हमारे समय का, हमारे समाज का क्रूर यथार्थ।
00000

और वह व्यक्ति जो निरीह के साथ हिंसा करे। किसी के अस्तित्व की सुंदरता के प्रति जो निर्मम हो जाए। जिसने कभी अहित न किया हो, उसके प्रति क्रूरतम व्यवहार करे। किसी भी प्रकार की दया जिसमें न हो। और न ही अपने अधम कार्य के प्रति लेशमात्र प्रायि‍श्चत हो।
राक्षस इन्हीं प्रवृत्तियों को धारण करनेवाले के लिए एक विशेषण हो सकता है।
पशुता शायद इससे बेहतर हो।
00000

यह कार्य वही कर सकता है जो नराधम है। और इस मनुष्यत्‍वहीन काल में जिसे यह भरोसा है कि वह कुछ भी अनिष्ट कर सकने में सक्षम है और सबसे बड़ा उसका यह विश्वास कि वह भीषण अपराध करके भी बच सकता है।
यह भरोसा उसे कहाँ से मिला है। नि‍श्चि‍त ही किसी न किसी ‘गाॅडफादर’ से, जो हमारी समकालीन राजनीति का अधि‍क नया परिव़िर्द्धत, अमानवीय संस्करण है। यह राजनीतिक सामर्थ्य और गर्राहट का सबसे क्रूर उदाहरण है।
इतना निर्मम, आततायी और संवेदनहीन व्यक्ति किसी भी जनता का प्रतिनिधि कैसे हो सकता है? वह तो मनुष्य होने का भी उदाहरण नहीं है।
अपराध करके बचने का यह अटूट, अदम्य विश्वास हमारे समाज को कहाँ ले जाएगा, इस पर विचार करने की जरूरत है। जब राजनीति अपराधियों की, क्रूर दिमागों और आततायियों की शरणस्थली बनती ही चली जाए तो उस समाज का भविष्य धूमिल ही नहीं, भयावह हो सकता है। अब तो वर्तमान भी कुहासे से भर गया है।
00000

मैं बहुत दुख के साथ भर्त्सना के ये शब्द लिख रहा हूँ और उस धवलता, सौंदर्य, शक्ति‍ और गर्व के प्रतीक निर्दोष अश्व के लिए मेरे पास ऐसा कोई शब्द नहीं है कि जो मनुष्य समाज की ओर से संवेदना की सही अभिव्यक्ति दे सके।
सामुहिक दुख और लज्जा के पास अकसर ही ऐसे शब्द नहीं होते हैं।
0000

कोई सौदा कोई जुनूँ भी नहीं (कहानी)

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यह  कहानी  पाखी  के ताज़ा अंक में आई है. अब यहाँ ऑनलाइन पाठकों के लिए
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कोई सौदा कोई जुनूँ भी नहीं[1]
·    

कूलर में पानी ख़त्म हो गया था. गर्म हवा के साथ एक गुम्साइन सी गंध कमरे में भरती जा रही थी. मिताक्षरा ने करवट बदली और उठकर बालकनी तक जाने को हुई कि अचानक कूलर बंद कर दिया और बिस्तर पर पड़ गयी. पूरा बिस्तर जैसे पसीने से भीगा था. हर तरफ एक चिपचिप और वही गुम्साइन गंध. मन ही मन उसने सोचा कल रूम फ्रेशनर ले आऊंगी.फिर मोबाइल टटोला तो जैसे अपने आप ही से बोली अभी तो पाँच ही बजे हैं.और आँखें मींचकर सर तकिये में घुसा दिया. थोड़ी देर तक यों ही पड़े रहने पर भी जब नींद की कोई आहट सुनाई नहीं दी तो वह सपने देखने की कोशिश करने लगी. यह बहुत पुराना नुस्खा था उसका...बचपन का. समय बीता, शहर बदले, सपने भी बदल गए लेकिन यह नुस्खा नहीं बदला. कमरे को बिलकुल अँधेरा कर वह आँखें बंद कर लेती और सपने देखने लगती. सपने जो उसके सबसे क़रीब थे. वह उन सपनों में खो जाती. फिर वे धीमे धीमे धुँधले पड़ने लगते और वह नींद में डूब जाती. ये सपने नींद में कभी नहीं आते. नींद के सपनों से उसे डर लगता था. थोड़ी देर सोचती रही. फिर आँखों में एक तस्वीर बनने लगी. मोबाइल बजा. आप लन्दन से निकलने वाली हिंदी पत्रिका का संपादन करना चाहेंगी? लेडीज नहीं, जनरल मैगजीन है. मेनस्ट्रीम सोशियो-पोलिटिकल. सेलरी पच्चीस हज़ार पाउंड. टू बी एच के फुल्ली फर्निश्ड फ़्लैट. शोफर ड्रिवेन सेडान कार. आप चाहें तो अगले हफ़्ते ही ज्वाइन कर सकती हैं. अभी हम डमी प्लान कर रहे हैं. टिकट हम अरेंज करेंगे.” “लेकिन मेरे पास तो पासपोर्ट भी नहीं है.” “नाट एन इश्यू मैम. कल हमारा आदमी आपसे डाक्यूमेंट्स ले लेगा और तीन दिन में सारे काग़ज़ात तैयार हो जाएँगेअगले दृश्य में वह लन्दन के अपने आफिस में थी.रंजन सर के आफिस से भी बड़ा. सेंट्रली एयरकंडीशंड. 56 इंच की एल ई डी. बड़ी सी कांच की टेबल. बाएं कोने में सोफा सेट और काउच. दाहिनी तरफ बड़ा सा फ़्रिज. टेबल के ठीक सामने एवा गोंजाल्वेस की पेंटिंग. टेबल के उस ओर सारा स्टाफ बैठा है. वह चुपचाप सबको सुन रही है. बीच बीच में कुछ बोलती है. सामने टीवी पर उसका इंटरव्यू चल रहा है. फिर दृश्य बदलता है. गाड़ी एक अपार्टमेन्ट के सामने रुकी है. वह अपने घर का दरवाज़ा खोलती है. एकदम शुभांगी दीदी के घर जैसा. बड़ा सा ड्राइंगरूम जिसकी दीवारों पर हुसैन की पेंटिग्स हैं. वह सोफे पर बैठ गयी. ...तभी...तभी एक दरवाज़ा खुला और तौलिया लपेटे एक मर्द आकर उसके ठीक बगल में बैठ गया...फिर दो बच्चे...पाँच-सात साल के...दोनों चीख़ रहे हैं और फिर अचानक उसे माँ माँ कहते उसके ऊपर लद गए हैं

उसने एकदम से आँखें खोल दीं और बैठ गयी...बेड स्विच जलाया तो एक मद्धम दूधिया रौशनी खिड़की से आ रही पहली किरणों से लिपट कर खो गयी. सिरहाने दराज़ में देखा तो डिब्बी में बस दो सिगरेटें बचीं थीं. यानि पिछले बीसेक घंटों में अठारह सिगरेटें फूँक गयी थी! अचानक याद आई कैसे हिसाब लगाती थी कि विजय ने कितनी सिगरेटें शेयर कीं. याद आई तो एक फीकी सी मुस्कान होठों की दहलीज तक आई...वह अक्सर उसके हिस्से की बढ़ा देती और बोलती, “देखो मैंने तो कित्ती कम कर दी है” वह मुस्कुराता और डिब्बी में से एक और निकाल लेता...सच में दस तक तो आ ही गयी थी तब... फिर... उसने सिगरेट सुलगा ली और मोबाइल पर फेसबुक खोल लिया. लिखा, ‘जब सपनों पर इस क़दर नियंत्रण ख़त्म होने लगे तो डर लगता है. एक धुंधली सुबह आपकी नींद उचट जाती है और पता चलता है कि वह धुंध आपके सपनों तक में चली आई है. एक अनजाने रास्ते पर चलते हुए उस जानी पहचानी जगह पहुँच जाते हैं जिससे भागने के लिए सारा सफ़र शुरू हुआ था और वह जगह कुटिल मुस्कान के साथ बाहें फैला देती है. और सबसे भयावह होती है अपने ही भीतर अँखुआती हुई उन बाहों में सिमट जाने की आकांक्षा.” थोड़ी देर तक स्क्रीन को यों ही निहारने के बाद मोबाइल का फ्लैप बंद कर दिया और तकिये के सहारे तिरछी हो गयी. सिगरेट ख़त्म करके फिर से मोबाइल खोला. आठ लाइक्स थीं. तीन कमेन्ट. वही “सुन्दर”, “आह”...मैसेज बाक्स में एक नया मैसेज आया था. निहाल था. “क्या हुआ मिताक्षरा, परेशान हो?”
सब बदल गए, निहाल नहीं बदला. चालीस की उम्र हो गयी. आधे बाल पक गए. इतना नाम, प्रतिष्ठा, परिवार...पर अब भी वही का वही. वैसे ही बगल में किताबें दबाए दुबला पतला सा वह पापा का बच्चा कामरेड. तब वह आठवीं-नौवीं में पढ़ती थी. कोई जिद पूरी न होने पर उदास होती तो वह सामने पड़ते ही पूछ लेता. सारे शहर के लिए मीतू थी उसने हमेशा मिताक्षरा ही कहा. तब निहाल कालेज में था और वह स्कूल में पर रिश्ता तुम का ही बना. फिर वह शहर छूटा और सब बदलता गया. कितना कुछ पीछे छूट गया. कितने दोस्तों का अब चेहरा भी याद नहीं आता लेकिन निहाल ने संपर्क कभी नहीं टूटने दिया. यों ही कभी उसका फोन आ जाता. कभी जी चैट पर आकर हाल पूछ जाता. कभी फेसबुक पर. आमतौर पर सार्वजनिक कमेंट्स नहीं करता. पर कहीं कोई परेशान करने लगे तो तुरत हस्तक्षेप करता है.

“नहीं, ऐसा कुछ नहीं”, उसने लिखा

“कुछ तो है”...एक स्माइली के साथ जवाब आया. “नहीं बताना चाहती तो कोई बात नहीं. पर जानती हो निज मन की व्यथा...इस पर कोई ढंग का कमेन्ट भी नहीं आयेगा. यहाँ सब तुम्हारे रेडिकल फेमिनिस्ट रूप को देखना चाहते हैं. तो यह पोस्ट सुपरहिट नहीं होने वाली. मस्त रहो. हैव अ नाइस डे (रात गुड होती तो इत्ती सुबह ऍफ़ बी पर दिखाई नहीं देती) शायद अगले हफ्ते आना हो तो मिलूंगा” दो स्माइलीज़ के साथ उसने बात ख़त्म की.

दो स्माइलीज बना के उसने मोबाइल बंद कर दिया और आख़िरी बची सिगरेट लेकर बाथरूम में घुस गयी.


रंजन सर सुबह से तनाव में थे. उस तनाव की छायाएं पूरे दफ़्तर में पसर गयी थीं. नीरज ले आउट फाइनल करके बैठा था पर अन्दर ले जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था. अमन कोई ब्रेकिंग न्यूज पीस लेकर आया था लेकिन अभी लैपटाप बंद कर इयरफोन कान में लगाए गाने सुन रहा था और मिताक्षरा अपनी केबिन में कम्प्यूटर स्क्रीन में आँखें धंसाये बीच बीच में इधर उधर देख लेती थी. स्टेट्स पर बीसेक लाइक्स और आई थीं. मल्लिका ने पूछा था, “कोई कहानी लिख रही हैं मैम?” और श्रद्धा “शादी कर लो” के बाद एक शैतान वाली स्माइली लगा आई थी. ये लड़कियां जिनसे कभी मुलाक़ात तक न हुई थी, सखियाँ बन गयीं थीं. वह कुछ लिखने ही जा रही थी की नीरज केबिन की तरफ़ आता दिखा. उसने फेसबुक आफ कर दिया और पिछले अंक की फ़ाइल खोल ली. नीरज आफिस में सबसे कम उम्र का था. कालेज से निकलकर सीधे यहाँ आ गया लेकिन अभी कालेज वाले मैनर्स छोड़ नहीं पाया था. उसे देखके मिताक्षरा को ऋषभ की याद आती. कालेज का जूनियर. सीधा सादा पढ़ाकू ऋषभ.  एम ए फाइनल में थी वह जब उसने एक दिन अचानक से प्रपोज किया. उस वक़्त जो मानसिक हालत थी उसकी एक बार तो लगा कि हाँ ही कर दे. पर ना कर दिया...ऋषभ ने अब तक शादी नहीं की और उसकी जिंदगी कहाँ कहाँ से होके गुज़र गयी थी. नीरज सबको भैया-दीदी कहता. रंजन सर पहले ही दिन नाराज़ हो गए थे. उन्हें यह सब सामंती रवैया लगता था. फिर भी मीटिंग में उसके मुंह से निकल ही जाता था. गोरखपुर का था तो मिताक्षरा तो मीतू दीदी बन ही गयी थी. किसी से रिश्ते न बनाने की क़सम खा चुकी मिताक्षरा जाने क्यों नीरज को कभी टोक नहीं पाई. बस हमेशा की तरह सीधे दरवाज़ा खोल के सामने की कुर्सी पर जम गया और शुरू हो गया “यार दीदी, ये सर को क्या हो गया? सारी रात मेहनत करके नया ले आउट बनाया. एक बार देख लेते तो फाइनल कर देता. फिर लास्ट टाइम में चेंज करने को बोलेंगे. उधर ये लोग जान खायेंगे कि मैगजीन लेट हो रही है...आप बात करो न एक बार. या आप ही देख के बता दो कोई चेंजेज हों तो.” “देख नीरज, सर अभी बहुत परेशान हैं. एक तो अभी वो देखेंगे नहीं, और देख भी लिया तो  भी इस मूड में उनको अच्छा भी खराब ही लगेगा. तो तू आराम से बैठ के चिल मार. वो बुलाएंगे तब जाना.” मिताक्षरा ने स्क्रीन पर आँखें गडाए गड़ाए कहा.” “आप जानते हो न, मेरे से बैठा नहीं जाता. कोई काम न हो तो घबड़ाहट होने लगती है” झुंझला रहा था वह. इस बचपने पर वह मुस्कुरा पड़ी “तो एक काम कर, सागरिका को काल लगा ले. लंच हो जाएगा और तेरी घबड़ाहट लौट के नहीं आएगी.”

अभी नीरज की मुस्कराहट ने आकार लिया भी नहीं था कि अचानक रंजन सर की केबिन का दरवाज़ा खुला और देखते ही देखते अस्त व्यस्त रंजन सर तेज़ी से बाहर निकल गए.

न दुआ, न सलाम, न कुछ कहा, न सुना बस एकदम बाहर. ऐसा तो कभी नहीं हुआ था. कुछ नहीं तो जाते जाते एक मिनट रुक कर इतना तो कह ही जाते थे कि फलां काम से निकल रहा हूँ, कोई फोन वगैरह आये तो देख लेना. आखिर ऐसा क्या हो गया अचानक? आशंकाएं रह रह कर उभरने लगीं. जाते हुए रंजन सर से हटी तो सारी निगाहें मिताक्षरा की ओर टिक गयीं. सबको लगता था उसे ज़रूर पता होगा...पर आज तो उसे भी कुछ नहीं पता था.
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तीन साल हो गए थे इस मैगजीन में. आई तो सांस्कृतिक संवाददाता के रूप में थी लेकिन रंजन सर के साथ ऐसी टीम बनी कि साल भर के भीतर ही असिस्टेंट एडिटर बना दी गयी. तनख्वाह ही दुगनी नहीं हुई बल्कि शहर में एक धाक भी बन गयी. बहुत से लोग जो पहले देख के भी कट जाया करते थे, अब मिलने के बहाने ढूंढ़ते. गोरखपुर जाना होता तो घर पर तांता लगा रहता युवा पत्रकारों का. कोई अंकल बेटे की नौकरी की सिफारिश के लिए आते तो कोई दूर फंसे बेटे के ट्रांसफर के लिए. पापा मुस्कुराते, “आदत मत डालना इसकी मिताक्षरा. यह पावर, यह पहुँच शराब से भी गहरा नशा है. शराब न होने पर तड़पते देखा है न लोगों को?” ठीक उसी समय उसका गला सूखने लगता. ठीक उसी समय उँगलियाँ मचलने लगतीं. वह पापा की ओर फीकी मुस्कराहट से देखती और उसे रंजन सर याद आते, देखो मिताक्षरा...”पहुँच पुरानी शराब की तरह होती है. बस तब तक है इसकी कीमत जब तक इस्तेमाल नहीं की गयी. हम पत्रकार हैं, व्यवस्था से हमारी लड़ाई सांप और नेवले की है. कोई किसी को मारता नहीं. पर जिस दिन दोस्त दिखने लगे कोई भरोसा नहीं करेगा. अपनी ठसक बना के रखो. लाख ज़रुरत हो चेहरे पर सिर्फ आत्मविश्वास दिखना चाहिए.”

उफ़ ये शराब!

अजामिल! अजीब सा नाम था उसका. बस अजामिल. न आगे कुछ न पीछे. कोई कहता मुसलमान है तो कोई कहता दलित है...जात छुपाता है. तब वह रिसर्च कर रहा था “रोल आफ ट्राइबल कम्युनिटीज इन एंटी इम्पीरियलिस्ट मूवमेंट्स इन एशिया” और मिताक्षरा बी ए थर्ड इयर में थी. अब तक दूर से ही देखा था उसे. लम्बे बिखरे बाल, आँखों पर मोटा चश्मा, उधड़ी सी जींस और अजीब अजीब कोटेशन वाली टी शर्टों में कभी कालेज गेट के बाहर सिगरेट फूंकता नज़र आता तो कभी लाइब्रेरी में डूबा हुआ. अक्सर अकेला रहता और हाथ में मोटी मोटी किताबें लिए अपने में ही खोया रहता. कालेज में तमाम किस्से थे उसके. कोई कहता कि किसी बहुत अमीर घर का लड़का है, नक्सलाईट मूवमेंट में चला गया था सब छोड़ छाड़ के तो एक दूसरे किस्से के अनुसार पहले बहुत स्मार्ट था लेकिन एक अफेयर टूट जाने के बाद ऐसा हो गया. उस दिन बैनर्जी सर ने अचानक उसे अपने प्रोजेक्ट के लिए अजामिल से मिलने के लिए कहा तो वह एकदम चौंक गयी. अभी किसी तरह इसे टालने के लिए कोई बहाना ढूंढ ही रही थी कि अजामिल सर की केबिन में आ पहुँचा और इस तरह पहला शब्द बोला गया उन दोनों के बीच...”ओके.”

वह कोई और अजामिल था...अपने कमरे के फर्श पर दीवार के सहारे टिका धाराप्रवाह बोलता. बीच बीच में सिगरेट के कश लगाने के लिए रुकता. आदिवासी इलाकों के संघर्ष के किस्से सुनाता ऐसा लगता था कि वह साक्षी रहा हो उन खून और पसीने में डूबे संघर्षों का. आँखें जैसे किसी असमय बड़े हो गए बच्चे सी गंभीर, पतली पतली लम्बी उँगलियाँ किस्सों के साथ ही गतिमान. सितम्बर का महीना था वह. खिड़की के उस पार रिमझिम बरसते बादल और जुबली हाल की तीसरी मंज़िल पर खिड़की के इस पार सर झुकाए नोट्स लेती मिताक्षरा. वह अचानक रुका, ‘तुम्हारा नाम बहुत अच्छा है. मिताक्षरा. जानती हो आदिवासी समाजों के पास भी सीमित भाषा होती है. उतनी जितने की ज़रुरत है. असल में भाषा ही नहीं सब कुछ बहुत कम. घर में अनाज हो जब तक वे मज़दूरी करने नहीं जाते. मज़दूरी तो वे करते ही नहीं थे. जंगल, पहाड़, ज़मीन, नदियाँ सब तो उन्हीं की हैं. फिर क्यों करें वे मजदूरी? जंगल लकड़ी देता है, फल देता है, नदियाँ जल देती हैं, मछली देती हैं, ज़मीन चावल देती है, महुआ और ताड़ी शराब देते हैं, तेंदू बीड़ी देता है, पत्थर आग देता है..फिर क्यों करे कोई किसी की ग़ुलामी? जब अँगरेज़ रेल की पटरियाँ बिछा रहे थे तो उन्होंने आदिवासियों से मज़दूरी करने को कहा. उन्होंने मना कर दिया. बहुत कोशिश की अंग्रेजों ने. पर जब वे नहीं माने तो एक चाल चली. उन्हें दोस्त बना लिया. शराब पीना सिखा दिया और फांस कर उनसे मज़दूरी करवाई. शराबी नहीं थे आदिवासी. उन्हें बनाया गया. इस सभ्यता ने उन्हें असभ्य बनाया. अच्छा सोचो क्या इम्म्पीरियलिज्म से संघर्ष का अर्थ केवल तीर धनुष या बन्दूक वाला संघर्ष है? ना..इम्पीरियलिज्म दुनिया को ग़ुलाम बनाता है अपनी आदतों से. सभ्य बनने की दौड़ में हम उसकी संस्कृति अपनाते जाते हैं, उसके बाज़ार के ग्राहक बन जाते हैं और इस तरह उनकी चाल में फंसकर उसके ग़ुलाम बन जाते हैं. वह सांस की तरह शामिल हो जाता है जीवन में. तो एक प्रतिरोध उसकी संस्कृति को अपनाने से इनकार कर देना भी तो है? आदिवासियों ने यही किया. उन्होंने सभ्यता के नए मानक ठुकरा दिया. हम उन्हें अपने जैसा बनाकर सभ्य बनाना चाहते हैं.” “लेकिन विकास? क्या यह एक और ज़ुल्म नहीं है उनके ऊपर कि जब ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के विकास ने हमारी जिंदगियों को इतना आसान बनाया है तो हम उन्हें जंगलों और पहाड़ों पर सुविधाहीन जीवन जीने के लिए छोड़ दें? क्या इस पर उनका कोई हक नहीं? क्या आप उन्हें एक जिंदा म्यूजियम की तरह नहीं ट्रीट कर रहे?...उस सम्मोहन को तोड़ते हुए सवाल किया मिताक्षरा ने तो वह जैसे झुंझला गया, “ जानती हो जब अमेरिकी कहते हैं कि अरब देश बुर्के और परदे की ग़ुलामी कर रहे हैं तो अरब कहते हैं कि अमेरिकी मैकडोनाल्ड और लेविस की ग़ुलामी कर रहे हैं. यह तो देखने का नज़रिया है बस. आखिर विकास है क्या? यह इस पर निर्भर करता है कि तुम कहाँ खड़ी हो. ऐसा क्यों हो कि सबका नज़रिया वही हो जो हम पश्चिमपरस्त शहरियों का है....

उसकी बातें कभी ख़त्म ही नहीं होती थीं. प्रोजेक्ट ख़त्म हुआ और उसके साथ एक अजीब सा रिश्ता शुरू हो गया. कभी उसके हास्टल के कमरे में, कभी कैंटीन में, कभी यों ही सड़कों पर मीलों पैदल चलते हुए...बातें जो ख़त्म नहीं होती थीं. असहमतियाँ जो दूर नहीं करती थीं. किताबों की एक नई दुनिया खोल दी थी उसने. किताबें  पापा के पास भी बहुत थीं. लाल जिल्दों वाली किताबें. रादुगा और पी पी एच की किताबें. लेकिन यह दुनिया अलग थी. दुनिया भर का साहित्य, नोम चाम्सकी, न्युंगी वा थ्युंगी, हाब्स्बाम, पर्यावरण, अर्थशास्त्र, इतिहास...वह डूबती गयी इस दुनिया में और इस दुनिया के उस अजीब से रहवासी में भी. उसकी सिगरेट का धुंआ अब चुभता नहीं था. उसके अजीब से कपड़े अब अजीब नहीं लगते थे. दिन बरसाती नदी की तरह बहे जा रहे थे. थर्ड इयर में रिकार्ड नंबर आये मिताक्षरा के. सब इतना अच्छा कि अब होश और बेहोशी के सपनों में कोई फर्क ही नहीं रह गया था. लेकिन सपने कैसे भी हों टूटना उनका नसीब होता है. उस दिन बनर्जी सर ने बुलाया तो उसने सोचा कि हम हमेशा की तरह कोई किताब सजेस्ट करने या कुछ बताने के लिए बुलाया होगा. लेकिन वह बहुत परेशान थे. साल भर से अजामिल ने रिसर्च वर्क छोड़ रखा था. उसकी स्कालरशिप ज़ारी रखने के लिए सर को सर्टिफिकेट बनाना था. क्या बताती मिताक्षरा. वह तो जैसे उसके जादू में खोई थी. बोली, “वह कर देंगे सर. इतनी तो मेहनत करते हैं फील्ड में. लिखने की फुर्सत न मिली होगी.” बनर्जी सर ने कुर्सी पर बैठे बैठे पहलू बदला. उनकी आँखें जैसे किसी पीड़ा से भरी हुईं थीं. जब वे सीधे मिताक्षरा की आँखों से टकराईं तो  सिहर गयी वह. सर ने दराज से एक काग़ज़ निकाला और बिना कुछ कहे उसकी ओर बढ़ा दिया. हास्टल के वार्डन का पत्र था. अजामिल की शराबखोरी से परेशान होकर उसके अगल बगल के तमाम लड़कों ने शिकायत की थी. अचानक पूछा बनर्जी सर ने, “कितना जानती हो तुम अजामिल को.” उसके मुंह से बेसाख्ता निकला, “बहुत.” “आर यू इन अ रिलेशन विथ हिम?” “यस सर.”

वह उनके कमरे से निकल आई थी. अजामिल को हास्टल से निकाल दिया गया था. उसने भी हास्टल छोड़ दिया. अजामिल की स्कालरशिप बंद हो गयी थी. उसने ट्यूशन बढ़ा दिए. अजामिल कभी कभी अनुवाद कर लेता. वे एक कमरे में रहने लगे थे. मुखर्जी नगर का वन रूम किचन सेट. वहीँ मिलने आया था एक दिन निहाल. दिल्ली किसी कांफ्रेंस में आया तो उसके हास्टल चला गया था. वहां से खबर मिली तो यहाँ चला आया. अजामिल घर पर नहीं था और वह शाम के खाने के लिए मटर छील रही थी. कोई सवाल नहीं पूछा निहाल ने. समोसे ले आया था और चाय खुद बनाई. देर तक बैठा रहा...घर परिवार की बातें, पढ़ाई लिखाई की बातें. फिर अचानक पूछा, “आगे क्या सोचा है?” वह हडबडा गयी. आगे कहाँ सोचा था उसने कुछ. वह तो अजामिल को सोचना था! जाते जाते दरवाज़े पर रुका था निहाल, “मिताक्षरा जीवन बहुत लंबा है. तुमने एक निर्णय लिया है और मैं उसका सम्मान करता हूँ. पर कभी कोई ज़रुरत पड़े तो बस एक काल कर देना.” जाने कितने दिनों बाद दरवाज़ा बंद करके रोई थी वह इस क़दर. आवाज़ें घोंटते हुए रोना. छोटे चाचा के अचानक एक्सीडेंट में गुज़र जाने के बाद ऐसे ही रोती थीं चाची. निःशब्द. उस रात अजामिल लौटा ही नहीं.

फिर अक्सर ऐसा होने लगा था. वह रात रात भर बाहर रहता. कई बार अचानक दिल्ली से बाहर चला जाता और फिर हफ्ते हफ्ते भर बाद लौटता. परीक्षाएं सर पर थीं और वह चाह कर भी एकाग्र नहीं कर पा रही थी. अजामिल से बात करना चाहती थी पर वह अपने आप में ही खोया था. किताबें नाराज़ पडोसी हो गयीं थीं. पढने की कोशिश करती तो आँखों में पानी भर आता. अपने ही बनाये नोट्स समझ में नहीं आते थे. बहुत दिनों बाद उसने आधी नींद में एक सपना देखा. रिजल्ट आया है. एम ए फ़ाइनल का. उसने पूरी यूनिवर्सिटी में टाप किया है. सारे लोग उसे बधाई दे रहे हैं. बनर्जी सर ने कमरे में बुलाकर देर तक बातें की हैं. कोई लाके उसे अखबार दे गया है. फोटो छपा है उसका. वह अखबार पढने की कोशिश करती है लेकिन सारे अक्षर गोल गोल घूम रहे हैं. फिर अपनी फोटो देखना चाहती है लेकिन उसके चेहरे पर इतने सारे धब्बे कहाँ से आ गए? वह छूकर देखने की कोशिश करती है. फिर धब्बे हटाने की कोशिश. ये तो चिखने का धब्बा है. मसालेदार मूंगफलियों के तेल और मसाले का धब्बा उसके गालों पर. नाक पर छलकी हुई शराब का धब्बा. गर्दन पर शायद सोडे का दाग है.  और आँखों पर जैसे उसने सिगरेट मसल दी है. दो गोल गोल छेद....तीन दिन बाद लौटा था अजामिल. वह उसे अपने सपने के बारे में बताना चाहती थी...पर नहीं बताया.

बस पास हो गयी थी वह. बनर्जी सर मिले थे निकलते हुए. नमस्कार किया तो बस इतना ही बोले, “कंसन्ट्रेट करो पढ़ाई पर मिताक्षरा. वी एक्स्पेक्ट मोर फ्राम यू. अभी एक साल है कवर करने के लिए.” वह कट के रह गयी थी. भाग के घर आई तो अजामिल सामान पैक कर रहा था. पहली बार पूछा उसने,
“कहाँ जा रहे हो?”
एम. पी.
कब लौटोगे?
फिलहाल तो लौटने का कोई प्लान नहीं. वहां सहरिया ट्राइब्स पर कुछ काम करना है.
फिर मुझे भी ले चलो.
क्यों?
क्यों का मतलब क्या? अकेले क्या करुँगी मैं यहाँ? और क्यों रहूँ अकेले? आखिर मैं तुम्हारी...वह कहते कहते रुक गयी और आँखें भर आईं.
ओह कम आन मिताक्षरा. डोंट बिहेव लाइक पूअर वाइव्स. मैंने तुम्हें किसी रिश्ते में नहीं बाँधा है. यू आर फ्री लाइक एवर. अब मुझे वहीँ रहना होगा. तुम हास्टल लौट जाओ. कभी दिल्ली आया तो मिलूँगा. किताबें छोड़े जा रहा हूँ. कभी आया तो ले लूँगा.

और वह चला गया.

एक दरवाज़ा बंद हुआ और सारा रिश्ता ख़त्म. रोना चाहती थी पर आंसुओं ने साथ ही नहीं दिया. अब भी उस कमरे में दो लोगों का बिस्तर था. अब भी रसोई में दो जोड़ी बर्तन थे. अब भी दो लोगों की देहगंध थी. इन सबके बीच वह अकेली थी. कांच के हथटूटे कप में सिगरेट के तमाम अधजले टुकड़े थे. बिस्तर के नीचे पड़ी कई बोतलों की पेंदी में थोड़ी थोड़ी शराब थी...वह अचानक उठी. सारी बोतलें निकालीं और एक गिलास में उड़ेलने लगी. आधी से अधिक भर गयी गिलास. फिर छांट कर निकालीं कई अधजली सिगरेटें.

एक टुकड़ा जलाया और सारा धुंआ भीतर भर लिया...आश्चर्य..कोई ठसका नहीं लगा.

फिर एक के बाद एक कई कश लिए और वह अधभरी गिलास खाली कर दी...आश्चर्य! उसे कोई नशा नहीं हुआ!


रंजन सर के जाने के थोड़ी देर बाद वह भी दफ़्तर से निकल गयी. पहले सोचा कि घर चले जाएँ फिर जाने क्या सोच के काफी हॉउस चली गयी. अगस्त की दोपहर आसमान पर बादलों के हलके हलके धब्बे थे. काफी हाउस अभी गुलजार नहीं हुआ था. दीवाल से लगी टेबलों के इर्द गिर्द कुछ युवा लड़के लडकियाँ बैठे हुए थे. यू सी बी के रोल्स में तम्बाकू भरी जा रही थी. शायद उसके साथ कुछ और भी. भीतर की कुर्सियाँ ख़ाली पड़ी थीं लेकिन वहाँ सिगरेट पीना मुमकिन न होता तो उन्हीं कुर्सियों के थोड़ा और पीछे काउंटर के पास बैठ गयी. एक काली काफी आर्डर की सिगरेट सुलगा ली. पहले सोचा रंजन सर को फोन लगाये. लेकिन वह उन्हें जानती थी. अगर आफिस की कोई ऐसी बात होती जो बताई जा सकती तो अब तक बता चुके होते. शुभांगी दीदी को पता होगा. लेकिन अगर उन्होंने मना किया होगा तो दीदी भी कभी नहीं बताएँगी. फिर भी एक बार पूछने में क्या हर्ज़ है?

तीन बार पूरी पूरी रिंग जा चुकी थी लेकिन कोई रिस्पांस नहीं. अब तक काफी आ चुकी थी. उसने घर का नंबर डायल किया. उस तरफ़ मीना थी...”तबियत ख़राब है दीदी की. दो दिन से अस्पताल में हैं. साहब वहीँ गए हैं...हमें बताया नहीं. लेकिन अच्छा नहीं है सब दीदी...साहब बहुत परेशान हैं. कल देर रात आये थे घर एक घंटे के लिए. अकेले कमरे में रो रहे थे. नीतू बेबी तो हास्टल में ही हैं...मैंने पूछा...पर कुछ बताया नहीं. हास्पीटल का नाम तो नहीं पता...”

शुभांगी दीदी! बीमार! ऐसा कैसे हो सकता है? इतना संभल संभल के खाने वाली शुभांगी दी. रोज़ टहलने वाली शुभांगी दी. नशे के नाम से चिढ़ने वाली शुभांगी दी. हँसतीं तो लगता किसी गिलास में शराब छलक उट्ठी हो. आवाज़ जैसे किसी पहाड़ पर रौशनी बरस पड़े अचानक. खिला रंग. लंबा क़द. जहाँ होतीं वहां छा जातीं. औरतों के हक़ में कहीं कोई आन्दोलन हो वह सबसे अगली पंक्ति में देखी जा सकती थीं, हाँ जब टीवी वाले बाईट लेते या फोटोग्राफर घेरते तो चुपके से निकल जातीं.  पत्रिकाओं और अखबारों में लगातार लेख लिखतीं, सेमिनार्स आयोजित करातीं, कहीं कोई घटना हो तो स्टडी टीम का हिस्सा बन के चल देतीं. इतनी फिट. इतनी ऊर्जावान. उन्हें क्या हो सकता था!

काफ़ी ठंडी हो रही थी. उसने एक झटके में हलक में उड़ेल ली. अचानक ख़याल आया, डा निशा को तो ज़रूर पता होगा. उनकी इतनी अच्छी दोस्त हैं. फोन लगाया...”क्या बताऊँ मिताक्षरा. मैं तो समझ ही नहीं पा रही कि शुभांगी जैसी औरत को किसकी नज़र लग गयी. शी इज डायग्नोस्ड विथ ब्रेस्ट कैंसर. गाँठ थी उसके बाएं ब्रेस्ट पर. मैंने ही सलाह दी थी बायोप्सी की. एंड द वर्स्ट थिंग इस दैट इट हैज़ वर्सेंड आलरेडी....” वह जाने क्या क्या बताती रहीं. मेडिकल के कुछ अबूझ टर्म्स. वह जैसे सुनते हुए भी कुछ नहीं सुन रही थी. जैसे अचानक बादल बहुत गहरे हो गए थे. जैसे अचानक कोई बेआवाज़ बवंडर उठा था. जाने कब तक डा निशा बोलती रहीं और जाने कब फोन बंद हुआ. जैसे सुनने की ताक़त ही ख़त्म हो गयी थी उसकी. सामने बैठे लड़के लड़कियों के ग्रुप ने ठहाका लगाया लेकिन उसे सिर्फ खुलते बंद होते होठ दिखे. बैरा आकर “कुछ और” पूछ गया लेकिन उसे सिर्फ उसका आना और फिर चला जाना दिखा. देखते देखते काफी हाउस नए चेहरों और आवाजों से भर गया. आसमान में धूसर उजाले की जगह मद्धम चांदनी ने ले ली. अचानक जैसे किसी ने कहा “आठ बज गए!” घर जाना था अब. घर. एक सिहरन सी उसकी रीढ़ की हड्डियों से गुज़र गयी. अचानक बाएं सीने में दर्द की एक कमज़ोर सी लहर उठती महसूस हुई...धीरे धीरे वह लहर पूरे शरीर में भर गयी.

दरवाज़ा भीतर से बंद किया तो साँसें दूनी गति से चल रही थीं. शर्ट की दो बटन्स खोलीं और खींच कर उतार दिया. ब्रा उतारा और शीशे के सामने खड़ी होकर गौर से देखा. बाएं सीने पर कुछ हलकी नीली धारियाँ दिखीं. फिर ढूंढना शुरू किया. कभी किसी जगह पढ़ा था कुछ. हाथों में लेकर अलग अलग मुद्राओं में देखा. कोई गिल्टी नहीं मिली. लेकिन दर्द बदस्तूर था. फिर दाहिना सीना भी. वहाँ भी कुछ नहीं मिला. थककर बैठ गयी स्टूल पर दोनों हाथों में चेहरा थामें. फिर अचानक शीशे पर नज़र पड़ी. आँखों के नीचे हलके धब्बे आ गए हैं. होठ सूजे हुए से लग रहे थे. सीनों का आकार कितना बेडौल हो गया है. पेट पर कितनी चर्बी फालतू की. दोनों बाहों और सीने के बीच मांस के लोथड़े लटक गये हैं. वह उठकर शीशे के पास पहुंची और जींस उतार दिया. उफ़. कितना अजीब हो गया था पेट का आकार. टांगों से लेकर सीने तक मांस ही मांस. विजय के जाने के बाद उसने शेव भी नहीं की थी. एक अजीब सी मितली उठी गले में. बेड के नीचे से बोतल निकाली और आधा गिलास भर कर गले में धकेल दी. आग की एक धार सी उतरती लगी देह में. स्विच आफ कर दिया और एक चद्दर लपेट कर बिस्तर पर पड़ गयी.    


रंजन सर ने तीन महीने की छुट्टी भेजी थी. मैनेजमेंट ने इन तीन महीनों में उसे सम्पादक की जिम्मेवारी संभालने को कहा था.

स्तन निकाल दिए जाने के बाद भी उनकी दिक्कतें कम नहीं हो रही थीं. दफ़्तर से छूटकर वह सीधे उनके पास जाती. छुट्टियों में पूरे पूरे दिन वहीँ. तमाम नलियों के बीच लेटीं शुभांगी दी. कन्धों तक लहराते बाल अब नहीं थे. मरीजों के नीले गाउन में उनकी बीमार देह देख के सिहरन होती थी. सामने आने पर मुस्कुराने की कोशिश करतीं तो पीड़ा की एक लहर साफ़ दिखाई देती. हाथ उठाने की कोशिश करतीं पर उनमें ताक़त ही नहीं रह गयी थी. बोलतीं तो आवाज़ कहीं दूर से आती लगती. सोने सी दमकती देह राख का ढेर हो गयी थी कुछ ही हफ़्तों में.

डाक्टरों और देखने आने जाने वालों की भीड़, दवाओं और दूसरे इंतजामों के बीच रंजन सर किसी खामोश मशीन में तब्दील हो गए थे. लोग पूछते तो यंत्रवत वही बातें दुहरा देते. पूरे समय उनके सिरहाने चुपचाप खड़े रहते. वह कुछ कहतीं तो धीमे से जवाब देते, कभी हल्का सा मुस्कुरा देते, कभी उनके हाथ थाम लेते..आँखें भर आतीं तो बाहर निकल आते. मिताक्षरा ने मैगजीन के बारे में पूछा तो बस उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा “तुम देख लो मिताक्षरा.” चौबीसों घंटे मैगजीन में जीने मरने वाले रंजन सर के लिए जैसे अब उसका कोई अस्तित्व ही नहीं था. कभी शुभांगी दी से पूछा था उसने, “रंजन सर दिन रात मैगजीन में लगे रहते हैं. आपको गुस्सा नहीं आता.” मुस्कुरा दीं थीं वह, “उस मैगजीन में स्याही नहीं रंजन का लहू लगा है मीतू. तू नहीं जानती कितना संघर्ष किया है उसने. मेरी नौकरी न होती तो नीतू को ढंग से पढ़ा भी नहीं पाते. यहाँ मिला उसे पहला मौक़ा अपने हिसाब से काम करने का और उसने झोंक दिया खुद को. जब अंक फाइनल करके वह घर लौटता है न तो उसका चेहरा किसी पौराणिक देवता सा लगता है. शांत संतुष्ट. वह नौकरी नहीं, सपना है उसका. एक मुसलसल सपना.”  थोड़ी देर रुकने के बाद बोलीं थीं वह, “जैसे विजय के जीवन का सपना उसकी पेंटिंग्स हैं. वह उन्हें उस क़ीमत लिए नहीं बनाता जो उस दलाल से मिलती हैं उसे. वह बनाता है क्योंकि उसे बनाना है. मत लड़ाकर उससे इतना. न बनाए तो वह कुछ और होगा, विजय नहीं होगा. फिर तू भी उसे प्यार नहीं कर पाएगी.” पता नहीं तब जानतीं भी थीं शुभांगी दी या नहीं कि मैगजीन भले सर का सपना हो उनके जीवन का यथार्थ तो बस वही थीं, लेकिन विजय के लिए उसका सपना और यथार्थ सब उसकी पेंटिंग्स ही थीं. उसकी उँगलियों पर उन रंगों का निशान इतना गहरा था कि उस पर कोई और रंग चढ़ ही नहीं सकता था. वह छूता तो उसकी नहीं रंगों की गंध आती थी. या रंगों की गंध ही उसकी देहगंध थी. अचानक उसके सीने में दर्द की वह लहर फिर से उठी. उस सुबह सी ही तीखी, गहरी... सारी देह अकड़ गयी थी जैसे उस दिन. विजय को किसी एक्जीबिशन में जाना था. बोला रास्ते में किसी डाक्टर के यहाँ ड्राप कर देता हूँ. कट कर रह गयी थी वह. सारा दर्द घोंटकर बोली, “नहीं डाक्टर की कोई ज़रुरत नहीं.” वह चला गया था. शुभांगी दी से झूठ बोला कि विजय शहर से बाहर गया है.  टेस्ट कराया तो बी पी, कोलेस्ट्राल, यूरिक एसिड सब बढ़े हुए थे. दो दिन अस्पताल में रही. लौटी तो वह अपने इजेल से उलझा हुआ था. एकदम निस्पृह पेंटिंग बनाता हुआ. आज लौटेगी तो घर पर कोई नहीं होगा. इस होने और न होने में क्या फ़र्क है? 

क्या चाहा था उसने? वह माँ की तरह नहीं होना चाहती थी कि सारी इच्छाएँ पापा की ज़िदों की ग़ुलाम हो जाएँ. वह अपनी उन सहेलियों जैसा नहीं होना चाहती थी जिन्होंने शादियाँ कीं तो अपने उल्लास पिता के घर ही छोड़ गयीं. वह आज़ाद होना चाहती थी. अपनी शर्तों पर रहना चाहती थी. अजामिल के जाने के बाद महीनों इसी उधेड़बुन में बीते थे कि उसे करना क्या है. एम ए के बाद पत्रकारिता में आने का उसका निर्णय मज़बूरी था तो आज़ादी से जीने की राह पर रखा पहला क़दम भी. वह नाचना नहीं जानती थी, लेकिन इजाडोरा डंकन बनना चाहती थी. वह गाना नहीं जानती थी लेकिन माया एंजेलो बनना चाहती थी. वह लेखक नहीं थी लेकिन सिमोन बनना चाहती थी. पर चाहती थी कोई एक हो जिससे वह प्रेम करे और जो उसे प्रेम करे. अजामिल के जाने के बाद के एक छोटे से दौर के अलावा उसने कभी रिश्तों को अराजक तौर पर नहीं जिया. लेकिन किसी एक को प्रेम करने की यह जिद भी एक ग़ुलामी नहीं?

उस दिन फेसबुक पर लिखा था उसने “ शादी क्या है? ग़ुलामी का सामाजिक और क़ानूनी अहद. वह कमा के लाएगा. तुम बदले में उसका घर संभालोगी. उसके गंधाते मोज़े धोवोगी, उसके बद्तमीज रिश्तेदारों को मटर पनीर बना के खिलाओगी. वह बाप कहलायेगा, तुम उसके बच्चों का हगा मूता साफ़ करोगी. अगर नौकरी में हो तो तुम महीने भर खटोगी और वह ए टी एम कार्ड सम्भालेगा. और हाँ...चाहे उसे पायरिया हो, चाहे उसकी देह में तुम्हें सम्भालने भर की ताक़त न हो, लेकिन जब वह चाहेगा तुम उसके लिए बिस्तर पर बिछ जाओगी.” शुभांगी दी का फोन आया था देर रात “क्या फर्क है मीतू मेरे और रंजन के रिश्ते और तेरे और विजय के रिश्ते में? हम घर लौटते हैं तो जो कम थका रहता है वह काफी बना देता है. तेरे साथ भी यही होता है. हमारे यहाँ भी खाना बाई बनाती है, तेरे यहाँ भी. हम साथ निकलते हैं तो ड्राइव अक्सर रंजन करते हैं, तुम साथ होते हो तो भी विजय ही बाइक चलाता है. हम भी एक घर में रहते हुए एक बिस्तर शेयर करते हुए अपनी अपनी ज़िंदगियाँ जीते हैं, तुम दोनों भी...फ़र्क सिर्फ इतना है कि हम एक दूसरे के प्रति जिम्मेदार हैं और इस ज़िम्मेदारी का अहद क़ानूनी है. कोई दूसरे से अलग होना चाहे तो यों ही झोला उठा कर नहीं जा पाएगा. तुम जा सकते हो. इसीलिए हमारी एक बेटी है. तुम उसे ज़रूरी नहीं समझते...सचमुच? क्या यह सच नहीं कि तुम्हें भरोसा नहीं कि होने वाले बच्चे को तुम मिलकर पाल पाओगे? सच कहूँ तो मुझे यह ज़िम्मेदारियों से भागना लगता है. आज़ादी का मतलब कमज़ोरी नहीं होता मीतू. कभी कभी हम जो चाहते हैं उसके न मिल पाने पर उससे नफ़रत का बड़े ज़ोरों शोरों से एलान करते हैं. एक ग़ुलाम समाज में आज़ादी कहीं नहीं है. एक वैश्या तक अपना ग्राहक चुनने के लिए आज़ाद नहीं है. मैं मानती हूँ शादी पितृसत्ता का एक मज़बूत उपकरण है. लेकिन फिलहाल इसका विकल्प क्या है? जब तक समाज बच्चे पालने की ज़िम्मेवारी नहीं ले लेता मीतू, शादी के भीतर ही जितना लोकतंत्र मिल सकता है, उसे लेने की कोशिश सबसे बेहतर रास्ता है. हम किस्मत वाले हैं कि कम से कम पार्टनर चुनने का हक मिला है हमें. जो पुरुष हमारे साथ हैं वे चेतना के स्तर पर औरत की आज़ादी को मान्यता देते हैं. तो हमारा फ़र्ज़ बनता है कि जिन्हें इतना भी नहीं मिला उनकी मदद करें. यह जो तूने लिखा है न, यह अपराधबोध भले भरे कुछ औरतों में, कोई रास्ता नहीं दिखाता. ” 

“लेकिन मैंने तो ऐसे ही रिश्ते देखे हैं दी. पापा कामरेड थे दुनिया के लिए. जेब का आखिरी पैसा तक साथियों के लिए खर्च कर देने वाले. फिर घर का चूल्हा तो माँ को ही जलाना पड़ता था न. कभी बनिए से उधारी के लिए मिन्नत करके, कभी बचाए हुए पैसों से तो कभी कोई पायल, कोई कड़ा या कोई अंगूठी गिरवी रख के. पापा तो जब लौटते तो उन्हें लगी हुई थाली मिलती. कभी जब साथ में कई लोगों को लिए लौटते तो माँ अपने हिस्से का भी खिला देतीं. कभी पूछा उन्होंने कि माँ ने खाया या नहीं? वह नास्तिक थे, माँ तो नहीं थीं. अडोस पड़ोस तो नहीं था. त्यौहारों पर वह तो खादी का कुर्ता डाले निकल जाते थे, लेकिन हम जो नए कपड़ों में दमकते पड़ोसियों के बीच अकेले रह जाते थे, कभी सोचा उन्होंने क्या गुज़रती थी माँ के सीने पर? चाची जो रोज़ पिटती थीं शराबी चाचा से. न उनके रहने पर खुल के रो पाई कभी, न उनके जाने के बाद. मेरे साथ पढ़ती थी शालिनी. कितने प्यार से बुलाया था उसने. उसे क्या पता था कि उस दिन जल्दी आ जायेंगे पतिदेव. मैं कोई जानवर तो नहीं थी. अन्दर ऐसा शोर मचाया उस आदमी ने कि शालिनी से बोले बिना चली आई. इसी आदमी के दोस्त और रिश्तेदार जब आते होंगे तो पकवान बनाती होगी शालिनी.

और मैं...एक अजामिल के लिए सब छोड़ के चली गयी थी सब कुछ. क्या उम्र थी तब? कुछ न सोचा. पागलों की तरह उसके नखरे उठाती रही. ट्यूशन कर कर के खर्च चलाया. वह बैठा शराब पीता रहता और मैं खाना बनाती. सिगरेट के धुंए से भरा रहता घर. एक बार देखा कि बीड़ी पी रहा है तो विल्स का पूरा क्रेट ला के रख दिया. क्या माँगा था बदले में? एक यह रिश्ता ही न? लम्बे लम्बे भाषण देता था स्त्री मुक्ति के. न जाने कहाँ कहाँ से किताबें ला कर देता पढने को. पर वह रिश्ता नहीं दे सकता था. जानती हैं न आप एम पी नहीं गया था वह. बिहार लौट गया था अपने रईस बाप के पास. उनकी एक ही शर्त थी कि शादी उनकी पसंद से करे. सारा सिद्धांत धरा रह गया. मंत्री की बेटी के साथ कैलिफोर्निया के उस फ़्लैट में कभी याद आती होगी उसको मेरी? एक बार कभी पूछा ज़िंदा हूँ कि मर गयी? एक्सेप्शन हैं रंजन सर. वह भी शायद आप माने बैठी हैं. नौकरी न होती आपके पास तो पता नहीं यह सब होता कि नहीं. आई हेट दीज मेन दी. मुझे नफरत है मर्दों से.” वह फट पड़ी थी.

“नहीं मीतू...तू एक अच्छे मर्द की तलाश में है. जाने दे..सो जा अभी. गुड नाईट” हमेशा की तरह शांत थीं शुभांगी दी.
कहाँ से सोती वह? जो पढ़ चुकी थी उसके बाद नींद कहाँ से आती. अपना लैपटाप डिस्चार्ज था तो जल्दी जल्दी में उसका डेस्कटाप खोल लिया था. ग़लती से लाग इन छोड़ गया था और वहाँ चैट्स थीं किसी राधिका की. उसने पूछा था, “कैसे रह लेते हो उस मोटी के साथ” और जवाब में विजय की स्माइलीज थीं...फिर वे चार शब्द “ बस थोड़े दिन और.”



पत्रिका का सर्कुलेशन लगातार कम होता जा रहा था. विज्ञापनों में भी कमी आ गयी थी. मैनेजमेंट के साथ दो मीटिंग्स हो चुकी थीं और उनका रुख बेहद कड़ा था. इन दिनों वह बारह बारह घंटे दफ़्तर में बिताती. पूरा ले आउट बदल दिया गया. कई नई स्कीम्स ज़ारी कीं. एक एक आर्टिकल के लिए घंटों माथापच्ची करती. लेकिन कुछ था जो मिसिंग था. पत्रकारिता की दुनिया में पैर रखने के बाद से ही उसका या किसी भी पत्रकार का सपना होता है सम्पादक बनना. रंजन सर के साथ काम करते हुए उसे हमेशा लगता कि एक बार मौक़ा मिले तो वह इससे बेहतर कर के दिखा सकती है. पहले अंक का जब सम्पादकीय लिख कर ख़त्म किया तो आँखें भर आईं थीं. मन किया था फोन करे किसी को...लेकिन किसे? माँ को करती तो वह असीसने के सिवा और क्या करतीं? पापा कुछ लम्बे उपदेश सुना देते. फेसबुक पर शेयर कर नहीं सकती थी छपने से पहले. फिर निहाल को मैसेज कर दिया. थोड़ी देर बाद उसकी स्माइलीज आईं...”पहले तो बधाई तुम्हारे पहले सम्पादकीय की. एक हादसे के चलते ही सही, लेकिन एक मौक़ा मिला है तुम्हें और इसे चूकना नहीं है. लेकिन यह सम्पादकीय पढ़कर ऐसा क्यों लग रहा है जैसे यह किसी विशाल पत्थर के नीचे दबे दबे निकली आवाज़ है? कितनी गंभीरता ओढ़ ली है तुमने? माना संपादन जिम्मेदारी का काम है लेकिन इसे सहजता से करोगी तभी सफल होगी. जैसे फेसबुक पर अपने स्टेट्स लिखती हो, जैसे महफिलों में मुंह पर खरी खरी कह देती हो वैसे लिख क्यों नहीं सकती? संभव हो तो इसे फिर से लिखो, वरना अगली बार ख़याल रखना.” उसने दो स्माइलीज बनाई और फेसबुक से लाग आउट कर दिया. अजीब चीज़ है यह निहाल. पता नहीं क्या समझता है खुद को. आज इतनी खुश थी तो दो लाइन में प्रसंशा करके ख़त्म नहीं कर सकता था? ठीक है सीनियर है, लेकिन यह क्या कि जब मौक़ा मिले एक उपदेश दे डालो. हद होती है किसी चीज़ की...उसका दिमाग भन्ना गया.

शुभांगी दी घर तो आ गयीं थीं लेकिन रेडियेशन और कीमो अभी महीनों और होने थे. डाक्टरों का कहना था कि अगले कुछ महीनों तक कुछ भी कहना मुश्किल था. वह हर दूसरे तीसरे दिन उनसे मिलने जाती. बीच में एकाध बार फोन किया तो लगा कि अब उन्हें बोलने में भी दिक्कत हो रही है. आवाज़ बीच बीच से टूट जाती थी. जैसे बेहद थकी हों. रंजन सर से बात करने की कोशिश की तो वह बस हाँ हूँ करके रह जाते थे. वह पूछना चाहती थी कि वह कब लौट रहे हैं. एक बार वह लौट आते तो सब ठीक हो जाता. उस दिन भी वह उन्हें ही फोन मिला रही थी कि अमन ने बताया रंजन सर ने इस्तीफ़ा भेज दिया था और मैनेजमेंट ने नए सम्पादक के लिए विज्ञापन तैयार करवा लिए थे.



उस रात उसने बहुत सारे सपने देखे...एक सपने में मैनेजमेंट उससे कह रहा था, “विज्ञापन देना तो मज़बूरी थी. लेकिन निश्चिन्त रहिये, सम्पादक का पद आपके पास ही रहेगा.” दूसरे सपने में उसकी प्रतिद्वंद्वी पत्रिका के मालिक जैन साहब उसके घर पर बैठे उससे अपने यहाँ सम्पादक की कुर्सी संभालने का निहोरा कर रहे थे. तीसरे सपने में फोर्ड फाउन्डेशन के इंटरनेशनल चेयरमैन आई आई सी में उसका पैग बनाते हुए अपना एशिया हेड बनने की विनती कर रहे थे. जाने क्या था कि सारे सपने आधे से टूट जाते. वह बार बार कोशिश करती पर सपने पूरे ही नहीं होते. फिर धीरे धीरे मैनेजमेंट, चेयरमैन, संपादक...तमाम चेहरे शब्दों की तरह एक दूसरे में घुलने लगे और वह एक अजीब से नशे में डूब गयी.

फिर उस रात नींद में एक सपना आया. बहुत गहरा अन्धेरा है. जगह भी पहचान में नहीं आ रही. वह भाग रही है. बेतहाशा. पीछे कई पांवों की आवाज़ें हैं. लगातार बढती हुई. अचानक किसी गड्ढे में उसका पाँव पड़ जाता है. वह चीख पड़ती है. वे आवाजें बिलकुल पास आ गयी हैं. ऐसा लगता है उन्होंने उसे घेर लिया है. वह चारों ओर देखती है पर कोई नज़र नहीं आता. अचानक उसकी नज़र नीचे की ओर पड़ती है और अँधेरे में चमकती हुई लाल लाल आँखें दिखती हैं. दसियों जोड़ी आँखें. लाल लाल. वह भागना चाहती है पर पाँव में बहुत दर्द है. उसकी चीखें तेज़ हो जाती हैं. तभी थोड़ी दूर पर एक कार रुकती है. अरे! अजामिल! वह रो पड़ती है...”अजामिल प्लीज़ हेल्प मी” वह उसकी ओर बढ़ता है लेकिन तभी उसका मोबाइल बज पड़ता है...काल काट के वह कहता है, “सारी मिताक्षरा मुझे अभी वाइफ को लेकर डेंटिस्ट के पास जाना है. मैं किसी और को भेजता हूँ. उसने विजय को काल लगाई है...”सारी यार विजय की पेंटिंग एक्झिबिशन है आज” ...अली, सुदेश...सब बिजी हैं. तुम निहाल को फोन लगा लेना. मुझे लेट हो रहा है..सारी” कार निकलती है तो पीछे जैसे बवंडर सा उठ आया है. धूल का बवंडर और उसमें सब कुछ उड़ने लगा है. वह एक बार फिर जोर लगा कर भागती है. तेज़..बहुत तेज़. भागते भागते अपने दफ़्तर के दरवाज़े पर पहुँच गयी. दरवाज़े पर अमन खड़ा है. वह कहता है पहले रंजन सर को ले के आओ वरना दरवाज़ा खोलने की इजाज़त नहीं है. वह रंजन सर के घर की ओर भागती है. वह दरवाज़ा खोलते ही चीख़ पड़ते हैं “तुम इन्हें यहाँ क्यों ले आई?” वह बचाने के लिए गुहार लगाती है. रंजन सर फिर चीख पड़ते हैं, “मैं किसी की मदद नहीं करूँगा. किसी ने शुभांगी की मदद नहीं की.” वह गिडगिडाती है, “ प्लीज़ सर. मैं आपके सारे काम करुँगी. मुझे बचा लो प्लीज़. मुझे अपने घर में रख लो.” वह धीमे से बोलते हैं, “मैं खुद जा रहा हूँ यहाँ से. अब तुम्हीं रहो इन कीड़ों के साथ.” वह थककर बैठ गयी उनके सोफे पर. कमरे में भी अन्धेरा है. जहाँ शुभांगी दी बैठती हैं वहां एक प्लेट में राख रखी है. वे आँखे उसकी पूरी देह पर भर गयी हैं. वह गौर से देखती है तो वे आँखे नहीं हैं. छोटे छोटे चेहरों से निकली जीभे हैं और चमकते हुए दांत...तीख़े..नुकीले...अजामिल...विजय...अली...सुदेश... वे कुतर रहे हैं उसकी देह. पैरों के तलवे, जांघ, योनि, नाभि, स्तन, गर्दन, होंठ....वह चीखना चाहती है पर आवाज़ नहीं निकलती. फिर टेलीफोन की घंटी बजने लगी. पहले धीमे ..फिर तेज़..फिर और तेज़...

नीरज था फोन पर, आवाज़ भरी हुई थी..टूटी हुई... “दी...सागरिका...”

क्या हुआ नीरज? ठीक से बता

सागरिका ने सुसाइड...इसके आगे की आवाज़ सिसकियों में डूब गयी.

पूरा फेसबुक सागरिका की तस्वीरों से भरा हुआ था. उसका सुसाइड नोट नेट पर वायरल हो गया था. उसने अपनी पत्रिका के सम्पादक और मैनेजमेंट पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था. सुसाइड नोट पोस्ट करने के बाद रात को कोई दो बजे उसने ढेर सारी नींद की गोलियाँ खा ली थीं. सुबह जब उसके दोस्तों ने उसकी पोस्ट देखी तो दरवाज़ा तोड़कर उसे अस्पताल में भर्ती करवाया. सम्पादक के ख़िलाफ़ एक केस दर्ज़ हुआ था. लेकिन किसी टी वी चैनल पर कोई ख़बर नहीं थी. अभी तक सम्पादक के ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही भी नहीं हुई थी. लोग बेहद गुस्से में थे.

मिताक्षरा ने घड़ी देखी तो नौ बज रहे थे. अक्टूबर की सुबह सर्दियों ने धीमी दस्तक देना शुरू कर दिया था. उसने नीरज को फोन करने के लिए लाग खोला तो जैन साहब का सुबह सात बजे का एस एम एस पड़ा हुआ था, “काल व्हेन यू आर फ्री.” थोड़ी देर सोचने के बाद उसने नंबर मिलाया. सोचा था कि खूब सुनाएगी. सागरिका जैसी लड़की के साथ ऐसा करने की हिम्मत कैसे हुई इन लोगों की!  जैन साहब जैसे उसके फोन का इंतज़ार कर रहे थे.

हाऊ आर यू डूइंग मिताक्षरा?

आई एम फाइन सर. थैंक्स

लुक रिषभ इज ज्वाइनिंग योर मैगजीन एज अ चीफ एडिटर. आई डोंट थिंक यू विल लाइक टू वर्क अंडर ए जूनियर. सो यू
आर वेलकम इन माई मैगजीन. ज्वाइन द डे यू फील कम्फर्टेबल. सेलरी इज नाट एन इश्यू. इट विल बी डबल देन व्हाट यू आर गेटिंग देयर.

ओह! थैंक्स सर. आई विल रिप्लाई यू सून.

इस बीच नीरज की कई काल्स मिस हो गयीं थीं. वह कुछ देर सोचती रही फिर उसने मोबाइल आफ कर दिया. लैपटाप पर फेसबुक लागिन किया तो चैट आफ कर दी. बीसियों लोगों ने उसे टैग किया था. कई मैसेजेज़ थे. निहाल ने लिखा था, “तुम वहाँ हो. एक महिला पत्रकार के साथ यह जो हुआ है वह पत्रकारिता जगत में पैसे और पावर के साथ आ रही विकृतियों का सबसे बड़ा सबूत है. लोग बेहद गुस्से में हैं. एक स्त्रीवादी के रूप में तुमने बहुत सम्मान अर्जित किया है और अब तुम्हें ही इस केस में नेतृत्वकारी भूमिका निभानी पड़ेगी. फेसबुक पर भी और बाहर भी.”

उसने फेसबुक से लाग आउट किया. बीमारी का हवाला देते हुए आफिस से छुट्टी के लिए एक मेल कर दिया. थोड़ी देर यों ही पड़ी रही तो रह रह के सागरिका का चेहरा उसके सामने आने लगा. 24-25 साल की आई आई एम सी पासआउट सागरिका. खनखनाती हुई आवाज़. पहली बार नीरज मिलवाने के लिए वर्ल्ड बुक फेयर में लेकर आया तो उसे देखकर आह्लाद से भर गयी थी सागरिका, “कितना पढ़ा है दी आपको. फेसबुक पर सबसे पहले आपकी वाल देखती हूँ. क्या आग है आपकी कलम में. मैं तो फालोवर हूँ आपकी सबसे बड़ी वाली. आप जैसा लिखना चाहती हूँ. आप जैसा बनना चाहती हूँ” उसके बाद भी कई बार नीरज के साथ और कई बार अकेले में मिली थी. एक बार शाम को आई तो रात में यहीं रुक गयी. देर रात तक बातें करती रही, योजनायें बनाती रही. वह फ्रीलांस करना चाहती थी. महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर लगातार लिखना चाहती थी. मिताक्षरा ने उसे कई सारे आइडियाज दिए थे. जबसे शुभांगी दी की तबियत खराब हुई थी उससे मिलना जुलना नहीं हो पाया था लेकिन फेसबुक और मोबाइल पर वह लगातार मैसेज किया करती थी. जाने क्या सोचकर मिताक्षरा ने मोबाइल फिर से आन किया. नीरज ने मैसेज किया था. वह अस्पताल में था और सागरिका को खून की ज़रुरत थी. मिताक्षरा ने रिप्लाई किया, “आ रही हूँ;”

अस्पताल के बाहर भी लोगों की भीड़ लगी थी. उसने स्कूटी पार्क की तो कई लोगों ने घेर लिया. एक ने पूछा कि “आपने इस इश्यू पर कुछ लिखा क्यों नहीं?” मिताक्षरा ने घूर कर देखा उसे, “इस वक़्त फेसबुक स्टेट्स लिखना ज़रूरी है या सागरिका की जान बचाना.” वह सहम गया. नीरज से बात करके उसने तमाम लोगों को फोन लगाए. खून का इंतज़ाम हो गया था. शाम होते होते सागरिका को हल्का होश आने लगा था. उसके माँ पापा भी आ गए तो मिताक्षरा घर लौट आई.

घर आकर उसने लैपटाप खोला. तीन नई मेल्स थीं. पहली दफ़्तर से. उससे सम्पादकीय प्रभार ले लिया गया था. दूसरी जैन साहब की उन्होंने प्रपोजल लेटर भेजा था और तीन दिन बाद अपने यहाँ ज्वाइन करने का न्यौता दिया था.  तीसरी मेल डा निशा की थी. इस बार भी कोलेस्ट्राल काफ़ी हाई था, सिगरेट छोड़ने की सख्त ताक़ीद की थी और वजन कम करने की भी. फेसबुक खोला तो दो दिन बाद सागरिका के समर्थन में उसकी पत्रिका के दफ्तर के घेराव के लिए बने इवेंट का आमंत्रण था. उसने दो मिनट यों ही देखा और फिर “मे बी” पर क्लिक कर दिया. निहाल का एक और मैसेज था. उसने पढ़ा ही नहीं और फेसबुक लागआउट कर दिया.

मोबाइल खंगाला तो पता चला अब उसके पास ऋषभ का नंबर था. सोचा काल कर ले. पूछे...फिर नहीं किया. फोनबुक पर यों ही नम्बर्स आगे बढ़ाने लगी तो उँगलियाँ अचानक शुभांगी दी के नंबर पर रुकीं. वह होतीं अगर तो फेसबुक पर सबसे तीखा स्टेट्स उन्हीं का होता. वह उस प्रदर्शन में जाने के लिए तमाम लोगों से बात कर रहीं होतीं. फिर अचानक ख्याल आया, मान लो यह मेरे साथ होता. रंजन सर ने कभी ऐसा किया होता तो? तो शुभांगी दी कर पातीं ऐसा? मान लो उसने कभी फोन करके उन्हें ही सबसे पहले बताया होता तो? तो क्या कहतीं वह? रहने दो. कुछ नहीं कहतीं. समझातीं. पर स्टेट्स कभी नहीं लिखतीं. स्टेट्स लिखते ही वह रिश्ता हमेशा के लिए ख़त्म हो जाता. तब उनकी तीमारदारी में नहीं जुटे होते रंजन सर. और आज अगर वह अकेले होतीं? अस्पताल से घर तक? तो? तो क्या ये लोग जाते वहाँ उनकी सेवा करने? रहने दो..कोई नहीं जाता. बातें हैं बातों का क्या!  उसके सीने में एक बार फिर दर्द की लहर उठी. उसने जोर से भींचा उन्हें और फिर सिगरेट सुलगा ली.

अगले दो दिन भी वह दफ़्तर नहीं गयी. ऋषभ ने ज्वाइन कर लिया था. सागरिका को अब होश आ गया था. पुलिस ने उस पर आत्महत्या के प्रयास का मामला दर्ज कर लिया था. सम्पादक को निकाल दिया गया था लेकिन मैनेजमेंट पर अब तक कोई केस नहीं हुआ था. जैन साहब के दो और मेल आये थे. फेसबुक धधक रहा था. नीरज ने कई काल किये थे इस बीच. वह प्रदर्शन की तैयारियों में लगा था. निहाल ने कई मैसेज किये थे. उसने पढ़े ही नहीं. माँ का फोन आया था. छोटी बहन की फ़ीस जमा करनी थी और बाबूजी कहीं दौरे पर निकल गए थे. उसने आनलाइन ट्रांसफर किया तो याद आया कि मकान मालिक को किराया भी देना है. अकेले के लिए घर बड़ा था. किराया अधिक. लेकिन शिफ्ट करने के लिए एजेंट की फीस और एडवांस सहित जो रक़म चाहिए थी उसका इंतजाम मुश्किल था. काश कोई और होता साथ में..सिगरेट भी मंहगी हो गयी थी. इधर जो बन्दा आर्मी कैंटीन से समान सप्लाई करता था उसका भी ट्रांसफर हो गया था...

और दो दिन बीत गए!

बारह बजे घेराव था. वह घर से निकली थी घेराव के लिए ही. मेट्रो से उतर के उधर चली तो रास्ते में जैन साहब मिल गए और उनकी गाड़ी में बैठ गयी. काले शीशे के उस पार लोग बैनर-पोस्टर लिये खड़े थे, नारों की तेज़ आवाजें शीशे से टकरा के लौट जा रही थीं...जैन साहब की सिक्योरिटी तैनात थी और साथ में ढेरों पुलिसवाले भी...कार तेज़ी से आफिस के गेट की तरफ बढ़ी. उसने फेसबुक खोला..थोड़ी देर तक देखती रही...फिर डीएक्टिवेट कर दिया.  


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[1]फ़राज़ अब कोई सौदा कोई जुनूँ भी नहीं 
मगर क़रार से दिन कट रहे हों यूँ भी नहीं (अहमद फ़राज़ )

अरुण श्री की कविताओं पर राहुल देव

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मेरा अभीष्ट देवत्व नहीं है !


ज जबकि कविता बहुतायत में रची जा रही है ऐसे में कविता के कुछ प्रतिनिधि युवा स्वरों को चिन्हित करना बेहद कठिन काम है | वैसे भी निरंतर विकासशील प्रवृत्तियों पर बात करना अपेक्षाकृत जोखिमपूर्ण रहता है | फिर भी कविता के युगीन स्वरुप के निर्धारण के लिए कदम उठाये जाने चाहिए, ऐसे छिटपुट प्रयास हमें कभी-कभार दिखाई भी पड़ते हैं | संचारक्रांति और सोशलमीडिया के बढ़ते वर्चस्व से इधर कविता के लिखने-पढ़ने, छपने-छपाने में तेज़ी आई है जिसने कविता की गुणवत्ता को भी पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है | ज्यादातर कवियों के लिए कविता लिखना अब भी एक शगल है | सोशल मीडिया पर हर तीसरा आदमी अपने को कवि मानता है | सार्थक लेखन करने वाले समर्पित साहित्यकार कम ही हैं | ऐसे दौर में कुछ ऐसे भी नाम हैं जिन्होंने निरंतर अच्छे लेखन से ध्यानाकर्षित किया है | अरुण श्री मेरे लिए उन्हीं नामों में से एक हैं | इससे पहले अरुण पत्र-पत्रिकाओं, ब्लोग्स आदि में प्रकाशित होते रहें हैं | चार संयुक्त काव्य संकलनों में उनकी सहभागिता रही है | साल 2015 के प्रारंभ में आया कविता संग्रह ‘मैं देव न हो सकूँगा’ उनका पहला स्वतंत्र कविता संग्रह है |अरुण युवा हैं | साहित्यिक फलक पर अपनी सशक्त अभिव्यक्ति से उन्होंने अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज की है | उनकी ही तरह से युवा कविता में कुछ और नाम भी हो सकते हैं जिनकी रचनाशीलता को रेखांकित किया जाना चाहिए | युवा कविता के स्वरुप व प्रवृत्तियों पर आलोचकों को निष्पक्ष होकर अपनी राय रखनी चाहिए, उनसे बचना या कतराना नहीं चाहिए | न ही बगैर पढ़े यह कहना उचित होगा कि अच्छी कविता लिखी नहीं जा रही या भारत भूषण पुरस्कार लायक कोई कवि या उसकी कविता योग्य नहीं हैं | कविताओं के अनुपात में की गयी आलोचना का प्रतिशत बहुत कम है | किसी बड़ी प्रवृत्ति पर आरोप-प्रत्यारोप से पहले उस पर समग्रता में बात करना/ उससे गुज़रना पहली शर्त है | युगीन काव्य प्रवृत्तियों को तय करना एक प्रक्रिया है |


अरुण विद्रोह के कवि हैं | उनकी कवितायेँ अपने समय की आँखों में आँखें डालकर बात करने की शैली में हैं | वे उनमें लगातार प्रश्न उठाते हैं | अरुण कहीं भी पाठक को डिक्टेट नहीं करते और न ही कोई अंतिम निर्णय देते हैं, कविता ऐसा करती भी नहीं | तनाव और बेचैनी के आलम से निकली उनकी अधिकांश कवितायेँ पाठक को अन्दर तक आकुल कर देती हैं | अरुण उनमें राजनीतिक और सामाजिक अंतर्संबंधों की पोल खोलते नज़र आते हैं | उनकी काव्ययात्रा आत्म से अनात्म की यात्रा है | संग्रह में अपने आत्मकथ्य में कवि लिखता है कि, “मैंने यात्रा का चुनाव किया, गंतव्य का नहीं | जीवन मेरे लिए कोई उद्देश्य नहीं, एक यात्रा भर है |” कवि अपनी काव्ययात्रा के प्रारंभ में ही सीधी-सरल और सुविधाजनक राह न पकड़ते हुए जीवन के अनुभवों से गुज़रती हुई एक टेढ़ी-मेढ़ी, उबड़-खाबड़ पगडण्डी का चुनाव करता हैं | उनकी कविता में उनका यह आत्मसंघर्ष सहज ही परिलक्षित होता है | इनकी कविता में आपको सीधे-समतल रास्ते बहुत कम मिलेंगें | संग्रह की कविताओं को अरुण ने तीन खण्डों में विभाजित किया है – ‘मेरे विद्रोही शब्द’, ‘कवितायेँ नाखून बढ़ाकर’ तथा ‘जब भी सोचता हूँ प्रेम’ | अपनी पहली ही कविता से वह पाठक के सामने अपना मंतव्य स्पष्ट कर देते हैं | इस कविता का शीर्षक है, आखिर कैसा देश है ये? इस कविता की एक पंक्ति में वे कवि की पीड़ा को शब्द देते हुए लिखते हैं कि,

“एक कवि के लिए गैरकानूनी होने से अधिक पीड़ादायक है गैरजरूरी होना |”

सच है किसी देश के लिए कवि और उसकी कवितायेँ गैरजरूरी हो जाएँ इससे अधिक त्रासद और पीड़ादायक स्थिति और क्या होगी | इस कविता में अरुण धूमिल के तेवर में दिखाई देते हैं | वह कठोर यथार्थ की विसंगतियों को सामने रखते हुए साफ़ साफ़ बात करते हैं | उनके बिम्ब देखिये-

“कविताओं के हर प्रश्न पर मौन रहती है संसद और सड़कें भी
निराश कवि मिटा देना चाहता है नाखून पर लगा लोकतंत्र का धब्बा |”

अरुण के पास अपनी भाषा है | उनका सबसे मजबूत पक्ष उनका विशिष्ट कहन है | अरुण ने अपना एक अलग सलीका अपना एक अलहदा शिल्प विकसित किया है जोकि उनकी कविताओं में गद्यात्मक लगते हुए भी प्रवाह को बनाये रखता है | संवेदना से भरी-पूरी उनकी कविताओं में एक स्वाभाविक लय सुनाई देती है | अरुण ने छोटी-बड़ी सभी तरह की कवितायेँ लिखीं हैं | भावों की अपेक्षा कवि का विचारपक्ष ज्यादा प्रबल है | कवि सार्वभौम मानवीयता का पक्षधर है | वह एक बेहतर भविष्य का सपना संजोते हैं, उसकी तलाश के रास्ते सुझाते हैं | अजन्मी उम्मीदें शीर्षक कविता में वह लिखते हैं,

“हाशिये पर पड़ा लोकतंत्र अपनी ऊब के लिए क्रांति खोजता है |”

इस कविता में कवि संसद और सड़क से प्रश्न पर प्रश्न करता है | संसदीय माननीयों के प्रति उसका आक्रोश यूँ ही नहीं | उनकी गलत नीतियों, तमाम सामाजिक विसंगतियों, आर्थिक विषमताओं, राजनैतिक बदलाव की इच्छा और विकल्पों का अभाव पाठक को सड़क की आम जनता के प्रति गहरी सहानुभूति से भर देता है | उनकी कई कविताओं में भूमंडलीकृत दौर में तेज़ी से पैर पसारती जा रही कैपिटलिज्म की तीखी आलोचना है | अरुण विचारों के स्तर पर मार्क्सवाद से प्रभावित अवश्य हैं लेकिन उसके अंधानुगामी नहीं | अपनी यात्रा के लिए साध्य और साधन दोनों की शुचिता उसके लिए महत्त्वपूर्ण है | उसे फ़र्क नहीं पड़ता कि इससे किस वाद की सेवा बन या बिगड़ जाती है | इस वजह से ही कवि एक बेबाक, ईमानदार व दृष्टिपूर्ण काव्यरचना में समर्थ हो सका है | यह तथ्य अरुण के काव्यव्यक्तित्व की मौलिक व स्वतंत्र निर्मिति करता है | मेरे विद्रोही शब्द शीर्षक कविता में सामंती प्रवृत्ति को संबोधित करते हुए कवि स्पष्ट लिखता है,

“तुम्हारे मुकुट का एक रत्न होना स्वीकार नहीं मुझे
शब्दों के विलुप्त होने की प्रक्रिया समझाते तुम –
विद्रोही कवियों से एक अदद प्रशस्तिगान चाहते हो
लेकिन मेरे लिए सापेक्ष तुम्हारा झंडा थामने के –
कंगूरे से कूद आत्महत्या कर लेना बेहतर विकल्प है |”

अरुण अपनी कविताओं में व्यक्त आक्रोश को व्यंग्य में नहीं बदल पाते जैसा कि धूमिल अपनी कविताओं में संभव कर दिखाते हैं | धूमिल किस तरह व्यवस्था की विसंगतियों को उघाड़ते हैं | उनकी गंभीर वैचारिकता और व्यंग्य शब्दचित्रों का तालमेल कविताओं को पाठकीय प्रत्युत्तर के लिए तैयार करता है | धूमिल के काव्यांश इसीलिए उधृत किये जाने वाले काव्यांशों में सर्वोपरि हैं | यहाँ मेरा उद्देश्य कवि की किसी भी तरह से धूमिल से तुलना करना नहीं है | यहाँ बस मैं यह कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि आक्रोश को यदि व्यंग्य की धार मिल जाए तो कविता और अधिक प्रभावी हो जाती है | इसी तरह अरुण कहीं-कहीं बहुत सीधे व सपाट हो जाते हैं जिससे पाठक कई बार किसी काव्य निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाता | ऐसे में कविता अपने ढाँचे में खड़ी तो हो जाती है लेकिन उससे पाठकीय अपेक्षाओं की पूर्ति संभव नहीं हो पाती ध्यान रहे कि यहाँ पाठक से मेरा आशय सामान्य और प्रबुद्ध दोनों प्रकार के पाठकों से है | कवि की मान्यताओं को पाठकीय विस्तार मिलना एक अच्छी कविता के लिए जरूरी तत्व है |

‘कोई क्रांतिकारी नहीं हूँ मैं’ एक अच्छी कविता है | कवि दिनोंदिन बढ़ते जा रहे अत्याचारों-अनाचारों से बहुत व्यथित हो जाता है और कविता फूट पड़ती है | उसका कहना है कि वह कोई क्रांतिकारी नहीं है लेकिन ऐसे समय में चुप रहना भी समस्या का कोई हल नहीं है | कवि अपनी कविताओं के माध्यम से अपना प्रतिरोध दर्ज करता है | कवि के लिए उसकी कविता ही उसका हथियार है | प्रेम की परिभाषा क्या है ? वास्तविक प्रेम के संघर्ष का चित्रण कवि अपनी कविता में करता है | ‘प्रेम संघर्षरत है’ शीर्षक कविता में कवि कह उठता है,

“असल प्रेम तो/ तुम्हारे भीतर ही कहीं संघर्षरत है अपने अस्तित्व के लिए”

यह कविता भौतिकतावादी प्रेम की निर्मम चीरफाड़ करती है |

‘सुनो स्त्री’ शीर्षक कविता में कवि का स्त्री के प्रति दृष्टिकोण स्पष्ट होता है | इस कविता में वह बताते हैं कि किस तरह एक आत्मा(स्त्री) देह में बदलती है | थोपी गयी स्मृतियों को कवि इसका मुख्य कारण मानता है | तो वहीँ ‘चमारनामा’ नामक कविता में कवि समाज के निम्न कहे जाने वाले वर्ग के साथ खड़ा दिखाई देता है | ‘इरोम चानू शर्मीला’ शीर्षक कविता एक बेहद मार्मिक कविता है जिसमें उनके प्रति कवि की सघन संवेदनाएं व्यक्त हुई हैं | ‘बुद्धिजीवियों के षड्यंत्र’ शीर्षक कविता में अरुण कहते हैं,

“तुम देते रहो
वातानुकूलित मंचों से कृष्ण के प्रेम का उदाहरण
मुझे तो अपना प्रेम समझ न आया आजतक
आश्चर्य तो ये कि तुम प्रेम की बात करते
खाप के विषय में बात करना जरूरी नहीं समझते
सुना है लव जेहाद की चर्चा बहुत है इनदिनों”

या फिर इसी कविता का यह अंश,

“अलग देशकाल-परिस्थितियों को भोगता हुआ मैं
नहीं जानता कि ये मिथक
सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने के लिए थे
या समकालीन बुद्धिजीवियों के षड्यंत्र का हिस्सा
जानते हो
प्रतीक बच निकलने का रास्ता सुझाते हैं अक्सर
तीन बंदरों के चरित्र वाले तुम
महान पुराने वक्तव्यों में तलाशो अपना ब्रह्म-सत्य
मुझे तय करनी है
अपने समय की प्राथमिकतायें और मेरी पक्षधरता
मेरे गाल तुम्हारे गांधीबाबा की बपौती नहीं हैं |”

यह सामाजिक अंतर्विरोधों की कविता है जिसमें कवि ने बड़े साहस के साथ मिथकों और ऐतिहासिक तथ्यों का समावेश किया है |

‘थोड़ी सी लज्जा’ शीर्षक कविता में कवि का यह कहना कि,

“वातानुकूलित संस्कृति की आदी मेरी पसंदीदा कवयित्री
अपनी कविताओं में लिखती है पहाड़
और दरक सी जाती है
पत्थर हुए पाठकों के बीच
उदास नदी सी दर्ज कराती है अपनी मुग्ध उपस्थिति
लेकिन नदी किनारे बसे अपने गाँव नहीं जाना चाहती
कहती है वहां उमस है बहुत, बिजली भी नहीं रहती |”

समकालीन कविता के कृत्रिम परिदृश्य पर करारी चोट है | अगर हमारी कविता से लोक के असल चित्र अनुपस्थित हैं तो निश्चित रूप से यह कविता के लिए चिंता का विषय है | ऐसे बनावटी बिम्बों से सजी कविता पाठक को क्या स्पर्श करेगी | साहित्यकारों की कथनी और करनी के अंतर ने साहित्य को आमजन से दूर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है | संग्रह की कविता ‘यार कवि’ छोटी लेकिन बढ़िया कविता है | इस कविता में कवि का कहना है कि कवि हो जाना जीवन की जीवन्तता से विमुख हो जाना नहीं है | यह कविता हरदम कविता में डूबे रहने वाले कुछ गंभीर किस्म के कवियों को संबोधित है | कवि भी सबसे पहले एक मनुष्य है, वह किसी दूसरे ग्रह से आया हुआ प्राणी नहीं | उसे भी जीवन के तमाम पलों को जीने का हक़ है | कविता इस बात का समर्थन करती है |
संग्रह की कविता ‘बेटी से लड़की होने तक’ के निम्न अंश दृष्टव्य हैं,

“वो छीन लेती है अपने हिस्से की किताबें
दूध देख नाक सिकोड़ती लड़की
प्रेम को मानती है नमक जितना जरूरी
प्रेयस के लिए चौराहे की दूकान से खरीदती है
‘जस्ट फॉर यू’ लिखा काफी मग
पिता के लिए नया चश्मा कि देख सकें
सम्मान के नए शिखर
बेटी के मजबूत होते पंख भी
फिर सौंप दूंगा उसे अपनी अधूरी डायरी
कि वो खुद तय करे अपनी कहानी का उपसंहार”

जैसे कवि कोई काव्य डायरी लिख रहा हो | मानो वे छोटी छोटी काव्यकथाएं सुना रहे हों | आगे की कविता में वह कवि के पाखण्ड पर भी तंज करते हैं कि क्यों एक पुरुष तय करता है स्त्री होने की परिभाषा | इस संग्रह की एक छोटी कविता ‘एक कतरा अँधेरा’ मुझे बहुत पसंद आई इसलिए उसे आपके लिए पूरा दे रहा हूँ | देखें –

“दीपावली की रात है, उजली है बहुत

अभी जब डूबा था पिछला सूरज,
जलाए थे दिये मैंने –
ख़ुशी के, प्रीत के, अर्थ खोती रीत के

नयी रंगीनियों में डूब गया था कालापन
पुरानी करवटों पर डाल दी थी नई चादरें
खरीद लीं थीं बिकाऊ मिठाइयाँ
लेकिन नहीं खरीद पाया मिठास –
जिंदगी की
दूर नहीं हुआ विचारों का कसैलापन

अभी-अभी बदले चादरों पर उभर आई है –
पुराने बिस्तर की सिलवटें
रंगीन किये हुए दीवारों से –
झाँक रहे हैं अब भी कुछ पुराने धब्बे
पाठकों के शोर में भी चीखता है
हृदय के कोने से एक अंतहीन सूनापन

रौशनी से चौंधियाई आँखों में,
एक कतरा अँधेरा कहीं सहमा हुआ है |”

यह कविता कम शब्दों में कितना कुछ कह जाती है | आप देखिये यह कवि शब्दों के माध्यम से कोई चमत्कार उत्पन्न नहीं करता | संग्रह की कविताओं में सभ्यता, प्रेम, संसद, सड़क, कवि, शब्द, लोकतंत्र, देश, क्रांति, विद्रोह, सुनो, लड़ो, स्त्री, भूख, पेट, वोट, मृत्यु, बीमार, खून जैसे शब्द बार-बार आते हैं | जिनसे कवि के मूलभाव को सहज ही समझा जा सकता है |

संग्रह के तीसरे और अंतिम खंड की कवितायेँ पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि संभवतः ये कवि की प्रारंभिक रचनाएँ हैं | भावों की अतिशयता और प्रवाहपूर्ण गीतात्मकता इन कविताओं को शेष दो खण्डों की कविताओं से अलग खड़ा करती हैं | इस खंड की ज्यादातर कविताओं प्रेम के स्थूल एवं सूक्ष्म स्वरुप का गहन पर्यवेक्षण एवं विवेचन मिलता है | ‘कैसे कहता’ शीर्षक कविता में जब कवि को उसका एक पुराना दोस्त मिल जाता है तो वह कवि से पूछता है कि क्या अब भी लिखते हो जिसके उत्तर में कवि अपनी कविता में कह उठता है कि,

“कैसे कहता?
जिसके लिए लिखता था अब वो रूठ चुका है
जिस रिश्ते पर अहंकार था – टूट चुका है
अब तो जितना हो सकता है खुश रहता हूँ
दिल तो दुखता है लेकिन अब चुप रहता हूँ

अब मैं दर्द नहीं लिखता हूँ !”

यह एक भावुक कर देने वाली कविता है | इसी तरह की प्रियतमा की स्मृतियों का एक और उदाहरण ‘बची हुई तुम’ शीर्षक कविता भी है जिसकी पंक्तियाँ हैं,

“जाने क्या –
जो सख्त बर्फ के नीचे अपनी गर्माहट से
सींच रहा है बीता रिश्ता
शायद –
तुम थोड़ी – थोड़ी मुझमे रहती हो
पास तुम्हारे छूट गया हूँ थोड़ा मैं भी |”

प्यार और रोटी के बीच की कश्मकश में कवि बेचैन होकर उत्तर ढूँढता है – (‘उत्तर ढूंढना है’ शीर्षक कविता)

“चाहता हूँ मेरे आँगन की बहारें खिल उठें –
प्यार का मेरे मधुर स्पर्श पाकर
सोचता हूँ डूब जाऊं प्यार की प्यासी नदी में

पर विवश हूँ, क्या करूँ मैं
भूख की रेखा खिंची है,
प्रश्न रोटी का खड़ा है बीच अपने,
और उत्तर ढूंढना है |”

वह जानता है कविताओं से हल नहीं होते भूख के जटिल समीकरण | जिंदगी का यह गणित इतना आसान नहीं |
अपनी ‘बिल्ली सी कवितायेँ’ शीर्षक कविता में अरुण कहते है,

“मैं कई बार शब्दों को चबाकर लहुलुहान कर देता हूँ
खून टपकती कवितायेँ
अतिक्रमण कर देती हैं अभिव्यक्ति की सीमाओं का
स्थापित देव मुझे खारिज़ करने के नियोजित क्रम में
अपना सफ़ेद पहनावा सँभालते हैं पहले
सतर्क होने के स्थान पर सहम जाती हैं सभ्यताएं
पत्ते झड़ने का अर्थ समझा जाता है पेड़ का ठूंठ होना |”

इसीलिए कवि चाहता है कि उसकी कवितायेँ बिल्ली सी हो जाएँ | यहाँ पर बिल्ली चपलता और अन्धविश्वास का एक प्रतीक है | या फिर ‘मेरी गवाहियाँ’ शीर्षक कविता का यह अंश देखिये,

“मैं मनुष्यता के दुर्दिनों का साक्षी मात्र हूँ
अदालतें न जाने कहाँ व्यस्त हैं इन दिनों
थाने की दीवार पर लिखा है कि शांति बनाये रखें कृपया
मुझे ‘वरना’ समझ आता है सरकारी ‘कृपया’ का अर्थ
मैं अपनी गवाहियाँ चौराहे के कूड़ेदान में फेंककर लौटा हूँ |”
और ‘गृह मंत्रालय का बयान’ शीर्षक कविता की यह एक पंक्ति,
“इस लोकतंत्र में एक वोट से ज्यादा क्या है तुम्हारा निवेश?”

इन कविताओं ने चली आ रही काव्यजड़ता को तोड़ा है | अरुण की कवितायेँ भीड़ में अपनी एक अलग ही पहचान बनाती नज़र आती हैं | कहीं कहीं कवि नास्टैल्जिक हो जाता है तो कहीं कहीं इनके यहाँ पर समकालीन यथार्थ कवि की कल्पना का साथ पाकर एक रूमानी फैंटेसी का प्रतिसंसार बनाता प्रतीत होता है जिनमें मुक्तिबोध की तरह अर्थों के गहरे संस्तर दिखाई देते हैं | इस प्रवृत्ति का सबसे अच्छा उदाहरण मुझे उनकी नयी कविता ‘साधो सूर्य का यह देश’ लगी | यह कविता इस संग्रह में सम्मिलित नहीं है |

कवि मदन कश्यप एक जगह कहते हैं कि हिंदी में सिर्फ दो तरह के लेखक हैं एक वे जो इस समाज और दुनिया को बदलना चाहते हैं अथवा कम से कम बदलाव में आस्था रखते हैं और इस बदलाव के लिए लिखते हैं | जबकि दूसरे वे हैं जो इस दुनिया को तमाम पतनशील मूल्यों के साथ स्वीकार कर चुके हैं और इस दुनिया में अपनी जगह बनाने/ बढ़ाने और अपना कद ऊँचा करने के लिए लिखते हैं | अरुण की कविताओं को पढ़ने के बाद मैं कह सकता हूँ कि अरुण प्रथम प्रकार के कवि हैं | हिंदी कविता को इस युवा कवि से बहुत अपेक्षाएं रहेंगी |
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संपर्क : 

ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com

मो.09454112975
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अरुण श्री की कुछ  कवितायेँ  आप  यहाँ पढ़  सकते  हैं. 

शोक काल : सूरज की लम्बी कविता

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दिल्ली विश्वविद्यालय के बीए द्वितीय वर्ष के छात्र सूरजएकदम युवतर पीढ़ी के कवि हैं, अंखुआती दाढ़ी  मूछ  के साथ अंखुआते क्रोध और अंतर्द्वंद्व के कवि. उनकी कुछ कविताएँ अभी हाल में पढ़ी तो चौंका नहीं बल्कि एक आश्वस्ति से भर गया. समकालीन कविता में नयेपन की चिरपुरातन मांग के दबाव में चमत्कारी वाक्य लिखते कवियों के बीच अपने कथ्य के प्रति गहन सम्बद्धता और शिल्प के प्रति एक लापरवाह सी सावधानी मुझे सदा से आकर्षित करती है, सूरज के यहाँ वह जनपक्षधर कहन के साथ और निखर कर आई है. इतना सा कहकर मैं आपको उनकी कविताओं के साथ अकेले छोड़ता हूँ...


 

शोक काल

(एक)

शब्दों  में  प्रतिरोध  की  अनुगूँज  है
सभ्यता  के  अंधे  कुएँ  में  गूँज  रहे  हैं  ,किसी  भयावह  आपदा  के  पूर्वाग्रह ,
गड़गड़ातेअट्टहास  करतेहैअँधेरेमें,संदेह  और  अवसाद   के  मानसूनी  बादल
थरथराता  हुआ- सा  है , कहीं  गहरे  में  लटकी  हुई
किसी  पेंड़  की  सूखी  टहनियों  परलगादीमक 
मृतप्राय  पेड़  की  अस्थियों  में  कोई  है ,दीमक  की  नसों  मेंदबे  पाँव  घुसता  हुआ

सड़क  के  किनारों  पर
गाड़ियों  की  धुंध  और  शोर-शराबे   से  बेखबर  ,अलसाये  हुए  कुत्ते
दौड़ते  हैं  भौंकते  हुए  अचानक
जैसे  उनकी  संवेदना  में  हवा ,दहन   की   गुप्त -ऊष्मा  का  प्रसार  है!
इन  सब  के  बीच  एक  आदमी  मृतक  हो  रहा  है
वह  चिल्लाता  है
और  उसकी  चमड़ी  उधड़ने  लगतीहै
उसके  शरीर  में  घुसते  जाते  हैं
सभ्यता   के  हमलावर  पिस्सू
   
   यहरात  केसाये  कीतस्वीरहै
   हर  दीवारपर  उगती  हुई

(दो)

शहर  से  कुछ  दूर
एक  पिछड़े  हुए  इलाके  में
यह  बूचड़खाने  की  नाली   है
यहाँ   बहते  खून  से  तय  होता  है ,इंसानियत  का  आरोप
अब  वक्त  एक  कसाई  की  भूमिका  में  है
और  घुण्डियों  में   टंगे  माँस  के  लोथड़े
मृत्यु  के  करीब  बैठी  सभ्यता  के  नर-पशु  केहैं

असमंजस  की  स्थितिमें, जब  नहीं  रहजातादिनऔररातकेबीचकोईफ़र्क
धुंध  में  तब्दील  होती  है  दिन  कीरौशनी
एक  विलुप्त  होती  नदीकेकिनारों  पर  उगी  सभ्यता   की  झाड़  में
कुछ  परजीवी  घसीटतेहुए  एक  चिथड़ा  मांस
चलरहेहैं , गड़ाएहुएनुकीलेपंजे
वक़्त  की  पीठपर  उभरते  जातेहैं  हर  कहीं  खून  से  सनेहुएजबड़े
खड़ीहैं  दिशाएँ  स्तब्ध , आसमानमें  सूरजबादलोंकीओटमेंठिठकजाताहै

  यह  अँधेरेका  दृश्य  है
  जब  घड़ी  कीसूईयाँ  ठहर  सीजातीहैं
  जब  नदी  में  जल , जलनहींरह  जाता
  जब  सिर्फ  मूकसितारे  होते  हैं , निर्ममऔरअहिंसक  केबीच  अटकीकिसीहत्याकेगवाह

(तीन)

एकदुहराव   होताहै

वर्तमान   को   जलती  हुई  भट्टी  में  फेकते
आतंक  और  डर  के  इस   खूँखार   चेहरे   में 
भविष्य    के  इतिहास   लेखन  के  बीच
एक  कलम   कागज़  से  अधिकचीरती  है 
एक  कलमघसीट  की  छाती

ठीक  उसी  वक़्त 
जब  आदमी  आदमी  से  ज्यादा  एक  घृणित  वस्तु  है
जब  एक  जीव  जीवन  से  अधिक  मृत्यु  का  करीबी  है
जब  कविता  में  शब्द  बोलने  से  अधिक  खामोश  हैं
हाँ ,ठीक  उसी  वक़्तकिले  में  राजा  हँसता  है
और  बाहर  हवा  में  कोई  खामोश  होजाता  है!

एक  आँधी -सी  चलती  है
एक  शहर  गायब  हो  जाताहै  कहीं
हर  तरफ   डर  की  खामोशी
हर  तरफ  इक  अनहोनी  के  पदचाप
जैसे  धरा  के  गर्भ  में   धधकती  है  आग
और  चिंघाड़ते  चले  जाते  हैं  संस्कृति  के  काल - पुरूष
यहाँ  आग  नहीं  है
शहर  में  सतह  पर   सुलगते  धुएँ  के  पीछे

(चार)

खुलेआसमान  की  तेजधूपमें  खुलता  हैनींद  केकमरेकादरवाज़ा

हररोज़  कुछऐसे  ही 
जैसेअवचेतन  में  सरकते  हुएआतेहैंकुछशब्द
बनातेहैं  एक  डरावनेस्वप्न  काशीर्षक
और  आँख  धक्कसेखुलजातीहै
मैं  देखताहूँज़मीन  पर  रेंगतेहुएतमाम  जीव
तमाम  लोग  जो  चलतें  हैंपर्देपररेंगती
थोड़ी  देरबादकहींगुमहोजाती , तस्वीरकीतरह
हर  बार  किसी  वैसी  ही  तस्वीर  के  कोने  में खड़ाहोताहैएक  आदमी
कुछ  और  लोगखड़ेहोतेहैंउसकेठीकपीछे
कतारमें  अपनीबारीके  इंतज़ार  में
अँधेरे  मेंजहाँ  चलरहीहोतीमृत्युकेसमक्ष  डरेहुएचेहरोंकीपेशी

मौत  एकदायराबनातीहैपरिधिपरचलतेहुए
जाने- अनजाने  वक़्त -बेवक़्तजीवनरेंगताहै, चलताहैलुढ़कजाताहै
उसी  दायरेमें  केन्द्रऔरपरिधिकेबीचकीजद्दोजहदमें
यह  मृत्युऔरजीवनकेबीचकागुरुत्वाकर्षणहै

कतारमें  खड़े  कुछलोगखड़ेहैंबिल्कुल  केन्द्रमें , इसबलकोसहनकरतेहुए
एक  आदमी  मरे  बैल  की  खाल  ओढ़े  बैठा  है,
एक  आदमी  उस  बैल  की  अंतड़ियाँ  गिनता  है
एक  आदमी , आदमी  औरहिंसक  पशु  में ,  कर  पा  रहा  है  अंतर
और  कुछ   सभ्य  लोग  हैं  धूप-चश्में  के  नीचे  सेध्यानार्थ  कुछढूँढ़ते
कब्रिस्तान  और  शमशान  के  फ़र्क़  पर  पर्यटनपर  निकलेहुए

(पाँच)

एक  दृश्य  जिसके  करीब  मैं  बैठा  हूँ, एक  दृश्य  जो  मेरी  आँखों  में   है, एक  दृश्य   मैं   जिसमें  खुद  हूँ

सबकी  के  पृष्ठभूमि  मेंएक  खूनी  साया  तैरता  है
सबकुछ  सिमटता  जाता   है , एक  भयावह  भँवर  की  ओरधीरे -धीरे
स्पर्श  में  नहीं  हैंजीवन  और  मृत्यु , दोनो
शब्दसंविधान   और  आवाजें , कुछ  खाली -खाली  है  हर  कहीं
इक  आह  की  चुप्पीहै  तैरती  हुई 
और  लोकतंत्र  की  हलक़  मेंकुछ  शब्द 
कब्र  जैसे  खुद  गयेहैं
  
  ये  उठती  हुई  चीखें, येमौन  लोकतंत्र, येगहरा  सन्नाटा 
  औरकुछ  लोगजोखड़े  थेअभी  यहीं  कहीं
  सब , किसी  धुंध  की  स्मृतियाँहैं, धुएँसीउड़ती  हुई

गूँजरही  हैं  हर  कहींकुछ  आवाज़ें ,   प्रलय  की  खामोश  ध्वनि  जैसे 
गलियों  में  तैर  रहे हैंहिंसा    के  मेनिफेस्टो
डूब  रहा  है  हर  मुहल्ला  किसी  शोक  में
हर  तस्वीर  की  पृष्ठभूमि  में  छींटे  हैं  खून  कीउभरीहुई
बड़ा  मुश्किल  हैरहपानाआत्महत्या  केविरुद्ध
मुश्किलहै  कह  पानाधुएँ  को  धुआँ

धुएँ  मेंज़िंदा  हैडर  कासंदेह...

कहानी- जंगल

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जंगल

 झिर्रियों से आ रही हवा किसी धारदार हथियार की तरह जख़्मी कर रही थी। गोमती ने साड़ी का पल्लू चेहरे पर लपेट लिया और बाबू को और कस के भींच लिया। रामेसर ने बीड़ी सुलगा ली थी। गोमती का मन किया कि मांग के दो कश लगा ले तो थोड़ी ठंढ कटे। यह सोच कर ही उसके होठों पर एक हल्की सी मुसकराहट तैर गयीबचपन में दादा बीड़ी सुलगाने के लिये देते तो चूल्हे से सुलगाने के बहाने दो फूंक मार लेती थी और कभी-कभी बूआ के साथ बंडल से दो बीड़ी पार करके नहर उस पार की निहाल पंडिज्जी की बारी में बुढ़वा पीपल के पीछेपीपल का ख़्याल आते ही जैसे ढेर सारा कड़वा थूक मुंह में भर आया होएकदम से पूछा, ‘केतना घण्टा और लगेगा’…रामेसर ने बीड़ी का अंतिम कश खींचा और फिर ठूंठ को खिड़की से रगड़ते हुए बोला, ‘दू बज रहा होगासात बजे का टाइम हैसो काहे नहीं जाती?’…’नींद नहीं आ रहा है’…उसने ठंढ का जानबूझकर कोई जिक्र नहीं किया था। ‘काहें घर का याद आ रहा है का’ रामेसर ने मफ़लर को और कस के लपेटते हुए पूछा। नाहीं’…उसने ऐसे ही चारो तरफ़ नज़रें फिराईं। डब्बा खचाखच भरा हुआ था। खिड़की के पास को दो सीटों में खुद वे चार जन सिमटे हुए थे। बीच की जगह में एक बूढ़ा आदमी अधलेटा सा हो गया था। रास्ते में चार-पाँच लोगबगल की लम्बी सीटों पर छह-छह लोग जमें थे और उनके बीच तीन लोग टेढ़े-मेढ़े होकर पड़े हुए थे। ऊपर की सीट पर चार-पांच लोग उकड़ू होकर बैठे थे। बच्चों की तो गिनती ही नहीं। सामने पंखें पर सबने अपने जूते सजा दिए थे। भीड़-भाड़ में हज़ार तरह का लोग रहता है, कोई जुतवे उठा ले गया तो? उसने गौर से देखा तो सारे जूते-चप्पल सीट के नीचे रखे थे। उसे बहुत ज़ोर से पेशाब आ रही थी लेकिन पिछले आधे घंटे से कई बार गैलरी का नज़री मुआयना कर लेने के बाद उसकी हिम्मत जवाब दे गयी थी। उसे पिछले साल की रैली की याद आई। रामनक्षत्तर ट्रालियों में भरकर ले गये थे बहन जी की रैली में। सुबह आठ बजे के निकले बारह बजे पहुँचे थे सब लोग लखनऊ। कितने सारे आदमी-औरत। जहां तक देखो बस लोग ही लोग। रामनक्षत्तर बता रहे थे चार लाख लोग पहुंचे थे। गरमी का दिन। आसमान से जैसे आग़ बरस रही थी। दूर-दूर तक न पानी न खाना। चार बजते-बजते हालत ख़राब हो गयी थी। मर्द लोग तो वहीं किनारे शुरु हो गये अब औरतें कहां जायेंसब की सब बस एक-दूसरे का मुंह देखें और मुस्करायें। बहन जी ने क्या कहा कुछ समझ नहीं आया। एक बार तो मन किया कि वहीं किनारे बैठ जायें। लेकिन गांव-जवार के सारे बड़े-बुजुर्ग और लौंडे अलग। आठ बजे जब ट्राली लौटना शुरु की और लखनऊ से बाहर निकली तब जाकर शांति मिली। सात बजने में अभी पाँच घण्टा हैशायद सुबह लोगों की नींद खुले तो कुछ जगह बने। बाबू फिर से कुनमुनाया तो गोमती ने उसे खींच कर चिपका लिया।

रामेसर ने बंडल निकाला तो बस तीन बीड़ियाँ और बची थीं। जबसे स्टेशन पर बीड़ी-सिगरेट मिलना बंद हुआ है आफ़त हो गयी है। बारह-पन्द्रह साल के लौंडे बेचने आते हैं और तीन रुपये की बीड़ी पाँच-दस रुपये में देते हैंमाचिस का भी दो रुपया अलग से मांगते हैं। इसीलिये निकलने से पहले ही उसने दो बंडल रख लिया था। लेकिन अठारह घंटा का रास्ता। अब ख़ाली रहो तो और मन करता है। अभी चार-पाँच घंटा है। लेकिन रात में तो कोई बेचने वाला भी नहीं आयेगा। और एक तो बचानी ही होगी नहीं तो सबेरे-सबेरे समस्या हो जायेगी। उसने बंडल वैसे ही अंटी में डाल लिया। चलने से पहले मन में जितना उछाह था शहर के पास आने के साथ-साथ मन उतना ही घबरा रहा था। खदान का काम,न ढंग का घर न दुआरजंगल में दिन रातकैसे रहेगी गोमतीखेती-बारी की बात और है लेकिन यहाँ तो दिन रात पत्थरों के बीच खटना हैन खाने का कोई टाइम न सोने का। ऊपर से बस्ती का माहौल। उसको तो शराब की महक से घिन आती है और यहां तो दिन-रात शराब बनती है। कैसे रहेगी उस महौल मेंऔर बच्चेकैसे पलेंगेबाबू तो अभी तीन बरस का है और बबलू 8 कायहां कहां स्कूल वगैरह। और मालिक तो ऐसा जबर कि बबलू को भी खटाने के लिये कहेगा। लेकिन बबलू को नहीं करने दूंगा काम। क्या करें कोई चारा भी तो नहीं। जब तक बाबूजी थे सहारा था। अब गांव में भी अकेली औरत जात कैसे रहेगीपट्टीदारों का क्या भरोसासाथ रहके तो एक की कमाई में भी चार पेट पल जायेंगे पर यहां से पैसा भेजना कहां मुमकिन हैऔर गांव में तो अब मज़दूरी भी नहीं है। ज़मीन धकाधक शहर के सेठ लोग ख़रीद रहे हैं और खेती का जो थोड़ा बहुत काम है भी, सब ट्रैक्टर और थ्रेसर से हो रहा है। सोचते-सोचते दिमाग भन्ना गया। एक बीड़ी और सुलगा ली। बबलू ने नींद में बैठे-बैठे करवट ली तो हाथ उसकी गरदन से लिपट गये। कितने सुंदर हाथ। जब नयी-नयी आयी थी गोमती तो बिल्कुल ऐसे ही हाथ थे। नरम-नरम। अंधेरे में छूओ तो जैसे कोई खरगोशदस साल में क्या से क्या हो गया! खेत बिके, मज़दूरी गयी, पहले अम्माफिर बाबूजी और अब गांव भी छूट गया। मज़दूरी करते-करते हाथ पत्थर हो गये और घर की शोभा अब खदान में खटेगी! हाय रे तक़दीरजाने क्या-क्या लिखा है भाग्य में। कितना सोचा कि चार पैसे इकट्ठा हो जायें तो कोई ढंग का काम कर ले। कहीं चौकीदारी ही मिल जायेलेकिन अब क़िस्मत में पत्थर तोड़ना ही लिखा था तो क्या करे? तीन साल में दो-दो मौत। सारी जमा-पूंजी हवा हो गयी। शहर में काम करने जाओ तो एक कमरे का किराया ही पाँच-सात सौ पड़ जाता है। बिना जमानत रखे कोई काम नहीं देता। पहले महीने की पगार जमानत रखो तो दो महीने खायेंगे कैसे? लेकिन अब दो जन हो गये और गांव का कोई चक्कर भी नहीं रहा तो साल-छह महीने में तीन-चार हज़ार बचा लेंगे। फिर चौकीदारी कर लूंगा किसी बिल्डिंग में। वहीं दो-चार घर का काम कर लेगी गोमती भी। बच्चों को स्कूल में डाल देंगे। सब ठीक हो जायेगाबीड़ी खत्म होते-होते ख़्याल सुलझने लगे तो मन शांत हो गया। खिड़की से बाहर देखा तो सूरज की लाली उभरने लगी थी। सरसों के खेतों के उस पार सूरज धीरे-धीरे आंखे खोल रहा था। पीली सरसों ने मन में पुरानी हूक जगा दी। अभी चार साल पहले तक अपने खेत में उगती थी सरसों। पाँच कट्ठा का नहर किनारे का खेत। अम्मा सरसों देखतीं तो निहाल हो जातींकहतीं जैसे नई बहुरिया आई है पीयरी पहिन केकटते ही बुकुआ पीसतींबबलू को रगड़-रगड़ के लगातींसरसों का तेल और बुकुआ। पूरे घर में महक भर जाती। … देखते ही देखते खेत पीछे छूट गये और मकानों की बेतरतीब भीड़ उभरने लगी। यह सफ़र भी ज़िंदगी के सफ़र जैसा ही हैख़ूबसूरत चीज़ें कितनी जल्दी बीत जाती हैंउसने खिड़की से निगाहें हटा लीं।       
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दद्दा ने खिड़कियों से निगाहें फेरी तो फिर मन में भूचाल आने लगा। वही सपना बार-बार खुली आंखों के सामने घूमने लगा। सारे खेत में सरसों खिली हैपीले-पीले फूल यहां से वहां तक दानों के आने की ख़बर लिये खिलखिला रहे हैं और तभी अचानक चारों तरफ से बड़ी-बड़ी मशीनेंजैसे राक्षसों की सेना ने ब्रज पर हमला बोल दिया होदेखते-देखते पूरा खेत उजड़ रहा हैदद्दा उनके पीछे-पीछे भाग रहे हैं बदहवास से चीखते हुए… पर कोई फायदा नहीं। मशीनों के शोर में उनकी आवाज़ कहीं नहीं सुनाई देतीसारे ड्राईवर ज़ोर-ज़ोर से अट्टाहास कर रहे हैंअचानक उनमें से एक पीछे मुड़कर देखता हैसंतोषदद्दा की चीख निकल जाती हैकितनी रातों से बस यही एक सपना। न सोने देता हैन जगने देता है। बिस्तर जैसे दुश्मन हो गया है। देखें तो कौन सी कमी हैमहल जैसा घर,नौकर-चाकरगाड़ियांरोब-रुतबा सब तो हैलेकिन दद्दा तो वही ढ़ूँढ़ते हैं जो छूट गया पीछे। घड़ी में देखा तो अभी पांच बजे थेइस घर में सात बजे से पहले कोई नहीं उठता। गांव होता तो अब तक कितना काम निपट चुका होता। यहां तो कोई काम ही नहीं। कई बार संतोष खदान पर ले भी गया तो इतनी धूलइतना शोर कि दद्दा टिक ही नहीं पाये। जब तक भैंस थी कुछ मन लगा रहता था लेकिन अगल-बगल के घरों से गोबर की बदबू की शिक़ायत आई तो संतोष ने उसे भी बेच दिया। गोबर से बदबूकैसे लोग हैं यहाँ केपानी वाला दूध पी लेंगे लेकिन गोबर की बदबू नहीं बर्दाश्त कर सकतेइतने बड़े-बड़े घर लेकिन एक जानवर के लिये जगह नहीं। पालेंगे भी तो कुत्तेऔर वे भी कैसे-कैसेकोई चोर डपट भी दे ज़ोर से तो मिमियाते हुए अंदर चले जायें। 


सात बरस हो गये थे गांव छूटे पर अब तक शहरी नहीं हो पाये दद्दा। दद्दा यानि रामबरन सिंह गूजरजिसके साठ बरस ग़ुज़रे हों खेत, जंगल और जानवरों की ख़ूशबू के बीच उसे सात बरस का शहर कैसे भाये? कितना कहा संतोष से कि दस-बीस बीघा खेत छोड़ देवह यहाँ खदान संभाले और मैं गांव पर रहकर खेती संभाल लूंगाऔरों ने भी तो यही किया। लेकिन एक नहीं सुनता संतोष। उसकी भी ग़ल्ती कहाँ हैडरता है बेचाराचारों तरफ़ जो नये-नये डकैत पैदा हो गये हैं किसी को भी पकड़ ले जाते हैं। अब कहाँ होती है पहले जैसी डकैतीअब तो नाम के डकैत हैं लेकिन काम है पकड़ काकिसी पैसे वाले के घर से एक आदमी को उठा लो और दस-बीस लाख वसूल लो। पहले होते थे। क्या मजाल कि किसी की जोरू को हाथ लगा ले या किसी की ज़मीन कब्ज़ा लें। देवी के भक्त। चौमासे में डेरा पड़ता था गांवन में। घर बाँट दिए जाते थे भोजन के लिए। सब गाँव-घर के नातेदार-रिश्तेदार होते थे। जुलुम के मारे बनते थे बाग़ी। अब के तो पुलिस-दरोगा वाले भी डकैतों से ख़तरनाक। पुलिस-थाना तो बस दलाली के काम आते हैं। सारे चोर । पटवारी से लेके कलक्टर तक। लेकिन जंगलात का यह नया अफ़सर बिलकुल अलग है। पर संतोष को जाने क्यों फूटी आँख नहीं सुहाता। हमें तो बहुत भला लगता है। एक बार पूछने लगा हमसे हमारे गाँव का किस्सा तो हमने भी बताई – ‘वाको नाम रायपुर है साहबतोमर ठाकुरन की बस्ती हती हियाँअस्सी-नब्बे घर-बाखर हतेएक बेर की बात कि बाग़ी मानसिंह आये हते अपनी गैंग के संगनीचे चम्बल में नहाय रहे थे और गैंग हियाँ टापरन में सुस्ताय रही थीतबैं पुलिस आय मरीगोरी बरसन लागीदस सिपाहिन की लास बिछ गयीगाँव वारे सगरे बीहड़न में दुबक गैमानसिंह आयेउनने कही, अब पुलिस आवेगी, बहुत जुलम होगा...तुम सगरै गाँव छोर दो अबहींसगरो गाँव खाली हो गौ साहब। डुकरा-डूकरी तक ना बचे। सब फ़ैल गए बीहड़न में, जे सगरे मजरे तासे ही बसे हैं। हियाँ बस दो परिवार लौटे तोमरन के और भूमियाँ महाराज को मंदिर...जेहि कहानी है हमरे गाँव की।’ सुनकर ख़ूब हंसा। बता रहा था पानसिंह तोमर पर कोई पिक्चर बनी है। वो भी डाकू था कोई? डाकू तो था पानसिंह गूजर। तीस बरस रहा बीहड़ में। कभी-कभी लगता है पहले का ज़माना होता तो लाइसेंसी ले उतर जाते बीहड़ में ही... देखते-देखते सब बदल गया।
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ई भी कोई जिन्नगी हैरात-दिन बस पत्थर ही पत्थरहवा में पत्थरपानी में पत्थरपसीने में पत्थरऔर धीरे-धीरे सबके कलेजे में भी भरता जा रहा है पत्थर। इंसान तो कोई लगता ही नहीं है यहाँ। सब जैसे भूत की तरह बिना पांव के चलते-फिरते बिजूके लगते हैं। काम-काम-काम। सबेरे मुह अंधेरे जो खटना शुरु होता है तो घण्टे-मिनट की कोई गिनती ही नहींशाम ढलते सब नशे में चूरदिन भर काम का नशा तो रात भर शराब का। चीख-चिल्लाहट-लड़ाई-रोना-धोनाऐसा लगता है साक्षात रौरव-नरक में रह रहे हैं तीन सौ पापियों और एक यमराज के साथयमदूत भी हैं आठ-दस। ज़रा सा गड़बड़ हुई नहीं कि पैसा काट लेते हैं। छह महीने से दोनों जन खट रहे हैंअभी तक एक हज़ार भी जोड़ नहीं पाये।

और लाज-लिहाजइंसानियत की तो पूछो ही नहीं। एक बार नशा चढ़ा नहीं कि कौन किसका हाथ पकड़ लेकौन किसकी साड़ी खींचने लगेकुछ पता नहीं चलता। औरत-मरद सब नशे में धुत। करें भी तो क्यान पीयें तो दिन भर की थकान मार डाले। कैसे टीसता है बत्ता-बत्ता देह का… कई बार तो सच में मन करता है कि कुल्हड़-दो कुल्हड़ ढरका लें। लेकिन औरत को शराब पीना अच्छा लगता है क्याइनकी तरह थोड़े हैं हमगांव-जवार हैनाते-रिश्ते में पढ़े-लिखे लोग हैंअरे वह तो वक़्त ख़राब चल रहा है वरना। लेकिन इसी में सड़ना नहीं है जिन्दगी भर। थोड़े पैसे और जुट जायें तो बाहर निकलें। शहर में कोई ढंग का काम करेंगेबच्चों को पढ़ायेंगे-लिखायेंगे।

सबसे ज्यादा चिंता बच्चों की ही होती है। दिन भर आवारों की तरह घूमते रहते हैं। यहाँ तो ज़रा-ज़रा से बच्चे बीड़ी पीते हैंदिन भर यहाँ-वहाँ से ठूंठ इकट्ठा करके फूंकते रहते हैंअब मां-बाप को तो फ़ुर्सत है नहींपता नहीं कौन-कौन सी रहन सीख रहे हैं। न आस-पास कोई स्कूलन कोई बड़ा-बूढ़ाअपनी जिन्दगी तो हो ही गयी बर्बादपता नहीं इन बच्चों का क्या होगासीबू सही कहता है – क्रेशर नहीं है यह नर्क की आग हैकिसी पिछले नहीं इसी जन्म के पाप का फल है यहएक ही पाप है सबकाग़रीबीकिसी का खेत छिन गयाकिसी की फैक्ट्री बंद हो गयीकोई सूखे में फंस गयाकोई बाढ़ मेंऔर यह नर्क सबको लील गयाऔर इस नर्क से बाहर निकलने का बस एक ही रास्ता हैमौतटीबी से खांसते-खांसते एक दिन प्राण निकल जायेंगे और उसके बाद ऊपर का नर्क मिलेगाक्योंकि वहाँ भी स्वर्ग तो रईसों के लिये रिज़र्व होगा न भाई…’ वैसे तो बोलता ही नहीं है सीबूचुपचाप खटता रहता हैगालीमज़ाकहंसी किसी का कोई फ़र्क नहीं पड़ता उस परलेकिन एक बार पौआ अन्दर चला जाये तो फिर बोलता ही जाता है

कितना मासूम सा लगता है सीबूलोग बताते हैं कि बस्तर से आया थापढ़ा-लिखा भी थालेकिन हालात कुछ ऐसे बने कि गांव ही उजड़ गयाबाप और भाई को पुलिस ने नक्सली बता कर जेल में डाल दिया और यह अपनी पत्नी के साथ यहाँ भाग आयादोनों मियाँ-बीबी जम के मेहनत करते थे और फिर चुपचाप झोपड़े में सो जाते थेआदिवासी होने के बावज़ूद कभी दारू को हाथ तक नहीं लगाता था सीबूकहता कि थोड़े पैसे इकट्ठा हो जायें तो बंबई चला जायेगाकोई ढंग का काम करेगालेकिनकहां निकल पाया इस नरक सेबताते हैं कि उसकी बीबी की तबियत ख़राब थी उस रातशहर गया था दवा लानेलौटा तो कहीं नहीं मिलीक्रेशर में नहींआस-पास नहींकहीं नहींपागलों की तरह खोजता रहापर नहीं मिली वह तो नहीं मिली। लोग बताते हैं कि सुपरवाइजर की नज़र थी उस परवही उठा ले गया था उसे उस रात।

वैसे कोई बड़ी बात नहीं थी यह। साल में चार-पांच ऐसी घटनायें हो ही जाती थीं। अभी पिछले महीने रामनिवास की जवान बेटी पूरे हफ़्ते के लिये गायब हो गयी थी। शुरु में दो-तीन दिन तो मियाँ-बीबी बहुत परेशान रहे। फिर चुप लगा गये। तक़दीर वाले थे कि एक हफ़्ते बाद लौट आई। सबको सब पता था लेकिन बोला कोई नहीं। सुनके आँखों में गाँव के पंडिज्जी का बुढवा पीपल घूम जाता। कहीं कोई मुक्ति नहीं है औरतजात की। कौन सा प्रेत किस दिशा से निकल आयेगा कौन जाने। वहाँ तो बड़का बाऊजी आ गए थे, यहाँ कुछ हुआ तो कौन बचाएगा?

जंगल का अफ़सर आया था उस दिन। कैसा देवता जैसा लगता था। सबसे पूछ रहा था। कितने गुस्से में था। कहता था कि यह सब बंद कराएगा। इस नर्क से सबको मुक्ति दिलाएगा। लेकिन सीबू कह रहा था कि कोई कुछ नहीं कर पायेगा। या तो सेठ खरीद लेगा उसको या तो हटा देगा रास्ते से। इतने सारे राक्षसों के बीच में एक देवता क्या कर लेगा इस कलजुग में? लेकिन जायेंगे तो हम...हम सब...वचन दिए हैं ऊ देवता को..बस आज की रात बीत जाए...रक्षा करना हे  डीह बाबा। हे काली माई। हे दुर्गा माई। हे..

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चौथा पैग हलक से नीचे उतर चुका था। रामदीन अभी तक लौटा नहीं था। संतोष ने गिलास मेज़ पर रखी और बाहर निकल आया। आसमान में न चाँद दिख रहा था, न तारेदूर-दूर तक घुप अँधेरा। बाहर जलते बल्ब की रौशनी दो-चार कदम चलकर भटक सी गयी लगती थी। उसी भटकी सी रौशनी में पेड़ों की छायायें पसरी पड़ी थींबीच-बीच में कुछ जंगली आवाज़ें आकर ख़ामोशी और अंधेरे से चुहल करतीं। लेकिन जंगलों में रहते-रहते इन आवाज़ों की ऐसी आदत पड़ जाती है जैसे ग़र्मियों के दिनों में पंखे की आवाज़ की। संतोष ने उचटती हुई सी एक निगाह इधर-उधर डाली और फिर कमरे में आकर बैठ गया।

ये रामदीन कहाँ मर गया साला। इसकी आदतें भी दिन ब दिन ख़राब होती जा रही हैं। कैसा सीधा-साधा सा था गांव मेंभैंसों के साथ घूमने और पेट भर जीमने के अलावा कोई काम नहीं था इसे। जबसे खदान पर लगाया है साले के पर निकलते जा रहे हैं। दिन भर मस्ती करता रहता हैलौंडियाबाजी की ऐसी आदत लगी है कि हरामी सबके कान काट रहा है। पहले डरता था थोड़ालेकिन अब तो पूरा खुर्राट हो गया है। सुपरवाइज़री सर पर चढ़ गयी है। साले को सीधा करना होगा। लेकिन आदमी है काम का। अफसरों को पटाने में ऐसा माहिर की पूछो मत। कितना भी टेढ़ा रेंजर होबस एक बार साले के हत्थे चढ़ जायाशीशे में उतार के दम लेता है। बस इस बार नहीं चल पा रही है बिल्कुलऐसा अफ़सर आया है कि किसी भी तरह वश में नहीं आतान शराब की लतन औरत की और न पैसे की भूख। बाबूजी कहते हैं अच्छा आदमी है। किस काम का ऐसा अच्छा आदमी? चारो तरफ़ से ज़ोर लगाके देख लियाकोई असर नहीं। कहता है सारी अवैध खदाने बंद करा दूंगासाला बाप का राज़ है क्याऊपर से नीचे तक सबको खिलाते हैं तब जाकर चलती है खदानसात साल लग गये जमाते-जमाते और अब कहता है साला कि बंद करा देंगे। बंद की मां की। मुंह में जैसे कुछ कड़वा सा भर गया। भीतर गया और सीधे बोतल से ढेर सारी शराब भीतर उतार ली। फिर वहीं सोफे पर बैठ गया। सिगरेट निकाली और एक लंबा कश गले से नीचे उतार कर ढेर सारा धुंआ एक साथ बाहर निकाला। धुंए के साथ जैसे तमाम कड़वाहट भी पूरे कमरे में घुल गयी।

कैसे बीत गये सात सालजब गांव में था तो जैसे दुनिया बस उतनी ही थी। घर से खेतबहुत हुआ तो कभी-कभी तहसील तकवह भी बाबूजी ही संभालते थे ज़्यादाकहते गरम सुभाव से पटवारी-गिरदावरों से नहीं निपटा जाता। लट्ठ से लड़ना हो तो पचास से लड़ लोकाग़ज़ों की लड़ाई किसानों के बस की नहीं। लेकिन बाबूजी नहीं जानते थे कि वक़्त कैसे सिखा देता है सब… योजना आई गांव में तो सब भड़भड़ा गयेज़मीन जा रही हैसुनकर जैसे सबके प्राण निकलने लगेलेकिन मैने देखा कि कैसे यह योजना तक़दीर बदल सकती है हमारीसरकार से लड़ना कोई बच्चों का खेल है क्यापटवारी से लेकर तहसीलदार तक दौड़ लगाईऊसर ज़मीनों को रातोरात काग़ज़ में ऊपजाऊ बनवाया… पूरे अस्सी लाख वसूलेबाकी ज़मीनें बेच डालींऔर आज देखोशहर में आलीशान मकान,गाड़ियाँसजे-संवरे बच्चेऔर हर महीने दो-तीन लाख देने वाली खदानबर्बाद होते हैं ग़रीब-गुर्बे और बेवकूफ़जिसके पास दिमाग़ है वह रास्ता निकाल ही लेता है। वही चीज़ जो दुनिया के लिये तबाही है आपके लिये वरदान बन सकती हैबस दिमाग़ तेज़ करना पड़ता है और चमड़ी सख़्तसिर्फ कभी-कभी बाबूजी को देख कर दुख होता हैआज तक गांव से पीछा नहीं छुड़ा पायेकितनी कोशिश की कि खदान पर आने-जाने लगें। बूढ़ा आदमी हो तो अफ़सर भी थोड़ा शर्म करते हैं। लेकिन यहां आये तो लगे सबसे हाल-चाल पूछनेकहते…’संतोषये सब भी हमारी तरह कहीं न कहीं से उजड़ के आये हैं’…हद हैये साले मरभुक्खे अब ‘हमारी तरह’ हो गयेउजड़ें साले भिखमंगेहम काहे के उजड़े? …चार दिन भी कभी रह नहीं पाये यहां। अच्छा ही हुआरहते तो हर बात में अड़ंगा लगाते और उस रेंजर को कहानी सुनाते।

लेकिन ये रामदीन साला कहाँ मर गयान जाने किस इंतज़ाम में लगा है?नहीं कर पाया इंतजाम तो...
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अब इंतज़ाम तो मुझे ही करना पड़ेगा न इस अफ़सर का। भैया ने तो कह दिया कुछ भी करो ख़रीदो साले कोइतना आसान होता है क्यासाला कल का लौण्डा भले है पर है इमान का काटा। हाथ नहीं रखने देता। इतने दिन से आजमा के देख लिया पर एक कमज़ोरी नहीं पकड़ आई। शादीशुदा होता तो साले के बच्चों की ही पकड़ करा देतालेकिन ये ठहरा अकेला मुस्टण्ड। इंतज़ाम नहीं किया तो सारी खदाने बंद करा देगा। विधायक जी से कहा कि ट्रांसफर करा दो तो साफ मुकर गये – ‘केंद्र सरकार का मुलाजिम हैहमसे कुछ नहीं होगा।’ और एम पी की गूजरों से पुरानी दुश्मनी। उसे तो मज़ा आ रहा है कि इसी बहाने एक साला निपटे।

लेकिन जब तक रामदीन है भैया को निपटाना किसी के बस की बात नहीं। और ख़ाली नमक की बात थोड़े हैखदान बंद हो गयी तो हमारा क्या होगाखदान है तो हैं हम सुपरवाइजरखदान है तो है यह गाड़ीपैसादारू और लौंडिया। खदान बंद हुई तो सब बंद। अब तो मजूरी भी नहीं होगी कि फिर से वही रामदीन किसान बन जायेंजिन हाथों को दारू और पैसे की चाव लग जाय उनसे फिर कुदाल और भैंस की रस्सी नहीं थामी जाती।

निपटाना तो होगा साले कोआज ही..आज की ही रात

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कहाँ फँस गया...जब नौकरी मिली तो कितना कुछ सोचा था. आई ए एस नहीं बन पाने की हताशा आई एफ एस ने दूर कर दी थी। सोचा था इसी बहाने अपने देश का हर कोना देख पाऊँगा करीब से...जंगल...उनमें रहने वाले लोग...इस देश का असली चेहरा। खुद से वादा किया था कि कभी बेईमानी नहीं करूँगा...लेकिन यहाँ? यहाँ बेईमानी कोई शब्द नहीं है बल्कि रोज ब रोज की जिंदगी का हिस्सा है। जो बेईमान है वही सामान्य है और हम जैसे लोग बस एक अपवाद हैं जिन्हें हर कोई जल्दी से जल्दी निपटा देना चाहता है. सब लिप्त हैं इस खेल में ... ऊपर से नीचे तक सब। जंगल काट-काट के धरती को वीरान बनाते जा रहे हैं। अवैध खदानों ने सारे पर्यावरण को नष्ट कर दिया है। कहाँ-कहाँ से मजदूरों को लाकर उनसे अमानवीय तरीके से मज़दूरी कराई जा रही है। अम्पटन सिंक्लेयर का जंगल याद आता है इन्हें देखकर। क्या कर रहे हैं यहाँ हम जैसे सरकारी अधिकारी?धरती को नष्ट कर अपना घर भर रहे है बस। कोई नहीं सोचता कि जब धरती ही नहीं रहेगी तो कहाँ रहेंगे ये घर? कहने को सब हैं, पूरी व्यवस्था है – पुलिस-जंगलात महकमा-पर्यावरण-राजनैतिक दल-एन जी ओ...सब तो हैं, लेकिन सब एक जैसे! सबका एक ही उद्देश्य कि कितना दोहन किया जा सकता है इन जंगलों का...सुनता हूँ कभी इतने पेड़ थे कि दिन में भी सूरज की रौशनी जमीन तक नहीं पहुंचती थी. आज सिर्फ नाम है जंगल का...जंगल जैसे पत्थर का जंगल है...जंगल जैसे अन्याय का जंगल है...जैसे ज़िंदा लाशों  का जंगल है. मुझे लगता है जैसे हम सब काफ़्का आन द शोर के उन सैकड़ों बरस के सैनिकों की तरह हैं जो जंगल और शहर के बीच न जाने किसकी रखवाली कर रहे हैं. लेकिन वे तो युद्ध की विभीषिका से भाग कर रुक गए थे उन जंगलों में...और हम? एक पूरा का पूरा देश पलायित  हो गया है अपने ही उद्देश्यों से...एक पूरी की पूरी व्यवस्था बिच्छी के बच्चों की तरह लगी है अपनी ही जड़ों को कुतरने में. एक बफ़र ज़ोन हैं हम. अंदर की  बात अंदर रहे और उस पर धानिकता की मुहर लगती रहे इसके लिए ही मिलाती है हमें इतनी सुविधाएँ. जहाँ किसी सच को बाहर लाने की कोशिश करो ...सब नाराज़. उन ग़रीबों  के चेहरे देखता हूँ तो जैसे अंदर से कुछ टूट सा जाता है. कौन सी आज़ादी है इनके हिस्से ? कौन सा लोकतंत्र ? न जाने कहाँ-कहाँ से लाकर डाल दिए गए हैं इस धमनभट्टी में जहाँ से कोई जिंदा नहीं निकल सकता.यहाँ कोई नहीं है इनकी बात करने वाला? सबकी शिक्षा की बात करने वाली सरकारें यहाँ एक स्कूल भी नहीं  खोल सकतीं? लेकिन स्कूल खोलना तो इस बात की गवाही हो जायेगी कि यहाँ इंसान रहते हैं, जबकि सरकारी कागज़ में तो यहाँ न कोई खदान है न कोई इंसान...बस जंगल है जिसमें  पेड़ हैं ...पेड़ के कटने पर तो फिर भी सज़ा है लेकिन इन बेदखल दोपायों के कटने पर तो कोई सज़ा भी नहीं. ठेकेदार और उसके कारिंदे इस जंगल के शेर हैं...शेर नहीं भेड़िये... जब जिसे चाहें दबोच लेते हैं. सरकारी अधिकारी उनके जरखरीद गुलाम. अब ऐसे हालात में अगर वह सीबू कहता है कि  ‘साहब भैया और बाबूजी को तो पुलिस ने झूठ में नक्सल  बताकर पकड़ लिया था लेकिन मेरा मन करता है सच सच में बंदूक मिल जाए कहीं से तो सालों को भून डालूँ”  तो क्या कहूँ मैं? क्या समझाऊं? अब तो सचमुच लगने लगा है कि व्यवस्था के  के भीतर से कोई बड़ा बदलाव कर पाना संभव नहीं.

वह दो टके का सुपरवाइजर रामदीन जब मुझे धमका के चला जाता है तो इन बेचारों की क्या
मजाल? दरोगा से लेकर एस पी तक सब कहते हैं कि इन लोगों से पंगा मत लो...क्या करूँ फिर? अपने अफसरों से से कहा तो वे भी बस कागजी खानापूरी से आगे नहीं  जाते...कभी-कभी सच में डर लगता है. हर किसी पर संदेह होता है. लेकिन क्या किया जा सकता है? रोकना तो होगा ही यह सब...हर हाल में...कल की सुबह बहुत महत्वपूर्ण है. अल्लसुबह शहर से पूरी टीम  आ जायेगी...फिर रेड करेंगे...सीबू, रामेसर, गोमती...ये सब सरकारी गवाह बनेंगे . सारे बंधुआ मज़दूरों को छुडा लिया जाएगा...कल सुबह..सारी अवैध खदानें बंद होंगी ...कल सुबह...कल ही..
***

थाने में बड़ी उथल-पुथल थी उस दिन. जिस रेंजर की ईमानदारी के किस्से दुनिया भर में मशहूर थे वह आज बलात्कार और हत्या के जुर्म में अंदर था। कितने पत्रकार...कितने सारे फोटोग्राफर...कैसे-कैसे लोग. मजमा लगा था. पुलिस के बड़े-बड़े अफसर आये थे. बदहवास रामस्वरूप एक कोने में बैठा था. बड़े साहब बता रहे थे – ‘कल देर रात किसी का फोन आया था कि रेस्ट हाउस में कुछ गडबड है। हमलोग सूचना मिलते ही पहुंचे तो देखा कि रेस्ट हाउस का दरवाजा खुला पड़ा है। अंदर बिस्तर पर रेंजर साहब बेहोश पड़े हैं और एक औरत बिलकुल नंगी पडी है। नब्ज देखी तो मर चुकी थी। पूरी देह पर खरोंच के निशान थे और साफ़ लग रहा था कि बलात्कार के बाद गला घोंट कर मारा गया है। कमरे में नशे की दवाईयां मिली हैं। पता लगा है कि रेंजर नशीली दवाइयों का आदी था। इंजेक्शन भी मिले हैं। साफ़ है कि नशे की हालत में इसने उस औरत के साथ बलात्कार किया और फिर उसका गला दबा के मार डाला। औरत की पहचान गोमती पत्नी रामस्वरूप के रूप में हुई है। लोगों का कहना है कि वह बिहार से यहाँ अपने पति के साथ काम करने आई थी और खेतों में मज़दूरी करती थी। मुख्यमंत्री जी ने उस औरत के पति को बीस हजार और समाजसेवी संतोष गूजर जी ने दस हज़ार रुपये मुआवजा देने की घोषणा की है।

अगले दिन हर अख़बार में ठीक यही खबर थी.

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"उम्मीद"से साभार 



प्रकृति करगेती की तीन कविताएँ

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पेशे से पत्रकार प्रकृति करगेती एकदम युवा पीढ़ी की कवि हैं. अब तक कई जगहों पर छप चुकी प्रकृति की कविताओं में एक भव्य सादगी है भाषा की तो अनुभवों की बारीक़ पच्चीकारी भी. उनके पास ओबजर्वेशंस हैं और उन्हें कविता में कहने की कला भी वह लगातार सीख रही हैं और परिमार्जित कर रही हैं. असुविधा पर उनका स्वागत है.







नंबर लाइन

मैं होने,
और न होने की छटपटाहट में
खुश हूँ

न होना मुश्किल है
और होना एक संभावना
होने में जो सब होगा,
उतना ही नहीं होने में नहीं होगा
पर इस होने और न होने के बीच
एक शून्य है मेरे पास
उसी के आगे होना है,
और उसी पीछे न होना

जो भी हो या न हों
मैं इस होने और न होने की
छटपटाहट में खुश हूँ
क्यूँकि मैं
दोनों ही में
अंतहीन हूँ

सभ्यता के सिक्के

सभ्यता अपने सिक्के
हर रोज़ तालाब में गिराती है

कुछ सिक्के ऐसे होते,
जिनपर लहलहाती फ़सल की
दो बालियाँ नक्काश होती हैं

या कुछ पर
किसी महानुभाव की तस्वीर
या गए ज़माने का कोई विख्यात शासक ही

ये सभी, और इनके जैसे कई सिक्के
सभ्यता की जेब से
सोच समझकर ही गिराए जाते हैं

वक़्त की मिट्टी परत दर परत
इनपर रोज़ चढ़ती है

इस बीच, न चाहते हुए भी
कुछ सिक्के हाथों से फ़िसल जाते हैं
वो सिक्के, जो काली याद बन आते हैं

पुरातत्व के अफ़सर जिन्हें,
काँच के पीछे सजाते हैं

सिक्के, जो सौदे की दहलीज लाँघ
इंसानों से बड़े हो गए थे कभी
सिक्के, जिनपर दहशत की नक्काशी है

सभ्यता के सिक्के
जो आज मिले,
तो कल की परख करवा गए

और काँच की दीवारों से झाँकते
ये कह गए
अतीत के तालाब में,
तुम कौन से सिक्के फेंकोगे ?”

एक ख़रगोश हूँ मैं

एक ख़रगोश हूँ मैं
दुबक जाऊँगी
एक भेड़ हूँ मैं
सहम जाऊँगी

एक बकरी हूँ मैं
क़त्ल की जाऊँगी

पर  मैं  इंसान क्यूँ नहीं?
रीढ़ है,
पर सीधी नहीं

ज़बान है
पर खुलती नहीं

सोच है
पर इरादा नहीं


नीयत है

वो भी ज़्यादा नहीं।

काव्य-चित्त का परिष्कार और विस्तार: उमेश चौहान का कवि-कर्म

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 कल हमने अपने प्रिय मित्र, सक्रिय कवि और बेहतरीन इंसान उमेश चौहान जी को खो दिया...यह क्षति इतनी निजी है कि उसकी भरपाई असंभव है और इतनी सार्वजनीन कि साहित्य जगत में लम्बे समय तक महसूस की जायेगी. उनके कवि कर्म की पड़ताल करता उनके अभिन्न मित्र और ख्यातिलब्ध आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव का यह आलेख चौहान साहब को श्रद्धांजलि स्वरूप. 




  • जितेन्द्र श्रीवास्तव


तीन दशकों से लगातार कविताएं और गीत लिख रहे वरिष्ठ कवि उमेश चौहान के कवि-कर्म का विस्तार अवध से लेकर सुदूर केरल तक है। उन्होंने मलयालम की कविताओं के  हिन्दी में और हिन्दी की कविताओं को¨ मलयालम में अनूदित कर दोनों भाषाओं के काव्य परिसर कोविस्तृत और उदार बनाया है। उमेश चौहान के विषय में यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि उन्होंने एक ऐसे समय में जब हिन्दी आलोचना में गीत विधा को अपेक्षित महत्व प्राप्त नहीं है तब भी बिना किसी हिचक के पहले-पहले वर्ष 2001में अपना गीत संग्रह गाठँ में बाँध लूँ थोड़ी चाँदनीको ही प्रकाशित कराया । कहने की आवश्यकता नहीं कि यह अपनी रचनाशीलता के प्रति गहरे विश्वास का सूचक है। एक कवि गीत लिखता है तो उसे छिपाकर क्यों रखे! उमेश जी के इस पहले संग्रह से गुजरते हुए भावों और विचारों की उज्ज्वलता के दर्शन होते हैं। कवि को भय नहीं है कि उसे भावुक कहकर खारिज़ करने की कोशिशें की जा सकती हैं। वह अकुंठ होकर कहता है-

थरथराते हैं गुलाबी अंजुबे के होंठ,
हो न हो यह आखिरी बरसात हो।

और आगे की पंक्तियों में अवधका यह कवि सुदूर केरल की प्रकृति से गहरी आत्मीयता प्रकट करते हुए अपनी उदात्त भारतीयता का पता देता है-

नारियल के पंख कोमल
चूमते हैं धार बढ़कर
काँपते लघु पुष्प के स्वर
बादलों का नाँद सुनकर।

उमेश चौहान गाँठ में चाँदनी बाँधने का शऊर रखने वाले कवि हैं। यह कोरी भावुकता का गायन नहीं है, जीवन में गहरे डूबने और विश्वसनीय बने रहने की अभिलाषा है। इस संग्रह के गीतों में अनुरागों का सरगमहै। उमेश जी आवरण रहित शब्दावली में सीधे-सीधे कहते हैं -

जिसका हृदय न भर-भर आए सुधि से
जिसका मन उलझे न सदा प्रेयसि में,
जिसने कभी न अंतस की कोमलता जानी
और न उर की उथल-पुथल की जटिल कहानी,
जो न भाव में बहा वेदना-सरि में
समझ न पाया ध्येय नेह-संचय में,

वह कैसे तृष्णाकुल मधुरस छानेगा?
क्या होती है प्रीति भला कब जानेगा?

कहने की जरूरत नहीं कि उमेश चौहान जीवन में बहुत गहरे डूबने वाले कवि हैं इसलिए अमरत्व का  प्रत्याख्यान करने का भी सामर्थ्य रखते हैं-मैं सागर की एक लहर हूँ जो उठती है, मिट जाती है।लेकिन मिटने से पहले उठती जरूर है। यह एक आम आदमी के निज स्वाभिमान का भी गायन है।

गाँठ में लूँ बाँध थोड़ी चाँदनीका कवि जब अपने दूसरे संग्रह दाना चुगते मुरगे’ (2004) में अपनी कविताओं के साथ उपस्थित होता है जो प्रेम की परिधि का विस्तार दिखाई देता है। इस संग्रह का नाम ही बहुत कुछ कह देता है। उमेष जी युद्ध पर कविता लिखते हुए बच्चों के भविष्य की बात करते हैं। कश्मीरसे लेकर फ्लोरिडातक की भाव-यात्रा करते हैं। कविता की पंक्तियाँ देखिए-

दुनिया का कोई भी बच्चा
नहीं जानता कि लोग क्यों करते हैं युद्ध?
जबकि इस दुनिया में
कल बड़ों को नहीं, इन्हीं बच्चों को जीना है।

युद्ध होता है तो
बच्चे ही अनाथ होते हैं
और आणविक युद्ध का प्रभाव तो
गर्भस्थ बच्चे तक झेलते हैं।

बच्चे यह नहीं जानते कि
क्यों शामिल कियाज जाता है उन्हें युद्ध में
किंतु वे ही असली भागीदार बनते हैं
युद्ध के परिणामों के।

काश! दुनिया की हर कौम
युद्धों को इन तमाम बच्चों के हवाले कर देती
और चारों ओर फैले रिष्तों के
बारूदी कसैलेपन को
मुसकराहटों की बेशुमार खुशियों में
हमेशा-हमेशा के लिए भुला देती।


गीतों की दुनिया से आए उमेश चौहान की कविताआंे के संकेतार्थ बहुत गहरे हैं। वे बौनों पर कविता लिखते हुए अर्थपूर्ण संकेत करते हैं। वे गठबंधन की राजनीति पर कविता लिखते हुए वर्तमान भारतीय राजनीति के असली चरित्र का उद्घाटन करते हैं। उनकी चिंताओं में ढेर सारी बातें हैं। वे सीता के बहाने जो कहना चाहते हैं, उसे आप भी महसूस कीजिए -

विरथ रघुवीर
सीता को पहचनना तो दूर
अपने दल को ही पहचानने में असहाय हैं।

सीता की चिंता भी
रघुवीर को अपनी पहचान की पुष्टि देने की नहीं है
असली चिंता तो रघुनाथ की पहचान की है।

कौन देगा सीता को राम की पहचान की पुष्टि?
हनुमान तो राजनीति की सुरसा के मुँह से
बाहर ही नहीं आ पा रहे।

उमेश चौहान के इस संग्रह में 1985में लिखी गई एक कविता संकलित है। मुक्तिबोध का लिफाफाशीर्षक से। यह कविता उमेश चौहान के भीतर के कवि की बनावट और बुनावट का पता देती है। कवि-कर्म के बिल्कुल आरंभिक चरण में कवि के स्वप्न में कोई और कवि नहीं, आजाद भारत के हिन्दी के सबसे प्रमुख कवि मुक्तिबोध आते हैं। वे इस नए कवि के लिए एक लिफाफा छोड़ जाते हैं। उस लिफाफे से दोनों हाथों आसमान थामे एक शक्ति-पुरुषनिकलता है, जो किसी विभ्रम का शिकार नहीं है। उसमें से रक्तालोक स्नात-पुरुषभी निकलता है लेकिन अब वह रहस्यमयी नहीं है। आगे कवि कहता है-

लिफाफा खोलते ही मुझे मिला है-
मुक्तिबोधके अतिशय परिचित शिशुजैसा
एक समूचा
ज्योतिष्मान भविष्य...
सुनहरी भोर का रष्मि-पुंज
जो मेरा अपना
सिर्फ अपना होगा।

बशर्ते कि
मैं अँधेरे में घबराना छोड़ दूँ।

क्या अलग से कहने की जरूरत है कि यह कविता ही उमेश चौहान का प्रस्थान विंदु है। यह अकारण तो नहीं  कि इस कविता के लगभग 16वर्ष बाद वे शैतान का सायाषीर्षक कविता में कहते हैं -

कहने को तो हमारा प्रजातंत्र मजबूत हो रहा है
किंतु यह मजबूती
शैतान के साये से नीचे जीने वालों की मजबूती है
वे अपनी-अपनी जगह संगठित होकर
प्रजातंत्र की दुहाई देते हैं
और शैतान की जय बोलते हैं।

शेष लोग बस तमाशा देखते हैं
रोजमर्रा की जरूरतों के लिए दूसरों की नहीं
वे अपनी जेब टटोलते हैं
प्रजातंत्र के नाम पर कभी-कभी वोट डाल देते हैं
और फिर अपने पेट के चक्कर में
खेतों-खलिहानों, हथौड़ी-बसूलों में खो जाते हैं
ऐसे लोग सबके पेट पालते-पालते ही
एक दिन चुपचाप हमेशा के लिए सो जाते हैं।

उमेश चौहान राजनीतिक कविताका शोर नहीं मचाते लेकिन उनकी रचनाशीलता और उनकी राजनीतिक चेतना में कोई अलगाव नहीं है। वे अपनी कविताओं में उम्मीद का दामन नहीं छोड़ते। कोई भी सच्चा कवि उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ता है। उमेश जटिल लगते प्रष्नों और प्रसंगों को इस तरह कविता में लाते हैं कि पाठक चकित रह जाता है। उनकी 1982में लिखी एक कविता की इन पंक्तियों को देखिए-

हमारा अपना अंतर्मन
क्यों नहीं रह पाता
साफ शीशे सा
कि उसमें जो कुछ भी जैसा है
वैसा ही दिखाई दे।

जब हम घास खानेवाला खरगोश पालते हैं
दाना चुगनेवाला कबूतर पसंद करते हैं
कटखने कुत्ते को प्यार से दुलराते हैं
तो अपने बीच का ही एक आदमी
चाहे कैसा भी हो
आखिर क्यों नहीं जुड़ पाता है हमसे?

वर्ष 2009में प्रकाशित संग्रह जिन्हें डर नहीं लगताने उमेश चौहान को एक कवि के रूप में पूरी तरह स्थापित कर दिया। यह उनका अब तक का सर्वाधिक परिपक्व संग्रह था। इस संग्रह ने उमेश चौहान की रेंज का पता भी दिया। इस संग्रह के साथ एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस संग्रह पर पहली बार कवि के रूप में उमेश चौहाननाम प्रकाशित हुआ। इसके पूर्व प्रकाशित संग्रहों पर कवि का नाम यू. के. एस. चौहान छपता था। इस संग्रह में उनकी बेहद चर्चित कविता करमजीते चक दे!संकलित है। यह पूरी कविता एक आख्यान है। उमेश चौहान ने इस कविता में पितृसत्ता के समक्ष एक मजबूत आईना रखा है।

उमेष जी अपनी कविताओं में दिल्ली के आसमान की धूलदेखते हैं तो सुरक्षित बस्तीका स्वप्न भी पालते हैं-

हम सब मिलकर कोषिष करें तो
इन्हीं बची-खुची, बेदाग
इन्सानी बस्तियों के बीच भी
खोज सकते हैं
अपनी परिकल्पना की उस नई बस्ती को
जहाँ इन्सानों के दिल तो होंगे
दिलों में दीवारें नहीं,
सहूलियतें तो होंगी
पर दूसरों को चूसकर जुटाई गई नहीं,
प्रकृति के अंधाधुँध षोषण के सहारे भी नहीं,
जहाँ नहीं मानेंगे हम अपने को महान
दूसरों से जीने का हक़ छीनकर।

चलो! चेत जाएँ!
खोज लें हम
बिना चाँद, मंगल अथवा दूसरे सौर-मंडलों मंे गए
इसी धरती पर
अपने सुरक्षित भविष्य की एक बस्ती,
वैष्विक उष्मता से उफनाए समुद्रों द्वारा
पृथ्वी को निगल जाने अथवा
ओजोन-कवच से विहीन धरती के
काॅस्मिक किरणों में पिघल जाने से पहले ही।

जाहिर है, ऐसा स्वप्नदर्षी ही बाहुबलियों को इस तरह चेतावनी दे सकता है-
कहीं ऐसा न हो कि
जिस वक्त का मैं कर रहा हूँ इन्तज़ार
वह समय से पहले ही आ जाए,
फिर मैं वक्त से पहले ही जाग जाऊँ और
तुम वक्त से पहले ही मिट जाओ।

उमेश चौहान ने अपनी एक कविता में स्वीकार किया है कि कविता उनके भीतर एक नदी की तरह बहती है। कहने का आशय यह कि उमेष जी की कविता में कृतिमता नहीं है। ये प्रयासों से बनाई गई कविताएं नहीं हैं। इनमें अलग से प्रतिबद्धता का घोल भी नहीं डाला गया है। अपनी सम्पूर्णता में ये कविताएं प्रतिबद्ध कविताएं हैं। पुतले ही तय करेंगेकविता में जब वे कहते हैं ये पुतले ही तय करेंगे/हमारी जिंदगी की कीमतऔर कामरेड महेन्द्र सिंह की शहादत का प्रसंग लाते हैं तो कुछ और कहने की जरूरत ही नहीं रह जाती है। कामरेड महेन्द्र राजनीतिज्ञ के साथ-साथ कवि भी थे। 16जनवरी, 2005को अपराधियों ने उनकी हत्या कर दी। कीमत चुकाती जिंदगीउनकी कविताओं का संग्रह है। उमेश जी कहते हैं कि इंसान को माटी के मोल बेच देने में भी नहीं हिचकेंगे ये पुतले। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि लेकिन उमेश चौहानसिर्फ त्रासदी का बयान करने वाले कवि नहीं हैं। वे अंधेरे को स्थाई भाव मानने वाले भाव को अस्वीकार करते हैं। उनका दृढ़ विष्वास है कि जुल्मों-सितम को मिटना ही होगा। वर्ष 2012में प्रकाशित जनतंत्र का अभिमन्यु उनका चौथा कविता संग्रह है। इस संग्रह में कवितायें और कुछ गीत¨ के आलावा अवधी भाषा में लिखी कविताएं और गीत भी संकलित हैं। संग्रह क¨ पढ़ते हुए एक बार फिर यह बात बिल्कुल साफ होजाती है कि उमेश चौहान चतुर सुजानकिस्म के कवि नहीं हैं। वे कवि होने के मुकम्मल अर्थ में कवि हैं। एक ऐसे समय में जब चालाकियों से कविताएं गढ़ने वालों की संख्या बढ़ती जा रही ह¨ तब एक ऐसे कवि के संग्रह से गुजरना सुखद अनुभव की तरह है जोअपनी भावुकता और रूमानियत कोछिपाता नहीं बल्कि अपनी ताकत बना लेता है।


उमेश चौहान की राजनीतिक समझ और सामाजिक प्रतिबद्धता अंसदिग्ध है। वे बृहत्तर मानवीय सरोकारों के कवि हैं। अपनी कुछ कविताओं में उन्होंने मितकथन कोमहत्व दिया है तोकुछ में बहसधर्मिता को। इस संग्रह की पहली कविता, जोकि शीर्षक कविता भी है, एक प्रश्न के साथ शुरू होती है। कवि सीधे प्रश्न करता है -

आज इस नए दौर के महाभारत में
जनतंत्र का अभिमन्यु बचेगा क्या ?


फिर धीरे-धीरे यह कविता बहसधमी होती चली जाती है। गौर करने की बात है कि उमेश चौहान जनतंत्र का अर्जुन, जनतंत्र का कर्ण या जनतंत्र का युधिष्ठिर जैसे पदों का प्रयोग नहीं करते हैं क्योंकि अभिमन्यु के माध्यम से जो बात कही जा सकती है, वह किसी अन्य मिथकीय पात्र के सहारे संभव नहीं है। वे मिथकों से अभिमन्यु को  निकालकर अपनी कविता में लाते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि अभिमन्यु का प्रसंग आते ही चक्रव्यूह की स्मृति हीआती है। कवि जानता है कि वर्तमान समय में धर्म, जाति, क्षेत्र जैसे अनेकों अभेद्य चक्रव्यूह समाज में हैं। कवि को कहना पड़ता है -

इस युद्ध में अभिमन्यु की मृत्यु तोतय है ही
पांडवों की हार भी निश्चित है
क्योंकि इसमें जीत के लिए
केवल संख्या-बल ही निर्णायक है।

लेकिन यहाँ यह रेखांकित किया जाना भी आवश्यक है कि उमेश चौहान आईना दिखाकर आगे बढ़ जाने वाले कवियों में नहीं हैं। वे गहरी प्रश्नाकुलता और उम्मीद के कवि हैं। उन्हें इस बात की चिन्ता है कि - कैसे बचाई जाए अब इस जनतंत्र की साख।“ वे  सूर्यघड़ीके माध्यम से अपने समय और समाज की गति कोसंकेतित और व्याख्यायित करते हैं –

जन्तर-मन्तर की सूर्यघड़ी
नित्य साक्षी बनती है
समय के उन पड़ावों की
जहाँ पर तख्तियां और बैनरों पर लटकी होती हैं
उस समय के तमाम सताए हुए लोगों की उम्मीदें और विश्वास,
लेकिन भारत के भाग्य-विधाताऑन की तरह ही
यह सूर्यघड़ी भी
दिन के किसी भी पहर नहीं थमती
समय के किसी भी ऐसे पड़ाव पर सहानुभूति से भर कर,
भले ही शहर में
कितनी भी दहला देने वाली कोई दुर्घटना घटित हो
जिसमें सहम कर थम जाएँ
बाकी की सभी कलाई अथवा दीवार की घड़ियाँ।

इस कविता कोपढ़ते हुए उन्हें अपनी मुट्ठियों में जकड़ लेना होगा लपक कर सूर्य के रथ कोजैसी पंक्ति को एक चमकदार वाक्य मानकर तेजी से आगे नहीं बढ़ जाना चाहिए। हताशा के क्षणों में गहरे रूमान वाली ऐसी पंक्तियाँ जीवद्रव्य और प्राणवायु का कार्य करती हैं।

उमेश चौहान की कविताएं मुक्ति के प्रसंगों क¨ अपेक्षित गहराई के साथ सामने लाती हैं। यही कारण है कि उनमें कोई आसान रास्ता खोजने की कोशिश के बदले विभ्रमों से टकराहट है। सुनहरी रश्मियों का प्रकाश पुंज खोजने वाला यह कवि अच्छी तरह जानता है कि आदमखोर सिंह बाहर के उजाले में निद्र्वन्द्व घूम रहे हैं। इसीलिए वह उजाले की तलाशकोएक साथ स्वप्न और विडम्बना की तरह प्रस्तुत करने में सक्षम हुआ है।

इस संग्रह की कई कविताऑन में दार्शनिक चिन्ताएं दिखाई देती हैं लेकिन वे किसी रहस्यवादी आवरण में नहीं हैं। सुनामी और तीन वर्ष के एक बच्चे का प्रसंग लेते हुए वे  महानाशपर विचार करते हैं और किसी ईश्वर की शरण में जाने के बदले अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में छिपे शक्ति विमर्श कोरेखांकित और प्रश्नांकित करते हैं -

कोई नहीं लेता है जिम्मेदारी
आने वाली विपत्तियों की,
विकसित देश कोसते हैं
चीन व भारत की विशाल आबादी को
लेकिन भूल जाते हैं वे प्रायः कि
चाहे प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत है
या कार्बन डाइआॅक्साइड का उत्सर्जन,
अमेरिका जैसे देश सदा ही रहे हैं
विश्व के औसत से कई गुना आगे,
भारत जैसे देश तो  हमेशा
बेकार में ही बदनाम किए जाते हैं बेचारे।

सत्य की आँखों में आँखें डालने की लालसा से भरी कविताओं वाले इस संग्रह की रेंज बड़ी है। मैं चोर नहींशीर्षक कविता पढ़ते हुए कोई कठकरेज पाठक ही अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख पाएगा। यह पाठकीय भावनाऑन के दोहन की नहीं बल्कि उसके विस्तार की कविता है। सिर्फ तर्क बुद्धि के सहारे कविता लिखने वाले कवियों के लिए मनुष्यता के संधान की ऐसी कविता लिखना असंभव है। ध्यान देना होगा कि उमेश चौहानगीतों से कविता की अ¨र आए हैं लेकिन उनकी सभी कविताएं प्रगीतात्मक नहीं हैं। उनकी कई कविताओं में गद्य का वैभव है लेकिन उनके पास वह अपेक्षित विवेक भी है, जोकविता के गद्य को अन्य विधाओं के गद्य से अलगाता है।

परिवर्तन एक ऐसा शब्द है जिसे लोग अपने-अपने ढंग से समझते और समझाते हैं। एक कवि के रूप में उमेश चौहान भी परिवर्तन के आकांक्षी हैं लेकिन वे किसी क्षणिक परिवर्तन के हिमायती नहीं हैं। वे मनुष्यता के पक्ष में किसी बड़े परिवर्तन का स्वप्न देखते हैं -


समय आ गया है कि अब
जीवन के सारे अर्ध-विरामों को
बदल डाला जाय पूर्ण विरामों में
क्योंकि पूर्ण विराम ही होते हैं
मंजिलों तक पहुँचने के परिचायक।

समय आ गया है कि अब
मारी जाए एक ज़ोरदार फूँक
वहाँ-वहाँ
जहाँ-जहाँ से उठ रहा है सुलगकर काला धुआँ
ताकि धू-धू कर जल उठें
सच्चाई की अग्नि-ज्वाला में
सारे के सारे संदिग्धता व अविश्वास के केन्द्र।

यहाँ यह रेखांकित किया जाना अनावश्यक न होगा कि बेसुरे होचुके सारे के सारे विप्लव-गानोंके बावजूद यह कवि आम लोगों के प्रति विश्वास से भरा हुआ है। यह गहरी संग्लनता ही है कि वह यह देख और कह पाता है -

वे जमीन से उखड़े हुए दरख्त की भाँति सूख रहे
पर उनकी जड़ें अभी
पूरी तरह जमीन से अलग नहीं हुई थीं शायद,
दरअसल,
अपनी इन तमाम बुनियादी लाचारियों के बावजूद
उनके भीतर अभी भी
अपना अस्तित्व बचाए रखने की उत्कंठा बरकरार थी
और इसीलिए वे चुपचाप
अब आखिरी संघर्ष की तैयारी करने के लिए
बस तन कर खड़े ही ह¨ने वाले थे किसी वक्त।

उमेश चौहान में रूमान है लेकिन इसका यह आशय नहीं कि उन्हें यथार्थ की पहचान नहीं है। उन्हें यथार्थ की सटीक पहचान है। वे जब गाँव को  काव्य विषय बनाते हैं तोरूमान कोकिसी ताख पर रख आते हैं और बदलाव का स्वप्न देखते हुए पुनः उसे अपने अन्तःकरण का अस्त्र बनाते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि यथार्थ बोध के साथ-साथ रूमान भी किसी अर्थपूर्ण बदलाव के लिए बेहद जरूरी होता है। दुनिया बदलने का स्वप्न रूमानी लोग ही पालते हैं। व्यवहार बुद्धि तोसांसारिक सफलताओं का अस्त्र है।

इस संग्रह की कुछ छोटी-छोटी कविताएं अलग से आकृष्ट करती हैं। उनके भीतर का काव्यरस देर तक पाठक के अन्तर्मन में टपकता रहता है। कुछ कविताऑन के शीर्षक मन मोहते हैं। जैसे- बित्ताभर धूप, पावों भर छाँव। ये शीर्षक एक तरह का विम्ब भी बनाते हैं। लेकिन इन कविताओं का कथ्य विचलित करता है।  पावों भर छाँव की इन पंक्तियांदेखें -

सामने बस पावों भर छाँव है
सुलगते चूल्हे पर
धूमाक्रमित आँख से टपकी
आँसू की एक बूँद जैसी
निष्फल आश्वासन देती।

मेरे भस्मावशेषों को
समेटने तक के लिए भी
जरूरत भर की शीतलता न दे पाएगी
आसमान से उतारी गयी
सुख की पाँव भर छाँव यह।

इस संग्रह में कुछ प्रेम कविताएं भी हैं लेकिन यहाँ यह रेखांकित करना होगा कि उमेश चौहान की प्रेम कविताएं हिन्दी में इन दिनों लिखी जा रही प्रेम कविताओं से थोड़ी अलग हैं। इनमें से कुछ प्रेम के दार्शनिक और उदाŸा पक्ष के बारे में हैं।  सच्चा प्रेमीशीर्षक कविता मे कवि की प्रेम संबंधी समझ अभिव्यक्त हुई है। इसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -

सच्चे प्रेम कोदरकार नहीं होती
प्रस्फुटन की प्रतीक्षा के पूर्ण होने की
वह सन्तुष्ट रहता है गूलर की कलियों की तरह
देह के भीतर ही भीतर खिल कर भी

यह जरूरी नहीं होता कि सच्चा प्रेम
दीवानगी का पर्याय बन कर सरेआम संगसार ही हो
वह सारे आघात मन ही मन सहता हुआ
अनुराग की प्रतिष्ठा की वेदी पर प्रायः
अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है

सच्चा प्रेमी वही होता है जो
अपने सारे विषाद कोभीतर ही भीतर पचा कर
नीलकंठ की भाँति इस दुनिया में सबके लिए
एक कतरा मुसकान बाँटता फिरता है।

कोई  कह सकता है कि इसमें आदर्श ही आदर्श है। यह सच भी है। प्रेम के संदर्भ में यह याद रखना जरूरी है कि प्रेम अपने मूल स्वरूप में उदात्त और आदर्श ही होता है। लेकिन एक कवि के रूप में उमेश प्रेम के व्यवहार पक्ष की भी उपेक्षा नहीं करते हैं। वे  रति-योगजैसी कविता लिखते हैं। प्रेम की मादकता के विविध रंगों को  दिखाते हैं किन्तु साथ में यह लिखना नहीं भूलते-


विरलों के पास ही होती है
भौतिक प्रेमालापों से परे
हृदय में अन्तर्निहित
अदृश्य आवेशों के
परस्पर आकर्षण व सम्मिलन को
परखने की दृष्टि।

जैसा कि आरंभ में संकेतित है, हिन्दी में गम्भीर कविताओं के पाठक गीत का नाम सुनते ही नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। लोगों के मन में एक बात बैठ गई है कि गीत अनिवार्य रूप से लिजलिजे होते हैं। लेकिन यह अधूरा सच है। हिन्दी में आज भी अच्छे गीत लिखे जा रहे हैं। इस संग्रह में संकलित छः गीत (नवगीत) उत्कृष्ट कविता के उदाहरण हैं। ये गीत कवि के पहले संग्रह गाँठ में लूँ बाँध थोड़ी चाँदनीके गीतों से आगे के गीत हैं। उमेश चौहान के  यह कैसा बसंत आयाशीर्षक नवगीत की इन पंक्तियाँकिसी भी श्रेष्ठ कविता के समक्ष रखी जा सकती हैं –

कौमार्य का निद्र्वन्द्व अपहरण करता
सौन्दर्य को  लहू-लुहान करता
यौवन कोक्षत-विक्षत बनाता
बलात्कार की विकृतियों के
नए-नए प्रतिमान गढ़ता
यौन-पिपासा की वीभत्सता से
रस-राज का नित्य स्वागत करता
यह कैसा बसन्त आया ?

उमेश चौहान बसन्त पर लिखते हुए प्रकृति-चित्रण की ओर नहीं जाते। किसी वायवीय प्रसंग या प्रिया के सौन्दर्य की ओर नहीं जाते बल्कि गहरे डूब कर सामाजिक सांस्कृतिक समीक्षा प्रस्तुत करते हैं। इस प्रक्रिया में वे अपने समय अ©र समाज के साथ अपने गहरे जुड़ाव का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए पाठकीय चिन्तक कोजाग्रत करते हैं। कहना न होगा कि समर्थ कवि इसी तरह अपने पाठकोंं तक पहुँचकर उनका विरेचन करते हैं। जनतंत्र का अभिमन्युसंग्रह की एक विशिष्टता इसमें संकलित अवधी की रचनाएं भी हैं। इनमें उमेश चौहान का कवित्व देखते ही बनता है। हिन्दी कविताओं के संग्रह में आईं ये अवधी भाषा की रचनाएं पाठकों के चित्त के साथ ही हिन्दी कविता के वर्तमान परिसर का विस्तार करती हैं।


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जितेन्द्र श्रीवास्तव
हिन्दी संकाय, मानविकी विद्यापीठ
इग्नू, मैदान गढ़ी, नई दिल्ली’110 068
मो. नं. 09818913798


तुर्की कविताएँ - मुईसेर येनिया

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तुर्की  की युवा कवि मुइसेर एनिया की इन कविताओं का अनुवाद हिंदी के कवि अनुवादक मणि मोहन ने किया है. दुनिया भर की स्त्रियों की कविताएँ पढ़ते पितृसत्ता के रूह तक को प्रभावित करने वाले ज़ुल्मों के निशानात शाया होते जाते हैं. मुइसेर की कविताएँ उसी कड़ी का एक रौशन हिस्सा हैं. भीतर तक भेदने वाली नज़र और उसे कविता में ढाल देने का हुनर. असुविधा के लिए ये कविताएँ उपलब्ध कराने के लिए मणि मोहन भाई का आभार. मुइसेर की कविताओं का जो संकलन वह ला रहे हैं, उसके लिए उन्हें ख़ूब बधाई भी.
Muiser Yenia





मैं एक अजनबी हूँ ख़ासकर खुद के लिए
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खुद की कीमत पर , मैं एक अजनबी के साथ रहती हूँ
और यदि मैं उछल पडूँ , तो वो गिर पड़ेगा मेरे भीतर से बाहर

मैं अपनी गर्दन के नीचे देखती हूँ
मेरे बालों की तरह हैं उसके बाल
उसके हाथ मेरे हाथों की तरह

मेरे हाथों की जड़ें , धरती के भीतर हैं
दर्द से कराहती धरती हूँ मैं , खुद में

जाने कितनी बार 
अपना चकनाचूर ज़ेहन
मैंने छोड़ा है पत्थर के नीचे

मैं सोती हूँ ताकि वो आराम कर सके
मैं जागती हूँ ताकि वो जा सके
- नींद से , क्या सीखना चाहिए मुझे ? -

खुद की कीमत पर , मैं एक अजनबी के साथ रहती हूँ
और यदि मैं उछल पडूँ , तो वो गिर पड़ेगा मेरे भीतर से बाहर ।

कभी-कभी मनुष्य मरते-मरते भी थक जाता है
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कभी - कभी मनुष्य मरते-मरते भी थक जाता है 
कभी - कभी वह उस मुल्क की तरह हो जाता है
जिसे सबने छोड़ दिया हो

उस मुल्क की तरह 
जिसे छोड़ दिया हो सबने
एक स्त्री भी छूट जाती है

दुःख के समुद्र के भीतर एक मछली
जैसे ही टकराती है किनारे से
समुद्र उछलने लगता है

ताकि कोई देख न सके मेरे ज़ख्म
मैं उन पर जमा लेती हूँ पपड़ी

यदि मैं नहीं होती , दुःख भी नहीं होते ।



विलाप
---------

एक स्त्री होने का अर्थ
रौंदा जाना है , ओ माँ !

उन्होंने सब कुछ छीन लिया मुझसे
एक स्त्री ने मेरा बचपन लिया
एक पुरुष ने मेरा स्त्रीत्व ....

ईश्वर को स्त्री की रचना नहीं करनी चाहिए 
ईश्वर को जन्म देना नहीं आता

यहाँ , सभी पुरुषों की पसलियां
टूटी हुई हैं

हमारी ग्रीवायें बाल से भी ज्यादा पतली हैं
पुरुष उठाये हुए हैं हमें
अपने कन्धों पर ताबूत की तरह

हम उनके पैरों के नीचे रहे
किसी पँख की तरह
हम उड़े एक दुनियां से 
एक आदम की तरफ

और मेरे शब्द , ओ माँ !
उनके पदचिह्न हैं .....



मुझसे पुरुषों की बात मत करो
--------------------------------------

मेरी आत्मा इतनी दुखती है
कि मैं धरती के भीतर सोये पत्थरों को जगा देती हूँ

मेरा स्त्रीत्व
एक गुल्लक है जिसमे भरे हैं पत्थर
एक घर कीड़े-मकोड़ों का , कठफोडवों का 
एक गुफा चढ़ते-उतरते भेड़ियों के लिए
मेरी देह पर , मेरी बाँहों पर
नए बीज बिखेरे जाते हैं
तुम्हारे जीवन के लिए पुरुष तलाशा जाता है
यह बेहद गम्भीर मसला है

मेरा स्त्रीत्व , मेरा ठण्डा नाश्ता
और मेरा वस्ति प्रदेश , खालीपन से भरा एक घर
इसी पर टिकी है यह दुनियां 
और तुम ! उस गन्दगी के साथ जी रही हो
जो फेंक  दी गई है तुम्हारे अंदर

जब वह जा चुके , उससे कहना
कि नाख़ून छूट जाते हैं मांस में
कि तुम जीती हो इस टूटन की विज्ञान के साथ
उस गम्भीर बीमारी के बारे में उसे बताना

किसी भेड़ के चमड़े की तरह , मैं ठण्डी हूँ तुम्हारी घूरती निगाह में
मैं तुम्हारी माँ की कोख की कर्जदार नहीं हूँ  , श्रीमान !
मेरा स्त्रीत्व , मेरा अधीनित महाद्वीप

और न मैं खेती वाली जमीन हूँ ...
खरोंच कर मिटा दो उस अंग को जो मेरा नहीं 
साँप की केंचुल की तरह , काश मैं उससे मुक्त हो सकती
हत्या के लिए माँ बने रहना तार्किक नहीं

यह टुकड़ों में विभाजित सरज़मीन नहीं
एक स्त्री की देह है
अब मुझसे पुरुषों की बात मत करो !

चलो सोने चलते हैं
-----------------------

चलो सोने चलते हैं
उस तन्हा अँधेरे में

अच्छा हो कि पैर में पड़े लकड़ी के जूते
सूती वस्त्र में बदल जायें

चलो सोने चलते हैं
उस बन्द पलकों वाले महल में

चलो अपने कन्धों से उतारें अपनी देह
चलो उस घोड़े पर सवार हो जायें
जिसकी पूंछ एक बादल है

जैसे हम पराजित हो चुके हों
आसमान की चमक से

जैसे हमारे पास कोई सिरहाना न हो
सिवा धरती के

अच्छा हो कि गेंहू की हरितमा 
हमारे सपनों पर झुक जाये

चलो सोने चलते हैं ।
मधुर है भूलने का स्वाद
------------------------------

औरों की तरह तुम भी भूल जाओगे
और अपने प्रिय का चेहरा वापिस रख आओगे
जहां से मिला था तुम्हे
शायद किसी मस्जिद के सहन में

उस नरसंहार में जिसे भूलना कहते हैं
छाती सूखती है , त्वचा सिकुड़ जाती है

औरों की तरह तुम भी भूल जाओगे
या फिर भूलने की जुगत तलशोगे

बहुत आसान है एक प्रेमी को भूलना
लोग अपने अत्यंत प्रिय को भूल जाते हैं
और किसी अजनबी का चेहरा उनके ज़ेहन में आ जाता है

तुम भी भूल जाओगे
मधुर है 
भूलने का स्वाद ।

तलवार का घाव
--------------------

खुद के सिवा कोई नहीं मेरे पास
एक भी दिन नहीं
इस रात के बाहर मेरे पास

बर्फ़बारी के बीच मैं नींद के आग़ोश में जा रही हूँ
इस देह के साथ जिसे कुत्तों ने
तार-तार कर दिया है

मैं इंतज़ार कर रही हूँ ज़िन्दगी के गुज़रने का 
तलवार का एक गहरा घाव है 
मेरी जांघो के बीच

मैं यहाँ आई 
एक स्त्री की कोख भरने के बाद

मुझे नापसन्द थी यह दुनियां
जिसे मैंने उसकी नाभि से देखा था

खुद से बाहर कोई नहीं मेरे पास
एक दिन तक नहीं 
रात से बाहर 
मेरे पास ।



आक्रमण
------------

मैं अपने ज़ेहन के कुएँ में हूँ
दीवारों पर 
जगह - जगह
सिर्फ तस्वीरें हैं
कभी गायब हो रही हैं
तो कभी टँग जाती हैं कीलों पर

हवा का एक झोंका खींच लाया मुझे यहां
एक हथौड़े ने धकेल दिया मुझे भीतर
सब कुछ मनभावन है
अहसास देह में ढल गए हैं

प्रेम एक घोड़ा है
जो दौड़ रहा है
मेरी देह में
सिर्फ आवाज़ें बची हैं पीछे
जो दूर जा रही हैं तेजी से .....

नष्टप्राय , अवाक् , इस जगह ।
स्वागत
---------

मैंने लुढ़का दीं चीजें
इस दुनियां के भीतर
उस बच्चे की तरह
जो अपने खिलौने लुढ़काता है

मुझे ख़ूबसूरती मिली
एक स्वप्न के उजाड़ में
ओह ! स्वागत 
इस हक़ीक़त का 
जो मैं देख न सकी ।

रहस्य के भीतर
------------

मैंने पाया तुम्हे
रहस्य के भीतर

मैं खो गई तुम्हारे भीतर
मैं खो गई तुम्हारे भीतर

अब सिर्फ ख़ामोशी से तअल्लुक़दारी है
बस अपना दिल ही मेरा बसेरा है

मैं बही जाती हूँ
इस नदी में
जो बहे जाती है मेरी आँखों से
तुम्हारी आँखों में ।

गुलाब
---------

क्रायोवा में
गुलाब के बगीचे के सामने

मैं देख रही हूँ इस दुनियां को
एक सुर्ख़ गुलाब की तरह

मैं देख सकती हूँ  उन सबको
जो मेरे भीतर हैं
जब भी देखती हूँ 
गुलाब की ख़ूबसूरती की तरफ

- जिन्हें पाल रही हूँ मैं
   अपने दिल की मिट्टी से ।


गुलदान
----------

वक्त ठहरा हुआ है , वहां
किसी ठोस गुलदान की तरह

दिल बुहार रहा है टूटे हुए टुकड़े
पैरों के नीचे

बहुत मुश्किल है समझना
आत्मा की पसोपेश
और यह दुनिया
यह व्यवस्था

हमारे अंदर की ऊब
मृत्यु को बढ़ा रही है

एक सीरियाई लड़का बह कर
आ चुका है किनारों तक
इस शहर में लोग 
बन्दूक की गोलियां खाकर जिन्दा हैं

मैं पुकार रही हूँ अपनी आत्मा को
कहीं कोई आवाज़ नहीं ।



ग्रेज़ी पार्क में एक चिड़िया का घोंसला 
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( नाज़िम हिकमत की स्मृति में सादर )


एक चिड़िया के घोंसले में बैठकर मैं इन शब्दों को लिख रही हूँ
जो दो शाखाओं के बीच ग्रेज़ी पार्क में बना हुआ है
मेरी साँस चाकू की तरह छाती में अटकी हुई है 
वे आ रहे हैं इस आकाश को ध्वस्त करने
धरती के तमाम लोगों के साथ

मैं एक चिड़िया का घोंसला हूँ


ग्रेज़ी पार्क में
दो शाखों के बीच

यहाँ लोगों को ज़हर दिया जाता है
दरख़्तों को उखाड़ा जाता है

हमें खदेड़ा जा रहा है उन जगहों से
जहां हमारी माओं ने हमे बुलाया

वे चिड़ियों के संगीत पर बमबारी कर रहे हैं 
- चिड़ियें सिक्कों की खनक नहीं पैदा करतीं -
       
ईथम* के बारे में सुना , एक सीमुर्ग आग में
अंकारा का एक वेल्डिंग कामगार
उसका शरीर गिर रहा है एक पँख की तरह
हमारी मृत्यू से पहले ही वे हमे मिट्टी में तब्दील कर रहे हैं 
धुंए में घिरे हैं गली के बच्चे और बिल्लियाँ
उनके कूबड़ पर एक गुमशुदा स्वप्न है
अंधी आँखें दुनियां की तरफ नहीं देख सकतीं
या किसी अप्रत्याशित क्षण में नींद से बोझिल नहीं होतीं ....

मैं एक चिड़िया का घोंसला हूँ
ग्रेज़ी पार्क में
दो शाखों के बीच ।

* सरकार के खिलाफ़ प्रदर्शन के दौरान मारा गया एक कामगार ।
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 कवि-अनुवादक मणि मोहन जी मध्यप्रदेश के गंज बासौदा में प्राध्यापक हैं.
संपर्क : profmanimohanmehta@gmail.com

कुछ ताज़ा कविताएँ

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अशोक कुमार पाण्डेय की चार कविताएँ
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प्रशांत साहू का काम गूगल से 



जैसा होता है...

आँसुओं की खारी झील सी
यह कथा स्त्री के प्रेम की है
तैरती हैं जिसमें हमारी सारी प्रेम कथाएँ सूखे पत्तों की तरह

जैसा होता है वैसा ही था सब
एक राजकुमार प्रेम में डूबा हुआ
और झील के किनारे सपने देखती हुई एक स्त्री
वे मिले तो हिलोरे लेने लगा झील का पानी

महलों से चला आता था वह रात बिरात
दोनों तारों पर पाँव रखते जाते थे चाँद तक
जहाँ एक बूढ़ी औरत खूब दूध वाली चाय के साथ उनकी प्रतीक्षा करती थी
वे अपने साथ लिए जाते थे अधूरे लिखे पन्ने
मांग लेते थे कलम बूढी औरत से लिखते थे साझा सपने


और जैसा होता है वैसा ही हुआ फिर
अचानक पावों के नीचे से खींच लिए गए तारे
ठंडी होती रही खूब दूध वाली चाय
चाँद थोड़ा और अकेला हो गया
धरती थोड़ी और सख्त
हवा थोड़ी और भारी



शापित हुआ राजकुमार
दृष्टि छीन ली गयीं उससे
छीन ली गईं स्मृतियाँ
छीन लिया गया जीवनदायी स्पर्श भी
कह दिया गया यह---
न देख सकोगे न करोगे याद
और स्पर्श मृत्यु का कारण होगा
फिर भी
पहचान लोगे यदि उसे
होगे शापमुक्त !


और इस तरह शापित हुई वह स्त्री
जिसे अंतहीन प्रतीक्षा का दण्ड मिला ।

जैसे बीतते हैं बीतने लगे दिन
चलती रही दुनिया हस्बे मामूल
उगता रहा सूरज समन्दर में डूबने के लिए
खिलता रहा चाँद तारे बनते रहे सीढ़ियाँ प्रेमियों के
भटकता रहा वह स्मृतिहीन राजकुमार
वह स्त्री भटकती रही एक जानी पहचानी प्रतीक्षा में
झील होती गई और गहरी ।

और जैसा होता है वैसा ही हुआ फिर -
मिला फिर वह एक दिन जैसे हर कथा में मिलना तय होता है असम्भव की तरह
दौड़ कर लिपट जाना चाहती थी वह
लेकिन शाप !
उसने पुकारा नाम बेकल
न पहचान सका राजकुमार बस चौंका और चला गया
पलकें बिछा दीं स्त्री ने उसी राह
अगले दिन जब गुजरा वह तो हँसी खिलखिलाकर स्त्री
हंसती थी जैसे चाँद परतुम्हें नही आता चाय भी पीना
कहती हुई प्याले के छलकने पर
इस बार चौंका भी नहीं राजकुमार उस हँसी से और चला गया
वह घिसटती चली उसके संग - किस्से सुनाये चाँद के,
चाय का स्वाद याद दिलाया
बिखरा दिए वे पन्ने अधूरे और साझा

और जैसा होता है
हार कर रो पड़ी वह
निराशा में डूबा एक विलाप शब्दहीन
जिससे चौंका राजकुमार बुलाया उस नाम से जो दिया था अपनी प्रिया को
रौशनी लौट आई आँखों में, स्पर्श का विष ख़त्म हुआ
ख़त्म हुई विस्मृति
धरती से हरियाली फूटी
बसने लगे नीड़
अँखुआए बीज हुलस कर
नदियाँ मचल कर बहने लगीं
हवा थोडा और महकी

और रोते हुए पसार दिया अपना आंचल स्त्री के लिए खारी झील ने
पुचकारते कहा मेरी बच्च्री
जैसा होता है , हुआ है सब फिर वैसा ही !



बहुत गझिन है यह यवनिका 

प्रतीक्षाएँ छायाओं सी होती जातीं रात के साथ विस्तारित
स्वप्न धुंधलाते और एक चेहरा उभरता अंधेरों की पीठ पर

भ्रम एक अधूरा सत्य है सत्य एक अधूरा भ्रम

यह जो आया है हाथ में जाने रस्सी है कि साँप है
साँसें चल रही हैं अभी और पाँव भी
होठों पर झाग नहीं एक भुनभुनाहट अस्पष्ट  
आँखें नहीं देखतीं कुछ कान सुनते हैं कोई आवाज़ बेआवाज़  


जहाँ राह है वहीँ एक गहरा काला धब्बा भी
उतरता है किन्हीं अनंत खाइयों में और खो जाता है
मैं चलता हूँ सारी रात और पहुंचता कहीं भी नहीं
मैं जहाँ पहुंचता हूँ वहा जगह है कोई या बस एक धब्बा काला
वह काला धब्बा राह है या बस एक धब्बा
जैसे आत्मा पर हो कोई कचोट जैसे देह पर घाव कोई


दूर कहीं कोई आवाज़ पुकारती है
यह मेरी ही आवाज़ है
कंठ रुंधा और आवाज़ बिलकुल साफ़
मैं भागता हूँ इसके पीछे और गिर कर गिरता चला जाता हूँ
कोई समतल मैदान जैसे हो गया हो तिर्यक अचानक
फिर जैसे दृश्य कोई नाटक का
यवनिका सी गिरती है चुप्पी आवाज़ और मेरे बीच
इस ओर मैं हूँ अब अकेला  


मैं अपनी आवाज़ की प्रतीक्षा में हूँ
आँखे उसे ढूँढने गयीं और किसी झाड़ी में उलझकर परेशान हैं
हाथ टटोलते की कोशिश करते हैं तो पता चलता है सुन्न हैं कबसे
पाँव चलते हैं तो हवा में रह जाते हैं


एक चूहा कुतरता है चेहरा
सीने का कवच कुतरता है
साँसों में सेंध लगाता पहुंचता है सपनों तक
सपने तिलमिला कर जाग पड़ते हैं नींद से और फिर चीखते हैं
उस चीख में यह जो आवाज़ है रोने की सी किसकी है?


मैं उस आवाज़ को पहचनाने की कोशिश में ढूंढता हूँ अपनी आँखें
मैं अपनी आँखों की तलाश के लिए अपनी आवाज़ ढूंढता हूँ



बेशर्मी के पक्ष में

एक भीड़ है पगलाई हुई
और पीछे जलते हुए घर तमाम

मैं सड़क किनारे खड़ा हूँ किताबें संभाले
एक टूटे हुए लैम्पपोस्ट की आड़ में खड़ा जाने किसे पुकार रहा हूँ
और आवाज़ बुझे बल्ब के हलके धुएँ में डूबती जा रही है

उनके हाथों में सबसे मंहगे मोबाइल हैं
वे उन्हें पिस्तौल की तरह पकडे भाग रहे हैं
उनके पैरों में सबसे मंहगे ब्रांड के जूते हैं और उन पर ज़रा सी भी धूल नहीं
उनके सीनों पर सजी हैं सबसे मंहगे संस्थानों की डिग्रियाँ
जेबें फूली हुई हैं, बाल एकदम संवरे देह गमक रही है खुशबू से

वे एक ही साँस में कहते हैं प्रेम, सेक्स, देश और फाँसी
एक ही सुर में भजन और रैप गाते खिलखिलाते हैं
इतिहास उनके जूतों के नीचे पिसता चला जाता है
भविष्य खुशबू की तरह उड़ता है कमीज़ों से

वे किसी मंदिर के सामने रुकते हैं, झुकते हैं और उठते समय कनखियों से नहीं पूरी आँखों से देखते हैं पोर्न फिल्मों के पोस्टर और इसके ठीक बाद नैतिकता पर एक लंबा स्टेट्स लिखते हैं और फिर माँ बहन की गालियाँ देते वन्दे मातरम का उद्घोष करते पञ्च सितारा होटलों की बहुराष्ट्रीय बैठक में एकदम अमेरिकी अंग्रेजी में प्रेजेंटेशन देते विकास की परिभाषा समझाते हैं.

मैं निकल आया हूँ उस आड़ से पसीना पोछते
मैंने अभी अभी जिस भाषा में लिखा था एक शब्द
वह कुचली पड़ी है सड़क पर
उठाता हूँ उसे दो घूँट पानी पिलाता हूँ
तो हंसता है कोई – दूषित है यह पानी
झलता हूँ पंखा रूमाल से चेहरा पोंछता हूँ
तो हँसता है कोई – दूषित है हवा

मैं शर्मिन्दा सा उठता हूँ और वह मेरे चेहरे की शर्मिंदगी उखाड़ झंडे की तरह लिए भागता शामिल हो जाता है भीड़ में. मेरी रूमाल रख ली उसने विजय चिन्ह की तरह और मेरी भाषा को पोस्टर की तरह चिपका दिया चौराहे पर.

मैं भौंचक देखता हूँ
तो कहता है कोई
शर्म अब हार का प्रतीक है
खेल के नए नियम हैं यह अब हार चुके हो तुम
जाओ अपनी भाषा की शर्म सम्भालो
वह जो सबसे पहले हुई शर्मिन्दा और अब हमारे लिए जिंगल लिखती है.

गुबार बाक़ी है और मैं अकेला खड़ा शर्मिन्दा
अपनी शर्म से जूझता एक पुराने पेड़ से टिकता हूँ
उस ओर खेत हैं सूखे और उन पर धब्बे तमाम
मेरे पावों में पुराने जूते हैं धूल और थकान से भरे
प्यास एक तेज़ उठती है गले में कांटे सा चुभता है कुछ
चलता हूँ थोड़ी दूर और एक कुआँ रोकता है राह
जगत पर कत्थई धब्बे रस्सियाँ उदास
एक कमज़ोर सा हाथ बढ़ाता है डोल तो चुल्लू पसारता हूँ
प्यास से पहले चली आती है वह शर्म और चौंक कर देखता हूँ चारो तरफ
कहता है वह हाथ कमज़ोर –
मरना तो है ही बाबू पानी से या प्यास से
दोनों से बचे तो भी मरना ही है सल्फ़ास से
और मुस्कुरा कर रख देता है कंधे पर हाथ

पीता हूँ पेट भर पानी कमीज़ की बांह से पोछता हूँ मुंह लेता हूँ सीने भर साँस
और कहता हूँ – शर्म छोड़ दो तो कोई नहीं मार सकता हमें.  




मैं चाहता हूँ करना प्यार 
(मरीना त्यस्तेसावा का एक ख़त पढ़कर)

तुम देखती हो जब सौन्दर्य मैं तुम्हें देखता हूँ
समंदर किनारे की रेत पर चलते एक समंदर तुम्हारी आँखों में भी लहराता होगा
एक पहाड़ देखा है मैंने तुम्हारी आँखों में पहाड़ी नदी के किनारे चलते चलते
ढलानों पर उतरते तुम्हारे पाँवों से बिखरते देखा मैंने मुक्ति का संगीत
और उस संगीत को अपनी आत्मा के ज्यूक बॉक्स में दर्ज़ किया निःशब्द

जब तुम कविता पढ़ती हो तो एक कविता तुम्हारी उदासी लिखती है
हर्फ़ दर हर्फ़ पढ़ता हूँ वह कविता जैसे स्कूल की पहली कक्षा में कोई बच्चा पढता हो बारहखड़ी

भयों को छोड़ आया था तुम तक आने से पहले
जैसे छोड़ आते हैं पेड़ पत्तियाँ बसंत के आने से पहले
पर दुःख बचा रहा क्लोरोफिल सा, कामनाएँ टहनियों सी बची रहीं
बची रही उम्मीदें अधूरी छायाओं सी, सपने जड़ों की तरह तलाशते रहे जीवन
और इस तरह तुम तक पहुँचा मैं

मुझे नहीं आया प्यार करना
बचपन के सबकों में प्यार का कोई सबक नहीं था
मुझे आसुंओं से भरी आँखों को होठों से पी जाना आता था
आता था मुझे भीड़ भरी सड़क पर तुम्हारे भर की राह बना देना
मुझे सिखाया गया था आँसुओं का नमक अपने कन्धों की हड्डियों में घोल लेना
और मैंने सीखा गलना इस तरह धीमे धीमे कि हड्डियों को भी पता न चले
मुझे धीरज सिखाया गया था और मैंने की प्रतीक्षा जैसे वेंटिलेटर पर करता है कोई मृत्यु की

आज़ादी मेरे लिए उन रास्तों का सफ़र थी जिन पर सत्ताएं बिखरती हैं धीरे धीरे
मैं चला और चाहा तुम भी चलो जैसे हवा के साथ चलती है बारिश

मैंने जब किया ख़ुद से प्यार तो उस ख़ुद में जाने क्या क्या शामिल होता गया

एक दुनिया थी दुख और अत्याचार से भरी और मुझे बुद्ध नहीं होना था
एक मुसलसल जंग थी चारों तरफ़ और नो मैन्स लैंड की ओर नहीं गयी मेरी निगाह
मैंने किया प्यार ख़ुद से तो उन तमाम दुखों से प्यार कर बैठा जिनके दाग़ मेरे पुरखों की सफ़ेद कमीज़ पर थे
ख़ुद से प्यार किया तो कर पाया तुमसे प्रेम

मैंने प्यार किया जैसे युद्ध में घायल सिपाही करता है ज़िन्दगी से प्यार
जैसे आख़िरी साँस लेता मरीज़ चिड़ियों से प्यार करता है 
जैसे पिघलते पहाड़ करते हैं नदियों से प्यार
जैसे शहर की पुरानी इमारतें करती होंगी स्मृतियों से प्यार
जैसे सूखे के तीसरे साल कुँए की जगत से करता हो कोई प्यार

हाँ मेरी प्रिय नहीं जानता पर चाहता हूँ करना प्यार
जैसे बेसुरा कोई गाना चाहता हो कबीर के पद कुमार गन्धर्व को सुनते सुनते






मुसदिक़ हुसैन की कविताएँ

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वीर मुंशी की पेंटिंग गूगल से 


 
मुसदिक़ हुसैन की कविताएँ
अनुवाद : अशोक कुमार पाण्डेय


कश्मीर में होना ही एक परिचय है इन दिनों. अपनी पहचान और राष्ट्रीयता के बहुसंस्तरीय संकटों में उलझा लल द्यद और शेख़ नुरूद्दीन का यह प्रदेश आज हब्बा खातूनों की आर्त पुकारों का देश है, कई कई रंग की बंदूकों के साए में पलता.  श्रीनगर में रहने वाले मुसदिक़ अभी-अभी अठारह के हुए हैं और बारहवीं की परीक्षा पास की है. अपने हमउम्र युवाओं की तरह सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं. उनके फेसबुक पेज़ ‘एम के’ के अलावा अंग्रेज़ी में लिखी उनकी कविताएँ पहल के माध्यम से पहली बार किसी प्रिंट माध्यम में छपी हैं. वहाँ से साभार 



1-       तुम्हारी आत्मा को शांति मिले
--------------
अँधेरों मे और आगे
जहां आसमान किसी पुराने-जर्जर निगेटिव सा लगने लगता है
उम्मीदों के साहिल पर मैंने इंतज़ार अकेले किया –
एक क्लाइमैक्स मेरी अंतड़ियों मे डूबता है।

मैं आने जाने वालों की अर्थहीन आवाज़ें सुनता हूँ
लेकिन मेरी आँखें प्रतिध्वनियों से धुंधली हुई जाती हैं
आरिफ़-आरिफ़-आरिफ़
शौक़त-शौक़त-शौक़त

राख़ मे बदलता जाता है मेरा हृदय।

2-       स्वर्ग कड़वा हो गया है
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बर्फ़ीले पहाड़,फैली हरियाली
कश्मीर है यह
स्वर्ग कहते हैं हम इसे।
आह...कैसे नहीं देख पाते वे वह सब  
जो अपने सीने मे लिए फिरता है ये
गोलियां चाक करती हैं इसे
मिर्च की स्प्रे जाम करती है फेफड़े
एक शिरा है लहू की जो जम गई है
ज़िबह,हत्या क्या क्या नहीं हुआ इसके साथ

खो गए या खो रहे हैं
तुफ़ैल वामिक समीर बुरहान
ज़ुबैर इनायत ज़ाहिद बिलाल
 आदिल इम्तियाज़ आरिफ़ आक़िब...
और भी जाने कितने
अपने पीछे आधी माओं और आधी विधवाओं को छोडकर ।

हमारे हिममानव तक की देह पर ख़ून के धब्बे हैं ।

शाम की हवा मे लोहे के जंग की महक है
भाई
आज की शाम फिर से भर दो हुक्का
जब तक  लौ से बेखौफ परवाने की तरह
एक और बार जल कर भष्म न हो जाऊँ मैं।

लेकिन जानते हो तुम
अब यहाँ थोड़ा कम उगती है केसर
उनसे कह दो
स्वर्ग अब कड़वा हो गया है।



3-       बसंत नज़दीक है 

और जब  तुम्हारे बच्चे
रात के अँधेरों मे डरकर
फिर से जाग जाएँ मौज काशीर
अपनी गोद मे ले लो उन्हें
और आस बंधाओ
कि बहुत दूर नहीं है अब
बसंत का मौसम

4-       चुप्पी का रंग लाल है

इन्टरनेट प्रतिबंधित
फिर भी हमारे आसमान
आज़ाद है
हमें सिखाते हैं
चुप्पियों की जबान मे बातें करना बेबाक

प्यारे आततायी
कैसे नहीं सुन पाते तुम
हमारी चुप्पियों से उठते
सबसे तेज़ नारे।

5-       मिर्च से भरी कश्मीर की गलियाँ

और मेरी प्रिय
जब हम फिर निकलें
काली मिर्च के स्प्रे से भरी कश्मीर की गलियों मे
ढँक लेना अपने प्रेम से मुझे
कि न रुँधे मेरी सांसें

6-       ज़िक्र ए-वतन

और इससे पहले कि
मैं कह सकूँ
अपनी ज़मीन का क़िस्सा
आसमान सुर्ख़ लाल हो गया है।

7-       एक लहूज़दा जन्नत

आज बताना होगा तुम्हें
अपने देश के बारे मे
जहां रहते हो तुम

जाना
मैं एक ऐसी धरती पर रहता हूँ
दिन अँधेरे हैं जहां
और रातें कर्फ़्यू की गिरफ्त मे
मैं जहन्नुम की आग मे जलते
जन्नत मे रहता हूँ
एक लहूज़दा जन्नत मे

8-       आततायी  

वह वादा करता है बहुत जल्द चले जाने का
लेकिन चाहता है कि वे उसे
केसर के दुनिया के इकलौते बागीचे का
चौकीदार बना दें


वह संभालता है पद
लेकिन कभी नहीं निभाता अपने वादे
वह अब उनके देश का शासक है
और दुनिया के इकलौते स्वर्ग मे
लिए जाता है उन्हें नर्क की ओर।


9-       मौत ने जगाया मुझे

खामोश थी रात
आसमान तारों से भरा
यहाँ तक कि पिछली रातों की तरह
कोई दुःस्वप्न भी नहीं था मेरी आँखों मे

बहुत अरसा बाद साथ थे हम
हमेशा के लिए ज़िंदगी के लौट आने के
वादे करते हुए
हम दोनों खुश थे
वह और मैं

हवा मे भर गए रूमानी गीत
सारी रात रही वह मेरी पहलू मे
सच हो रहे थे मेरे ख्वाब
लेकिन तभी जब पौ फटने लगी
मौत ने जगाया मुझे
और जमा दिया हम दोनों को सदा के लिए .  


10-    हवा को जवाब देते हुए

रौशनी के शहर मे
एकांत के एक बेंच पर
हम साथ बैठते हैं
अपने हृदय से
मिटाते हुए सारी सीमाएं... 
अपने खामोश शब्दों को
हवा के हर सवाल का
जवाब देने देते हुए



संपर्क : kh.musadiq@gmail.com

सुमन केशरी की ग्यारह कविताएँ

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सुमन जी परम्परा के साथ एकात्म होने की हद तक तादात्म्य बिठा कर अपने समय से सीधा संवाद करने वाले विरले कवियों में से हैं. मिथकों, लोक कथाओं और पारम्परिक स्रोतों से जितना ईंधन उन्होंने लिया है उतना शायद ही किसी समकालीन कवि ने. और इस आँच पर जो पक कर निकला है वह समय की विद्रूपताओं को उद्घाटित करने और उनसे टकराने के लिए अपने संयमित किन्तु दृढ़ स्वर में प्रतिबद्ध काव्य संसार है. हमारे अनुरोध पर उन्होंने असुविधा को ये कविताएँ उपलब्ध कराई हैं, देरी के लिए माफ़ी के साथ हम उनके आभारी हैं.





मछलियों के आँसू..

वे मछलियों के आँसू थे जो अब
उस विशाल भवन की दीवारों पर बदनुमा दाग बन कर उभर रहे थे
अलग अलग शक्ल अख्तियार करते..

ये धब्बे बढ़ते चले जाते थे ऊपर और ऊपर...

एक दिन देखा छत पर आकृतियाँ बन गई हैं
घड़ियाल, मछली, घोंघे, सीप, बगुले-बतखें,
मान सरोवर वाले हँसों की..
कुछ अनजानी वनस्पतियाँ उग आई थीं छिटपुट कहीं कहीं
आसमान सूखा था
निपूती विधवा की आँखों सा
एकदम विरान
निष्प्राण...


विदा होती बेटियाँ

मैं देखना चाहती थी
विदा होती बेटियों की आँखों में
कि उन आँखों से बहते आँसुओं में
विरह की वेदना थी
या था भय अकूत
सपने थे नए नए
या दुःस्वप्नों का बिछा था जाल
आश्वस्ति थी
या थी याचना अपार
विदा होती लड़कियाँ
बहते आंसुओं से सींच रही थीं
आंगन
जहाँ गड़े थे उनके नाभि-नाल

विदा होती लड़कियाँ समूल उखाड़ रही थीं खुद को
आंचल में अपनी जड़ें समेटतीं
विदा होती लड़कियाँ बहते आँसुओं से
अपने कदमों के निशान मिटाती चली जा रही थीं
दूसरे देस
गाती
बाबुल मोरा नईहर छूटो रे जाए...

लड़कियों के अपने देस की कोई कथा सुनी है क्या तुमने?

3.

ज्यों आसमान पर जहाज उड़े
त्यों आया था वो चाकू
और धँस गया ऐन कलेजे में
जैसे उसे पता हो कि धँसना कहाँ है

दर्द और डर में से
कौन जीता उस चीख में
यह तो उस तक को पता न चला
जो गिरा इस तरह
कि चाकू आर-पार हो गया
कलेजे और पीठ के
अब चाकू का फल क्षितिज की ओर तना था
क्षितिज लाल हो चला था
दूर दूर तक कोई न था
सिवाय घोड़े के टापों-सी
उलझते दौड़ते दूर होते कदमों के आवाज
धरती के फुट भर हिस्से को रंगता वह आदमी
अब भी डर और दर्द के उलझन में पड़ा था
कड़ियाँ लपेटता...




4.


यदि वह कहता कि
आसमान से उस रात आग बरसी
तो कोई उस पर विश्वास न करता
क्यों कि
दूर दूर तक उस रात न कहीं बिजली चमकी थी
न कहीं पानी बरसा था
बादल तक नहीं थे उस रात आकाश में
चाँद-तारों भरी वो सुंदर रात थी
ठीक परियों की कहानियों की तरह...

यदि वह कहता कि डूब गया वह गहरे समंदर में
तो कोई विश्वास न करता उसके कहे पर
क्योंकि वह जीता-जागता खड़ा था
ऐन सामने

यदि वह कहता कि
बहरे कर देने वाले इतने धमाके उसने कभी नहीं ने
नहीं सुनी ऐसी चीखें
तो हम सब हँस पड़ेंगे उस नासमझ पर
कि वह हमारा कहा सब सुन रहा था

हाँ बस देखता जाता था बेचैन
कि कैसे बताए हमें वह
उस रात के बारे में
जब उसने अपने ही पड़ोसियों को बाल्टी उठा
पेट्रोल फेंकते देखा था घरों पर
कैसे बताए कि
आया था उड़ता एक गोला और
आग बरसने लगी थी चारों ओर
कैसे बताए उस रात अँधेरे की गोद गरम थी
बावजूद धड़कते दिल के काँपते जिस्म के

कैसे बताए तब से अब तक
कितनी बार धँसा है वो समंदर में
आग बुझाने
कोई नहीं मानता उसकी बात
कोई नहीं जानता अथाह समंदर




5.

घर
घर सुनते ही वह अपने भीतर सिमट जाता था
मानो वही उसका घर हो

घर सुनकर कभी उसके चेहरे पर मुस्कान नहीं दिखी
बाँया गाल और कान जरूर फड़कते थे
क्षण भर को
फिर वही वीरानी
जो दोपहर को रेतीले टीलों पर
आखिरी ऊँट के गुजर जाने पर होती है

नमी आँख में भी नहीं
सुन्न वीरान

तेरह साल का वह चेहरा
सैकड़ों सालों से अकाल की मार खायी जमीन पर
तेरह सदी पहले बनी दीवार-सा था
घर...
घर...
घर...
कई बार उच्चारा मैंने
और धंसती चली गई अंधे कुएँ में...

आत्महत्या

उसने आत्महत्या की थी
इसीलिए
बरी था देश
नेता बरी थे
बरी था बाजार
खरीददार बरी थे
बरी थे माँ-बाप
भले ही कोसा था उन्होंने
उसकी नासमझी को बारंबार
कि उसने इंजीनियरिंग छोड़
साहित्य पढ़ा था
सो भी किसी बोली का
इससे तो भला था
कि वह
खेत में हल चलाता
दूकान खोल लेता
या यूँ ही वक्त गंवाता
कम से कम पढ़ाई का खर्चा ही बचता
भाग्य को कोस लेते हम
पर बची तो रहती कुछ इज्जत
न पढ़ने से कुछ तो हासिल होता

बरी थी प्रेमिका
हार कर जिसने
माँ-बाप का कहा माना था
भाई बरी था
बावजूद इसके कि फटकारा था
बच्चों को उससे बात करने पर
बरजा था पत्नी को
नाश्ता- खाना पूछने पर
बहन बरी थी
उसने न जाने कितने बरसों से राखी तक न भेजी थी


बरी थे दोस्त
परिचित बरी थे
आखिर कब तक समझाते
उस नासमझ को
कि न कुछ से भला है
किसी होटल में दरबान हो जाना
या फिर सिक्योरिटी गार्ड की
वर्दी पहन लेना
आखिर न इंजिनियरी पढ़ा था वो
न ही मैनेजमेंट
भला तो यह भी था कि
किस्से-कहानी सुना
या यूँ ही कुछ गा बजा
भीख ही मांग लेता
कुछ तो पेट भरता

तो
आखिर पुलिस ने मान लिया
कि आत्महत्या हुई
उन्हीं किताबों के चलते
जिनमें कल्पनाएँ थीं और थे सपने
डरावनी आशंकाएँ थीं
भ्रम थे अपने
सो उसकी लाश के साथ किताबें भी जला दी गईं

अब घर
सपनों अपनों और कल्पनाओं से मुक्त था
अपने में मगन
जमीन में पैबस्त...


7.

यूँ तो निकल गई हूँ मैं
तुम्हें बतलाए बिना ही लंबी यात्रा पर
पर मुझे मालूम है कि तुम
पंचतत्त्वों के हाथों
भेजोगे जरूर मुझ तक
कुछ मेरी तो कुछ अपनी पसंद की चीजें
उन्हें तरह तरह की हिदायतें दे देकर

ले आई हूँ अपनी आँखों में संजोकर
तुम्हारे बाएं गाल के तिल की मासूमियत को
पर भेज देना वहीं छूट गया मेरे होठों का स्पर्श

भेज देना चार-छह मोरपंख जंगलों से बीन बीन
बाँस की ताजी कुछ कलमें
हरसिंगार के कुछ फूल और अमलतास की पीली लटकन
तोते का अधखाया अमरूद
मेंहदी के बौर री खुशबू तो भूलना ही मत
पेड़ से गिरे कच्चे आम की मादक सुगंध भी भेज देना

भेज देना सागरतट पर बिखरे नन्हे शंख और सीपियाँ
देखना उनके प्राणी जीवित न हों
जीवित शंखों-सीपियों को सागर को लौटा देना
रेत पर अपने पाँवों के निशान की छाप भेज देना
याद है न कितनी कितनी दूर तक चले थे हम साथ साथ
अब तुम चलना
मैं निशान अगोरा करूंगी

चाँद, सूरज, तारों और हवा को कहना मेरा प्रणाम
धरती को छू देना क्षमा याचना के साथ
देखकर क्षितिज को
छिड़क देना जल की बूंदे सब चर अचर पर
लेकर मेरा नाम

और सबसे अंत में
प्रिय
तुम स्मृतियों के सारे
पन्नों को सहेज-समेट
मेरी ओर उछाल देना
सदा सदा के लिए...

शब्द और सपने-1

वह पलकों से सपने उतरने का वक्त था
जब मैं उठी
और सभी सपनों को बाँध
मैंने उन्हें जागरण की गठरी में बंद कर दिया
सपने अब जागरण में कैद थे।

जागरण में आसमान से गिरते झुलसे पंख लिए पक्षी थे
जो चूहे बन दफ़्न हो रहे थे जमीन में
गोलियों की धाँय धाँय के बीच

अब सन्नाटा था
और उसे चीरती मेरी चीख थी
जो स्वप्न और जागरण की संधि से फूटी थी

शब्द कहीं नहीं थे...





शब्द और सपने- 2.

सपने में शब्द
एक एक कर दफ़्न किए जा रहे थे
जागरण की जमीन में
पानी कहीं नहीं था

सदियों बाद हुई खुदायी में
बस हवा की सांय-सांय थी
सायं सायं सायं सायं
पानी तब भी कहीं नहीं था


शब्द और सपने-3

सपने में शब्द पक्षी थे
हाराकिरी करते पक्षी
उनकी चोंच और आँखें लहूलुहान थीं
हवा
उनकी नर्म देह जमीन पर बिछने से पहले ही
सोख ले रही थी
उनके पंखों की गर्मी और देह की गंध

अब सपने में भी साँस ले पाना दूभर था...

शब्द और सपने-4

सपने में शब्द
अपनी नुकीली जीभ से
पृथ्वी खोद रहे थे

पेड़ों की जड़ें
अनावृत जंघाओं-सी उधड़ी पड़ी थीं
रक्त से सूरज लाल था
दिशाएँ काँप रही थीं
थर्रायी अग्नि सागर में जा छिपी थी
वाचाल हवा
बौराए शब्दों की ऋचाएँ रच रही थी

पत्ते निःशब्द थे..



नूर ज़हीर की कहानी "चकरघिन्नी" : तीन तलाक़ का दु:स्वप्न

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आज  जब  ट्रिपल  तलाक़  पर  देश  भर  में  बहस  चल  रही  है  तो  सबसे  ज़रूरी  पक्ष  है  उन  स्त्रियों का जो इस कुप्रथा का सीधा दंश झेलती हैं. शरीयत की बहसों से आगे यह प्रथा एक स्त्री के जीवन को पुरुष के समक्ष दोयम दर्ज़े का ही नहीं बनाती बल्कि देह और जीवन से उसका अधिकार पूरी तरह छीन लेती है. प्रतिष्ठित कहानीकार नूर ज़हीर की यह कहानी इस दर्द को रेशा-रेशा खोलती है. यहाँ यह  कहानी  इन्द्रप्रस्थ भारती  पत्रिका से साभार.________________________________




वो दुबकी हुई एक कोने में बैठी थी, लेकिन ज़किया को बराबर यह एहसास हो रहा था की वह कुछ कहना चाह रही है। वैसे महिलाओं का जमघट हो और सभी एक साथ बात न कर रही हों, ऐसा कहाँ संभव है। सभी लगातार कैएं कैएं कर रही थीं और दो तीन बार ज़किया को उन्हें डांट कर, स्कूल के क्लास के बच्चों की तरह एक एक करके बुलवाना पड़ा था। लेकिन जब भी उसपर नज़र जाती वो हलके से मुस्कुरा कर नीचे देखने लगती। उसके दोनों तरफ बैठी औरतें कोहनी मार कर "बोलो न! बोलती क्यों नहीं हो? तो फिर आई क्यों हो?"कहकर उसे उकसा चुकी थीं. लेकिन वह चुप रही थी।
तीन घंटे से ज़्यादा हो चुके थे। ज़किया ने यह दिखाते हुए की मीटिंग खत्म हो गई है , अपने काग़ज़ात, डायरी, कलम समेटना शुरू किया. मजमा भी उठा और अपने चरों तरफ, चौकीदार बने, कील, खूँटी , दरवाज़ों पर टंगे बुर्क़े उतर उतर कर, शरीर और चेहरों को ढंकने लगे। ज़किया बरामदे में लगी चाय की मेज़ की तरफ बढ़ चली थी की पीछे से आवाज़ आई "बाजी!"ज़किया ने अपनी उकताहट को पीछे धकेल, होठ पर मुस्कुराहट चिपकाई और पलटी। ये हर मीटिंग में होता था ; जमघट में से एक या दो पूरी सभा भर तो चुप रहती और जब सब उठ जाते तो अकेले में एक निजी बातचीत की उम्मीद करती. ऐसा होना लाज़मी भी था क्यूंकि महिलाओं की सभा में भी औरतें खुलकर बोलने से हिचकिचाती, आखिर औरतों ने कुछ पहले ही तो ज़बान खोली है .
"बाजी आपसे कुछ पूछना था। आपने तीन घंटे से ज़्यादा शरीयत और भारतीय संविधान पर बात की लेकिन आपने एक लव्ज़ भी हलाला पर नहीं कहा। "इतना सब वो एक झोंक में बोल गई जैसे उसने कुछ बेहूदा कह दिया हो जिसकी चर्चा इज़्ज़तदार लोगों के बीच नहीं करनी चाहिए।
ज़किया रुक कर पूरे एक मिनट तक उसका चेहरा निहारती रही। कितनी बार उसने चाह था की कुरआन के 'सूरा-इ-निस्सा 'के इस हिस्से पर बात चीत हो ; लेकिन उसके काम का दायरा शरिया कानून और भारतीय संविधान में समानता और अलगाव तक सीमित था। बहुत कोशिश के बावजूद वह इससे मिलती जुलती कोई धारा संविधान में ढूंढ नहीं पाई थी।
"क्या नाम है तुम्हारा ?"
"सकीना "
"बताओ, तुम्हे हलाला के बारे में क्या जानना है ?"
वो चुप रही। ज़किया ने कुरेदा "क्या शौहर ने तलाक़ दिया है ?"
"जी"
"और अब पछता रहे हैं और अब तुमसे दुबारा निकाह करना चाहते हैं ?"
"जी। पांचवी बार !"वो बुदबुदाई 

इस बीच कोई ज़किया के हाथ में चाय का कप पकड़ा गया था। वो हाथ से छूटते बचा। खुद पर काबू पाते हुए ज़किया ने उसका हाथ पकडा और उसे एक कोने में ले गई। लेकिन बात शुरू करवाने के लिए अब उसे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ी। सकीना जैसे इसी तन्हाई का इंतज़ार कर रही थी। हकलटम हिचकिचाते उसकी जिंदिगी की दास्तां उसके लबों से फूट पड़ी जैसे कोई फैलता हुआ नासूर फटकर सड़ते बदबूदार पस और मवाद से मुक्ति पाना चाहे ।



"बाजी मैं चौदह वर्ष की थी जब मेरा निकाह अब्दुल रशीद के साथ हुआ. मेरे शौहर मुझसे ग्यारह साल बढ़े थे , शराब के शौक़ीन थे और अफीम की लथ भी थी. सभी को, मेरे अम्मी अब्बा को भी उनकी इन आदतों का पता था, मगर पांच बेटियों के माँ बाप भला क्या मीन मेख निकलते और क्या देखते भलते? वैसे मैं शादी से खुश थी. ससुराल खाते पीते लोगों का था; सास ससुर के अलावा बस एक देवर था जो मुझसे चार साल छोटा था. हर कोई यही कहता शादी हो जाएगी तो ये अपनी बुरी आदतें छोड़ देंगे ; बीवी सब सम्भाल लेगी। "

सकीना अजीब तरह हंसी, कुछ खुद पर कुछ इस समाज पर जो औरत से मर्द सँभालने, सुधरने की उम्मीद तो इतनी करता है मगर उसे हक़ कुछ भी नहीं देता. औरत को अकेले यह जंग लड़नी भी है और जितनी भी है और जीतनी भी है किसी शस्त्र या हथियार बगैर। वो अपनी तनह हंसी के बाद खामोश हो गई. ज़किया ने उसे मुद्दे पर लौटने के लिए पूछा "तो तलाक कब हुआ ?"
"पहली बार शादी के छह साल बाद। मेरे तब तक दो बच्चे हो चुके थे. वो रात देर से लौटे, नशे में धुत और खाना मांगने लगे। जहाँ वो आकर बैठे थे वही मैंने एक छोटी सी मेज़ रख दी और खाने की थाली रख दी। वो कुर्सी पर गिरे पडे थे, खा ना देखकर उठने लगे, पैर टकराया और मेज़ उलट गई। मैं भी पूरे दिन के काम से थकी थी और घर में वो आखरी बना हुआ खाना था. चिड़कर मैंने भी कह दिया "इतना क्यों पीते हो के हाथ पाँव पर काबू नहीं रहता?"
बस इतना कहना था की हमपर चीखना, गलियाना शुरू कर दिया और फिर तीन बार तलाक कहकर हमें तलाक दे दिया."
"लेकिन नशे में दिया तलाक़ तो मान नहीं जाना चाहिए। "

"ये तो हमें मालूम नहीं था, न मौलवी साहब ने ही हमें बताया. क्या जाने शायद उन्हें भी मालूम नहीं होगा। खैर हम अपने मैके आ गए। शुक्र है की बच्चे छोटे थे और सास अक्सर बीमार रहती थी , इसलिए बच्चे हमारे साथ ही आये। जब नशा उतरा तो बहुत रोये, माफ़ी मांगी और मौलवी साहब के पास गए की निकाह दुबारा पढ़वा दीजिये , हम सकीना से बहुत प्यार करते हैं, उसके बिना हम ज़िंदा नहीं रह सकते. मौलवी साहब ने बताया की ये नामुमकिन है---पहले सौ दिन इद्दत के गुजरेंगे फिर हमारा किसी और से निकाह होगा, वो हमें तलाक देगा फिर सौ दिन इद्दत के बाद हमारी अब्दुल रशीद से शादी हो सकेगी। हमारे शौहर भला ये कैसे बर्दाश्त करते की हम किसी और के साथ हमबिस्तर हों ? वो हमारे मायके आये और बोले 'कुछ दिन इंतज़ार करो सकीना, हम कोई रास्ता निकालते हैं। 'डेढ़ साल रास्ता निकालने में लग गया। एक दिन आये बढ़े खुश खुश और बोले 'तैयार हो जाओ सकीना, मैंने रास्ता निकाल लिया है. तुम्हारी शादी अपने छोटे भाई तारिक़ रशीद से कर देंगे। उसने वादा किया है पहली रात के बाद वह तुम्हे तलाक दे देगा और फिर तलाक के बाद हम तुमसे शादी कर लेंगे।'

"हम घबराये। चार साल छोटे देवर को, एक रात के लिए शौहर कैसे माने? लेकिन हमारे शौहर ने समझाया , खुशामद की और मेरे हर ऐतराज़ को ये कहकर खारिज कर दिया की मैं कौन होती हूँ इस सुझाव को न मानने वाली जब मौलवी साहब इसे ठीक बता रहे हैं ; आखिर वह हमारे दींन के रखवाले हैं. मैंने भी सोचा की जब मौलवी साहब को मंज़ूर है तो फिर ये रास्ता अल्लाह और दींन की नज़र में ठीक होगा.
मेरे देवर से मेरा निकाह हो गया। देर रात वह मेरे कमरे में आया. मैं दीवार की तरफ मुंह किये बैठी थी; किसी ग़ैर मर्द को अपना शरीर दिखाने से भी शर्मसार. कुंडी लगाने की आवाज़ तो आई लेकिन उसके करीब आने की आहट मेरे कानो में नहीं पढ़ी. जब बहुत देर वह पास नहीं आया तो मैं पलटी; देखा वह हाथ जोड़े सर झुकाए गुनहगार सा खड़ा है जैसे दुनिया से आँखे मिलाने का साहस न कर पा रहा हो।
'क्या बात है?'मैंने पूछा
उसने नज़रे उठाई और बोल "भाभी पलंग पर सो जाओ. मैं ज़मीन पर दरी पर लेट जाऊंगा। मैं इस पूरे मामले में राज़ी इसीलिए हुआ की तुमको घर वापस लौटा सकूं। तुम्हे हाथ लगाने के बारे में तो मैं सोच भी नहीं सकता। बस एक रात की बात है. "

आपको सच बताऊँ बाजी वो आखरी रात थी जब मैं चैन की नींद सोई। अगली सुबह मेरा फिर तलाक हो गया और के सौ दिन पूरे हुए तो अब्दुल रशीद से मेरा निकाह हो गया।



"लेकिन क्या इंसान की फितरत बदलती है? कहते हैं कोयला धोकर सफ़ेद हो सकता है मगर इंसान का स्वभाव नहीं बदल सकता। उनके दोस्त वही थे, शराब और अफीम की लथ वही थी। घर देर से लौटना, बेवजह झगड़ा करना और फिर मुझे मारना पीटना। वही पुरानी जिंदिगी जिसमे बस एक बात नई थी. बीच बीच में कहते जाते 'तू तो एक रात मेरे भाई के साथ रही है, वह मुझसे सत्रह साल छोटा है. मैं बुढ़ा रहा हूँ और वह गबरु जवान है, तुझे तो उसके साथ ज़्यादा मज़ा आया होगा न? मेरे साथ जब होती है तब उसकी याद सताती है तुझे? क्या दोपहर में उसके पास जाती है, मौके से, जब अम्मी और बच्चे सोते हैं?'



"बाजी मैंने जब तक हो सका राज़ छुपाया; आखिरकार मेरी बर्दाश्त की हद टूट गई और सच मुंह से फूट पड़ा "तू क्यों मुझ बेचारी पर और अपने फरिश्ता जैसे भाई को गुनहगार समझता है। उसने तो उस रात मुझे हाथ तक नहीं लगाया । वो तो रात में देर से इसलिए लौटता है ताकि मुझ से सामना न हो। 'उस वक़्त तो मेरे शौहर ने मुझे बाहों में भर लिया और मुझे अपनी जिंदिगी अपनी जान कहकर बुलाया। मैं अहसानमंद थी की उन्होंने मेरी बात का यकीन किया और घर में कुछ महीने शान्ति के गुज़रे। फिर एक शाम दोस्तों के साथ पीने पिलाने में, किसी दोस्त ने छेड़ दिया की अब्दुल रशीद को, अपनी बीवी और उसके एक रात के शौहर के साथ एक ही घर में रहने से डर नहीं लगता? कौन जाने पीठ पीछे दोनों हम बिस्तर होते हों? अब्दुल रशीद यह कैसे बर्दाश्त कर लेते. ग़ुस्से में कह दिया "मेरी बीवी सिर्फ मेरी है समझे; वो निकाह तो एक धोखा था, मेरी बीवी को तो मेरी भाई ने छुआ तक नहीं। "बस डींग मार आये। ऐसा दावा, वो भी शराब के ठेके पर किया जाए भला चरों तरफ कैसे न फैलता? और कसबे भर में फ़ैल कर मौलवी साहब के कान तक कैसे न पहुँचता? और पूरी बात जानकर भला यह कैसे हो सकता था की वो सच्चे दींन के मुहाफ़िज़ होकर ऐसे कदम न उठाते जिनसे साबित होता की वह पैरों तले घाँस उगने नहीं देते?


अब्दुल रशीद से मेरा निकाह नाजायज़ करार दे दिया गया। मेरे लिए शुरू हुए फिर वही इद्दत के तीन माह दस दिन और साथ ही खोज मची एक ऐसे आदमी की जो मुझसे निकाह करके तलाक दे दे ताकि मैं अपने पहले शौहर से शादी कर सकूं। ज़ाहिर है इस बार तो मेरा देवर नहीं हो सकता था क्यूंकि उसपर ऐतबार करना नामुमकिन था; ब्याहता बीवी को जो अछूता छोड़ दे वह भला मर्द कहलाने के काबिल है ?

एक और आदमी तलाश किया गया और उससे मेरा निकाह कर दिया गया। अगले दिन उस आदमी ने मुझे तलाक देने से साफ़ इंकार कर दिया. चौदह महीने मैं उसकी बीवी रही। मैं तो सदा के लिए उसी की हो रहती लेकिन अब्दुल रशीद ने इन बदले हुए हालात से समझौता करने से साफ़ इंकार कर दिया। वह मुझे बाजार में देख लेते, सब्ज़ी खरीदते, बच्चों को स्कूल छोड़ते, बुर्का पहचान लेते और फूट फूट कर रोने लगते जैसे कोई बच्चा मचलकर बेकाबू हो जाये; सड़क पर लोट जाते , ज़मीन पर सर मारने लगते "हाय सकीना, कैसे तेरे बिना ज़िंदा रहूँ? ओ मेरी जिंदिगी मेरे पास वापस आ जा '


आखिर मैंने ही अपने शौहर को समझा बूझकर राज़ी किया की वो मुझे तलाक दे दे। छोटे से कस्बाई शहर का मैं एक तमाशा बन गई थी। लोग एक दुसरे को खबर कर देते की मनोरंजन शुरू हो गया है और भीड़ जमा हो जाती। लोग हँसते,फब्तियां कस्ते और अब्दुल रशीद को 'मजनू 'कहकर पुकारते। मेरे वजूद को हर तरफ से नोचा खसोटा जा रहा था और मैं टुकड़े टुकड़े होकर बिखर रही थी। खैर समझाबुझाकर जब तलाक हो गया तो एक सौ दस दिन की गिनती शुरू हुई , जब उस आदमी से शादी होगी जो मुझ से प्यार का दावा तो करता था लेकिन जो किसी भी तरह खुद को 'तलाक तलाक'कहने से रोक नहीं पाता था. निकाह होता, कुछ दिन ख़ुशी के बीतते और फिर वही पुराने ढर्रे की जिंदिगी शुरू हो जाती। ऐसा लगता जैसे उन्हें तलाक देने की लत पड़ गई है। पलक झपकते, बगैर किसी कारण के , कभी नशे में, कभी पूरी तरह होश में तलाक दे डालते। फिर एक और आदमी खोझते, शादी की सारी तैयारी खुद करते, उस आदमी को भी नकद रुपये देते; एक बार तो खुद मौलवी साहब ने मुझसे निकाह करके, छह रात मुझे रौंदा। मैं अक्सर इद्दत के दिनों की गिनती भूल जाती , मगर अब्दुल रशीद ठीक एक सौ ग्यारवें दिन मुझसे निकाह करने मौजूद रहते।

"तुमने कभी 'खुला'की कोशिश नहीं की , कभी खुद नहीं चाहा की तुम तलाक यानि 'खुला'ले लो और नए सिरे से जिंदिगी शुरी करो?' 

"की न बाजी। पिछले तीन साल से कोशिश कर रही हूँ। मौलवी साहब कहते हैं की इतने प्यार करने वाले शौहर से मेरा तलाक चाहना बहुत बढ़ा गुनाह है। और बाजी क्या आप नहीं जानती, की खुला चाहना और मंज़ूर हो जाने के बाद भीम, तलाक कहना तो मर्द को ही पड़ता है। औरत जितना भी तलाक क्यों न चाहे, अंत में शौहर ही इन लव्जों को कहता है और उसे छटकारा देता है। अब्दुल रशीद भी साफ़ इंकार करते हैं. मेरी मर्ज़ी से मुझे तलाक नहीं देंगे, अपनी मर्ज़ी से जितनी बार घर से बेघर कर दे। इस तरह से बाजी मेरी जिंदिगी के सलाह साल निकाह, तलाक , इद्दत और हलाला के बीच चक्कर घिन्नी बने हुए बीत गए। अरे बाजी ! क्या आपकी आँखों में आंसू हैं? ठीक ही है की मेरे हाल पर अब ग़ैर रोएं। मेरे अपने आंसू तो कब के सूख गए।
ज़किया क्या कहती , कैसे बताती की ये आंसू सिर्फ एक सकीना के लिए नहीं थे; ये उन अनगिनत औरतों के लिए थे जिनके सिरों पर तीन बार कहे तलाक की तलवार हमेशा लटकी रहती है, जो परेशान होकर अगर खुद इस जीवन से छुटकारा पाना चाहे तो उनको हज़ारों कारण बताने होंगे। अगर वह कारण उलेमा मान भी ले तो भी तलाक उसे पति ही देगा और इसके लिए अक्सर औरत को अपने बच्च्चों से मिलने के हक़ को गवाना होता है, पति को पैसे, मिलकियत देकर 'तलाक'कहने के लिए मनाना होता है, मैहर तो खैर कभी मिलती ही नहीं और निर्वाह राशि का तो सवाल ही नहीं पैदा होता।

ज़किया ने सर को एक झटका दिया ; रोने से भला क्या हासिल होगा ; यह वक़्त संघर्ष का है और सभी मुद्दों पर खुल के बात करने का है। उसने फाइल खोल कागज़ निकाला और सकीना की तरफ बढ़ाते हुए बोली 'इसे पढ़ना , समझ में आये तो दस्तखत करना। ये अपील है की हमें बराबरी के सब हक़ चाहिए जो संविधान हमें देने का वादा करता है। लड़ाई लम्बी भी है और मुश्किल भी लेकिन इस मोर्चे पर उतरना तो पड़ेगा।'

ज़किया बाहर की तरफ चल दी थी जब उसने फिर सकीना की आवाज़ में 'बाजी 'सुनाई दिया। 

सकीना पास आ गई थी, पर्चे को हिलाते हुए बोली, 'इसकी हम फोटोकापी करवा ले, दूसरी औरतों से भी बात करेंगे ; और दस्तखत जमा करेंगे। अरे सुनो सब --- "

सकीना तेज़ी से चलती हुई , कुछ औरतों के साथ बाजार की तरफ बढ़ रही थी। ज़किया को बहुत धुंधली सी एक राह दिखाई दे रही थी, मंज़िल का कहीं पता न था। कोई बात नहीं रास्ता अगर खुद बनाना है तो मंज़िल भी खुद ढूंढ ही लेंगे.
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प्रगतिशील  लेखक संघ और इप्टा से जुड़ीं नूर ज़हीर हमारे समय की महत्त्वपूर्ण रंगकर्मी और कहानीकार हैं.

संपर्क : noorzaheer4@gmail.com.

प्रदीप कुमार सिंह की कविताएं

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प्रदीप कुमार सिंह के पास काव्य परम्परा का ज्ञान है इसलिए वे बरते गए विषयों और कथ्य को मौजूद परिस्थितियों के मुताबिक पुनर्नवा करते हैं और यही उनका कौशल है कि सटीक व्यंजना के लिए उन्हें अति विस्तार में नहीं जाना पड़ता। वे चुने हुए शब्द और सधे वाक्य लिखते है सरल और सपाट जैसे की सामने का जीवन-सत्य का साक्षात करवा रहे हों। इसी जीवन-सत्य का सीधा प्रसारण उनकी कविता का वैशिष्ट्य है।

प्रदीप का कवि गाँव, शहर, महानगर, देश और विश्व पर हो रहे आघातों-प्रत्याघातों और कारनामों पर नज़र बनाये हुए है और उनके परिणामों को भी अत्यंत संवेदी नज़रिये से प्रस्तुत कर रहा है। युद्ध की वास्तविक परिणति, स्त्री सरीखी नदियों का दुःख, सपने देखने की मनुष्योचित प्रवृत्ति का अपराध बन जाना, बुज़ुर्गों की अर्थहीन होते जाने की विडम्बना और किसानों की आत्महत्या -यह सब मिलकर कवि को उत्तरदायी चेतना से लैस करते हैं और वह इन्हें अपनी कविता में प्रतिरोधी काव्यात्मकता से अभिव्यक्त करता है।

प्रदीप कुमार सिंह की काव्यात्मक सम्भावना सराहने योग्य है।
  • कुमार अनुपम


कुमार अनुपम की पेंटिंग : एजेज़ 
युद्ध

युद्ध से नहीं बचायी जा सकती है दुनिया
युद्ध से बचाया जा सकता है हथियार
युद्ध से बचाया जा सकता है अधर्म
युद्ध से बचाया जा सकता है अन्धापन
युद्ध से से बचाया जा सकता है असत्य
युद्ध से बचायी जा सकती है नफरत
युद्ध से बचायी जा सकती है  बर्बरता
युद्ध से बचाया जा सकता है केवल युद्ध।

          जुर्म

उसने देखा था पछिलहरा एक सपना
सपने में देखा था
हँसते हुए बच्चों को 
खिलखिलाती हुई औरतों को
गाते हुए मजदूरों को
झूमते किसानों को 
उसकी हत्या कर दी गई अलसुबह
सपने देखने के जुर्म में।

          गाँठ

सदियों से गठियायी हुई औरतें
अब खोल रही हैं 
एक-एक गांठ
खुलती हुई एक-एक गांठ के साथ
उघार हो रहे हैं सभ्य
उघड रही है सभ्यता

      वर्णमाला

परिवार की वर्णमाला में 
घर के बूढ़े 
अः
ण होते हैं 
जिनके माने कुछ नहीं होते हैं।

   भागी हुई लडकियाँ

ब्याह दी गईं लड़कियों को
भूल जाते हैं 
उनके खुद के माँ बाप भी
पर भागी हुई लडकियाँ 
याद रहती है पूरे जवार को 
व्याह  दी गयी लडकियाँ 
मर खप जाती हैं एक दिन
पर भागी हुई लडकियाँ 
जिंदा रहती हैं 
पीढ़ी दर पीढ़ी।

       बाजार

लड़की साबुन और तेल बेच रही है
लडकी टी वी और फ्रिज बेच रही है
लडकी टायर और ट्यूब बेंच रही है
लडकी नींद और सपने बेंच रही है
लडकी कॉन्डोम और वियाग्रा बेंच रही है
बाजार लड़की की मुस्कान और देह बेच रहा है
बाजार लड़की बेच रहा है ।

    दुख

नदियाँ समुद्र से मिलने नहीं
वरन दूसरी नदियों को सुनाने जाती हैं
अपना दुख 
पुरुष कहाँ सुनते हैं 
स्त्रियों के दुख

         सड़क

बहुत पहले शहर से 
काली नागिन की तरह 
एक सड़क आयी थी
हमारे गांव तक
घुस गयी थी
हमारे खेत-खलिहान  में
तभी से हमारा गाँव 
नीला पड़ गया है।

    सभ्य तरीका

हम किसी को भूखों नहीं मरने देंगे
हम उन्हें भूखों हँसायेंगे 
वो भूखा पेट पकड़कर हँसेंगे 
हम उन्हें और गुदगुदायेगें 
वो और जोर-जोर से हँसेंगे
वो हँसते हँसते मर जायेंगे 
किसी को भूखों मारना असभ्य तरीका है
हम उन्हें सभ्य तरीके से मारेंगे।

           ताकधिन 

जब खत्म हो गई 
मुट्ठी भर चाउर अउर पीसान की 
आखिरी उम्मीद भी 
मर गया वह एक दिन 
ताकधिन ताकधिन
जब न बचा सका वह 
बिस्सा भर जमीन अउर बिगहा भर जमीन 
मर गया एक दिन
बूढ़ा किसान था 
मरना था ही एक न एक दिन
मर गया एक दिन 
ताकधिन ताकधिन 
आप क्यों दुखी और परेशान हैं 
आप नारें लगायें 
जय जवान जय किसान 
रात- दिन रात-दिन 
ताकधिन ताकधिन ।
---------------------------------------- 

प्रदीप कुमार सिंह 

जन्म:1 जुलाई 1982
शिक्षा: एम ए, डीफिल (हिन्दी) इलाहाबाद विश्वविद्यालय
संप्रति: राजकीय महाविद्यालय कप्तानगंज बस्ती में प्रवक्ता(हिन्दी)पद पर कार्यरत।
प्रकाशन : एक कविता संग्रह 'अभिधा है स्त्री'कथा प्रकाशन इलाहाबाद से प्रकाशित।परिकथा ,वाक्,संवदिया आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
संपर्क : ग्राम +पोस्ट- कोटखास
जिला-गोण्डा (उत्तरप्रदेश)

सेंसरशिप - ईरानी कवि अली-अब्दोलरेज़ा की कविता

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अमीन की पेंटिंग "अ टेल ऑफ़ टू मुस्लिम्स"गूगल से 


मेरे अलफ़ाज़ के क़त्ल-ए-आम के दौरान
उन्होंने मेरी आख़िरी पंक्ति का सर क़लम कर दिया
और लहू    सियाही की मानिंद   पड़ रहा है काग़ज़ पर
यहाँ मौत पसरी हुई है काग़ज़ पर
और ज़िन्दगी   पत्थरों से बिखेर दी गई है   अधखुली सी खिड़की की तरह
एक नई बन्दूक ने निपटा दिया है दुनिया को
और मैं  इस गलियारे के दरवाज़े से  आयातित सामानों सा
                  इस जीर्ण-शीर्ण कमरे में हूँ प्रवासी की तरह  

मैं क़लम की तरह हूँ ज़िन्दगी में माँ जैसे जर्जर काग़ज़ पर खिंची रेखाओं सा
बिल्ली के पंजे अब भी मचलते हैं
उन बिलों की ओर भागते चूहे को डराने के लिए
जिन्हें भर दिया है उन्होंने.


स्कूल में पढ़े पाठों की तलाश करते
मैं अपनी जिल के लिए अब नहीं रह गया आशिक जैक
मैं अपना नया होमवर्क कर रहा हूँ
तुम उसे काट देते हो और उस लड़की में
जो अचकचायेगी इस कविता के अंत में
एक घर बनाते हो
घाव की तरह खुले एक दरवाज़े वाला
और इस घर से बेदख़ल कमरे की तरह
मौत के किनारों के बीच  ख़ुशी ख़ुशी रहती है
एक लड़की  जो मुझे अपना बनाना चाहती थी
अपनी आवाज़ों में फेंकेगी निवाले  मुझे चिढाने के लिए
अपनी देह की मस्ज़िद से
कि मेरी आँखें घूमती रहें चकरी की तरह  मुझे फिर से एक दरवेश बनाने के लिए
कैसे ये आँखें
ये ख़ाली कोटर
दो लोगों की देह के उत्सव के बीच हैं हज़ारो-हाथ
            कैसी है यह मेरे होने की जगह जहाँ मैं और और ग़ैर होता जाता हूँ ईरान में
अब्बा     अम्मी    मेरे भाई!
मेरी हालत ज़ख़्मी होने कहीं ज़्यादा नाज़ुक है
लिखना मुझसे भी ज़्यादा बेजान है
और लन्दन    जहाँ उसकी ज़ुल्फें मौसम को रेखांकित करती हैं अब भी
किसी बहन की तरह कर रहा है इंतज़ार
कि आये मौत और पसर जाए मुझमें
कि ज़िन्दगी फिर से मार डाले मुझे

लहूलुहान है मेरा दिल उस शायर के लिए जिसके अलफ़ाज़ की क़तार होती जाती है लम्बी
उस गौरैया के लिए नहीं है जिसके पास कोई डाल और जिसने घोंट  ली है अपनी चहचहाहट
                         उस कौए की वापसी के लिए जिसके लिए नहीं बचा कोई तार
                        अपने लिए
            जा चुका जो घर से     बिज़ली की तरह
मैं एक ऐसा इंसान हूँ

            जिसने की यह मूर्खता   कवि बनने की

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अबोल फ्रोशां के अंग्रेज़ी अनुवादसे 
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