आनंद कुमार द्विवेदीको मैंने फेसबुक से ही जाना. दिल्ली में एक बहुत छोटी, लेकिन आत्मीय मुलाक़ात के अलावा उनसे मेरा सम्पर्क नेट से ही है. बीच-बीच में उनके कुछ शेर यहाँ-वहाँ देखे और ग़ज़ल के व्याकरण से अपने नितांत अपरिचय के बावजूद उनसे बहुत प्रभावित हुआ. उनके यहाँ सिर्फ 'ग़म-ए-जाना' ही नहीं बल्कि ग़म-ए-दौराँ भी है, वह भी एक बेहद सादा लेकिन मानीखेज़ कहन के साथ...असुविधा पर उनका स्वागत
एक
दो चार रोज ही तो मैं तेरे शहर का था
वरना तमाम उम्र तो मैं भी सफ़र का था
जब भी मिला कोई न कोई चोट दे गया
बंदा वो यकीनन बड़े पक्के जिगर का था
हमने भी आज तक उसे भरने नहीं दिया
रिश्ता हमारा आपका बस ज़ख्म भर का था
तेरे उसूल, तेरे फैसले , तेरा निजाम
मैं किससे उज्र करता, कौन मेरे घर का था
जन्नत में भी कहाँ सुकून मिल सका मुझे
ओहदे पे वहाँ भी कोई तेरे असर का था
मंजिल पे पहुँचने की तुझे लाख दुआएं
‘आनंद’ बस पड़ाव तेरी रहगुज़र का था
(दो)
आ जिंदगी तू आज मेरा कर हिसाब कर
या हर जबाब दे मुझे या लाजबाब कर
मैं इश्क करूंगा हज़ार बार करूंगा
तू जितना कर सके मेरा खाना खराब कर
या छीन ले नज़र कि कोई ख्वाब न पालूं
या एक काम कर कि मेरा सच ये ख्वाब कर
या मयकशी से मेरा कोई वास्ता न रख
या ऐसा नशा दे कि मुझे ही शराब कर
जा चाँद से कह दे कि मेरी छत से न गुजरे
या फिर उसे मेरी नज़र का माहताब कर
क्या जख्म था ये चाक जिगर कैसे बच गया
कर वक़्त की कटार पर तू और आब कर
खारों पे ही खिला किये है गुल, ये सच है तो
‘आनंद’के लिए भी कोई तो गुलाब कर
(तीन )
मुश्किल से, जरा देर को सोती हैं लड़कियां,
जब भी किसी के प्यार में होती हैं लड़कियां
पापाको कोई रंज न हो, बस ये सोंचकर
अपनी हयात ग़म में डुबोती हैं लड़कियां
फूलों की तरह खुशबू बिखेरें सुबह से शाम
किस्मत भी गुलों सी लिए होती हैं लड़कियां
उनमें...किसी मशीन में, इतना ही फर्क है,
सूने में बड़े जोर से, रोती हैं लड़कियां
टुकड़ों में बांटकर कभी, खुद को निहारिये
फिर कहिये, किसी की नही होती हैं लड़कियां
फूलों का हार हो, कभी बाँहों का हार हो
धागे की जगह खुद को पिरोती हैं लड़कियां
‘आनंद’अगर अपने तजुर्बे कि कहे तो
फौलाद हैं, फौलाद ही होती हैं लड़कियां
(चार )
इस नाज़ुक़ी से मुझको मिटाने का शुक्रिया
क़तरे को समंदर से मिलाने का शुक्रिया
मेरे सुखन को अपनी महक़ से नवाज़ कर
यूँ आशिक़ी का फ़र्ज़ निभाने का शुक्रिया
रह रह के तेरी खुशबू उमर भर बनी रही
लोबान की तरह से जलाने का शुक्रिया
इक भूल कह के भूल ही जाना कमाल है
दस्तूर-ए-हुश्न खूब निभाने का शुक्रिया
आहों में कोई और हो राहों में कोई और
ये साथ है तो साथ में आने का शुक्रिया
दुनिया भी बाज़-वक्त बड़े काम की लगी
फ़ुरसत में आज सारे ज़माने का शुक्रिया
जितने थे कमासुत सभी शहरों में आ गए
इस मुल्क को ‘गावों का’बताने का शुक्रिया
ना प्यार न सितम न सवालात न झगड़े
‘आनंद’ उन्हें याद न आने का शुक्रिया
(पाँच )
भूख लाचारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
जंग ये जारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
अब कोई मज़लूम न हो हक़ बराबर का मिले
ख़्वाब सरकारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
चल रहे भाषण महज औरत वहीं की है वहीं
सिर्फ़ मक्कारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
अमन भी हो प्रेम भी हो जिंदगी खुशहाल हो
राग दरबारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
नदी नाले कुँए सूखे, गाँव के धंधे मरे
अब मेरी बारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
इश्क मिट्टी का भुलाकर हम शहर में आ गए
जिंदगी प्यारी नहीं तों और क्या है दोस्तों
(छह )
न ही कोई दरख़्त हूँ न सायबान हूँ
बस्ती से जरा दूर का तनहा मकान हूँ
चाहे जिधर से देखिये बदशक्ल लगूंगा
मैं जिंदगी की चोट का ताज़ा निशान हूँ
कैसे कहूं कि मेरा तवक्को करो जनाब
मैं खुद किसी गवाह का पलटा बयान हूँ
आँखों के सामने ही मेरा क़त्ल हो गया
मुझको यकीन था मैं बड़ा सावधान हूँ
तेरी नसीहतों का असर है या खौफ है
मुंह में जुबान भी है, मगर बेजुबान हूँ
बोई फसल ख़ुशी की ग़म कैसे लहलहाए
या तू खुदा है, या मैं अनाड़ी किसान हूँ
एक बार आके देख तो ‘आनंद’का हुनर
लाचार परिंदों का, हसीं आसमान हूँ !!