Quantcast
Channel: असुविधा
Viewing all articles
Browse latest Browse all 273

सीता आज भी धरती के गर्भ में समा जाती है

$
0
0

देवयानी भारद्वाजको आपपहले भी असुविधापर पढ़ चुके हैं. यह कविता उन्होंने कुछ दिन पहले भेजी थी. हाल ही में बीते दशहरे से इसका संबंध सहज ही देखा जा सकता है, लेकिन यह सिर्फ वहीँ तक सीमित नहीं बल्कि उससे कहीं आगे जाती हुई बड़े धैर्य के साथ इतिहास और वर्तमान में आवाजाही करते हुए लैंगिक भेदभावों की राजनीति की तलाश करती है.

चित्र यहाँ से साभार 



सड़क पर खड़े निरीह पुतले रावण के  
कहते हैं पुकार पुकार  
देखो,
बुराई का प्रतिमान नहीं हूँ मैं  
सिर्फ कद बहुत बड़ा है मेरा  

हम आर्यावर्त के लोग  
सह नहीं पाते  
जिन्हें हमने असुर माना  
उनकी तरक्की और शिक्षा  
उनके ऊँचे कद से डर   जाते हैं  
डर जाते हैं स्त्रियों के  
अपनी कामनाओं को   खुल कर कह देने से  
स्त्री मुक्ति की बातें  
हमें घर को तोड़ने वाली ही बातें लगती हैं  

हम लक्ष्मण रेखाओं के दायरे में ही रखना चाहते हैं सीता   को  
और डरी सहमी सीता   जब करती है पार   लक्ष्मण रेखा
तो फँस ही जाती है किसी रावण के जाल में  
लेकिन क्या रावण ने जाल में फँसाया था  
या ले गया था उसे लक्षमण   रेखा की कैद से निकाल  
और कहा हो उसने  
'' प्रणय निवेदन मेरा तुम करो या न करो स्वीकार  
यह सिर्फ तुम्हारा है अधिकार  
तुम यहाँ रहो प्रेयसी  
अशोक वाटिका में  
जहाँ तक पहुँच   नहीं   सकेगा  
कोई भी सामंती संस्कार "  

जो जेवर सीता ने राह में फेंके थे   उतार उतार  
क्या वह   राम को राह दिखा रही थी  
या फेंक रही थी उतार उतार  
बरसों की घुटन और वे सारे प्रतिमान  
जो कैद करते थे उसे  
लक्ष्मण रेखा के दायरों में  
जबकि राम कर रहे हों स्वर्ण मृग का शिकार  

यह मुक्ति का जश्न था  
या थी मदद की पुकार  
इतिहास रचता ही रहा है  
सत्ता के पक्ष का आख्यान  
कौन जाने क्यों चली गयी थी तारा  
छोड़ सुग्रीव को बाली के साथ  
और किसने दिया मर्यादा पुरुषोत्तम को यह अधिकार  
की भाइयों के झगड़े में  
छिप कर करें वार  

कब तक यूं ही ढोते रहेंगे हम  
मिथकों के इकहरे पाठ  
और दोहराते रहेंगे  
बुराई पर   अच्छाई की जीत का नाम   
जबकि तथ्यों के बीच मची है कैसी चीख पुकार  
'घर का भेदी लंका ढाए'

केकयी   ने तो सिर्फ याद दिलाई थी रघुकुल की रीत  
पर यह कैसी जकड़न थी  
कि पादुका सिंहासन पर विराजती रहीं  
जिसे सिखाया गया था सिर्फ चरणों को पूजना  
और पितृसत्ता का अनुचर होना  
उसने इस तरह जाया किया  
एक स्त्री का संघर्ष  

जीवन भर पटरानी कौशल्या के हुकुम बजाती केकयी ने  
बेटे के लिए राज सिंहासन मांग कर पाला था   एक ख्वाब  
भूली नहीं होगी केकयी  
बरसों के अनुभव ने छीन   लिया होगा
अपने ही सुलगते सपनों को जीने का   आत्मविश्वास
कुछ पुत्रमोह भी बाँध रहा होगा पाँव  
आखिर दलित रानी की  
और भी दलित दासी ने चला दाँव  
और रघुकुल की रीत निभायी राम ने  
जैसे आज भी निभाते   हैं रघुकुल की रीत को कलयुगी राम   
औरतें और दलित सब ही बनते हैं पञ्च और सरपंच  
सिंहासन पर अब भी पादुकाएँ बिराजती हैं  

जिस नव   यौवना सीता को पाने चले गए थे राम  
अपार जलधि के भी पार  
वह प्रेम था या अहम पर खाई चोट की ललकार  
आख्यान कहाँ बताते हैं पूरी बात  
या रचते हैं रूपकों का ऐसा महाजाल  
सीता स्वेच्छा से देती है अग्नि परीक्षा  
और गर्भावस्था में कर दिया जाता है उसका परित्याग  
न राम के पास था नैतिक साहस  
और लक्ष्मण का भी था मुंह बंद  
सत्ता की राजनीति में सीता  
बार बार होती रही निर्वासित   
और वाल्मीकि के आश्रम में   पाती रही   शरण  
राम के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े स्वतंत्र घूमते रहे  

लव कुश लौट - लौट कर जाते हैं  
अयोध्या के राज महल  
सीता आज भी धरती के गर्भ में समा जाती है

Viewing all articles
Browse latest Browse all 273

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>