Quantcast
Channel: असुविधा
Viewing all articles
Browse latest Browse all 273

बुढ़ापा धरती की बर्फ़ ही तो है - वंदना शुक्ला

$
0
0

पेशे से शिक्षक, प्रशिक्षण से ध्रुपद गायक और मूलतः कहानीकार तथा विचारक  वंदना शुक्ला की कुछ कवितायें यहाँ-वहाँ प्रकाशित हुई हैं और इन कविताओं पर कहानी तथा वैचारिकता का प्रभाव बखूबी लक्षित किया जा सकता है. उनकी कवितायें अपने समय-समाज के स्थापित मूल्य-मान्यताओं पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए अक्सर एक आकुलता को साथ लिए चलती हैं. शिल्प के स्तर पर वंदना अभी बहुत सावधान नहीं लगतीं और अक्सर सबकुछ कह देने की एक बेकली किसी पहाड़ी नदी की तरह सारे बंध तोड़ कर बह जाने की ज़िद दिखाई देती है. असुविधा पर उनकी कविताओं का स्वागत  


धरती की बर्फ़

उम्र को आदत है
वक़्त के ब्रश से
चेहरों पर लकीरे खींचने की
और अस्त होते सूरज को
इन्हें पढ़ने की ऑंखे गडा

यूँ  
दिन और रात के
इस संधिकाल में 
आदमी का आदमी से बुत हो जाना लाजमी है
चित्रकार कहते हैं पोट्रेट में
झुर्रियाँ बड़ी कलात्मक दिखती हैं

मूर्तिकार गढता है नर्म मिट्टी से
एक एक सिलवट को, चुनौती की तरह 
ठीक उतने जतन से
बुनता है जैसे कोई बुढापा
कच्ची-सोंधी यादों से अपना बचपन
सपाट चेहरों को छेनी हथौड़ों की आदत
ज़रा कम होती है

चोटें ज़िंदगी के गहने हैं
मूर्तिकार का तजुर्बा कहता है ये ,
दर्शक फिराते हैं उँगलियाँ मूर्तियों के चेहरे पर
टटोलते हैं
पुरानेपन के किस्से   
छू छूकर
जैसे उधेडना चाहते हों उनके पीछे से झांकती 
अपने ही भविष्य की सींवन

पुरुस्कारों की तालियों से
घनघनाती है प्रथ्वी
कांपती है आत्मा मूर्ति की
युग के साथ देह का घर
बूढा होता जाता है 

बुढापा धरती की बर्फ़ ही तो है !


दुनियां  

तमाशबीन है बस्ती धरती की
दुनियां सिर्फ एक तमाशा है
बच्चों का खेल....

टूटता है खिलौना कोई तो
रो देती है,चीखती कभी बिसूरती हुई
क्रोध में तोडती है चाँद-सूरज
बगावत से कर देती है ज़मीन आसमां लाल
या फिर गिरफ्त में आता है आसमान में उड़ता कोई सपना 

खुशियों से भर देती है वो अपने मन की झोली  
दो चरम छोरों से पैबस्त 
मध्य की भाषा सिर्फ चुनौती है
जैसे दो सुबहों के बीच का अवकाश
अँधेरे के कुछ टुकड़े  
अन्धेरा रात का पर्याय है 
और रात भटकने की तासीर
हर नींद से पहले
रख देती हैं आंसुओं की बूँदें 
सूखने अपने गालों पर |

हर सुबह 
भूल जाती है वो अपना ही चेहरा 
ढूंढती है कोनों में घर के
कोई खिलौना और हंसना
...फिर टूटना ....फिर रोना


युद्ध

युद्ध एक शब्द है जिसके अर्थ का रंग लाल है
और चीत्कार स्वर हीन
आधुनिकता के इस भडकीले बाज़ार में युद्ध भी
एक उत्पाद की तरह चमकता है बड़े-बड़े लकदक शो रूमों में
प्रलोभनों,विज्ञापनों,महंगाई और विवशता के हथियारों से लड़ता
और अक्सर ढह जाता हुआ कुंठा के किसी अँधेरे कोने में
चमकीले उत्पादों से जूझते खुरदुरी परम्पराओं के वुजूद  

कुछ युद्ध जीतने के लिए नहीं ,
लड़े जाते हैं जिंदा रहने की शर्त पर
पैदा हो जाने की अनचाही बेढब ज़मीन के ऊपर  
आदि अंत से निस्पृह...अनंत मीलों लंबे
पसीनों की नदियों में ,गाढ़े रक्त की दलदल से उपथ २   
सुबह से सुबह तक,ज़न्म से म्रत्यु तक
अफ़सोस से अफ़सोस तक ,जिनके आगे
सिर्फ खिड़की रहित दीवारें होती हैं
और जिनको लड़ने की ना कोई तरकीब होती ना कोई सिरा
सिर्फ विवशता होती है

भूख गरीबी,महंगाई,अन्यायों
दुखों,विडंबनाओं लंबी फेहरिस्त है    
ये युद्ध चलते हैं सदियों से पीढ़ियों तक
घुलता जाता है इनका काला धुआं 
एक धीमे ज़हर की तरह
बेबसों पीढ़ियों की जीवन शिराओं में
और गाढा होता हुआ
संघर्षों की नियति सिर्फ एक अफ़सोस जो
संक्रमित होता है
जातियों,पीढ़ियों,भूखमरियों और अन्यायों में

देह गढ़न के पहले ही
आत्मा में घुस बैठ जाते हैं कुछ युद्ध
अपने संतापों और दुखों के जंग खाए औजार संभाले
ये वो लड़ाइयां हैं जो बंदूकों से नहीं
लड़ी जाती हैं विडंबनाओं से ,
लड़ी जाती हैं भूख से महंगाई और गरीबी से 
सर्वहारा शब्द की यात्रा जहाँ से भी शुरू हुई हो
अब तो सिर्फ मतलब एक ही है इसका

मनुष्य से हारा हुआ मनुष्य
थक चुके हैं वो अब लड़ते-लड़ते  
अब उन्हें कुछ आराम चाहिए
बस दे सकते हो दे दो
एक युद्ध विराम
ताकि अगले किसी अघोषित युद्ध के लिए
बदल लिए जाने की मोहलत मिले उन्हें 
नियति की लहुलुहान त्वचा और चिथड़ी आशाओं को   


समाज और स्त्री

मैंने वो सब किया जो
वो सब चाहते थे
पर जो मेरे सपनों का हिस्सा नहीं थे   

मैंने वो सब रटा जो चाहते थे वो
पर मुझे हमेशा अपनी काबिलियत पर भरोसा था
बावजूद इसके अपनी ही अक्ल पर शक करना
उनकी चाहत
और विवशता थी मेरी

ये वो लोग थे जिनके नाम थे पर शक्ल नहीं
जिनके संबोधन थे पर आत्मीयता नहीं
जो एक आत्मारहित शरीर थे
‘नाम’ के ‘नाम’ पर उनके पास सिर्फ एक शब्द था – हृदयहीन
.
 इमारत 
ना जाने कब
नींव खुदी
कब बल्लियाँ गडीं
कब गिट्टियां ढूलीं
कब गारा सना
कब लिंटर पड़े
कब छत तनी
कब पक्के फर्श ने ढंका
कच्ची ज़मीन को
कब सीमेंट की सिलेटी सीलन गायब हुई  
और कब भदरंगी दीवारों के चेहरे पुते 
ना जाने कहाँ से ....
वक़्त की बारिश हुई
और ढह गई ज़िंदगी |


लड़कियां
देखती हैं अपनों की नज़रों में
खुद को तमाम नाजों से घिरी
दुधमुही लडकियां

छूती हैं उम्मीदों के कम्पित होठों से   
अपनी प्रेमासिक्त इच्छाओं के सपनों को    
ये जवान होती हुई लडकियां
फख्र और तहजीब से बिठाती हैं अपनी पलकों पर  
अपनों की उम्मीदों  को
बढ़ती होती लडकियां

रोटी बनाती माँ की बगल में खड़े हो
नापती हैं अपना भविष्य लंबी होती लडकियां

पिता की आँखों में फ़िक्र का काजल
लगा देती हैं ये चुलबुलाती हँसती हुई लडकियां

ना जाने कब अपनी उम्र को
समय के हाथ सौंप
कुम्हलाने लगती हैं ये
खिलती हुई लडकियां

जन्मदिन के पहले स्टेशन से
 दूर भागती उम्र की रेल को
बाकी बची ख्वाहिशों की गठरी के साथ  
पकडती थकने लगती हैं ये
बदहवास लडकियां
और छोड़ देती हैं वो सिरा
जो कभी पकड़ा ही नहीं था पर
छूटता है अपनों की तरह जो
कभी अपना था भी नहीं

..... हैरान होती लडकियां  
 दूर अतीत के किसी क्षितिज पार
ताकती रहती हैं खुद को
बुढ़ियाती हुई लडकियां


Viewing all articles
Browse latest Browse all 273

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>