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मनोरमा की कविताएँ

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मनोरमा की ये कविताएँ काफ़ी पहले मुझे मिली थीं. फिर अपना आलस्य, लापरवाही. तो क्षमायाचना के साथ आज पोस्ट कर रहा हूँ.



इन कविताओं के शीर्षक नहीं हैं. मैंने अपनी ओर कोई शीर्षक देना उचित भी नहीं समझा. इन्हें पढ़ते हुए आप उस चिंतन प्रक्रिया से गुज़रते हैं जिनसे ये कविताएँ निसृत हुई हैं. इनमें जीवन की बहुत मामूली लगने वाली चीज़ें हैं लेकिन उनका बहुत महीन आबजर्वेशन है.  प्रेम उनका मुहाविरा है और इसी मुहाविरे के इर्द गिर्द एक स्त्री के जीवन की विडंबनायें हैं, स्मृतियाँ और खुशियां. असुविधा पर उनका स्वागत.

(1)


ईश्वर कितना होता है कितना नहीं होता 
पर क्यों अच्छा लगता है,

घर में इबादत की एक जगह होना
बातें पूरी हो तब भी, बातें नहीं हों तब भी
रहनी चाहिए हाशिये की जगहें भी 

अपने लिए सटीक शब्द अक्सर पास नहीं होते 
इसलिए लिखते -लिखने छोड़ देना चाहिए, कुछ जगहें खाली 
नींद ,ख्वाब और हक़ीक़त एक सीधी रेखा में रहते हैं 
छूट जाती हैं नींदे, ख्वाबों को पाने में 

चलना, चलते रहना और कहीं नहीं पहुंचना शायद मंजिलों से ज्यादा सकून होता है
 पहचानी बस्तियों में लौट जाने में 
कुछ चीज़ें हममें, हमें बताये बिना हो जाती है इतनी बड़ी 
कि छोटा होने लगता है वक़्त 
आधी सदी इधर आधी सदी उधर 
बीच में तुम्हारा -मेरा प्रेम पेंडुलम सा कोई  
संतुलन बनाता मुख्तसर सा बेहिसाब लम्हा कोई !


(2)

जो पा लिया वो झूठ है 
जो अब तक नहीं दिया वो प्रेम है 
जो छू लिया वो हवा है 
जो रह गया अनछुआ वो रूह है 
जिसमें रखा तुमने वो दीवारें हैं
जहां मैं रहती हूँ वो घर हैं 
जो कहते हो तुम वो शब्द है 
जो सुनना होता है वो अर्थ है 

छुटपन में सोचती थी 
कैसी होती हैं औरतें  
अब जानती हूँ क्या होती हैं वो 
समंदर अपनी कोख में दबाए 
बारिशों की दुआएं करती हैं वे!

(3)


उम्र बढ़ती है याददाश्त कम होती हैं
पर स्मृतियाँ सघन होती हैं 
भूलती हूँ अब पानी आग पर रखकर  
रख देती हूँ हेयर पिन यहाँ -वहाँ 
पुरानी तस्वीरों के कुछ चेहरों 
के नाम भी धुंधले से हो चले हैं
अक्सर अब चाभियां वक़्त पर 
नहीं मिल पाती,
इतना सब याद न आना 
कोई अच्छी बात तो नहीं 
पर नहीं होता वैसा तनाव 
जैसा हुआ करता था
किसी जवाब का पांचवा पॉइंट
याद न आने पर 

पर अज़ीब तो ये है 
तमाम कोशिशों के बावज़ूद 
वही रह जाता है याद 
सच में जो भूल जाना ही चाहिए 
यहाँ -वहाँ कहीं रख भी दूं तो 
मिल ही जाता है रोज़
सिरहाने तले !

(4)


कोई नाम बजता है
संगीत की तरह 
गुनगुनाया जाता है 
गीत की तरह 
छिपा दिया जाता है 
तकिये के नीचे रखे 
मनपसंद किताब के पन्नों में
और सजता है आत्मा पर सबसे कीमती ज़ेवर की तरह 

पर , यह अज़ीब बात है ना 
तमाम उम्र जिसे कहने सुनने की
भूख सबसे ज्यादा होती है 
नहीं आता ज़बान पर 
रहता है अक्सर वही नाम बेनाम !


(5)

कोई मौसम होता है खुद को खो देने का पर कशमकश रोज़ की होती है खुद को पाने की 

संभलती हूँ मैं, पर आईना धुंधला होता है 
यहाँ -वहाँ टोटल कर 
करती हूँ कोशिश खुद को ढूंढने की 
तुम्हारी बातों में
पर मेरी बातें , तुम्हारी बातें 
अब एक सी नहीं होती !

पिछले मौसम से बचे रहे जो 
झड़ने लगे हैं पेड़ों से पत्तें वो 
होने लगी हैं फिर दोपहर में सड़कें खाली
और हवाएं उड़ाने लगी है 
चेहरे से नमी 
मौसम भी लकीर खींचते हैं 
शायद खुशियों की उदासी की 
करते रहते हैं एक को एक से 
छोटी या बड़ी!


(6)

कहते कहते रुक जाता हूँ 
बातों से कोई लकीर सा खींचता हूँ  
तुम्हारे लिए और अपने लिए 

जानता हूँ तुम्हें आदत है 
मेरी बात मान लेने की 
जबकि चाहता हूँ बाहर निकल आओ तुम लकीरों से 
क्या ये पता होता है तुम्हे ?

कुछ बंधता हूँ ,कुछ बांधता हूँ 
पर इस तरह बोझ बढ़ता सा लगता है 
बात करता हूँ खाली होता हूँ 
ज़ज्ब करता हूँ घुट जाता हूँ 
बस इतना करता हूँ 
जागती आँखों को बंद कर  
अपने सोते सपनों को जगाता हूँ 
खुली आंखों में अधूरा सा मैं /ख्वाबों में पूरा होता हूँ !

मृत्युंजय प्रभाकर की कविताएँ

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मृत्युंजय प्रभाकर मूलतः रंगमंच के सक्रिय और प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं लेकिन उनका मन कविताओं में भी ख़ूब रमता है. उनका एक कविता संकलन साहित्य अकादमी से प्रकाशित हो चुका है. इसके पहले भी आप असुविधा पर उन्हें पढ़ चुके हैं. इस बार उन्होंने कुछ छोटी कविताएँ भेजी हैं जिनमें ज़िन्दगी के कुछ फलसफाना अनुभव हैं, कुछ राजनीतिक हकीक़तें हैं.





मसला

मसला तो यूँ कुछ भी न था
 
पर कुछ ज़िन्दगी की कसक
 
और कुछ बजबजाती हकीक़तों ने इसे
 
अच्छा-खासा मसाला बना दिया!


अज्ञात

पता नहीं वे कौन सी ताकतें हैं 
जो जीवन को रेगिस्तान में बदल देना चाहती हैं
 
जबकि आदमी घिसटता है
 
लहूलुहान टखनों के साथ
 
एक पोर दूब और दो बूँद पानी के लिए!

सच
अजीब विडम्बना है 
अपनी आहत भावना लेकर
यहाँ हर कोई आखेट पर निकला है!


ज़िन्दगी

जब तक रहूँगा, परेशान करेगी
कदम-कदम पे, जीना हराम करेगी
रोते-हँसते सुबह से शाम करेगी
 
ऐ ज़िन्दगी बता, तू बला क्या है
 
हिंदी

हिंदी का खाता हूँ
हिंदी का पीता हूँ
 
हिंदी में पढ़ता हूँ
हिंदी में लिखता हूँ
हिंदी ही सोता हूँ
हिंदी ही ओढ़ता हूँ
हिंदी में गाता हूँ
हिंदी में रोता हूँ
हिंदी में जीता हूँ
हिंदी में कुढ़ता हूँ।


समय रे समय!
(ह्यूगो चावेज़ को समर्पित)

 समय की खूंटी पर
नंगी लाश टंगी है
खून पसरा है फर्श पर
दीवालों पर छीटें बिखरे हैं
जलते लोथड़े फैले हैं इधर-उधर
जबकि टेबल पर बोतल खुली है 
 
और पलंग पर जांघें
कहते हैं यहाँ सभ्यता बसती है।


बदलाव
(ह्यूगो चावेज़ को समर्पित)

या तो तुम सुनते नहीं
या बात समझ में आती नहीं
कब तक पिसते रहोगे
इस व्यवस्था रूपी दुष्चक्र में
फ़ौरन से पेश्तर इसे बदल डालो



लोकतंत्र


मेरे हाथ में होता
 
तो इस लोकतंत्र पर
कालिख पोत देता
जिसका ईमान दोगला है


त्रासदी

 अजीब अहमक हूँ
 
लोगों से भागता फिरता हूँ
 
और अकेलेपन को कोसता हूँ।


कबूतर

मेरी खिड़की के बाहर
एक जोड़ा कबूतर
देखता हूँ इन्हें
अपने होने की तरह



अस्मुरारी नंदन मिश्र की कविताएँ

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अस्मुरारी नंदन मिश्र उड़ीसा के एक केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ाते हैं, खूब पढ़ते हैं और लिखते भी हैं. उनकी कविताएँ एक बेचैन युवा की कविताएँ हैं. तमाम सामाजिक-राजनीतिक विडम्बनाओं और ग़म-ए-दौरां-ग़म-ए-जानां के बीच के द्वंद्व की सहज, ईमानदार और संवेदनशील उपज.  बादल-बसंत और स्वप्न पर धावा बोलती भीड़ के बीच प्यार करने की हिम्मत जुटाती लड़कियों की तरह ही वह बाज़ार और धर्म के चौतरफे हमले के बीच सच को अपने तरीके से कह पाने का साहस जुटाते हैं. असुविधा पर उनका स्वागत 



लड़कियां प्यार कर रही हैं

खिडकियों में लगाई जा रही हैं
मजबूत जालियाँ
परदे को किया जा रहा है
चाक-चौबंद


दरवाजे को दी जा रही है सीख
किस दबाव से खुलना है किससे नहीं
गढ़ी जा रही हैं घर की परिभाषाएं
बतलाया जा रहा है दहलीज का अर्थ
ढोल पर गायी जा रही हैं तहजीबें
बड़े-बड़े धर्मज्ञानी लेकर बैठ चुके हैं धर्म की किताबें पंडित - मुल्ला सभी हो गए हैं एक मत सख्त की जा रही है फतवों की भाषा
कवि गा रहें हैं लाज लिपटे सौन्दर्य के गीत
शान चढ़ तेज हो रही हैं
नजरों की तलवारें


पूरी भीड़ धावा बोल चुकी है- बसंतबादलस्वप्न पर
पार्कों में पहरे दे रहे हैं मुस्तैद जवान
गुलाब की खुशबू घोषित हो चुकी है जहरीली
चौराहों पर जमा हो रहे हैं ईंट-पत्थर
शीशियों में भरी जा चुकी हैं उबलती तेजाब
चमकाई जा रही है पिताओं की पगड़ी
रंगी जा रही है भाइयों की मूछें जिम्मेदारों की एक पूरी मंडली कर रही है संजीदा बहसें


खचाखच भरी खाप पंचायत में
सुनाई जा रही है
सभ्यता के सबसे जघन्य अपराध की सजा
और इन सब के बावजूद
लड़कियां प्यार कर रही हैं...




हमारी बेटियां बनाम तुम्हारी बेटियां

फूलें-फलें
सलामत रहें
जुग- जुग जियें तुम्हारी बेटियां
लेकिन तुम्हारी बेटियों का जिक्र कहीं से भी कोई मरहम नहीं है
मेरी बेटियों के दुखों का ओ अनजान टापू के निवासी!!
मत करो इस्तेमाल अपनी बेटियों के नाम भावनात्मक छल के लिए
सच- सच बताना
जब भी तुमने अपनी बेटियों को मेरी बेटियों के बरक्स खड़ा किया
कितनी चिंता हुई तुम्हे
भावुक बयान देते हुए जब एक पल के लिए भी अपनी बेटियों की तस्वीर उभरी होगी तुम्हारे सख्त जेहन में तुम आश्वस्त हो रहे होगे
मन ही मन जायजा लिया होगा मुकम्मल सुरक्षा- व्यवस्था का
फिर हमारी बेटियों पर लौटे होगे
और तुम्हारे उसी जेहन में तैर गए होंगे चमकते वोट
क्या हमारी बेटियों के साथ तुम्हे जंगल दिखे वे  सड़कें  दिखीं जहाँ  मर्दानगी  के झंडे  लहराते  फिरते  हैं
अपने -अपने  लिंगो पर कुछ  नपुंसक  छुट्टे  सांड
गोलियों के छर्रे
पत्थर के टुकड़े
सरिया खून
कुछ भी दिखा  तुम्हे?तुम किसी  अनछुए  लोक  के निवासी  हो
हमारे  अंधड़  -पानी  --आग तुम तक नहीं पहुँचते तुम ने  जब आँखें  बंद  की
तो सावन था
खोली तो वसंत
ठिठुरता माघजलता जेठ तुम क्या जानो
 
हमारी आवाजों की गूंज पत्थरों से टकराकर
पहुंचती है तुम तक और चौंक चौकं जाते हो तुम खलल है तुम्हारी एकांत साधना में लेकिन मैं क्या करूँ कि मेरे पास एक ही हथियार है
इन आवाजों के प्रभाव को कम करने जब तुम खुले में आये
तब भी तुम्हारे पास था एक सुरक्षित घेरा
तुमने देखा भी नहीं
जंगल क्या उगा रहे हैं सड़कें क्या ढो रही हैं तुम्हारे पास कोई शब्द नहीं था
मेरी आवाज के मुक़ाबिल
और रख दिए अपनी बेटियों के नाम दूसरे पलड़े में तुमने
कि हम तुम्हारे पितृत्व के कायल हो जाएँ
किन्तु
तुम्हारी बेटियों के रास्ते में कंकड़ तक नहीं
हाथों में सुई तक नहीं चुभी
कमीज में बटन लगाते
गोलियां तो उनकी हिफाजत के लिए हैं
और हमारी बेटियां
पत्थरसरिया छर्रे
झेलती रही अपनी योनियों में
न..न..
मेरे दर्द को झूठे मरहमों से दबाने वाले
अनजान सफ़र के यात्री!!
मैं तुम्हारी बेटियों का बुरा नहीं चाहता
जुग- जुग जियें तुम्हारी बेटियां
टूटे तने के साथ खड़े पेड़ आँधियों का आह्वान नहीं करते
एक एक कोपल
एक एक कली
सलामत रहे
आँगन में खुशियाँ बरसे
सपने उड़ान भरे उन्मुक्त आकाश में पूरे ग्लोब को सहला सकें तुम्हारी बेटियां
लेकिन जब भी थोड़ी धूप थोड़ी नमी के लिए
आकाश के एक टुकडे ,इन्द्रधनुष के रंग के लिए
बादल बरसात वसंत के लिए
जमीन हरियाली. अपने घर के लिए
मचलें हमारी बेटियां तो मत खड़ी करो अपनी बेटियां इनके बनाम
तुम्हारी बेटियों के नाम
मेरी बेटियों के घाव का मरहम नहीं है....


गूँगा


1.
बेल्ट की सटसट
कहीं तेज थी
उसकी कई मिली जुली आवाजों से
गुंगिआया
सिसका
और चुप हो लिया
उसके गूँगे पन को पूरी सार्थकता देता
पसरा था
बस्ती का शालीन बहरापन..

2
उसके पास आवाज है
व्याकरण नहीं है
अर्थ है समूल
बरतने का आचरण नहीं है 
हर जगह जीता अपनी ही भाषा में
तानाशाह समय में
यही तो मरण है..

3.
समझ की पहुँच से
काफी दूरी है 
उसकी हर भंगिमा मानो आधी अधूरी है
फिर भी सहला रहे जो
बेमेल इशारों को
उनके लिए वह फकत सस्ती मजूरी है


4
खुद से ही तड़ीपार कोई देस है
आज अदालत में पेश है
भाषा तो है
पर आशा नहीं
इसलिए चुप है
अंधेरा घुप्प है...

5
सोना न चाँदी
मोती न मूँगा है
गूँगा है
गूँगा है



मैं क्या करूँ
वसन्त मुस्करा  रहा है
महाकवि की रचनाओं में
मेरे पास जले जंगल हैं
नायिका की त्रिवली उभार रही बरसात
रुपहले परदे पर
मेरे सामने तेजाबी बारिश में झुलसे चेहरे हैं
होगा कहीं शरद का चाँद
अपनी पूरी गोलाई और शीतलता के साथ
मैं कोहरे ढकी पृथ्वी को हाथ में लिए
अन्मयस्क हूँ
जिसके पहाड़ों  में टूटन है
मैदानों में दरारें
सूखी नदियाँ
पपड़ियाये खेत
समुंदर उद्वेलित बेदर्द मंथन से
हवा हलाहली

सुबह को क्या कहूँ
पियराता जा रहा एक परिचित लाल चेहरा
अखबार कुड़कुड़ा रहा यही खबर—
रात जागी रही रात भर
डर कर...
अपने ही सपनों से सहमे लोग
सुबह-सुबह निकल रहे सजधज कर
दफ्तर
कान दिये जाने के जरुरत से खफा
सरकारी आश्वासन पर
कि
उठाये जा रहे कदम आतंक विरोधी

दिन भर मची है होड़ तेज दिखने की
बीवी – बच्चों से प्यार
समय से ऑफिस
लगन से काम
निश्चिंतता से आराम
हँसी मजाक मुँह लगे दोस्तों के साथ
बहुत देर तक लहराते डोलते रहे हाथ
धौल धप्पे के बाद
एक झलक न आने पाये चेहरे पर
डरावने सपने की
यही है निर्देश
जिस दरवाजे पर जाओ
चाहे जिस से बात करो
मुस्कराते हुये
कस्टमर प्रोडक्ट नहीं मुस्कान भी खरीदता है....

और साँझ,
वही पियराया चेहरा
आ गया किसी धमाके की चपेट में
उड़ गये थके जिस्म के चिथड़े
बिखरे हैं आसमान के खुले चौराहे
लाल लाल थक्के खून के
पड़ते जा रहे काले
उमस से भारी होती प्रतिपल हवा
कि रुकती हुई साँसें
थमती धड़कन
जमती नब्ज
फिर सन्नाटा
सिर्फ सन्नाटा....


क्या करूँ
उमगते उपमान
बौराते  बिम्ब
नहीं मिल पा रहे मुझे
मैं क्या करूँ???
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अस्मुरारी नंदन मिश्र

संपर्क : केंद्रीय विद्यालय रायगड़ा
म्युनिसिपल कॉम्पलेक्स
रायगड़ा
ओडिशा
765001
मो.नं.-- 9692934211

मैं एक औरत हूँ और एक लेखक हूँ-

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(यह साक्षात्कार नया ज्ञानोदय में छपा है. अनुवाद ख़ाकसार ने किया है. अब यहाँ आनलाइन पाठकों के लिए)






जब उपन्यासकार और कहानीकार नादिन गार्दिमेर को साहित्य के लिए 1991 के नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था तो वह पिछले 25 सालों में पहली और अब तक कि केवल सातवीं महिला थीं जिन्हें यह सम्मान मिला था. उनका जन्म 1923 में जोहांसबर्ग के बाहरी इलाक़े के ईस्ट रेंड नामक खनिक क़स्बे के ट्रांसवाल के स्प्रिंग्स में एक प्रभावशाली परिवार में हुआ था.  इस माहौल ने 1953 में प्रकाशित उनके पहले उपन्यास के लिए भाव भूमि प्रदान की. अपनी माँ द्वारा, जो हमेशा सोचती थीं कि उनका दिल कमज़ोर है, अक्सर घर में ही रखे जाने वाली गार्दिमेर ने नौ साल की उम्र में लिखना शुरू कर दिया. उनकी पहली कहानी ‘कम अगेन टुमारो’ जोहांसबर्ग की पत्रिका फोरम के बच्चों के खंड में तब प्रकाशित जब वह केवल 15 साल की थीं. बीस से तीस के साल की उम्र के बीच उनकी कहानियाँ तमाम स्थानीय पत्रिकाओं में छप चुकी थीं. 1951 में न्यू यार्कर ने उनकी एक कहानी स्वीकार की और तबसे वह उन्हें लगातार प्रकाशित कर रहा है.
कम उम्र में ही गार्दिमेर ने दक्षिण अफ्रीका के अड़ियल रंगभेदी शासन में अल्पसंख्यक अश्वेतों के प्रति अन्याय और दमन पर सवाल उठाने शुरू कर दिए. जोहांसबर्ग आ जाने के बाद से गार्दिमेर रंगभेद के खिलाफ संघर्ष में लगातार मुब्तिला होतीं गयीं और अफ्रीकी नॅशनल कांग्रेस की मजबूत समर्थक बनी रहीं. वह दक्षिण अफ्रीकी लेखकों की कांग्रेस के संस्थापक सदस्य थीं और उनके लेखन का बड़ा हिस्सा नस्ली आधार पर बंटे उनके देश के नैतिक और मनोवैज्ञानिक तनावों की बात करता है. बाद के वर्षों में दक्षिण अफ्रीका में प्रतिबंधित होने के बावजूद नादिन गार्दिमेर ने कभी निर्वासन में जाने के बारे में नहीं सोचा और फेस टू फेस (1949), द लाइंग डेज़ (1953), अ स्पोर्ट आफ नेचर (1987), अ गेस्ट आफ आनर (1970), द कंजर्वेशनिस्ट (1974), बर्जर्स डाटर (1979) और द पिक अप (2001) जैसे मील के पत्थर उपन्यासों से रंगभेदी शासन के अंतर्गत जीवन को प्रदर्शित करती रहीं. उनके अन्य कामों में टेलीविजन डाक्यूमेंट्रीज शामिल हैं, जिनमें से सबसे उल्लेखनीय अपने बेटे ह्यूगो कैसिरेर के साथ टेलीविजन फिल्म चूजिंग जस्टिस : एलेन बोसेक है.
1948 से गार्दिमेर जोहान्सबर्ग में रह रही हैं और साठ तथा सत्तर के दशक में उन्होंने अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया है. नोबेल सम्मान के अलावा उन्हें मिले अन्य सम्मानों में  फ्रांस सरकार द्वारा दिया गया कमान्देर दे आर्दे दे आर्ट्स एट दे लेटर्स और येल, हारवर्ड और कोलंबिया सहित दर्ज़न भर अन्य विश्वविद्यालयों से मिली मानद डिग्रियाँ शामिल हैं.
नार्दिन गार्दिमेर ने अपने लेखन और जीवन में प्रभावी सामजिक चेतना को गहन साहित्यिक मेधा से जोड़ा है.
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एक स्त्री होने और एक लेखक होने को लेकर आप कितनी आत्मविश्वास से भरी और कितनी सतर्क हैं?

नार्दिन गार्दिमेर : मैं वास्तव में यह नहीं कह सकती कि इस बात को लेकर मैंने परेशानी उठाई है कि मैं एक औरत हूँ और एक लेखक हूँ, और मैं इस चीज़ के लिए आपकी तारीफ़ करती हूँ कि आपने “महिला लेखक” नहीं कहा. यह कोई नहीं कहता कि “पुरुष लेखक” लेकिन लोग अक्सर यह कहते हैं कि “महिला लेखक” जो मुझे ऐसा लगता है जैसे एक ख़ास तरह का लेखन हो. वास्तव में गंभीर लेखक अंतरजात मनुष्य होते हैं ; जो किसी वजह से स्त्री या पुरुष के रूप में होते हैं, वे असल में दोनों ही हैं.

अपने लेखन में आप रंगभेद को व्यापक सामाजिक, मानवीय परिस्थितियों की चेतना में उसको रेखांकित कर भीतर से पर्दाफ़ाश करती हैं. एक उत्प्रेरक के रूप में रंगभेद आपके लेखन के लिए कितना महत्त्वपूर्ण था?

नार्दिन गार्दिमेर : मुझे लगता है सभी लेखक अपने सामाजिक ढांचों से गहरे प्रभावित होते हैं. यदि यह संघर्ष में उलझा समाज हो तो यह निश्चित तौर पर निजी जीवन पर बहुत करीब से प्रभाव डालता है जिससे लेखक दोनों चीजों को देखता है – क्या भीतर हो रहा है और बाहर से पड़ने वाले दबाव को भी. इसलिए मैं कहूँगी रंगभेद का बहुत मज़बूत असर था लेकिन मैंने इसे अपनी कहानी पर प्रभाव डालने की अनुमति कभी नहीं दी. मैंने अपनी कल्पना की आज़ादी हमेशा बरक़रार रखी क्योंकि चाहे जितने भी आवेग से जुड़े हों आप लेकिन अपने उद्देश्य के लिए अपनी भावनाओं को खुद को मत प्रचारक बना देने की अनुमति दे देना घातक होगा. राजनीतिक प्रचार का हर तरह की राजनीतिक निर्मिति में, खासतौर से बड़े संघर्षों वाले, एक स्थान है, लेकिन  अन्य लोग हैं जिनका काम राजनीतिक प्रचार सामग्री लिखना है. मेरे जैसे कल्पनाशील लेखक के लिए ऐसा करना बिल्कुल ग़लत है, क्योंकि तब आप सत्य का बोध खो देते हैं. वे लोग जो राजनीतिक रूप से आपके समानधर्मी हैं, देवता बन जाते हैं और दूसरे शैतान. और लिखने का कुल उद्देश्य किसी सच की तलाश है, और मनुष्य जो कि अस्थिर होता है उसके बेहद अव्यवस्थित उद्देश्य होते हैं.

आपकी किताबें 1958 से 1991 तक प्रतिबंधित रहीं. क्या यह प्रतिरोध की और इस तरह प्रचारक न बनने की एक सचेत प्रक्रिया थी?

नार्दिन गार्दिमेर : मुझे लगता है मेरे साथ यह स्वाभाविक रूप से हुआ क्योंकि मैंने बेहद कम उम्र से लिखना शुरू किया जब मैं यह भी नहीं जानती थी कि राजनीति क्या है. मैं तब एक खनिक क़स्बे के उस संकरे, श्वेत परिवेश में रह रही थी जहां आप अपने शिष्टाचार और नैतिकताएं अपने बड़ों और अपने माँ-बाप से सीखते हैं. मैं तब अपनी किशोरावस्था में थी जब मैंने खुद से यह पूछना शुरू किया – ऐसा क्यों है कि स्कूल में सारे लोग श्वेत हैं? ऐसा क्यों है कि जब मैं शनिवार की शाम फिल्म देखने जाती हूँ  तो वहाँ कोई अश्वेत बच्चा नहीं होता? शुरू शुरू में आप इसे स्वाभाविक मान कर स्वीकार कर लेते हैं, जैसे कि यह कोई ऎसी चीज़ हो जिसे बड़ों ने निर्धारित किया है और इसलिए यह अच्छी ही होगी. धीरे धीरे मैं खुद से सवाल करने लगी, किसी राजनीतिक सिद्धांत की वज़ह से नहीं, बल्कि जो मैं अपने चारों ओर देख रही थी उस वज़ह से. मैंने देखना शुरू किया कि अश्वेत लोगों के साथ वास्तव में क्या हो रहा है, खासतौर से प्रवासी खान मज़दूरों के साथ जो हमारे इर्द गिर्द रहते थे.

आपकी पहली कहानी तब छपी जब आप केवल 15 साल की थीं. इसलिए ज़ाहिर तौर पर यह बहुत आरंभिक संवेदनशीलता थी जो आपके चारों ओर के वातावरण की प्रतिक्रिया में थी. इस वातावरण ने आपके साथ कैसा व्यवहार किया जब आपने इस यथास्थिति पर सवाल उठाने शुरू किये?

नार्दिन गार्दिमेर : देखिये, यह एक अंदरूनी सवाल जवाब था. मेरे माता पिता खुद को अराजनीतिक समझते थे, हालांकि हम सब जानते हैं कि यह एक विशिष्ट राजनीतिक पक्षधरता है. मेरी माँ अश्वेत लोगों को लेकर व्याकुल होती थीं और परोपकार की गतिविधियों जैसे, अश्वेतों की बस्ती में दवाखाने या नर्सरी स्कूल खोलने में शामिल होती थीं. तो उनमें कुछ इस तरह की भावना थी कि कुछ ग़लत हो रहा है, लेकिन उन्होंने इसे इतनी गंभीरता से कभी नहीं लिया कि सरकार के ढाँचे पर कोई सवाल खड़ा करें. मुझे यह समझने में कुछ वक़्त लगा कि परोपकारी होने और लोगों के साथ मनुष्यों की तरह व्यवहार करना काफी नहीं था. आपको सबसे ऊपर बैठी सत्ता का विरोध करना पड़ेगा. आपको समूचा ढाँचा बदलना पड़ेगा, और मैं जैसे जैसे बड़ी होती गयी वह और बदतर होता गया. रंगभेद संस्थानीकृत हो गया, यथार्थवाद संस्थानीकृत हो गया.

रंगभेद को लेकर आपकी प्रतिक्रिया कब एक अधिक दृढ़ कार्यकर्ता की प्रतिक्रिया में बदल गयी?

नार्दिन गार्दिमेर : यह 1950 के दशक में हुआ जब मैं जोहांसबर्ग में थी, जो एक बड़ा शहर था. इसलिए मेरी स्वाभाविक प्रकृति, जो तमाम कलाकारों और लेखकों की तरह किसी एक निश्चित ग्रुप के विचारों से पूरी तरह मेल नहीं खाती थी, अपनी खोल से बाहर आई. वहां मैं ऐसे अफ्रीकियों और भारतीयों से मिली जिनके साथ उस खनिक क़स्बे के, जहाँ लोग गोल्फ खेलते थे और शनिवार रात के नृत्य की प्रतीक्षा करते थे, मेरे दोस्तों की तुलना में मेरे विचार अधिक मिलते थे. इस तरह का जीवन मुझे पसंद आया क्योंकि यहाँ मैं विचारों का वह आदान प्रदान कर सकती थी जो मैं उस छोटे से क़स्बे में मिस करती थी.
फिर साठ के दशक में जब राजनीतिक संघर्ष चारों तरफ फ़ैल गया अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस बेहद सक्रिय हो गयी, और हम गांधीवादी अहिंसक विरोध से आगे एक ऐसी संघर्ष की ओर बढे जो अधिक मज़बूत था. जिन लोगों को मैं जानती थी वे और अधिक राजनीतिक हो गए और मुश्किलात में फंस गए. फिर यह एक तरह से दोस्ती की परीक्षा बन गे, उनको छिपाना और वह बनना जो हम सब बने, झूठे. आपको उन लोगों से झूठ बोलना पड़ता था जो आपके दोस्तों के बारे में पूछताछ करते थे और इस तरह आप इसमें और उलझते जाते हैं. यह था जिससे मैं इसमें शामिल हुई. तब मैंने राजनीति और और अधिक सैद्धांतिक दृष्टिकोण से देखना और अपने देश में पूंजीवाद और नस्लवाद का सम्मिश्रण को समझना शुरू किया.

आप अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस की सदस्य तब भी बनी रहीं जब इसे ग़ैरक़ानूनी घोषित कर दिया गया और जब इसने अपनी रणनीति गाँधीवादी अहिंसा से एक अधिक सक्रिय दिशा में बदल दी. आप इस बदलाव के साथ सहज थीं?

नार्दिन गार्दिमेर : हाँ, मैं सहज थी, क्योंकि उस समय तक मैं नेताओं को जानती थी, और जैसा कि अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के पहले अध्यक्षों में रहे लुथुली ने एक बार कहा था, “हम इतने लम्बे समय से पिछले दरवाजे पर धैर्यपूर्वक दस्तक दे रहे थे. किसी दरवाज़े से कोई उत्तर नहीं आया.” साथ ही, साठ का दशक पूरी जनसंख्या को बड़े पैमाने पर हटाने का दशक था. इसलिए जब यह सोफिया नाम के कसबे में हुआ जो जोहांसबर्ग से दो एक मील की दूरी पर ही था, मैं उन चीज़ों को बिलकुल आमने सामने से देख पा रही थी जो लोगों के साथ हो रही थीं और मुझे लगता है कि यह आपका राजनीतिकरण करता है और आपको एक कार्यकर्ता में तब्दील कर देता है.

आपने पूँजीवाद और रंगभेद के बीच के रिश्ते का ज़िक्र किया है. दक्षिण अफ्रीका में जो कुछ हो रहा था आपको उस पर बाक़ी दुनिया के देशों ने जो स्टैंड लिया उसका किस हद तक असर दिखता है? या यह मुख्यतः एक आतंरिक प्रक्रिया थी?    

नार्दिन गार्दिमेर : दुर्भाग्य से पश्चिमी दुनिया की प्रतिक्रिया अत्यंत धीमी थी. तमाम वर्ष थे जब लोगों को व्यापक पैमाने पर हटाया गया, जो लगभग युद्ध जितना ही भयावह था. उन वर्षों में अमेरिका और इंग्लैण्ड ने अफ्रीका के श्वेत शासन से अपने सम्बन्ध बनाए रखे और हमारे निर्वासित नेताओं, जैसे डा डाडू और ओलिवर ताम्बो से मिलने तक से इंकार कर दिया. उन दिनों में आप किसी भी व्यक्ति को, यहाँ तक कि ब्रिटिश शासन के किसी कनिष्ठ मंत्री को भी इन लोगों से मिलने के लिए उपलब्ध नहीं पा सकते थे. वे विद्रोही और ग़ैरक़ानूनी थे. इसे बदलने में बहुत लंबा समय लगा , लेकिन धीरे धीरे यह बदला. और ज़ाहिर तौर पर प्रतिबंध सबसे महत्त्वपूर्ण चीज़ बन गए – कला पर प्रतिबंध और आर्थिक गिरावट, काले बाज़ार और दुनिया के सबसे बड़े धूर्तों से तेल के क्रय की लागत. और दूसरी तरफ़ आप देखते हैं अश्वेत लोगों का बढ़ता साहस, आत्मविश्वास और दबाव. अफ्रीका में जो एक तरह से शानदार और अद्वितीय था वह था अफ्रीकी लोगों, भारतीयों और तमाम श्वेत लोगों के बीच का सहकार. गांधी जी के यहाँ प्रवास के दिनों से ही भारतीयों ने राजनीतिक जिम्मेवारी ली. उन्होंने अपनी पूरी ताक़त लगा दी जबकि रंगभेदी क़ानून उनके लिए कम कड़े थे. तो इस तरह भारतीय कांग्रेस, अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस और ट्रेड यूनियनों के बीच एकता स्थापित हुई.

समकालीन दक्षिण अफ्रीका पर गांधी जी के प्रभाव के बारे में आपके क्या विचार हैं?

नार्दिन गार्दिमेर : ओह. उनका प्रभाव बेहद मज़बूत है और वास्तव में, कुछ बहुत युवा लोग यह जानते भी नहीं हैं कि उन्होंने गांधी जी का दर्शन अपना लिया है. मुझे लगता है कि यह पूरे दौर में एक शानदार और तैयार करने वाला सांचे में ढालने वालाप्रभाव है. क्योंकि, संघर्ष को अपरिहार्य रूप से हिंसक आन्दोलन में परिवर्तित होने के बावजूद हिंसा  कभी बड़े पैमाने पर नहीं हुई. बड़े पैमाने पर हिंसा राज्य द्वारा हुई.

एक तरह से खुद अपने ख़िलाफ़ खड़े होने में आपको किस तरह के बलिदान करने पड़े?

नार्दिन गार्दिमेर : मैं बढ़ा चढ़ा के पेश करना नहीं चाहती. तमाम लोग थे जो मुझसे कहीं अधिक बहादुर थे. लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया, वह बिंदु जहाँ से लौटा नहीं जा सकता और दूर होता चला गया और लोग भयभीत हुए. आप जोखिम लेते हैं और आप केवल अपने ऊपर जोखिम नहीं लेते आप अपने परिवार को भी जोखिम में डाल देते हैं. मैं इस तरह एक जुआ खेल रही थी कि जैसे जैसे एक लेखक के रूप में मुझे और बेहतर तरीके से पहचान मिलेगी, वह मुझे शायद कुछ सुरक्षा प्रदान कर सकेगा. यह सुरक्षा इस अर्थ में थी कि मेरा पासपोर्ट मेरे पास था और इसकी वजह से मुझे यहाँ वहां जाने से रोका नहीं जाता था. लेकिन मैं जानती थी कि इसमें शामिल हर किसी की तरह मेरे घर पर निगाह रखी जा रही थी. असली चरमोत्कर्ष तब आया जब गद्दारी का एक बड़ा मुक़दमा चल रहा था और जिनके ऊपर मुक़दमा चल रहा था उन्होंने मुझसे एक अपील करने और उनके पक्ष में मुक़दमा लड़ने को कहा. जब उन्होंने मुझसे कहा तो मैं बहुत भावुक हो गयी, और अभियोग पक्ष के वक़ील के सामने मुझे बहुत मुश्किलात हुईं क्योंकि अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा हुआ था और गुरिल्ला आर्मी एक ऎसी चीज़ से जिससे आप कोई सम्बन्ध नहीं रख सकती थीं. अभियोजक ने पूछा, “ क्या नेल्सन मंडेला आपके नेता हैं?” और मैंने कहा, “हाँ, वह हैं.” यह बेहद खतरनाक चीज़ थी, लेकिन मैं यह कहकर बच गयी. जब परिवर्तन आया, मुझे ख़ुशी हुई कि मैं निर्वासन में नहीं गयी; कि मैं यहाँ रुकी और मैंने कुछ किया. हालांकि मंडेला और उनके जैसे लोगों से जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी का बड़ा हिस्सा जेलों में गुज़ार दिया, तुलना करते हुए आप कभी यह महसूस नहीं कर सकते कि आपने पर्याप्त काम किया है.  

आपने अफ्रीकी लेखकों के कांग्रेस की स्थापना की. साहित्य ने इस संघर्ष में क्या भूमिका निभाई?

नार्दिन गार्दिमेर : हमने कहा संस्कृति संघर्ष का एक हिस्सा है और हालांकि यह एक पिष्टोक्ति (क्लीशे) जैसा लगता है, वास्तव में यह सच था. यह खासतौर पर थियेटर के संदर्भ में था क्योंकि सरकार ने अपनी ताक़त का वास्तविक से कम आकलन किया था. बड़े शहरों में कुछ जगहों पर लोगों ने उस नियम का उल्लंघन किया जिसके अनुसार श्वेत और अश्वेत लोग एक नाटक में साथ में काम नहीं कर सकते थे या हाल साझे तौर पर उपयोग नहीं कर सकते थे. हम किसी तरह इसमें शामिल हो गए और लोगों ने अपने नाटकों की वर्कशाप लगानी शुरू कर दी बजाय वेस्ट एंड या कहीं और के नाटकों की, जैसा कि श्वेत लोग करते थे. और इस तरह लोग अपनी खुद की जिंदगियों पर नाटक बना रहे थे. उन्होंने उन घटनाओं का उपयोग किया जो उनकी जिंदगियों में हो रही थीं और जब लोगों ने देखा उन्होंने सारी भावनाओं को और कुंठाओं को और भय को देखा और इसने लोगों को साहस दिया. एक हद तक यही हमारे लेखन के साथ हुआ.

आपकी किताबें दक्षिण अफ्रीका में प्रतिबंधित थीं जबकि सारी दुनिया में बिक रही थी. लिखते हुए आप उस पाठक वर्ग को लेकर कितना सचेत थीं?  

नार्दिन गार्दिमेर : जब आप भारत या दक्षिण अफ्रीका या किसी भी जगह पर लिख रहे होते हैं तो आप ऐसे कुछ सन्दर्भ देते हैं जो परिचित नहीं होते, लेकिन जिस क्षण आप उनकी व्याख्या करनी शुरू करते हैं लेखक की भूमिका शुरू हो जाती है. एक लेखक को लेखन की दक्षता हासिल करनी होती है ताकि लोग किसी तरह सन्दर्भ को समझने और उससे जुड़ने में सक्षम हो सकें. बहरहाल अगर वे कोई बारीक चीज़ कभी कभार नहीं पकड़ पाते तो आप कुछ नहीं कर सकते. मैंने एक उपन्यास पढ़ा बुर्जुआजीज़ डाटर  जिसमें जो मुख्य पात्र है वह कई जगह एक घटना को सुनाती है या दूसरे पात्र बताते हैं कि वह उन्हें कैसा लगा. तो हर बार यह एक अलग कहानी लगती है. अब जब उसे अपने पिता के बारे में एक विवेचन देने की बारी आती है जो एक क्रांतिकारी हैं और जो जेल में थे तो सिर्फ इतिहास पर एक अध्याय लिख देना शायद पाठकों को आकर्षित नहीं करता. तो मैंने इस समस्या पर और ऐसे ही अन्य लोगों पर जिन्हें मैं जानती थी बहुत देर तक और दूर तक सोचा. अगर उनकी मृत्यु हो जाती या वे निर्वासन में चले जाते तो कोई न कोई होता जो उनके बारे में लिखना चाहता, और वे अपनी बेटियों के अलावा कहाँ जाते? तो उसने मुझे यह महसूस करने का एक अवसर दिया कि बेटी को अपने पिता की चिट्ठियों को देखना और जो चीजें हुईं उन पर सोचना  शुरू करना पड़ेगा

क्या आप हमसे लिखने की प्रक्रिया को साझा कर सकती हैं? क्या आप एक आउटलाइन के साथ उपन्यास की योजना बनाती हैं या आप सिर्फ लिखना शुरू कर देती हैं और फिर इसे प्रवाह में बहने देती हैं?

 नार्दिन गार्दिमेर : मैं कभी अध्याय दर अध्याय की योजना नहीं बनाती. कुछ लोग ऐसा करते हैं, लेकिन मैं ऐसा नहीं करती. मेरे लिए एक शुरुआत है और एक अंत है. और फिर रास्ते में रुकने के लिए, कहा जा सकता है कि कुछ स्टेशन हैं. जब मैं शुरू करती हूँ तो मैं यह नहीं जानती कि किन रास्तों से जाना है लेकिन अंत तय होता है. जब मैं शुरू करती हूँ तो हमेशा मुझे अंत का पता होता है और मैं अक्सर शीर्षक जानती हूँ. लोगों को अक्सर इस पर आश्चर्य होता है. मेरे लिए जब तक मुझे शीर्षक न पता हो मैं वास्तव में यह नहीं जानती कि मुझे लिखना किस बारे में है क्योंकि शीर्षक को कहानी का सार होना चाहिए. लेकिन मैं खुद को एक धीमी लेखक मानती हूँ. एक उपन्यास लिखने के लिए मैं तीन से चार साल ले सकती हूँ, कभी कभी और अधिक.

इसमें वरीयता किसे मिलती है – कथावस्तु, वह दिशा जिस पर उपन्यास चलेगा  जाएगा या कोई और चीज़ जो आप कहना चाहें.

नार्दिन गार्दिमेर : यह लोगों से शुरू होता है और जिसका वह समाज में प्रतिनिधित्व करते हैं वह व्यक्तित्व. मुझे लगता है मैं इसी तरह लिखती अगर मैं ऐसी किसी जगह पर भी रहती जहाँ इस तरह का प्रचंड संघर्ष नहीं है. लेकिन ज़ाहिर तौर पर मैंने अक्सर यह देखना पसंद किया है कि रंगभेद जैसी व्यवस्था ने लोगों के साथ कैसे एक बच्चा पैदा होता है जैसे उनके सबसे वैयक्तिक संबंधों को प्रभावित करता है.जब वह पैदा होता है तो जन्म नली से गुज़रता है और यहीं मष्तिष्क आकार लेता है. मुझे लगता है कि दक्षिण अफ्रीका में आपके दिमाग में जो है वह एक बार फिर रंगभेद के दबाव से, छोटे छोटे पूर्वाग्रहों से, अविश्वास से और ऐसी ही चीजों से निर्मित होता है.

जब आप उपन्यास लिख चुकी होती हैं तो किसकी प्रसंशा की आपको सबसे अधिक दरकार होती है? क्या एक बार पूरा हो जाने के बाद प्रक्रिया ख़त्म हो जाती है या फिर तब जब इन्हें वे लोग पढ़ चुके होते हैं जिन्हें आप देती हैं?

नार्दिन गार्दिमेर : मुझे लगता है यह किसी की भावनाओं जैसा है. केवल मैं जानती हूँ कि मैं क्या करना चाहती थी. इसलिए मैं अपनी खुद की आलोचक हूँ. कई बार यह उससे अलग और थोड़ा बेहतर निकल कर आ सकता है जैसा मैंने सोचा था. कई बार मैं उन चीजों को देखती हूँ जो छूट गयी हैं. जो हालिया उपन्यास मेरा प्रकाशित हुआ, नन टू एकम्प्नी मी जब मैं पीछे मुड़ के देखती हूँ तो मुझे महसूस होता है कि जो धावक है उसका चरित्र किसी तरह धुंधला होता जाता है. हालांकि वह एक भगोड़ा पुरुष है, उसे और अधिक उपस्थित होना चाहिए था और यह करना लेखक का काम है.

अब जबकि दक्षिण अफ्रीका के वातावरण का सामाजिक सन्दर्भ बदल चुका है, दस साल पहले की तुलना में आप किन उत्प्रेरणाओं से संचालित होती हैं?

नार्दिन गार्दिमेर : मेरी हालिया किताब नन टू एकम्प्नी मी  में,जो संक्रमण के समय में स्थित है, एक अंतर है. कुछ चीजें जो अब मुझमें कौतुहल जगाती हैं वे हैं राजनीतिक निर्वासितों का घर लौटना, वह स्वप्न कि जैसा घर को होना था और घर जिस तरह से बदल गया है. लोगों को व्यापक पैमाने में फिर से बसाया गया था तो शायद घर वहाँ अब था ही नहीं, वह कुछ और बन गया था. दोस्त और परिवार भारी भगदड़ में शहरों में चले गए थे जैसा कि हर देश में हुआ. हर तरह की विचित्र परिस्थितियाँ थीं. उदाहरण के लिए इस किताब में जो किसी एक चरित्र में सामान्य चीज़ थी वह उन दम्पत्तियों में बहुत सामान्य थी जो विदेशों में बिताये अपने वर्षों में  माँ बाप बने. ये बच्चे इंग्लैण्ड या स्वीडन के स्कूलों में पढने गए और अपनी दूसरी भाषा के रूप में जैसे स्वीडिश बोलते थे लेकिन कोई अफ्रीकी भाषा नहीं जानते थे. अब ये बच्चे वापस आये और उनके कोई सम्बन्ध नहीं थे और उनके लिए बस पाना बेहद मुश्किल था. फिर दूसरे लोग थे – युवा मित्र और युवा लेखक जिनका सपना उन बस्तियों से निकल आना था. लेकिन जब वे जोहांसबर्ग के और बेहतर हिस्सों में रहने आये तो उन्हें पता चला कि सभी पडोसी जा चुके हैं. अब आप यह नहीं कह सकते कि “क्या आप हमारे बच्चे को संभाल लेंगे, हम आज रात बाहर जाना चाहते हैं.” तो ये लिखने के लिए ग़ज़ब की चीजें थी और तनाव भी.

अब आप दक्षिण अफ्रीका के भविष्य को लेकर कितना आशान्वित महसूस करती हैं?

नार्दिन गार्दिमेर : मुझे लगता है बाहर के देशों के लोग कुछ ज़्यादा ही निराशावादी हैं, और मुझे बहुत गुस्सा आता है. हमारे यहाँ 350 वर्षों का दमन रहा है और अभी दो साल भी नहीं हुए लोकतंत्र के और हमें लगता है इसमें सब कुछ हो जाना चाहिए था- सभी को नौकरी मिल जानी चाहिए थी, सभी के लिए घर बन जाना चाहिए था. इतने कम समय में ऐसा कर पाना बिलकुल असंभव है. फिर जाहिर तौर पर जब दमनकारी को उखाड़ फेंका जाता है तो जो निष्ठा लोगों को जोड़े रहती थी वह महत्त्वाकांक्षाओं और प्रतिद्वंदिताओं से टूट जाती है. और लोग मनुष्य ही हैं. मुझे लगता है कि अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस अद्भुत है. उन सभी राजनीतिक आन्दोलनों में से जिन्हें मैं जानती हूँ वे कभी विभाजित नहीं हुआ, किसी भी तरह से वे विच्छिन्न नहीं हुए. यह ओलिवर ताम्बो और दूसरे लोगों को शानदार श्रद्धान्जलि.

किन दूसरे लेखकों को आप पढ़ती हैं. क्या आपने अंग्रेज़ी में किसी भारतीय लेखक को पढ़ा है.

नार्दिन गार्दिमेर : मैं वह सब पढ़ती हूँ जो मेरे हाथ लग जाता है. मैंने कुछ भारतीय लेखकों को पढ़ा है हालांकि यह पर्याप्त नहीं है और काश मैं और अधिक पढ़ पाती. मैंने टैगोर जैसे क्लासिक्स और गीता तब पढ़े हैं जब मैं बहुत छोटी थी. मैं आर के नारायण को बेहद पसंद करती हूँ जो एक अपनी तरह के शानदार लेखक हैं, खासतौर पर जब आप गाँवों से गुजरते हैं और मालगुडी तथा अन्य के जादू के बारे में सोचते हैं. और ज़ाहिर तौर पर वे जो निर्वासन में हैं ; सलमान रश्दी मेरे दोस्त हैं. मैं उनकी स्थिति को लेकर बेहद दुखी थी और अब भी हूँ, क्योंकि वह उन मुट्ठी भर जीवित लेखकों में से हैं जो वास्तव में महत्त्वपूर्ण हैं. वह एक विलक्षण लेखक हैं लेकिन जो उनके साथ किया जा रहा वह एक तरह से सूली पर चढ़ाना है, जो कि भयानक है.

एक लेखक के तौर पर आपकी खुद को लेकर क्या महत्त्वाकांक्षाएँहैं? 

नार्दिन गार्दिमेर : मैं हमेशा वही एक चीज़ सोचती हूँ – पिछली किताब से बेहतर किताब लिखना.
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(राजीव मेहरोत्रा की किताब “द स्पिरिट आफ द म्यूज” से)

सुजाता की नौ कविताएँ

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दिल्ली विश्विद्यालय के श्यामलाल कालेज में पढ़ा रही सुजाता ब्लॉग जगत में अपने चोखेरबालीनामक स्त्रीवादी ब्लॉग के लिए जानी जाती हैं. मेरे लिए उनका कवि रूप चौंकाने वाला था. उनकी इन शीर्षकहीन कविताओं से गुज़रते हम एक चेतन मध्यवर्गीय महिला के निजी और सार्वजनिक जीवन के बीच बेचैन आवाजाही से रु ब रु होते हैं. वह अपने कथ्य को लेकर इतनी उद्विग्नता से भरी हैं कि अक्सर शिल्प के उलझावों में नहीं फंसती. हालांकि यह एक सीमा भी बनाता है. हिंदी में ज़ारी स्त्री विमर्श में प्रेम के मुहाविरे में लिखी ये विद्रोहिणी कवितायें मुझे एक ज़रूरी हस्तक्षेप सी लगती है. असुविधा पर उनका स्वागत  






(1)

तुम्हे चाहिए एक औसत औरत
न कम न ज़्यादा 

नमक की तरह ।
उसके ज़बान हो 
उसके दिल भी हो
उसके सपने भी हो
उसके मत भी हों, मतभेद भी
उसके दिमाग हो ।
उसके भावनाएँ भी हों 
और आँसू भी ।

ताकि वह पढे तुम्हे और सराहे

वह बहस कर सके तुमसे और 
तुम शह-मात कर दो
ताकि समझा सको उसे 
कि उसके विचार कच्चे हैं अभी 
अभी और ज़रूरत है उसे
तुम- से विद्वान की ।

ताकि तुम सिखा सको उसे बोलना और 
सिखा सको कि कैसे पाले जाते हैं 
आज़ादी के सपने।
ताकि वह रो सके 
तुम्हारी उपेक्षा पर।
और तुम हँस सको 
उसकी नादानी पर कि कितना भी कोशिश करे औरत 
औसत से ऊपर उठने की
औरतपन नहीं छूटेगा उससे। 

तुम्हारी जीत उस समय सच्ची जीत होगी।

कुल मिलाकर
तुम्हे एक औसत औरत में 
अपनी औरत गढने का सुख चाहिए।


(2)

बेगैरत भाषा से 
आजकल मुझे चिढ हो गई है 
मेरे शब्दों के खाँचे वह
तुम्हारे दिए अर्थों से भर देती है बार बार 
नामुराद !

देखो ,
जब जब तुमने कहा -आज़ादी 
क्रांतिकारी हो गए,
द्रष्टा ,चेतन ,विचारक !

मैंने धीमे स्वर में 
धृष्टता से बुदबुदाया -
स्वतंत्रता !

और भाषा चौकन्नी हो गई 
इतिहास चाक चौबंद ।

जन्मी भी नही थी जब भाषा
तब भी 
मैं थी
फिर भी इतिहास मेरी कहानी 
नहीं कह पाता आरम्भ से।
किसी की तो गलती है यह ! 
भाषा या इतिहास की ?

मैं यही सोचती थी
कि जो भाषा में बचा रह जाएगा ठीक ठाक 
उसके इतिहास में बचने की पूरी सम्भावना है 
लेकिन देख रही हूँ 
भाषा का मेरा मुहावरा 
अब भी गढे जाने की प्रतीक्षा में है ।

इतिहास से लड़ने को 
कम से कम भाषा को तो 
देना होगा मेरा साथ ।

(3)

वे आत्ममुग्ध हैं ,
वे घृणा से भरे हैं।
वे पराक्रम से भरपूर हैं। 
वे नहीं जानते अपनी गहराई।

जो उपलब्ध हैं स्त्रियाँ उन्हें 
वे हिकारत से देखते हैं ,
और थूक देते है उन्हें देख कर
जिन्हें पाया नही जा सका ।

वे ज्ञानोन्मत्त हैं 
ब्रह्मचारी !

कोमलांगिनियों के बीच 
योगी से बैठे हैं 
अहं की लन्गोट खुल सकती है कभी किसी वक़्त भी।

उन्हे नहीं पता कि
हमें पता है
कि वे कितनी घृणा करते हैं हमसे 
जब वे प्यार से हमारे बालों को सहला रहे होते हैं।

उन्हें पहचानना आसान होता 
तो मैं कह सकती थी
कि कब कब मैंने उन्हें देखा था
कब कब मिली थी 
और शिकार हो गयी थी कब !

(4)

पिछली सदियों में
जितना खालीपन था उससे
मैं लोक भरती रही
तुमसे चुराई हुई भाषा में और चुराए हुए समय में भी।

तुम्हारी उदारता ने मेरी चोरी को
चित्त न धरा ।
न धृष्टता माना।
न ही खतरा।

हर बोझ पिघल जाता था
जब नाचती थीं फाग
गाती थी सोहर
काढती थी सतिया
बजाती थी गौना ।

मैं खुली स्त्री हो जाती थी।
मुक्ति का आनंद एक से दूसरी में संक्रमित होता था।
कला और उपयोग का संगम
गुझिया गोबर गीत का मेल
अपने अभिप्राय रखते थे मेरी रचना में
इतिहास मे नहीं देती सुनाई जिसकी गूँज

मैं लिखना चाहती हूँ
उसकी चींख जो
मुझे बधिर कर देगी जिस दिन
उससे पहले ही।

मुझे अलंकरण नहीं चाहिए
न ही शिल्प
सम्भालो तुम ही
सही कटावों और गोलाइयों की
नर्म गुदगुदी
अभिभूत करती कविता !

मुझसे और बोझ उठाए नहीं उठता।
नीम के पेड़ के नीचे
चारपाई पर औंधी पड़ी हुई
सुबह की ठंडी बयार और रोशनी के शैशव में
आँख मिचमिचाती मैं
यानि मेरी देह की
दृश्यहीनता सम्भव होगी जब तक
मैं तब तक नहीं कर पाओँगी प्रतीक्षा
मुझे अभी ही कहना है कि
मुझे गायब कर दिया गया भाषा का अपना हिस्सा
शोधना होगा अभी ही।

(5)

नहीं हो सकेगा
प्यार तुम्हारे-मेरे बीच
ज़रूरी है एक प्यार के लिए
एक भाषा ...
इस मामले में
धुरविरोधी हैं
तुम और मैं।

जो पहाड़ और खाईयाँ हैं
मेरी तुम्हारी भाषा की
उन्हें पाटना समझौतों की लय से
सम्भव नहीं दिखता मुझे
किसी भी तरह अब।

इसलिए तुम लौटो
तो मैं निकलूँ खंदकों से
आरम्भ करूँ यात्रा
भीतर नहीं ..बाहर ..
पहाड़ी घुमावों और बोझिल शामों में
नितांत निर्जन और भीड़-भड़क्के में
अकेले और हल्के ।

आवाज़ भी लगा सकने की  तुम्हें
जहाँ नहीं हो सम्भावना ।
न कंधे हों तुम्हारे
जिनपर मेरे शब्द
 पिघल जाते हैं सिर टिकाते ही और
फिर  आसान होता है उन्हें ढाल देना
प्यार में ...

नहीं हो सकता प्यार
तुम्हारे मेरे बीच
क्योंकि कभी वह मुकम्मल
 नहीं आ सकता मुझ तक
जिसे तुम कहते हो
वह आभासी रह जाता है
मेरा दिमाग प्रिज़्म की तरह
तुम्हारे शब्दों को
हज़ारों रंगीन किरनों में बिखरा देता है।

(6)

जाने क्यों बढते हैं फासले
हमारे बीच
ज्यो ज्यों खुलती हैं
ज़ुल्फों की घनेरी पंक्तियाँ   
और बिखर जाती हैं
पन्नों पर |

आँखों की चमक और लहक
आँचल की बढती है ज्यों ज्यों
चेहरे का नमक बन कर
पिघल जाते हैं
एहसास कविता के
पर तुम क्यों बैरी हो जाते हो पिया ?


(7)

तुमने कहा
बहुत प्यार करता हूँ
अभिव्यक्ति हो तुम
जीवन हो मेरा
नब्ज़ हो तुम ही
आएगा जो बीच में
हत्या से भी उसकी गुरेज़ नहीं

संदेह से भर गया मन मेरा
जिसे भर जाना था प्यार से
क्योंकि सहेजा था जिसे मैंने
मेरी भाषा
उसे आना ही था और
वह आई निगोड़ी बीच में
तुम निश्शंक उसकी
कर बैठे हत्या

फिर कभी नहीं पनपा
प्यार का बीज मेरे मन में
कभी नहीं गाई गई
मुझसे रुबाई

सोचती हूँ
इस भाषा से खाली संबंध में
फैली ज़मीन पर
किन किंवदंतियों की फसल बोऊँ
कि जिनमें
उग आएँ आइने नए किस्म के
दोतरफा और पारदर्शी
क्योंकि तुमने कहा था
जो आएगा बीच में
उसकी हत्या होगी ।

(8)

छू कर चट्टान 
वापस लौटता है कौन पहले 
लहरों में होड़ थी।
यह खेल तभी तक था
जब तक चट्टान अडिग थी।

कैसा होता किसी पल चट्टान पिघल जाती ?

लहरें आत्मविस्मृति में ठहर ही जातीं।
चट्टानें इस खेल से नहीं डरतीं
तटों की अडिग प्रहरी
चट्टानों का इनर्शिया तोड़ने को
लहरों को अभी खेलना होगा 
सदियों यही दौड़ा दौड़ी का खेल
अभी और शिद्दत से।

(9)

ऊबी हुई हूँ मैं प्रेम से 
सच्चा या झूठा 
कैसा भी 
अब आह्लादित नहीं करता मुझे प्रेम्।

रूमानियत तुम्हारी 
घिसी पिटी कविता जैसी 
मुझे खुजली देती है...
कॉफी टेबिल पर पड़ी पत्रिका 
तुम अभी अभी जिसमें छपे हो
अपने पंख फडफड़ाना चाहती है..

क्यों न चला दें हम रेडियो 
कुछ देर के लिए
शायद वह सचमुच ही सो जाए 
अगर उड़ नहीं सकी तो...
कुछ समझ नहीं आने पर 
सो जाना कितना सुकून भरा होता है।

मैं कब से प्रतीक्षा में हूँ
कभी तो छलक जाए तुम्हारी कॉफी 
इतना सजग
कैसे रह लेते हो तुम 
कि एक भी लफ्ज़ की स्याही 
तुम्हारी कूची से नहीं टपकती कभी भी...
तुम्हारे होशमंद रहने पर 
सम्मोहित नहीं हूँ मैं आज...

मैं फिराक में हूँ 
उस बेकल कविता को दोनों हाथों में पकड़ कर 
ऊपर उड़ा देने की 
जो उनींदी हो चली है 
खत्म हो चुकी कॉफी के मग की
गरमाई से।





जितेन्द्र श्रीवास्तव की नई कविताएँ

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जितेन्द्र श्रीवास्तव पिछले लगभग ढाई दशकों से हिंदी कविता में सक्रिय हैं. इस बीच उन्होंने लम्बी यात्रा की है, जिससे हिंदी का पाठक भलीभांति परिचित है. एक तरफ उन्होंने कविताओं में लगातार नए भावबोधों को प्रवेश दिया है तो दूसरी तरफ आलोचना के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण काम किया है. छात्र जीवन में मेरे सीनियर रहे जितेन्द्र की कविताओं से अपने पुराने और गहन परिचय के चलते इन कविताओं ने मुझे चौंकाया. इनमें एक बड़ा मद्धम और परिचित सा राग है. लोक की बनावटी धारणा के समक्ष लोक का एक उदात्त रूप, अंधेरों में उम्मीद ढूंढ लेने की बेआवाज़ जीजिविषा...जब वह कहते हैं "डर विलोम होता है प्रेम का"तो बहुत धीमे लेकिन दृढ़  खंडन करते हैं  "भय बिनु होंहि न प्रीति"का और इस तरह परम्परा में शामिल होकर उसका अस्वीकार भी और परिस्कार भी.  

फ़िलहाल मैं जितेन्द्र भाई का असुविधा के लिए कविताएँ उपलब्ध कराने के लिए आभार प्रकट करते हुए कविता और पाठकों के बीच से हटता हूँ.




दुनिया के सबसे हसीन सपने 
हमेशा देखे जाते हैं अंधेरे में ही


अंधेरे में कुछ नहीं दिखता
न घर         न पेड़      न गड्ढ़े     न पत्थर
न बादल     न मिट्टी            न चिड़ियाँ-चुरुँग
हाथ को हाथ भी नहीं दिखता अंधेरे में

पर कैसा आश्चर्य!
दुनिया के सबसे हसीन सपने
हमेशा देखे जाते हैं अंधेरे में ही।




जब हँसता है कोई किसान 

वह हँसी होती है
महज चेहरे की शोभा
जिसका रहस्य नहीं जानता हँसने वाला

सचमुच की हँसी
उठती है रोम-रोम से

जब हँसता है कोई किसान तबीयत से
खिल उठती है कायनात
नूर आ जाता है फूलों में
घास पहले से मुलायम हो जाती है

उस क्षण टपकता नहीं पुरवाई में दुःख
पूछना नहीं पड़ता
बाँई को दाँई आँख से खिलखिलाने का सबब!



वे योद्धा हैं नई सदी के 
जो गा रहे हैं
नई संस्कृति के सृजन का गीत
 

जब वे बोलते हैं हमें महसूस होता है
वे हमारा अपमान कर रहे हैं
जबकि वे सदियों की चुप्पी का समापन करते हुए
बस मुँह खोल रहे होते हैं

उन क्षणों में वे अकन रहे होते हैं
अपनी आवाज का वज़न
महसूस रहे होते हैं उसका सौन्दर्य
और हम डर जाते हैं

वे हमसे पूछना नहीं
अपने हक़ का भूगोल स्वयं बताना चाहते हैं
संस्कृति की उपलब्ध सभी टीकाओं को
सहर्ष समर्पित करना चाहते हैं अग्नि को
कहीं कोई दुविधा नहीं है उनमें
वे नई संस्कृति के अग्रधावक हैं सौ फीसदी

इन दिनों उनकी वाणी से हो रही अम्ल वर्षा
विषाद है उनके पूर्वजों का
उसका कोई लेना-देना नहीं
किसी आम किसी खास से

वे अनन्त काल से चलती चली आ रही
गलतियों पर अंतिम ब्रेक लगाना चाहते हैं
भस्म करना चाहते हैं
उस चादर के अंतिम रेशे को भी
जो कवच की तरह काम आती रही पुराण पंथियों के

सचमुच वे योद्धा हैं नई सदी के
हमारा विश्वास करीब लाएगा उन्हें
वे हमारे खिलाफ नहीं वंचना के विरुद्ध हैं
निश्चय ही हमें इस संग्राम में
होना चाहिए उनके साथ।

विद्रोह


प्रकाश भेद देता है
अंधकार की हर माया
उम्मीद की फसल लहलहाती है
उजाले का साथ पाकर

एक भकजोन्हिया
धीरे से कर देता है विद्रोह
सनातन दिखने वाले अंधकार के विरूद्ध
और दोस्ततुम अब भी पूछ रहे हो
बताओ तुम्हारी योजना क्या है!
शुक्रिया मेरी दोस्त!


हे अलि! आओ आज करते हैं कुछ ऐसी बातें
जिन्हें भूलने लगा हूँ शायद मैं

देखोआज मैं करना चाहता हूँ
तुम्हारा शुक्रिया
और चाहता हूँ स्वीकार लो तुम इसे

तुम्हें सचमुच मालूम नहीं
जो सूख गया था मुझमें ही भीतर कहीं
तुमने धीरे से भर दिया है मेरे भीतर वह जीवद्रव्य
न जाने कहाँ से लाकर

तुम्हारा शुक्रिया!
हृदय की अतल गहराइयों से शुक्रिया
मुझे यह याद दिलाने के लिए
कि प्रेम में अश्लील होता है आश्वासन
शक्ति से नहीं भींगती आत्मा की धरती
डर विलोम होता है प्रेम का

शुक्रिया मेरी दोस्त!
शुक्रिया इसलिए भी
कि तुमने जीवन का स्वप्न रहते-रहते
फिर से खोलकर बाँच दिया है वह पन्ना
जो बिला गया था मेरी ही पुतलियों में कहीं।

जब धर्म ध्वजाएं लथपथ हैं मासूमों के रक्त से

कल इकतीस जुलाई है
जहाँ-तहाँ याद किए जाएंगे प्रेमचंद
हो सकता है सरकार की ओर से जारी हो कोई स्मरण-पत्र
पर क्या सचमुच अब लोगों को याद आते हैं
प्रेमचंद या उन्हीं की तरह के दूसरे लोग?

एक सच यह भी है
परिवर्तन के लिए जूझ रहे लोग
यकीन नहीं कर पाते
सरकारी गैर सरकारी जलसों का
वे गला खखारकर थूकना चाहते हैं
जलसाघरों के प्रवेश द्वार पर
वे प्रेमचंद के फटे कोट और फटे जूते को
सजावट का सामान बनाना नहीं चाहते
वे उसके सहारे कुछ कदम और आगे जाना चाहते हैं

वे जानते हैं इस महादेश में
फटा कोट और फटा जूता पहनने वाले अकेले नहीं थे प्रेमचंद
आज भी करोड़ों गोबर
जी रहे हैं जूठन पर
उनके हिस्से में फटा कोट और फटा जूता भी नहीं है

वे प्रेमचंद के उस जीवन-प्रसंग का महिमा मंडन नहीं करते
उसे बदल लेते हैं अपनी ताकत में
प्रेमचंद की चेतना को घोल लेते हैं अपने रक्त में
बना लेते हैं अपना जीवद्रव्य

ये वे लोग हैं
जिन्हें अब भी यकीन है
साहित्य राजनीति के पीछे नहीं
आगे चलने वाली मशाल है

वैसे कल सचमुच इकतीस जुलाई है
और यह महज संयोग हो सकता है
मगर एक तथ्य है
कल ही बीती है उनतीस जुलाई
जब देश भर में मनाई गई ईद
और एक खबरिया चैनल के एंकर’ ने
याद किया ईदगाह’ को लेकिन
हामिद की दादी को भूलवश बता गया उसकी माँ


कुछ साहित्य प्रेमी नाराज हैं इस घटना से
उनका कहना है
पूरी तैयारी से आना चाहिए एंकर’ को

इस विवाद पर एक मित्र का कहना है
इस स्मरण को उस तरह न देखें
जैसे देखते हैं बहुसंख्यक
इसे अल्पसंख्यकों की निगाह से देखें
और सोचें कि जब पूरी दुनिया में घमासान है धर्मों के बीच
जब कत्ल हो रहे हैं बच्चेबूढ़ेजवान और लूटी जा रही हैं स्त्रियाँ
जब धर्म ध्वजाएं लथपथ हैं मासूमों के रक्त से
तब हिन्दी के एक एंकर’ को याद तो है ईदगाह


संजना तिवारी


आप निश्चित ही जानते होंगे
एश्वर्या रायप्रियंका चोपड़ाकैटरीना कैफ़
एंजलीना जोलीसुष्मिता सेन सहित कई दूसरों को भी
और यकीन जानिए मुझे रत्ती भर भी ऐतराज नहीं
कि आप जानते हैं
ज़माने की कई मशहूर हस्तियों को

लेकिन क्या आप जानते हैं संजना तिवारी को भी ?

संजना तिवारी ने अभिनय नहीं किया
एकता कपूर के किसी धारावाहिक में
वे किसी न्यूज़ चैनल की एंकर भी नहीं हैं

मेरी अधिकतम जानकारी में उन्हांेने
कोई जुलूस नहीं निकाला कभी

चमक-दमक
लाभ -हानि
प्रेम और घृणा के गणित में पड़े संसार को
ठेंगा दिखाती हुई     
वे फुटपाथ पर बेचती हैं दुनिया का महान साहित्य
और उन पत्रिकाओं को जिनमें
शृंगारजिम और मुनाफे’ पर कोई लेख नहीं होता

वैसे वे चाहतीं तो खोल सकती थीं
प्रसाधन का कोई छोटा-सा स्टोर
या ढूँढ सकती थीं अपने लिए कोई नौकरी
न सही किसी मल्टीनेशनल कम्पनी में
किसी प्रकाशन संस्था में टाइपिस्ट की ही सही

ऐसा तो हो नहीं सकता
कि कोई घर न हो उनका
और यह कैसे हो
कि घर हो और उम्मीद न हो

यह कहने-सुनने में चाहे जितना अटपटा लगे
पर सच यही है
घर और उम्मीद में वही रिश्ता है
जो साँसों और जीवन में होता है
खै़रछोड़िए इन बातों को
और थोड़ी देर के लिए
दुनिया को देखिए संजना तिवारी की निगाह से
जो इस बेहद बिकाऊ समय में
अब कम-कम बिकने वाली
सपनों से भरी उन इबारतों को बेचती हैं
जो फर्क़ करना सिखाती हैं
सपनों के सौदागरों और सर्जकों के बीच

संजना तिवारी महज एक स्त्री का नाम नहीं है
किताबें बेचना उनका खानदानी व्यवसाय नहीं है
वे किसी भी साहित्यिक’ से अधिक जानती हैं
साहित्यिक पत्रिकाओं के बारे में

वे सुझाव भी देती हैं नए पाठकों को
कि उन्हें क्या जरूरी पढ़ना चाहिए

संजना तिवारी महज एक नाम नहीं
तेजी से लुप्त हो रही एक प्रवृत्ति हैं
जिसका बचना बहुत जरूरी है

और जाने क्यों मुझे
कुछ-कुछ यकीन है आप सब पर
जो अब भी पढ़ते-सुनते हैं कविता
जिनकी दिलचस्पी बची हुई नाटकों में
जिनके सपनों का रंग अभी नहीं हुआ है धूसर

इसलिए अगली बार जब भी जाइएगा मण्डी हाऊस
श्रीराम सेण्टर के सामने
पेड़ के नीचे दरी पर रखी सैकड़ों किताबों-पत्रिकाओं में से
कम से कम एक जरूर ले आइएगा अपने साथ

और यकीन रखिए आपका यह उपहार
किसी और पर फर्क़ डाले न डाले
दाल में नमक जितना ही सही
जरूर डालेगा अगली पीढ़ी पर।


प्रकृति बचाती रहेगी 
पृथ्वी को निःस्वप्न होने से 


नीले समुद्र पर
बिखरी है चादर नमक की
चेहरा ज्यों पहचाना-सा कोई

इस समय भीड़ मेंअकेला
दृश्य में डूबा ढूँढता तल अतल तक कुछ
पहचानने की कोशिश में हूँ कालिदास के मेघ को

युग बीते कितने
बीते पुरखे कितने
टिका नहीं यौवन जीवन किसी का
पर मेघ अभी जस का तस
अब भी उत्सुक बनने को दूत

यह चमत्कार देख
भीतर कहीं से उठती है आवाज
बीत जाएं मनुष्य यदि किसी दिन
नहीं बीतेंगे स्वप्न उनके साथ

प्रकृति की समूची देह
धीरे से
बदल जाएगी स्वप्न में उस दिन

धरती पर मनुष्य
बचें न बचें
प्रकृति बचाती रहेगी पृथ्वी को
निःस्वप्न होने से।


मन को उर्वर बनाने के लिए


इच्छाओं का व्याकरण
सृजित होता है
संवेदनाओं के रण में

संवदेनाओं के इतिहास में
अक्सर नहीं होते नायक
वहाँ मन होता है राग-विराग से भरा हुआ
उसे कहीं से छेड़ना
विकल करना है खुद को

हारना नहीं होता
किसी इच्छा का पूरा न होना

बाबूजी कहते थे
कभी-कभी किसी इच्छा को मारना
जरूरी होता है
मन को उर्वर बनाने के लिए।
धीरे से कहती थी नानी


मिलने से घटती हैं दूरियाँ
आने-जाने से बढ़ता है प्यार
शरमाने से बचती हैं भावनाएं
चलने से बनती है राह

जूझना सीखो बेटा! जूझना
जूझने से खत्म होती हैं रूकावटें
कभी-कभी मेरा माथा सहलाते हुए
धीरे से कहती थीं नानी।
हिमपात


गिरने लगी है बर्फ
पूस के शुरू होते ही
और लकड़ी के अभाव में
बहाई जाने लगी हैं लाशें
बिना जलाए ही

लोग ठकुआए हुए टुकुर-टुकुर ताक रहे हैं
ओरा गया है उनका विश्वास
न जाने कहाँ है सरकार!
वह बहुत डरता है


यह खड़ी दोपहर है
सूरज चढ़ आया है सिर पर
जबकि लैंपपोस्ट अभी जल रहे हैं सड़कों पर
सरकार अभी सोई है
लाइनमैन परेशान है
वह बुझाना चाहता है सारी बत्तियाँ
लेकिन बत्तियों के बुझने से खलल पड़ेगी
सरकार की नींद में मनचाहे सपनों में
उसे भ्रम हो जाएगा उजाले का

सरकार को रात के उजाले अच्छे लगते हैं
उसे सूरज बिलकुल नहीं सुहाता
यह अच्छा है उसका घर बहुत दूर है
वह पहुँच के पार है
अन्यथा राजदण्ड का भागी होता

लाइनमैन डरता है
बीबी-बच्चों का चेहरा उसकी पुतलियों में रहता है
उसे मालूम है
राजद्रोह सिद्ध करने वालों को
बहुत रास आती हैं व्रिदोहियों की आँखें
वे और ही ढंग से समझते-समझाते हैं
न रहेेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी’ का निहितार्थ

घबराया हुआ लाइनमैन इधर-उधर देखता है
अजीब सी झुरझरी उठती है बदन में
माथे से टपक पड़ता है पसीना
अरावली की पहाड़ियों पर झूम कर खिले हुए कचनार
उसमें रंग नहीं भर पाते फागुन का

वह एक साधारण आदमी है
छोटी-सी नौकरी में खुष रहना चाहता है
वह चाहता है बदल जाएं स्थितियाँ
वह स्वागत करना चाहता है नए उजाले का
लेकिन सरकार की नज़र में नहीं आना चाहता
वह बहुत डरता है राजदण्ड से।


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सम्पर्क: हिन्दी संकायमानविकी विद्यापीठब्लाॅक-एफइग्नूमैदान गढ़ीनई दिल्ली-68 
मोबाइल नं. -09818913798


                       




सत्यापन पर डा रोहिणी अग्रवाल

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आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर


’’
बोले विश्वस्त कंठ से जांबवान – रघुबर
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण
हे पुरुष सिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त
तो निश्चय तुम ही सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त
शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन
छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो रघुनंदन।’’
                                                                                    (राम की शक्तिपूजा, निराला)

’’मौन और मितव्ययिता के कथाकार कैलाश वानखेड़े। दलित अस्मिता को बिना किसी कुंठा, प्रतिशोध और बड़बोलेपन के मनुष्योचित गरिमा से उकेरता उनका कहानी संग्रह सत्यापन। अपनी छिनी हुई जमीन आत्मविश्वासपूर्ण अधिकार से वापस लेने और उस पर तने आसमान में मुक्त उड़ान भरने का साक्ष्य रचती हैं इस संग्रह की कहानियां - विशेषकर सत्यापित’, ’अंतर्देशीय पत्रऔर तुम लोग। मानो सूत से सूत कात कर कथा-वितान फैला रही हो बूढ़ी नानी, और इतिहास अपनी करनी पर लज्जित माफी मांगता पीछे-पीछे चला आ रहा हो। इतनी सूक्ष्म व्यंजकता, आब्जर्वेशन का पैनापन और उद्देश्य की कलात्मक संश्लिष्टता - सचमुच अप्रतिम है।’’

कहानीकार कैलाश वानखेड़े के संग्रह सत्यापनको पढ़ने के तुरंत बाद लिखी टिप्पणी को एक लम्बे अंतराल के बाद निःसंग भाव से पुनः पढ़ रही हूं और सोच रही हूं कि इतना भर यथेष्ट नहीं होता किसी रचना और रचनाकार को जानना। रचना कुआं नहीं होती कि उसकी जगत पर खड़े होकर सतह पर ठिठके पारदर्शी जल में अपने संवेगों और अपेक्षाओं की सूरत निहार कर संतुष्ट हो जाओ। साहित्य कुओं के भीतर प्रवाहमान जल के अजस्र सोतों की तलाश में की गई सत्यान्वेषण की संश्लिष्ट यात्रा है जो किसी मुकाम तक पहुंच कर सम्पन्न नहीं होती बल्कि हर मुकाम को अस्थायी पड़ाव मान आगे ही आगे किसी अन्य गहन रहस्य की तलाश में निकल पड़ती है। प्रकृति और मनुष्य के अंतर्मन के रहस्यों की पार कहां तक पा सका है कोई? ये दोनों बाहर से जितने निरीह और सरल हैं, भीतर से उतने ही जटिल, उलझे और अनंत। एकदम वक्त की मानिंद जो अपनी क्रमिक गति में किसी को तेजी से सदियां फलांगता दीखता है तो किसी को मलूकदास के अजगर की तरह आलस में अपनी ही परिधि पर ठिठका खड़ा। वक्त की किताब बेआहट वरक पलटती चलती है और किसी को कानांेकान खबर नहीं होती कि काल-चक्र के गोल-गोल घूमने, तेजी से आगे बढ़ने या द्वंद्वग्रस्त स्थिति में पंेडुलम की तरह दाएं से बाएं, बाएं से दाएं भटकने की प्रक्रिया शुरु हो गई है। सांसारिकता में लिप्त व्यक्ति बस जीता चलता है और दुखिया दास कबीर जागते-रोते हुए वक्त को साक्षी भाव से शब्दों की दुनिया में अमरत्व दे डालता है। लेकिन कबीर होना क्या इतना सरल है? हर कलाकार कबीर होता तो व्यवस्था की पोषक ताकतों को अपने लिए भाट-चारणों का हजूम क्यों आसानी से सुलभ हो पाता? कबीर होने का अर्थ फक्कड़ वैरागी स्थितप्रज्ञ, जुझारु योद्धा और मानतावादी होना भर नहीं है। कबीर होने का अर्थ है इन सब को रचनात्मक स्पंदन से जोड़ वक्त की आहटों के भीतर छिपे नाद और लिखावट को समझना और लाल की उस लालीमें रंग कर नए मनुष्य की रचना करना। जब तक कृति रचयिता के वर्चस्व और व्यक्तित्व को अपदस्थ कर स्वयं अपना सिक्का न जमाए, तब तक रचना-शक्ति से भरपूर रचना कैसे हो सकती है?

बेशक कसौटी कठिन है। तो भी मुझे इसी पर कैलाश वानखेड़े की रचनाधर्मिता को कसना होगा। दलित लेखन की एक पूरी परंपरा निराला और प्रेमचंद के मुकामों पर क्षण भर रुक कर जोतिबा फुले की रचनाओं पर आ टिकी है। लेकिन कलेजे की हूक है कि कहीं ठहरने नहीं देती। मन बार-बार दौड़-दौड़ कर 730पू0रोम के बाहरी क्षेत्र में सूली पर टंगी अधजिंदा-अधखाई लाशों को एकटक निहार रहा है। गिद्धों के झुंड के बीच खून और दुर्गंध से सनी लाशों को देख कर मितली नहीं आती। गर्म लहू लावा बन कर इन लाशों को जिला देने के जनून में ढल जाना चाहता है। स्पार्टाकस जैसे हर विद्रोही की रग में बह कर वह एक बार फिर अखाड़े में घुस जाना चाहता है। इस बार भूखे शेरों के साथ निहत्थे दो-दो हाथ करने नहीं, न ही अपनी जान बचाने के नाम पर अपने जैसे किसी ग्लेडिएटर को मार कर अभिजन समाज की प्यासी आंखों और मुरादों को ठंडक पहुंचाने के लिए। इस बार वह अपमान, तिरस्कार और मौत के खौफनाक दर्द को अपने आकाओं की आंख में उतार देना चाहता है। न, यह प्रतिशोध का खूनी खेल नहीं। दूसरे के पैर में फटी बिवाई के दर्द की सिहरन दौड़ा देने की मासूम चाहत है ताकि वह दूसरा उसके पैरों की बिवाइयों के सदियों पुराने दर्द की लहर को महसूस सके। घायल की गति घायल जाने’ - मीरांबाई विद्रोहिणी हैं, दमनकारी नहीं। फिर अज्ञेय भी तो कह गए हैं न कि दुख सबको मांजता है। सुख के सरोवर में गोते लगाने वाला सूखी तलैया के दर्द को नहीं जान पाता जो अपने दरके सीने को उघाड़ देने के बाद भी किसी से दो बूंद पानी नहीं ले पाती।

सचमुच, एक और कठिन कसौटी ले आई हूं मैं। स्पार्टाकसकी मर्मबेधी संवेदना, कलात्मक संयम और वक्त को बुनती/वक्त के साथ बुनी जाती बीहड़ सच्चाइयों का दो टूक आख्यान। क्या औदात्य के सारे प्रपंचों को तार-तार कर इस जमीनी क्रंदन को कैलाश वानखेड़े आंसुओं में नहीं, आत्माभिमान की दर्प भरी सर्जनात्मक लड़ाई में उकेर पाएंगे हावर्ड फास्ट की तरह, जहां रचनाकार दृष्टिओझल हो जाता है? सामने रह जाता है अपने ध्येय के लिए लड़ता स्पार्टाकस। न न, प्रकाश-पुंज! जिसकी रश्मियों में है एकाग्रता, दृढ़ता, निर्भीकता, लक्ष्यगत स्पष्टता और मृत्यु को पराजित करती जिजीविषा। कृति इसीलिए तो रचनाहै कि रची जाकर वह रुद्ध और बिद्ध नहीं होती, पल-पल बदलते वक्त के साथ अपने को रच कर नव्या बनी रहती है।

हावर्ड फास्ट भाग्यशाली हैं कि इतिहास ने उन्हें स्पार्टाकस जैसा जांबाज ग्लेडिएटर दिया है और वक्त ने अपनी पुरानी फाइलों को खोल-टटोल कर तिथियों में बंधे विद्रोह की सिलसिलेवार घटनाएं। कैलाश वानखेड़े के पास इतिहास नहीं, पुराण आता है - कुछ पात्रों और आख्यानों के साथ। विद्रोह-कथा कहने नहीं, उत्पीड़न को महिमामंडित करने के हुनर को लेकर। एकलव्य और बर्बरीक शौर्य और न्यायप्रियता के प्रतीक में ढाल कर रास्ते से हटा दी गई शख्सियतें हैं जिन्हें अपनी पीड़ा और आक्रोश के साथ सभ्य समाज के सामने उपस्थित होने की छूट नहीं दी गई। शायद छूट न दिया जाना ही बेहतर रहा क्योंकि मनोहारी छल और प्रवंचना का शिकार होने के बाद स्वयं अपने भीतर की छटपटाहट और कड़वाहट को कहने का मौका कर्ण की तरह मिलता भी तो क्या कर पाते वे? क्या वे नहीं जानते कि सूतपुत्र होने के गुनाह ने कर्ण के पराक्रम और आवाज दोनों का गला घोंटा दिया था? वक्त के अंतरिक्ष से तैर कर कैलाश वानखेड़े के पास पहुंची है एक हूक जिसे सवाल बना कर प्रस्तुत करते हैं वे कि ’’जो हमें नहीं जानता, नहीं पहचानता, वही हमें सत्यापित करता है। उसी न जानने वाले के दस्तखत से हमें जाना जाता है। कभी-कभी लगता है कि ये कौन हैं, कहां से आए हैं जिनके पेन से ही तय होती है हमारी पहचान?’’ इसलिए अनायास नहीं कि उनके यहां सवाल की टंकार नायक का दर्जा पाती है और इस प्रकार कथाकार के तौर पर वे कथा-संरचना की पहली रूढ़ि को अनायास तोड़ जाते हैं। चूंकि सवाल उनका नायक है, इसलिए कहानी-दर-कहानी असहमति और विरोध का सिलसिला आगे बढ़ाता हुआ विद्रोह में संघटित हो जाता है - ’’इंतजार वाले अगर हाथ में हाथ डाल कर एक चेन बना लें तो?’’

कैलाश वानखेड़े जानते हैं यदि सवाल नकार और दिशाहीनता की ओर कदम बढ़ाने लगे तो प्रतिशोध में विघटित होकर अपनी अर्थवत्ता स्वयं खो बैठता है। अपने से एक पीढ़ी पुराने सहयात्रियों की साहित्य-यात्रा का हश्र वे देख चुके हैं। साथ ही पा चुके हैं यह ज्ञान कि मंडल-कमंडल के इर्द-गिर्द भुनगे की तरह मंडराते आंदोलन राजनीतिक लाभ और सुर्खियां बटोरने की फौरी युक्तियां हैं, सवालों के जवाब ढूंढने की क्रमिक अवस्थाएं नहीं। दरअसल सवालों के जवाब बाहर से  पाए ही नहीं जा सकते। उन्हें रोजमर्रा की जिंदगी के बीचोबीच टंगे हुए देखना और जानना जरूरी होता है। अपमान की बिलबिलाती मार के कारण भीतर भले ही वे निरीह हैं, लेकिन सबद की चोटऔर सबदके मर्म दोनों को समझते हैं। ’’शब्दों की मार कितनी खतरनाक होती है - यह वही जान सकता है जिसने सही हो शब्दों से प्रताड़ना। जिसके झुलस गए हों शबदों की आड़ में तमाम सपने। शब्दो, तुम प्रताड़ना और पीड़ा के लिए क्यों हथियार बनते हो?’’ सवाल चूंकि नायक है और शब्द-लीला को खूब समझता है, इसलिए सचेत होकर अपने व्यक्तित्व में एक मानवीय गुण तो भर ही लेना चाहता है कि भाषा का असंयत, आक्रामक और अश्लील प्रयोग वह न करे।

कैलाश वानखेड़े साहित्य के स्वतःस्फूर्त चरित्र में सजगता और सचेतनता की बिनाई करना बेहद जरूरी समझते हैं। यह वह खूबी है जो प्रवंचना और दमन की परंपरा को खत्म करने के लिए हिंसा और बहिष्कार की सरल-इकहरी कार्यशैली को नहीं अपनाती, बल्कि चेतना को मनुष्य की गरिमा में रूपायित कर संवाद की पहलकदमी करती है। वे जानते हैं ’’होने वाले अपमान का विचार ही अपमापित कर देता है। होने के बाद तो वह पीड़ा से एकाकार हो जाता है। चूंकि पीड़ा ’’गीली लकड़ियों की तरह’’ कसैले धुएं और कड़वे आंसुओं से मन के आंगन को भर देती है, इसलिए वे परपीड़ा के साम्राज्य का विस्तार नहीं करना चाहते। एक शिष्ट-सौम्य दृढ़ता के साथ अपने प्रतिरोध को दर्ज करते हैं - ’’जब मुस्कराहट भरे मेरे चेहरे को क्लर्क ने देखा था तो वह परेशान हो गया था। दूसरों का हंसता चेहरा खुशी नहीं देता ़ ़ ़ मेरा काम हो या न हो, लेकिन क्लर्क से अभद्रता का बदला लेने की हसरत ने मुस्कराहट बढ़ा दी। गोया कोई यंत्र लगा हो कि क्लर्क की परेशानी उसके चेहरे को बदरंग जा रही थी, उतनी ही मात्रा में मेरे चेहरे को रंगीन बना रही। खेल अपने चरम पर आ गया। उपेक्षा और उपहास क्लर्क को परेशान कर रहा था। धैर्य रखना है मुझे।’’

घनघोर असहनशीलता के युग में धैर्य रखने की सलाह पलायन या सब्मिशन के लिए नहीं, एक स्ट्रैटजी के तहत है। धैर्य चेतना को प्रखर बनाता है और अपनी सीमाओं-अपेक्षाओं को थहाने का विवेक भी देता है। अपने अधिकारों को पाने की लड़ाई तब तक संभव नहीं जब तक मनुष्य के रूप में आत्मादर का भाव अर्जित न करे व्यक्ति। व्यवस्था से विरोध है तो सबसे पहले आंखों पर चढ़े व्यवस्था के चश्मे को तोड़ना होगा। घीसू, रमुवा, गोबर, चतुरी, कलुवा नामों में भी वर्णव्यवस्था! मानो पुकारने के नाम व्यवस्था के कोड़े बन कर व्यक्तित्व पर बरसने लगते हैं और फिर लद्दू खच्चर बना कर मनचाही जोत में जोतने के लिए प्रशिक्षित कर देते हैं। सवर्ण समाज का संस्कार ही यदि सभ्य समाज है तो कैलाश वानखेड़े अपने पात्रों को उसी जमीन पर उसी नाम-पहचान के साथ उतारते हैं - रत्नप्रभा, प्रज्ञा, तेजस, समर, असीम, मिलिंद। यह दूसरों की जमीन को हथियाने या अपनी हथियायी जमीन को पाने की रस्साकशी नहीं, सजग आत्मविश्वास के साथ सबकी साझी जमीन पर सबके साथ चलने का अधिकार है। एक गहरी आंतरिक इच्छा की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति!

बेशक, व्यवस्था के दबावों को ढहा देने की ताकत आ जाए तो अपने को एसर्ट करना सरल हो जाता है। ’’पैसा मिले, नीं मिले, लेकिन बात तो सीधे मुंह करनी चाहिए। वो तो मेरे को देखती और काटने लगती’’ - भौतिक लाभ की आकांक्षा नहीं, आत्माभिमान का भाव। इस मोड़ पर आकर कैलाश वानखेड़े के सवाल-नायक के पास शिकायतें हैं, असहमतियां हैं और मनोग्रंथियांे से उबर कर अपनी आवाज को पुल बनाने का जज्बा भी है। उल्लेखनीय है कि इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में अपने पात्रों को विन्यस्त करते हुए कैलाश वानखेड़े जब जोतिबा फुले के सामाजिक आंदोलन को अंबेडकर के राजनीतिक संघर्ष के साथ जोड़ते हैं, तब वर्ण-व्यवस्था की अमानुषिकता अपने सांस्कृतिक संदर्भो के साथ पूरी तरह उभर कर सामने आ जाती है। संवेदना की तरलता और आत्ममंथन की प्रखरता से सिरजे हुए हैं कैलाश वानखेड़े के पात्र। व्यवस्था से टकराने से पहले अपने को सौ-सौ निगाहों से जांचने की तदबीरें हैं ताकि पैरों तले की जमीन पोली होकर न दरके। हमऔर वेका विभाजन यदि इतनी स्पष्ट इबारत में समाज की स्लेट पर लिखा है तो क्या उसके प्रति उत्पीड़ित वर्ग के विद्रोह के स्वर उसमें नहीं जुड़े होंगे? फिर वे उसे अनदेखा कर तू तू’ ’मैं मैंका रार क्यों बढ़ाए जा रहे हैं? ’सत्यापितकहानी का वह मरियल सा आदमी भाऊ साहेब इंगले अड़ा है अपनी बात पर कि उसके गांव चापोरा में कोई महारवाड़ा नहीं। वह बौद्धवाड़ा में रहता है और यही उसका स्थायी पता है। फिर कैसे कोई नर्स (या सरकारी आदमी) उसके सत्य को झुठला कर उस पर अपना मनोनुकूल सत्य चस्पां कर दे कि नहीं, उसकी पहचान है - महारबाड़ा, चापोरा। उसका यह कृत्य महज एक व्यक्ति द्वारा एक अन्य व्यक्ति की पहचान को बेदखल करना नहीं, एक प्रभुत्वशाली वर्ग द्वारा इतिहास की किताबों में धधकती राजनीतिक चेतना को दफन कर देने का षड्यंत्र है जिसने उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी को समानता-स्वतंत्रता-बंधुत्व की संवेदना से सींचने का काम किया। दरिद्रता और अभावों को अपनी नियति मान उनसे जूझने का हौसला रखता है भाऊ साहेब इंगले। डाॅक्टर द्वारा दो दिन बाद दिखाने की टरकाऊ सलाह देकर उसकी गर्भवती पत्नी को हस्पताल में न भर्ती किया जाना, रेलवे स्टेशन पर गर्भवती पत्नी और मां के साथ इंतजार के दो दिन काटना; दर्द से बिलखती पत्नी का अस्पताल के गेट के बाहर ही बच्चे को जन्म देना; ट्रक लेकर गए भाऊ इंगले का चालान हो जाने पर मालिकों द्वारा कई-कई दिन छुड़ाने की पहल न करना - भाऊ साहेब इंगले इन सब बातों को बदनसीबी के खाते में डाल कर सब्र कर सकता है; लेकिन अपने लिए तुम लोगसंबोधन नहीं सुन सकता। तुम लोगयानी समाज के शरीर से काट कर फेंक दिया गया कोई अनावश्यक या घृणित हिस्सा - छिंगुली जैसा। यदि वह काट कर फेंक दिया जाने वाला ऐसा ही कोई घृणास्पद अंग है तो क्या वह इस देश का नागरिक नहीं? यदि नागरिक है तो उसके संविधान-प्रदत्त अधिकारों पर आक्रमण करने वाला व्यक्ति क्या दंडनीय नहीं? उस व्यक्ति के पीछे यदि समूची व्यवस्था की ताकत है तो क्या वह व्यवस्था ही कानून के कटघरे में न ले जाई जाए? ये इंगले के सवाल नहीं, मंथन की क्रमिक कड़ियां हैं। कहानी में शब्दबद्ध रूप में नहीं आतीं, एक साफ पारदर्शी समझ के तहत शिकायत - असहमति और विरोध का सम्मिश्रित रूप - बन कर आती है कि ’’मेरे को ये बोलना कि वो नरस क्यों नीं मानती हमारी बात? जो हम कहते, वो क्यों नीं लिखती? क्यों नीं मानती हमारी बात को सच्ची? वो तय करती हे कि क्या लिखना है। किसने दिया है ये हक किसने?’’

मैं यहां अनायास थम जाती हूं। न रिरियाहट, न खिसियाहट, न तिल-तिल दम तोड़ने की व्यर्थता। मरियल से भाऊ साहेब इंगले में इतना दम कि निश्चयात्मक दृढ़ता के साथ उस रुके हुए आदमीको रुकने को कह कर अपनी शिकायत दर्ज कराने हाशिए से मुख्यधारा में प्रविष्ट हो जाए। भाऊ साहेब इंगले क्या जोतिबा फुले हैं या उनकी कहानी तृतीय रत्नका पात्र जोगाई, जिसने सपत्नीक जोतिबा फुले की रात्रिशाला ज्वाइन कर दमन और अन्याय के इतिहास की बारीक समझ और क्रांति की संतुलित  चेतना अर्जित कर ली है? लेकिन उससे पहले तो वह निरा गंवार है - यदि गंवार को अंधविश्वासी, कर्मकांडी, धर्मभीरु, बेवकूफ अर्थ में संकुचित कर दें, तो। गर्भस्थ शिशु की विपरीत ग्रह दशा का डर दिखा का ब्राह्मण ज्योतिषी जोशी इस मूर्ख दम्पत्ति से उसकी कुल संपत्ति ही नहीं ठगता, वरन् तेईस ब्राह्मणों को घी-रोटी का भोज कराने की अनिवार्यता दिखा उन्हें महाजन के कर्ज तले भी झोंक देता है। दूसरों की आह-कराह से उसे क्या? उसकी अपनी पांचों उंगलियां घी में होनी चाहिए और सिर कड़ाही में। ठीक कहता है विदूषक (क्या यह विदूषक जोतिबा फुले नहीं जो ब्राह्मण और कुनबी दम्पत्ति की बातचीत को परिप्रेक्ष्य देने स्वयं कथा में उपस्थित होते रहते हैं?); कि ब्राह्मणों ने अपने मन से ग्रहों को पैदा किया है, लेकिन अपने अज्ञान में मग्न कुनबी दम्पत्ति को उन ढोंगियों की बातें उपदेश सरीखी लगती हैं। ब्राह्मण मैंऔर वहके भेद को ब्रह्म-विधान के रूप में तर्कसंगत ठहराते हैं; और कुनबी दम्पत्ति बिना विचार किए उस फर्क को अंगीकार करते हुए कोने में सिकुड़ते चलते हैं। इतना अधिक कि आत्मानादर और आत्मपीड़न जिस अनुपात में उनका स्वभाव बन गया है, उसी अनुपात में ब्राह्मणों की पूजा करना उनका धर्म। इसलिए एक ठंडे स्वीकार के साथ उस फर्क को गहराने में अपना योगदान भी दिए चलते हैं कि ’’हम लोग केवल भेली के पानी के साथ रोटियां खाते हैं’’, उनको ’’खटाई की तरह पेट भर के घी खाने को चाहिए।’’

मुझे जोगाई और उसकी पत्नी में कभी जोखू और गंगी (प्रेमचंद की कहानी ठाकुर का कुआंके पात्र) दिखाई देने लगते हैं, कभी दुखी चमार और उसकी पत्नी झुरिया (सद्गति)। हमऔर वेका विभाजन समाज में विषमता का प्रसार ही नहीं करता, दोनों पक्षों से मनुष्यहोने की पहचान छीन लेता है। एक पक्ष को आतंक, त्रास और हैवानियत का प्रतीक बनाता है तो दूसरे पक्ष को भय और अभाव से सिहरती पिंजर काया। ठाकुर का कुंआकहानी सिनेमोटोग्राफी इफेक्ट के साथ आंख के सामने घूमने लगी है। आखिरी दृश्य में कुएं की चरखी से रपट कर कुंए के पानी में छप्प से औंधे मुंह जा गिरी बाल्टी अपनी सांसें बचाने के लिए डुब्ब-डुब्ब पानी में डूब-उतरा रही है। आत्मरक्षा के प्रयास में इतना शोर कि दूर-दूर तक पसरी रात की निस्तब्धता जाग कर पांचों इन्द्रियांे समेत पानी-चोर को तलाशने लगी है। गंगी के भीतर का आतंक बाहर रात के अंधेरे में और भी घनघोर हो गया है। उसके अपराध-बोध ने उसकी मानवीय इयत्ता को चोरमें तब्दील करते ही ठाकुर को खुर्राट हवलदार के बेपनाह हक सौंप दिए हैं। गंगी की भय-कातरता ठाकुर की ताकत है। ठीक वैसे ही जैसे ब्राह्मण के द्वार के बाहर दुखी की लाश को घेर कर चमारटोले की स्त्रियों का छातीकूट रुदन और धोती में मुंह छुपाए पड़े पुरुषों का पलायन न ब्राह्मण महाराज की सफेदी को दागदार कर पाता है, न किए गए अन्याय की कैफियत देने को मजबूर कर पाता है। अपने आदर्श स्वरूप में साहित्य पाठक के पूर्वाग्रहों को तोड़ कर उसे अधिक संवेदनशील और मननशील बनाने का दावा करता है, लेकिन सत्य यह है कि संस्कारों के खोल में बंद पाठक के एक बड़े वर्ग को वह अपनी जमीन से रंच भर भी हिला नहीं पाता। इसलिए जब-जब इस पाठक वर्ग के संस्कारों को चोट लगती है, वह लिहाफ’ (इस्मत चुगताई) या खोल दो’ (मंटो) के बहाने कोहराम मचाने लगता है। गिद्ध-कौओं के सुपुर्द करने के लिए दुखी चमार की लाश को घसीट कर ले जाता पं0घासीराम उसके भीतर के अभिजात दंभ का मूक समर्थन पाकर वर्णव्यवस्था को बदल डालने की टंकार नहीं बनता।

मैं अनायास चौंक जाती हूं। यह जो साहित्य को समाज का दर्पण कहने की परंपरा चली आ रही है, वह क्या महज इस तथ्य को प्रतिपादित करने के लिए कि व्यवस्था के वर्चस्व के बरक्स हाशिए पर धकेल दी गई अस्मिताओं की नतशिर स्थिति ही सनातन सत्य है? अपने पाले में दुबक कर नतशिर रहें तो पालतू बना सकने वाली पशु-प्रजातियों के रूप में आइडेंटिफाई कर उन्हें कृपापूर्वक भालू-वानरनाम दे दिया जाता है, अन्यथा अपनी मनुष्य अस्मिता की लड़ाई के लिए बराबर के दमखम के साथ ललकारने लगें तो राक्षसकह कर अ-मनुष्यसाबित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जाती। मजबूत दावों के बावजूद साहित्य का सृजन/पाठ अखंड समग्र मनुष्य की परिकल्पना के जरिए नहीं होता। रचनाकार/पाठक देश-काल में अपनी सुनिश्चित पोजीशनिंग के साथ परतों के भीतर छिपे अर्थ को पकड़ता-गुनता-संप्रेषित करता है। पोजीशनिंग ही किसी रचनाकार को जोतिबा फुले बनाती है और दूसरे को प्रेमचंद या निराला। एक की रचनाओं में आग और गति का तूफान लाती है, दूसरे की रचनाओं में आंसुओं के सैलाब के साथ निराशा-हताशा और जड़ता का घटाटोप। प्रेमचंद जिस बिंदु पर अपनी कहानियां खत्म करते हैं, कैलाश वानखेड़े वहीं से अपना कथा-वितान बुनना शुरु करते हैं - नितांत दूसरी दिशा में घूमते हुए। जोतिबा फुले मानो दोनों की दृष्टियों का समाहार कर शोषण और विभाजन की क्रूर व्यवस्था को अथ-इति की क्रमिक पड़ताल के साथ साक्षात् कर देना चाहते हैं।

सृजन की अनेकायामी संभावनाओं के धनी कैलाश वानखेड़े की कहानियों का एकल पाठ मेरे लिए संभव नहीं, और समकालीन हिंदी दलित लेखन परंपरा में रख कर मैं उन्हें समझना नहीं चाहती। शायद इसलिए कि अपनी ही परंपरा से बहुत दूर जाकर वे प्रयासपूर्वक स्वयं को उसके प्रभाव, लक्ष्य और शैली से मुक्त करने में जुटे हैं क्योंकि  जानते हैं ठोस सामाजिक संदर्भों का बयान करने वाली कहानियां अक्सर अन्यको प्रतिपक्ष में खड़ा करने या खुद प्रतिपक्ष बनने की चेष्टा तक सीमित हो जाती हंै।’’ कैलाश वानखेड़े की ताकत उनके अनुभव नहीं, विवेक की सान पर चढ़ा कर जीवनानुभवों को अंतर्दृष्टि में विकसित करना है ताकि नैतिक मूल्यों का क्षरण करती हर बेहयाई को सवाल के कठघरे में खींच कर लाया जा सके। प्रेमचंद के लिए साहित्य यथार्थ का यथातथ्य चित्रण हो सकता है, कैलाश वानखेडे के लिए नहीं। यथार्थ की खुरदरी जमीन को सर्वग्रासी दलदल में विघटित करती ताकतों के साथ उन्हें लोहा लेना है, इसलिए वे मुझे जोतिबा फुले के नजदीक जान पड़ते हैं। फर्क इतना है कि चिंतक-सुधारक फुले के पास सर्जनात्मक कौशल जरूरत भर नहीं है। कैलाश वानखेड़े की तरह एक संयत संजीदगी के साथ आक्रोश और जुगुप्सा को धधकते ज्वालामुखी में ढालना वे नहीं जानते। लेकिन कहन की कसक को हर तरह की सपाटबयानी से बचा ले जाकर मिशन में ढालने का हुनर तो जानते ही हैं। फुले के जोशी जी (तृतीय रत्न) प्रेमचंद के पं0घासीराम (सद्गति) और विप्रजी महाराज (सवा सेर गेहूं’) जितने क्रूर नहीं हैं, लेकिन फिर भी फुले उन्हें बख्शने केा तैयार नहीं। प्रेमचंद की तरह विदीर्ण हृदय के साथ वे रोने नहीं बैठते, ब्राह्मण वर्ग की क्रूरता को शब्दों में बांध कर जन-जन तक पहुंचा आने का जतन करते हैं। विदूषक की भूमिका में मानो हर एक को बता कर वे उसकी सहमति भी बटोर लेना चाहते हैं कि ’’साहूकार भी कर्ज देकर सुविधा से किस्त के हिसाब से पैसा वसूल करते हैं, लेकिन जोशी जैसे लोग यमराज की तरह पीछा करके बड़ी बेसब्री से लेते हैं; कि नहीं?’’ (जोतिबा फुले रचनावली, भाग 1, पृ0 30) यह फुले की रचना-शैली की पहली पायदान है। उनका आत्यंतिक लक्ष्य उपदेश देना नहीं, पहले जोगाई जैसे दलितों का उद्बोधन करना है और फिर उन्हें जुझारु रणबांकुरों के रूप में प्रशिक्षित करना। फुले के पास अपना पक्ष मजबूत करने के लिए न कोई कानून है, न संविधान। है तो मनुवादी शास्त्र जो उनके हौसलों को पस्त करने का बीड़ा उठाए है। इसलिए पादरी (अंग्रेजी राज के कानूनों, कल्याण-कार्यक्रमों और सुविधाओं का पुंजीभूत रूप) के पास जाना उनकी मजबूरी है जो समानता के साथ-साथ शिक्षा का आलोक देकर उनके भीतर की हीन ग्रंथियों और अपराध बोध को खत्म करने का प्रयास करता है। शिक्षा का प्रसार समाजसुधारक फुले का बुनियादी एजेंडा है। इसलिए वे विद्रोह को आवेशजनित तोड़-मोड़ में नहीं, वैचारिक क्रांति के जरिए लाना चाहते हैं। फुले कथा का क्रमिक विकास करने की कला नहीं जानते, कथ्यगत अभीष्ट को संप्रेषित करना जानते हैं। इसलिए जोशी जी के चंगुल में फंस कर अपने आपको जिबह करता जोगाई पादरी के सान्निध्य में मानो अपना अंतर्मन खोलने लगता है। कीड़े की तरह रेंगती अमानुषिक परिस्थितियों के बीच सुरक्षित वर्तमान और बेहतर भविष्य की कामना - जोगाई सोलहों आने आम आदमी जैसा आदमी है। ’’बड़ी-बड़ी प्रतिष्ठा पाने वाले लोगों को जब हम अपनी आंखों से देखते हैं, तब हमारे मन में पढने की भावना क्या जागती नहीं होगी? नहीं नहीं, हमारे मन में हमेशा यह आता है कि हमको भी विद्वान होकर तहसीलदार तो होना ही चाहिए, लेकिन यहां के ब्राह्मण पंडितजी के षड्यंत्र को आप क्या कहेंगे?’’ (महात्मा जोतिबा फुले रचनावली, भाग 1पृ0 40) कौन कहता है जोगाई ऐतिहासिक चेतना से सम्पन्न नहीं? उसके इस सवाल में क्या वे तमाम अंतध्र्वनियां नहीं गुंथीं जो वेद-पाठ की कौन कहे, वेद-श्रवण के अपराध में कानों में गर्म पिघला सीसा उंडेल देने की परंपरा की साक्षी रही है? ऐसे में जब वह भगवान की मूर्तियों को तहस-नहस करके ईश्वर और ब्राह्मण दोनों के अस्तित्व को धूल में मिला देने का आह्वान करता है, तब वह कथा-चरित्र के रूप में भले ही अविश्वसनीय जान पड़े, लेकिन सत्यशोधक समाजकी रचना की पक्षधरता तो कर ही जाता है। उसके विद्रोह में यदि फुले के विद्रोह की स्वतःस्र्फूतता, दिशा और प्रखरता है तो महज इसलिए कि वे साहित्य को सचमुच मशाल बनाना चाहते हैं। विभीषिका को नाइटमेयरबनाने से निष्क्रमण के रास्ते नहीं खुलते। गंगी की असहायता को विकल्पहीनता का पर्याय बना कर प्रेमचंद कठिन-कठोर यथार्थ का संश्लिष्ट चित्रण अवश्य कर पाते हैं,व्यवस्था की जड़ता और शठता को तोड़ कर जीवन का स्पंदन नहीं बिखेर पाते। निराला के पास भी, प्रेमचंद की तरह, अपने पात्रों को देने के लिए सहानुभूति है, लेकिन वे उनके भीतर उबलते असंतोष को देख भी पाते हैं, और उसे निष्कृति का मार्ग भी सुझाते हैं। जोखू, दुखी, घीसू-माधव, शंकर और हल्कू से काफी अलग है चतुरी चमार। न उतना जड़, न उतना अज्ञानी, न आत्मसंतुष्ट, न निर्लिप्त, न भाग्यवादी, न गैर जिम्मेवार। वह अपने दर्द की जाति भी जानता है और विद्रोह की औकात भी। जमींदार के सिपाही को हर साल एक जोड़ा जूता बेगार में देना उसकी मजबूरी है, लेकिन मुफ्त में अपने श्रम को भेंटदे देने की कसक इतनी इतनी तीखी है मानो अपनी ही देह के चाम का जूता बना कर बेगाने पैरों में पहना दिया हो। अपनी सीमाओं को जानता है, इसलिए बेटे को पढ़ा-लिखा कर आदमीबनाना चाहता है। लगान-डिगरी के खिलाफ अपने दम पर मुकद्दमा लड़ने का जज्बा है उसमें। सब कुछ गंवा कर अब क्या संभाल लेगा वह? हालात बदतर हो जाएं तो जमींदार कुर्की करा कर क्या ले जाएगा उससे - ’’छेदनी-पिरकिया आदि (जूता गांठने के औजार) मालिक ही ले लें’’। (निराला रचनावली, भाग 4पृ0 369) सब कुछ भूल कर कानूनी लड़ाई लड़ने के बावजूद रह-रह कर बेगार की कचोट उसे तिलमिलाती है। जब उसका बनाया जोड़ा दो साल मजे में चल जाता है, तब सिपाही भगतवा और पंचमा से भी हर साल जूता क्यों ऐंठता है? ज्यादा लेकर कोई चमड़े की बरबादी क्यों करे? उपहास को सांत्वना में ढाल लेखक ने उसे शांत करने की कोशिश की है - ’’चतुरी, इसका वाजिब-उल-अर्ज में पता लगाना होगा। अगर तुम्हारा जूता देना दर्ज होगा, तो इसी तरह पुश्त-दर-पुश्त तुम्हें जूते देते रहने पड़ेंगे।’’ चतुरी शांत नहीं हुआ, उद्विग्न हुआ - यह जानने के लिए कि अब्दुल-अर्जमें उसकी देनदारी के रूप में क्या-क्या दर्ज है? निराला कथा में स्वयं कुछ नहीं कहते, धर्मशास्त्रों पर टिकी समाज-व्यवस्था के आधार को खिसका कर दुखी चतुरी के चेहरे पर विजय की हंसी पोत देते हैं - ’’काका, जूते और पुरवाली बात अब्दुल-अर्ज में दर्ज नहीं है।’’ जाहिर है चतुरी की अपने खेत बचाने की लड़ाई अंत तक आते-आते वजूद की जमीन बचाने की लड़ाई बन जाती है। संयम और तटस्थता निराला की विशेषताएं हैं। जोतिबा फुले की तरह वे अपने पात्रों की लड़ाइयां खुद नहीं लड़ते। मुक्ति की आकांक्षा निराला का जीवन-संघर्ष है। इसलिए प्रेमचंद की तरह रोते-धोते हुए वे अपने पात्रों को व्यवस्था की दीवारों के बीच जिंदा दफ्न किया जाता नहीं देख सकते। वे जानते हैं विद्रोह के लिए जज्बा होना जितना जरूरी है, उतनी ही जरूरी है अपनी कमियों की तीखी पहचान। तमाम सदिच्छाओं के बावजूद चतुरी को विद्रोही नायक का दर्जा देने में संकोच कर जाते हैं निराला - ’’वह एक ऐसे जाल में फंसा है जिसे वह काटना चाहता है, भीतर से उसका पूरा जोर उभड़ रहा है, पर एक कमजोरी है जिसमें बार-बार उलझ कर रह जाता है।’’ (निराला रचनावली, भाग 4पृ0 363)

निराला की सहानुभूति में यथास्थितिवाद का पोषण नहीं। वे स्वयं विद्रोही हैं, अतः जानते हैं विद्रोह भीतर की अंतःप्रेरणा से सार्थक होता है, तश्तरी में परोस कर उसे ज्यादा देर तक टिकाए नहीं रखा जा सकता। इसलिए संभावनाशील नायक को रच कर वे उसे अपनी कमजोरियों का संज्ञान कर लेने की डगर पर खुद निकल पड़ने को कहते हैं। बेशक यह कमजोरी अशिक्षा है जो अंधविश्वास के साथ-साथ हठधर्मिता, भाग्यवाद, जड़ता और आत्मतुष्टता को भी ले आती है। शिक्षा अक्षर-ज्ञान या डिग्रियों का संग्रह भर नहीं है, अपने और व्यवस्थाओं के अंतःसम्बन्ध को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित करने की तमीज है। यह ऐसा बिंदु है जहां प्रेमचंद को पीछे छोड़ फुले, निराला और कैलाश वानखेड़े एकमेक हो जाते हैं। प्रेमचंद इन्वाॅल्व हुए बिना समाज-सत्य का जो शब्द-चित्र अपनी कहानियों में उकेरते हैं, निराला उससे सहमत भी हैं, और असंतुष्ट भी। लेकिन जहां ’’चमार दबेंगे, ब्राह्मण दबाएंगे। दवा है, दोनों की जड़ें मार दी जाएं, पर यह सहज साध्य नहीं।’’ (निराला रचनावली, भाग 4पृ0 366)  कह कर निराला सवर्ण वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हुए वस्तुस्थिति से असम्पृक्त हो जाते हैं, वहीं कैलाश वानखेड़े दलित वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में अपनी असहमतियों को दृढ़तापूर्वक रखते हैं कि ’’हम नहीं कह सकते हैं वैसा का वैसा जैसा तुम सोचते हो। हम नहीं मान सकते हैं कि जो तुम कहते हो, वह सच है। तुम्हें लगता है हम भी तुम्हारी तरह सोचें और रहें। अगर न कह पाएं तो तुम कहते हो, हमारे में सौन्दर्य-बोध नहीं है।’’ दृष्टि का फर्क जिस तरह प्रेमचंद को निराला से, निराला को कैलाश वानखेड़े से अलग करता है, उसी तरह सलाम’, पच्चीस चैका डेढ़ सौआदि कुछ कहानियों को छोड़ दें तो कैलाश वानखेड़े दलित-लेखन परंपरा से विच्छिन्न हो अपनी जमीन खुद तैयार करते दीखते हैं। उनकी रचनाओं में आक्रोश दूसरों के दामन पर थूकने की ओछी हरकत बन कर नहीं आता, आत्म-पड़ताल की कठिन साधना बनता है जो पहले अपने भीतर पसरे ब्राह्मणवाद और सामंतवाद को उखाड़ डालना चाहता है। बेशक वे मानते हैं किवर्ण-व्यवस्था खापा (फसल काटने के बाद पौधे का नुकीला हिस्सा जो खेत में रह जाता है) की तरह पैर में धंस कर शरीर को बुरी तरह जख्मी कर देती है, और इसलिए खापाको भूसा बनाने का स्वप्न पालते हैं। लेकिन इसके लिए वे आरोपों-प्रत्यारोपों की मार के साथ प्रतिपक्षी की अस्मिता को रौंदने का मारक रास्ता नहीं चुनते, साझी सहभागिता के साथ संवाद का पुल बना लेना चाहते हैं।

तीन विशिष्टताएं जो कैलाश वानखेड़े को दलित-लेखन परंपरा के मौजूदा स्वरूप से अलगाती हैं, वे हैं - असहमतियों और विरोध को संगठित मोर्चे का रूप देकर अपनी आकांक्षाओं का ठोस एवं सकारात्मक ड्राफ्ट तैयार करना; अस्मिता की इस लड़ाई में संवाद को टूल एवं लक्ष्य की तरह इस्तेमाल करना; और मुस्कान के जरिए परस्पर विश्वास और सम्मान में गुंथे सम्बन्ध का निरंतर विकास करना। ’’जिंदगी, मैं तुझ से बेइंतहा प्यार करती (करता) हूं’’ - रचनाकार की यह आत्मस्वीकृति जीवन के प्रति आसक्ति या लिप्सा बन कर अपने नागपाश में नहीं कसती, निरंतर मनन और परिष्कार के साथ जीवन के संग अपने सम्बन्धों को जानने-संवारने-प्रगाढ़तर करने की प्रेरणा बनती है। ’’पढ़ो कि इतिहास में क्या दर्ज है? पढ़ो कि समाज के ढांचे का निर्माण कैसे हुआ? कैसे बना अर्थतंत्र?’’ इन उद्बोधनात्मक सवालों में व्यवस्था का पर्दाफाश करने की सनसनी नहीं, खरे-कड़े शब्दों में अतीत का हिसाब चुकता करने की उतावली भी नहीं, एक गहरे धीरज और अंतर्दृष्टि के साथ व्यवस्था की साजिशों पर उंगली रखते हुए व्यवस्था को इस प्रकार पलट देना है कि न ऊँच-नीच की गुंजाइश रहे, अन्यहोने का दर्द। ’’तुम लोग! तुम लोग! दुकानदार कहता है तुम लोग! सब्जीवाला कहता है तुम लोग! बोलते वक्त क्या रहता है इनके दिमाग के भीतर? चेहरा, कपड़ा, जूते-चप्पल, जेब, काॅलोनी, घर क्या रहती है दिमाग में जाति?’’ जाहिर है सवाल का पहला कदम इसी कंटीली फांस से स्वयं को मुक्त करना है और फिर पाले को कठिन करते प्रतिपक्षी के सामने विचार के लिए एक बड़ा चुनौतीपूर्ण सवाल प्रस्तुत करना है कि ’’तुम क्यों नहीं भूल जाते कि तुम बामन हो ?’’

कैलाश वानखेड़े की संवेदना आलाप बन कर वक्त और वातावरण को दूर तक सम्मोहित कर लेती है। सतही नजर से देखें तो वे आसानी से घरघुस्सूटाइप के कहानीकार कहे जा सकते हैं। अपने निकट के यथार्थ को ही गुनने-बुनने में तल्लीन। रत्नप्रभा बन कर बेटे की नर्सरी राइम - मछली जल की रानी है - सुनते हैं तो उसमें डूब कर अपने बचपन को नहीं जीते, किनारे खड़े होकर जल की रानी मछली को तड़पते-मरते देखते हैं। सवाल पहले परेशान करते हैं, फिर लहूलुहान कि जीवन की बुनियादी जरूरतों से वंचित कर किसी भी व्यक्ति/वर्ग को तिल-तिल मरते देख कोई कैसे हंस सकता है? क्या नर्सरी राइम्स हमारे भीतर अमानुषिकता के (पदेमदेपजप्रंजपवद) के बीज बोती है जिससे अपनी आदमियत से परे दूसरे के प्राणों का मोल समझना कठिन रह पाता है? यदि हां, तो सवालों और नृशंसता पर हंसने वाली शिक्षा का आत्मरतिग्रस्त चरित्र क्या सामाजिकता का प्रसार कर पाएगा? क्या ऐसी शिक्षा के हाथों नई पीढ़ी को सौंप कर समग्र-संतुलित व्यक्तित्व सम्पन्न नायकों को पाने की कल्पना संभव है जो देखे-भोगे गए सच और ओढ़ाए गए सच में फर्क ही न कर पाए?

बेशक हाशियाग्रस्त समुदाय के यथार्थ को नहीं उकेर पाता है स्कूली शिक्षा का ढांचा। वह सवर्ण सपनों का संवाहक है और अपने अड़ियल चरित्र पर नाज करता हुआ हर असहमति को प्रतिपक्षी की उद्दंडता या उजड्डता का रूप दे देता है। इसलिए कैलाश वानखेड़े यथार्थ से जुड़ी शिक्षा और उसकी गुणवत्ता पर बल देते हैं। सवर्ण और दलित वर्ग के लिए अलग-अलग शिक्षा का विधान करके नहीं, एक साझा पाठ्यक्रम बना कर जहां एक-दूसरे के विपरीत खड़ी जीवन-स्थितियों का आकलन करते हुए उनके मनोविज्ञान को समझा जाए और साथ ही आदान-प्रदान की संभावनाओं के जरिए विषमताओं को खत्म करने का प्रयास किया जाए। लेकिन व्यवस्था तो शिक्षा का दो स्तरों पर बंटवारा करती है - प्राइवेट स्कूल, सरकारी स्कूल। तमाम खामियों, अभावों और जड़ अध्यापकों के पैकेज के साथ चलने वाले सरकारी स्कूल प्रायः दलित वर्ग के लिए चलाए गए शिक्षा-अभियान का प्रतिनिधितव करते हैं। सवर्ण शिक्षा का यह एकांगी पैटर्न विद्यार्थी को यथार्थ के साथ मुठभेड़ कर नए आलोक में चीन्हना नहीं सिखाता, जड़ता और यथास्थितिवाद को रट्टू तोते की तरह हृदय में उतार लेने का प्रशिक्षण देता है। फुले की परंपरा से जुड़ कर कैलाश वानखेड़े जब शिक्षा के बुनियादी ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन की मांग करते हैं तब चतुरी चमारमें निराला की आत्मस्वीकृति मानो शिक्षा को लेकर सवर्ण समाज के मंतव्यों और लापरवाही को उजागर करने लगती है - ’’मैं अर्जुन (चतुरी का बेटा) को पढ़ाता था तो स्नेह देकर, उसे अपनी ही तरह का एक आदमी समझ कर, उसके उच्चारण की त्रुटियों को पार करता हुआ। उसकी कमजोरियों की दरारें भविष्य में भर जाएंगी, ऐसा विचार रखता था। इसलिए कहां-कहां उसमें प्रमाद है, यह मुझे याद भी न था।’’ (निराला रचनावली, भाग 4पृ0 366) सहानुभूति परंपरा का संरक्षण करती है, तटस्थ विश्लेषण नहीं। इसलिए कैलाश मन खोलने वालीशिक्षा के हिमायती हैं। व्यवस्था की साजिशों से लड़ने का जज्बा उनके हर पात्र को रचयिता का व्यक्तित्व देता है जो जानता है लड़ाई में विरोधी पाले भी बनते हैं; जय-पराजय की आकांक्षाएं भी सिर उठाती हैं, लेकिन आत्यंतिक लक्ष्य के तौर पर मानवीय गरिमा की लड़ाई कभी एकव्यक्ति, एक वर्ग, एक समूह या एक जाति की जय/पराजय पर समाप्त नहीं होती। बल्कि वह मनुष्य की अस्मिता के हित में खड़ी होकर हर तरह के वर्ग/समूह/जाति/विषमता के उन्मूलन की लड़ाई बन जाती है। जब तक मुस्कान के जवाब में मुस्कान न लौटाए समाज, तब तक चार वर्णों की हजार रस्सियों के भीतर उलझने वाले धर्मशास्त्र के ठेकेदारोंसे लड़ने का हौसला पाले हुए हैं लेखक।

कैलाश वानखेड़े की भाषा तकरार की भाषा नहीं, आत्म-पड़ताल की भाषा है। वह चीत्कार के उफनते
परनालों में बह कर कीचड़ होती बारिश नहीं, दरकी जमीन की भीतरी परतों तक पहुंच कर उसकी कठोरता और प्यास के साथ मजबूत होती चलती चेतना है - ’’अंधेरे के भीतर का अंधेरा उतना भयानक होता है, जितना ज्वालामुखी के भीतर की आग।’’ उनकी भाषा विचार बन कर जो फसल लहलहाती है, वह अपने मैंको छुपाने या अतिरेकपूर्ण ढंग से दिखाने की विकृत कोशिश नहीं बनती, बेधक सच की तस्वीर बन जाती है जहां करुणा और हिंसा, समर्पण और तिरस्कार सब बेमानी हो जाते हैं। टिका रहता है एक अदद चित्र - अनयाय और दमन की श्रृंखला को राजनीतिक-सांस्कृतिक विरासत के साथ चेतना पर ठकठकाता हुआ - ’’(मामा का) यह अंतर्देशीय पत्र अब कौन खोलेगा? जो खोलेगा, वह उसे कर देगा गीला। ़ ़ ़ पत्र. को खोलते ही बारिश के पानी से भरे घर में तैरते बर्तनों, खाली डिब्बों, फटे कपड़ों के साथ सूखेहुए मामा थे। वे खाली बर्तन थे, फटे कपड़े, सूखी लकड़ी या फिर मरे हुए चूहे - अंतर्देशीय पत्र बता नहीं पाया।’’

विनोदकुमार शुक्ल के गद्य की आंतरिक लय बेआहट कैलाश वानखेड़े की कहानियों में चली आई है। तमाम विडंबनाओं के बीच तिलमिलाती लेखनी के सहारे ज्वालामुखियों की बरसात करना जितना आसान है, उतना ही कठिन है भीतर की जहरीली हवाओं से मुक्त हो जीवनदान देती अमृत-फुहारों से अंदर-बाहर की जमीन सींचना। कैलाश के पात्रों में यह सामथ्र्य है, इसलिए मन और बाहर दो स्तरों पर एक साथ जीते हैं वे - विध्वंस और सृजन का राग गाते हुए। वे जिस क्षण निःसंग आत्मविश्लेषण करने में तल्लीन हैं, उसी क्षण स्पर्श और मुस्कान के साथ आत्मीयता का घेरा भी विस्तृत कर रहे हैं। यह विशिष्टता संवेदना के सहारे भीतर की तिक्तता और कड़वाहट को धो डालने और समूची मनुष्यता को हर तरह की कड़वाहट से बचाने की जद्दोजहद भी बन जाती है जहां दैन्य आत्म-समर्पण नहीं, दिपदिपाता आत्माभिमान मनुष्य होने की पहली शर्त बन जाता है। मनुष्यहोने के इस वरदान को भरपूर पाया है कैलाश के पात्रों ने। ठीक वैसे ही जैसे निराला की कविता राम की शक्तिपूजामें जांबवान रघुबर को विचलित न होने की सलाह देकर आवेश को विवेक से जीतने के एकमात्र विकल्प पर गौर करने की बात कहते हैं। दमन के विरोध में दमन, नकार के विरोध में नकार स्थिति को बदतर बनाने के लिए हैं। जड़ व्प्यवस्था के आमूल उच्छेदन के लिए जड़ता को प्रश्रय देने वाली कुटिलताओं और संस्कारग्रस्तता की बारीक पड़ताल करनी ही होगी। वहीं से उसके रचनात्मक प्रतिरोध की रणनीति निकलेगी और वही सर्जक के तौर पर मनुष्य का परिचय भी होगा। चूंकि सत्ताएं संवाद नहीं करतीं, अतः स्वको सुदृढ़ करने की कोशिश में वे अपने आपको विशिष्ट मानने लगती हैं। कैलाश मानो इस तथ्य की ओर संकेत करते जान पड़ते हैं कि सवर्ण व्यवस्था के खिलाफ खोला गया मोर्चा भी एकांगी और संवेदनहीन दृष्टि रखने के कारण उतना ही जड़, दमनकारी और प्रतिशोधी हो जाता है। इसलिए जब तक अपनी शक्ति’ (लड़ाई) को आराधन’ (अंतःशक्ति जो विवेकशील संकल्पदृढ़ता का दूसरा नाम भी है) बना कर सत्ता और वर्चस्व के लोभ से मुक्त न किया जाए, मुक्ति संभव नहीं। दरअसल प्राथमिक स्तर पर मुक्ति भीतर के मनस्ताप (विकारों) को नष्ट कर जीवन का अभिषेक करने का मूलमंत्र देती है, और फिर उसे मनुष्य मात्र के प्रति प्रतिबद्धता में संकेन्द्रित करती है। स्पार्टाकस के सीने में धधकती आग में इसी दृढ़ता का ताप है। कैलाश इस आंच में रत्नप्रभा के ध्वस्त होते सपनों की बनावट को देखने-बूझने का जतन करते हैं - ’’न चाहते हुए भी उन बूंदों को गीली लकड़ियों के ऊपर डालने और सुलगने की उम्मीदों के बीच क्या स्वाहा होता होगा? तभी जाना मैंने कि पहली बूंद गिनती के पहले शब्द से होकर गुजरती होगी तो वह अपने साथ सुखी घर के सपनों को भी घसीटती होगी। सुख की यह आकांक्षा भी गिरती होगी, जैसे गिरती है आकाश से बारिश की निर्मल मासूम बूंद और कीचड़ में शामिल हो जाती है। अगली बूंद का वक्त आने पर भूल जाता है दिमाग सुख, सुखी जैसे शबदों के मायने और अगली बूंद इसलिए गिरती है कि उसे गिरना ही है, कि तीसरी बूंद धकेल देती है उसे, कि अगला दिन कुछ नया होकर आएगा, इसी उम्मीद के साथ।’’

आरोपों-प्रत्यारोपों का लिजलिजा/उबलता सिलसिला नहीं
, व्यवस्था की विघटनशील सड़ांधभरी परतों का क्रमिक उद्घाटन; और उसके ठीक बगल में अपनी दृढ़ कन्विक्शंस का आरेखन। व्यवस्था की बड़ी लकीर के सामने चुनौती और चेतावनी की असमाप्त अग्निलीक! ’’दूसरी काॅलोनी क्या दूसरा देश होता है?’’ - माचिस की डिबिया जितनी घुटन में अंधेरे और अभाव के ऐश्वर्य के साथ फैली अपनी बस्ती से निकल कर लेखक/मिलिंद (अंतर्देशीय पत्र) जब सभ्य समाजके पक्के-सुव्यवस्थित-विकसित संसार में जाता है तब इस सवाल के जवाब में रचनात्मक हस्तक्षेप की जिम्मेदारी दूसरे देशके प्राणियों की भी हो जाती है, कहने की जरूरत नहीं।
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*देश निर्मोही, आधार प्रकाशन 
 email : aadhar_prakashan@yahoo.com 

एक थका बोझ लिये आता हूँ. ज़िंदगी चालीस की हो गई और अब तक कुछ भी नहीं कर पाया - तुषार धवल

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चालीस की उम्र यानी हम जैसों के लिए ज़िन्दगी के दूसरे या फिर तीसरे हिस्से की ओर क़दम. थोड़ा ठहरने का वक़्त और फिर चलने से पहले एक साँस ले लेने का. एक मनुष्य के अपने निजी इतिहास में चालीस तक कितने इतिहास होते हैं? एक इतिहास मन का, एक देह का, एक प्रेम का, एक परिवार का. पिता की आकांक्षाओं का तो बच्चों के सपनों को अंखुआते देखने का और इन सबके बरअक्स अपना समय या असल में अपने समय के बरअक्स ये सब! छीजती देह, पकता मन और उमगती उम्मीदों के बीच हर हाल में एक अधूरा सफ़र. 
तुषार की यह कविता उसके दख़ल से प्रकाशित संकलन "ये आवाज़ें कुछ कहती हैं"में है. वैसे तो लम्बी कविताओं का वह पूरा संकलन ही विलक्षण है.गहन तनावों और सान्द्र अनुभूतियों की एक विकल काव्यात्मक अभिव्यक्ति जो तुषार ने हासिल की है, वह हिंदी के समकाल में मेरे देखे में अद्वितीय है. 
यह कविता उस उम्र की कविता है जिसमें मेरी पीढ़ी है इस वक़्त और इसका रचनात्मक विस्तार ऐसा कि साफ़ साफ़ अपना चेहरा देखा जा सकता है. "दिन की मजूरी और रात की बागबानी"करने वालों का चेहरा. एक अदृश्य पिंजड़े की ज़द में आज़ादियाँ तलाशते लोगों का चेहरा. रात रात भर जागकर जाने क्या तलाशते लोगों का चेहरा..
तो मुझे चालीस के अनुभव पर अलग से कुछ लिखने की ज़रुरत पड़ी ही नहीं. मैंने तुषार की यह कविता उससे ले ली, ऐसे कि उसकी भी रही और मेरी या फिर हमारी भी हुई.      




एक झुर्री चंद सफेद बाल और आइसोटोप
(बड़े भतीजे कुँवर यशराज सिंह के लिये )


जी हाँ भला चंगा हूँ. दिन की मजूरी करता हूँ और रात की बागबानी.

जैविक विकास क्रम में आदमी से मज़दूर बना. फिर हाँफता हुआ रोबोट. हर हाल में वशीभूत उस अदृश्य अनंत पिंजड़े में स्वतंत्र और उसी में परिभाषा उसकी स्वंतंत्रता की उत्तर आधुनिक औपनिवेशिक समय में जहाँ इतिहास अब खतरनाक माना जाता है और इसीलिय गैरज़रूरी भी  
अपने इतिहास के चालीस साल गिन रहा हूँ और उन चालीस वर्षों में अनगिनत कई और इतिहासीय मिथकों के कई युग गिनता हूँ पूर्वजों की अस्थियों में उस डी. एन. ए. में जाने कब से जीवित था जाने कब तक जीवित ही रहूँगा अनुवांशिक जिजीविषाओं में उद्गार में होने के उछाल में
एक शब्द तिरोहित होता है और यहाँ वहाँ फैल जाता है वाक्य की जकड़ से छूट कर
कवि हो जाता है
नाक से उगे एक सफेद बाल की तरह
छिटका हुआ समय के सौंदर्य बोध से
उसे कितना भी काटो वह रह रह कर बढ़ ही आता है और अपनी पूरी एक नस्ल तैय्यार करता है
उसी आदिम कवि की मज्जा से उगी यह देह और उसका चालीसवाँ साल
दुनियाँ के संग मैं भी इस देह को प्यार से बधाई देता हूँ कि जिसने मुझे रखा है मेरी तमाम सदियों के साथ

कई दोस्तों ने जन्मदिन की पार्टी माँगी है. पत्नी के साथ बैठ कर हिसाब जोड़ता हूँ. जेब से बड़ा निकलता है इज़्ज़त का सवाल.
एक और फोन कॉल बधाई और शुक्रिया का और वही रटे शब्द टेम्प्लेटसे निहितार्थों से बेज़ार बस चंद शब्द जो सिर्फ कह दिये जाते हैं.
फेसबुक पर वैसा ही अगला रेस्पॉन्स. और फिर जोड़ जुगत चालू. जेब देखें या इज़्ज़त.

ओह! यह आईना भी!
आँखों की कोर पर एक झुर्री दिखाता है कुछ सफेद बाल और गंजा होता सिर भी. एक डर्मेटोलोजिस्ट की आवाज़ कानों में गड़ने लगती है: “Sleeplessness, Mr. Singh! You know! आप सोता नहीं है.
चलो अच्छा है,नींद गहरा आता है,अच्छा है,पर उसको एक लेंथ भी तो मँगता है ना. आप सिरफ चार घण्टा सोयेंगा तो कइसा चलेंगा ?बॉडी को प्रॉपर रेस्ट भी तो मँगता है ना ?काइके वास्ते इतना जगता है ?You are a Handsome Man... पण (पर) इतना काम करेंगा और सोयेंगा नहीं तो जल्दी बूढ़ा हो जायेंगा! You know! This is Nature, and Nature has its own Rules!

एक थका बोझ लिये आता हूँ. ज़िंदगी चालीस की हो गई और अब तक कुछ भी नहीं कर पाया.

कुछ कुछ भुलक्कड़ सा भी हो गया हूँ. याद आती हैं वे बातें,“T. D.!Your memory is too sharp Man!”
यह क्षय का प्रथम संकेत है अपनी देह से जूझते हुए...
देह मेरी ! माफ करना,अच्छा रहवासी नहीं हो सका तुम्हारा... रौंद डाला तुम्हें अपनी ज़िद में !

ज़िम्मेदारियाँ और जीने की भूख. इसी के बीच हर परिभाषा.

वही अदृश्य अनंत पिंजड़ा  
जिसकी ज़द में ही आजादियाँ तक़सीम होती हैं  

(2)

एक छिटकी हुई जिजीविषा जो विषय हो सकती है
सृजन के शोध का,शोध के सृजन का      इस व्यवस्था में                   बेवा हुई कल्पनाओं का आत्मदाह
अनुराग नहीं था
उनकी आह मेरे चेहरे पर दरारें खींचती है अपने होने का इतिहास लिखती है जिसे
डॉ. आदिल गाबावाला तुम “Sleeplessness” कहते हो
यह अनिद्रा नहीं जागे रहने की ज़िद है
बहुत कुछ था जिसे होना था
पर
जो नहीं हुआ
नहीं हो सका  

समझौता
बस यूँ ही हो कर नहीं रह जाता डॉक्टर !
वह हर वक़्त अपना हिसाब लेता है.
मुफ्त कुछ भी नहीं है शिव तुम्हारे संसार में,खुद तुम भी नहीं !

इन नींदों को कोई खा रहा है नेपथ्य से
मजूरी कर के लौटा फकीर रात की बागबानी करता है
जटिल सितारों के समूह गान में अपना स्वर उछालता है कि शब्द मेघ हों एक दिन धरती पर बरसें
टूटें तप्त उल्काओं से मिस्र साइप्रस वियतनाम में लड़ें हिरोशिमा के मृतकों का आखिरी मुक़्क़म्मल मुक़दमा तियानमेन चौराहे पर
उसके काम की फेहरिस्त नहीं रुकती उसे बहुत चलना है अभी नंगे पैर बहुत दूर तक
वही सो जायेगा तो जागेगा कौन ?

चालीस बीत गये और अब उससे कुछ कम बचे हैं उसी में होना है उसे पूरी दखल से
वह  बुलबुला नहीं है सतह के विलास का
वह काल की खोपड़ी में तिरछी धँसी एक कील है
तुम्हारा चाँद टूटे काँच का टुकड़ा है

वही सो जायेगा तो जागेगा कौन ? 

होना तो बहुत कुछ था डॉक्टर जो नहीं हुआ
पर यह रसायन ही ऐसा है !

(3)

एक झुर्री चंद सफेद बाल और इस सबके साथ इस पूरी प्रणाली में एक आइसोटोपमैं
चालीस साल से वहीं टँगा हुआ हूँ कहीं नहीं के मध्य
देश काल की विपरीत रति *में  
त्रिशंकु,शिखण्डी या अपुरुष या भेद-अभेद के पार अष्टम चरम की खोज में  
इस तीसरे पहर भी जब चाँद थक चुका है
यार दोस्त पार्टी की शराब पी कर जा चुके हैं उधेड़े गये गिफ्ट रैपर्स पंखे की मंद हवा में इधर उधर सिर झुला रहे हैं मैं ढूँढ़ रहा हूँ शब्द कैनवास पर छाये शून्य को भरने के लिये
उसी शून्य से कई आँखें मुझे घूरती हैं जिनकी अपेक्षा मैं पढ़ पाता हूँ उनकी फुसफुसाहट सुन पाता हूँ उन निज़ामी मंत्रणाओं को भी सुलह की आड़ में जो उन आँखों में गूँगे खौफ की सिल्लियाँ उतारती हैं जो सूरज की रोशनी में सामान्य मान लिया जाता है टी वी की बहसों और फेसबुक के आंदोलनों में तमाम ‘Like’ और ‘Share’के बीच
कोई ममता से भर कर कहता है लौट जाओ अब बागबानी मत करो रात की थोड़ी नींद बचा लो बुरे वक़्त के लिये
अभी और भी झुर्रियाँ आयेंगी समय से पहले सर गंजा हो जायेगा स्वर थरथराने लगेगा थोड़ी ताक़त बचाये रखो भुजाओं की नये मकबरों के लिये पुराना बहुत कुछ ढाहना होगा
मज़ारों पर जब क़लमे पढ़े जायेंगे गुज़र जाने देना अपने ऊपर से बगूलों के झुण्ड को खुले आकाश के अनंत मुँह में
हमारी दशा दिशा वही तय करेगा
जिसकी भूख में सबसे अधिक ताक़त होगी

(4)
उम्र की कई मज़ारें लाँघ आये इस भूख को लिये यहाँ तक 
चालीस के गाँव में जहाँ अटपटा अनजाना बहुत कुछ है  
उसके प्रवेश द्वार पर कोई प्रहरी नहीं है सिवा मोटे अक्षरों में लिखे इस रिपेलेंटशब्द के :क्षय के संकेत
पढ़ते ही जिसे हर कोई लौट जाना चाहता है वहीं उसी पिछले पड़ाव पर लेकिन
लौटने के संकेत मिटा दिये गये हैं... सीट बेल्ट बाँध लें !
अचानक उस अवश्यमभावी अंत की दहकती आँखों में अपनी छाया पिघलती नज़र आती है
अचानक किसी तेज बहाव में जैसे अँगुली से पकड़ छूट रही हो देह की वह मुझसे छूटती जा रही है और मैं पूरी ताक़त से उसे पकड़े रखना चाह रहा हूँ “ ठीक से पकड़े रहो छोड़ना मत बह जाओगे !”

चालीस के गाँव ऐसे ही पहुँचते हैं छूटते पकड़ते

वहाँ के वासी जो कई सदियों से वहीं रहते आये हैं ढाढ़स बँधायेंगे
अब ही तो ज़िंदगी खुलेगी खिलेगी
अब दुनियाँ नज़र आयेगी साफ साफ और अपने पत्ते ठीक ठीक खेल पाओगे तुम
देखो ! तुम्हारी बोतल जो ज़रूरत से ज़्यादा भरी हुई थी अब बिल्कुल सही माप तक भरी है और तुम्हारी रातों में भी बेखटका दम भरपूर भरा है

दम लगा लो दाम लगा लो  
यह चाम का खेल है बाबू !

चालीस का चारा
चखा नहीं सो बे-चारा !!     

कितने दिलासे हैं मौत की दहशत में
धर्म दर्शन पंथ कण्ठ
मृत्यु की प्रति सृष्टि हैं
उसी की छाया में उसी से सम्वाद

ये दवाइयाँ तुम्हारी यह सलाह भी डॉ. आदिल गाबावाला
मुझे याद दिलाते हुए कि ब्लड प्रेशर की गोलियाँ सुबह नाश्ते के बाद हर रोज़ लेनी है
यह दिलासा भी कि यह तो बड़ा कॉमन है आज कल ,यू नो ! द लाइफ स्टाइल थिंग... !

मृत्यु के कितने हाथ हैं और उन पर लकीरें कितनी
श्मशान जा कर लौट आते हैं जीवित अपने केंद्र में
जीवन का जड़ से द्वंद
अमर्त्य आकांक्षाओं का अदम्य आत्म निर्वाण
धर्म दर्शन आस्था पर्व सभी चालीस के प्रवेश द्वार पर ही सनातन काल में ठिठके हुए हैं
और वहीं उसी जगह यह जगत भी वैसा ही खड़ा रह गया है उसी मनःस्थिति में अब भी युवा पर पका हुआ मृत्यु के खिलाफ अपनी रचना उगाहता हुआ अपनी अमरता गढ़ता हुआ
वह बूढ़ा नहीं होता जीवन के प्रति अदम्य आशाओं से भरा हुआ
वहीं ईश्वर वहीं धर्म वहीं दर्शन सदियों का बूढ़ा पर चालीस के लगभग ना जाने कब से खड़ा
उसे उस प्रवेश द्वार में नहीं जाना है क्षय के संकेत” पढ़ लेने के बाद

धरती प्रवेश कर गई है उस गाँव में और विश्व भी
पर जगत वहीं खड़ा है
चालीस का चारा चरता
जहाँ मैं हूँ अभी
और हम सब जहाँ से कुछ पहले ही रुक जाना चाहते थे
उस प्रवेश द्वार से ठीक थोड़ा पहले  

अब चाँद ढल चुका है
और पंछी कुनमुनाने को हैं
ब्रह्म बेला का प्रथम संकेत हवा में कहीं दूर से आती फूल की कोई खुशबू
एक खुशबू मेरे इन-बॉक्स में चोरी छुपे भेज दी गई है
सुदूर किसी इतिहास से पारिजात की  
सबकी आँखें बचा कर भेजा गया एक संदेश शुभकामना का
इस अन-नोन सेंडरको मैं शायद पहचान गया हूँ
कुछ झूम उठता है मेरे भीतर झनक उठता है इत्र महसूस करता हूँ अपने हर ओर

आइये श्रीमान ! चालीस के गाँव में स्वागत है आपका !


(5)
साबुन से जुड़े ये रंग गाढ़े नहीं होते
बह जाते हैं
पिछली आग की सिर्फ राख़ बाकी है
जो बदनुमा था मुँहलगा था मिटा दिया गया
अब उसे इतिहास का सुनहरा काल कहते हैं कि उसी से वर्तमान सुंदर लगता है
कुछ बुलबुलों की तलाश है
जो छाप छोड़ सकें
नहीं मिलते
घुल जाते हैं इन साबुनी रंगों में
खुश नसीब हैं देह बदल लेते हैं
इन्हें चालीस की वंचना नहीं मिलती
इन्हें अहं अपना नहीं गढ़ना होता
इन्हें नहीं जीतना होता है खुद को तमाम पराजयों के बाद भी
ये बलिष्ठ भुजाओं पर तावीज़ बने रहते हैं ... साबुन से जुड़े ये रंग.

ढूँढ़ता हूँ एक शब्द
बुलबुले से इस जीवन में जो अपनी छाप छोड़ सके
नहीं मिलता वह शब्द

“हलो ! जी जी ! आशीर्वाद है. धन्यवाद. प्राणाम !”  

फोन फेसबुक झूठे हैं
झूठी हैं औपचारिकतायें
और ये शब्द भी झूठे हैं 
जो गढ़ दिये गये हैं किसी के भी इस्तेमाल के लिये कि जैसे बंदूक बम बारूद या साबुन
और तभी मैं कैनवास के शून्य में शब्द खोजता हूँ जो नहीं मिलता  
शब्द
जिसका पासवर्ड सीधा आत्मा में दर्ज़ हो
नहीं मिलते हैं शब्द नहीं मिलती है वजह होने की और ना ही कविता की
एक गाँव जो टूटा हुआ है बिखरा मेरे हर गाँव सा
जिसके बाहर लिखा है
क्षय के संकेत
वहाँ ईश्वर धर्म दर्शन जगत कब से पसोपेश में खड़े हैं
कि ठीक वहीं से विघटन शुरू होता है देह ढलान को पैरों की अँगुलियों से रोकती है कि जैसे अड़ता है धर्म जैसे  अड़ता है तुम्हारा ईश्वर जैसे अड़ती है कट्टरता
विघटन सिर्फ पश्चिम में ही नहीं होता
सूरज के साथ हर जगह है
बाड़ से छूटे मवेशियों की खुरों में होता है उन्माद
दक्षिण !
तुम्हारा पश्चिम तुम्हारे ही खुरों में है
तुम कितने गाँधी मारोगे ?

तुम असम्भव मिथ्या के चालीस पर खड़े हो उस प्रवेश द्वार में घुसने से डरते हुए
एक परिपक्व जीवन के युवः काल की चरम बिंदु पर
अमरता के खूँटे तुमने भी गाड़ दिये हैं  
और अमरता भी वहीं है तुम्हारे बगल में तुम्हारी ही तरह 
चालीस के प्रवेश द्वार से कुछ कदम पहले जिसके आगे लिखा है “क्षय के संकेत”

(6)

आईसोटोप रहा जन्म से तुममें तुम जैसा तुम से कुछ अलग थे न्यूट्रॉन मेरे
मेरा विक्षेप जिस ललकार का पीछा करता है
तुम उससे सुरक्षित हो
और तभी नींद का सुख तुम्हारे हिस्से आता है
तुम्हारे हिस्से आती है हँसी किसी पर भी कभी भी कि तुम्हारे अपने कमरे में ही आकाश है तुम्हारा
रात की बागबानी करता मजूर सितारों के ताप को सहता है अपनी आत्मा पर उनके गीतों में उतरता है छूता है उनके दर्द को बे-आवाज़
वह खोजता है केवल एक अभिव्यक्ति बिल्कुल उस जैसी उसकी अपनी
बाकी सभी रचनायें उस तक पहुँचने का रियाज़ भर हैं
अंत कोई भी मुकम्मल नहीं होता चालीस के बाद भी उस गाँव में भी जिसके बाहर वे डरावने शब्द लिखे हैं जिसे देख कर धर्म दर्शन ईश्वर चिर यौवन कामना में अपनी मृत्यु से सम्वाद करते अपनी जिजीविषाओं से अपनी अमरता रचते वहीं खड़े रह गये हैं

(7)

यह चालीस है
और इसकी गड्ड्मड्ड आवाज़ों में कोई सुर सा सुन रहा हूँ
जीवन हो रहा है लगातार  
एक शब्द बस चाहिये कि लौट आयें टहनियों से लटके किसान कीटनाशकों का वमन करके
उसकी बिवाइयों से उगे सके ढाल लोक के तंत्र की
सृष्टि में स्वर की जो जगह है मिल सके उसे
वह चाह सके
भविष्य के बीजों में लहलहाना
कि नहीं चाह पाना चाह कर भी
एक बे-शिनाख्त ग़ुलामी है इस व्यवस्था में
अनंत अदृश्य उस पिंजड़े में कैद उसकी परिभाषा भी स्वंतंत्रता की उसी पिंजड़े में
जहाँ आज़ादियाँ तक़सीम होती हैं.  
----------------------------------------------------------------------------- 
*विपरीत रतिस्वर्गीय दिलीप चित्रे जी की एक कविता का शीर्षक है. यह शब्द वहीं से साभार.

***** अगस्त 2013,मुम्बई. 

‘‘अब का लउटि के ना अइबे का रे बाबू’’ (शेष स्मृति प्रो. तुलसीराम)

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  • जितेन्द्र बिसारिया 


                                                                                                                         

ओह! तुलसीसरतोआपचलेगए।एकदिनपहलेहीतोज्ञानपीठसेमेराकहानीसंग्रहअनुशंसितहुआथा।सोचाथा   प्रकाशित  होनेपरसबसेपहलेआपकोहीअपनापहलासंग्रहभेंटकरूँगा।समानधर्माकौनहोताहैयहभवभूतिकोपढ़करजानाथाऔरमुर्दहिया पढ़करपायाकिहमारेसमानधर्माआपहैं...चंबलकेबीहड़सेनिकलकरसाहित्यकेबीहड़मेंतीसरीबारजबहाथीकहानीलिखीऔरवहवागर्थकेअक्टूबर2004 केनवलेखनअंकमेंप्रकातिहुई, तबविमर्शऔरविचारधाराके चौखटावद्धव्यूहमेंअभिमन्युकीभाँतिप्रहारझेलतामैंनितांतअकेलाथा।2005 मेंजीवाजीविश्वविद्यालयसे‘‘हिन्दीकीप्रमुखदलितआत्मकथाएँ: एकविश्लेषणशीर्षकसेपीएच-डीशोधमेंस्वानुभूतिऔरसहानुभूतिकेबीचदलितसाहित्यकालेखककौनहो? इसछानबीनमेंउत्तरप्रदेशपत्रिकाकादलितविशेषांकसितंबर-अक्टूबर2002 हाथलगा, तोउसमेंसबसेसंतुलितदृष्टिऔरतर्कआपकेजँचे।उसीदिनसेएकअदेखा-अनजानाप्रेमआपसेहुआऔरलगाकिहमारारास्ताभीइधरसेहीजाताहै।
            
2011 मेंभाईअशोकपाण्डेयसेलेकरमुर्दहियापढ़ी, तोइसविश्वासकोऔरअधिकपुष्टिमिली।बल्किमैंआश्चर्यचकितरहगयाजबआपकीआत्मकथामेंकोतवालनामयुवकद्वाराअपनीमड़ैया(घर) मेंस्वयंआगलगाकरउसकाआरोपीअपनेपड़ोसीसवर्ण(ब्राह्मण) कोबनानेवालाप्रसंगपढ़ा, तोलगाकिहाथीकाकथानककेवलचंबलमेंहीघटितनहींहै- बल्किबदलेकीराजनीतिहरजगहव्याप्तहै।एकसमतापरकसुव्यवस्थितसमाजकानिर्माणअलगावसेनहींआपसीसद्भावऔरसहयोगकीनींवपरहीखड़ाहोसकताहै।औरइसकेपरिपेक्ष्यमेंहाथीकेपक्षमेंवागर्थकोलिखेपत्रमेंमैंनेजबअमृतलालनागरकायहउद्धरणकोटकिया-‘‘जोसाहित्यरसकोउपजायेउमगायेऔरचेतनाकाउध्र्वतरविकासकरेवहसृजनात्मकसाहित्यहै।... जहाँदृष्टिसृजनात्मकहुयीमात्रध्वंसात्मकहुयीतोवहसाहित्यनहीं।मैंतुमकोबहुतउकसादूँऔरतुमकोकोईराहदिखलासकूँकितुमदूसरीराहपरचलो।तुम्हेंउकसाकरतुम्हारेक्रोधकोनपंुसकबनानेकापापमैंक्योंकरूँ।हमेंऔरहमारीरचनाधर्मिताकोजोखोखलाआवेेशबाँधलेताहैउससेबचनाचाहिए।तोउससमयएकतरहसेहमेंवहाँसेआउटकास्टहीकरदियागयाथा!!! तबउससमयभीभवभूतिऔरउनकाकालअनंतऔरपृथ्वीविस्तृतवालानज़रियाहीहमारासंबलबनाथा

मैंकितनाअभिभूतथामुर्दहियाकावहअंतिमप्रसंगपढ़करजिसमेंआपसंगमकादृश्यदेखनेइलाहाबादजातेहैंऔरबाढ़ग्रस्तगंगाउफानपरहैंऔरसंगमपरखड़ेआपसोचतेहैंकिसंगमकेदृश्यभीसहजावस्थामेंहीदेखनेकोमिलतेहैंऔरमैंउसकाविश्लेषणकरतेउसकीसमीक्षामेंलिखताहूँ-‘‘इसबारतुलसीअपनेउन्हींरंग-रसियामित्रलालबहादुरकेसाथडब्ल्यू.टी. प्रयागकीयात्राकरतेहैं।किन्तुउसवर्षप्रयागमेंबारहसालउपरांतपड़ेकुँभकेमेलेमेंआईबाढ़केचलते, तुलसीसंगमकावहअल्ह्ादकारीदृश्यनहींदेखपातेहैं।संगमअर्थातविरोधीधाराओंकासमन्वय।प्रयागमेंबाढ़केसमयसंगमकादृश्यदेखपानेकेकारणतुलसीमहसूसकरतेहैंकिसंगम’ (समन्वय) भीसुप्तअवस्थामेंहोताहै।जिसतरहबाढ़ग्रस्तनदियाँअपनेसाथविनाशऔरबरबादीलिएहोतीहैं, ठीकउसीतरहप्रतिगामीउग्रविचारधाराओंकाउभारऔरउनकाजनवादीविचारधाराओंसेटकरावभीसमाजमेंध्वंसकाहीकारणबनताहै।समाजमेंसुख-समृद्धिकेमनोरमसंगमदृश्यतोशांतिकालमेंहीउपस्थितहोतेहै, जबविचारधाराएँबहुजनहिताएबहुजनसुखायकेलिएएकलयहोविशालभागीरथीकारूपधारणकरआगेबढ़तीहैं।

 ...वामपंथीआपभीरहेऔरहमभी... तबतयथाकिकिसीमोड़परआपसेमुलाकातज़रूरहोगी।औरवहसंयोगशीघ्रहीहाथलगाजब12-14 अप्रैल2012 मेंप्रगतिशीललेखकसंघके75 वेंराष्ट्रीयसेमीनारमें.प्र. प्रलेसंकीग्वालियरइकाईकीओरसेमैंऔरदादामहेशकटारेउसमेंउपस्थितहुएथे।उसतीनदिवसीयसेमीनारमेंमैंनेपहले-पहल-नामवरसिंह, विश्वनाथत्रिपाठी, मैनेज़रपाण्डेयऔरवीरेन्द्रयादवकेसाथ-साथमंचपरआपकोभीदेखाथा।किसतरहआपनेअपनेव्यख्यानमें  उसदिनप्रगतिशील-जनआंदोलनोंकीवैश्विकपृष्ठभूमिमेंजातेहुएभारतीयपरिवेशखासकरदलित-आदिवासीआंदोलनोंकेसाथएकसाझामुहिमकेमाध्यमसेसाम्राज्यवाद, पूँजीवाद, फासीवादऔरजातिवादसेनिपटनेकेतरीके, आपनेसुझायेथेऔरलोगकिसतरहआपसेसहमतथेयहमैंनेअपनीखुलीआँखोंदेखाथा।व्याख्यानकेबाद हॉलमेंतालियोंकीगड़गड़ाहटकेबादमद्धिमपड़तेस्वरोंमें, आसपासकीकुर्सियोंसेउभरतीआवाजोंऔरफुसफुसाहटोंमेंभी  उसदिनआपकीविद्वता, अंतर्राष्ट्रीयज्ञानऔरसुलझीदृष्टिकीभूरि-भूरिप्रशंसाकोभीपहले-पहलउसीदिनस्पष्टशब्दोंमेंसुनाथा।

कहनेवालेतोयहभीकहतेहैंकिबुद्धकामार्गमध्यममार्गहैऔरमध्यममार्गअपनीखालबचानेकेसिवायकुछनहीं? तथा मार्क्स प्रणीतवामआंदोलनउसफुँफकारविहीनमृतप्रायःसर्पकीभाँति  होगयाहै, जिसकाभयअबकोईनहींमानता।परआपतोआजन्मइन्हींराहोंपरचले।बुद्धविचारोंमेंरहेऔरमंचमाक्र्सवादियोंसाथकेशेयरकिए।क्यायहहमारीहीनग्रंथिहैकिहमअकेलेनहींचलसकतेयाइसदेशकीमिट्टीकासाँझीगुण, जोकिसीकोअकेलारहने/चलनेनहींदेता।अपनीशुरूआतमेंउग्रविचारधारासेलैसजबइतिहासऔरसाहित्यखंगालते, मनुस्मृतिदहनकरतेसमयबाबासाहेबकेसाथसहस्त्रबुद्धेकोखड़ापायातोमनमेंकाफ़ीकोफ्तहुयीथीकिबाबासाहेबक्यायहकार्यअकेलेनहींकरसकतेथे? क्याउन्हेंअपनेलोगोंपरभरोसानहींथा।बुद्ध, कबीर, रैदासऔरयहाँतककिमहात्माफुलेजैसेसयानेलोगोंनेभीक्योंइन्हेंअपनाशिष्यबनायायाखुदउनकेशिष्यबने।मैंइसबारपुस्तकमेलेकेदौरानघरआकरआपसेपूछनाचाहताथाकिक्योंमुझेभीअजयनावरिया, कैलाशवानखेड़े, सुनीलकुमारसुमन’, गंगासहायमीणा, सुरजीतसिंह, संजीवचंदन, महेन्द्रप्रजापतिऔरमुकेशमानसकेसाथ-साथफिरोज़, अशोकचैहान, आशीषदेवराड़ी, अशोककुमारपाण्डेय, सुभाषगाताड़े, कुमारअनुपम, मनोजकुमारपाण्डेय, हरेप्रकाशउपाध्यायकुणालऔरचंदनपाण्डेयइतनेप्रियहैं? क्योंउनकेबिनाअपनेकोअधूरापाताहूँ।आपतोविद्वानथे/दिल्लीमेंरहतेथे/ आपपरहमेंपूराभरोसाथा/अबयहसवालमैंकिससेपूछूँगा? इनदुचितेसवालोंसेलैसऔरनिस्सहायठीकयहीसवालकरतेहुएखड़ारहगयाहूँ, जोसवालगाँवछोड़तेमुर्दहियापरखड़ीअपकीप्रियसखीललतीनेकियाथा-‘‘अबकालउटिकेनाअइबेकारेबाबू’’


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           B-15 गौतमनगरसाठफीटरोड
     थाठीपुरग्वालियर-474011 (.प्र.)
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संजय जोठे की कविताएँ

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संजय जोठेयुवा और सक्रिय साथी हैं. अभी उन्होंने ज्योति बा फुले पर एक किताब लिखी है और एक महत्त्वपूर्ण फेलोशिप भी उन्हें मिली है. ये कविताएँ उन्होंने मुझे काफी पहले भेजी थीं. इधर की व्यस्तता के चलते इन्हें काफी देर से पोस्ट कर पा रहा हूँ. 
इन कविताओं से गुज़रते हमें एक चेतन दलित युवा की विचारसंपन्न विद्रोही चेतना को देख सकते हैं. यह कथित मुख्यधारा से बहिष्कृत काव्य भाषा है, जिसमें एक सतत नकार का स्वाभाविक भाव है. यहाँ इतिहास और परम्परा का उत्खनन है और एक जिद भी अपनी पहचान को असर्ट करने की. असुविधा पर संजय का स्वागत.. 



(एक)

मैं दलित हूँ
हरिजन नहीं

तुम्हारे हरि के
उस सनातन हरण कर्म को
जिसने समय के गर्भ से
मेरे अतीत, वर्तमान और भविष्य
तीनों को हर लिया
मैं उसे क्यूं मानूं ?

उस सनातन हरण के अधीश्वर
हरि का मैं जन नहीं होना चाहता

मैं दलित हूँ
क्योंकि मेरा सीधा नाता
अपने दलन से है
तुम्हारे हरण से नहीं

मैं दलित ही रहूँगा
ताकि मेरे मन
और देह के दलन से उपजी
वह गाढ़ी सुर्ख स्याही
जो मेरा भविष्य लिख सकती है
फिर से तुम्हारी पुराण कथाओं का
श्रृंगार बनकर न रह जाए

(दो)

मुझे परिवर्तन चाहिए
सुधार नहीं

सदियों से तुम्हारे शास्त्रों, शस्त्रों और बहियों का बोझ
मेरी जर्जर देह ने ही उठाया है
बैलगाड़ी में जुते बीमार बैल की तरह
मैं ही वाहक रहा हूँ तुम्हारी सब कामनाओं का
अब तुम्हारा बैल मर ही न जाए
गिर कर चूर ही न हो जाए
इसलिए तुम देते आये हो उसे कुछ टुकड़े
जिन्दा भर रहने को

अब जब तुम्हारी कामनाएं और लक्ष्य
अधिक विशाल हुए जा रहे हैं
तुम्हें चाहिए एक मजबूत बैल
इसलिए अब तुम उछाले जा रहे
उन टुकड़ों का आकार बढ़ा रहे हो
यही तुम्हारा सुधार है
मुझे परिवर्तन चाहिए

मैं बैलगाड़ी के जुए से आजाद हो
तुमसे नजरे मिलाकर चलना चाहता हूँ
तुम्हारे शास्त्रों, शस्त्रों का बोझ फेंककर
अपने शास्त्र और शस्त्र रचना चाहता हूँ
मैं तुम्हारी यात्रा का साधन नहीं
बल्कि अपने लक्ष्य का साधक बनना चाहता हूँ
अपन गंतव्य और मार्ग
स्वयं बुनना चाहता हूँ

(तीन)

मुझ पर आरोप है
अलगाव का
लेकिन सदियों से मैंने
तुमसे अलगाव नहीं
लगाव ही चाहा है

मैं जब भी तुमसे मिलने
तुम्हारे घर आया
मेरा स्वागत करने को
सदा ही तुम्हारे आँगन में
कोई मरी गाय मिली
संडास का पखाना मिला
धिक्कार और गालियाँ मिलीं
या गए दिन की जूठन मिली
तुम नहीं मिले

मेरे लगाव के आग्रह को
मेरे नेह निमंत्रण को
तुम्हीं ने सदा ठुकराया
इसलिए ये अलगाव
तुम्हारी रचना है
मेरी नहीं

(चार)

तुमने इतिहास न लिखा
सदा पुराण ही लिखा
तुम्हारे लेखन और समय के बीच
सदा मैं खडा था
मेरे दलन और मेरी पीड़ा के साथ
तुम्हारे तथ्य और तारीख
हर बार मेरे लहू से सन जाते थे
और तुम्हारे महान समाज का
सारा चमत्कार कलुषित हो जाता था

इसलिए इंसानों का इतिहास नहीं नहीं
तुमने देवताओं का परिलोक बुना
वे देवता जो तुम्हारी कल्पना से
तुम्हारे रक्षण को पैदा हुए
जो मुझे और मेरे अधिकारों को
दैत्य कहकर दलते रहे

मेरे रिसते घावों के लहू से
अपना और तुम्हारा पोषण करते रहे
अपने स्वर्गों के चित्रों में
रंग भरते रहे

तुम्हारा ये स्वर्ग बना रहे
मेरे लहू से तुम्हारा पोषण चलता रहे
और समय तक को मेरा
या मेरी पीड़ा का भान न हो
इसलिए तुमने इतिहास न लिखा
सदा पुराण ही लिखा

(पांच)

मैं नहीं जानता सौन्दर्य को
और उसके शास्त्र को
सौंदर्य शायद वह गुण है
जो तुम्हारे जीवन में
तुम्हारे अनुभव में आता है
तुम्हारी कलम से रिसकर
तुम्हारे लेखन में आता है
लेकिन मैं नहीं जानता

ऐसा कोई सौंदर्य

मैं जानता हूँ
उस कौरूप को
जो मेरे जीवन में
मेरे अनुभव से आता है
मेरी कलम से रिसकर
मेरे लेखन में आता है
मेरी पीड़ा मेरे पीड़ा-शास्त्र का निर्माण करती है
तुम्हारा सुख तुम्हारे सौंदर्य-शास्त्र को रचता है

जैसे सुख और पीड़ा में
विरोध का सम्बन्ध है
वैसा ही सम्बन्ध मेरे और
तुम्हारे बोध में भी है
शायद ये तब तक रहेगा
जब तक तुम अपना सौदर्यबोध छोड़कर
मेरी पीड़ा के बोध तक न उतर आओ

(छः)

मैं नहीं मानता
फलरहित कर्म को

मेरे गहन कर्म के
सब परिणामों और फलों को छीनने वाले
उस दिव्य दर्शन को मैं नहीं मानता
यह मुझे दृष्टि नहीं देता
बल्कि मेरी आँखे छीन लेता है

यह मुझे बल नहीं देता
मुझे हतवीर्य बनाता है
फलरहित कर्म का दिव्य उपदेश सिर्फ मेरे लिए रहा है
तुम्हारे कर्मरहित फल का एक अन्य गुप्त उपदेश रहा है

मैं नकारता हूँ फल रहित कर्म को
ताकि कर्म रहित फल पर पलते
वे सनातन परजीवी
मेरा ही रक्त चूसकर
भविष्य में मुझे ही
आँख न दिखा सकें

(सात)

मैंने पहचान लिया है
तुम्हारी मोहिनी को
जो तुम्हें मेरे मोह में नहीं
बल्कि मुझे तुम्हारे मोह में
सदा सदा से छलती आयी है

मेरे आंसुओं के सुदीर्घ सागर में
मेरी जर्जर छाती से उभर रहे
मेरी ही पीड़ा के सुमेरु को
तुम्हारे षड्यंत्र के सर्प में बांधकर
तुमने सदा ही अमृत निकाला है

हमारे लिए नहीं
सिर्फ तुम्हारे लिए

तुम्हारी कायरता ने सदा ही उस सर्प की पूंछ थामी
और मेरे जीवट ने सदा ही उसका फन थामा है

अंत में हमेशा की तरह
सारी मेहनत मेरे हिस्से आयी
और मैं थककर चूर हुआ
मेरी थकान की बेहोशी में
तुम्हारे अवतारों की मोहिनी
हमेशा जादू करती रही
मेरे जीवन अमृत को
मुझसे छीनकर

सदा तुम्हें पिलाती रही 

देवेन्द्र आर्य की ग़ज़लें

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प्रतिष्ठित गीतकार, कवि और ग़ज़लगो देवेन्द्र जी किसी परिचय के मुहताज नहीं. धूप सिर चढ़ने लगी, सुबह भीगी रेत पर, ख़िलाफ़ ज़ुल्म के जैसे गीत संग्रहों और किताब के बाहर, ख़्वाब ख़्वाब ख़ामोशी, आग बीनती औरतें और उमस जैसेग़ज़ल संग्रहों के माध्यम से उन्होंने पाठकों के बीच एक मुकम्मल पहचान बनाई है. छंद के पारम्परिक रूपों का निर्वाह करते हुए उन्होंने आम जन के सुख दुःख के प्रामाणिक चित्र प्रस्तुत किये हैं. हमारे आग्रह पर गोरखपुर के हमारे अग्रज ने कुछ ग़ज़लें असुविधा के लिए उपलब्ध कराई, जिसके लिए हम उनके अत्यंत आभारी हैं. 



(1)

लगा के सीने से दिल की किताब भूल गया 
वो खुद ही ढाल के पीना शराब भूल गया .

फलक के तारों में कुछ इस तरह से उलझा वह 
कि दस्तरस में है एक माहताब भूल गया . 

हरे हरे हैं अभी सुर्ख जिस्म के पत्ते 
यह बात जिस्म का काला गुलाब भूल गया .

बस इतना याद है ग़ज़लें थीं आस -पास मेरे 
मैं अपना दिल कहीं रख के ज़नाब भूल गया .  

तुम्हीं को 'आर्या'कैसे 'किताब के बाहर
खामोशियाँ हैं मुखर ख्वाब ख्वाब, भूल गया . 

नफ़स नफ़स था लड़ा ज़ुल्म के खिलाफ कभी 
कदम कदम वही अब इंकलाब भूल गया  .

हमारी मुल्क परस्ती सियासती है मियाँ  
न भूल पाये हम 'अफ़ज़ल', 'कसाब'भूल गया .

(2)

कुछ मौसम की सोहबत है 
कुछ पीने की आदत है.

तौबा की दीवारों पर  
प्यास की एक पोख्ता छत है. 

कुदरत है कुर्रान अगर  
जीवन उसकी आयत है .

इस बडबोली दुनिया में  
चुप्पी की भी कीमत है . 

तुझ को दौलत मुझे ज़मीर  
अपनी अपनी किस्मत है .

जिस्म को रूह समझ लेना 
मज़हबियों की फ़ित्रत है.

कह दो इन बाज़ारों से 
अपनी भी एक इज़्ज़त है. 

जब से मैं गुमनाम हुआ 
दिल को काफ़ी राहत है. 

खुदा अगर शायर है तो  
मेरी गज़ल इबादत है . 

(3)

ज़रूरी था समय के सामने टिकना ज़रूरी था 
मगर हम क्या करें इसके लिये बिकना ज़रूरी था .

यकीनन बात सेहतमन्द थी इंसान के हक में 
मगर उसका अभी कुछ देर तक पकना ज़रूरी था.

अकीदे जिंदगी को मौत में तबदील कर देते 
हमारे ज़ेहन में शंकाओं का उठना ज़रूरी था .

चलन से हो के बाहर आज यह महसूस होता है 
हमें बाज़ार के अनुसार भी ढलना ज़रूरी था .

अंधेरे तो अंधेरे की तरह दिखते ही हैं लकिन 
उजालों को उजालों की तरह दिखना ज़रूरी था .

(4)

खुद को लड्डू देशी घी का 
हमको भाषन गांधी जी का.

मन के काले रंग महल में 
दरवाज़ा गोरी चमडी का . 

मुर्दे सम्मानित होते हैं 
हाल अजब है इस बस्ती का .

नमीं रेत के पास लौट गई 
बदल गया है पता नदी का .

पिंजरा भर आकाश के बदले 
पायल , बिछुआ , कंगन ,टीका.

पांव से लछमन ने पहचाना
यह तो चेहरा है भाभी का .

(5)

थी अगर यह बात सच तो भी
तुमने क्यों बेसाख़्ता कह दी.

झूठ के सिंदूरी जलसे में 
बेवा जैसी बैठी सच्चाई .

खोके मस्ती अपना औघड़पन 
राजधानी हो रही काशी .

आप तो अंकल जी थे मेरे 
आप में क्यों वासना जागी?

साइकिल सा चल रहा यह देश 
कैरियर में बांध के हाथी .

फैसला देने का था ज़िम्मा 
हो गये क्यों आप फरियादी .

लग रहा बाकी है कुछ ग़ैरत 
मिलते मिलते रह गई गद्दी .

(6)

तू जो चाहे तो फ़क़त लफ़्ज़ कहानी हो जाय
वरना इसरार भी एक तल्ख़ बयानी  हो जाय .

हो बुरा वक़्त तो दरिया कि रवानी खो जाय
वक़्त अच्छा हो तो चट्टान भी पानी हो जाय .

नींद उसकी चुरा ले जाती है एक आहट भी
जिसका घर कच्चा हो और बेटी सयानी हो जाय .

कल से चोखे पर ही गुजरेगी पता  है  हमको
आज पैसा है चलो दाल मखानी हो जाय .

जब हरेक मर्ज़ की इकलौती दवा है पूँजी
'इंडियानाम तेरा क्यों  '
अडानी हो जाय .

(7)

भीड़ को भीड़ मत समझ राजा !
बज न जाये कहीं तेरा बाजा .

मुल्क में पैदा कर के छोड़ेंगी
'भागवत'की कथाएं एक 'गाजा' .

एक में हैं वज़ीरे आज़म खुद
दूसरे हाथ में तेरे ख्वाजा .

लोक परलोक दोनो साध लिये
तुम तो निकले कमाल के राजा !

एक नई राह मुन्तज़िर है तेरी 
आजा, सपनों को तोड़ के आजा .

(8)

न हों गर जेब में पैसे तो ताकत भूल जाती है 
हुनर मुह मोड लेता है , लियाकत भूल जाती है .

कि जब काशी को मगहर की विरासत भूल जाती है  
तो दिल्ली को भी दिल्ली की सियासत भूल जाती है . 

अंधेरे से उजाले की अदावत भूल जाती है 
अगर खतरे में हो रोटी , बगावत भूल जाती है .

इन्हीं के हाथ की फसलें , इन्हीं के बेटे सीमा पर 
इन्हीं गुमनाम लोगों की शहादत भूल जाती है .

गरीबी की बनिस्बत ख़ौफ़ खाता हूँ अमीरी से  
कि दौलत सबसे पहले अपनी ग़ैरत भूल जाती है  .

मुझे कुछ भी कहे कोई मगर जब मां को कहता है  
मैं खो देता हूँ आपा और शराफ़त भूल जाती है .

परिंदे आके अक्सर बीट करते हैं कंगूरों पर 
बुलंदी पर चढ़ा कर हमको शोहरत भूल जाती है .

उसे जब भी उठा लेते हैं अपनी गोद में अंकल 
न जाने क्यों मेरी बच्ची शरारत भूल जाती है .


नीरू असीम की लम्बी कविता - उखड़ा हुआ आदमी

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नीरू असीम कीकविताएँअसुविधा के पाठक पहले भी पढ़ चुके हैं. बहुत कम लिखने वाली और उससे भी कम शाया होने वालीं नीरू कनाडा में रहते हुए पंजाबी और हिंदी में लिखती हैं. भाषा और कहन की उनकी परिपक्वता मानीखेज कथ्य के साथ मिलकर एक गहरा प्रभाव रचती हैं. पहली बार कविता पोस्ट करते हुए मैंने लिखा था "उनकी कविताओं के अर्थ उतना शब्दों के बाहर नहीं जितना शब्दों के भीतर गूंजते मंद्र संगीत में हैं." 

ग्यारह खण्डों वाली इस लम्बी कविता में नीरू ने जिस उखड़े हुए आदमी का चित्र उकेरा है वह सिर्फ भौतिक विस्थापन का शिकार नहीं. वह सांस्कृतिक विस्थापन का भी शिकार है और मनोवैज्ञानिक विस्थापन का भी. जीवन के जटिलतम होते जाने और इसके साथ साथ दुनिया के कृत्रिमतम होते जाने की दोहरी चक्की से गुज़र मनुष्य इस नए देश काल में अपनी असल और बनती हुई पहचानों के बीच कहीं बस रहा दिखता हुआ गहरे उजड़ रहा है. कविता के सुधी पाठकों से इस लम्बी कविता को बहुत गौर से पढ़ने और इस पर खुल कर बात करने की उम्मीद है मुझे.  
मुकेश शर्मा की पेंटिंग साभार 


1.

कैसा होता है उखड़ा हुआ आदमी
परिभाषा...?

यहां आदमी लैंगिक अर्थ वाला नहीं
इसमें औरत भी है

कहने को मैं ऐसा भी कह सकती थी
कैसी होती है उखड़ी हुई औरत
और आगे कहती कि आदमी का होना इसी औरत में है
तो समझते तो तुम वही
बस आकलन में मशीनरी को ज़रा जादू-टोने से लाँघना पड़ता
जो हर वक्त किया रहता है
इस उस का
तो इस तरह कहा...

2.

तुम और मैं कौन हैं
यह कैसे तय होने वाला है

चेहरे, कपड़ों और एक्सेसरीज़ के बावजूद
सधी हुई शारीरिक भाषा और नपे तुले कथ्य के रहते भी
जहां से उखड़ता है उस बिंदु को धुरी आंकता
चक्कर काटते वहीं वहीं रहता
चलने को मीलों लम्बा चलता
एक ही दायरे का विज्ञ
दिखने में साबुत
दॄश्य पार टूटा हुआ

3.

उसके चौथे या पांचवे ड़ायमैंशन की तस्वीर कैसी आएगी

4.

वहां जहां बोलना और वो भी समझते हुए
आख़िरी और अकेला हल होता है
वहां चुप रहने से पैदा हुई गाँठों को लादकर
सारी उम्र बिताना
आख़िर किस मुश्किल का हल बताया था अम्मा ने
कुछ याद नहीं आ रहा

5.

सैल्फियाँ लेने की बात किस मोड़ से सूझना बंद होती है

6.

हर रास्ते के अंत में होता है
अंतत: अकेले हो जाना

अकेले व्यक्ति के पास से
उठ कर जाने वाला आख़िरी शख़्स वो ख़ुद होता है
पर अमूमन जाता नहीं
सारी महफिल इस के चले जाने की चाहत में सजती उठती है

माने न माने
उखड़ा रहता है एक आदमी
इस के रहते

7.

किन रास्तों से जाएगा
किस लिए और कहां तक
थकान तय करती है

थकने के लिएभागा कि भागने से थका
सोचते हुए उखड़ने लगता है
और घड़ी पर निगाह ड़ालता है
देखने के लिए
कितना समय जा चुका
कितना बचा

8.

रिहाई के एक छोटे से समय-फ्रेम में
पूरी तस्वीर बनाते हुए
ख़ुद को बाहर रहने देता है

अपनी या पराई
किसी दीवार पर टांग
आते जाते देखता रहता है
जब थकने लगता है
तो कैनवस उठा बाहर फेंक देता है
तस्वीर हवा में लटकी रह गयी है
या कैनवस पर चिपकी फिंक गई है
सोचता है उखड़ रहा आदमी

9.

हर बार अलहदा होता है
एक ही प्रजाति का नहीं होता
अन्य जातियों के साथ
संकरित होते हुए
नई समय सीमाओं के लिए
नये भ्रूण बनाता है
उखड़ा हुआ आदमी

10.

तफ़सील से आप उसे
देखते ही लाख पहचान लें
छिपता छुपाता रहता है
उखड़ा हुआ आदमी

11.

उपरोक्त रेखाओं में
बहुत धुँधला सा उभरता है
उखड़े हुए आदमी का चित्र
आप इस से ज़्यादा एक उखड़े हुए व्यक्ति से और उम्मीद भी क्या करेंगे
अपना चित्र कभी पूरा न कर पाएगा
उखड़ा हुआ आदमी

---------------------------------------------------------------

 परिचय वही जो पिछली बार था 

हमने परिचय माँगा तो नीरू ने जो जवाब भेजा वह ज्यों का त्यों यहाँ संलग्न है 
बठिंड़ा, पंजाब मेरा जन्म स्थान है और तिथि 24 जून 1967 । मां श्रीमती सावित्री देवी और पिता स्वः श्री सत्य प्रकाश गर्ग।

पढ़ाई लिखाई एक यंत्रवत अनुभव था। समय का एक हिस्सा इससे चुकता किया। कविता माता पिता से मिली। सौभाग्य रहा होगा। जीवन माता पिता का ऋण है, जिसे मैं चाह कर भी नहीं चुका सकती, ऐसा अब तीव्रता से महसूस होता है।

पति, दो बेटे और मैं परिवार हैं।

पंजाबी में कविता की दो किताबें हैं। ‘भूरियां कीडियां’ और ‘सिफ़र’।

लिखना ज़रूरी है, ख़ुराक है, फिर भी भुखमरी के दिन रहते हैं। जिये गये में क्या था, देखने के लिए कविता यंत्र है। बस। देखना खोलता है, तोड़ता है। मुझे ज़रूरी है लिखना। ड्रग है लाईफ सेवर।

जीना देखने से अलग होता है क्या…!

पता नहीं…। कविताएँ न होतीं तो यह सवाल इस ख़्याल के साथ मेरे पास न होता।

यही परिचय स्वीकार करें।








विश्व नृत्य दिवस पर स्वरांगी साने की कविताएँ

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चित्र इंटरनेट से साभार 


पुणे में रहने वालीं स्वरांगी सानेकला, संगीत, नृत्य और साहित्य में समान अभिरुचि रखती हैं. आज विश्व नृत्य दिवसपर उनकी इन कविताओं से गुज़रते हुए आप न नृत्य और उसकी भंगिमाओं के बहाने एक नृत्यांगना के जीवन में भी प्रवेश करते हैं. समजैसी कविता जीवन की जटिलताओं के बीच ठहरने के लिए किसी सम की तलाश की एक अनूठी व्यंजना रचती है. 

नृत्य के नायिका भेद के लिहाज़ से आठ खण्डों में बंटी उनकी लम्बी कविता स्त्री जीवन के तमाम रंगों के कभी चमकीले तो कभी फ़ीके अक्सों से बनी है. इस तरह ये हिंदी कविता के स्त्री पक्ष को एक और ज़रूरी रंग देती हैं, ताब देती हैं. मेरे देखे इधर  नृत्य को केंद्र में रख कर लिखीं ये हिंदी की  इकलौती कविताएँ हैं. उम्मीद है पाठक इन्हें पढ़ते हुए एक अलग भावजगत तक जा पाएंगे. असुविधा पर स्वरांगी जी का स्वागत और उम्मीद कि आगे भी उनका सहयोग मिलता रहेगा.


ग्रीन रूम


केवल तैयार होने 
के लिए बना था 
ग्रीन रूम
कि 
मंच पर जाते ही 
परे रख सके अपने आप को।

2
रोशनी ही रोशनी 
हर कोण से आती हुई
ताकि ठीक से 
देख सके
वो अपना रेशा-रेशा
दबा सके सारा द्वंद्व
भीतर ही भीतर।

3
एक बाल 
निकल रहा था चोटी से बाहर
अभी भी दिख रहा था आँखों के नीचे 
कालापन
और
लाली कुछ कम लगी थी
होठों पर

ये आईना क्या दिखा रहा था उसे
और वो
क्या देखना चाह रही थी
न आईने को पता थी 
इसके मन की बात
न उसे आईने की।
------

नर्तकी                                      

वंदन करते हुए
आएगी नर्तकी
उसके बाद करेगी आमद
ठीक समय पर पढ़ेगी बोलों को
निभाएगी मात्राओं में
वो बेताली नहीं होगी
वो शब्दों के साथ चलेगी
तालबद्ध नाचेगी
उसकी भाव-भंगिमाएँ
कसक-मसक
सब होंगे अविश्वसनीय तरीके से सटीक

करेगी लयकारी
अंगुली के पोर से दिखाएगी हाव
आँखों की कोर से दिखाएगी भाव
उसका रियाज़
उसके नृत्य में दिखेगा साफ़-साफ
कितनी मात्रा के बाद गर्दन को कितना घुमाना है
यह उसे कंठस्थ होगा
वो भूलकर भी नहीं करेगी कोई गलती
बजते रहेंगे उसके घुँघरू
जब करेगी वो ठुमरी
तो उसके साथ 
आप भी गुनगुनाएँगे
                                ‘हमरी अटरिया पर आओ बलमवा'

उसकी प्रस्तुति में हर वो बात होगी 
जो आप चाहेंगे देखना
ठाह से शुरू कर 
वो द्रुत तक पहुँचेगी
लय बढ़ेगी
चरम पर होगा उसका नर्तन 
वह करेगी तांडव
करेगी लास्य
नटवरी करेगी
और शुद्ध नर्तन भी
आप चमत्कृत होंगे
वो हतप्रभ करेगी
तालियों की गड़गड़ाहट में 
वो थमेगी सम पर
जाएगी विंग्स में
लौटेगी फिर से अपने अँधेरे में।
---

सम

सम तक पहुँचना
कितना ज़रूरी होता है   

घटाते-बढ़ाते हुए मात्रा   
गुज़रते हुए कई तिहाइयों से 
करते हुए समझौते   
मानते हुए पाबंदियाँ  
हम बस चाहते हैं एक सम                                  

सम से चलकर    
लौट आना होता है  
हमें सम पर ही   
बिताने होते हैं कई अंतराल  
झेलना होता है एकाकीपन 
छोड़नी होती है जगह                                   देना होता है दम’   
छोटे-बड़े हर टुकड़े को 
कहीं लाना होता है    
हर ताल की पकड़नी होती है सम  

सम नहीं होती   
तो कुछ और होता     
बँधना तो फिर भी पड़ता ही हमें                                                                                    यह सम है      
 जहाँ पूरा होता है आवर्तन ।                     


अष्टनायिका  
(शास्त्रीय नृत्य में अवस्था के विचार से नायिका के आठ भेद)
--------------------

प्रोषितपतिका 

तुम चले गए हो 
यह कहकर कि लौटोगे

उसने भी माना 
यही कि 
जाने के साथ 
जुड़ा होता है लौटना। 
--

खंडिता

तुम्हारे बालों की सफ़ेदी
और गर्दन पर कुछ सलवटें
पर समझ नहीं पा रही
तुम्हारी आँखों की चमक में
किसी और की लौ क्यों है भला?
-

कलहान्तरिता

झगड़ ही ली थी
तो दहल गई थी पृथ्वी।

तुम पर क्या बीती होगी
यह सोच 
दहल रही है वो।

जब आग उगली थी
तो इतना ही जाना था
कि भस्म कर देना है सब।

सब भस्म हो गया
बचा रह गया प्यार
जो 
फिर-फिर उड़ान भर रहा है
 भस्म से 
फ़िनिक्स-सा।
--

विप्रलब्धा

तुमने कहा था 
आज मिलेंगे
मिलेंगे ऐसे 
जैसे कभी न मिला कोई।
वो पहुँच गई मिलने
अपने छोर को आसमान में समेटे
अपनी कौंध को 
बिजली में लपेटे।

वहाँ उस जगह
मिल गए
पृथ्वी
गगन
नीर
पवन
अग्निदेव भी
नहीं मिले तो बस
इन पंच तत्वों से बने तुम!
--

उत्कंठिता

तुम आओगे
तो सबसे पहले क्या पूछोगे
पूछोगे उसका हाल
या अपने न आने के 
कारण गिना दोगे
पर 
जब तुम आ जाओगे 
तो उन कारणों से क्या
जो तुम्हें रोके थे।

वो 
सोच रही है
तुम देखोगे
उन अनगिनत भावों को 
जो तुम्हारे आने से 
उमड़े थे मन में
जो तुम आओगे ।
---

वासकसज्जा 

केतकीगुलाबजूही
कल तक ये केवल नाम थे
आज उनकी महक खींच रही है

तुम आने वाले हो
हुलस-हुलस कर 
बता रही है घड़ी की सुइयाँ
आओगे न
सैकड़ों बार पूछ रहा है मन
तुम ही जवाब दो
क्या कहूँ उसको।
--

 स्वाधीनपतिका

 रोटियाँ बनानी हैं
तुम गूंथ देते हो 
उसके बाल।
वो कहती है
अरे समझ नहीं आ रहा क्या
पड़ा है चौका-बर्तन
तुम कड़छी
और डोलची 
बन जाते हो

उसकी हँसी से 
तुम दोहरे होते जाते हो
वो कहती है
जाओ न!

तुम कहते हो
जाओ न !
---

अभिसारिका

यदि दिन हुआ
तो उजले वस्त्रों में जाएगी
रात में पहन लेगी श्याम रंग

वो पूरे श्रृंगार के साथ जाएगी
ऋतुओं में वसंत महकेगा
मौसम में 
सावन गाएगा 
उसके उल्लास का पर्व तुम्हारा अभिसार
और 
उसका अधिकार होगा।

----
             जन्म ग्वालियर में, शिक्षा इंदौर में और कार्यक्षेत्र पुणे
कार्यक्षेत्रः नृत्य, कविता, पत्रकारिता, अभिनय, साहित्य-संस्कृति-कला समीक्षा, आकाशवाणी पर वार्ता और काव्यपाठ. 
प्रकाशित कृति:  “शहर की छोटी-सी छत पर” 2002 में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद, भोपाल द्वारा स्वीकृत अनुदान से प्रकाशित और म.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के कार्यक्रम में म.प्र. के महामहिम राज्यपाल द्वारा सम्मानित.
कार्यानुभव:  इंदौर से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र ‘प्रभातकिरण’ में स्तंभलेखन, औरंगाबाद से प्रकाशित पत्र ‘लोकमत समाचार’ में रिपोर्टर, इंदौर से प्रकाशित ‘दैनिक भास्कर’ में कला समीक्षक/ नगर रिपोर्टर, पुणे से प्रकाशित ‘आज का आनंद’ में सहायक संपादक और पुणे के लोकमत समाचार में वरिष्ठ उप संपादक
शिक्षा: देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर से एम. ए. (कथक) (स्वर्णपदक विजेता), बी.ए. (अंग्रेज़ी साहित्य) प्रथम श्रेणी  और डिप्लोमा इन बिज़नेस इंग्लिश
संपर्क: ए-2/504, अटरिया होम्स, आर. के. पुरम् के निकट, रोड नं. 13, टिंगरे नगर, मुंजबा बस्ती के पास, धानोरी, पुणे-411015
ई-मेलswaraangisane@gmail.com / मोबाइल : 09850804068

महाभूत चन्दन राय की प्रेम कविताएँ

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महाभूत एक बीहड़ कवि हैं. बहुत गहरे भटकने वाले. एक मुसलसल बेचैनी उनकी कविताओं का अविभाज्य हिस्सा नहीं बल्कि ऊर्जा स्रोत है. उन्होंने अक्सर लम्बी गद्यात्मक कवितायें लिखी हैं. आज अचानक उनकी इन प्रेम कविताओं पर नज़र पड़ी. इस विकट समय में प्रेम जैसे इस युवतर कवि के पास एक अंतराल की तरह आया है. वह अंतराल जहां रुककर किसी को साथ ले आगे बढना है. कविताओं पर कुछ ज्यादा कहने की जगह मैं पाठकों से रुककर और धीरज से पढने की अपील करूंगा. 
असुविधा पर उनकी अन्य कविताएँ पाठक यहाँ पढ़ सकते हैं. 



तुम जरा सा साथ दे देना 

तुम जरा सा कहोगी 
और मै तुम्हारे शब्दों के स्नान में 
गंगा सा पवित्र हो जाऊँगा
तुम जरा सा हंसोगे 
और चाँद से गिर रही इस मीठी ठंडी हंसी से 
मै कुबेर धनी हो जाऊँगा
तुम्हारा घूँघट जरा सा ढलेगा 
और तुम्हारे रूप के टपकते नूर से 
मै मोतियों सा धुल जाऊँगा
तुम जरा सा साथ दे देना.. 
मै सच कहता हूँ 
जन्मो-जन्मो तक संवर जाऊँगा !!



प्रिय तुम्हारा चेहरा 

ऩऱम ऩऱम मख़मल सी मुलायम ,
भीजे चाँद क़ी भीगी चाँदनी सी
सोकर उठी सुबह सी उज्जवल ,
ऩऩ्हे फूलो की हसँती क्यारी सी
साँझ के आक़ाश सी कुछ कुछ,
कुछ कच्ची माटी की पावऩ मूरत सी
निम॑ल ओस सी ताजा ,
मन्दिर की अलौकिक सजावट सी !
सोने के तारो से मढ़ी भौंहों के नीचे
खुदा की जिन्दगी भर की कमाई
ईश्वर का रूप है
प्रिय तुम्हारा चेहरा” !


तुम्हारी चूड़ियाँ 

प्रेम का वृत हैं तुम्हारी चूड़ियाँ..
मैं तुम्हारी कलाईयों में परिक्रमा करता हूँ
तुम कांच की चूड़ियाँ पहनती हो..
तुम लाख की चूड़ियाँ पहनती हो..
तुम पीतल के कड़े पहनती हो.. 
तुम सोने के कंगन पहनती हो
तुम इठलाती हो हीरे के नग लगे कंगन पहनकर

तुम सिर्फ सुंदर ही पहनती हो ?
तुमने कभी प्रेम का ठाठ भी पहना है
क्या तुमने कभी पहनी है मेरे नाम की चूड़ियाँ..
तुम एक सच्ची खनक से लाजबाब कर सकती को 
अपनी कलाइयों में पहने कांच का कच्चा रंग 
तुम्हारी एक झूठी हिचक पर बैरंग हो जाएँगी तुम्हारी चूड़ियाँ 
सुनों आवाजों की धोखाधड़ी मत करना

एक नाजुक भ्रम है तुम्हारी चूड़ियाँ
इन्हे किसी की अमानत की तरह पहना करो !!



 मुझे तुमसे प्रेम है 

बहुत आसान है प्रिय.. 
गर तुम समझना चाहती हो 
मेरे सीधे-साधे सरल शब्द प्रभावशाली है..
"मुझे तुमसे प्रेम है" 
मैं अपनी देह में तुम्हारा नाम 
लिख-लिख कर तुम्हारी निशानदेही करता हूँ !

और बहुत मुश्किल लगभग असम्भव 
गर तुम समझना ही नहीं चाहती 
मेरा कहा कोई भी शब्द अपने प्रेम के प्रदर्शन में
अपने समर्पण की अभ्यर्थना में निरर्थक ही रहेगा
"मुझे तुमसे प्रेम है" !!

कुह रिश्ते दुनिया की भीड़ में भी नहीं खोते 
गर तुम्हे समझ आता है तो समझ लेना 
अन्यथा समझ लेना हमारे बीच 
कभी कोई रिश्ता था ही नहीं

बहुत आसान है प्रिय 
गर तुम समझना चाहती हो
और बहुत मुश्किल लगभग असम्भव 
गर तुम समझना ही नहीं चाहती 
"मुझे तुमसे प्रेम है … !!



दिसंबर की सर्दियों सी तुम 

तुम अपनी आँखों से... 
खर्च करती हो जितनी मुहब्बत, 
उनसे रजाइयाँ बनाकर 
मैं कई सर्दियाँ बिता सकता था !!
तुम भाप बना कर उड़ा देती हो...
अपने होंठों से जितनी गर्मियां 
मैं उससे चाय पकाया करता 
इस कमर तोड़ महंगाई में !

इन कंपकपाती सर्दियों में 
यूँ हुस्न खर्चना ठीक नहीं
बिस्तर पर यूँ तो अलाव बहुत है 
बस थोड़ी सी शक्कर और जुटा लें

दिसंबर की सर्दियों सी तुम !!


अतएव तुम 

अतएव मैं.. 
अतएव तुम,
अतएव लालसा..
अतएव प्रेम

अतएव देह
अतएव काम
अतएव स्पर्श..
अतएव आलिंगन

अतएव हर्ष
अतएव शोक
अतएव मोह
अतएव विरक्ति

अतएव निर्वाण 
अतएव विमुक्ति
तथापि जीवन
दोष-पूर्ण, 
दुविधा-क्रान्त मुक्ति-प्रसंग !

दुःख में भी संभावनाओं से भरी तुम..
अतएव मेरा जीवन-श्रृंगार !!!


कोठागोई : क़िस्सागोई : जिन बाबू ने दिया रुपइया वो हैं मेरे दिल के अंदर/ मैं हूँ उनकी हेमा मालिनी वो मेरे धरमेंदर!

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प्रकाशन से पहले ही चर्चा में आ चुकी प्रभात रंजन की किताब क़िस्सागोई से एक हिस्सा पाठकों के लिए। किताब इसी महीने वाणी प्रकाशन से आनी है। 

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कौन नगर से पानी लाए कौन नगर से दाना
कौन नगर का जोड़ा जामा कौने गाम ठिकाना
जनकपुर से पानी लाए दरभंगा का दाना
मधुबनी का जोड़ा जामा सरसिउ गाम ठिकाना
===============================



जे लागत से दियाई/ बाकी बाजत रसनचौकी...

बरसों लोग इस कहावत को दोहराते रहे। कहावतें शायद इसी तरह बनती हों और किस्से-कहानियों में ढलकर लोक का हिस्सा बनकर पीढ़ियों स्मृतियों में बची रह जाती हों।

कहानी है माँ सीता की जन्मभूमि सीतामढ़ी से तीस कोस पश्चिम अदौरी गाँव की।  बाबू राम निहोरा सिंह की बेटी की शादी तय हुई नेपाल के धनुषा अंचल के वैदेही गाँव के जमींदार विंदेश्वर ठाकुर के एकलौते बेटे से तय हुई थी, लड़का कोलंबो प्लान से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था। 

क्या कीजिएगा विषय के साथ विषयांतर हो ही जाता है। इस किस्से का ताल्लुक उसी शादी के किस्से से जुड़ा हुआ है। 40 साल से ऊपर हो गए होंगे। लेकिन भूले बिसरों को आज भी कभी कभी वह जलसा याद आ जाता है जिसके उन्होने किस्से सुने थे। इस किस्से ने बाबू राम निहोरा सिंह को अमर कर दिया, उनकी बेटी की उस शादी को न मिटने वाली स्मृति का हिस्सा बना दिया।

कहते हैं जन राम निहोरा सिंह के समधी ने अपने समदिया के मार्फत उनसे पूछवाया कितना बाराती लाएँ। रामनिहोरा सिंह का जैसे खून खौल गया। एक तो पहले से ही मन ही मन इस बात को लेकर दुखी चल रहे थे कि इतना पैसा-ऊंचा खानदान कुछ काम नहीं आया। लड़की के लिए अपने इंडिया में कोई ढंग का लड़का नहीं मिला, बेटी की शादी नेपाल में करनी पड़ी। ऊपर से यह हरकत!

अपनी मूँछों को हल्का सा छूते हुए उन्होंने कहा- गाँव में भाई कम पड़ जाएँ तो आसपास के गाँव के भाइयों को भी न्योता दे देने के लिए कहना समधी साहब को! और हँसते हुए यह भी जोड़ दिया कि अगर आदमी कम पड़ जाएँ तो कहना मर्दाना कपड़ा पहना कर जनाना लोग को भी ले आयें।उनका कहना था कि वहाँ बैठे सभी लोग ठठाकर हँस पड़े। हम हौसला रखते हैं, न्योता-पेहानी में पीछे नहीं हटते, न स्वागत सत्कार में!समदिया को इस संदेश के साथ 51 रुपये दिये और विदा कर दिया।

जे लागत से दियाई बाकी बाजात रसनचौकी!जाते-जाते समदिया के कानों में यह आवाज आई थी और समवेत ठहाके की गूंज!

समदिया ने जाने किस ढंग से जाकर अपने मालिक विंदेश्वर बाबू को यह संदेश सुनाया कि उन्होने आव देखा न ताव आसपास के पाँछ गाँव के भाइयों को बारात में चलने का न्योता दे दिया। उन दिनों बारात में भाई यानी जात-बिरादर वालों को ही ले जाने का चलन था। कहते हैं 1500 लोग बाराती में आए थे।

खाने-पीने ठहरने के इंतजाम को भी लोगों ने बरसों याद किया। शर्बत के लिए कहते हैं कुओं में चीनी की बोरियन उलट दी गई थी। तीन दिन तक बरातियों के स्वागत के लिए तरह-तरह के इंतजाम किए गए थे। लेकिन याद रह गया चतुर्भुज स्थान की छोटी पन्ना का मोजरा। बाबू बिंदेश्वर ठाकुर ने खास फरमाइश की थी अपने समधी साहब से- दूरा, मरजाद में थोड़ा बहुत एन्ने-ओन्ने हो जाये तो कोई बात नहीं बाकी पन्ना का मोजरा जरूर होना चाहिए बाबू साहब।‘ 

नेपाल में राजशाही का जमाना था। शादी-ब्याह, परब-त्योहार पर नाच-गान के आयोजन की साफ मनाही थी। उस जमाने में नेपाल के बाबू साहब लोग जब अपने बेटे का बियाह सीमा पार करते तो उसके पीछे उनका यह लोभ भी छिपा रहता था कि चतुर्भुज स्थान की किसी बाई का नाच देख लें, गाना सुन लें। दहेज में तो थोड़ा-बहुत हेरफेर मान जाते थे, लेकिन मरजाद के बाद मोजरा न हो तो...

जो बाबू साहब इसके लिए तैयार नहीं होते थे उनके यहाँ शादी बियाह की बात आगे नहीं चल पाती थी। राम निहोरा सिंह मान गए थे। तीन रात बरातियों के रमन-चमन के लिए अलग-अलग इंतजाम किए गए थे। पहली रात रही कव्वाली की। बाबू राम निहोरा सिंह कव्वाली के बड़े शौकीन थे। एक बार तो गुलाम फरीद खान की कव्वाली सुनने के लिए ट्रेन पकड़ कर दिल्ली निकल पड़े थे। तो उन्होने नेपाल से आए बरातियों के लिए खास तौर बन्ने भारती की कव्वाली का प्रोग्राम रखवाया था। मुजफ्फरपुर जिले के बन्ने भारती उनके हिसाब से आसपास के इलाके के सबसे अच्छे क़व्वाल थे।

बारात की मांग थी कि तीनों दिन नाच के अलग-अलग आइटम रखे जाएँ। लेकिन सीमा के इधर के बाबू लोगों में नाच करवाने को लेकर अभी भी हिचक सी रहती थी। पुराना रिवाज जो था। खानदानी जमींदार परिवार गायक-गायिकाओं को बुलाने में यकीन रखते थे। तिरहुत-मिथिला के जमींदार लोग कनरसिया कहलाते थे। मुजफ्फरपुर से लेकर बनारस तक उनके पसंद की गायिकाएं बिखरी हुई थी। जब मौका मिलता, जितनी हैसियत होती उस हिसाब से सब अपने पसंद की गायिकाओं को बुलाते, अपने परायों के साथ बैठकर गाना सुनते।

इन परिवारों में इस बात को ही गिरावट के रूप में देखा गया था कि शुद्ध शास्त्रीय राग-रागिनियों की परम्पराओं को बरसों सहेजने वाले परिवारों में गीत-गज़लों का दौर शुरू हो गया था। लेकिन मोजरा…. जमींदारों के घर में नाच को शहराती रमन चमन माना जाता था। ऑफिस में काम करने वाले, गोला-गद्दी संभालने वाले, स्टोर चलाने वालों का मनोरंजन। शाम में दो-तीन घंटे नाच देखे, उछले-कूदे, घर आकर चित्त। संगीत के रतजगों, महफिलों के लिए न तो उनके पास वक्त होता था न राग रागिनियों की वह समझ जिसके कारण उनके पुरखों को कनरसिया कहा जाता था। उनके लिए संगीत जीवन के प्रसंगों से जुड़ा हुआ था, इनके लिए बस मनोरंजन।

अब तो गाँव-देहातों में शादियों में दिखाने के लिए सर-सोलकन भी नाच करवाने लगे थे- रामनिहोरा सिंह कहते। मोजरा नाच सब एक हुआ जा रहा था। कहाँ गीत संगीत की बैठकी कहाँ मोजरा-नाच का हो हल्ला। फिर भी मोजरा नाच से अलग होता था। उसमें न रुपैया लुटौअल होता था, न फूहड़ इशारे। कुछ तो गरिमा बनी रहती थी। 

ऐसे में रामनिहोरा बाबू जैसे जमींदार खुद को इस नई शहराती संस्कृति से अलग दिखाने के लिए मोजरा का नाम आते ही नाक भौं सिकोड़ लेते थे। कहते ई सब लफुआ कल्चर का असर है। लेकिन क्या करें समधी साहब की खास फरमाइश थी। कोलंबो प्लान में पढ़ा हुआ इंजीनियर दामाद। शाही नेपाल वायु सेवा निगम की नौकरी। ऐसे में तो थोड़ा आँख तो दबाना ही पड़ता है न। रामनिहोरा बाबू ने आँखें दबाई और बारातियों के लिए दूसरी रात पूड़ी जलेबी के भोज के बाद छोटी पन्ना का मोजरा हुआ।

वादा हमसे किया दिल किसी को दिया/
बेवफा हो गए हो तो जाओ पिया-

फिल्म सरस्वतीचन्द्र के इस मुजरे के साथ पन्ना ने जब ठुमका लगाया तो नेपाली बाराती जैसे बुत बन गए- उस रात के बरसों बाद जब अदौरी गाँव के पाहुन जोगिंदर महतो जब उस शादी, उस बारात की कहानी सुनाते तो ऐसे सुनाते जैसे अभी कल ही देखा हो उन्होंने। बाराती-सराती सबके लिए जलेबी उनके परिवार वालों ने ही छानी थी।

रात भर पहले जब बन्ने भारती क़व्वाल की महफिल सजी तो आधे घंटे के भीतर आधे लोग सोने चले गए थे। अरे एतना दूर से कोई भजन-कव्वाली सुनने थोड़े न आए थे। जगरना तो उस रात हुआ। पन्ना एक के बाद एक आइटम देती गई। लोग आँखें फाड़-फाड़ कर देख रहे थे। देखते रह गए... बीच बीच में पान खाने, पानी पीने के लिए विराम लेती तो उसके साथ आई मंडली का प्रोग्राम शुरू हो जाता। पन्ना को चाय पीने की लत थी जैसे। आइटम पूरा हुआ नहीं कि गरम चाय का कप हाजिर। राजा साहब ने तो एक आदमी को चाय बनाने पर ही बिठाये रखा। खास दार्जिलिंग वाला अंदर से निकाल कर लाये थे। मेरा छोटा वाला बेटा बिशराम इसी में लगा रहा- जोगिंदर के अंदर वह कहानी जैसे सिनेमा के रील की तरह भरी हुई थी। एक एक सीन दिखाने लगता।
चार बजे भुरकुवा फूटा और उसने शुरू किया-

कहवाँ से आए सवेरे सवेरे/
आँखों में लाली गले में गुलहार है/
मस्त मस्त चाल चलो/
गालों में सुर्खी लगाए हो/
बता दो...
कंहवा से आए सवेरे सवेरे...

आखिरी आइटम पेश करके इधर पन्ना ने प्रोग्राम खतम किया उधर समधी साहब ने समधी मिलन किया- जोगिंदर की कहानी ने छोटी पन्ना के जलवे की एक बानगी दिखाई।

उस रात सीमा पार के पाँच गाँव के बाराती अचरज से देखते रह गए थे। जैसा गला वैसे ही पैर। लगता था जैसे कोई चलती फिरती बिजली गा रही हो। कहते हैं बारात में कई लोग डर गए थे और पीछे की तरफ चले गए थे। उनको विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई चलती फिरती औरत ऐसा नाच कर सकती है। 4-5 घंटे प्रोग्राम देने के बाद भी थकान का कहीं कोई नामो निशान नहीं। 10 मिनट के अंदर मोटर स्टार्ट हुआ और ये जा ओ जा...

बाद में अदौरी गाँव से लेकर न्योता पेहानी में जितने लोग आए थे उन सबके गाँव में इस बात को लेकर बड़ी हंसी भी होती थी कि राजा साहब ने एतना पैसा खर्च किया, इंजीनियर दामाद लाये, स्वागत सत्कार में लाखों लुटा दिया। बाकी एक बात है लड़का के उधर के लोग मोटा चाल वाला है। पन्ना का मोजरा देख कर डर गए। कह कर सब खूब हँसते। पछिमाहा लोग- कहते।
यही कह कर हाथ जोड़ प्रणाम करता हूँ सारे बाबू, सारे साहब लोगन को-

जिन बाबू ने दिया रुपइया
वो हैं मेरे दिल के अंदर
मैं हूँ उनकी हेमा मालिनी
वो मेरे धरमेंदर!
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 प्रभात रंजन                                                                             प्रतिष्ठित युवा कहानीकार, जाकिर हुसैन कालेज में अध्यापन के साथ साथ ब्लागिंग और अनुवाद। 





पिता के लिए : कृष्णकान्त की दो कवितायें

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भारतीय समाज में पिता और पुत्र का संबंध ऊपर से कितना भी सरल लगे भीतर से बेहद जटिल है। पिता पर कविता लिख पाना भावुकता भर से संभव नहीं। राजनीतिक रूप से सचेत और समकालीन परिदृश्य पर गहरी नज़र रखने वाले युवा कवि और पेशे से पत्रकार (और अब प्रकाशक भी) कृष्णकान्त की ये कवितायें उनकी संवेदनशीलता के स्रोतों का पता देती हैं। कल उनका जन्मदिन था... पिता के शतायु होने की शुभकामनाओं सहित उनकी ये कविताएं...



1. बीमार पिता के लिए 

पिता! 
जीवन में सबसे बुरा है 
तुम्हें कमज़ोर होते देखना 
मैंने देखे हैं वे दिन 
जब तुम कभी थकते नहीं थे 
काम पर आने के मामले में 
सूरज रोज़ हारता था तुमसे 
तुम्हारे काम में लग जाने का खटका सुनकर 
मां, भाई, बहन, पड़ोसी सब
उठते थे एक—एक करके 

सूरज की लाली फूटने के साथ 
मां मुझे खेत भेजा करती थी 
तुम्हारे लिए पानी लेकर 
सोचता था, इतनी सुबह प्यास कहां लगती है? 
मां बेकार परेशान रहती है 
बहुत बाद में जाना 
कि सूरज के घोड़े 
तुम्हारे बैलों से घंटों पीछे रहते थे

तुम्हें देख—देख कहते थे गांव के लोग 
यह आदमी कभी थकता नहीं है 
दादी भुनभुनाती थीं— 'दाढ़ीजार लगा दे नजर 
तेरी जबान जले, बुरी नजर पर परे बजर...' 

चढ़ी दोपहर में खेत से लौटकर 
जब उतारते थे तुम कपड़े 
थमा देते थे मुझे कुएं पर रख आने के लिए 
जैसे पानी भरी बाल्टी से निकाले हों अभी 
मैं हैरान होता था— 
कहां से आता है पिता को इतना पसीना!

तुम्हारा दिया पहला मंत्र
याद है अभी तक 
'जीवन है जब तक, त​ब ​तक है काम
हल से छूटो, कुदाल पर विश्राम...'
बचपन की पहली स्मृति के तौर 
आंखों में बस गया है 
काले उज्जर बैलों की जोड़ी के पीछे 
हल संभाले हुए हांफता चलता 
तुम्हारा लाल चेहरा 
और सांसों में रह गई हैं तुम्हारे पसीने महक 

पिता! मैं चाहता हूं कि ​कोई रोज़ 
फिर से चलो गांव के पास वाले खेत में 
उसी तरह से मुझे फिर सिखाओ 
हल की मूठ पकड़ना 
एक—एक करके बताओ वे सलीके 
कि कैसे बैल को चोट पहुंचाए बिना 
हांकते रहना है 
कैसे हल के फार से बचाने हैं उसके पांव 
कब पिलाना है उसे पानी 
कब दिखानी है उसे छांव 

एक और पहेली सुलझानी है पिता 
हमारी ज़बान हरदम लरजती ही रही तुम्हारे सामने 
हमने हरदम देखीं हैं आपकी लाल आंखें 
चेहरे पर रौब और अकड़ 
जबकि मां से सुना था कि मेरी बीमारी में 
अंदर वाले कमरे में छुपकर रोए थे तुम 
पर मुझे उस वक़्त भी डांटा था बुरी तरह 
मैंने औरों की ज़बानी सुनीं तुम्हारी दी तारीफ़ें 
बिस्तर पर पड़े—पड़े अब भी पूछते हो हदरम ​
कि मैं कहां हूं... फिर भी, 
तुम मेरे लिए बहुत कम क्यों मुस्कराए?
सोचता हूं कि मां की तरह 
कभी सीने से भींचते तुम तो कैसा लगता! 

पिता! 
तुमको कभी नहीं देखा हारते हुए 
कमज़ोरी, बीमारी, बलाएं, मौत... 
इन सबको जीतते रहे हो तुम 
जिनका मैं गवाह रहा हूं 
अब जब बांहें पकड़कर ले जाता हूं तुम्हें पखाने तक 
जी करता है तुम्हें उन दिनों में ले चलूं 
जब तुम मुझे दिखाते थे दिशाएं 
बताते थे गुर कि कैसे जोतना है, 
कैसे गोड़ना है, कैसे खोदना है... 
तुम्हारे कंधे पे पांव रखकर 
पहली बार चढ़ा था पेड़ पर 
उस बबूल की शाख़ें फिर से छा गई हैं पूरे खेत पर 

फिर एक बार चाहता हूं 
कमर में कुल्हाड़ी खोंस  
तुम्हारा सहारा लेकर पेड़ पर चढ़ना 
तुम्हारे साथ बैलों के पीछे चलना 
जोतना, गोड़ना, सींचना, काटना 
पिता! 
तुम कभी नहीं हारे थे 
जीवन में सबसे बुरा है 
तुम्हें कमजोर होते देखना...। 


2. पिता का ​प्रेम 

पिता की स्मृतियां मां के जैसी कोमल नहीं हैं 
मां याद आती है तो याद आता है 
रोज सुबह माथा सहलाकर जगाना 
बिस्तर से उठाकर चूम लेना 
पकड़कर नहलाना, खाना खिलाना 
कपड़े पहनाना, खूब समझाकर 
दूध की बोतल या टिफिन भर के स्कूल भेजना 
चोट लगने पर परेशान हो जाना 
बीमार होने पर साथ—साथ रोना
जब तब खींच कर गले लगा लेना 
मन की बात सुन लेना और मुस्करा देना 

पिता मां के जैसे कोमल नहीं होते 
पिता याद आते हैं तो याद आता है उनका गुस्सा 
उनका रौब, अकड़, डांट—फटकार 
​तबियत या पढ़ाई के बारे में पूछना 
खर्चे की चिंता करना, रोज किराए के पैसे देना 
किताबें लाना, फीस भरना 
पूरे घर के लिए एक—एक तिनका ​जोड़ना 
खून—पसीने बहाना 
बीमारी में भी नहीं सुस्ताना 
पिता का प्रेम कठोर है पिता की तरह 
उनकी ही तरह खामोश रहा उम्र भर 

स्कूल जाते हुए मां चूम लेती थी 
पिता दफ्तर जाने से पहले 
मेरे हिस्से का प्यार रख जाते थे 
मां के पास. 

मां आज भी 
हंसने की बात पर हंस देती है 
दुखी होती है तो रो देती है 
पिता आज भी चुप रहते हैं 
आंख मगर सब कह देती है.

प्रोमिला क़ाज़ी की छह कविताएँ

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प्रोमिला क़ाज़ी से मुलाक़ात सुमन केशरी जी के घर पर आयोजित एक अनौपचारिक कवि गोष्ठी में हुई थी और तभी उनकी कविताएँ पहली बार सुनी थीं. एन्द्रिक प्रेम की उनकी कविताओं का स्वभाव सूफियाना है. भाषा का ठाठ अलग है जहाँ हिंदी, उर्दू अंग्रेजी से शब्द सहज रूप से आते चले जाते हैं. जो दृश्य उभरते हैं इन कविताओं में वे बेहद विश्वसनीय हैं और सहज. प्रेम का जो रंग उनके यहाँ है, वह स्वप्न और यथार्थ के एक अनूठे संयोजन से आया है. 
असुविधा पर उनका स्वागत...और कविता मांगने तथा छापने में जो देर हुई है उसके लिए क्षमा मांगने का कोई अर्थ तो है नहीं..फिर भी. 




वो उसकी फटी एड़ियों को देर तक सहलाता रहा 
दिल के ठीक एन जगह पर जो गड्डा था 
उसे मोटे ब्रश के स्ट्रोक्स से लाल रंग में भरता गया 
वो राख उठाता रहा उसकी बुझी साँसों की 
उनसे नन्हें ताजमहल बनाता रहा 
अचानक वो रानी हो गयी ! 
और वो मुस्कुराता  रहा 
वो जी गयी !


उसने अपनी फीकी चाय की तली में 
उसे समूचा उड़ेल दिया 
बिना घोले वो घूँट घूँट पीता रहा 
और वो उसका घूँट घूँट 
और मीठा करती गयी 
दोनों तृप्त थे 



उसने इसका ज़र्रा -ज़र्रा 
गूंथ कर 
गोल अकार की एक बड़ी सी 
आकृति में 
अपने प्राण फूंक 
उसे सूरज बना के आसमानो में टांग दिया 
फिर अपने घर की खिड़िकियों पर  मोटे ,काले परदे लगा 
सूरज की रौशनी के ठीेक विपरीत वाली दिशा में 
अपना घर घुमा लिया !

4

तुम्हारे हाथो में पड़ा मेरा हाथ 
कैसे जान गया था प्रेम की भाषा 
मिल गया था तुम्हारे रक्त में  
और बहा था साथ साथ 
एक ठंडी और एक गर्म हथेली के बीच 
जमे रह गए 
वो तीन मिनट मुझ पर 
तुम्हारा क़र्ज़ है 

वो दुलार जो किसी अभिनय से नहीं उतरता 
आँखों में, या बातों में 
उसने मुझे भिगोया था 
सर से पाँव तक 
और मै हड़बड़ाती सी ढूँढती रही 
एक छज्जा बचने के लिए 
भीगने का वो डेढ़ घंटा 
मुझ पर तुम्हारा क़र्ज़ है 

इतने शोर इतने धुँए के बीच 
जो मुझ तक पहुंचा 
जितनी देर हम साथ थे 
वो बजता रहा 
वो तुम्हारा मध्यम स्वर में 
गाया गीत था और उसके शब्द 
छप गए थे मेरी देह पर जहाँ- तहाँ 
मेरी देह का हर सुर हर शब्द अब 
मुझ पर तुम्हारा क़र्ज़ है 

वो सैंडविच , वो पनीर का टुकड़ा 
जो मेरे होंठो से तुम्हारे ख्वाबो तक का 
छोटा सा सफर सदियों में तय कर पाया 
और दोनों की फीकी कॉफ़ी 
उन्हें दूर और दूर करती गयी 
और फिर पलक झपकते 
साथ बीते सारे समय को पोंछते 
वेटर का बिल थमा देना 
वो  एक सौ बहत्तर रुपया 
मुझ पर तुम्हारा क़र्ज़ है 

5

शतरंज की अंतिम बाज़ी 
शह उसकी तय 
और मात इसकी पक्की 
उठ गया वो 
चल पड़ा 
'अभी आता हूँ'कह कर 
और बाज़ी पड़ी रही 
धुप में, बरसात में 
सुबह, दिन, रात में 
शह की ख़ुशी 
धुँधली पड़ती रही वक़्त के साथ 
और मात वाला 
आज भी 
बचा हुआ है 
एक निश्चित 
अवसाद से ! 



जिस समय
सबसे अकेले
होगे तुम
उसी पल में मै
तुम्हारे भीतर
बना रही होऊँगी
मकड़ी के जैसा जाल
अपने निर्वासित प्रेम
की महीन तार से
और मर रही होऊंगी
उसी के बीच में फंस कर !
और हँस रही होऊंगी
तुम्हारे एकांत पर !


यह समर्पण ध्वनि है -तूर्य की सी बुझती हुई

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आज अपनी एक कविता जो तद्भव के ताज़ा अंक में प्रकाशित हुई है. 



(शुक्लाष्टमी)[1]

रात का वक़्त है नहीं है यह
बहुत मुमकिन है कि जो देख रहा हूँ वह स्वप्न हो कोई दुस्वप्न सा
पर वक़्त नहीं है रात का

देखो
साफ़ दिख रहा है आसमान में सूरज
जैसे किसी लाश की खुली रह गयी आँख
आसमान वीभत्स और विवस्त्र कि जैसे किसी ने झटके से खींच दिया हो चाल का परदा फटे टाट वाला
और उसमें मुचमुचाया सूर्य जैसे भौंचक ताकता कोई बूढ़ा अपाहिज
बादलों के मटमैले टुकड़े कि जैसे उसके वस्त्र हों कीचट
हवा की सांय-सांय जैसे अर्धनग्न बच्चियों की चीत्कार, भाग-दौड़

वक़्त नहीं है रात का यह
अंधेरों पर नहीं थोप सकते अपने अंधत्व का दोष हम.

नीम उजाला भी नहीं चमकती रौशनी में चला आ रहा है राजा का रथ काले अरबी घोड़ों से जुता लहू के कीचड़ में दौड़ता चीरता धरती के सीने को रोज़ नए जख्म बनाता गूंजता है स्वर विजयी तूर्य का भयावह ध्वजा पर देवता सवार सारे पुरोहितों के मंत्रोच्चार से भयभीत पक्षियों की चीत्कार से भर गया है आकाश तांत्रिक शहरों के बीच-ओ-बीच पढ़ रहे उच्चाटन कर रहे हवन

ॐ लोकतंत्राय स्वाहा
ॐ मनुष्यताय स्वाहा
ॐ सत्याय स्वाहा
ॐ प्रकाशाय स्वाहा
ॐ एम हवीं क्लीं स्वप्नाय नमः स्वाहा

कर रहे समिधा में समर्पित जीव-अजीव-सजीव-निर्जीव उठ रही अग्नि, धुएँ से भरी दसो दिशाएँ,चीत्कार से भरी, भरी आर्तनाद से हाहाकार से जयकार से विलाप से परिहास से अट्टाहास से! 

वर्तमान,भूत और भविष्य के स्वप्न
रौंदते हुए सब
अश्व हैं कि भागते ही चले जाते हैं 


(दो)

राजा के पीछे खड़ी
चतुरंगिणी फौज़ बड़ी
तोप और बन्दूक लिए
भरे हुए संदूक लिए
टीवी के चैनल हैं
दफ्तर अखबार के
झुज झुक के गाते हैं
गीत सब दरबार के

राजा के पाँव को
राजा की छाँव को
राजा के नाम को
मुख को मुखौटे को
कुत्ते-बिलौटे को
चूमते-चाटते
रेंगते केंचुए सा
फुंफकारते नाग से
भेडिये से काटते

पीछे-पीछे भागते हैं हाथ में कलम लिए
भाषा के कारीगर जादू बिखेरते
कला कला गा गा के सिक्के बटोरते
नोच नोच फेंकते हैं चेहरे पर के चेहरे
आँसू बहाते हैं, रोते हैं, गाते हैं, चीखते चिल्लाते हैं

कोट काला टांग कर
आला लहराते हुए
प्रेस क्लब का नया पुराना
बिल्ला चमकाते हुए
कविता सुनाते हुए
कहानी बनाते हुए
एकेडमी से कालेज से
पार्टी मुख्यालय से
मल मल के आँख जागे सब
दिन के उजाले में
भागे सब भागे सब

जय श्रीराम, हनुमान जय
जय जय भवानी  
जय अक्षरधाम जय
हम भी हैं हम भी है हैं हम ही हैं..हम 
बम बम बम बोल बम 
एक नज़र देखो तो
राजाजी नहीं अगर सारथि जी देखो तो
देखो न कर दो न हम पर भी ये करम
जय जय अमेरिका सी आई ए की जय जय
वर्ण की व्यवस्था जय आप ही की सत्ता जय

कोई नहीं सुनता कोई कान भी देता नहीं
सडक किनारे खड़ा जन ध्यान भी देता नहीं

देखते ही देखते क्या हुआ ग़ज़ब हुआ
कलम लिए लिए जोंक बन गए सारे
जाकर चिपक गए अश्वों की पीठ से पूँछ से पैर से लिंग से अंड से
कुछ जो चतुर थे जा चिपके राज दंड से

और अश्व हैं कि भागते ही चले जाते हैं 







(तीन)


ये कौन सी औरतें हैं अर्धनग्न खड़ीं राह में
?

कौन ये वनवासिनें जिनके हाथ में जयमाल नहीं पुष्पगुच्छ नहीं
जिनकी आँखों में भय नहीं क्रोध है संताप है
चीत्कार सी लगती है जिनके विलाप की ध्वनि
फटी बिवाई वाले पैरों वाली यह कैसी औरतें खड़ी हैं राह में?
कैसी शक्लें कुरूप कैसा स्वर रुक्ष!

इन्हें दूर करो चीखता है सारथी और अश्व चींथते चले जाते हैं उनका अस्तित्व
रौंदते हुए उनका क्रोध उनकी चीत्कार उनका विलाप

यह धरती पर बिछे पलाश के फूल नहीं हैं
उन आवाजों का रक्त है
उन विलापों का रक्त
संतापों का रक्त
भागते हैं अश्व तीर से चुभते हुए जंगल के सीने में
चीखते हैं मोर, मणि, वनदेवी स्वर में समवेत
कहता है सारथी उन्मत्त से स्वर में
यह समर्पण ध्वनि है -तूर्य की सी बुझती हुई

विजय मद में मदमस्त राजा
चीखता है,गाता है, अपने ही गले को बाजे सा बजाता है
बांस की फुनगियों को नोचता है
खखोर डालता है धरती का गर्भ अतिथियों को बांटता है
पदवियां समेटता है भाल पर सजाये हुए तिलक रक्ताभ अपनी धुन में गाता है
और अश्व हैं कि भागते ही चले जाते हैं  ...

वहाँ जहाँ पहियों के निशान छूट गए हैं विजय चिन्ह की तरह
वहीँ पाँव के निशान कुछ उभरते हैं,
वहाँ जहाँ बज गयी है विजय ध्वनि
कुछ पुरानी आवाजें ठिठकी हुई हैं वहाँ
वहीँ जहाँ धरती के
गर्भ में घाव है हो रही है हलचल कुछ
 गीत कुछ विचित्र धुनों में बज रहे हैं
घायल से सैनिक कतारों में सज रहे हैं

औरतें वे फिर से उठकर खड़ी हुईं
और उनके हाथ में फूल नहीं बन्दूक है
लाशों के बीच रखतीं संभल संभल के क़दम
थर-थर-थर कांपती नसों में संकल्प प्रतिघात का
संकल्प एक युद्ध का नई शुरुआत का
भय का निशान नहीं 
चेहरे की चोटों में गुस्सा अकूत है 
गाँवों में, खेतों में, बंजर मैदानों में
भूख से भरे हुए दक्खिन टोले,सहरानों में

दृश्य में..
स्वरहीन कंठ हैं रुंधे हुए, नीली नीली लाशें, कीचड़ भरी आँखों से देखते हैं वृद्ध जन भागते हैं पीछे पीछे, भागती हैं औरतें, भागते हैं बच्चे, जानवर भागते हैं. खेतों की मेढ़ों पर, भूतिया से डेरों पर, सूखे हुए कूपों में, ख़ाली बखारों में, मंदिर के ओटले पर, मस्जिद में, गिरजे में और गुरद्वारों में, ऊंघते बेकारों में मची हाहाकार है..

दृश्य में...
राजा के रथ, अश्व, तूर्य, ध्वजा
भव्य सैन्य दल अस्त्र-शस्त्र से सजा
नेपथ्य में अन्धकार घोर है
शांति नहीं, संगीत नहीं, संभावना है
शोर है!

कोई नहीं देख पाता कि घोड़े के पाँव में गहरा एक घाव है
रुधिर जो जंगल की धरती पर पसरा पलाश सा
कुछ बूंदे गिरकर उसमें मिलती जाती हैं
निःशब्द
टापों के बीच टप-टप-टप
और अश्व हैं कि भागते ही चले जाते हैं  ...







(तीसरा सुत्या दिवस) [2]

राजधानी की सुसज्जित यज्ञशाला
हवन कुंड है धधकता
हविष्य घृत धूप चन्दन
मन्त्रजाप तीव्र, ध्वजा है फहरती
सातों दिशाओं से झुकाए सर खड़े नृप अधिपति कुलाधिपति
इतिहास कंधे झुकाए विज्ञान के संग धो रहा बरतन
बुहारता है राह गीले चश्में से झाँकता वह कृशकाय वृद्ध 
सीने में गोलियों को पुष्पमाल सा सजाये
हंस रहा है गोडसे
तेज़ होते जा रहे हैं अट्टहास
एक बच्चा नींद से उठ रो पड़ा है
डर के शोर से

सोमरस की गंध तीखी
तेज़ मंत्रोच्चार
पारिप्ल्व समाप्त सारे,दीक्षाएं समाप्त, समाप्त उपसद
उपांग याग[3]की प्रतीक्षा में झूमते हैं विप्रवृन्द
बलिगृह से उठ रहीं चीख़ें निरंतर
मन्त्रों में डूबते चीत्कार के करुण स्वर

और उधर वस्त्रावरण में
नग्न महिषी पुरोहित नग्न अश्व घायल
वावाता[4]को गोद में बिठाए राजा उन्मत्त
घायल है अश्व, महिषी घायल पुरोहित कामातुर पढ़ता है मन्त्र करता केलि
            अश्व के पाँवों से रुधिर महिषी की आत्मा से बह रहा है रक्त
                                                                   पुरोहित उन्मत्त
                                                                       राजा उन्मत्त
                                                                    बह रहा है रक्त
                                                               पर्वत शिखर से रक्त
                                                                महासागरों से रक्त
                                                                      जंगलों से रक्त
                                                                    पुरोहित उन्मत्त
                                                                        राजा उन्मत्त
और फिर उठता है खड्ग अंतिम बलिष्ठ
गूंजती जयकार धड़ से अलग सर
लड़खड़ाते पाँव श्लथ रुधिर के भंवर में डूबते हैं
अश्रु स्वेद रक्त सब धरा को चूमते हैं
चौंक कर देखता है उसे राजा और फिर मुंह फेर लेता है
जंगली नदी सी रुधिर की एक धार आती है
और धर्म की ध्वजा और और फहराती है.

उठता हूँ नींद से जाने कि जागरण से
पसीना है कि खून है जाने
अंधेरा इतना कि आँख को कोई रंग नहीं सूझता !




--------
इसे यहाँ सुना भी जा सकता है।



[1]परम्परा में अश्वमेध यग्य का आरम्भ शुक्लाष्ट्मी को ही होता है.
[2]सुत्या सोमरस बनाने की विधि को कहते हैं. अश्व के लौटने के बाद तीन दिनों तक चलने वाले समारोह को सुत्या दिवस कहते हैं.
[3]दान दक्षिणा से अर्थ है
[4]राजा की प्रिय उपपत्नी 

राकेश रोहित की छः कविताएँ

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राकेश रोहित की कविताएँ मैंने अभी ब्लाग्स और फेसबुक पर ही पढ़ी हैं। वह काफी सक्रिय हैं और कविता को लेकर उनकी चिंताएँ भी अक्सर सामने आती रहती हैं हालाँकि ये चिंताएँ कविता के भीतर तक नहीं सीमित। राकेश भाषा को लेकर सजग हैं और विषयों की तलाश में अपने अगल बगल से लेकर देश दुनिया में भटकते हैं। असुविधा पर पहली बार प्रकाशित करते हुए मैं उनका स्वागत करता हूँ (आजकल हार्दिक के अर्थ बदल गए हैं ... तो सिर्फ स्वागत। ) और उम्मीद करता हूँ आगे भी उनका सहयोग मिलता रहेगा।  




जिजीविषा

डूबने वाले जैसे तिनका बचाते हैं
मैं अपने अंदर एक इच्छा बचाता हूँ।

कहने वालों ने नहीं बताया
नूह की नाव को
यही इच्छा
खे रही थी
प्रलय प्रवाह में!
संसार की सबसे सुंदर कविताएँ
और बच्चे की सबसे मासूम हँसी
इसी इच्छा के पक्ष में खड़ी होती हैं।

आप कभी गेंद देखें
और पास खड़ा देखें छोटे बच्चे को
आप जान जायेंगे इच्छा कहाँ है!



सुविधा और दिशा

सड़क पर निकलते ही
अपने रूट की खाली बस देखकर मैं चौंक गया
भीड़ बिल्कुल नहीं थी
कम लोग थे
और खिड़की वाली सीट भी खाली थी।
पर मैं उस पर चढ़ नहीं सका
बस उलटी दिशा में जा रही थी।

एक सीधी बात जो मुझे समझनी थी
सुविधा से अधिक दिशा महत्वपूर्ण है!

दोस्तों! क्या आप हर सुविधा से पहले पूछते हैं,
आप किस दिशा में जा रहे हैं?


खरगोश नहीं हैं लोग

आज जब मेरे पास सिर्फ शब्द हैं
आप पूछते हैं शब्दों से क्या होता है?
और जो कुछ शब्दों के सहारे
काट लेते हैं पूरी जिंदगी
क्या आप उनसे भी यही सवाल पूछेंगे?


मैं जानता हूँ आप पूछ सकते हैं
क्योंकि निर्दोष नहीं है आपकी हँसी भी
जो एक तमाशे की तरह धीरे- धीरे फैलती है
तो चाटुकारों को एक नया काम मिल जाता है।


प्रशंसा की काई फैल गयी है
आपकी ज्ञानेन्द्रियों पर
आप सोचते हैं आप खुश हैं
इसलिए खुश हैं सारे लोग!


आप जान नहीं पाते
आप इसलिए खुश हैं
कि आपकी खुशी की लोगों को परवाह नहीं है।
...और जिन शब्दों के प्रति संशय से
चमकता है आपका ललाट
उन्हीं शब्दों को बचाने के लिए
तूफानों से लड़ते हैं लोग
जिनके बारे में आप समझ बैठे हैं
कि वे इच्छाओं की झाड़ियों में दुबके हुए खरगोश हैं।


वही निराशा, वही उम्मीद


हम वही दुहरायी हुई जिंदगी जीते हैं!
हर दिन को एक नयी चमक से उठाते हैं
हाथ तक आते-आते
कितनी सारी ऊष्मा
कितना सारा आह्लाद
एक अविश्वास में तब्दील हो जाता है!

एक झिझक भरी स्वीकृति
इस वाक्य के दोनों सिरों पर दौड़ती है
यही दिन मैंने उठाया था
यहीं उम्मीद से मैं भर गया था

जीवन श्रृष्टि का कोई विस्मृत मंत्र है
हर बार अस्पष्ट भाषा के साथ
समिधाएँ हवन होती हैं

एक उतेजित हड़बड़ाहट से भरा मैं
सोचता हूँ-
यह दिन, यही जीवन
यही आख़िरी महीने का पहला सप्ताह
यही वर्षांत की अंतिम संध्या
यहीं कुछ अटका, कुछ ठिठका है
मेरे धुंधले जीवन की स्पष्ट शब्दचर्या!

कुछ नहीं है
कहते हुए मैं भर गया हूँ
हम वही दुहरायी हुई जिंदगी जीते हैं
वही निराशा,. वही उम्मीद!


चिड़िया की आँख


शर संधान को तत्पर
व्यग्र हो रहे हैं धनुर्धर
वे देख रहे हैं केवल चिड़िया की आँख!

यह कैसा कलरव है
यह कैसा कोलाहल है?
जो गुरूओं को सुनाई नहीं देता
अविचल आसन में बैठे वे
नहीं दिखाई देता उनको
चिड़िया की आँखों का भय।

यह धनुर्धरों के दीक्षांत का समय है
राजाज्ञा के दर्प से तने हैं धनुष
और दूर दीर्घाओं मे करते हैं कवि पुकार-
राजन चिड़िया की आँख से पहले
चिड़िया दिखाई देती है
और चिड़िया से पहले उसका घोसला
जहाँ बसा है उनका कलरव करता संसार।
राजन इन सबसे पहले दिखाई देता है
यह सामने खड़ा हरा- भरा पेड़
जो अनगिन बारिशों में भींग कर बड़ा हुआ है
और उससे पहले वह बीज
जो किसी चिड़िया की चोंच से यहीं गिरा था
उन बारिशों में।

वह पेड़ दिखाई नहीं देता धनुर्धरों को
जिस पेड़ के नीचे सभा सजी है
पर पेड़ को दिखाई देता है
चिड़िया की आँखों का सपना
जिस सपने में है वह पेड़
चिडियों के कलरव से भरा।

शांत हैं सभी कोई बोलता नहीं
श्रेष्ठता तय होनी है आज और अभी।
कोई खतरे की बात नहीं है
पेड़ रहेंगे, चिड़िया रहेगी
वे बेधेंगे केवल चिड़िया की आँख!



तैयार हैं धनुर्धर
नजर उनकी है एकटक लक्ष्य पर
देख रहे हैं भरी सभा में
वे केवल चिड़िया की आँख!
उन्हें खबर नहीं है
इसी बीच
उनके कंधे पर
आकर वह चिड़िया बैठ गयी है
देख रहे थे सब केवल जिस चिड़िया की आँख!


बदलते मनुष्य का रंग विचार की तरह नहीं होता

यह देखो- हरा, उन्होंने कहा
मैंने देखा वो पत्तियाँ थीं
और मुझे उनमें मिट्टी का रंग दिख रहा था।
ऐसा अक्सर होता है
मुझे बच्चे की हँसी नीले रंग की दिखती है
समंदर की तरह विराट को समेटे
और लोग बार- बार कहते हैं
पर उसकी शर्ट का रंग तो लाल है!

जैसे बदलते मनुष्य का रंग
उसके विचार की तरह नहीं होता
खो गयी चीजों का रंग वही नहीं होता
जो खोने से पहले होता है
जैसे बीजों का रंग वह कुछ और होता है
जो उन्हें फूलों से मिलता है
और वह कुछ और जो मिट्टी में मिलता है।

इस सदी के बच्चे बहुत विह्वल हैं
वे अपना खेलना छोड़
घने जंगलों में भटक रहे हैं
एक अँधेरे कुंए में खो गयी हैं उनकी सारी गेंद
और बारिश में आसमान की पतंगों का रंग उतर रहा है।

चीजें जिस तेजी से बदल रही हैं
रंग उतनी तेजी से नहीं बदलते
इसलिए खीरे के रंग का साबुन
मुझे खीरा नहीं दिखता
और मैं जब अंधेरे में चूम लेता हूँ
महबूब के होंठ
मैं जानता हूँ प्यार का रंग गुलाबी ही है।

ऐसे ही एक दिन मुझसे पूछा
पीली सलवार वाली लड़की ने
उम्मीद के छोटे-छोटे
कनातों का रंग क्या होगा?
मैं उसकी आँखों में उजली हँसी देख रहा था
उसके कत्थई चेहरे को
मैंने दोनों हाथों में भर कर कहा
ओ लड़की! उनका रंग निश्चय ही
तुम्हारे सपनों की तरह इंद्रधनुषी होगा।

विपिन चौधरी की कविताएँ

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हमारी पीढ़ी की महत्त्वपूर्ण कवि विपिन लगातार बेहतर कविताएं लिख रही हैं। असुविधा पर आप उन्हें कई बार पढ़ चुके हैं। उसकी ये चार कविताएं प्रेम को केंद्र में रखकर हैं , लेकिन टिपिकल अर्थों में प्रेम कविताएं नहीं हैं। यहाँ प्रेम के सामाजिक व्यापार से उपजे तमाम रंग हैं, प्रेम की राजनीति के कई अंतःपुरीय आख्यान हैं और एक स्त्री की इन सबमें अवस्थिति भी। बाक़ी सब पाठकों पर छोडकर मैं विपिन को इन कविताओं के लिए बधाई देना चाहता हूँ। 



अभिसारिका

ढेरोंसात्विकअंलकारोंसंग 
हवारोशनीध्वनि सेभीतेज़ भागते मनकोथामे   
सूरजमुखीके खिलेफूलसी 
चलीप्रिय - मिलन- स्थलकीओर   
पूरेचाँदकीछाँह तले
सांपबिच्छुओंतूफ़ान डाकूलुटेरोंकेभय  कोत्वरितलांघ
एकदुनियासेदूसरीदुनियामेंरंगभरती 
अभिसारिका   


सोचतीहुयी
होगीधीरोचितप्रेमी  सेमिल
तन-मनकी सारीगतियाँ स्थगित 


निर्विकारचित्त मेंप्रेम
शीशेमेंपड़े बालसा  


प्रेमीको यथास्थानपा 
लौटीजब उन्हीं पाँव 
घरकीदेहरीपर 
  
तबतुम्हारी निर्भीकताकोदायें हाथसे 
क्या किसीनेथामा अभिसारिका ?

यातुमने भीअकेलेही वरणकिया 
अपनेहौसलेका  स्याहपरिणाम 
आजसीबोल्डबालाओंकीतरह 
कहतेहुए  अनायास 
"इट्समाईलाइफ"


 सखीभीतुम, दुतीभी *  

कहाँसेआतीतुम 
लोपहोजातीकहीं 
हासअपरिहासरहते तुम्हरेआजू-बाजू 

प्रेमी- प्रेमिकाओं  केतमाम भेदसमझती  
सखीकेप्रेमी कागुपचुप तिरछे ताकनाभीपचालेती  गुपचुप 

दोतरफ़ा भेजासन्देशपढ़देती 
ज्योंकात्यों 

प्रेममेंविह्वलविरहणी  कोसमझाती  पग- पग 
'तेरीदशातेरेहठकेकारणहैरी'  

तेरेहीसहारे प्रेमगाढ़ाहुआ  रीसखी 
ज्योंपकताआमहोल -होल 
जबप्रेमअपना स्थानपाजायेगा
तबतेरी  ज़रूरतक्याहोगीरी मेरी दूती 

*दूतीकाकामनायक- नायिकाकोमिलानाहोताहै 



प्रीतकाभय 

कितने  प्रयत्नसे छुपाई मनकीदशा 
मनकी हारकोधकेलपरे  
प्रेमी-मन कीअंतर्कला को जाना   

ढाँपा प्रेम- आवेग 
अपनी मुस्कानसेकितनीहीबार  
प्रीतिकाभयकितनारीसखी 

अनिष्टकीआशंका 
चीरकीकसमसाहट 
चंचलमनकीधाह  
उसपरआकरणलाज  कापरिहासउड़ाता'वो


दिखावट नहींमेरी लाज 
प्रेममें भीरुहोनाभी,
शोभामेरी
प्रीतिकाभयभी
मानामैंनेमधुर

कुतूहलनहीं मेराप्रेम 
प्रेमभयसे 
उदासीननहींमैं  
मेराप्रेम 


  दक्षिणनायक *


श्रृंगाररसकाआलंबनले  
बदलताअनेकोंबाररूप -रंग

कोईअवसरनहींईर्ष्या, मानका 
सबप्रेमिकाएं खुशबेहदखुश 
बंधएकही  प्रेमिलडोर  से 

सबकोआनंदित रखनाकैसेसीखारेछलिया 
कैसी चतुराईतेरी 
हरमनकाफूलअपनीझोलीमेंसमेट 
डोलताफिरता करतातूरंगरंगीला नृत्य   

क्याहुआउनस्त्रियोंका ?
एकसेअधिकपरटिके जिनकेनयन 
वेअपने स्त्रीकेरुतबेसेभीधकेलदीगयी 

सुहाईसबको वे ही एकही उंगली पर खड़ीरहीजो  
एकनामजाप  वस्त्रोंसमेतमूर्तिमेंहुयीलोप 

दक्षिणनायककीजड़ोंकोजीवनमिलतारहा 
आजभीहै चौकसहैवह  
छलता
बिसराता हुआ 
प्रेमअनेक विरहणियों  का 

* जोसबनायिकाओंसेएकसाप्रेमरखता  है
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विपिन की असुविधा पर आईकवितायें आप यहाँ क्लिककरके पढ़ सकते हैं। 


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