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श्रद्धांजलि - महेश अनघ

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१४ सितम्बर १९४७ - ४ दिसंबर २०१२ 



हिंदी के जाने-माने नवगीतकार महेश अनघ नहीं रहे.

कल उनके निधन की सूचना मिली तो क्या-क्या कुछ याद आ-आके रह गया. ग्वालियर के बिलकुल आरम्भिक दिनों में वह शास्त्रीनगर में मेरे पडोसी थे. उन दिनों लगभग हर शाम को उनसे मिलना होता था. कभी वह अपनी नातिन को खिलाते-खिलाते मेरे घर चले आते तो अक्सर मैं कोई नई कविता लिए उनके घर पहुंचता. वह बहुत धैर्य से सुनते और खासतौर पर भाषा और बिम्बों के स्तर पर बहुत क़ीमती सलाहें देते. लम्बे समय बाद मैंने कविता लिखनी शुरू की थी तो वह अनघ जी और ज़हीर कुरैशी साहब ही थे जिन्होंने न केवल हिम्मत बढ़ाई बल्कि लगातार लिखने और पत्रिकाओं में भेजने को प्रेरित किया. आज अगर थोड़ा बहुत लिख पाया हूँ तो यह इन बुजुर्गों के आशीष और डांट का ही प्रतिफल है. मैंने जब उन्हें अपनी पहली किताब दिखाई थी तो वह बहुत प्रसन्न हुए थे और वर्षों बाद किसी के पाँव छू कर मैंने आशीर्वाद लिया था. उनकी पत्नी श्रीमती प्रमिला जी भी साहित्य की मर्मग्य हैं. कभी-कभी उनके यहाँ डा राम प्रकाश अनुरागी, अतुल अजनबी,
राजेश शर्मा, घनश्याम भारती और दूसरे मित्रों के साथ महफ़िल जमती और अनघ जी बड़े शौक से अपने नए नवगीत सुनाते थे. वह तरन्नुम के बजाय तहत में सुनाना पसंद करते और उनकी मृदु आवाज़ तथा बहुत अच्छे उच्चारण में उनके गीत सच में और मानीखेज़ हो जाते.

मैं ही नहीं तमाम लोग ज़िद करते लेकिन लम्बे समय तक उन्होंने किताबें छपवाने में कोई रूचि नहीं दिखाई. नवगीतकार होने के बावजूद साठ-बासठ की उम्र तक बस उनका एक उपन्यास “महुअर की प्यास”और एक ग़ज़ल संग्रह “घर का पता” (जिसकी भूमिका दुष्यंत ने लिखी थी) छपे थे
, जबकि उनके गीत और कहानियाँ नियमित रूप से स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे थे. बाद में प्रमिला जी की कोशिशों से उनके दो गीत संग्रह 'झनन झकास' और 'कनबतियां' तथा एक कहानी संग्रह 'जोगलिखी' आया था. 'झनन झकास' का विमोचन ग्वालियर में ही हुआ था और उसका संचालन मैंने किया था. उन्होंने ललित निबंध भी ख़ूब लिखे हैं. अनघ जी का भाषा पर ग़ज़ब का नियंत्रण था और लोक-जीवन की गहरी समझ. विचारधाराओं से तो वह कभी मुतमइन नहीं हुए लेकिन उनकी स्वाभाविक पक्षधरता आम जन के प्रति रही और इसे वह कहानियों तथा गीतों में लगातार दर्ज कराते रहे.   



बीमार वह काफी दिनों से चल रहे थे. इधर वह किसी आयोजन वगैरह में आते भी नहीं थे. नए घर में उनके जाने के बाद मिलना भी कम ही हो पाता था..बस कभी-कभार फोन पर बात होती थी. अभी कुछ दिनों पहले ही प्रमिला जी से बात हुई थी फिर अचानक यह खबर...

उन्हें याद कर रहा हूँ तो आज उनका ही एक गीत याद आ रहा है.




मुहरबंद हैं गीत
खोलना दो हज़ार सत्तर में

जब पानी चुक जाए
धरती सागर आँखों का
बोझ उठाये नहीं उठे
पंक्षी से पाँखो का
नानी का बटुआ
टटोलना दो हज़ार सत्तर में

इसमें विपुल वितान तना है
माँ के आँचल का
सारी अला-बला का मंतर
टीका काजल का
नौ लख डालर संग
तोलना दो हज़ार सत्तर में

छूटी आस जुडायेगी
यह टूटी हुई कसम
मन के मैले घावों को
यह रामबाण मरहम
मिल जाए तो शहद
घोलना दो हज़ार सत्तर में 


कुछ और गीत

(एक)

कौन है ? सम्वेदना !
कह दो अभी घर में नहीं हूँ । 

कारख़ाने में बदन है
और मन बाज़ार में
साथ चलती ही नहीं
अनुभूतियाँ व्यापार में

क्यों जगाती चेतना
मैं आज बिस्तर में नहीं हूँ । 

यह, जिसे व्यक्तित्व कहते हो
महज सामान है
फर्म है परिवार
सारी ज़िन्दगी दूकान है

स्वयं को है बेचना
इस वक़्त अवसर में नहीं हूँ । 

फिर कभी आना
कि जब ये हाट उठ जाए मेरी
आदमी हो जाऊँगा
जब साख लुट जाए मेरी

प्यार से फिर देखना
मैं अस्थि-पंजर में नहीं हूँ
(दो)

मची हुई सब ओर खननखन
यूरो के घर-डॉलर के घर
करे मदन रितु चौका-बर्तन

किस्से पेंग चढ़े झूलों के
यहाँ बिकाने वहाँ बिकाने
बौर झरी बूढ़ी अमराई
क्या-क्या रख लेती सिरहाने
सबका बदन मशीनों पर है
मंडी में हाज़िर सबका मन

मान मिला हीरा-पन्ना को
माटी में मिल गया पसीना
बड़े पेट को भोग लगा कर
छुटकू ने फिर कचरा बीना
अख़बारों में ख़बर छपी है
सबको मिसरी सबको माखन

सोलह से सीधे सठियाने
पर राँझे की उमर न पाई
फूटे भांडे माँग रहे हैं
और कमाई और कमाई
जहाँ रकम ग्यारह अंकों में
वहाँ प्रेत-सा ठहरा जीवन

दो बच्चे तकदीर मगन है
एक खिलाड़ी एक खिलौना
दो यौवन व्यापार मगन है
एक शाह जी एक बिछौना
मुद्रा का बाज़ार गरम है
इसमें कहाँ तलाशें धड़कन
(तीन)

मूर्तिवाला शारदे को
हथौड़े से पीटता है
एक काले दिन


कलमुँही तू दो टके की क्यों गई थी कार में
क्या वहां साधक मिलेंगे सेठ में सरकार में
खंडिता हो लौट आई हाथ में बख्शीस लेकर
पर्व वाले दिन

तू फ़कीरों कबीरों के वंश की संतान है
साहबों की साज सज्जा के लिए सामान है
इसलिए कच्चे घरों में ओट देकर तुझे पाला
और टाले दिन


कामना थी पाँव तेरे महावर से मांड़ते
फिर किसी दिन पूज्य स्वर से सात फेरे पाड़ते
क्या करें ऊँचे पदों ने पद दलित कर छंद सारे
मार डाले दिन


(चार) 
चैक पर रकम लिख दूं, ले कर दूं हस्ताक्षर
प्यार का तरीका यह
नया है सुनयनी।

छुआ छुअन बतरस तो
बाबा के संग गए
मीठी मनुहार अब यहां कहां
छेड़छाड़ रीझ खीझ
नयन झील में डुबकी
चित्त आर-पार अब यहां कहां
रात कटी आने का इंतज़ार करने में
जाने के लिए
भोर भया है सुनयनी।

कौन सा जन्मदिन है
आ तेरे ग्रीटिंग पर
संख्याएं टांक दूं भली भली
सात मिनट बाकी हैं
आरक्षित फ़ुरसत के
चूके तो बात साल भर टली
ढ़ाई आखर पढ़ने, ढाई साल का बबुआ
अभी-अभी विद्यालय
गया है सुनयनी।

मीरा के पद गा कर
रांधी रसखीर उसे
बाहर कर खिड़क़ी के रास्ते
दिल्ली से लंच पैक
मुंबईया प्रेम गीत
मंगवाया ख़ास इसी वास्ते
तू घर से आती है, मैं घर को जाता हूं
यह लोकल गाड़ी की
दया है सुनयनी।



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