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दुःख से कितना भी भरी रहे एक कविता एक समुद्र का विकल्प होती है.- अरविन्द की कवितायें

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  अरविन्द की कवितायें इधर पत्रिकाओं और ब्लाग्स में  लगातार आई हैं. उनके यहाँ कविता के लिए ज़रूरी ताप भी है और वह मिनिमलिज्म भी जो इधर अक्सर या तो कम होता गया है या एक गूढ़ और अपठनीय  शिल्प में रूपांतरित. अरविंद की कविताएँ पढ़ते हुए हमारे आसपास की दुनिया के कुछ बेहद परिचित दृश्य एक मानीखेज बिम्ब की शक्ल में कुछ इस तरह आते हैं कि वे चमत्कृत करने की जगह भीतर के किसी खालीपन को भरते से लगते हैं. ज़ाहिर है कि हम उन्हें बेहद उम्मीद के साथ देख रहे हैं...

Sabin Corneliu Burga की पेंटिंग यहाँ से साभार 


एक

सोचता हूँ
एक तस्वीर लूँ तुम्हारी जिसमे
तुम्हारे बगल में खड़ा
मै नहीं रहूँगा
बस बगल में खड़ा रहने की मेरी इच्छा रहेगी

तस्वीर लेने के ठीक पहले
जो गुजर गयी हो एक चिड़िया
वह आये उसमे
और ठीक बाद
गिर रही पत्ती भी.

तस्वीर में बालों की एक लट
जो चहरे पर नहीं गिरेगी की वजह
हवा नहीं रहेगी
वह लट गिर जाये की बस एक क्रिया रहेगी.

एक मद्धम मुस्कान
जो तुम मेरे लिए हंसोगी 
वह नहीं रहेगी


उपजा था जो गुस्सा तुम्हारा नाक को लाल करते
थोड़ी देर पहले थोड़ी देर से आने पर
वह रहेगा.
संग में मै नहीं


तुम्हे हँसा लेने की मेरी एक गुदगुदी रहेगी.
पिघल रही एक आइसक्रीम नहीं रहेगी
तुम्हारे होठों पर बसा हुआ उसका स्वाद रहेगा
मै नहीं रहूँगा
बस एक बहाना रहेगा.

कई वर्षों के बाद
देखना जब मै नही रहूँगा कि
कैसे इच्छाएं एक गुजर गए आदमी को
''तस्वीर में'' जीवित कर देती है


दो

नहीं पढ़ी गयी कविताओं से भी
मै प्रेम करता हूँ
दुनिया में इतनी भाषाएँ हैं 
मै कहाँ जानता हूँ !
बस कोई एक मेरा प्रिय कवि नहीं है
इस तरह तो कई प्रिय कवि छूट जायेंगे
दुनिया में इतने प्रिय कवि है
मै सबको कहाँ जानता हूँ!
जो नहीं लिखी गयी है कवितायेँ
मै उनसे भी प्रेम करता हूँ
दुनिया में
एक कवि के पास ढेर सारे दुख है
जब लिखने से पहले ही रोने लगा हो कवि
और एक कविता
नहीं कविता रह जाये.

बहुत सारी नहीं कवितायेँ भी है
जो होती दुनिया की सुन्दर कवितायेँ
उन्हें कोई नहीं जानता
मै उनसे भी प्रेम करता हूँ.

मै उन सारे कवियों से प्रेम करता हूँ
जिन्होंने कर ली आत्महत्याएं
जिनकी हत्याएं कर दी गयी
या जिन्हें चौराहों पर टांग दिया गया
जो होते तो मेरे समय के अभिभावक होते
जो होते तो उनके कई संग्रह होते
मै उन नहीं संग्रहों से प्रेम करता हूँ.

मै उनकी जगह लेना चाहता हूँ
मै चाहता हूँ वे मेरे मुंह से बोलें.

(अंतिम दो पंक्तियाँ – मंगलेश डबराल की डायरी से)

तीन

कोई तुरंत नहीं मरता


एक नदी धीरे धीरे मरती है
एक तारा अचानक नहीं टूटता
एक कवि चुपके से नहीं मरता
एक सभ्यता कितना भी मरे
बीज भर बची रहती है.

एक नदी पूरी पृथ्वी भर समय के लिए होती है
एक तारा आकाश भर समय के लिए होता है
एक सभ्यता मनुष्यता भर समय के लिए होती है
एक कवि दुःख भर जीवन के लिए होता है

कई चीजें बेसमय चली जाती है
और हम उनके बचाओ की पुकार सुनते रहते है
हमारे पास बचाव भर समय रहता है
पर हम गवाह भर भी समय नहीं हो पाते.
और पृथ्वी दुःख में गलती जाती है


कोई कहे हमें नहीं मालूम
तो हम एक हत्यारे की ही भूमिका
निभा रहे होते है.

चार

रात से पहले परछाई की तरह
शाम आती है
शाम सुन्दर दिखती है


रात से
चाँद
रात पर
सूरज की परछाई है
.
चाँद में
रंगी रात
दिन से सुन्दर दिखती है.
तुम नहीं आती
तुम्हारी परछाई बन के
तुम्हारी याद आती है
तुम्हारी याद
माना कि तुम नहीं
पर तुम से कम नहीं लगती

                   
पांच  

गर्भ में चौथी बार हत्या कर दी गयी बच्ची
पहुँच गयी
फिर ईश्वर के पास
ईश्वर हैरान था.
इन दिनों उसका कर्ता धर्ता
जीवन का लेखा जोखा लेकर हैरान था.
उसके सारे उपाय असफल होते जा रहे थे.
ईश्वर बुदबुदाया
कि कितना कमीना है वह इन्सान
उसने बही में लिखवाई कि वह मरेगा खुद अपने हांथो
पांचवी बार गयी वह लड़की
और पैदा हो गयी.
उसने शिकायत नहीं की अपने पिता से
और पहली लड़की बन कर जीवित रही.
उसने हत्यारा नहीं कहा उसे
पिता ही बुलाती रही.
एक रात जब आत्महत्या करने जा रहा था वह
जिस पल दबाने वाला था वह ट्रिगर
एक दस्तक हुई
उसने देखा कि चाय लिए लड़की खड़ी है.
जैसे जीवन से भाप निकलती है
वैसे ही चाय से भाप निकल रही थी.
उस रात बताया उसने अपने पांचवी होने के बारे में
और आत्महत्या की तारीख के बारे में
जिसे उसने पृथ्वी पर आते हुए सुन लिया था.
ईश्वर फिर हैरान था

छः
लैम्पपोस्ट अपनी चकाचौंध के बाद भी
कितना निरीह और एकाकी दिखता है
इतना दुखी कि
शायद ही कर सके कोई उसका अभिनय भी

और हो भी क्यों ना
रात के सन्नाटे में वहां रुकता है
एक रिक्शा वाला,अपने खुरदुरों दुखों के ताप से
जलाता है अपने हिस्से की चिंगारी
अभी तुरंत मर गए एक आदमी की
शिनाख्त के लिए वह जलता है पूरी ताकत से
एक बिना आसमान की स्त्री
रात की बेगारी के बाद
गिरती है वहां अपने नुचे पंखो के साथ
और ठीक करने लगती है आईने में अपना वजूद
रात के अंतिम पहर में भी
जलता है वह पूरी आत्मा से
कि कोई भी आ सकता है उसकी रोशनी में
पढ़ने अपना भूला हुआ पता
दूर से आई हुई चीख को सुनता रहता है वह


पड़ रही घनी ओस के बीच
खड़ा रहता है सर झुकाए विवश किसी कवि की तरह


कि भूलकर भी नही करना चाहिए लैम्पोस्ट का अभिनय भी
अचानक बुझ सकता है हृदय.
                                                                                     




सात  

बहुत सी मेरी कवितायेँ खो गयी
जीवित
साँस ले रही वे कविताये कहाँ होंगी.

क्या वे मिलेगी
तो बढ़ गयी होंगी कई अच्छी पंक्तियाँ
शायद हाँ!
कई तो अधूरी थी
शायद वे पूरी हो गयी हो.

वे जो जेब में रखी थी
घुल गयी एक दिन पानी में
देर तक रहा उदास मै
पानी और शब्द का रिश्ता तो होगा ही
पानी के पत्थर कविता की तरह कैसे मुलायम होते है.

जो भी हो पर होती है कवितायेँ अमर
वे तलाशती है एक घर
अपने होने के लिए.

एक उदास कविता
नहीं ऊबती अपने उदासी से आजीवन
प्रेम कवितायेँ हमेशा तलाशती है एकांत
दुःख से कितना भी भरी रहे एक कविता
एक समुद्र का विकल्प होती है.

                                                                                                       

आठ  

वह गोली नहीं चली 
पिघल गयी बन्दूक की नाल में ही
इतनी कम आवाज हुई कि
नहीं टूटी एक बच्चे की नीद
फूल पर बैठी रही एक तितली .

वह लोहा 
जो लाया गया था बुद्ध की नगरी से 
वह पिघलकर चाहता था होना 
किसी बच्चे के जन्मोत्सव के लिए एक केक.

वह गोली नहीं बनना चाहता था
नहीं उड़ाना चाहता था एक बच्चे की नीद
एक तितली 
वह देह को खोखला नहीं करना चाहता था.

क्या वह लोहा 
अशोक की तलवार से गिरा था
क्या वह उस घोड़े की नाल से लगा था
जिससे बुद्ध गए थे वन में
या वह क्षत्रप से गिरा था.

जो भी हो 
उसका स्वप्न
युद्ध नियंताओ के सपनों पर भारी पड़ गया था.



                           _________________________________________________
अरविन्द 

जन्म- 29/07/1987

तद्भव ,कथादेश,वागर्थ,परिकथा में कवितायेँ आई।बी एच यु से स्नातक और परास्नातक हिंदी साहित्य से , छपने और लिखने से ज्यादा पढ़ने में यकीं ,प्राइमरी स्कूल में अध्यापन।फिल्मों में विशेष रूचि।

संपर्क -7376844005 

            
  

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